Saturday, 28 December 2013

टू फिंगर टेस्ट पीडि़ता की गरिमा के प्रतिकूल..................

केन्द्रीय सरकार ने बालात्कार पीडि़तों के चिकित्सकीय परीक्षण के लिए जारी अपने दिशा निर्देशों में टू फिंगर टेस्ट और उसके आधार पर पीडि़ता को सहवास का आदी बताये जाने की प्रथा को बन्द करने की सलाह दी है। दिशा निर्देशों के तहत अब परीक्षण रिपोर्ट मे बालात्कार शब्द का प्रयोग नही किया जायेगा। बालात्कार विधिक शब्द है और मेडिकल डायग्नोसिस से इसका कोई सम्बन्ध नही है। चिकित्सको को अपनी रिपोर्ट में पीडि़ता के प्रायवेट पार्टस की बाहरी और आन्तरिक चोटों, उनके रंग, आकार और आयु का स्पष्ट उल्लेख करके साक्ष्य आधारित ओपीनियन देनी चाहिये ताकि विचारण के समय न्यायालय को परीक्षण रिपोर्ट के आधार पर किसी निष्कर्ष तक पहुँचने मे सहायता प्राप्त हो सके। अपने देश में आज भी टू फिंगर प्रवेश को आधार मानकर पीडि़ता को सहवास का आदी बताने का दस्तूर जारी है जबकि विश्व स्वास्थ संघठन सहित सभी चिकित्सकीय संघठनों ने इसे अवैज्ञानिक एवं अमानवीय घोषित किया है।
सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकीय परीक्षण और विवेचना के दौरान पीडि़ता को नये सिरे से बालात्कार के अमानवीय अनुभव से गुजरना पड़ता है। इस दौरान पीडि़ता को मानसिक एवं भावनात्मक सहारे की जरूरत होती है। पुलिसकर्मी और अस्पताल के कर्मचारी अपने व्यवहार से जाने अनजाने पीडि़ता को शर्मिन्दगी का शिकार बनाते है। परीक्षण कक्ष के बाहर सभी तरह के मरीज बैठे होते है। किसका रेप हुआ है, की आवाज देकर उसे बुलाया जाता है इसे सुनते है वहाँ उपस्थित सभी की दृष्टि पीडि़ता पर पड़ती है और उस क्षण मन ही मन पीडि़ता अपने आपमें शर्मिन्दगी का शिकार बनती है। इसी बीच कक्ष में पहुँचते ही कई लोगों की उपस्थिति में मेज पर लेट जाओं, सलवार उतारो, पैर फैलाओं जैसी बातें कही जाती है और फिर डाक्टर की दो अँगुलिया का प्रवेश पीडि़ता के लिए अपमानजनक ही नही कष्टदायी भी होता है। परीक्षण के लिए यह सब किया जाना आवश्यक हो सकता है परन्तु इन मामलों में यान्त्रिक तरीके से की गई कार्यवाही नुकशान देह होती है। इसीलिए केन्द्रीय सरकार के नये दिशा निर्देशों में परीक्षण के पूर्व पीडि़ता और यदि वह 12 वर्ष से कम आयु की है तो उसके माता पिता की सहमति लेने का आदेशात्मक प्रावधान किया गया है। दिशा निर्देशों मे कहा गया है कि परीक्षण प्रारम्भ करने के पूर्व डाक्टर पीडि़ता को सहानभूति के स्वर में शालीनता से उसकी अपनी भाषा में परीक्षण की आवश्यकता और उसकी प्रक्रिया के बारे में जानकारी देंगे और यदि वह परीक्षण के लिए अपनी सहमति नही देती है तो उसे अपने आन्तरिक अंगों का परीक्षण कराने के लिए बाध्य नही किया जायेगा। परीक्षण महिला चिकित्सक द्वारा किया जायेगा और यदि वह उपलब्ध नही है तो पुरूष चिकित्सक के साथ परीक्षण के दौरान किसी महिला की उपस्थिति आवश्यक बना दी गई है।
पीडि़ता के आन्तरिक अंग का चिकित्सकीय परीक्षण अभियुक्त के विरूद्ध सुसंगत विश्वसनीय साक्ष्य संकलित करने के लिए किया जाता है। चिकित्सकीय परीक्षण की वर्तमान प्रक्रिया और उसकी शब्दावली शुरूआत से ही दोषपूर्ण है और उसके द्वारा पीडि़ता की मानवीय गरिमा और उसके आत्म सम्मान को ठेस पहुँचती है। वैज्ञानिक तथ्यों से सिद्ध हो चुका है कि हाईमेन का इनटैक्ट होना वर्जिनिटी का परिचायक नही है। ज्यादा भागदौड़, साइकिलिंग, स्वीमिंग जैसी शारीरिक गतिविधियों के कारण भी हाईमेन फट जाता है। इसलिए इसका फटना या इनटेक्ट होना दोनों स्थितियाँ पीडि़ता के प्रतिकूल नही होती। चिकित्सक प्रायः प्रायवेट पार्टस की आन्तरिक चोटो का उल्लेख नही करते इसलिए विचारण के समय उनके रंग, आकृति या आयु की जानकारी नही हो पाती। केवल दो अँगुलियों के प्रवेश और हाईमेन के फटने को आधार बनाकर पीडि़ता को सहवास का आदी बता दिया जाता है, जो पीडि़ता के साथ सरासर अन्याय है और इससे उसकी प्रायवेसी का हनन होता है। कक्षा 6 की एक छात्रा को परीक्षण में सहवास का आदी बताया गया जबकि घटना के दिन उसकी आयु केवल 13 वर्ष 9 माह थी। वास्तव में चिकित्सको को परीक्षण रिपोर्ट मे पीडि़ता को सहवास का आदी बताकर ‘‘बालात्कार के बारे में कोई स्पष्ट राय नही दी जा सकती’’ जैसी शब्दावली का प्रयोग करने की मनाही है। उन्हें केवल बाहरी और आन्तरिक चोटो का विवरण सुस्पष्टता से लिखना होता है। विवाहित महिलायें भी बालात्कार का शिकार होती है इसलिए बालात्कार के विचारण में सहवास का आदी होने या न होने की तुलना में प्रायवेट पार्टस की आन्तरिक चोटें ज्यादा विश्वसनीय महत्वपूर्ण सुसंगत साक्ष्य होती है।
स्टेट आफ उत्तर प्रदेश बनाम मुन्शी (ए.आइ.आर. 2009-एस.सी. पेज 370) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सहवास का पूर्व अनुभव किसी महिला की शिकायत के प्रभाव और उसकी विश्वसनीयता को कम नही करता। विचारण के समय न्यायालय के समक्ष उसके पूर्व सहवास का अनुभव प्रश्नगत नही होता। कथित घटना प्रश्नगत होती है। बालात्कार हुआ है या नही की पुष्टि के लिए साक्ष्य प्रस्तुत की जाती है। यदि किसी महिला को सहवास का पूर्व अनुभव है या उसने अपनी वर्जिनिटी खो दी है तो इसका यह अर्थ नही कि किसी व्यक्ति को उसकी सम्मति के बिना जबरन उसके साथ बालात्कार करने का लायसेन्स मिल जाता है। विचारण अभियुक्त का होता है पीडि़ता का नही। साक्ष्य अधिनियम की धारा 53 एवं 54 में भी प्रावधान है कि यदि पीडि़ता का चरित्र खुद में प्रश्नगत नही है तो विचारण के लिए उसका चरित्र सुसंगत तथ्य नही है। उस पर विचार नही किया जा सकता। किसी भी महिला को लैंगिक सहवास के लिए इन्कार करने का अधिकार प्राप्त है। उसकी अपनी साक्ष्य किसी इन्जर्ड साक्षी की तुलना में ज्यादा विश्वसनीय है। परीक्षण करते समय चिकित्सको को समझना चाहिये कि इन्जर्ड साक्षी को केवल शरीर पर चोटे आती है और समय के साथ उसके घाव भर जाते है परन्तु बालात्कार में पीडि़ता को शारीरिक चोटो के अलावा भावनात्मक एवं मानसिक स्तर पर भी चोटे आती है। एक निर्दोष अवयस्क लड़की के मामले मे तो इसका अवसाद ताजिन्दगी उसे सालता रहता है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के फैसलो को दृष्टिगत रखकर परीक्षण प्रक्रिया को ज्यादा मानवीय बनाये जाने की आवश्यकता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने लिल्लू उर्फ राजेश एण्ड एनादर बनाम स्टेट आफ हरियाणा (2013-3-जे.आई.सी. पेज 534-एस.सी.) में पारित अपने निर्णय के द्वारा दो अँगुलियो के प्रवेश आधारित चिकित्सकीय परीक्षण को अवैज्ञानिक अमानवीय और पीडि़ता की मानवीय गरिमा के प्रतिकूल बताया है। इससे उसकी प्रायवेसी का हनन होता है। सुस्थापित विधि है कि सहवास का आदी होने से पीडि़ता की सहमति की उपधारणा नही बनाई जा सकती है। इसलिए तत्काल प्रभाव से परीक्षण रिपोर्ट में बालात्कार सहवास का आदी दो अँगुलियों के प्रवेश जैसे शब्द लिखना बन्द कर दिया जाये और यदि कोई चिकित्सक उसका उल्लंघन करे तो उसके विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित करायी जाये।

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