मीडिया ट्रायल मीडिया ट्रायल का शोर मचाकर नामी गिरामी लोग कोर्ट प्रोसीडिग के प्रकाशन और प्रसारण को अदालती काम में हस्तक्षेप और उसकी अवमानना का हौव्वा खड़ा करके आम लोगों को सच जानने के अधिकार से वंचित रखने का षड्यन्त्र रच रहे है। कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन से सच उजागर होता है और उससे न्यायालय या न्यायाधीश कतई प्रभावित नही होते। आम लोगो को अदालत के सामने विचारण के दौरान अभियोजन अधिकारियों और गवाहों के आचरण उन पर पड़ने वाले दबाव विचारण के अतिशीघ्र निस्तारण में उत्पन्न अवरोधों उनके कारणो और उन सबके द्वारा न्याय को प्रभावित करने के प्रयासो की जानकारी पाने का अधिकार प्राप्त है। अपना संविधान देश के लोगों को सर्वोपरि मानता है। उसे कोर्ट प्रोसीडिंग सहित देश मे होने वाली किसी भी प्रकार की गतिविधि की जानकारी से वंचित रखना उसके संवैधानिक अधिकारों का हनन है।
कहा जाता है कि कोर्ट प्रोसीडि़ंग के प्रकाशन प्रसारण से सम्बन्धित पक्षकारों के हित कुप्रभावित होते है। आशाराम बापू, तरूण तेजपाल, न्यायमूर्ति गाँगुली जैसे राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लोगो का मामला सामने आने पर ऐसी बाते ज्यादा तेजी से कही जाती है। आशाराम बापू ने अपने घृणित कारनामो के प्रकाशन को रोकने के लिए अदालत की शरण ली थी। सार्वजनिक जीवन मे त्याग तपस्या और शुचिता का आवरण ओढे इस तरह के लोगों के आचरण को छिपाना राष्ट्र और समाज के व्यापक हितो के प्रतिकूल है। कोर्ट प्रोसीडि़ग के प्रकाशन से सम्बन्धित मामले में लोगों की जानकारी बढ़ती है, मनोबल बढ़ता है अकेलेपन का अहसास टूटता है और उसके द्वारा अदालत के सामने सच कहने का साहस मिलता है। न्यायालय अवमान अधिनियम 1971 की धारा 5 स्पष्ट करती है कि अदालती कार्यवाही की निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण आलोचना अवमानना की परिधि में नही आती। सर्वोच्च न्यायालय ने राम दयाल मरकरहा बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश (1978-ए0आई0आर0-एस.सी. पेज 921) में प्रतिपादित किया था कि न्यायिक कार्यो की निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण आलोचना को न्याययलय की अवमानना नही माना जा सकता ऐसी दशा में सुस्पष्ट है कि प्रोसीडिंग के प्रकाशन से किसी पक्षकार का न्यायपूर्ण हित कुप्रभावित नही हो सकता इससे केवल वास्तविकता उजागर होती है जो विवेचक की केस डायरी में छिपी होती है और बिना प्रकाशन प्रसारण के आम जनता तक उसकी पहुँच असम्भव है।
सर्वोच्च न्यायालय ने सैवाल कुमार गुप्ता बनाम बी.के. सेन (ए0आई0आर0- 1961-एस0सी0-पेज 633) के द्वारा विचारण के दौरान अदालती कार्यवाही से सम्बन्धित तथ्यों को समाचार पत्रों में प्रकाशित न करने का आदेश पारित किया है। आरूषि काण्ड से सम्बन्धित तथ्यों के प्रकाशन के कारण उत्पन्न समस्याओं का जिक्र अदालत ने किया है। यह दोनों मामले अपनी जगह है और दोनो के संदर्भ अलग है। कानपुर में चर्चित दिव्या काण्ड में स्थानीय पुलिस ने अपने तरीके से एक पड़ोसी युवक को बालात्कार का दोषी बताकर जेल भेज दिया परन्तु समाचार पत्रों ने परिस्थिति जन्य साक्ष्य को आधार बनाकर पुलिस कथानक को खारिज कर दिया। तत्कालीन एस0एस0पी0 के निर्देश पर पुलिस कर्मियों ने हिन्दुस्तान के कार्यालय में जबरन घुसकर पुलिसिया ताण्डव किया। समाचार पत्रों ने दिव्या काण्ड को शहर का मुद्दा बना दिया नये सिरे से दुबारा जाँच हुई और फिर दोषी बताया जा रहा युवक निर्दोष पाया गया। आपराधिक मामलों में जाँच विवेचना या विचारण की कार्यवाही के प्रकाशन पर रोक लगी होती तो दिव्या काण्ड के वास्तविक दोषी कभी चिन्हित नही हो पाते और एक निर्दोष युवक ताजिन्दगी दागी बना रहता।
यह सच है कि कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन में प्रेस की स्वतन्त्रता और निष्पक्ष विचारण के अधिकार के मध्य बैलेन्स बनाये रखा जाना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने आर. राज गोपाल बनाम स्टेट आफ तमिलनाडु (1994-6-एस0सी0सी0 पेज 632) के द्वारा लैंगिक आपराधो में पीडि़ता की पहचान सार्वजनिक न करने का निर्णय पारित किया है। इस आशय के कई अन्य दिशा निर्देश विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी पारित किये है। सभी समाचार पत्र और टेलीविजन चैनल इसका कड़ाई से पालन करते है, परन्तु इस निर्णय का लाभ किसी भी दशा में अभियुक्त को नही दिया जा सकता। अभियुक्तों की तरफ से कहा जाता है कि विचारण के दौरान उनका नाम सार्वजनिक हो जाने से न्यायालय द्वारा दोषी पाये जाने के पहले उन्हें दोषी मान लिया जाता है और यदि न्यायालय के समक्ष वे निर्दोष सिद्ध हो गये तो क्या चकनाचूर हो गई उनकी छवि को चमकाने का कोई प्रयास किया जायेगा ? बिल्कुल नही किया जायेगा क्योंकि नामी गिरामी लोगों के मामलो में प्रायः पाया जाता है कि उनकी निर्दोषिता गवाहो की पक्षद्रोहिता या अन्य किसी तकनीकी कारण पर आधारित होती है। अदालत के सामने वे सिद्ध नही कर पाते कि उनके विरूद्ध अधिरोपित आरोप एकदम फर्जी थे। उन्हें केवल सन्देह का लाभ देकर दोषमुक्त किया जाता है इसलिए दिन प्रतिदिन की कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन से उनकी छवि पर लगने वाले दाग का आरोप न्यायसंगत नही है।
कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन से अदालती कार्यवाही प्रभावित होने के आरोप नये नही है। अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी इस विषय पर विधिवेत्ताओं मे मतभेद रहा है। माना जाता है कि समाचार पत्रों में प्रकाशन से न्यायाधीश का मन प्रभावित होता है। लार्ड डेनिंग इसे सही नही मानते। उनका कहना था कि कुशल न्यायाधीश केवल उपलब्ध तथ्यों से प्रभावित होता है। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने जान डी पेन्नेकाम्य बनाम स्टेट आफ फ्लोरिडा (1946-328-यू0एस0 331) के द्वारा स्पष्ट किया था कि कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन से न्यायाधीश प्रभावित नही होता। न्यायालय कक्ष में विचारण के समय पत्रावली में प्रस्तुत किये जाने वाले तथ्य उसे प्रभावित करते है। अन्य किसी तरीके से उसके प्रभावित हो जाने की बात न्यायोचित नही है। ‘‘रिपोर्टिंग आफ कोर्ट प्रोसीडिंग बाई मीडिया’’ विषय पर आयोजित वर्कशाप को सम्बोधित करते हुये तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति श्री के.जी. बालाकृष्णन ने अमेरिकी सुप्रीमकोर्ट के फैसले को उद्घृत करते हुये लार्ड डेनिंग के विचारो से सहमति जताई थी।
विधि आयोग ने ‘‘ट्रायल बाई मीडिया फ्री स्पीच बनाम फेयर ट्रायल’’ विषय पर भारत सरकार के समक्ष प्रस्तुत अपनी 200वीं रिपोर्ट में न्यायालय की कार्यवाही में अवरोध या हस्तक्षेप करने के आशय से प्रकाशित समाचारों को अवमानना की परिधि में माना है। न्यायालय अवमान अधिनियम 1971 के तहत प्राप्त अधिकारों का प्रयोग न्यायालयों द्वारा पारित निर्णयों आदेशो दिशा निर्देशों का अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिए किया जाता है। समाचार पत्रो या उनके सम्पादको के विरूद्ध इस अधिनियम के तहत प्राप्त अधिकारों का प्रयोग केवल उसी स्थिति में किया जा सकता है जब प्रकाशित समाचार से दुर्भावना परिलक्षित होती हो और उसमें न्यायाधीश की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किये गये हो।
विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में अभियुक्त की गिरफ्तारी के बाद उसके आपराधिक इतिहास एवं संस्वीकृति के प्रकाशन प्रश्नगत विवाद के गुणदोष पर टिप्पणी फोटो पुलिस की गतिविधियों गवाहो की आलोचना न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत होने के पूर्व साक्ष्य का प्रकाशन और साक्षियों के साक्षात्कार के प्रकाशन को अवमानना की परिधि में माना है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट मे न्यायालय में विचाराधीन मामले (सब-ज्यूडिस) की भी व्याख्या की है। सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों का हवाला देकर आपराधिक मामलों में अभियुक्त की गिरफ्तारी को विचारण की शुरूआत मानते हुये कहा गया है कि अभियुक्त की गिरफ्तारी के बाद समाचार पत्रों में उसका आपराधिक इतिहास या पूर्व चरित्र प्रकाशित करना अवमानना की परिधि में आता है। उनका मानना है कि इस प्रकार के प्रकाशन प्रसारण से जमानत प्रार्थनापत्र की सुनवाई के समय निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का हनन होता है। आज की परिस्थितियों में इस अवधारणा से सहमत होना उचित नही है। आशाराम बापू के मामले में कोर्ट प्रोसीडिंग और उससे सम्बन्धित सूचनाओं के प्रकाशन से कई पीडि़तों की हिम्मत बढ़ी और उन्होंने आगे बढ़कर अपने साथ आशाराम द्वारा किये गये अपराध का खुलासा करने में कोई हिचक नही दिखायी। समाचारों के प्रकाशन के बल पर ही न्यायमूर्ति गाँगूली को पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा है।
विधि आयोग ने प्रेस की स्वतन्त्रता और निष्पक्ष विचारण के अधिकार के मध्य न्यायपूर्ण बैलेन्स बनाये रखने के लिए पत्रकारों को भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से सम्बन्धित प्रावधानों अवमानना विधि और मानवाधिकारों के परिप्रेक्ष्य में प्रशिक्षित किये जाने की आवश्यकता बतायी है और इन विषयों को पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने का सुझाव दिया है। न्यायमूर्ति श्री के. जी. बालाकृष्णन ने भी प्रेस काउन्सिल आफ इण्डिया और एडीटर्स गिल जैसी संस्थानों से इस विषय पर स्पष्ट नीति बनाने का अनुरोध किया है।
कहा जाता है कि कोर्ट प्रोसीडि़ंग के प्रकाशन प्रसारण से सम्बन्धित पक्षकारों के हित कुप्रभावित होते है। आशाराम बापू, तरूण तेजपाल, न्यायमूर्ति गाँगुली जैसे राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लोगो का मामला सामने आने पर ऐसी बाते ज्यादा तेजी से कही जाती है। आशाराम बापू ने अपने घृणित कारनामो के प्रकाशन को रोकने के लिए अदालत की शरण ली थी। सार्वजनिक जीवन मे त्याग तपस्या और शुचिता का आवरण ओढे इस तरह के लोगों के आचरण को छिपाना राष्ट्र और समाज के व्यापक हितो के प्रतिकूल है। कोर्ट प्रोसीडि़ग के प्रकाशन से सम्बन्धित मामले में लोगों की जानकारी बढ़ती है, मनोबल बढ़ता है अकेलेपन का अहसास टूटता है और उसके द्वारा अदालत के सामने सच कहने का साहस मिलता है। न्यायालय अवमान अधिनियम 1971 की धारा 5 स्पष्ट करती है कि अदालती कार्यवाही की निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण आलोचना अवमानना की परिधि में नही आती। सर्वोच्च न्यायालय ने राम दयाल मरकरहा बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश (1978-ए0आई0आर0-एस.सी. पेज 921) में प्रतिपादित किया था कि न्यायिक कार्यो की निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण आलोचना को न्याययलय की अवमानना नही माना जा सकता ऐसी दशा में सुस्पष्ट है कि प्रोसीडिंग के प्रकाशन से किसी पक्षकार का न्यायपूर्ण हित कुप्रभावित नही हो सकता इससे केवल वास्तविकता उजागर होती है जो विवेचक की केस डायरी में छिपी होती है और बिना प्रकाशन प्रसारण के आम जनता तक उसकी पहुँच असम्भव है।
सर्वोच्च न्यायालय ने सैवाल कुमार गुप्ता बनाम बी.के. सेन (ए0आई0आर0- 1961-एस0सी0-पेज 633) के द्वारा विचारण के दौरान अदालती कार्यवाही से सम्बन्धित तथ्यों को समाचार पत्रों में प्रकाशित न करने का आदेश पारित किया है। आरूषि काण्ड से सम्बन्धित तथ्यों के प्रकाशन के कारण उत्पन्न समस्याओं का जिक्र अदालत ने किया है। यह दोनों मामले अपनी जगह है और दोनो के संदर्भ अलग है। कानपुर में चर्चित दिव्या काण्ड में स्थानीय पुलिस ने अपने तरीके से एक पड़ोसी युवक को बालात्कार का दोषी बताकर जेल भेज दिया परन्तु समाचार पत्रों ने परिस्थिति जन्य साक्ष्य को आधार बनाकर पुलिस कथानक को खारिज कर दिया। तत्कालीन एस0एस0पी0 के निर्देश पर पुलिस कर्मियों ने हिन्दुस्तान के कार्यालय में जबरन घुसकर पुलिसिया ताण्डव किया। समाचार पत्रों ने दिव्या काण्ड को शहर का मुद्दा बना दिया नये सिरे से दुबारा जाँच हुई और फिर दोषी बताया जा रहा युवक निर्दोष पाया गया। आपराधिक मामलों में जाँच विवेचना या विचारण की कार्यवाही के प्रकाशन पर रोक लगी होती तो दिव्या काण्ड के वास्तविक दोषी कभी चिन्हित नही हो पाते और एक निर्दोष युवक ताजिन्दगी दागी बना रहता।
यह सच है कि कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन में प्रेस की स्वतन्त्रता और निष्पक्ष विचारण के अधिकार के मध्य बैलेन्स बनाये रखा जाना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने आर. राज गोपाल बनाम स्टेट आफ तमिलनाडु (1994-6-एस0सी0सी0 पेज 632) के द्वारा लैंगिक आपराधो में पीडि़ता की पहचान सार्वजनिक न करने का निर्णय पारित किया है। इस आशय के कई अन्य दिशा निर्देश विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी पारित किये है। सभी समाचार पत्र और टेलीविजन चैनल इसका कड़ाई से पालन करते है, परन्तु इस निर्णय का लाभ किसी भी दशा में अभियुक्त को नही दिया जा सकता। अभियुक्तों की तरफ से कहा जाता है कि विचारण के दौरान उनका नाम सार्वजनिक हो जाने से न्यायालय द्वारा दोषी पाये जाने के पहले उन्हें दोषी मान लिया जाता है और यदि न्यायालय के समक्ष वे निर्दोष सिद्ध हो गये तो क्या चकनाचूर हो गई उनकी छवि को चमकाने का कोई प्रयास किया जायेगा ? बिल्कुल नही किया जायेगा क्योंकि नामी गिरामी लोगों के मामलो में प्रायः पाया जाता है कि उनकी निर्दोषिता गवाहो की पक्षद्रोहिता या अन्य किसी तकनीकी कारण पर आधारित होती है। अदालत के सामने वे सिद्ध नही कर पाते कि उनके विरूद्ध अधिरोपित आरोप एकदम फर्जी थे। उन्हें केवल सन्देह का लाभ देकर दोषमुक्त किया जाता है इसलिए दिन प्रतिदिन की कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन से उनकी छवि पर लगने वाले दाग का आरोप न्यायसंगत नही है।
कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन से अदालती कार्यवाही प्रभावित होने के आरोप नये नही है। अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी इस विषय पर विधिवेत्ताओं मे मतभेद रहा है। माना जाता है कि समाचार पत्रों में प्रकाशन से न्यायाधीश का मन प्रभावित होता है। लार्ड डेनिंग इसे सही नही मानते। उनका कहना था कि कुशल न्यायाधीश केवल उपलब्ध तथ्यों से प्रभावित होता है। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने जान डी पेन्नेकाम्य बनाम स्टेट आफ फ्लोरिडा (1946-328-यू0एस0 331) के द्वारा स्पष्ट किया था कि कोर्ट प्रोसीडिंग के प्रकाशन से न्यायाधीश प्रभावित नही होता। न्यायालय कक्ष में विचारण के समय पत्रावली में प्रस्तुत किये जाने वाले तथ्य उसे प्रभावित करते है। अन्य किसी तरीके से उसके प्रभावित हो जाने की बात न्यायोचित नही है। ‘‘रिपोर्टिंग आफ कोर्ट प्रोसीडिंग बाई मीडिया’’ विषय पर आयोजित वर्कशाप को सम्बोधित करते हुये तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति श्री के.जी. बालाकृष्णन ने अमेरिकी सुप्रीमकोर्ट के फैसले को उद्घृत करते हुये लार्ड डेनिंग के विचारो से सहमति जताई थी।
विधि आयोग ने ‘‘ट्रायल बाई मीडिया फ्री स्पीच बनाम फेयर ट्रायल’’ विषय पर भारत सरकार के समक्ष प्रस्तुत अपनी 200वीं रिपोर्ट में न्यायालय की कार्यवाही में अवरोध या हस्तक्षेप करने के आशय से प्रकाशित समाचारों को अवमानना की परिधि में माना है। न्यायालय अवमान अधिनियम 1971 के तहत प्राप्त अधिकारों का प्रयोग न्यायालयों द्वारा पारित निर्णयों आदेशो दिशा निर्देशों का अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिए किया जाता है। समाचार पत्रो या उनके सम्पादको के विरूद्ध इस अधिनियम के तहत प्राप्त अधिकारों का प्रयोग केवल उसी स्थिति में किया जा सकता है जब प्रकाशित समाचार से दुर्भावना परिलक्षित होती हो और उसमें न्यायाधीश की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किये गये हो।
विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में अभियुक्त की गिरफ्तारी के बाद उसके आपराधिक इतिहास एवं संस्वीकृति के प्रकाशन प्रश्नगत विवाद के गुणदोष पर टिप्पणी फोटो पुलिस की गतिविधियों गवाहो की आलोचना न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत होने के पूर्व साक्ष्य का प्रकाशन और साक्षियों के साक्षात्कार के प्रकाशन को अवमानना की परिधि में माना है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट मे न्यायालय में विचाराधीन मामले (सब-ज्यूडिस) की भी व्याख्या की है। सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों का हवाला देकर आपराधिक मामलों में अभियुक्त की गिरफ्तारी को विचारण की शुरूआत मानते हुये कहा गया है कि अभियुक्त की गिरफ्तारी के बाद समाचार पत्रों में उसका आपराधिक इतिहास या पूर्व चरित्र प्रकाशित करना अवमानना की परिधि में आता है। उनका मानना है कि इस प्रकार के प्रकाशन प्रसारण से जमानत प्रार्थनापत्र की सुनवाई के समय निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का हनन होता है। आज की परिस्थितियों में इस अवधारणा से सहमत होना उचित नही है। आशाराम बापू के मामले में कोर्ट प्रोसीडिंग और उससे सम्बन्धित सूचनाओं के प्रकाशन से कई पीडि़तों की हिम्मत बढ़ी और उन्होंने आगे बढ़कर अपने साथ आशाराम द्वारा किये गये अपराध का खुलासा करने में कोई हिचक नही दिखायी। समाचारों के प्रकाशन के बल पर ही न्यायमूर्ति गाँगूली को पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा है।
विधि आयोग ने प्रेस की स्वतन्त्रता और निष्पक्ष विचारण के अधिकार के मध्य न्यायपूर्ण बैलेन्स बनाये रखने के लिए पत्रकारों को भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से सम्बन्धित प्रावधानों अवमानना विधि और मानवाधिकारों के परिप्रेक्ष्य में प्रशिक्षित किये जाने की आवश्यकता बतायी है और इन विषयों को पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने का सुझाव दिया है। न्यायमूर्ति श्री के. जी. बालाकृष्णन ने भी प्रेस काउन्सिल आफ इण्डिया और एडीटर्स गिल जैसी संस्थानों से इस विषय पर स्पष्ट नीति बनाने का अनुरोध किया है।
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