हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में निर्वसीयत महिलाओं की स्वअर्जित सम्पत्ति के उत्तराधिकार से उसके माता पिता और पैतृक वारिसों को वंचित रखा गया है जबकि उसे स्वावलम्बी और आत्म निर्भर बनाने में उसके पति और पति के परिजनों की तुलना में पैतृक वारिसों का योगदान सदैव ज्यादा रहता है। वर्ष 1955-56 में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम बनाये जाते समय हिन्दू परिवारों मे रोजगार के लिए महिलाओं के घर से बाहर निकलने का प्रचलन नही था। परन्तु अब समाज की संरचना मे अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ है और महिलाओं ने समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी कुशलता एवं परिश्रम के बल पर उल्लेखनीय सफलतायें हासिल की है और खुद की सम्पत्ति अर्जित करके नये कीर्तिमान स्थापित किये है। पति, पुत्र, पुत्री, सास या श्वसुर के जीवित न होने की दशा में उनकी स्वअर्जित सम्पत्ति उनके देवर, ननद या पति के किसी दूरस्थ सम्बन्धी को हस्तान्तरित हो सकती है परन्तु वर्तमान विधि के तहत उसके माता पिता या अन्य पैतृक वारिसों को हस्तगत नही हो सकती।
हिन्दू समाज में पारम्परिक मिताक्षरा संयुक्त परिवार टूट रहे है। एकल परिवारों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है। विवाहित महिलायें विवाह के बाद भी अपने पैतृक परिवार से अपनी घनिष्टता बरकरार रखती है और उन्हीं के बीच अपने आपको सहज पाती है। अधिकांश महिलायें विशेषकर कामकाजी महिलायें वारिस के रूप में पति पुत्र या पुत्री के अभाव में स्वेच्छा से अपने पैतृक वारिसो को प्राथमिकता देना चाहती है। अपने देवर या ननद की तुलना में अपने भाई बहिन उनकी पहली पसन्द है। हिन्दू परिवारों का पारम्परिक तानाबाना भी महिलाओं को अपने पैतृक परिवार के प्रति सदैव आत्मीय बनाये रखता है। प्रथम प्रसव के समय और उसके बाद बच्चे के शुरूआती पालन पोषण के दौरान महिलाये अपनी माँ के साथ अपने आपको ज्यादा आरामदेह पाती है। पति की मृत्यु के बाद महिलायें प्रायः अपने पैतृक गृह में लौट आती है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के पारित होने के समय विधि निर्माताओं ने महिलाओं के आत्म निर्भर होकर खुद की सम्पत्ति अर्जित करने में सक्षम होने की कल्पना नही की थी और शायद इसीलिए उनकी स्वअर्जित सम्पत्ति बाबत विधि बनाने में उनसे चूक हुयी है।
वर्तमान विधि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 (1) के तहत हिन्दू महिला की सामान्य सम्पत्ति के वारिसों को पांच वर्गो में रखा गया है। पहले वर्ग में पुत्र, पुत्री, पूर्वमृत पुत्र का पुत्र और पुत्री, पूर्वमृत पुत्री का पुत्र और पुत्री एवं पति आते है। दूसरे वर्ग में पति केे वारिस आते है और यदि पहले वर्ग में कोई वारिस नही है, तो निर्वसीयत महिला के पति के वारिस उसके वारिस होंगे। तीसरे वर्ग में आते है, निर्वसीयत महिला के माता पिता परन्तु इनको उत्तराधिकार उसी दशा में प्राप्त होगा जब पहले तथा दूसरे वर्ग का कोई वारिस जीवित न हो। चैथे वर्ग में पिता के वारिस और पाँचवे वर्ग में माता के वारिस आते है। इसके दो अपवाद है। जिनका उल्लेख धारा 15 (2) में किया गया है और उसके अनुसार कोई सम्पत्ति जो हिन्दू महिला को अपने पिता या माता से प्राप्त हुई हो, मृतक के पुत्र या पुत्री के अभाव में पिता के वारिसों को वापस होगी और जो सम्पत्ति पति या श्वसुर से विरासत में प्राप्त होगी वह सम्पत्ति पुत्र या पुत्री के जीवित न होने की दशा में पति के वारिसों को वापस होगी। अर्थात महिला को जिस स्त्रोत से सम्पत्ति प्राप्त हुई थी, उसके दिवंगत हो जाने के बाद वह सम्पत्ति उसी स्त्रोत की ओर लौट जायेगी।
निर्वसीयत विधवा महिला की स्वअर्जित सम्पत्ति उसके पुत्र या पुत्री (प्रथम वर्ग के वारिस) के अभाव में द्वितीय वर्ग के वारिसों को हस्तगत होती है अर्थात यदि उसकी सास जीवित है तो सम्पूर्ण सम्पत्ति उसकी सास को और यदि श्वसुर जीवित है तो श्वसुर को हस्तगत होगी और यदि दोनों जीवित नही है तो सम्पत्ति देवर और ननद को हस्तान्तरित हो जायेगी परन्तु हिन्दू महिला के पैतृक वारिसों को उसकी सम्पत्ति हस्तान्तरित नही होगी लेकिन पति के दूर दराज के सम्बन्धियों को हस्तान्तरित हो सकती है।
विधि की इस विसंगति पर सर्वोच्च न्यायालय ने ओम प्रकाश एण्ड अदर्स बनाम राधाचरण एण्ड अदर्स (2009-15-एस0सी0सी0पेज 66) में विचार किया है और माँ को अपनी बेटी की स्वअर्जित सम्पत्ति का वारिस नही माना। श्रीमती नारायणी देवी का विवाह वर्ष 1955 में श्री दीनदयाल शर्मा के साथ सम्पन्न हुआ। विवाह के तीन माह के अन्दर उनके पति की मृत्यु हो गई। उसके बाद वे अपने पैतृक घर आ गई और 11 जुलाई 1966 को उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के पूर्व उन्होंने काफी सम्पत्ति अर्जित की थी, परन्तु अपनी सम्पत्ति बाबत कोई वसीयत निष्पादित नही की। उनकी सम्पत्ति के लिए उनकी माँ और पति के वारिसों ने उत्तराधिकार प्रमाण पत्र पाने के लिए आवेदन किया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15(1) को दृष्टिगत रखकर उसके आधार पर माँ के पक्ष में उत्तराधिकार प्रमाण पत्र जारी करने से इन्कार कर दिया। जबकि सम्पत्ति पति या उसके परिजनों से मृतका को प्राप्त नही हुई थी और न उसके अर्जन में उनका कोई योगदान था। सम्पूर्ण सम्पत्ति माता पिता के सहयोग और अपनी कुशलता एवं परिश्रम के बल पर श्रीमती नारायणी देवी ने अर्जित की थी। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हिन्दू महिला की स्वअर्जित सम्पत्ति के बिन्दू पर विधि मौन है तद्नुसार इस सम्पत्ति को उसे उसके माता पिता द्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त सम्पत्ति नही माना जा सकता। न्यायालय ने इसे हार्ड केस माना परन्तु स्पष्ट किया कि उसके हार्ड होने के कारण विधिक प्रावधान का विधि के प्रतिकूल अर्थान्वयन नही किया जा सकता। सुस्थापित विधि है कि पक्षकारो के अधिकारों को निर्धारण भावनाओं या सहानुभूति को मार्गदर्शक मानकर नही किया जा सकता। इस मामले मे माँ का दावा किसी भावना या सहानुभूति पर आधारित नही था बल्कि वस्तुस्थिति और व्यवहारिकता पर आधारित था और तर्क समानता एवं न्याय के सिद्धान्त उसके पक्ष में थे।
विद्यमान विधि में पुत्र की सम्पत्ति पर उसके बच्चों और विधवा के साथ माँ को बराबर का अधिकार हासिल है लेकिन विवाहित पुत्री की मृत्यु पर उसकी माँ को उसकी सम्पत्ति पर हिस्सा नही मिलता बल्कि सम्पूर्ण सम्पत्ति पति के दूरस्थ वारिसों तक हस्तान्तरित हो सकती है। संविधान लागू होने के पूर्व इस प्रावधान को असमानता का प्रतीक मानकर इसकी आलोचना की जाती थी परन्तु 1955-56 में बने हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के द्वारा इस असमानता को दूर नही किया गया और पहले की तरह माँ के उत्तराधिकार को निर्वसीयत बेटी के देवर और ननद की तुलना में काफी कमजोर बनाये रखा गया है।
कई दशक पूर्व न्यायमूर्ति श्री ए0एम0 भट्टाचार्यी ने अपनी पुस्तक ‘‘मार्डन हिन्दू ला अण्डर कान्स्टीट्यूशन’’ मे हिन्दू महिला के उत्तराधिकार से सम्बन्धित विधि की विसंगतियों को रेखांकित करते हुये निर्वसीयती विधवा महिला की मृत्यु के समय उसके पति पुत्र या पुत्री के जीवित न होने की दशा में उत्तराधिकार के लिए उसके पैतृक वारिसो की तुलना में उसके देवर एवं ननद को प्राथमिकता दिये जाने की विधि में संशोधन करने का सुझाव दिया था। विधि आयोग ने भी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ‘‘महिला के प्रापर्टी राइट’’ विषय पर विचार किया है और अपनी 174वीं रिपोर्ट में न्यायमूर्ति श्री भट्टाचार्यी के सुझाव के अनुरूप विधि में संशोधन करने की अनुशंसा की है।
सर्वोच्च न्यायालय के सेवा निवृत्त न्यायमूर्ति एवं विधि आयोग के चेयरमैन श्री ए0आर0 लक्ष्मण ने निर्वसीयत महिला की स्वअर्जित सम्पत्ति उसके पैतृक वारिसों के पक्ष में हस्तान्तरित कराने के लिए विधि में संशोधन के लिए तीन विकल्प सुझाये है। निर्वसीयती महिला की स्वअर्जित सम्पत्ति महिला के पैतृक वारिसों को हस्तान्तरित की जाये या सम्पूर्ण सम्पत्ति उसके पति और पैतृक वारिसों के बीच समान रूप से बाँट दी जाये। वर्तमान विधि में सम्पूर्ण सम्पत्ति पति के वारिसों के पक्ष में हस्तान्तरित की जाती है। उनके जीवित न होने की स्थिति में ही पैतृक वारिसों का अधिकार बनता है। देवर, ननद जैसे उत्तराधिकारियों की तुलना में पैतृक वारिसों को वरीयता देने के लिए अधिनियम की धारा 15(1) में संशोधन करके निर्वसीयती महिला की स्वअर्जित सम्पत्ति पर पति के वारिसों के उत्तराधिकार को समाप्त करके उसके पैतृक वारिसों को उत्तराधिकार दिया जाना समय की माँग है।
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