किसी ने कहा है कि जिस कर्म से आपकी पहचान होती है, वही आपका धर्म है और उसमें कुशलता प्राप्त करने के लिए किये जा रहे अनवरत प्रयत्न आपकी पूजा है। इस दृष्टि से देखा जाये तो वकालत अपने आपमें धर्म है और इसीलिए सम्पूर्ण विश्व में वकीलों को श्रद्धा एवं सम्मान से देखा जाता है। वकालत त्याग तपस्या एवं संघर्ष का जीवन है। जीविकोपार्जन का साधन है परन्तु साथ मे अपने अन्दर की अच्छाइयों को सार्वजनिक करने का माध्यम भी है।
कचहरी में अधिवक्ताओं की नई पौध को निखरने के अवसर देने की परम्परा है। अन्याय अत्याचार उत्पीड़न के विरूद्ध अपने तरीके से सोचने समझने और अधिकारो की लड़ाई में आम आदमी के साथ सहभागी होने के अवसर यहाँ उपलब्ध है। अन्य क्षेत्रों की तुलना में अपने युवा साथियों को सजाने सँवारने का काम बखूबी किया जाता है। ‘‘कुछ है जो हस्ती मिटती नही हमारी’’ के कथन में हस्ती को प्रधानता और ‘‘कुछ है’’ को भुला देने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण कुछ पुरानी घटनाओ से रूबरू होने की आज जरूरत है।
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व सालिसिटर जनरल एवं सांसद रहे श्री एफ.एस. नरीमन कहते है कि नये अधिवक्ताओं को अदालत कक्ष में अपनी जबान की तुलना में अपने दिमाग को ज्यादा सजग और तर्को को गम्भीर बनाना चाहिये। प्रत्येक दिन न्यायालय आना चाहिये और किसी भी दशा में ज्यादा बोलने से बचना चाहिये। वकालत की शुरूआत में सभी इससे रूबरू होते है परन्तु इसके दुष्परिणामों की जानकारी काफी बाद में हो पाती है। अपनी बात प्रारम्भ करने के तत्काल बाद पहले कुछ वाक्यों मे ही प्रश्नगत विवाद का सार बताने का अभ्यास करना चाहिये। शुरूआत में कठिनाई हो सकती है, परन्तु यदि पहले से लिखकर बोलने की आदत डाली जाये तो निश्चित रूप से लाभ मिलता है। अपने क्लाइन्ट के दृष्टिकोण से किया गया प्रस्तुतीकरण कभी नुकसान देह नही होता जबकि अदालत में ज्यादा विद्वान दिखना सदैव घातक होता है।
श्रम कानूनों के प्रख्यात विशेषज्ञ अधिवक्ता गणेश दत्त बाजपेई, अर्जुन अरोड़ा और विमल मेहरोत्रा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष बर्खास्तगी के मामले में अलग अलग श्रमिको का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। लन्च पूर्व गणेश दत्त बाजपेई और अर्जुन अरोड़ा की बहस सुनने के बाद उनकी याचिकाओं को अदालत ने खारिज कर दिया। लन्च बाद विमल मेहरोत्रा की बारी आई। जज साहब ने खुद उन्हें याद दिलाया कि पहले दो याचिकाये खारिज हो चुकी है। अब क्या बचा है ? अनमने से बहस सुनने को तैयार हुये परन्तु विमल मेहरोत्रा ने भुक्तभोगी श्रमिक की तरह घटनाक्रम का आँखो देखा हाल सुनाया। उसे सुनकर जज साहब ने पहले पारित आदेश निरस्त करके तीनो याचिकायें स्वीकार की। विमल मेहरोत्रा कहा करते थे कि आम लोगों की तरह अदालत का अपना एक ईगो होता है। उसे पढ़ाने, उसे उसके कर्तव्यों का ज्ञान कराने की आवश्यकता नही है। आवश्यकता केवल और केवल पत्रावली में उपलब्ध तथ्यों के प्रति उसका ध्यान आकृष्ट कराने की है।
अधीनस्थ न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय तक प्रत्येक स्तर पर न्यायिक अधिकारी नये अधिवक्ताओं को प्रोत्साहित करते है इसलिए यदि सुनवाई स्थगित कराने के लिए भी अदालत के समक्ष उपस्थित होने के पूर्व प्रश्नगत विवाद और उसमें अपने पक्ष की संक्षेप जानकारी कर लेनी चाहिये। वकालती जीवन के पहले वर्ष में एफ.एस. नरीमन नानी पालकीवाला के जूनियर थे और उन्हे मुम्बई उच्च न्यायालय में एक दिन मुख्य न्यायमूर्ति श्री एम.सी. छागला एवं श्री गजेन्द्र गडकर की खण्डपीठ के समक्ष सुनवाई स्थगित कराने के लिए उपस्थित होना पड़ा। न्यायमूर्ति छागला ने सुनवाई स्थगित नही की बल्कि प्रश्नगत विवाद के सम्बन्ध मे कई प्रश्न पूँछ लिये। नरीमन ने सभी प्रश्नों का सटीक उत्तर दिया और उसके कारण न्यायमूर्ति छागला सदैव उनके प्रति उदार बने रहे। न्यायमूर्ति गजेन्द्र गडकर बाद में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और श्री एफ.एस. नरीमन सालिसिटर जनरल हुये। जूनियर अधिवक्ता द्वारा पत्रावली पढ़कर अदालत के समक्ष उपस्थित होने से न्यायिक अधिकारी के साथ साथ क्लाइण्ट पर भी उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है।
नये अधिवक्ताओं को अदालत में सदैव विनम्र रहना चाहियें। कानपुर कचहरी में अपर जनपर न्यायाधीश के पद पर अपनी तैनाती के दौरान श्री ओ.पी. त्रिपाठी ने फौजदारी मामलों में गैर जमानती वारण्ट जारी करने के बाद नई श्योरिटीज लिये बिना कभी कोई वारण्ट रिकाल नही किया। एक दिन मनीष मिश्रा के एक क्लाइण्ट के विरूद्ध वारण्ट जारी हो गया। वारण्ट बनाकर उसे जेल भेजा जाने लगा। इस बीच मनीष आ गये। विधि की कोई नजीर बताये बिना उन्होंने विनम्रता से क्लाइण्ट के उपस्थित न हो पाने की परिस्थितियाँ बताई। जज साहब वारण्ट रिकाल करने को मजबूर हुये। अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने केवल यही एक वारण्ट बिना श्योरिटीज लिए रिकाल किया था।
कचहरी वकालत में मानवीय गुणो की पाठशाला है। सुल्तान नियाजी साहब और बैरिस्टर नरेन्द्र जीत सिंह अपनी अपनी राजनैतिक विचार धाराओं के अग्रणी प्रतिनिधि थे। एक धुर बामपन्थी और दूसरा कट्टर हिन्दूवादी। दोनो के बीच वैचारिक मदभेद जगजाहिर थे, परन्तु उनमें कोई मनभेद नही था। बार एसोसियेशन में अपने अधिवक्ता के ऊपर अपनी विचारधारा को उन दोनों ने कभी हावी नही होने दिया। अध्यक्ष पद के चुनाव में सुल्तान नियाजी ने वैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह की प्रत्यासिता का खुल कर समर्थन किया था। अपने कार्य व्यवहार एवं आचरण से उन्होंने सिद्ध किया कि अन्य कुछ भी होने की तुलना में अधिवक्ता होना ज्यादा महत्वपूर्ण है। एक न्यायिक अधिकारी आदतन कक्ष में प्रार्थनापत्र की भाषी शैली की समीक्षा करके जाने अनजाने सम्बन्धित अधिवक्ता को उपहास का विषय बना लिया करते थे। सभी उनकी इस आदत से परेशान थे। सुल्तान नियाजी साहब ने उसका समाधान खोजा। उन्होंने कुछ लिखे बिना एक प्रार्थनापत्र उनके समक्ष प्रस्तुत किया और अपनी समस्या बताकर कहा कि जिस तरह लिखा जाता है आप लिखा दें ताकि आपको गल्तियाँ खोजने का कष्ट न उठाना पड़े। नियाजी साहब के इस विनम्र विरोध की जानकारी तत्कालीन जनपद न्यायाधीश को प्राप्त हुई और उसके बाद से प्रार्थनापत्रों की भाषा शैली पर चर्चा बन्द हो गई।
वकालत के शुरूआती दिनों में बेहद विनम्र और विद्वान अधिवक्ता श्रीप्रकाश गुप्त के साथ आरबीटेªशन के एक मामले में, मैं विपक्षी पक्षकार का अधिवक्ता था। गुणदोष के आधार पर पारित एक आदेश के विरूद्ध मैने रिव्यू दाखिल किया। रिव्यू के समर्थन में मुझे अपनी बात कहनी थी। मैं असमंजस में था, मेरी दशा भाप कर श्रीप्रकाश जी ने पूरी अदालत में कहा कि इनका रिव्यू मेन्टेनेबल है और उसके कारण रिव्यू अलाऊ हो गया। वास्तव में मेरिट पर रिव्यू के आधार पर्याप्त नही थे, परन्तु श्रीप्रकाश गुप्त ने मुझे हतोत्साहित न होने देने के लिए रिव्यू अलाऊ करा दिया। इसी प्रकार सिविल जज श्री जगदीश्वर सिंह के समक्ष मैने आरबीटेªशन एक्ट की धारा 34 के तहत प्रार्थनापत्र प्रस्तुत किया। बहस के दौरान ज्ञात हुआ कि जिस तिथि पर प्रार्थनापत्र प्रस्तुत किया गया था उस समय आरबीट्रेशन एक्ट निरसित हो चुका था और आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट लागू हो चुका था जिसकी मुझे जानकारी नही थी। मैनें अपनी अज्ञानता स्वीकार की और मेरी निर्दोष स्वीकरोक्ति को दृष्टिगत रखकर मुझे दूसरा प्रार्थनापत्र प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया गया।
अदालत के समक्ष कुछ भी बताने के पूर्व उसके गुण दोष पर विचार अवश्य करना चाहिये। कई बार जल्द बाजी में कुछ ऐसी बाते लिख जाती है जो बाद में घातक सिद्ध होती है। डिले कन्डोन के लिए ट्रेन की देरी को आधार बनाया गया परन्तु बहस के दौरान प्रकाश में आया कि टेªन लेट नही थी। टेªन आने का निर्धारित समय 12 बजे ही था और उसके कारण जानबूझकर देर से आना पाया गया। क्या लिखना है? क्या पूँछना है? सबको मालूम होता है लेकिन केवल अनुभवी अधिवक्ता को मालूम होता है कि क्या नही पूँछना चाहिये? सात वर्षीय गवाह से जिरह के दौरान पूँछा गया कि आप अपने नाना की सब बात मानते हो वे जो कहते है करते हो? इन प्रश्नों का गवाह ने हाँ में उत्तर दिया। अभियुक्त के अधिवक्ता को उनका मनचाहा उत्तर मिल चुका था, परन्तु ज्यादा स्पष्टता के लालच में उन्होंने आगे पूँछा कि ‘‘आज तुम वही बता रहे हो जो नाना ने बताया है’’ गवाह ने कहा ‘‘नही ’’ जो देखा था वो बताया है। इस एक प्रश्न ने बचाव की पूरा इमारत ढहा दी और अभियुक्त को आजीवन कारावास का दण्ड भुगतना पड़ा।
वकालती जीवन में पैसा महत्वपूर्ण है लेकिन दवे कुचले लागों को दी गई निशुल्क विधिक सहायता किसी नामी गिरामी कम्पनी को दी गई प्रोफेशनल एडवाइज से ज्यादा पे करती है। दवे कुचले लोग सूरजमुखी नही होते। वे अपने वकील को सदा श्रद्धा से देखते है। कानपुर में वकालत बन्द करके बैंगलोर चले गये प्रख्यात अधिवक्ता श्री एन.के. नायर पिछले सप्ताह कचहरी में थे। उनके चैम्बर में उनसे मिलने वालो का ताँता लगा था। कई श्रमिक नेता उपस्थित थे और उनके बीच चर्चा राहुल मोदी या अन्य किसी राजनेता की नही बल्कि राष्ट्र जीवन में परिवर्तन का कारण बने जन आन्दोलनो और अब उनके कमजोर हो जाने के कारण आम आदमी की वेबसी पर विचार विमर्श हो रहा था। हममे से कम लोगो को मालुम है कि अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान वर्ष 1955-56 में एन.के. नायर ने डी.ए.वी. कालेज छात्रावास में छात्र आन्दोलन के बल पर दलित छात्रों को सवर्ण छात्रों के भोजनालय में उनके साथ खाना खाने का अधिकार दिलाया और 1957 में मूलगंज चैराहे पर गुलामी के प्रतीक क्वीन विक्टोरिया की मूर्ति को तोडा था।
कचहरी का वर्तमान वातावरण इस गौरवगाथा के प्रतिकूल होता जा रहा है। अभी कुछ वर्ष पहले अपने भाई लोगों ने स्थानीय विवाद के कारण कानपुर कचहरी के वकील और बाद में भारत के प्रथम विधि मन्त्री बने कैलाश नाथ काटजू की प्रतिमा स्थापित नही होने दी। सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश श्री मार्केण्डेय काटजू प्रख्यात अधिवक्ता श्रीराम जेठमलानी सहित कई प्रमुख विधि वेताओं को कचहरी परिसर में परिचर्चा नही करने दी थी। शालीनता और धूम धड़ाके के बिना अपनी संस्थाओं के होने वाले चुनावो को छात्र संघों की तर्ज पर कराया जाने लगा है। इस सब को रोकना और अपनी पुरानी परम्पराओं को पुर्नस्थापित करना आज की जरूरत है।
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