Sunday, 26 January 2014

लोकतन्त्र धरना प्रदर्शन से नही, जाति धर्म की राजनीति से कमजोर होता है............

प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू मानते थे कि लोकतन्त्र में सत्याग्रह धरना प्रदर्शन की कोई आवश्यकता नही है। दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरबिन्द केजरी वाल द्वारा सड़क पर धरना देने और धरना स्थल से ही सरकारी काम निपटाने की घटना को मुख्यमन्त्री पद की गरिमा के प्रतिकूल और अराजकता की ओर बढता कदम बताने वाले लोग नये सिरे से नेहरू के कथनो की सार्थकता सिद्ध करने का प्रयास कर रहे है। ये लोग भूल जाते है कि अहिंसक सत्याग्रह धरना प्रदर्शन मनुष्य जाति को भारत विशेषतः महात्मा गाँधी की प्रत्यक्ष देन है। बुराई, अत्याचार अन्याय का प्रतिकार करने के लिए इन तरीको का जन सिद्धान्त के रूप में प्रयोग अभूतपूर्व है। गाँधी जी के इन सिद्धान्तों ने आजादी दिलाकर जिस व्यक्ति को देश का प्रधानमन्त्री बनाया उसने और उसके वारिसो ने गाँधी की इस देन के सबसे क्रान्तिकारी मर्म को नष्ट करने की पूरी कोशिश की है। इसलिए अरबिन्द केजरीवाल के धरने का काँग्रेसी विरोध तो समझा में आता है लेकिन नेहरू की तर्ज पर भारतीय जनता प्रार्टी द्वारा इसे लोकतन्त्र विरोधी बताया जाना समझ से परे है।

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत धरना प्रदर्शन पर रोक लगाने की कार्यवाही अपने देश को विदेशी शासन की की देन है जो जन विरोधी नीतियों के विरूद्ध आम लोगों के आक्रोश को अभिव्यक्त करने की स्वतन्त्रता का हनन करती है। डाक्टर राम मनोहर लोहिया और उनके अनुयायिओं ने स्वतन्त्र भारत में इस धारा का हर उपलब्ध अवसर पर जबर्दस्त विरोध किया है। वे इस धारा को संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्राप्त भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के प्रतिकूल मानते थे। शुरूआत में इस धारा का प्रयोग जनता के विभिन्न समूहों के पारस्परिक सम्बन्धों को सुधारने के लिए किया जाता था, परन्तु अंग्रेजी शासन के विरूद्ध जब जनता के आन्दोलन प्रदर्शन प्रभावी होने लगे तो अंग्रेजो ने इस धारा के साथ लोक सुरक्षा का शब्द गढ़ कर आन्दोलनकारियों को कुचलने का हथियार बना लिया। इस धारा ने स्वतन्त्रता सेनानियो पर अनगिनत कहर ढाये है परन्तु नेहरू और उनके वारिसों ने इस धारा को विधि से नही हटाया बल्कि अंग्रेजो की तरह इस धारा का भयंकर दुरूपयोग करके जन आन्दोलनों को कुचलने का काम किया है। स्वतन्त्र भारत में डाक्टर लोहिया को देश की सुरक्षा भंग करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था जबकि सभी जानते है कि देश की आजादी के लिए डाक्टर लोहिया ने उस समय की सरकारो के कई मन्त्रियों से ज्यादा संघर्ष किया था, ज्यादा यातनायें झेली थी।
सरकार में रहते हुये अपनी माँगों के समर्थन में मन्त्रियों द्वारा धरना प्रदर्शन पहली बार आयोजित नही हुआ है। इसके पहले भी कई अवसरों पर मन्त्रियों ने अपने और अपनी पार्टी के राजनैतिक सामाजिक सरोकारों पर अपने मन्त्रिपद को हावी नही होने दिया। 1967 में उत्तर प्रदेश की पहली गैर काँग्रेसी सरकार के समाजवादी मन्त्रियों राम स्वरूप वर्मा और प्रभु नारायण सिंह ने ‘‘अंग्रेजी हटाओं’’ आन्दोलन के समर्थन में संसद के समक्ष गिरफ्तारी दी थी और तिहाड़ जेल मे रहकर मन्त्री पद की जिम्मेदारियों का निर्वहन किया था। केन्द्रीय स्वास्थय मन्त्री रहते हुये राजनारायण ने शिमला के मैदान में अंग्रेजी के जमाने से सभा करने पर लगे प्रतिबन्ध के विरूद्ध आयोजित प्रदर्शन का नेतृत्व किया था। समाजवादी नेता मधुलिमये ने संसद सदस्य के रूप मेें शपथ लेते हुये शपथ के निर्धारित शब्दो के अतिरिक्त ‘‘इस सरकार पर अंकुश रखने का काम भी पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी से करूँगा’’ कहकर स्थापित परम्परा का उल्लंघन किया था और उस समय भी काँग्रेसियों ने इसकी आलोचना की थी परन्तु इन घटनाओ से लोकतन्त्र कमजोर नही हुआ और न अराजकता का कोई माहौल पैदा हुआ। 
वर्तमान राजनीति मे मन्त्रिपद अन्तिम सत्य बन गया है। मन्त्रिपद पाने और उसे बचाये रखने के लिए सामाजिक राजनैतिक सरोकारों से नाता तोड़ लेना एक आम बात हो गई है। सुरक्षा और प्रोटोकाल के नाम पर विभिन्न राज्यों के मुख्यमन्त्री अपने ही मन्त्रियों और विधायको को सहजता से दर्शन लाभ नही देते। आम पार्टी कार्यकर्ताओं की पहँुच उन तक असम्भव हो जाती है और इसको लेकर कोई आक्रोश भी व्यक्त नही करता। इन सर्व स्वीकृत परिस्थितियों में एक मुख्यमन्त्री द्वारा आम लोगों के साथ सड़क पर धरना देने, रात में वहीं सोने की घटना ने सुविधा भोगी राजनेताओं की नींद उड़ा दी है। उन्हें लगने लगा है कि अब उनके कार्यकर्ता और मतदाता उनसे भी ऐसे आचरण की अपेक्षा करेंगे और उसके लिए वे कतई तैयार नही है।
प्रख्यात गाँधीवादी विचारक प्रभाष जोशी ने सत्ता के मदमस्त हाथी को अंकुश मे रखने और सत्ता को देश के साधनहीन लोगों की सेवा में लगाने का नैतिक दबाव बनाये रखने के लिए जन संघर्षो को प्रासांगिक बताया था। उन्होंने कहा था कि आखिर जेपी आन्दोलन का प्रयोजन ही यही था कि निर्वाचित प्रतिनिधि को सत्ता का सेवक बनने देने के बजाय जनता का प्रतिनिधि और सेवक बनाया जाय। लेकिन उन्हीं भाई लोगों ने जो जेपी आन्दोलन के राजनेता थे और जो सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा लगाते थे सत्ता में आने के बाद और भी निर्लज्जता से वही सब किया जो काँगे्रस के नेता करते थे। अपने लोगों को लूट की प्रक्रिया में शामिल करके उन्हें भ्रष्ट करो और उन्हीं भ्रष्ट लोगों की मदद से सत्ता को मुट्ठी में पकड़े रहों सत्ता में बने रहने के लिए वे सब धतकरम करो जिनके लिए कांग्रेसियों की आलोचना और भत्र्सना किया करते थे। जेपी आन्दोलन सत्ता की कांगे्रसी अपसंस्कृति के स्थान पर जनसेवी समर्पण को लाने का आन्दोलन था। उसके कन्धे पर चढ़कर जो भी नेता और पार्टी सत्ता की बन्दरबाँट के बँटवारे में आए उनने साबित किया कि राज चलाने का एक ही तरीका है और वह कांग्रेसी तरीका है। ये नेता और पार्टियाँ जेपी आन्दोलन के सब दिखावे को ताक पर रख कर सत्तारूढ़ हो गई। बेचारे जेपी कहते थे कि यह आन्दोलन इनमें से किसी राजनेता को इन्दिरा गाँधी की जगह बैठाने और गैरकाँग्रेसी पार्टियों का राज स्थापित करने के लिए नही है। यह उस जनता को सिंहासन पर बैठाने के लिए हे जो झोपड़ी से उठकर राजधानी की तरफ कूच कर रही है। जेपी आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रान्ति के नेताओं ने जनता को वापस झोपडि़यों में भेज दिया और सिंहासनों पर खुद कब्जा किए हुये है।
आज की युवा पीढ़ी ने गाँधी लोहिया जय प्रकाश के संघर्ष नही देखे। हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है का उद्घोष नही सुना। उन्हें इसके जादुई प्रभाव की जानकारी नही है। अरबिन्द केजरीवाल और उनके सहयोगियों ने युवा पीढ़ी से गाँधी और उनके अहिंसक सत्याग्रह का परिचय करा दिया है। सार्वजनिक जीवन में सादगी और सत्याग्रह की गाँधीवादी संस्कृति स्थापित राजनेताओ के पुत्र, पुत्रियों के सुरक्षित राजनैतिक भविष्य के लिए खतरनाक हो सकती है इसलिए एक स्वर से सभी स्थापित राजनेता इस संस्कृति को अराजकता का प्रर्याय बताने की मुहिम जारी किये हुये है।
जाति धर्म की राजनीति करने वाले दलो और उनके नेताओं ने गाँधी लोहिया जय प्रकाश को कभी पसन्द नही किया। सत्ता मे आने और बने रहने के लिए उनके नाम का उपयोग करते है। सभी दलो में सरोकारो की राजनीति पर जोर देने वाले कार्यकर्ता निष्प्रभावी है। जे.पी. आन्दोलन में अग्रिम पंक्ति के महत्वपूर्ण नेता राम बहादुर राय आज की राजनीति मे अप्रासांगिक हो गये है। नई पीढ़ी के कार्यकर्ता उनका नाम तक नही जानते जबकि भारतीय जनता पार्टी की द्वितीय पंक्ति के अधिकांश नेताओं ने उनके सानिध्य मे राजनीति का ककहरा सीखा था और इन्दिरा गाँधी ने सबसे पहले अपने सबसे बड़े हथियार मीसा का उनके विरूद्ध प्रयोग किया था।
लोहिया और जय प्रकाश के कथित अनुयायी नितीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और उनके पुत्र अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सरकारो ने काँगेसी सरकारो की तरह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 का भयंकर दुरूपयोग करके जन आन्दोलनों और आम लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का गला घोटा है। आये दिन कही न कही पुलिसिया अत्याचार और लाठी चार्ज की घटनायें इस तथ्य की पुष्टि करती है। वास्तव में जन आन्दोलनों को कोई सरकार पसन्द नही करती। परन्तु अब एक मुख्यमन्त्री ने खुद जन सरोकरो के लिए धारा 144 के तहत लागू निषेधाज्ञा के उल्लंघन का बीड़ा उठा लिया है और उनका यह आचरण लोकतन्त्र के लिए कतई खतरनाक नही है। मन्त्रिपद का दुरूपयोग करके अकूत सम्पत्ति कमाने वाले राजनेताओं के भ्रष्ट आचरण से लोकतन्त्र कमजोर नही हुआ इसलिए विश्वास रखना चाहिये कि सत्ता में रहकर सत्तामद से दूर रहने वालो के आचरण से भी लोकतन्त्र कभी कमजोर नही होगा बल्कि इससे लोगो की सहभागिता बढ़ेगी और लोकतन्त्र मजबूत होगा।

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