आरूषि हत्याकाण्ड का फैसला आने के बाद उसकी विवेचना को लेकर सी.बी. आई. और उत्तर प्रदेश पुलिस के बीच हुई तू तू मैं मैं से एक बार फिर गम्भीर अपराधों में भी जाँच एजेन्सियों के मध्य तालमेल न होने और विवेचना की गुणवत्ता को सुधारने के लिए कोई एकीकृत प्रयास न किये जाने का सच सामने आया है। विवेचना आपराधिक न्याय प्रशासन की आत्मा है। विचारण का पूरा ताना बाना इसी पर निर्भर है और इसीलिए दण्ड प्रक्रिया संहिता में विवेचक को असीमित शक्तियाँ दी गई है। उसके काम में हस्तक्षेप करने की अनुमति सर्वोच्च न्यायालय ने खुद को भी नही दी है। परन्तु इन असीमित शक्तियों के दुरूपयोग ने आपराधिक जाँच एजेन्सियों के प्रति आम लोगों के विश्वास को कम किया है।
सी.बी.आई. के पूर्व निदेशक श्री जोगिन्दर सिंह ने उत्तर प्रदेश पुलिस पर आरूषि काण्ड मे अपना काम एकदम सही तरीके से न करने का गम्भीर दोषारोपण किया है। सी.बी.आई की तरफ से कहा गया है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने कई स्तरों पर लापरवाही का परिचय दिया जिसके कारण सी.बी.आई. को अपनी जाँच पड़ताल करने में विलम्ब हुआ। सच भी है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने आरूषि की हत्या की सूचना पाने के तत्काल बाद घटना स्थल का वैज्ञानिक तरीकों से निरीक्षण नही किया। आसपास की तलाशी नही ली और उसके कारण हेमराज की लाश छत पर पड़ी होने की जानकारी बाद में सामने आई। विवेचक ने घटना स्थल से फिंगर प्रिन्ट जैसी सुसंगत साक्ष्य को संकलित न करके अकुशलता का परिचय दिया और तमाम महत्वपूर्ण सबूतो को या तो एकत्र नही किया या उन्हें नष्ट हो जाने के अवसर उपलब्ध करायें।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भैरो बनाम स्टेट आफ यू.पी. (2012-2-जे.आई.सी.पेज 107-इलाहाबाद) में पारित अपने एक निर्णय में स्थानीय पुलिस द्वारा विवेचना के दौरान वैज्ञानिक तरीकों से साक्ष्य संकलित न करने की कमी पर नाराजगी जताई थी। निर्णय में कहा गया है कि 21वीं सदी में होने के बावजूद पुलिस अपराध की विवेचना आज भी सदियों पुराने तरीके से करती है। सम्पूर्ण विश्व में विवेचना के तरीके बदले है, वैज्ञानिक साधनों से परिस्थितिजन्य साक्ष्य एकत्र करने का प्रचलन बढ़ा है, परन्तु अपने यहाँ विवेचना की गुणवत्ता को बढ़ाने का कोई प्रयास नही किया जा रहा है। उच्च न्यायालय ने जनपद स्तर पर फारेन्सिक साइन्स लेबोरेटरी की आवश्यकता बताई थी। जनपद स्तरों पर यदि डी.एन.ए. डेवलपमेन्ट सुविधायें उपलब्ध हो और घटना के तत्काल बाद मौके से सैम्पल एकत्र करके उनका परीक्षण किया जाये तो दोषियों को चिन्हित करना आसान हो सकता है। बालात्कार और हत्या के एक मामले में स्थानीय पुलिस ने वैजिनल स्मियर स्लाइड और स्वाब को डी.एन.ए. परीक्षण के लिए नही भेजा। विचारण न्यायालय के आदेश से तीन वर्ष बाद उसका परीक्षण कराया गया। तब तक उसका प्रभाव खत्म हो चुका था और इस लम्बी अवधि के बाद परीक्षण कराये जाने के कारण विधि विज्ञान प्रयोगशाला के वैज्ञानिक कोई स्पष्ट ओपिनियन नही बना सके।
दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत किसी भी अपराध का विचारण स्थानीय पुलिस द्वारा विवेचना के दौरान केस डायरी में साक्षियों के अंकित बयान के आधार पर किया जाता है। विवेचना के दौरान विवेचचक को साक्ष्य संकलन के लिए पूरी स्वतन्त्रता दी गई है। आपराधिक विधि में इस प्रकार की स्वतन्त्रता दिये जाने का उद्देश्य कुछ भी रहा हो, अब उसका दुरूपयोग होने लगा है। निष्पक्षता एवं पारदर्शिता का महत्वपूर्ण तत्व गायब हो गया है। यह तथ्य सर्वोच्च न्यायालय के भी संज्ञान में है। करण सिंह बनाम स्टेट आफ हरियाण एण्ड अदर्स (2013-3-जे.आई.सी.-पेज 177-सुप्रीम कोर्ट) में पुन प्रतिपादित किया है कि आपराधिक मामलों की विवेचना को किसी भी मूल्य पर दुर्भावना और पक्षपात से बचाना होगा। विवेचना के दौरान अभियुक्त या परिवादी किसी को भी प्रताडि़त नही किया जाना चाहियें ताकि किसी के भी मन में विवेचना की निष्पक्षता को लेकर शक की गुन्जाइस न रहे। अभियोजन कथानक को सही साबित करने के लिए साक्ष्य संकलित करना या कथित अभियुक्त को किसी भी तरह दण्डित कराना विवेचना का उद्देश्य नही है। विवेचना कथित अपराध के वास्तविक कारणों का पता लगाने, दोषियों को खोजने और सत्य की तह तक पहुँचने के लिए कराई जाती है। विवेचक आम नागरिको की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की गारण्टी का संरक्षक होता है और विधि उससे किसी भी निर्दोष को फर्जी अधिभयोजन के कारण प्रताडि़त होने से बचाने की अपेक्षा करती है। विवेचक की पदीय प्रतिबद्धता है कि वह किसी के भी साथ अन्याय न होने दे।
पक्षपात पूर्व विवेचना न्याय का गला घोट देती है और उसके कारण आम लोगों को अनुच्छेद 19, 20 एवं 21 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकारों का हनन होता है। बाबू भाई बनाम स्टेट आफ गुजरात एण्ड अदर्स (2012-12-एस.सी.सी.-पेज- 254) मे सर्वोच्च न्यायालय ने विवेचना को सभी प्रकार के दबावों से मुक्त रखने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है परन्तु अनुभव बताते है कि थानों के स्तर पर इन सिद्धान्तों का प्रभाव सुभाषित से ज्यादा नही होता। राम विहारी यादव बनाम स्टेट आफ बिहार एण्ड अदर्स (ए.आई.आर-1998-एस.सी.-पेज-1850) और अमर सिंह बनाम बलबिन्दर सिंह एण्ड अदर्स (ए.आई.आर.-2003-एस.सी.-पेज-1164) में कहा है कि पूर्वाग्रहों और पक्षपातपूर्ण तरीके से की गई विवेचना केवल जाँच एजेन्सियों के प्रति ही नही बल्कि सम्पूर्ण आपराधिक न्यायप्रशासन के प्रति आम लोगों का विश्वास कम करती है।
कानून व्यवस्था से जुड़े पुलिस अधिकारियों का अधिकांश समय विभागीय बैठकों, मन्त्रियों के स्वागत सत्कार और दुपहिया वाहनों के कागजों की चेकिंग में बीत जाता है। उन्हें गुणवत्तापूर्ण विवेचना करने का समय नही मिलता। इन परिस्थितियों मे उनसे विवेचना की गुणवत्ता सुधारने के लिए खुद की पहल पर कुशलता बढ़ाने के प्रयास की अपेक्षा करना न्यायसंगत नही है। इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त श्री प्रकाश सिंह की याचिका पर सभी राज्य सरकारों से कानून व्यवस्था और विवेचना का अलग अलग कैडर बनाने का निर्देश काफी पहले दिया था परन्तु राज्य सरकारों ने इस दिशा में कोई सार्थक पहल नही की है और न वर्तमान व्यवस्था में अपने स्तर पर विवेचना की गुणवत्ता बढ़ाने का कोई प्रयास किया है।
अदालतों द्वारा विवेचना के लिए आयोग्य ठहराये गये पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध राज्य सरकारे कोई कार्यवाही नही करती। जनपद न्यायाधीश कानपुर नगर श्री शैलेन्द्र सक्सेना अपने कार्यकाल के दौरान हत्या के एक मामले मे एक ही परिवार के कई लोगों को मृत्यु दण्ड से दण्डित करते हुये मामले के विवेचक से भविष्य में कभी विवेचना न कराये जाने का निर्णय पारित किया था। इसी प्रकार के एक मामले में तत्कालीन थानाध्यक्ष नजीराबाद को अपर जनपद न्यायाधीश श्री ओ.पी. त्रिपाठी ने फर्जी घटना बनाने और घटना के फर्जी होने की जानकारी के बावजूद अभियोजन के लिए चार्जशीट भेजने का दोषी पाये जाने के बाद उनके विरूद्ध मुकदमा पंजीकृत करने का आदेश पारित किया था परन्तु इन दोनों मामलों में दोषी विवेचको के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की गई है जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने दयाल सिंह एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ उत्तराखण्ड (2012-8-एस.सी.सी.-पेज-263) में स्पष्ट रूप से कहा है कि आपराधिक मामलों की विवेचना में पक्षपात या भ्रष्टाचार की जानकारी होने पर विवेचक के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित कराना राज्य का दायित्व है। इस प्रकार के आचरण वाले विवेचकों के विरूद्ध उनकी सेवा निवृत्ति के बाद भी कार्यवाही की जानी चाहियें।
किसी भी मामले में फर्जी गवाह खोजना और फिर उसी आधार पर अपराध के खुलासे की वाह वाही लूटना स्थानीय पुलिस अधिकारियों का प्रिय शगल है और इसी कारण विचारण के समय साक्षियों की पक्षद्रोहिता बढ़ी है। प्रेमचन्द्र बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए.आई.आर.-1981-पेज 613) की सुनवाई के समय एक व्यक्ति द्वारा बतौर अभियोजन साक्षी तीन हजार मामलों में गवाही देने का तथ्य प्रकाश में आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रकार के पेशेवर साक्षियों को पूरी न्यायिक व्यवस्था के लिए प्रदूषण बताया था। इस सबको देखकर लगता है कि आम लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा और देश में सुशासन बनाये रखने के लिए कानून व्यवस्था को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में शामिल करना आवश्यक हो गया है।
सी.बी.आई. के पूर्व निदेशक श्री जोगिन्दर सिंह ने उत्तर प्रदेश पुलिस पर आरूषि काण्ड मे अपना काम एकदम सही तरीके से न करने का गम्भीर दोषारोपण किया है। सी.बी.आई की तरफ से कहा गया है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने कई स्तरों पर लापरवाही का परिचय दिया जिसके कारण सी.बी.आई. को अपनी जाँच पड़ताल करने में विलम्ब हुआ। सच भी है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने आरूषि की हत्या की सूचना पाने के तत्काल बाद घटना स्थल का वैज्ञानिक तरीकों से निरीक्षण नही किया। आसपास की तलाशी नही ली और उसके कारण हेमराज की लाश छत पर पड़ी होने की जानकारी बाद में सामने आई। विवेचक ने घटना स्थल से फिंगर प्रिन्ट जैसी सुसंगत साक्ष्य को संकलित न करके अकुशलता का परिचय दिया और तमाम महत्वपूर्ण सबूतो को या तो एकत्र नही किया या उन्हें नष्ट हो जाने के अवसर उपलब्ध करायें।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भैरो बनाम स्टेट आफ यू.पी. (2012-2-जे.आई.सी.पेज 107-इलाहाबाद) में पारित अपने एक निर्णय में स्थानीय पुलिस द्वारा विवेचना के दौरान वैज्ञानिक तरीकों से साक्ष्य संकलित न करने की कमी पर नाराजगी जताई थी। निर्णय में कहा गया है कि 21वीं सदी में होने के बावजूद पुलिस अपराध की विवेचना आज भी सदियों पुराने तरीके से करती है। सम्पूर्ण विश्व में विवेचना के तरीके बदले है, वैज्ञानिक साधनों से परिस्थितिजन्य साक्ष्य एकत्र करने का प्रचलन बढ़ा है, परन्तु अपने यहाँ विवेचना की गुणवत्ता को बढ़ाने का कोई प्रयास नही किया जा रहा है। उच्च न्यायालय ने जनपद स्तर पर फारेन्सिक साइन्स लेबोरेटरी की आवश्यकता बताई थी। जनपद स्तरों पर यदि डी.एन.ए. डेवलपमेन्ट सुविधायें उपलब्ध हो और घटना के तत्काल बाद मौके से सैम्पल एकत्र करके उनका परीक्षण किया जाये तो दोषियों को चिन्हित करना आसान हो सकता है। बालात्कार और हत्या के एक मामले में स्थानीय पुलिस ने वैजिनल स्मियर स्लाइड और स्वाब को डी.एन.ए. परीक्षण के लिए नही भेजा। विचारण न्यायालय के आदेश से तीन वर्ष बाद उसका परीक्षण कराया गया। तब तक उसका प्रभाव खत्म हो चुका था और इस लम्बी अवधि के बाद परीक्षण कराये जाने के कारण विधि विज्ञान प्रयोगशाला के वैज्ञानिक कोई स्पष्ट ओपिनियन नही बना सके।
दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत किसी भी अपराध का विचारण स्थानीय पुलिस द्वारा विवेचना के दौरान केस डायरी में साक्षियों के अंकित बयान के आधार पर किया जाता है। विवेचना के दौरान विवेचचक को साक्ष्य संकलन के लिए पूरी स्वतन्त्रता दी गई है। आपराधिक विधि में इस प्रकार की स्वतन्त्रता दिये जाने का उद्देश्य कुछ भी रहा हो, अब उसका दुरूपयोग होने लगा है। निष्पक्षता एवं पारदर्शिता का महत्वपूर्ण तत्व गायब हो गया है। यह तथ्य सर्वोच्च न्यायालय के भी संज्ञान में है। करण सिंह बनाम स्टेट आफ हरियाण एण्ड अदर्स (2013-3-जे.आई.सी.-पेज 177-सुप्रीम कोर्ट) में पुन प्रतिपादित किया है कि आपराधिक मामलों की विवेचना को किसी भी मूल्य पर दुर्भावना और पक्षपात से बचाना होगा। विवेचना के दौरान अभियुक्त या परिवादी किसी को भी प्रताडि़त नही किया जाना चाहियें ताकि किसी के भी मन में विवेचना की निष्पक्षता को लेकर शक की गुन्जाइस न रहे। अभियोजन कथानक को सही साबित करने के लिए साक्ष्य संकलित करना या कथित अभियुक्त को किसी भी तरह दण्डित कराना विवेचना का उद्देश्य नही है। विवेचना कथित अपराध के वास्तविक कारणों का पता लगाने, दोषियों को खोजने और सत्य की तह तक पहुँचने के लिए कराई जाती है। विवेचक आम नागरिको की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की गारण्टी का संरक्षक होता है और विधि उससे किसी भी निर्दोष को फर्जी अधिभयोजन के कारण प्रताडि़त होने से बचाने की अपेक्षा करती है। विवेचक की पदीय प्रतिबद्धता है कि वह किसी के भी साथ अन्याय न होने दे।
पक्षपात पूर्व विवेचना न्याय का गला घोट देती है और उसके कारण आम लोगों को अनुच्छेद 19, 20 एवं 21 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकारों का हनन होता है। बाबू भाई बनाम स्टेट आफ गुजरात एण्ड अदर्स (2012-12-एस.सी.सी.-पेज- 254) मे सर्वोच्च न्यायालय ने विवेचना को सभी प्रकार के दबावों से मुक्त रखने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है परन्तु अनुभव बताते है कि थानों के स्तर पर इन सिद्धान्तों का प्रभाव सुभाषित से ज्यादा नही होता। राम विहारी यादव बनाम स्टेट आफ बिहार एण्ड अदर्स (ए.आई.आर-1998-एस.सी.-पेज-1850) और अमर सिंह बनाम बलबिन्दर सिंह एण्ड अदर्स (ए.आई.आर.-2003-एस.सी.-पेज-1164) में कहा है कि पूर्वाग्रहों और पक्षपातपूर्ण तरीके से की गई विवेचना केवल जाँच एजेन्सियों के प्रति ही नही बल्कि सम्पूर्ण आपराधिक न्यायप्रशासन के प्रति आम लोगों का विश्वास कम करती है।
कानून व्यवस्था से जुड़े पुलिस अधिकारियों का अधिकांश समय विभागीय बैठकों, मन्त्रियों के स्वागत सत्कार और दुपहिया वाहनों के कागजों की चेकिंग में बीत जाता है। उन्हें गुणवत्तापूर्ण विवेचना करने का समय नही मिलता। इन परिस्थितियों मे उनसे विवेचना की गुणवत्ता सुधारने के लिए खुद की पहल पर कुशलता बढ़ाने के प्रयास की अपेक्षा करना न्यायसंगत नही है। इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त श्री प्रकाश सिंह की याचिका पर सभी राज्य सरकारों से कानून व्यवस्था और विवेचना का अलग अलग कैडर बनाने का निर्देश काफी पहले दिया था परन्तु राज्य सरकारों ने इस दिशा में कोई सार्थक पहल नही की है और न वर्तमान व्यवस्था में अपने स्तर पर विवेचना की गुणवत्ता बढ़ाने का कोई प्रयास किया है।
अदालतों द्वारा विवेचना के लिए आयोग्य ठहराये गये पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध राज्य सरकारे कोई कार्यवाही नही करती। जनपद न्यायाधीश कानपुर नगर श्री शैलेन्द्र सक्सेना अपने कार्यकाल के दौरान हत्या के एक मामले मे एक ही परिवार के कई लोगों को मृत्यु दण्ड से दण्डित करते हुये मामले के विवेचक से भविष्य में कभी विवेचना न कराये जाने का निर्णय पारित किया था। इसी प्रकार के एक मामले में तत्कालीन थानाध्यक्ष नजीराबाद को अपर जनपद न्यायाधीश श्री ओ.पी. त्रिपाठी ने फर्जी घटना बनाने और घटना के फर्जी होने की जानकारी के बावजूद अभियोजन के लिए चार्जशीट भेजने का दोषी पाये जाने के बाद उनके विरूद्ध मुकदमा पंजीकृत करने का आदेश पारित किया था परन्तु इन दोनों मामलों में दोषी विवेचको के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की गई है जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने दयाल सिंह एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ उत्तराखण्ड (2012-8-एस.सी.सी.-पेज-263) में स्पष्ट रूप से कहा है कि आपराधिक मामलों की विवेचना में पक्षपात या भ्रष्टाचार की जानकारी होने पर विवेचक के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित कराना राज्य का दायित्व है। इस प्रकार के आचरण वाले विवेचकों के विरूद्ध उनकी सेवा निवृत्ति के बाद भी कार्यवाही की जानी चाहियें।
किसी भी मामले में फर्जी गवाह खोजना और फिर उसी आधार पर अपराध के खुलासे की वाह वाही लूटना स्थानीय पुलिस अधिकारियों का प्रिय शगल है और इसी कारण विचारण के समय साक्षियों की पक्षद्रोहिता बढ़ी है। प्रेमचन्द्र बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए.आई.आर.-1981-पेज 613) की सुनवाई के समय एक व्यक्ति द्वारा बतौर अभियोजन साक्षी तीन हजार मामलों में गवाही देने का तथ्य प्रकाश में आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रकार के पेशेवर साक्षियों को पूरी न्यायिक व्यवस्था के लिए प्रदूषण बताया था। इस सबको देखकर लगता है कि आम लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा और देश में सुशासन बनाये रखने के लिए कानून व्यवस्था को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में शामिल करना आवश्यक हो गया है।
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