Sunday, 2 February 2014

खिलवाड़ है कानून व्यवस्था के साथ दया याचिकाओ में विलम्ब.................

दया यचिकाओं के निस्तारण मे विलम्ब को आधार बना कर सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं अपने द्वारा घोषित जघन्यतम अपराधो के पन्द्रह दोषियो की सजा को मृत्युदण्ड से आजीवन कारावास में तब्दील करके पूरे देश को हतप्रभ किया है। इस फैलसे से दस्यु सरगना वीरप्पन के खतरनाक सहयोगियो, बाइस पुलिस कर्मियो की हत्या के दोषियो, वाराणसी मे अपने भाई उसकी पत्नी, बेटा और दो बेटियो इटावा में अपनी पत्नी और पाँच बेटियो, पीलीभीत में अपने ही घर के तेरह सदस्यो की हत्या के दोषियो को राहत मिलेगी और दूसरी ओर राजीव गाँधी के हत्यारो और पंजाब के देवेन्द्र पाल सिंह भुल्लर जैसे आतंकवादियो की सजा में तब्दीली का रास्ता खुल सकता है और यदि विधिक कारणो से ऐसा नही हो सका और उन्हें फाँसी दी गई तो इतिहासकारो को पक्षपात और अन्याय की एक घटना के रूप में इसे दर्शाने का एक अवसर तो मिल ही जायेगा। इस प्रकार की परिस्थितियाँ कानून व्यवस्था के लिए घातक और राष्ट्र एवं समाज के व्यापक हितो के प्रतिकूल होती है।
दया याचिकाओं का निस्तारण केन्द्रीय गृह मन्त्रालय और राष्ट्रपति कार्यालय के उच्च स्तरीय विचार विमर्श का विषय है। राज्यपाल द्वारा दया याचिका के खारिज करने की सूचना केन्द्रीय गृह मन्त्रालय को राज्य सरकार द्वारा भेजी जाती है और इसके अतिरिक्त इसके निस्तारण में उनकी कोई भूमिका नही होती है। संसद में हमले के दोषी अफजल गुरू को फाँसी दिये जाने के मामले को राजनैतिक रंग दिये जाने के बावजूद दया याचिकाओं के निस्तारण में शीघ्रता लाने का कोई प्रयास न किया जाना चिन्ता का विषय है। दया याचिकाओ के निस्तारण में जारी विलम्ब के कारण ही राजीव गाँधी के हत्यारो को फाँसी की सजा से बचाने के लिए तमिलनाडु के राजनैतिक दल लामबन्द होने का दुस्साहस कर सके। इसी प्रकार की कोशिश पंजाव में बेअत सिंह के हत्यारों के मामलो में भी की गई है। दया याचिकाओं में विलम्ब के कारण एकान्तवास झेल रहे दोषियो की तकलीफ चिन्ता का विषय है, परन्तु उनको उनके किये की सजा न दिला पाने की विवशता झेल रहे पीडि़त परिवारो की वेदना भी समान चिन्ता का विषय है। केन्द्रीय गृह मन्त्रालय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पीडि़त परिवारों की वेदना का प्रतिनिधित्व करने और इस पूरे मामले मे अपनी भूमिका के निर्वहन में असफल सिद्ध हुआ है और उसके कारण सर्वोच्च न्यायालय पीडि़त परिवारो की मानसिक वेदना की तुलना में दोषियो के मानवाधिकारों को वरीयता देने के लिए मजबूर हुआ है।
केन्द्र सरकार ने श्री वीरप्पा मोईली के कानून मन्त्री रहने के दौरान अपनी लिटिगेशन पालिसी घोषित की थी और उसमें व्यवस्था की गई थी कि केन्द्र सरकार न्यायालयो के समक्ष अपने विरूद्ध लम्बित मामलों में नियत तिथि पर निर्धारित कार्यवाही सुनिश्चित करायेगी और स्थगन प्रार्थनापत्र अपवाद स्वरूप ही प्रस्तुत करेगी। आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 पारित करके उसने व्यवस्था की है कि आपराधिक मामलो में विचारण के दौरान दिन प्रतिदिन सुनवाई की जायेगी। इसी प्रकार सिविल मामलों में नब्बे दिन के अन्दर लिखित कथन दाखिल करने की अनिवार्यता लागू की गई है अर्थात केन्द्र सरकार मानती है कि विलम्ब से किया गया न्याय अन्याय के समान होता है। विचारण न्यायालयो के समक्ष मुकदमों के निस्तारण में जारी विलम्ब पर अंकुश लगाने के लिए केन्द्रीय सरकार ने विधि में कई संशोधन किये है परन्तु अपने स्तर पर हो रहे विलम्ब को कम करने के लिए उसने कोई प्रयास नही किये है जबकि सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले के पूर्व वर्ष 1983 और 1989 में अपने अलग अलग फैसलों में सर्वोच्च न्यायालय ने फाँसी की सजा के फैसलों को निष्पादित करने में हो रहे विलम्ब की निन्दा की थी। वर्ष 1974 में न्यायमूर्ति श्रीकृष्णा अय्यर ने अपने निर्णय में लम्बे समय तक दोषी को एकान्तवास में रखने की घटनाओं को अमानवीय बताया था, परन्तु केन्द्र सरकार ने इन निर्णयों से कोई सबक नही लिया और अपनी निर्णय प्रक्रिया को यथावत बनाया रखा। 
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि मृत्यु दण्ड से दण्डित दोषियों को राष्ट्रपति के समक्ष अपने विरूद्ध पारित दण्डादेश के विरूद्ध दया याचिका प्रस्तुत करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। दया याचिकाओं पर विचार करना राष्ट्रपति का संवैधानिक दायित्व है। इसमें उनकी निजी कृपा की कोई भूमिका नही है। राष्ट्रपति का संवैधानिक दायित्व होने के कारण न्यायालय उनके इस दायित्व को पूरा करने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नही कर सकती परन्तु इसका यह अर्थ नही है कि राष्ट्रपति के समक्ष उसे अनन्त काल तक लम्बित बनाये रखा जाये। वास्तव में सम्बन्धित अधिकारी स्वयं पहल करके अपने स्तर पर समय सीमा निर्धारित कर सकते है। अपने समक्ष लम्बित पत्रावली का समयबद्ध निस्तारण सुनिश्चित करने कराने से विधि में कोई प्रतिबन्ध नही है। विधि और राष्ट्र अपने अधिकारियों प्राधिकारियों से इस प्रकार की पहल की अपेक्षा करता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस फैसले के द्वारा दया याचिकाओ के निस्तारण के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नही की है परन्तु कई सुसंगत दिशा निर्देश जारी किये है जिसके अनुपालन की अनिवार्यता लागू हो जाने से दया याचिकाओं के निस्तारण में जारी विलम्ब पर अंकुश लगाया जा सकेगा। फैसले में कहा गया है कि ‘‘जैसे ही दया याचिका प्राप्त होती है या राज्यपाल द्वारा उसके खारिज किये जाने की सूचना राज्य सरकार प्रेषित करती है तो केन्द्रीय गृह मन्त्रालय के सम्बन्धित अधिकारी विचारण न्यायालय उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय सहित न्यायालय और पुलिस के सभी सुसंगत अभिलेख तत्काल एकत्र करेंगे और उसे समय सीमा के अन्दर गृह मन्त्रालय को भेजेंगे। इस प्रकार भेजे गये अभिलेखो पर यदि महामहिम के कार्यालय के स्तर पर कोई कार्यवाही नही की जाती तो गृह मन्त्रालय एक निश्चित अन्तराल के बाद लगातार रिमाइन्डर भेजकर अपने स्तर पर दयायाचिकाओं के अतिशीघ्र निस्तारण के लिए प्रयत्नशील रहेंगे। इस दौरान राष्ट्रपति के कार्यालय से यदि कोई सूचना या दस्तावेज माँगा जाता है तो तत्काल उसे उपलब्ध करायेंगे।
निर्णय के तहत अब फाँसी की सजा पाये दोषियों को कई सुसंगत अधिकार प्राप्त हो सकेंगे। अभी तक की व्यवस्था के तहत जेल अधिकारियों के लिए दया याचिका के निरस्त होने की सूचना दोषी को देने की कोई अनिवार्यता नही थी और न फाँसी दिये जाने के पूर्व दोषी और उसके परिजनों की अनिवार्य मुलाकात की कोई व्यवस्था थी। परन्तु अब आवश्यक बना दिया गया है कि जेल अधिकारी निरस्तीकरण की लिखित सूचना एक सप्ताह के अन्दर दोषी और उसके परिजनो को देगे और दया याचिका तैयार करने के लिए आवश्यक साधन और कानूनी सहायता दोषी को उपलब्ध करायेगे।
आतंकवादी अफजल गुरू को फाँसी दिये जाने के पूर्व उसके परिजनों को सूचित न करने की घटना को दृष्टिगत रखकर सर्वोच्च न्यायालय ने अब दोषी को फाँसी पर लटकाये जाने के चैदह दिन पूर्व इसकी सूचना दोषी और उसके परिजनों को देने और इस अवधि में उसके परिजनों से उसकी अनिवार्य मुलाकात को आदेशात्मक बना दिया है। ताकि दोषी भगवान से अपने लिए शान्ति माँग सके और फाँसी के लिए अपने आपको मानसिक रूप से तैयार कर लें। उसे अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों की समुचित व्यवस्था और वसीयत निष्पादित करने का भी अवसर दिया जायेगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने 7 जनवरी 2014 को पारित अपने एक निर्णय में आपराधिक मामलों की विवचेना में लापरवाही और विचारण के दौरान न्यायालय के समक्ष अभियोजन का समुचित पक्ष प्रस्तुत न करने वाले लोक अभियोजको की जिम्मेदारी चिन्हित करके उनके विरूद्ध विभागीय कार्यवाही सुनिश्चित कराने का निर्देश जारी किया है। इस निर्णय में कहा गया है कि अभियोजन की कमियों के कारण अभियुक्तों की रिहाई से पीडि़त परिवारों को असीमित वेदना का शिकार होना पड़ता है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला दया याचिकाओं के निस्तारण में विलम्ब के लिए दोषी अधिकारियों एवं प्राधिकारियों पर भी लागू होता है। जघन्यतम अपराधों के 15 दोषियों की दया याचिकाओं के निस्तारण में विलम्ब के कारणो की जाँच की जानी चाहिये और उसके लिए दोषी अधिकारियों एवं प्राधिकारियों को चिन्हित करके उन्हें दण्डित किया जाना आवश्यक है।
समझना चाहिये कि आम आदमी दया याचिकाओं के संवैधानिक प्रावधानो उसकी समय सीमा या अन्य प्रक्रियागत व्यवस्थाओं से वाकिफ नही है। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जघन्यतम अपराध का दोषी बताये गये लोगो की रिहाई से कानून व्यवस्था के प्रति उसका विश्वास घटता है इसलिए सम्बन्धित अधिकारियों प्राधिकारियों को चिन्ता करके दया याचिकाओं के निस्तारण मे जारी विलम्ब पर अंकुश लगाने के लिए दया याचिकाओं के निस्तारण के लिए समय सीमा निर्धारित करनी चाहिये और यदि आवश्यक प्रतीत हो तो संविधान संशोधन का मार्ग प्रशस्त करना चाहियें।

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