Sunday, 16 February 2014

सभी राजनैतिक दल जिताऊ प्रत्याशियों की तुलना में आदर्श कार्यकर्ताओं को वरीयता दें ...........

पिछला गुरूवार 13 फरवरी 2014 संसदीय इतिहास में सबसे कलंकित दिन के रूप में याद किया जायेगा। सभी राजनैतिक दलों ने इसकी निन्दा की और दुर्भाग्यपूर्ण बताया है परन्तु किसी राजनेता ने संसद में सांसदों द्वारा किये जा रहे इस प्रकार के आपराधिक कृत्यों के कारणो पर चर्चा नही की है। सभी राजनैतिक दल तात्कालिक नफा नुकसान को दृष्टिगत रखकर अपने अपने तरीके से चुप्पी साध गये है। एक हिन्दी अखबार ने भी त्वरित टिप्पणी की है और लिखा है कि ‘‘स्वतन्त्र भारत के इतिहास में लोकसभा में गुरूवार सबसे शर्मनाक दिन था। आन्ध्र प्रदेश के माननीय सांसदो ने संसदीय मर्यादा तार तार कर दी। काँग्रेस के आला कमान प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह उनके सलाहकार सदन के बाहर से तथा नायब राहुल गाँधी से लेकर अधिकांश केन्द्रीय मन्त्री और काँग्रेस के संकट मोचक सदन के अन्दर यह शर्मनाक नजारा टुकुर टुकुर देखते रहे। यह नजारा काँग्रेस के वोट बैंक की राजनीति के अतीत का ही नही वर्तमान का भी जीता जागता उदाहरण है। राजनैतिक दलों की तरह आरोप प्रत्यारोप में उलझकर इस अखबार ने भी घटना का सरलीकरण करके उसके बहु आयामी दुष्प्रभाव और उसके कारणो की चर्चा नही की है और न मालूम क्यों अपने अघोषित राजनैतिक एजेण्डे को आगे बढ़ाया है।
समझना चाहिये कि आज जो कुछ भी घटित हुआ है, उसकी पृष्ठभूमि तेलंगाना विवाद में निहित नही है। राम लाल के संचार मन्त्री रहने के दौरान टेलीकाम घोटाले को लेकर लगातार कई सप्ताह तक संसद में काम काज ठप करने से इसकी शुरूआत हुई है। उसके बाद प्रायः सभी संसदीय सत्र हंगामे और शोर शराबे का शिकार होते रहे है और इसके लिए सभी एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहते है परन्तु संसदीय सत्रो को सुचारू रूप से संचालित करने और उसमें गम्भीर विचार विमर्श के लिए कभी कोई ठोस कार्य योजना नही बनाई गई। समाजवादी नेता राजनरायण संसद मे अपनी बात कहने का अवसर न देने नाराज होकर हंगामा करते थे। आज के सांसद संसद को विचार विमर्श करने से वंचित रखने के दुराशय से हंगामा करते है। उन्हें शायद नही मालुम कि संसदीय नियमो का सहारा लेकर संसद के अन्दर भी सरकार का पर्दाफाश किया जा सकता है।
1974 में रेल कर्मचारियों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल के दौरान समाजवाद नेता मधुलिमये ने लोक सभा में कोई शोर शराबा किये बिना केवल संसदीय नियमों का सहारा लेकर की कर्मचारियों के विरूद्ध सरकारी दमन को उजागर किया और इन्दिरागाँधी की सरकार को कटघरे में खड़ा करके निरूत्तर कर दिया था। उन्होंने पूँछा था कि रेल कर्मचारियों और उनके सेवायोजक के मध्य उत्पन्न विवाद के समाधान और जारी गतिरोध को तोड़ने के लिए आद्यौगिक विवाद अधिनियम के तहत श्रम मन्त्रालय ने क्या प्रयास किये है उस समय के श्रम मन्त्री और पूरी भारत सरकार संसद में इस प्रश्न का कोई उत्तर नही दे सकी थी। विरोध का यह तरीका आज विलुप्त हो गया है। संसद का बहिष्कार करने की तुलना में संसदीय नियमो का सहारा लेकर ज्यादा प्रभावी तरीके से सरकार का पर्दाफाश किया जा सकता है परन्तु अब कोई सांसद संसदीय नियमों एवं परम्पराओं का अध्ययन करना ही नही चाहता बल्कि मनमाने तरीके से स्वनिर्मित नियमों के तहत संसद को ठप करने में अपनी शान समझते है।
वास्तव में सम्पूर्ण घटनाक्रम के लिए सभी राजनैतिक दल दोषी है। कमोवेश सभी ने संसदीय मर्यादाओं को तार तार किया है। उत्तर प्रदेश विधान सभा मे भाजपा पर किये गये जान लेवा हमले के दोषी विधायको पर राजनैतिक कारणो से कोई कार्यवाही नही हो सकी। इसी प्रकार विधान सभा में अश्लील वीडियो देख रहे विधायको को एक स्वर में निन्दा नही की गई और उसके कारण अमर्यादित आचरण करने वाले कभी हतोत्साहित नही हो सके। संसद में हंगामा करने वाले सांसदो को भी अपने दलो के अन्दर महत्व मिलता है। उन्हें संरक्षण दिया जाता है।
सभी राजनैतिक दलो ने संसद और विधान मण्डलो में बहस और विचार विमर्श का महत्व घटाया है। राज्य विधान मण्डलों के सत्रो की अवधि का निरन्तर कम होता जाना चिन्ता का विषय है। चर्चा कराये बिना सरकारी प्रस्तावो को पारित कराना आम बात हो गई है। संसद देश की समस्याओं और उसके समाधान के लिए नीतिगत विचार विमर्श की सर्वोच्च संस्था है और यदि आपसी सहिष्णुता और मानवीय गरिमा के साथ यहा भी विचार विमर्श चर्चा परिचर्चा सम्भव नही हो सकी तो फिर संसदीय लोकतन्त्र के लिए खतरा सुनिश्चित है। राजनीति के विद्यार्थी संसद के प्रेरणा प्राप्त करते है और उसके अनुरूप अपने राजनैतिक आचार विचार को ढालते है। संसद में सड़क छाप गुण्डागर्दी को देखकर इस व्यवस्था के प्रति उनका आक्रोश बढ़ता है और विश्वास कम होता है। संसद मे हगांमा करके काम काज ठप करा देने की कार्यवाही विरोध का सही तरीका नही है। राजनैतिक दलो ने विरोध के इस सस्ते तरीके पर पुनर्विचार करके हालात को सुधारने की दिशा मे कोई सार्थक प्रयास नही किया तो निश्चित रूप से पूरे देश को भयावह स्थितियों का सामना करना पडेगा।
यह सच है कि संसद और उसकी परम्पराओ मे गिरावट के लिए भारतीय जनता पार्टी आदि दलो की तुलना में काँग्रेस ज्यादा जिम्मेेदार है। वर्ष 1980 के मध्यावधि चुनावों के बाद संजय गाँधी और उनके समर्थको ने संसद में चरण सिंह जैसे वयोबृद्ध नेताओं के भाषण के दौरान सीटी बजाकर हुडदंग की शुरूआत की थी। राज्य सभा में काँग्रेसी सांसदो के व्यवहार से व्यथित होकर उपराष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा इस्तीफे की पेशकश करने को विवश हुये थे। संसद में अपनी माँगो पर समर्थन जुटाने के लिए मिर्च स्प्रे का प्रयोग करने वाले श्री एल. राजगोपाल काँग्रेस के टिकट पर लोक सभा सदस्य चुने गये है। इन्होंने कभी अपने एक निजी विधेयक के द्वारा लगातार तीन सत्रो में सदन की कार्यवाही में व्यवधान उत्पन्न करने वाले सांसद की सदस्यता रद्द करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। वे कठोर कार्यवाही के पक्षधर रहे है इसलिए अब उन्हें अपने किये के लिए स्वयं अपनी सजा तय करने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये।
काँग्रेस ने पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार को अल्पमत से बहुमत में बदलने के लिए करोड़ो रूपये खर्च करके शिवू सोरेन अजीत सिंह और उनके साथियो की निष्ठा खरीदी थी। 14 वीं लोक सभा में भी काँग्रेसियो ने धन बल के द्वारा बहुमत का जुगाड किया और इस अनैतिक आचरण के कारण उन्हें किसी नकारात्मक परिणाम का सामना नही करना पड़ा इसलिए अपनी तात्कालिक सुविधा और लाभ के लिए सभी दलो ने संसद की गरिमा का अपमान किया है और उसके लिए कोई शर्मिन्दा भी नही है।
संसद की गरिमा अपने संसदीय लोकतन्त्र का अभिन्न एवं अपरिहार्य भाग है इसलिए उसकी रक्षा का दायित्व राजनैतिक दलों से ज्यादा जनता पर है। संसद की गरिमा को तार तार करने वाले सांसद अपने असंसदीय आचरण से राजनैतिक लोक प्रियता प्राप्त करना चाहते है। राजनैतिक दल राजनैतिक पृष्ठ भूमि के आदर्श कार्यकर्ताओ की तुलना में आपराधिक पृष्ठ भूमि के जिताऊ प्रत्याशियो को चुनाव लडाने में वरीयता देते है और जनता भी उन्हें वोट देकर जिता देती है। संसद में प्रश्न पूँछने के लिए खुले आम घूस लेते पकड़े गये सांसद को अकबरपुर (कानपुर) क्षेत्र के मतदाताओ ने पुनः जिताकर घूस लेने के लिए उन्हें क्षमा कर दिया जबकि तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने दृढतापूर्वक उनकी सदस्यता रद्द करने का फैसला लिया था।
प्रथम लोक सभा अध्यक्ष श्री गणेश वासुदेव मावलंकर ने कहा था कि सच्चे लोकतन्त्र के लिए व्यक्ति को केवल संविधान के उपबन्धों अथवा विधान मण्डल के कार्य संचालन के लिए बनाये गये नियमो के अनुपालन तक सीमित नही रहना चाहिये बल्कि सदस्यों में लोकतन्त्र की सच्ची भावना विकसित करनी चाहिये। संसद में निर्णय बहुमत के आधार पर लिये जाते है परन्तु यदि सरकार का कार्य केवल उपस्थित सदस्यो की संख्या और उनकी गिनती तक सीमित रखा गया तो संसदीय लोकतन्त्र का यह पाना सम्भव नही हो पायेगा। हमे सहन शीलता स्वतन्त्र रूप से चर्चा और समझदारी की भावना का विकाश करना चाहिये। केवल इसी एक रास्ते से लोकतन्त्र की भावना को पोषित रखा जा सकता है। इस प्रकार की भावनाओं को जीवित रखने के लिए आवश्यक है कि सभी राजनैतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि के जिताऊ प्रत्याशियों की तुलना में अपने आदर्श कार्यकर्ताओं को संसद और विधान मण्डलों का टिकट थमायें। 

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