Sunday, 8 December 2013

आर्थिक बेबसी में आत्महत्या समाज की असंवेदनशीलता का परिचायक ...............


कानपुर में पिछले दिनों वैवाहिक विवाद में पत्नी द्वारा आत्महत्या करने के बाद, आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करने के आरोप में जेल जाने के भय से धनकुट्टी निवासी मनोज गुप्ता ने आत्महत्या कर ली। उसके ससुराल वाले मामले को रफा दफा करने के लिए उससे तीन लाख रूपये की माँग कर रहे थे और धमकी दी थी कि रूपये न दिये तो उसे, उसके माँ बाप को जेल जाने से कोई बचा नही सकेगा। मनोज रूपयों की व्यवस्था नही कर सका और जेल जाने से न बच पाने की बेबसी में फाँसी पर झूल गया। एक ओर पत्नी की आत्महत्या का गम और दूसरी ओर अपने माता पिता और खुद को जेल जाने से बचाने के लिए रूपयों का इन्तजाम न कर पाने की बेबसी के दोहरे दबाव में मनोज ने आत्महत्या की है। वैवाहिक उत्पीड़न दहेज हत्या और पत्नी को आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करने के मामलों में प्रायः सच कुछ और ही होता है। रिपोर्ट दर्ज हो जाने के बाद सभी नामजद परिजन जेल जाते है, सुनवाई में देरी होती है। ऐसे में अदालत का फैसला कुछ भी हो परन्तु आरोपी सामाजिक रूप से तो दण्डित हो ही जाता है।
मनोज जैसे संवेदनशील लोगों की बेवसी सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में है। प्रीति गुप्ता बनाम स्टेट आफ झारखण्ड (ए.आई.आर.-2010-सुप्रीम कोर्ट-पेज 3363) में न्यायालय ने माना था कि भारतीय दण्उ संहिता की धारा 498 ए के मामलों में प्रायः परिवादी बेबुनियाद कथनों का सहारा लेकर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करा देता है। कई बार विवाहित बहनों और नाबालिग देबरों की भी मुल्जिम बना दिया जाता है जबकि दहेज लेने देने में उनकी अपनी कोई भूमिका नही होती।
दहेज की झूठी शिकायतों के कारण परिवार के टूटते ताने बाने पर न्यायालय ने चिन्ता जताई थी और अधिवक्ताओं से अनुरोध किया था कि वे अपने स्तर पर इस प्रकार की प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करें और इसे मानवीय समस्या मानकर आपसी समझदारी विकसित करने का माहौल पैदा करें और प्रयास करे कि एक शिकायत कई अन्य शिकायतों का कारण न बनने पाये। थाना जाटोपुरा जनपद एटा में पारिवारिक झगड़े के बीच लड़की के मर जाने पर उसके माता पिता ने अपने दामाद के विरूद्ध दहेज हत्या का मुदकमा पंजीकृत करा दिया। इस मामले (अजय कुमार बनाम स्टेट आफ यू.पी.-2012-1-जे.आई.सी. पेज 464-इलाहाबाद) की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने पाया कि प्रेम विवाह होने के कारण अभियुक्त और मृतका के पिता के मध्य सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध नही थे। हेबियस कारपस पिटीशन दाखिल होने के बाद उच्च न्यायालय के आदेश से लड़की अपने पिता की अभिरक्षा से लड़के को सौपी गयी थी। दहेज का कोई विवाद उनके मध्य नही था। दहेज की अधिकांश शिकायतों में इसी प्रकार फर्जी कथानक बनाकर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करायी जाती है। 
शुशील कुमार शर्मा बनाम यूनियन आफ इण्डिया (2005-3-जे.आई.सी. पेज 263 एस.सी.) में कहा गया है कि भारतीय दण्ड संहिता में धारा 498 ए का प्रावधान दहेज की समस्या से निजात पाने के उद्देश्य से किया गया था, परन्तु अब देखा जा रहा है कि इस प्रावधान का बड़े पैमाने पर दुरूपयोग किया जाने लगा है। विधि किसी भी दशा मे अपने दुरूपयोग की अनुमति नही देती और यदि इसे रोका नही गया तो यह खुद में एक नये प्रकार की सामाजिक समस्या का कारण बनेगा, जो पूरी सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था के लिए घातक है। इस प्रावधान के दुरूपयोग को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने राम गोपाल बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 498 ए को कम्पाउण्डेबल एवं जमानती बनाने का सुझाव केन्द्र सरकार और विधि आयोग को दिया है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी राजीव वर्मा बनाम स्टेट आफ यू.पी.- 2004-2-जे.आई.सी.- पेज 581 में इसी आशय का सुझाव दिया है। सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने वैवाहिक विवादों में गिरफ्तारी को अनावश्यक घोषित किया है और प्रत्येक स्तर पर उभयपक्षों के मध्य आपसी बातचीत के द्वारा विवादों को सुलझाने पर जोर दिया है।
राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने भी गिरफ्तारी की शक्तियों को पुलिसिया भ्रष्टाचार का स्त्रोत माना है। अपनी रिपोर्ट में आयोग ने कहा था कि किसी भी आरोप में गिरफ्तारी के लिए विधिपूर्ण आधारो को नही बल्कि न्यायपूर्ण आधारों को प्रमुखता दी जानी चाहिये। ला कमीशन ने भी अपनी रिपार्ट में सुझाव दिया है कि जमानती अपराधों और परिवादों के मामले में अभियुक्त को उपस्थित होने के लिए डाक के माध्यम से एपीरियेन्स नोटिस भेजी जानी चाहिये ताकि स्थानीय पुलिसकर्मी न्यायालय के सम्मन को वारण्ट बताकर लोगों को उत्पीडि़त न कर सके। पुलिस के माध्यम से सम्मन भेजने की प्रथा आम लोगों के उत्पीड़न का कारण है। शीला बरसे बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र (ए.आई.आर.-1983-एस.सी. पेज 378) में प्रतिपादित किया गया था कि वारण्ट के बिना गिरफ्तारी दी दशा में गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारण से तत्काल अवगत कराना और स्थानीय लीगल ऐड कमेटी को इस गिरफ्तारी की सूचना देना आवश्यक है। इन निर्देशों के द्वारा सम्बन्धित न्यायिक मजिस्टेªट को भी आदेशित किया गया था कि वे अपने समक्ष प्रस्तुत किये जाने के समय गिरफ्तार व्यक्ति से अभिरक्षा के दौरान पुलिस के व्यवहार के बारे में जानकारी प्राप्त करें और अभियुक्त को उसके अधिकारों की जानकारी दें। प्रायः अधिकारों की जानकारी न होने और न्यायिक मजिस्टेªट द्वारा खुद कोई जानकारी न करने के कारण गिरफ्तार व्यक्ति अपने साथ हुये उत्पीड़न के लिए दोषियों के विरूद्ध शिकायत नही कर पाता।
केन्द्र सरकार ने दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करके प्रथम सूचना रिपोर्ट में नामजद होने के बावजूद हत्या, डकैती, बालात्कार जैसे जघन्य अपराधों को छोड़कर सात वर्ष तक की सजा वाले मामलों में गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होने के बाद पुलिस पहले नामजद व्यक्तियों को गिरफ्तार करती थी और उसके बाद साक्ष्य संकलन की कार्यवाही शुरू होती थी। दण्ड प्रक्रिया संहिता मे धारा 41 (1) (बी) जोड़कर केन्द्र सरकार ने व्यवस्था कर दी है कि अब केवल नामजद होने के कारण किसी को गिरफ्तार नही किया जायेगा बल्कि संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्त होने पर पुलिस सबसे पहले आरोपी को नोटिस भेजकर नियत तिथि व समय पर उपस्थित होने के लिए कहेगी और आरोपी का पक्ष सुनने के बाद उसके विरूद्ध सुसंगत विश्वसनीय साक्ष्य होने की दशा में ही उसे गिरफ्तार करेगी। अर्थात केवल नामजद होने के कारण किसी को भी उसका पक्ष सुने बिना गिरफ्तार नही किया जा सकता है। गिरफ्तारी के कारणों को केस डायरी में लेखबद्ध करना आवश्यक बना दिया गया है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने क्रिमिनल मिसलेनियस रिट पिटीशन संख्या 15102 सन् 2013 अमीर हुसैन एण्ड 6 अदर्स बनाम स्टेट आफ यू.पी. 2 अदर्स में स्पष्ट किया है कि यदि विवेचक किसी को गिरफ्तार करके रिमान्ड के लिए न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करता है और न्यायालय को प्रतीत होता है कि गिरफ्तारी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 (1) (बी) या 41 ए में निर्धारित प्रक्रिया के प्रतिकूल की गई है तो मजिस्टेªट अभियुक्त को प्रतिभू संहित या प्रतिभू रहित बन्धपत्र लेकर रिहा करेंगे। रूटीन मैनर में गिरफ्तारी अब प्रतिबन्धित हो गई है। सभी पुलिस अधिकारियों को विधि की इस मंशा से अवगत करा दिया गया है। इस सबके बावजूद आम लोगों में अपनी गिरफ्तारी की आशंका कम नही हुई है। लोगों का मानना है कि विधि कुछ भी कहती हो परन्तु पुलिस जब जहाँ जिसे चाहे गिरफ्तार करके जेल भेज सकती है इसलिए कोई पुलिस पर विश्वास नही करता।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने संजीव कुमार एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ यू.पी. एण्ड अदर्स (2011-2-जे.आई.सी. पेज 481) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को आधार बनाकर अधीनस्थ न्यायालयों को निर्देशित किया है कि वैवाहिक विवादों में जमानत प्रार्थनापत्रों के निस्तारण के पूर्व पक्षकारों को अपने विवाद आपसी सुलह समझौते से सुलझाने के लिए प्रोत्साहित करें। सुलह समझौते के प्रयास असफल हो जाने के बाद ही जमानत प्रार्थनापत्रों का गुणदोष के आधार पर निस्तारण किया जायें। सर्वोच्च न्यायालय ने लाल कमलेन्द्र प्रताप सिंह बनाम स्टेट आफ यू.पी. (2009-1-जे0आई0सी0 पेज 677-एस.सी.) और इलाहाबाद हाई कोर्ट की पूर्ण पीठ ने अमरावती एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ यू0पी0 (2004-2-जे.आई.सी. पेज 630) के द्वारा नामजद अभियुक्तों को व्यक्तिगत बन्धपत्र लेकर अन्तरिम जमानत पर रिहा करने का आदेश पारित किया है। उच्च न्यायालय के समक्ष आवेदन किये बिना इन मामलों में प्रतिपादित सिद्धान्तों का लाभ आम लोगों को नही मिल पाता। वैवाहिक विवादों में आम लोगों को न्यायपूर्ण राहत प्रदान करने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों को आगे आना होगा और खुद पहल करके लाल कमलेन्द्र प्रताप सिंह एवं अमरावती के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों की भावना और स्पिरिट के अनुरूप लोगों को अन्तरिम जमानत पर रिहा करने का माहौल बनाना होगा और तभी जेल जाने के भय से मनोज गुप्ता जैसे संवेदनशील लोग बेबसी में आत्महत्या के लिए मजबूर नही होंगे।

No comments:

Post a Comment