Sunday, 26 January 2014

लोकतन्त्र धरना प्रदर्शन से नही, जाति धर्म की राजनीति से कमजोर होता है............

प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू मानते थे कि लोकतन्त्र में सत्याग्रह धरना प्रदर्शन की कोई आवश्यकता नही है। दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरबिन्द केजरी वाल द्वारा सड़क पर धरना देने और धरना स्थल से ही सरकारी काम निपटाने की घटना को मुख्यमन्त्री पद की गरिमा के प्रतिकूल और अराजकता की ओर बढता कदम बताने वाले लोग नये सिरे से नेहरू के कथनो की सार्थकता सिद्ध करने का प्रयास कर रहे है। ये लोग भूल जाते है कि अहिंसक सत्याग्रह धरना प्रदर्शन मनुष्य जाति को भारत विशेषतः महात्मा गाँधी की प्रत्यक्ष देन है। बुराई, अत्याचार अन्याय का प्रतिकार करने के लिए इन तरीको का जन सिद्धान्त के रूप में प्रयोग अभूतपूर्व है। गाँधी जी के इन सिद्धान्तों ने आजादी दिलाकर जिस व्यक्ति को देश का प्रधानमन्त्री बनाया उसने और उसके वारिसो ने गाँधी की इस देन के सबसे क्रान्तिकारी मर्म को नष्ट करने की पूरी कोशिश की है। इसलिए अरबिन्द केजरीवाल के धरने का काँग्रेसी विरोध तो समझा में आता है लेकिन नेहरू की तर्ज पर भारतीय जनता प्रार्टी द्वारा इसे लोकतन्त्र विरोधी बताया जाना समझ से परे है।

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत धरना प्रदर्शन पर रोक लगाने की कार्यवाही अपने देश को विदेशी शासन की की देन है जो जन विरोधी नीतियों के विरूद्ध आम लोगों के आक्रोश को अभिव्यक्त करने की स्वतन्त्रता का हनन करती है। डाक्टर राम मनोहर लोहिया और उनके अनुयायिओं ने स्वतन्त्र भारत में इस धारा का हर उपलब्ध अवसर पर जबर्दस्त विरोध किया है। वे इस धारा को संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्राप्त भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के प्रतिकूल मानते थे। शुरूआत में इस धारा का प्रयोग जनता के विभिन्न समूहों के पारस्परिक सम्बन्धों को सुधारने के लिए किया जाता था, परन्तु अंग्रेजी शासन के विरूद्ध जब जनता के आन्दोलन प्रदर्शन प्रभावी होने लगे तो अंग्रेजो ने इस धारा के साथ लोक सुरक्षा का शब्द गढ़ कर आन्दोलनकारियों को कुचलने का हथियार बना लिया। इस धारा ने स्वतन्त्रता सेनानियो पर अनगिनत कहर ढाये है परन्तु नेहरू और उनके वारिसों ने इस धारा को विधि से नही हटाया बल्कि अंग्रेजो की तरह इस धारा का भयंकर दुरूपयोग करके जन आन्दोलनों को कुचलने का काम किया है। स्वतन्त्र भारत में डाक्टर लोहिया को देश की सुरक्षा भंग करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था जबकि सभी जानते है कि देश की आजादी के लिए डाक्टर लोहिया ने उस समय की सरकारो के कई मन्त्रियों से ज्यादा संघर्ष किया था, ज्यादा यातनायें झेली थी।
सरकार में रहते हुये अपनी माँगों के समर्थन में मन्त्रियों द्वारा धरना प्रदर्शन पहली बार आयोजित नही हुआ है। इसके पहले भी कई अवसरों पर मन्त्रियों ने अपने और अपनी पार्टी के राजनैतिक सामाजिक सरोकारों पर अपने मन्त्रिपद को हावी नही होने दिया। 1967 में उत्तर प्रदेश की पहली गैर काँग्रेसी सरकार के समाजवादी मन्त्रियों राम स्वरूप वर्मा और प्रभु नारायण सिंह ने ‘‘अंग्रेजी हटाओं’’ आन्दोलन के समर्थन में संसद के समक्ष गिरफ्तारी दी थी और तिहाड़ जेल मे रहकर मन्त्री पद की जिम्मेदारियों का निर्वहन किया था। केन्द्रीय स्वास्थय मन्त्री रहते हुये राजनारायण ने शिमला के मैदान में अंग्रेजी के जमाने से सभा करने पर लगे प्रतिबन्ध के विरूद्ध आयोजित प्रदर्शन का नेतृत्व किया था। समाजवादी नेता मधुलिमये ने संसद सदस्य के रूप मेें शपथ लेते हुये शपथ के निर्धारित शब्दो के अतिरिक्त ‘‘इस सरकार पर अंकुश रखने का काम भी पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी से करूँगा’’ कहकर स्थापित परम्परा का उल्लंघन किया था और उस समय भी काँग्रेसियों ने इसकी आलोचना की थी परन्तु इन घटनाओ से लोकतन्त्र कमजोर नही हुआ और न अराजकता का कोई माहौल पैदा हुआ। 
वर्तमान राजनीति मे मन्त्रिपद अन्तिम सत्य बन गया है। मन्त्रिपद पाने और उसे बचाये रखने के लिए सामाजिक राजनैतिक सरोकारों से नाता तोड़ लेना एक आम बात हो गई है। सुरक्षा और प्रोटोकाल के नाम पर विभिन्न राज्यों के मुख्यमन्त्री अपने ही मन्त्रियों और विधायको को सहजता से दर्शन लाभ नही देते। आम पार्टी कार्यकर्ताओं की पहँुच उन तक असम्भव हो जाती है और इसको लेकर कोई आक्रोश भी व्यक्त नही करता। इन सर्व स्वीकृत परिस्थितियों में एक मुख्यमन्त्री द्वारा आम लोगों के साथ सड़क पर धरना देने, रात में वहीं सोने की घटना ने सुविधा भोगी राजनेताओं की नींद उड़ा दी है। उन्हें लगने लगा है कि अब उनके कार्यकर्ता और मतदाता उनसे भी ऐसे आचरण की अपेक्षा करेंगे और उसके लिए वे कतई तैयार नही है।
प्रख्यात गाँधीवादी विचारक प्रभाष जोशी ने सत्ता के मदमस्त हाथी को अंकुश मे रखने और सत्ता को देश के साधनहीन लोगों की सेवा में लगाने का नैतिक दबाव बनाये रखने के लिए जन संघर्षो को प्रासांगिक बताया था। उन्होंने कहा था कि आखिर जेपी आन्दोलन का प्रयोजन ही यही था कि निर्वाचित प्रतिनिधि को सत्ता का सेवक बनने देने के बजाय जनता का प्रतिनिधि और सेवक बनाया जाय। लेकिन उन्हीं भाई लोगों ने जो जेपी आन्दोलन के राजनेता थे और जो सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा लगाते थे सत्ता में आने के बाद और भी निर्लज्जता से वही सब किया जो काँगे्रस के नेता करते थे। अपने लोगों को लूट की प्रक्रिया में शामिल करके उन्हें भ्रष्ट करो और उन्हीं भ्रष्ट लोगों की मदद से सत्ता को मुट्ठी में पकड़े रहों सत्ता में बने रहने के लिए वे सब धतकरम करो जिनके लिए कांग्रेसियों की आलोचना और भत्र्सना किया करते थे। जेपी आन्दोलन सत्ता की कांगे्रसी अपसंस्कृति के स्थान पर जनसेवी समर्पण को लाने का आन्दोलन था। उसके कन्धे पर चढ़कर जो भी नेता और पार्टी सत्ता की बन्दरबाँट के बँटवारे में आए उनने साबित किया कि राज चलाने का एक ही तरीका है और वह कांग्रेसी तरीका है। ये नेता और पार्टियाँ जेपी आन्दोलन के सब दिखावे को ताक पर रख कर सत्तारूढ़ हो गई। बेचारे जेपी कहते थे कि यह आन्दोलन इनमें से किसी राजनेता को इन्दिरा गाँधी की जगह बैठाने और गैरकाँग्रेसी पार्टियों का राज स्थापित करने के लिए नही है। यह उस जनता को सिंहासन पर बैठाने के लिए हे जो झोपड़ी से उठकर राजधानी की तरफ कूच कर रही है। जेपी आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रान्ति के नेताओं ने जनता को वापस झोपडि़यों में भेज दिया और सिंहासनों पर खुद कब्जा किए हुये है।
आज की युवा पीढ़ी ने गाँधी लोहिया जय प्रकाश के संघर्ष नही देखे। हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है का उद्घोष नही सुना। उन्हें इसके जादुई प्रभाव की जानकारी नही है। अरबिन्द केजरीवाल और उनके सहयोगियों ने युवा पीढ़ी से गाँधी और उनके अहिंसक सत्याग्रह का परिचय करा दिया है। सार्वजनिक जीवन में सादगी और सत्याग्रह की गाँधीवादी संस्कृति स्थापित राजनेताओ के पुत्र, पुत्रियों के सुरक्षित राजनैतिक भविष्य के लिए खतरनाक हो सकती है इसलिए एक स्वर से सभी स्थापित राजनेता इस संस्कृति को अराजकता का प्रर्याय बताने की मुहिम जारी किये हुये है।
जाति धर्म की राजनीति करने वाले दलो और उनके नेताओं ने गाँधी लोहिया जय प्रकाश को कभी पसन्द नही किया। सत्ता मे आने और बने रहने के लिए उनके नाम का उपयोग करते है। सभी दलो में सरोकारो की राजनीति पर जोर देने वाले कार्यकर्ता निष्प्रभावी है। जे.पी. आन्दोलन में अग्रिम पंक्ति के महत्वपूर्ण नेता राम बहादुर राय आज की राजनीति मे अप्रासांगिक हो गये है। नई पीढ़ी के कार्यकर्ता उनका नाम तक नही जानते जबकि भारतीय जनता पार्टी की द्वितीय पंक्ति के अधिकांश नेताओं ने उनके सानिध्य मे राजनीति का ककहरा सीखा था और इन्दिरा गाँधी ने सबसे पहले अपने सबसे बड़े हथियार मीसा का उनके विरूद्ध प्रयोग किया था।
लोहिया और जय प्रकाश के कथित अनुयायी नितीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और उनके पुत्र अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सरकारो ने काँगेसी सरकारो की तरह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 का भयंकर दुरूपयोग करके जन आन्दोलनों और आम लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का गला घोटा है। आये दिन कही न कही पुलिसिया अत्याचार और लाठी चार्ज की घटनायें इस तथ्य की पुष्टि करती है। वास्तव में जन आन्दोलनों को कोई सरकार पसन्द नही करती। परन्तु अब एक मुख्यमन्त्री ने खुद जन सरोकरो के लिए धारा 144 के तहत लागू निषेधाज्ञा के उल्लंघन का बीड़ा उठा लिया है और उनका यह आचरण लोकतन्त्र के लिए कतई खतरनाक नही है। मन्त्रिपद का दुरूपयोग करके अकूत सम्पत्ति कमाने वाले राजनेताओं के भ्रष्ट आचरण से लोकतन्त्र कमजोर नही हुआ इसलिए विश्वास रखना चाहिये कि सत्ता में रहकर सत्तामद से दूर रहने वालो के आचरण से भी लोकतन्त्र कभी कमजोर नही होगा बल्कि इससे लोगो की सहभागिता बढ़ेगी और लोकतन्त्र मजबूत होगा।

Sunday, 19 January 2014

दोषपूर्ण अभियोजन के लिए जिम्मेदारी चिन्हित की जाये...............

यदि सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले का राज्य सरकारो ने अनुपालन सुनिश्चित कराया तो अब जघन्य अपराधों की दोषपूर्ण विवेचना के लिए जिम्मेदार विवेचको और विचारण न्यायालय के समक्ष अभियोजन का समुचित पक्ष प्रस्तुत न करने वाले अभियोजको के विरूद्ध विभागीय कार्यवाही का मार्ग प्रशस्त होगा। विवेचना के बाद विचारण के लिए आरोप पत्र प्रेषित करने के पूर्व उपलब्ध साक्ष्य की एक स्वतन्त्र समिति द्वारा समीक्षा की जायेगी और सुनिश्चित किया जायेगा कि न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जाने वाली साक्ष्य अभियुक्त की दोष सिद्धि के लिए पर्याप्त हो। इस प्रक्रिया को अपनाने से किसी निर्दोष को केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट में नामजद हो जाने के कारण विचारण की यातना झेलने के लिए विवश नही होना पड़ेगा और अभियोजन को भी अधिकांश मामलो में अभियुक्त के विरूद्ध अधिरोपित आरोपों को सिद्ध करने में सहजता होगी।

         दिनांक 7 जनवरी 2014 को स्टेट आफ गुजरात बनाम किशन भाई आदि (क्रिमिनल अपील संख्या 1485 सन् 2008) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री सी. के. प्रसाद एवं श्री जगदीश सिंह केहर की खण्ड पीठ ने जघन्य अपराधों में अभियुक्तो की दोषमुक्ति को आपराधिक न्याय प्रशासन की विफलता घोषित किया है। खण्डपीठ ने कहा है कि अभियुक्तो की दोषमुक्ति से सिद्ध होता है कि निर्दोष को अनुचित तरीके से फँसाया गया है और दूसरी ओर पीडि़त परिवार सदा के लिए आहत हो जाता है ओर उसे अपने साथ हुये अपराध के दोषियों को सजा न दिला पाने का मलाल ताजिन्दगी बना रहता है। अभियोजन की कमियों के कारण निर्दोष का उत्पीड़न या दोषी होने के बावजूद केवल अभियोजन की कमियों के कारण किसी की भी दोषमुक्ति समाज की स्थायी सुख शान्ति के लिए घातक है।

          प्रथम सूचना रिपोर्ट में नामजद लोगों के विरूद्ध उन्हे दोषी  मानकर आरोप पत्र प्रेषित करने की प्रवृत्ति तेजी के साथ बढ़ी है और इसके कारण विवेचना कराने का उद्देश्य निरर्थक हो जाता है। दहेज हत्या के मामलो मे नाबालिग भाइयों और विवाहित बहनो को भी नामजद कर देना आम बात हो गई है। न्यायपूर्ण निष्पक्ष विवेचना न होने की दशा में ऐसे लोगों के विरूद्ध आरोप पत्र दाखिल होता है और वे सभी जेल जाने को विवश होते है।

         सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया फैसले मे कहा है कि ऐसे लोग वर्षो जेल में रहने के बाद जब रिहा होते है तो कोई उनका वह समय वापस नही दिला सकता जो उन्होंने निर्दोष होने के बावजूद जेल में बिताया है। कई बार अपने आपको निर्दोष साबित कराने के लिए उन्हें सर्वोच्च न्यायालय तक लम्बा कानूनी युद्ध लडना पडता है और उसके व्यय को वहन करने के लिए उन्हें कर्ज, शर्म और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है।

        सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रकार की स्थितियों में निर्दोष नागरिको के उत्पीड़न के लिए व्यवस्था को दोषी बताया है। राज्य का दायित्व है कि वे अपने नागरिको के मान सम्मान और उसकी गरिमा की रक्षा करे और किसी भी दशा में निर्दोष को उत्पीडि़त होने से बचाये। निर्णय में कहा गया है कि राज्य सरकारे अपने स्तर पर प्रक्रियागत व्यवस्था स्थापित करके सुनिश्चित कराये कि विचारण के लिए न्यायालय के समक्ष केवल उन्ही मामलों में आरोप पत्र प्रेषित किये जाये जिनमें सजा के लिए समुचित विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध हो। औपचारिकतावश आरोप पत्र प्रेषित न किये जाये बल्कि विवेचना पूरी हो जाने के बाद स्वतन्त्र मस्तिष्क का प्रयोग करके संकलित साक्ष्य की समीक्षा की जाये और यदि उनमें कोई कमी पाई जाये तो वेहिचक उन्हें दूर किया जाये। आवश्यकता प्रतीत हो तो नये सिरे से पुनः साक्ष्य संकलित की जाये परन्तु किसी भी दशा मे अपर्याप्त साक्ष्य के साथ आरोप पत्र न्यायालय के समक्ष प्रेषित नही किये जाने चाहियें। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाई गई इस उद्देश्यपरक प्रक्रिया से केवल उन्हीं लोगो के विरूद्ध आरोप पत्र प्रेषित किये जा सकेंगे जिनके विरूद्ध समुचित विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध होगी और उसके कारण अधिकांश अपराधो मे अभियोजन को अभियुक्तो के विरूद्ध अधिरोपित आरोप सिद्ध करने में सहजता होगी।

         सर्वोच्च न्यायालय ने दोषमुक्ति के प्रत्येक मामले को आपराधिक न्याय प्रशासन की विफलता मानते हुये निर्देश दिया है कि राज्य सरकार दोष मुक्ति के निर्णयो की समीक्षा करने के लिए प्रक्रियागत व्यवस्था स्थापित करे। पुलिस और अभियोजन के वरिष्ठ अधिकारियों को इस व्यवस्था के लिए जवाबदेह बनाया जाये। प्रत्येक निर्णय के गुणदोष पर विचार किया जाये और उसमें इंगित कमियों के लिए जिम्मेदार विवेचक या अभियोजक को चिन्हित किया जाये। कमियो को अभिलिखित करके उसके आधार पर विभागीय कार्यवाही सुनिश्चित कराई जाये। वर्तमान व्यवस्था के तहत प्रत्येक जनपद मे जिलाधिकारी की अध्यक्षता में अभियोजन अधिकारियों की बैठक आयोजित की जाती है परन्तु इस बैठक में लोक अभियोजको द्वारा प्रस्तुत दोष मुक्त आख्या पर चर्चा नही होती। दोष मुक्ति के कारणों को चिन्हित करने और उसके लिए दोषी विवेचक या अभियोजक की जवाबदेही निर्धारित करने का कोई तन्त्र नही है इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च स्तरीय समिति बनाने और उस समिति द्वारा निर्णयो की समीक्षा करने का निर्देश पारित किया है।

राज्य सरकारों को समझना होगा कि अपराधी हाईटेक हो गया है। प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य आधारित अभियोजन का युग समाप्त हो चुका है परन्तु विवेचक और अभियोजक आज भी पुराने तौर तरीको से काम करने को विवश है। केन्द्र सरकार द्वारा समुचित धनराशि उपलब्ध कराये जाने के बावजूद राज्य सरकारों ने विवेचक एवं अभियोजक की व्यवसायिक कुशलता बढ़ाने और समय के साथ उसे अपडेट रखने की कोई प्रक्रियागत व्यवस्था नही की है। राज्यो की इस कमी को दृष्टिगत रखकर निर्णय में विवेचको और अभियोजको के नियमित प्रशिक्षण देने का आदेश पारित किया गया है। कहा गया है कि प्रशिक्षण के लिए न्यायालयों द्वारा पारित निर्णयो, उसमे इंगित कमियों और दिन प्रतिदिन के अनुभवों के आधार पर पाठ्यक्रम तैयार किया जाये और प्रति वर्ष उसकी समीक्षा की जाये। संवेदनशील मामलों की विवेचना के लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाये। विवेचना में वैज्ञानिक साधनों और तरीको का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करके परिस्थितजन्य साक्ष्य संकलित करने का माहौल बनाया जाये।

         सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को लागू करने के लिए राज्य सरकारो को लोक अभियोजको की नियुक्ति प्रक्रिया में आमूल चूल परिवर्तन करने होंगे। विधि आयोग ने भी इस दिशा में कई सुझााव दिये है परन्तु राज्य सरकारे राजनैतिक कारणो से उनका पालन करने के लिए तैयार नही है। साधारण मारपीट के मुकदमो को लड़ने के लिए प्रशिक्षित अभियोजन अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है परन्तु हत्या डकैती जैसे जघन्य अपराधों के मुकदमो को लड़ने के लिए शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति उनके कार्य व्यवहार या व्यावसायिक कुशलता को दृष्टिगत रखकर नही की जाती बल्कि सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओ को उपकृत करने के लिए उनके नेताओं की अनुशंशा पर नियुक्ति की जाती है। नियुक्तियों के लिए सत्तारूढ़ दल के नेताओं की अनुशंशा को जनपद न्यायाधीश की अनुशंशा से ज्यादा वरीयता दी जाती है इसलिए आजादी के 66 वर्ष बाद भी व्यवसायिक कुशलता नियुक्ति का आधार नही बन सकी। मायावती के मुख्य मन्त्रित्वकाल मे सम्पूर्ण प्रदेश में एक साथ सभी शासकीय अधिवक्ताओं को हटा दिया गया था और उनके स्थान पर उन लोगो की नियुक्ति की गई जिन्होंने अधिवक्ता के नाते साधारण मारपीट का भी मुकदमा अदालत में नही लड़ा था। परिणाम स्वरूप उनमें से किसी ने भी अपने पूरे कार्यकाल के दौरान दोष मुक्ति के एक भी मामले में उच्च न्यायालय के समक्ष राज्य अपील दाखिल नही की है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस फैसले की प्रति सभी राज्यों के गृह सचिवों को प्रेषित करके इसे लागू करने के लिए 6 माह की अवधि निर्धारित की है। इसके पहले उत्तर प्रदेश पुलिस में महानिदेशक रहे श्री प्रकाश सिंह की याचिका पर आपराधों की विवचेना के लिए स्वतन्त्र इकाई बनाये जाने का आदेश पारित किया गया था, परन्तु किसी राज्य सरकार ने विवेचना की अलग इकाई बनाने की दिशा में कोई सार्थक पहल नही की। आशा की जा सकती है कि राज्य सरकारे सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के प्रति उपेक्षा का भाव नही अपनायेंगी।

Sunday, 12 January 2014

कोर्ट प्रोसीडिंग का प्रकाशन सच जानने का जरिया...................

मीडिया ट्रायल मीडिया ट्रायल का शोर मचाकर नामी गिरामी लोग कोर्ट प्रोसीडिग के प्रकाशन और प्रसारण को अदालती काम में हस्तक्षेप और उसकी अवमानना का हौव्वा खड़ा करके आम लोगों को सच जानने के अधिकार से वंचित रखने का षड्यन्त्र रच रहे है। कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन से सच उजागर होता है और उससे न्यायालय या न्यायाधीश कतई प्रभावित नही होते। आम लोगो को अदालत के सामने विचारण के दौरान अभियोजन अधिकारियों और गवाहों के आचरण उन पर पड़ने वाले दबाव विचारण के अतिशीघ्र निस्तारण में उत्पन्न अवरोधों उनके कारणो और उन सबके द्वारा न्याय को प्रभावित करने के प्रयासो की जानकारी पाने का अधिकार प्राप्त है। अपना संविधान देश के लोगों को सर्वोपरि मानता है। उसे कोर्ट प्रोसीडिंग सहित देश मे होने वाली किसी भी प्रकार की गतिविधि की जानकारी से वंचित रखना उसके संवैधानिक अधिकारों का हनन है।
कहा जाता है कि कोर्ट प्रोसीडि़ंग के प्रकाशन प्रसारण से सम्बन्धित पक्षकारों के हित कुप्रभावित होते है। आशाराम बापू, तरूण तेजपाल, न्यायमूर्ति गाँगुली जैसे राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लोगो का मामला सामने आने पर ऐसी बाते ज्यादा तेजी से कही जाती है। आशाराम बापू ने अपने घृणित कारनामो के प्रकाशन को रोकने के लिए अदालत की शरण ली थी। सार्वजनिक जीवन मे त्याग तपस्या और शुचिता का आवरण ओढे इस तरह के लोगों के आचरण को छिपाना राष्ट्र और समाज के व्यापक हितो के प्रतिकूल है। कोर्ट प्रोसीडि़ग के प्रकाशन से सम्बन्धित मामले में लोगों की जानकारी बढ़ती है, मनोबल बढ़ता है अकेलेपन का अहसास टूटता है और उसके द्वारा अदालत के सामने सच कहने का साहस मिलता है। न्यायालय अवमान अधिनियम 1971 की धारा 5 स्पष्ट करती है कि अदालती कार्यवाही की निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण आलोचना अवमानना की परिधि में नही आती। सर्वोच्च न्यायालय ने राम दयाल मरकरहा बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश (1978-ए0आई0आर0-एस.सी. पेज 921) में प्रतिपादित किया था कि न्यायिक कार्यो की निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण आलोचना को न्याययलय की अवमानना नही माना जा सकता ऐसी दशा में सुस्पष्ट है कि प्रोसीडिंग के प्रकाशन से किसी पक्षकार का न्यायपूर्ण हित कुप्रभावित नही हो सकता इससे केवल वास्तविकता उजागर होती है जो विवेचक की केस डायरी में छिपी होती है और बिना प्रकाशन प्रसारण के आम जनता तक उसकी पहुँच असम्भव है।
सर्वोच्च न्यायालय ने सैवाल कुमार गुप्ता बनाम बी.के. सेन (ए0आई0आर0- 1961-एस0सी0-पेज 633) के द्वारा विचारण के दौरान अदालती कार्यवाही से सम्बन्धित तथ्यों को समाचार पत्रों में प्रकाशित न करने का आदेश पारित किया है। आरूषि काण्ड से सम्बन्धित तथ्यों के प्रकाशन के कारण उत्पन्न समस्याओं का जिक्र अदालत ने किया है। यह दोनों मामले अपनी जगह है और दोनो के संदर्भ अलग है। कानपुर में चर्चित दिव्या काण्ड में स्थानीय पुलिस ने अपने तरीके से एक पड़ोसी युवक को बालात्कार का दोषी बताकर जेल भेज दिया परन्तु समाचार पत्रों ने परिस्थिति जन्य साक्ष्य को आधार बनाकर पुलिस कथानक को खारिज कर दिया। तत्कालीन एस0एस0पी0 के निर्देश पर पुलिस कर्मियों ने हिन्दुस्तान के कार्यालय में जबरन घुसकर पुलिसिया ताण्डव किया। समाचार पत्रों ने दिव्या काण्ड को शहर का मुद्दा बना दिया नये सिरे से दुबारा जाँच हुई और फिर दोषी बताया जा रहा युवक निर्दोष पाया गया। आपराधिक मामलों में जाँच विवेचना या विचारण की कार्यवाही के प्रकाशन पर रोक लगी होती तो दिव्या काण्ड के वास्तविक दोषी कभी चिन्हित नही हो पाते और एक निर्दोष युवक ताजिन्दगी दागी बना रहता।
यह सच है कि कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन में प्रेस की स्वतन्त्रता और निष्पक्ष विचारण के अधिकार के मध्य बैलेन्स बनाये रखा जाना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने आर. राज गोपाल बनाम स्टेट आफ तमिलनाडु (1994-6-एस0सी0सी0 पेज 632) के द्वारा लैंगिक आपराधो में पीडि़ता की पहचान सार्वजनिक न करने का निर्णय पारित किया है। इस आशय के कई अन्य दिशा निर्देश विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी पारित किये है। सभी समाचार पत्र और टेलीविजन चैनल इसका कड़ाई से पालन करते है, परन्तु इस निर्णय का लाभ किसी भी दशा में अभियुक्त को नही दिया जा सकता। अभियुक्तों की तरफ से कहा जाता है कि विचारण के दौरान उनका नाम सार्वजनिक हो जाने से न्यायालय द्वारा दोषी पाये जाने के पहले उन्हें दोषी मान लिया जाता है और यदि न्यायालय के समक्ष वे निर्दोष सिद्ध हो गये तो क्या चकनाचूर हो गई उनकी छवि को चमकाने का कोई प्रयास किया जायेगा ? बिल्कुल नही किया जायेगा क्योंकि नामी गिरामी लोगों के मामलो में प्रायः पाया जाता है कि उनकी निर्दोषिता गवाहो की पक्षद्रोहिता या अन्य किसी तकनीकी कारण पर आधारित होती है। अदालत के सामने वे सिद्ध नही कर पाते कि उनके विरूद्ध अधिरोपित आरोप एकदम फर्जी थे। उन्हें केवल सन्देह का लाभ देकर दोषमुक्त किया जाता है इसलिए दिन प्रतिदिन की कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन से उनकी छवि पर लगने वाले दाग का आरोप न्यायसंगत नही है।
कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन से अदालती कार्यवाही प्रभावित होने के आरोप नये नही है। अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी इस विषय पर विधिवेत्ताओं मे मतभेद रहा है। माना जाता है कि समाचार पत्रों में प्रकाशन से न्यायाधीश का मन प्रभावित होता है। लार्ड डेनिंग इसे सही नही मानते। उनका कहना था कि कुशल न्यायाधीश केवल उपलब्ध तथ्यों से प्रभावित होता है। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने जान डी पेन्नेकाम्य बनाम स्टेट आफ फ्लोरिडा (1946-328-यू0एस0 331) के द्वारा स्पष्ट किया था कि कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन से न्यायाधीश प्रभावित  नही होता। न्यायालय कक्ष में विचारण के समय पत्रावली में प्रस्तुत किये जाने वाले तथ्य उसे प्रभावित करते है। अन्य किसी तरीके से उसके प्रभावित हो जाने की बात न्यायोचित नही है। ‘‘रिपोर्टिंग आफ कोर्ट प्रोसीडिंग बाई मीडिया’’ विषय पर आयोजित वर्कशाप को सम्बोधित करते हुये तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति श्री के.जी. बालाकृष्णन ने अमेरिकी सुप्रीमकोर्ट के फैसले को उद्घृत करते हुये लार्ड डेनिंग के विचारो से सहमति जताई थी।
विधि आयोग ने ‘‘ट्रायल बाई मीडिया फ्री स्पीच बनाम फेयर ट्रायल’’ विषय पर भारत सरकार के समक्ष प्रस्तुत अपनी 200वीं रिपोर्ट में न्यायालय की कार्यवाही में अवरोध या हस्तक्षेप करने के आशय से प्रकाशित समाचारों को अवमानना की परिधि में माना है। न्यायालय अवमान अधिनियम 1971 के तहत प्राप्त अधिकारों का प्रयोग न्यायालयों द्वारा पारित निर्णयों आदेशो दिशा निर्देशों का अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिए किया जाता है। समाचार पत्रो या उनके सम्पादको के विरूद्ध इस अधिनियम के तहत प्राप्त अधिकारों का प्रयोग केवल उसी स्थिति में किया जा सकता है जब प्रकाशित समाचार से दुर्भावना परिलक्षित होती हो और उसमें न्यायाधीश की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किये गये हो।
विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में अभियुक्त की गिरफ्तारी के बाद उसके आपराधिक इतिहास एवं संस्वीकृति के प्रकाशन प्रश्नगत विवाद के गुणदोष पर टिप्पणी फोटो पुलिस की गतिविधियों गवाहो की आलोचना न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत होने के पूर्व साक्ष्य का प्रकाशन और साक्षियों के साक्षात्कार के प्रकाशन को अवमानना की परिधि में माना है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट मे न्यायालय में विचाराधीन मामले (सब-ज्यूडिस) की भी व्याख्या की है। सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों का हवाला देकर आपराधिक मामलों में अभियुक्त की गिरफ्तारी को विचारण की शुरूआत मानते हुये कहा गया है कि अभियुक्त की गिरफ्तारी के बाद समाचार पत्रों में उसका आपराधिक इतिहास या पूर्व चरित्र प्रकाशित करना अवमानना की परिधि में आता है। उनका मानना है कि इस प्रकार के प्रकाशन प्रसारण से  जमानत प्रार्थनापत्र की सुनवाई के समय निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का हनन होता है। आज की परिस्थितियों में इस अवधारणा से सहमत होना उचित नही है। आशाराम बापू के मामले में कोर्ट प्रोसीडिंग और उससे सम्बन्धित सूचनाओं के प्रकाशन से कई पीडि़तों की हिम्मत बढ़ी और उन्होंने आगे बढ़कर अपने साथ आशाराम द्वारा किये गये अपराध का खुलासा करने में कोई हिचक नही दिखायी। समाचारों के प्रकाशन के बल पर ही न्यायमूर्ति गाँगूली को पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा है।
विधि आयोग ने प्रेस की स्वतन्त्रता और निष्पक्ष विचारण के अधिकार के मध्य न्यायपूर्ण बैलेन्स बनाये रखने के लिए पत्रकारों को भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से सम्बन्धित प्रावधानों अवमानना विधि और मानवाधिकारों के परिप्रेक्ष्य में प्रशिक्षित किये जाने की आवश्यकता बतायी है और इन विषयों को पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने का सुझाव दिया है। न्यायमूर्ति श्री के. जी. बालाकृष्णन ने भी प्रेस काउन्सिल आफ इण्डिया और एडीटर्स गिल जैसी संस्थानों से इस विषय पर स्पष्ट नीति बनाने का अनुरोध किया है।

Sunday, 5 January 2014

कारपोरेट घरानों के प्रभाव ने भुला दिया श्रमिकों का बलिदान ..........

श्रमिक राजनीति में संघर्ष और त्याग तपस्या की परम्परा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर कामरेड दौलत राम नही रहे। उनके निधन से हर जोर जुल्म के टक्कर मे संघर्ष हमारा नारा है को मूल मन्त्र मानने और उसके आधार पर असंघटित क्षेत्र के श्रमिको को एक करने के सर्वदेशीय प्रयासो को एक गम्भीर झटका लगा है। कानपुर श्रमिक राजनीति का तीर्थ स्थल है, विश्वविद्यालय है। गणेश शंकर विद्यार्थी, एस.एम. बनर्जी सूर्य प्रसाद अवस्थी, संतोष चन्द्र कपूर, हरिहर नाथ शास्त्री, अर्जुन अरोड़ा, रामनरेश सिंह उर्फ बड़े भाई कामरेड राम आसरे, राजाराम शास्त्री, गणेश दत्त बाजपेई, मकबूल अहमद खाँ, बिमल मेहरोत्रा, रवि सिन्हा, सन्त सिंह, युसुफ जैसे कई लोगों ने यहाँ संघर्ष का पाठ पढ़ा और फिर देश विदेश में त्याग तपस्या के झण्डे गाड़कर कानपुर की श्रमिक राजनीति का नाम रोशन किया है। महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन ने अपनी पुस्तक नये भारत के नये नेता मे कामरेड सन्त सिंह यूसुफ का गुणगान करके कानपुर के श्रमिक आन्दोलन की महत्ता को रेखांकित किया है।
साम्यवादी विचारक ई.एम0एस0 नंबूदिरिपाद ने अपनी पुस्तक ‘‘भारत में स्वाधीनता संग्राम’’ मे कानपुर की श्रमिक राजनीति के गौरवमय इतिहास का उल्लेख करते हुये बताया है कि वेतन में बढ़ोत्तरी और अपनी यूनियन को मान्यता दिये जाने की माँग को लेकर जुलाई 1937 में कानपुर की एक ब्रिटिश स्वामित्व वाली कपड़ा मिल की हड़ताल श्रमिक संघर्ष का एक शानदार उदाहरण है। हलाँकि इस हड़ताल को संघटित करने और दिशा देने में कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट सबसे आगे थे लेकिन स्थानीय काँग्रेस कमेटी ने भी इसमें सक्रिय भूमिका निभाई। कानपुर की इस हड़ताल ने देश भर मे मजदूरो के संघर्ष के लिए माडल का काम किया।
सम्पूर्ण देश की श्रमिक राजनीति का केन्द्र बिन्दु रहा इस शहर का श्रमिक आन्दोलन आज निस्तेज हो गया है। आर्डनेन्स फैक्ट्रियो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक और केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में टेªड यूनियन गतिविधियाँ अब कही दिखाई नही देती। संघटित क्षेत्र के कारखाने बन्द हो गये और असंघटित क्षेत्र में श्रमिको का शोषण तेजी से बढ़ा है। पिछले वर्ष लोहिया स्टार लिंगर के गेट पर सभा करते समय कामरेड दौलतराम और उनके साथियों को गिरफ्तार किया गया था। इसके पहले या इसके बाद पिछले दो दशको में किसी श्रमिक आन्दोलन के कारण अधिकारियों की नीद हराम नही हुई है। यह वही शहर है जहाँ हर गली मुहल्ले में ‘‘कमाने वाला खायेगा, लूटने वाला जायेगा’’ हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है का उद्घोष सुनाई पड़ता था। सरमायेदारों पूँजीपतियों के अत्याचार के सामने मेहनतकशों की आवाज बुलन्द रहा करती थी। श्रमिको और श्रमिक आन्दोलनो का मनोबल कभी कमजोर नही हुआ। आठ घण्टे का कार्य दिवस सप्ताह में एक दिन का अवकाश ई.एस.आई. भविष्यनिधि जैसे सुविधायें श्रमिको ने संघर्ष करके अपने साथियों का बलिदान देकर प्राप्त की है। किसी पूँजीपति या सरकार ने श्रमिको को उपहार में कुछ भी नही दिया है।
श्रमिको को संघटित करना और फिर कल कारखानों मे उनके लिए मूलभूत मानवीय सुविधायें जुटाना सदा से कठिन काम रहा है। श्रमिकों को अपने अधिकारो के लिए जागरूक करने के लिए बढ़ चढ़कर काम करने कार्यकर्ताओं के सामने नौकरी खोने का खतरा सदा बरकरार रहता था। उसके बावजूद कल कारखानो से ही क्रान्तिकारी श्रमिक नेतृत्व उभरा। सूर्य प्रसाद अवस्थी, प्रभाकर त्रिपाठी, राम नारायण पाठक, एस.एम. बनर्जी जैसे नेता कल कारखानों की देन है। कानपुर मे तत्कालीन एल्गिन काटन स्पिनिंग एण्ड वीविंग मिल्स कम्पनी लिमिटेड के साधारण श्रमिक कामदत्त ने पहली श्रमिक यूनियन की नीव डाली। स्वतन्त्र भारत में भी कारखानों में श्रमिक संघ बनाना कोई आसान काम नही रहा है। आज भी लोहिया स्टार लिंगर जैसे कई कारखानों में यूनियन बनाने के कारण श्रमिकों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। 
सत्तर के दशक में काँग्रेसी सांसद रामरतन गुप्ता के कारखाने लक्ष्मी रतन काटन मिल में श्रमिको की अपनी कोई यूनियन नही थी। मिल मालिक के पसन्दीदा लोगों ने एक यूनियन बना रखी थी। जिस पर उन्ही के लोगो का आधिपत्य था। काँग्रेसी सांसद का कारखाना होने के कारण इस मिल मे श्रम कानूनों का आदतन उल्लंघन किया जाता था। अन्य मिलों के श्रमिकों को प्राप्त मूलभूत सुविधायें भी श्रमिको को प्राप्त नही थी। सवर्ण जातियों के लोग अपनी जाति छिपाकर हरिजन बनकर यहाँ नौकरी पाते थे। मिल मालिक राम रतन गुप्ता की मनमानी को यहाँ श्रम कानून के रूप में मान्यता दी जाती थी। श्रम विभाग के अधिकारियों का यहाँ कोई हस्तक्षेप नही था। जे.के. मैन्यूफैक्चर्स (कैलाश मिल) के साधारण श्रमिक शिव किशोर ने इस मिल में श्रमिकों को संघटित करने का बीड़ा उठाया। अपने समाजवादी साथियों एन.के. नायर एडवोकेट और रघुनाथ सिंह के साथ मिलकर उन्होंने लक्ष्मी रतन मजदूर पंचायत का गठन किया। इस दौरान मालिको ने उनके कई साथियों को नौकरी से निष्कासित किया लेकिन श्रमिक आन्दोलन और उसके ईमानदार नेतृत्व के बल पर राम रतन गुप्ता को झुकना पड़ा। निष्कासित श्रमिक नौकरी पर वापस लिये गये। श्रमिको को पहली बार अपने पदो पर स्थायी किया गया और सेवा निवृत्ति के बाद उन्हें ग्रेच्युटी का लाभ मिला। श्रमिक नेता गणेश दत्त बाजपेई के श्रम मन्त्रित्व काल में भी इस मिल के श्रमिको को हड़ताल करनी पड़ी थी और श्रमिक नेता शिव किशोर सहित कई श्रमिको के विरूद्ध आपराधिक मुकदमें पंजीकृत किये गये और उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेजा गया। 
तब की तुलना मे अब श्रमिकों को संघटित करना ज्यादा कठिन हो गया है। आज देश की राजनीति कारपोरेट घरानों से नियन्त्रित एवं संचालित होती है। त्याग तपस्या वाली श्रमिक राजनीति इन घरानों को रास नही आती। श्रमिक संघठनों को कमजोर रखना उनका प्रिय शगल है। सरकार अधिकारी और राजनेता उनकी मद्द करते है। अधिकांश सांसद किसी न किसी कारपोरेट घराने का प्रतिनिधित्व करते है और उन्हीं के हितों की सुरक्षा के लिए अपना सर्वोत्तम् न्योछावर करना अपना कर्तव्य मानते है। इसीलिए संसद में श्रमिको के मुद्दो पर काम रोको प्रस्ताव नही सुनाई देते। गुडगाँव के मारूति उद्योग के श्रमिकों की व्यथा को संसद में नही सुना गया। आज भी श्रमिको की रिहाई नही हो सकी है। उनके परिवार गम्भीर आर्थिक संकट का शिकार है। एक साजिश के तहत कल कारखानों में श्रमिको की बेहतरी के लिए अपना जीवन न्योछावर करने वाले श्रमिको, श्रमिक नेताओं और उनकी शहादत को महत्वहीन करने का अभियान जारी है। मृत्यु के समय कामरेड दौलतराम के बैंक खाते में दस रूपये भी नही थे। इसके पहले उत्तर प्रदेश सरकार मे श्रम मन्त्री और दो बार विधायक रहे श्रमिक नेता प्रभाकर त्रिपाठी की मृत्यु के समय उनके बैंक खाते में केवल सात सौ रूपये की जमा पूँजी थी। एकाध अपवादों को छोड़कर अधिकांश श्रमिक नेताओं ने अपने प्रभाव का प्रयोग करके जमीन जायदाद नही जुटाई। अपने मीडिया घरानो को श्रमिक नेताओं की शहादत याद नही आती। 6 जनवरी 1947 को सवेतन अवकाश की माँग को लेकर निकले श्रमिको के जलूस पर काँग्रेस की तत्कालीन अन्तरिम सरकार ने कानपुर के जरीब चैकी चैराहे पर गोली चलवाई थी जिसमें महिला श्रमिक वीरांगना सरस्वती देवी सहित सात श्रमिक शहीद हुये थे। श्रमिक साथियों के इस बलिदान के कारण आज सभी नौकरी पेशा लोग सवेतन अवकाश की सुविधा भोग रहे है परन्तु उनके बलिदान को याद करने की फुर्सत किसी के पास नही है।
परतन्त्र भारत में श्रमिको को संघटित करने की शुरूआत करने वाले पण्डित कामदत्त से लेकर कामरेड दौलत राम तक के संघर्ष के बीच एक लम्बा अन्तराल बीता है। इस दौरान साजिश के तहत सरोकारो की राजनीति करने वाले श्रमिक नेताओं को महत्वहीन किया गया। एक नये प्रकार का आक्रामक नेतृत्व उभारा गया जिसे तत्काल लोकप्रियता मिली और उसी के कारण श्रमिक आन्दोलन का मूल चरित्र बदल गया और कल कारखानों की बन्दी का मार्ग प्रशस्त हुआ। श्रमिक हितों की रक्षा के लिए काम करने वाली टेªड यूनियने कानपुर के मूल चरित्र को बचाने में बुरी तरह असफल हुई है। श्रमिक चीखता चिल्लाता रहा, असहाय हो गया, उसे कहीं से न्याय नही मिला, उसे वी.आर.एस. लेने के लिए मजबूर होना पड़ा और आज उसके सामने उसे रोजी रोटी देने वाले कारखाने कबाड़ के भाव बेचे जा रहे है। बी.आई.सी. को मिले अभी बची है उनमे उत्पादन शुरू कराने की बाते एक संवेदनहीन चुनावी वायदा है। यह संवेदनहीनता घातक है और इसके दूरगामी परिणाम ज्यादा खतरनाक हो सकते है। यह सवाल कानपुर की अस्मिता का नही है बल्कि इसमें हजारो परिवारो की रोजी रोटी, उनके जीवन और अस्तित्व का भी सवाल जुड़ा है। इस त्रासदी से बचने का एक मात्र उपाय यही हो सकता है कि कानपुर की जनता एक जुट होकर सड़क पर उतरे। जनशक्ति से ही कानपुर के मूल चरित्र को बचाया जा सकता है। इसी प्रकार के प्रयासो से कामरेड दौलतराम को उनकी त्याग तपस्या और उनके संघर्षों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है।