उत्तर प्रदेश में विशुद्ध वोट बैंक की राजनीति को ध्यान में रखकर सपा नेता श्री मुलायम सिंह यादव ने अपने मुख्य मन्त्रित्व काल में दस्यु सरगना फूलन देवी के विरूद्ध एक ही जाति के बीस व्यक्तियों की सामूहिक हत्या के मुकदमें सहित 55 लम्बित मुकदमों को वापस लेने का फरमान जारी करके दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के दुरूपयोग की शुरूआत की थी। उनके पुत्र अखिलेश यादव ने अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुये केन्द्र सरकार की पूर्व अनुमति लिए बिना प्रदेश के विभिन्न न्यायालयों में आतंकी वारदातों में शामिल 15 आरोपियो के मुकदमें वापस लेने का आदेश परित किया है जबकि दण्ड प्रक्रिया संहिता में केन्द्र सरकार से सम्बन्धित अपराधों में उसकी सम्मति प्राप्त किये बिना अभियोजन वापस लेने की मनाही है।
अखिलेश सरकार ने आतंकी वारदातों मे शामिल शरीफ उर्फ सरफराज थाना दशाश्वमेघ वाराणसी, मोहम्मद तारिक काजमी थाना कैन्ट गोरखपुर, इम्त्यिाज अली थाना सचेण्डी सितारा बेगम थाना बिठूर अरशद थाना स्वरूप नगर कानपुर नगर, मकसूद ताज मोहम्मद एवं जावेद उर्फ गुड्डू थाना रामपुरगंज, खालिद मुजाहिद बाराबंकी, मो. याकूब नाका, मोहम्मद कलीम एवं अबुल मोबीन थाना कैसरबाग, मुख्तार हुसैन, मोहम्मद अली, अकबर, अजीमुर्रहमान, नौशाद हाफिज, नूरूल इस्लाम थाना वजीरगंज जनपद लखनऊ, महमूद हसन उर्फ बाबू थाना नजीराबाद बिजनौर को उनके विरूद्ध अधिरोपित आरोपो में विधिपूर्ण दण्ड से बचाने के लिए न्यायालय के समक्ष लम्बित मुकदमों को वापस लेने का आदेश पारित किया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनके आदेश को निरस्त कर दिया है।
फूलन देवी के मामले में कानपुर देहात के तत्कालीन प्रथम अपर जनपद एवं सत्र न्यायाधीश ने अभियोजन वापसी के प्रार्थनापत्र को रद्द करके राज्य सरकार के मन्सूबों पर पानी फेर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने भी विचारण न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। लेकिन राज्य सरकारे अभियोजन वापसी पर सर्वोच्च न्यायालय या विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा प्रतिपारित विधि का अनुपालन करने के लिए तैयार नही है और सदा मनमानी करती है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 मे कहा गया है कि ‘‘किसी मामले का भारसाधक कोई लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक (अदालत का सरकारी वकील) निर्णय सुनाये जाने के पूर्व किसी समय किसी व्यक्ति के अभियोजन को या तो साधारणतः या उन अपराधो में से किसी एक या अधिक के बारे में जिनके लिए उस व्यक्ति का विचारण किया जा रहा है, न्यायालय की सम्मति से वापस ले सकता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने दण्ड प्रक्रिया संहिता में राज्य स्तरीय संशोधन करके अधिनियम संख्या 18 सन् 1991 के द्वारा धारा 321 में किसी मामले को भार साधक’’ शब्दो के बाद राज्य सरकार के इस प्रभाव की ‘‘लिखित अनुमति पर जिसे न्यायालय में दाखिल किया जायेगा’’ शब्द अन्तः स्थापित किये है।
धारा 321 की शब्दावली से स्पष्ट है कि राज्य सरकार को आपराधिक मुकदमे वापस लेने के लिए असीमित शक्तियाँ प्राप्त नही है। अभियोजन वापसी के लिए सम्बन्धित न्यायालय की सम्मति आवश्यक है। सम्मति की प्रकृति आदेशात्मक है। केवल औपचारिकता नही है। तर्कपूर्ण ठोस आधारों के बिना प्रार्थनापत्र प्रस्तुत नही किये जा सकते। यह सच है कि राज्य सरकार प्रधान लोक अभियोजक है और इस नाते उसे किसी के विरूद्ध अभियोजन चलाने या न चलाने का अधिकार प्राप्त है परन्तु इसका यह अर्थ नही है कि बिना एकदम मनमाने तरीके से मुकदमा वापसी का अधिकार प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय ने घनश्याम बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश एण्ड अदर्स (2006-3-जे.आई.सी.-पेज 573-एस.सी.) में प्रतिपादित किया है कि लोक अभियोजक न्यायहित में मुकदमा वापस ले सकता है। अधिनियम में न्यायहित को परिभाषित नही किया गया है और उसका अनुचित लाभ उठाकर राज्य सरकार अपने समर्थको को उपकृत करने के लिए किसी युक्तियुक्त आधार के बिना मुकदमें वापस लेती है और उनके इस आचरण से आपराधिक न्याय प्रशासन के प्रति आम लोगों को विश्वास घटता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट आफ बिहार बनाम राम नरेश पाण्डेय एण्ड अदर्स (1957-सुप्रीम कोर्ट- पेज 389) में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 494 (वर्तमान में धारा 321) की व्याख्या करते हुये प्रतिपादित किया था कि यह धारा लोक अभियोजक को अभियोजन वापसी के लिए न्यायालय की सम्मति प्राप्त करने का अधिकार देती है। इस धारा में मुकदमा वापसी के लिए किन्ही आधारों का उल्लेख नही है लेकिन कहा गया है कि सम्मति देने या न देने का निर्णय न्यायिक कार्यवाही है। इसलिए इस आशय के प्रार्थनापत्रों के निस्तारण के समय प्रार्थनापत्र में वर्णित आधारों की सद्भावना के गुणदोष पर विचार किया जायेगा और देखा जायेगा कि राज्य सरकार या लोक अभियोजक ने किसी व्यक्ति विशेष को अनुचित लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से तो प्रार्थनापत्र प्रस्तुत नही किया है। अर्थात राज्य सरकार के आशय और उद्देश्य की न्यायिक समीक्षा की जायेगी।
स्टेट आफ उड़ीसा बनाम चन्द्रिका महापात्र एण्ड अदर्स (ए.आई.आर. 1977-पेज 903-एस.सी.) में न्यायमूर्ति श्री पी.एन. भगवती ने प्रतिपादित किया था कि इस प्रकार के मामलों में आपराधिक न्याय प्रशासन का हित सर्वोच्च होता है। इसलिए कोई हार्ड एण्ड फास्ट नियम नही बनाये जा सकते और न निर्धारित किया जा सकता है कि किस प्रकृति के मुकदमें वापस लिये जा सकते है या किस प्रकृति के मुकदमों को वापस लने की सम्मति न्यायालय द्वारा नही दी जा सकती है। प्रत्येक मामले की परिस्थितियाँ अलग अलग होती है। न्यायहित में आपराधिक न्याय प्रशासन की बेहतरी को ध्यान में रखकर सम्मति देने या न देने का निर्णय लिया जाना चाहिये। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जनपद बिजनौर में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 147, 148, 149, 307, 332, 353, 188, 504 एवं जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 130 (2) के तहत पंजीकृत मुकदमें को सम्पूर्ण अभियोजन साक्ष्य समाप्त हो जाने के बाद निर्णय के प्रकृम पर वापस लेने के लिए पारित आदेश की समीक्षा करते हुये प्रतिपादित किया है कि जनहित का आशय आम जनता के व्यापक हितों से है और उसमें शासकीय कर्मचारियों द्वारा अपने पदीय कर्तव्यों के अनुशरण मे की गयी विधिपूर्ण कार्यवाही भी शामिल है। पुलिस कर्मियो पर हमला करके उनके कर्तव्यों मे अवरोध पैदा करने के आरोपो के अभियुक्तों को विधिपूर्ण दण्ड से बचाने के लिए किसी भी प्रयास से सम्पूर्ण व्यवस्था हतोत्साहित होती है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती नूरजहाँ बनाम स्टेट आफ यू.पी. एण्ड अदर्स (2013-2-जे.आई.सी.-पेज 47) में प्रतिपादित किया है कि इस प्रकार के मुकदमें धारा 321 की परिधि में नही आते। इस निर्णय से स्पष्ट है कि हत्या और डकैती जैसे जघन्य अपराधों के मुकदमे धारा 321 के तहत वापस नही लिये जा सकते है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 और इस पर सर्वोच्च न्यायालय एवं विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों से सुस्पष्ट है कि इस मामले में सम्बन्धित अदालत के लोक अभियोजक (सरकारी वकील) की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। विधि उससे अपने स्तर पर निष्पक्षता एवं पारदर्शी तरीके से निर्णय लेने की अपेक्षा करती है। कई निर्णयों में कहा गया है कि उसे राज्य सरकार के रबर स्टैम्प की तरह काम नही करना चाहिये। कोई भी अधिवक्ता पत्रावली में उपलब्ध तथ्यों एवं साक्ष्यों के प्रतिकूल केवल और केवल निर्देशों पर कार्य नही करना चाहता परन्तु उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सरकारी वकीलो से न्यायसंगत आदर्श आचरण की अपेक्षा करना उनके साथ अन्याय है। हत्या, डकैती जैसे जघन्य अपराधों के विचारण के संचालन के लिए सरकारी वकीलों की नियुक्ति सत्तारूढ़ दल के नेताओं की निजी पसन्द नापसन्द के आधार पर की जाती है और किसी भी समय बिना कोई कारण बताये उन्हें हटाया जा सकता है ऐसी दशा में मुकदमा वापसी के निर्देशो के गुणदोष पर स्वतन्त्रापूर्वक विचार करने और तर्कपूर्ण आधार होने की दशा में ही न्यायालय की सम्मति लेने हेतु प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करने की बात करके वे सत्तारूढ़ दल के नेता को नाराज करने का जोखिम नही ले सकते।
वास्तव मे हत्या, डकैती जैसे जघन्य अपराधों में मुकदमा वापसी के निर्देशों को राज्य सरकार के विधि परामर्शी विभाग की असफलता के रूप में देखा जाना चाहिये। इस विभाग मे उच्च न्यायालय के अधीन सेवारत न्यायिक अधिकारी तैनात किये जाते है और मुकदमा वापसी के निर्देशों में उनकी निर्णायक भूमिका होती है। वे सरकार के अधीन नही होते और मुख्यमन्त्री या अन्य किसी मन्त्री के निर्देश पर विधि के प्रतिकूल जारी निर्देशों का पालन उनकी बाध्यता नही है। वे स्पष्ट रूप से मना कर सकते है परन्तु न मालूम क्यो वे अपनी न्यायिक भूमिका को भुलाकर राज्य सरकारो के अनुचित आदेशो को कानूनी जामा पहनाते है। समय आ गया है कि सर्वोच्च न्यायालय खुद पहल करे और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के आशय और उद्देश्य की स्पष्ट व्याख्या करके मुकदमा वापसी के आधारो के निर्धारण मार्ग प्रशस्त करे।
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