Sunday, 5 January 2014

कारपोरेट घरानों के प्रभाव ने भुला दिया श्रमिकों का बलिदान ..........

श्रमिक राजनीति में संघर्ष और त्याग तपस्या की परम्परा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर कामरेड दौलत राम नही रहे। उनके निधन से हर जोर जुल्म के टक्कर मे संघर्ष हमारा नारा है को मूल मन्त्र मानने और उसके आधार पर असंघटित क्षेत्र के श्रमिको को एक करने के सर्वदेशीय प्रयासो को एक गम्भीर झटका लगा है। कानपुर श्रमिक राजनीति का तीर्थ स्थल है, विश्वविद्यालय है। गणेश शंकर विद्यार्थी, एस.एम. बनर्जी सूर्य प्रसाद अवस्थी, संतोष चन्द्र कपूर, हरिहर नाथ शास्त्री, अर्जुन अरोड़ा, रामनरेश सिंह उर्फ बड़े भाई कामरेड राम आसरे, राजाराम शास्त्री, गणेश दत्त बाजपेई, मकबूल अहमद खाँ, बिमल मेहरोत्रा, रवि सिन्हा, सन्त सिंह, युसुफ जैसे कई लोगों ने यहाँ संघर्ष का पाठ पढ़ा और फिर देश विदेश में त्याग तपस्या के झण्डे गाड़कर कानपुर की श्रमिक राजनीति का नाम रोशन किया है। महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन ने अपनी पुस्तक नये भारत के नये नेता मे कामरेड सन्त सिंह यूसुफ का गुणगान करके कानपुर के श्रमिक आन्दोलन की महत्ता को रेखांकित किया है।
साम्यवादी विचारक ई.एम0एस0 नंबूदिरिपाद ने अपनी पुस्तक ‘‘भारत में स्वाधीनता संग्राम’’ मे कानपुर की श्रमिक राजनीति के गौरवमय इतिहास का उल्लेख करते हुये बताया है कि वेतन में बढ़ोत्तरी और अपनी यूनियन को मान्यता दिये जाने की माँग को लेकर जुलाई 1937 में कानपुर की एक ब्रिटिश स्वामित्व वाली कपड़ा मिल की हड़ताल श्रमिक संघर्ष का एक शानदार उदाहरण है। हलाँकि इस हड़ताल को संघटित करने और दिशा देने में कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट सबसे आगे थे लेकिन स्थानीय काँग्रेस कमेटी ने भी इसमें सक्रिय भूमिका निभाई। कानपुर की इस हड़ताल ने देश भर मे मजदूरो के संघर्ष के लिए माडल का काम किया।
सम्पूर्ण देश की श्रमिक राजनीति का केन्द्र बिन्दु रहा इस शहर का श्रमिक आन्दोलन आज निस्तेज हो गया है। आर्डनेन्स फैक्ट्रियो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक और केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में टेªड यूनियन गतिविधियाँ अब कही दिखाई नही देती। संघटित क्षेत्र के कारखाने बन्द हो गये और असंघटित क्षेत्र में श्रमिको का शोषण तेजी से बढ़ा है। पिछले वर्ष लोहिया स्टार लिंगर के गेट पर सभा करते समय कामरेड दौलतराम और उनके साथियों को गिरफ्तार किया गया था। इसके पहले या इसके बाद पिछले दो दशको में किसी श्रमिक आन्दोलन के कारण अधिकारियों की नीद हराम नही हुई है। यह वही शहर है जहाँ हर गली मुहल्ले में ‘‘कमाने वाला खायेगा, लूटने वाला जायेगा’’ हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है का उद्घोष सुनाई पड़ता था। सरमायेदारों पूँजीपतियों के अत्याचार के सामने मेहनतकशों की आवाज बुलन्द रहा करती थी। श्रमिको और श्रमिक आन्दोलनो का मनोबल कभी कमजोर नही हुआ। आठ घण्टे का कार्य दिवस सप्ताह में एक दिन का अवकाश ई.एस.आई. भविष्यनिधि जैसे सुविधायें श्रमिको ने संघर्ष करके अपने साथियों का बलिदान देकर प्राप्त की है। किसी पूँजीपति या सरकार ने श्रमिको को उपहार में कुछ भी नही दिया है।
श्रमिको को संघटित करना और फिर कल कारखानों मे उनके लिए मूलभूत मानवीय सुविधायें जुटाना सदा से कठिन काम रहा है। श्रमिकों को अपने अधिकारो के लिए जागरूक करने के लिए बढ़ चढ़कर काम करने कार्यकर्ताओं के सामने नौकरी खोने का खतरा सदा बरकरार रहता था। उसके बावजूद कल कारखानो से ही क्रान्तिकारी श्रमिक नेतृत्व उभरा। सूर्य प्रसाद अवस्थी, प्रभाकर त्रिपाठी, राम नारायण पाठक, एस.एम. बनर्जी जैसे नेता कल कारखानों की देन है। कानपुर मे तत्कालीन एल्गिन काटन स्पिनिंग एण्ड वीविंग मिल्स कम्पनी लिमिटेड के साधारण श्रमिक कामदत्त ने पहली श्रमिक यूनियन की नीव डाली। स्वतन्त्र भारत में भी कारखानों में श्रमिक संघ बनाना कोई आसान काम नही रहा है। आज भी लोहिया स्टार लिंगर जैसे कई कारखानों में यूनियन बनाने के कारण श्रमिकों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। 
सत्तर के दशक में काँग्रेसी सांसद रामरतन गुप्ता के कारखाने लक्ष्मी रतन काटन मिल में श्रमिको की अपनी कोई यूनियन नही थी। मिल मालिक के पसन्दीदा लोगों ने एक यूनियन बना रखी थी। जिस पर उन्ही के लोगो का आधिपत्य था। काँग्रेसी सांसद का कारखाना होने के कारण इस मिल मे श्रम कानूनों का आदतन उल्लंघन किया जाता था। अन्य मिलों के श्रमिकों को प्राप्त मूलभूत सुविधायें भी श्रमिको को प्राप्त नही थी। सवर्ण जातियों के लोग अपनी जाति छिपाकर हरिजन बनकर यहाँ नौकरी पाते थे। मिल मालिक राम रतन गुप्ता की मनमानी को यहाँ श्रम कानून के रूप में मान्यता दी जाती थी। श्रम विभाग के अधिकारियों का यहाँ कोई हस्तक्षेप नही था। जे.के. मैन्यूफैक्चर्स (कैलाश मिल) के साधारण श्रमिक शिव किशोर ने इस मिल में श्रमिकों को संघटित करने का बीड़ा उठाया। अपने समाजवादी साथियों एन.के. नायर एडवोकेट और रघुनाथ सिंह के साथ मिलकर उन्होंने लक्ष्मी रतन मजदूर पंचायत का गठन किया। इस दौरान मालिको ने उनके कई साथियों को नौकरी से निष्कासित किया लेकिन श्रमिक आन्दोलन और उसके ईमानदार नेतृत्व के बल पर राम रतन गुप्ता को झुकना पड़ा। निष्कासित श्रमिक नौकरी पर वापस लिये गये। श्रमिको को पहली बार अपने पदो पर स्थायी किया गया और सेवा निवृत्ति के बाद उन्हें ग्रेच्युटी का लाभ मिला। श्रमिक नेता गणेश दत्त बाजपेई के श्रम मन्त्रित्व काल में भी इस मिल के श्रमिको को हड़ताल करनी पड़ी थी और श्रमिक नेता शिव किशोर सहित कई श्रमिको के विरूद्ध आपराधिक मुकदमें पंजीकृत किये गये और उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेजा गया। 
तब की तुलना मे अब श्रमिकों को संघटित करना ज्यादा कठिन हो गया है। आज देश की राजनीति कारपोरेट घरानों से नियन्त्रित एवं संचालित होती है। त्याग तपस्या वाली श्रमिक राजनीति इन घरानों को रास नही आती। श्रमिक संघठनों को कमजोर रखना उनका प्रिय शगल है। सरकार अधिकारी और राजनेता उनकी मद्द करते है। अधिकांश सांसद किसी न किसी कारपोरेट घराने का प्रतिनिधित्व करते है और उन्हीं के हितों की सुरक्षा के लिए अपना सर्वोत्तम् न्योछावर करना अपना कर्तव्य मानते है। इसीलिए संसद में श्रमिको के मुद्दो पर काम रोको प्रस्ताव नही सुनाई देते। गुडगाँव के मारूति उद्योग के श्रमिकों की व्यथा को संसद में नही सुना गया। आज भी श्रमिको की रिहाई नही हो सकी है। उनके परिवार गम्भीर आर्थिक संकट का शिकार है। एक साजिश के तहत कल कारखानों में श्रमिको की बेहतरी के लिए अपना जीवन न्योछावर करने वाले श्रमिको, श्रमिक नेताओं और उनकी शहादत को महत्वहीन करने का अभियान जारी है। मृत्यु के समय कामरेड दौलतराम के बैंक खाते में दस रूपये भी नही थे। इसके पहले उत्तर प्रदेश सरकार मे श्रम मन्त्री और दो बार विधायक रहे श्रमिक नेता प्रभाकर त्रिपाठी की मृत्यु के समय उनके बैंक खाते में केवल सात सौ रूपये की जमा पूँजी थी। एकाध अपवादों को छोड़कर अधिकांश श्रमिक नेताओं ने अपने प्रभाव का प्रयोग करके जमीन जायदाद नही जुटाई। अपने मीडिया घरानो को श्रमिक नेताओं की शहादत याद नही आती। 6 जनवरी 1947 को सवेतन अवकाश की माँग को लेकर निकले श्रमिको के जलूस पर काँग्रेस की तत्कालीन अन्तरिम सरकार ने कानपुर के जरीब चैकी चैराहे पर गोली चलवाई थी जिसमें महिला श्रमिक वीरांगना सरस्वती देवी सहित सात श्रमिक शहीद हुये थे। श्रमिक साथियों के इस बलिदान के कारण आज सभी नौकरी पेशा लोग सवेतन अवकाश की सुविधा भोग रहे है परन्तु उनके बलिदान को याद करने की फुर्सत किसी के पास नही है।
परतन्त्र भारत में श्रमिको को संघटित करने की शुरूआत करने वाले पण्डित कामदत्त से लेकर कामरेड दौलत राम तक के संघर्ष के बीच एक लम्बा अन्तराल बीता है। इस दौरान साजिश के तहत सरोकारो की राजनीति करने वाले श्रमिक नेताओं को महत्वहीन किया गया। एक नये प्रकार का आक्रामक नेतृत्व उभारा गया जिसे तत्काल लोकप्रियता मिली और उसी के कारण श्रमिक आन्दोलन का मूल चरित्र बदल गया और कल कारखानों की बन्दी का मार्ग प्रशस्त हुआ। श्रमिक हितों की रक्षा के लिए काम करने वाली टेªड यूनियने कानपुर के मूल चरित्र को बचाने में बुरी तरह असफल हुई है। श्रमिक चीखता चिल्लाता रहा, असहाय हो गया, उसे कहीं से न्याय नही मिला, उसे वी.आर.एस. लेने के लिए मजबूर होना पड़ा और आज उसके सामने उसे रोजी रोटी देने वाले कारखाने कबाड़ के भाव बेचे जा रहे है। बी.आई.सी. को मिले अभी बची है उनमे उत्पादन शुरू कराने की बाते एक संवेदनहीन चुनावी वायदा है। यह संवेदनहीनता घातक है और इसके दूरगामी परिणाम ज्यादा खतरनाक हो सकते है। यह सवाल कानपुर की अस्मिता का नही है बल्कि इसमें हजारो परिवारो की रोजी रोटी, उनके जीवन और अस्तित्व का भी सवाल जुड़ा है। इस त्रासदी से बचने का एक मात्र उपाय यही हो सकता है कि कानपुर की जनता एक जुट होकर सड़क पर उतरे। जनशक्ति से ही कानपुर के मूल चरित्र को बचाया जा सकता है। इसी प्रकार के प्रयासो से कामरेड दौलतराम को उनकी त्याग तपस्या और उनके संघर्षों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है।

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