आदरणीय देवप्रिय जी,
आपने एकदम सही और सरल प्रश्न का उत्तर चाहा है। आपके प्रश्न का सम्बन्ध केवल गुजरात से नहीं, सम्पूर्ण भारत से है। मेरे भी मन में इस प्रकार के प्रश्न कौंधा करते हैं। मैं आज के बचपन को दृष्टिगत रखकर जब कभी अपना बचपन याद करता हूँ, तो मुझे याद आता है कि हमारे दौर के माता पिता अपने बच्चों के लिए नकल का प्रबन्ध नही करते थें। मुझे कई ऐसे परिवार याद आते हैं, जो अभावों में अपने बच्चों को गर्व करना सिखाते थे और ऐसे ही अभावग्रस्त लोगों का पूरे मोहल्ले में सम्मान होता था। हम बचपन में दर्शनपुरवा में रहा करते थे, वहीं एक शराब के व्यापारी भी रहते थें। आये दिन उनके यहाँ सत्यनारायण जी की कथा के बाद स्वादिष्ट प्रसाद वितरण किया जाता था परन्तु हम बच्चें भी उनके यहाँ का प्रसाद चोरी से लेते थे और घर में कभी नही बताते थे, मतलब गलत तरीके से धनपति होने वाले लोगों को समाज सम्मान नही देता था। आज शराब माफिया रामलीला आयोजन का उद्घाटन करते हैं। मिट्टी का तेल कालाबाजारी में बेचने वाले लोग शिक्षाशास्त्री कहे जाते है। मधुलिमये ने स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी और संसद सदस्य के नाते मिलने वाली पेंशन नही ली और अखबारों में लेख लिखकर जीवनयापन किया। कितने सांसदों ने उनका अनुकरण किया? शायद किसी ने नही, हमने अपनी आँखों से जगदीश अवस्थी को लोकसभा सदस्य रहने के दौरान साईकिल से चलते देखा है। सन्त सिंह यूसुफ, बाबू बदरे, मोतीलाल देहलवी, प्रभाकर त्रिपाठी, गणेश दत्त बाजपेयी को मिल गेटों के सामने सड़क किनारे चाय पीते देखा है लेकिन अब कोई राजनीतिक दल ऐसे लोगों को प्रत्याशी नही बनाता और यदि कोई खड़ा भी हो जाये तो हम उसे जीतने भी नही देते इसलिए कोई क्यों ? गाँधी, पटेल, विनोबा, महादेव भाई, लोहिया, जय प्रकाश, नम्बूदरीपाद को अपना आदर्श माने। आप जानते हैं कि पत्रकारिता में भी आदरणीय विष्णु जी अब आदर्श नही रहें, अब उन्हीं लोगों को प्रतिष्ठित पत्रकार माना जाता है। जिनको सरकार से उपकृत होने की महारथ हासिल है। मेरा अपना अनुभव है कि सिद्धान्तों पर अडिग रहकर ईमानदारी से जीवन जीना बिल्कुल कठिन नही है लेकिन अपने निकटतम लोग जब ऐसे लोगों को चिरकुट कहने लगते हैं तो ईमानदार जीवन मूर्खता का पर्याय दिखने लगता है और फिर इसकी व्यथा किसी को भी मधुलिमये नही, अमर सिंह बनने के लिए उत्प्रेरित करती है। देवप्रिय जी आपातकाल के दौरान अभावों में गर्व महसूस करने और चिरकुट कहे जाने वाले लोग बड़ी संख्या में जेल में थे परन्तु विधायक होने का अवसर पुष्पा तलवाड़ और मोतीराम जैसों को मिला जिनकी उस समय कोई राजनैतिक पृष्ठभूमि नही थी। संघर्ष राम बहादुर राय जैसो ने किया और फल आज कोई और भोग रहा है। सम्पूर्ण परिदृश्य भयावह दिखता है लेकिन अभी भी स्थितियों को बदला जा सकता है। क्योंकि अपनी नई पीढ़ी हमारी आपकी पीढ़ी से ज्यादा संवेदनशील और जिम्मेदार है परन्तु उसे अपने आस पास घर से बाहर तक अपनी ज्ञात आय पर जीवनयापन करने वाले लोग नही दिखते इसलिए ईमानदारी, बेईमानी का अन्तर उसे नही मालूम। उसे आई.ए.एस. टापर प्रदीप शुक्ला जैसे लोग दिखते है, जिनके रोज जेल जाने या उनकी जमानत होने का समाचार सुनायी पड़ता है। आज की पीढ़ी आदर्शविहीन पीढ़ी है और उसके लिए हमारी आपकी पीढ़ी जिम्मेदार है और उसे ही अब अपना यथास्थितिवादी रवैया त्यागकर अपने आस पास के प्रदीप शुक्ल, राजा भैया या मुख्तार अंसारी जैसे लोगों के समानान्तर एक आदर्श उपस्थित करने के लिए आगे आना होगा। याद रखिये कि यदि हमारी आपकी पीढ़ी ने खुद गाँधी, विनोबा, लोहिया, जय प्रकाश, नम्बूदरीपाद जैसा आदर्श अपने जीवनकाल में प्रस्तुत नही किया तो भावी पीढ़ियाँ हमें माफ नही करेंगी।