Sunday, 19 January 2014

दोषपूर्ण अभियोजन के लिए जिम्मेदारी चिन्हित की जाये...............

यदि सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले का राज्य सरकारो ने अनुपालन सुनिश्चित कराया तो अब जघन्य अपराधों की दोषपूर्ण विवेचना के लिए जिम्मेदार विवेचको और विचारण न्यायालय के समक्ष अभियोजन का समुचित पक्ष प्रस्तुत न करने वाले अभियोजको के विरूद्ध विभागीय कार्यवाही का मार्ग प्रशस्त होगा। विवेचना के बाद विचारण के लिए आरोप पत्र प्रेषित करने के पूर्व उपलब्ध साक्ष्य की एक स्वतन्त्र समिति द्वारा समीक्षा की जायेगी और सुनिश्चित किया जायेगा कि न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जाने वाली साक्ष्य अभियुक्त की दोष सिद्धि के लिए पर्याप्त हो। इस प्रक्रिया को अपनाने से किसी निर्दोष को केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट में नामजद हो जाने के कारण विचारण की यातना झेलने के लिए विवश नही होना पड़ेगा और अभियोजन को भी अधिकांश मामलो में अभियुक्त के विरूद्ध अधिरोपित आरोपों को सिद्ध करने में सहजता होगी।

         दिनांक 7 जनवरी 2014 को स्टेट आफ गुजरात बनाम किशन भाई आदि (क्रिमिनल अपील संख्या 1485 सन् 2008) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री सी. के. प्रसाद एवं श्री जगदीश सिंह केहर की खण्ड पीठ ने जघन्य अपराधों में अभियुक्तो की दोषमुक्ति को आपराधिक न्याय प्रशासन की विफलता घोषित किया है। खण्डपीठ ने कहा है कि अभियुक्तो की दोषमुक्ति से सिद्ध होता है कि निर्दोष को अनुचित तरीके से फँसाया गया है और दूसरी ओर पीडि़त परिवार सदा के लिए आहत हो जाता है ओर उसे अपने साथ हुये अपराध के दोषियों को सजा न दिला पाने का मलाल ताजिन्दगी बना रहता है। अभियोजन की कमियों के कारण निर्दोष का उत्पीड़न या दोषी होने के बावजूद केवल अभियोजन की कमियों के कारण किसी की भी दोषमुक्ति समाज की स्थायी सुख शान्ति के लिए घातक है।

          प्रथम सूचना रिपोर्ट में नामजद लोगों के विरूद्ध उन्हे दोषी  मानकर आरोप पत्र प्रेषित करने की प्रवृत्ति तेजी के साथ बढ़ी है और इसके कारण विवेचना कराने का उद्देश्य निरर्थक हो जाता है। दहेज हत्या के मामलो मे नाबालिग भाइयों और विवाहित बहनो को भी नामजद कर देना आम बात हो गई है। न्यायपूर्ण निष्पक्ष विवेचना न होने की दशा में ऐसे लोगों के विरूद्ध आरोप पत्र दाखिल होता है और वे सभी जेल जाने को विवश होते है।

         सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया फैसले मे कहा है कि ऐसे लोग वर्षो जेल में रहने के बाद जब रिहा होते है तो कोई उनका वह समय वापस नही दिला सकता जो उन्होंने निर्दोष होने के बावजूद जेल में बिताया है। कई बार अपने आपको निर्दोष साबित कराने के लिए उन्हें सर्वोच्च न्यायालय तक लम्बा कानूनी युद्ध लडना पडता है और उसके व्यय को वहन करने के लिए उन्हें कर्ज, शर्म और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है।

        सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रकार की स्थितियों में निर्दोष नागरिको के उत्पीड़न के लिए व्यवस्था को दोषी बताया है। राज्य का दायित्व है कि वे अपने नागरिको के मान सम्मान और उसकी गरिमा की रक्षा करे और किसी भी दशा में निर्दोष को उत्पीडि़त होने से बचाये। निर्णय में कहा गया है कि राज्य सरकारे अपने स्तर पर प्रक्रियागत व्यवस्था स्थापित करके सुनिश्चित कराये कि विचारण के लिए न्यायालय के समक्ष केवल उन्ही मामलों में आरोप पत्र प्रेषित किये जाये जिनमें सजा के लिए समुचित विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध हो। औपचारिकतावश आरोप पत्र प्रेषित न किये जाये बल्कि विवेचना पूरी हो जाने के बाद स्वतन्त्र मस्तिष्क का प्रयोग करके संकलित साक्ष्य की समीक्षा की जाये और यदि उनमें कोई कमी पाई जाये तो वेहिचक उन्हें दूर किया जाये। आवश्यकता प्रतीत हो तो नये सिरे से पुनः साक्ष्य संकलित की जाये परन्तु किसी भी दशा मे अपर्याप्त साक्ष्य के साथ आरोप पत्र न्यायालय के समक्ष प्रेषित नही किये जाने चाहियें। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाई गई इस उद्देश्यपरक प्रक्रिया से केवल उन्हीं लोगो के विरूद्ध आरोप पत्र प्रेषित किये जा सकेंगे जिनके विरूद्ध समुचित विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध होगी और उसके कारण अधिकांश अपराधो मे अभियोजन को अभियुक्तो के विरूद्ध अधिरोपित आरोप सिद्ध करने में सहजता होगी।

         सर्वोच्च न्यायालय ने दोषमुक्ति के प्रत्येक मामले को आपराधिक न्याय प्रशासन की विफलता मानते हुये निर्देश दिया है कि राज्य सरकार दोष मुक्ति के निर्णयो की समीक्षा करने के लिए प्रक्रियागत व्यवस्था स्थापित करे। पुलिस और अभियोजन के वरिष्ठ अधिकारियों को इस व्यवस्था के लिए जवाबदेह बनाया जाये। प्रत्येक निर्णय के गुणदोष पर विचार किया जाये और उसमें इंगित कमियों के लिए जिम्मेदार विवेचक या अभियोजक को चिन्हित किया जाये। कमियो को अभिलिखित करके उसके आधार पर विभागीय कार्यवाही सुनिश्चित कराई जाये। वर्तमान व्यवस्था के तहत प्रत्येक जनपद मे जिलाधिकारी की अध्यक्षता में अभियोजन अधिकारियों की बैठक आयोजित की जाती है परन्तु इस बैठक में लोक अभियोजको द्वारा प्रस्तुत दोष मुक्त आख्या पर चर्चा नही होती। दोष मुक्ति के कारणों को चिन्हित करने और उसके लिए दोषी विवेचक या अभियोजक की जवाबदेही निर्धारित करने का कोई तन्त्र नही है इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च स्तरीय समिति बनाने और उस समिति द्वारा निर्णयो की समीक्षा करने का निर्देश पारित किया है।

राज्य सरकारों को समझना होगा कि अपराधी हाईटेक हो गया है। प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य आधारित अभियोजन का युग समाप्त हो चुका है परन्तु विवेचक और अभियोजक आज भी पुराने तौर तरीको से काम करने को विवश है। केन्द्र सरकार द्वारा समुचित धनराशि उपलब्ध कराये जाने के बावजूद राज्य सरकारों ने विवेचक एवं अभियोजक की व्यवसायिक कुशलता बढ़ाने और समय के साथ उसे अपडेट रखने की कोई प्रक्रियागत व्यवस्था नही की है। राज्यो की इस कमी को दृष्टिगत रखकर निर्णय में विवेचको और अभियोजको के नियमित प्रशिक्षण देने का आदेश पारित किया गया है। कहा गया है कि प्रशिक्षण के लिए न्यायालयों द्वारा पारित निर्णयो, उसमे इंगित कमियों और दिन प्रतिदिन के अनुभवों के आधार पर पाठ्यक्रम तैयार किया जाये और प्रति वर्ष उसकी समीक्षा की जाये। संवेदनशील मामलों की विवेचना के लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाये। विवेचना में वैज्ञानिक साधनों और तरीको का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करके परिस्थितजन्य साक्ष्य संकलित करने का माहौल बनाया जाये।

         सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को लागू करने के लिए राज्य सरकारो को लोक अभियोजको की नियुक्ति प्रक्रिया में आमूल चूल परिवर्तन करने होंगे। विधि आयोग ने भी इस दिशा में कई सुझााव दिये है परन्तु राज्य सरकारे राजनैतिक कारणो से उनका पालन करने के लिए तैयार नही है। साधारण मारपीट के मुकदमो को लड़ने के लिए प्रशिक्षित अभियोजन अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है परन्तु हत्या डकैती जैसे जघन्य अपराधों के मुकदमो को लड़ने के लिए शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति उनके कार्य व्यवहार या व्यावसायिक कुशलता को दृष्टिगत रखकर नही की जाती बल्कि सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओ को उपकृत करने के लिए उनके नेताओं की अनुशंशा पर नियुक्ति की जाती है। नियुक्तियों के लिए सत्तारूढ़ दल के नेताओं की अनुशंशा को जनपद न्यायाधीश की अनुशंशा से ज्यादा वरीयता दी जाती है इसलिए आजादी के 66 वर्ष बाद भी व्यवसायिक कुशलता नियुक्ति का आधार नही बन सकी। मायावती के मुख्य मन्त्रित्वकाल मे सम्पूर्ण प्रदेश में एक साथ सभी शासकीय अधिवक्ताओं को हटा दिया गया था और उनके स्थान पर उन लोगो की नियुक्ति की गई जिन्होंने अधिवक्ता के नाते साधारण मारपीट का भी मुकदमा अदालत में नही लड़ा था। परिणाम स्वरूप उनमें से किसी ने भी अपने पूरे कार्यकाल के दौरान दोष मुक्ति के एक भी मामले में उच्च न्यायालय के समक्ष राज्य अपील दाखिल नही की है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस फैसले की प्रति सभी राज्यों के गृह सचिवों को प्रेषित करके इसे लागू करने के लिए 6 माह की अवधि निर्धारित की है। इसके पहले उत्तर प्रदेश पुलिस में महानिदेशक रहे श्री प्रकाश सिंह की याचिका पर आपराधों की विवचेना के लिए स्वतन्त्र इकाई बनाये जाने का आदेश पारित किया गया था, परन्तु किसी राज्य सरकार ने विवेचना की अलग इकाई बनाने की दिशा में कोई सार्थक पहल नही की। आशा की जा सकती है कि राज्य सरकारे सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के प्रति उपेक्षा का भाव नही अपनायेंगी।

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