Sunday, 23 February 2014

राजीव के हत्यारों की रिहाई राजनैतिक निर्लज्जता .................

सर्वोच्च न्यायालय ने गोपाल विनायक गोडसे बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र एण्ड अदर्स (ए.आई.आर-1961 पेज 600-एस.सी.) से लेकर दीपक राय बनाम स्टेट आफ बिहार (2014-1-जे.आई.सी. पेज 48-एस.सी.) तक पारित निर्णयों के मध्य विभिन्न अवसरों पर आजीवन कारावास से दण्डित व्यक्ति को उसकी बायोलाजिकल लाइफ की समाप्ति तक जेल में निरूद्ध रखने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है परन्तु तमिलनाडु की जयललिता सरकार ने आजीवन कारावास की इस सुस्पष्ट व्याख्या की अनदेखी करके दण्ड प्रक्रिया संहिता में निर्धारित प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना एकदम मनमाने तरीके से राजीव गाँधी के हत्यारो को रिहा करने का फरमान जारी किया है जो अपने देश में प्रचलित लोकनीति और संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल है।
हम सभी जानते है कि लिट्टे आतंकवादियो ने राजीव गाँधी हत्या भारत की अस्मिता को चोट पहुँचाने और हम भारत वासियों को सबक सिखाने के दुराशय से की थी। उनके कृत्य को अपनी न्यायिक व्यवस्था ने जघन्य से जघन्यतम अपराध माना और उन्हें मृत्यु दण्ड से दण्डित करने का निर्णय पारित किया था। उनकी हत्या ने सम्पूर्ण देश के जन मानस को झकझोर दिया था और सभी ने इसे राष्ट्रीय क्षति माना है। राजीव गाँधी की हत्या और उनके हत्यारो को उनके किये की सजा दिलाना काँग्रेस या गाँधी परिवार की चिन्ता का विषय हो या न हो परन्तु सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए यह चिन्ता का विषय है। प्रियंका गाँधी द्वारा बतौर बेटी उनके हत्यारो को माफ करने या श्रीमती सोनिया गाँधी द्वारा एक महिला अभियुक्त को फाँसी न देने का निवेदन किये जाने से राष्ट्र के नाते उनके हत्यारो पर दया दिखाने का कोई औचित्य नही है।
तमिलनाडु सरकार ने दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों का अनुचित अर्थान्वयन किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने सुनील दामोदर गायकवाड बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र (2014-1-जे.आई.सी. पेज 40-एस.सी.) के द्वारा हत्या के एक अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के तहत आजीवन कारावास एवं धारा 307 के तहत सात वर्ष के सश्रम कारावास से दण्डित किया है और निर्णय में ही स्पष्ट किया था कि यदि किसी कारणवश आजीवन कारावास की सजा को समुचित सरकार द्वारा कम कर दिया जाये तो धारा 307 के तहत दी गई सात वर्ष की सजा कम की गई अवधि के बाद प्रारम्भ होगी अर्थात यदि दोषी की बायोलाजिकल लाइफ की समाप्ति के पूर्व दोषी को रिहा करने का कोई निर्णय लिया जाये तो दूसरी धाराओं मे दी गई सजा को आजीवन कारावास की सजा में बिताई गई अवधि में मुजरा नही किया जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित इस निर्णय के परिप्रेक्ष्य में जयललिता सरकार का निर्णय एकदम मनमाना है और शुरूआत से ही उसमें निष्पक्षता एवं परदर्शिता का अभाव है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 435 में प्रावधान है कि ‘‘यदि किसी अपराध की विवेचना दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम 1946 या अन्य किसी केन्द्रीय अधिनियम के अधीन अपराध की विवेचना करने के लिए सशक्त किसी अन्य अधिकरण द्वारा की गई है, तो दण्डादेश का परिहार या लघुकरण करने के लिए राज्य सरकार अपनी शक्तियों का प्रयोग केन्द्रीय सरकार के परामर्श के बिना नही करेगी। इस की उपधारा (2) में यह भी प्रावधान है कि जिस व्यक्ति को ऐसे अपराधो के लिए दोष सिद्ध किया गया है जिनमे से कुछ उन विषयो से सम्बन्धित है जिनपर संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है तो उसके सम्बन्ध में दण्डादेश के निलम्बन परिहार या लघुकरण का राज्य सरकार द्वारा पारित कोई आदेश उसी दशा में प्रभावी होगा जब दण्डादेशो का परिहार निलम्बन या लघुकरण का आदेश केन्द्रीय सरकार द्वारा भी कर दिया जाये।
दण्डादेशो के परिहार निलम्बन या लघुकरण के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 432 एवं 433 के तहत राज्य सरकार को असीमित शक्तियाँ प्राप्त नही है। इन शक्तियों के प्रयोग के लिए कई प्रकार के विधिक प्रतिबन्धो का भी प्रावधान है और उसका पालन करने की अनिवार्यता है परन्तु राज्य सरकारे अब विशुद्ध राजनैतिक कारणो से स्थानीय लाभ हानि को दृष्टिगत रखकर विधि का मनमाना अर्थान्वयन करती है और अनुचित मनमाने निर्णय लेने लगी है। राजीव गाँधी अपने देश के लोकप्रिय राजनेता और प्रधान मन्त्री रहे है। उनकी हत्या की विवेचना केन्द्रीय अधिनियम के तहत की गई है और उनकी हत्या और हत्या के षड्यन्त्र में शामिल अभियुक्तो ने सम्पूर्ण देश की अस्मिता को चुनौती दी थी ऐसी दशा में उनकी हत्या के जिम्मेदार लोगों की सजा को समाप्त करने का निर्णय किसी भी दशा में केन्द्र सरकार को विश्वास में लिये बिना नही किया जाना चाहिये था।
अपने देश की राजनीति में हिंसा का कोई स्थान नही है। अपना सम्पूर्ण तन्त्र अहिंसा पर आधारित है। हम अपने विरोधियों के विचारो से असहमत होने के बावजूद अपने तरीके से सोचने समझने के उनके अधिकार का सम्मान करते है। तमिलनाडु की सरकार ने राजीव गाँधी के हत्यारों की रिहाई के आदेश के द्वारा इस सुस्थापित परम्परा का उल्लंघन किया है और सोच समझकर राजनैतिक उद्देश्यों के लिए हिंसा का रास्ता अपनाने वाले लोगों को महिमामण्डित करने का अपराध किया है। जयललिता ने इसके पूर्व अपने मुख्य मन्त्रित्वकाल में केन्द्र सरकार के तत्कालीन मन्त्रियो को गिरफ्तार कराके संघीय व्यवस्था पर कुठाराघात किया था। वास्तव में जयललिता को राजीव गाँधी के हत्यारो से कोई हमदर्दी नही है। तमिल उग्रवादियों की वे शुरूआत से ही विरोधी रही है परन्तु अब आगामी लोक सभा चुनाव में अपने प्रतिद्वन्दी करूणानिधि पर राजनैतिक बढत बनाकर लोक सभा में अपना संख्या बल बढ़ाने के लिए उन्होंने तमिल भावनाओं के साथ आपराधिक खिलवाड किया है। उन्होंने क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थ के कारण अपने इस निर्णय के दूरगामी दुष्परिणामों पर विचार नही किया है।
तमिलनाडु सरकार के इस निर्णय से स्पष्ट हो जाता है कि राजनैतिक दृष्टि से क्षेत्रीय दलो का ज्यादा ताकतवर हो जाना देश की एकता अखण्डता के लिए हितकर नही है। क्षेत्रीय दलो के बीच राष्ट्रीय स्तर पर कोई आन्तरिक अनुशासन न होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की भूमिका को लेकर उनमे कोई नीतिगत सामन्जस्य नही है। सभी अपने अपने तरीके से स्थानीय लाभ हानि को दृष्टिगत रखकर निर्णय लेते है और राष्ट्रीय स्तर पर उसके दूरगामी प्रभाव की उन्हें कोई चिन्ता नही होती। एक जाति विशेष में अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए मुलायम सिंह यादव ने भी अपने मुख्य मन्त्रित्व काल मे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 का अनुचित अर्थान्यवयन करके कानपुर में एक ही जाति के चैदह लोगों की हत्या की दोषी घोषित डकैत फूलन देवी के विरूद्ध पंजीकृत सभी मुकदमें वापस लेने का फरमान जारी किया था और फिर उन्हें उनकी जाति की बहुसंख्या वाले क्षेत्र से लोक सभा का चुनाव लडवाया था। उनको अपने इस निर्णय से किसी राजनैतिक नुकशान का शिकार नही होना पड़ा इसलिए आज जयललिता ने भी राजीव गाँधी के हत्यारों को महिमामण्डित करके तमिल भावनाओं के साथ खिलवाड करने का दुस्साहस किया है।
दुखद पहलू यह भी है कि राजीव गाँधी के हत्यारों को सजा दिलाने में श्री अटल बिहारी बाजपेई के नेतृत्व वाली एन.डी.ए. की सरकार व श्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाही यू.पी.ए. सरकार ने कोई रूचि नही ली। सभी ने दोषियों को सजा दिलाने की तुलना में तमिलनाडु में अपने राजनैतिक नफा नुकशान की ज्यादा चिन्ता की है। अपने देश की सुस्थापित विधि के तहत विवेचक या प्रशासनिक तन्त्र की किसी लापरवाही या उनकी विफलता का कोई लाभ अभियुक्त को नही दिया जाता। अभियुक्त को उसके किये की सजा उपलब्ध साक्ष्य के गुण दोष पर विचार करके दी जाती है। राजीव गाँधी के हत्यारो के कृत्य को सर्वोच्च न्यायालय ने जघन्य से जघन्यतम अपराध माना है ऐसी दशा में दया याचिका के निस्तारण में विलम्ब के लिए दोषी अधिकारियों को चिन्हित करके उनकी पहचान सार्वजनिक की जानी चाहिये और उन्हें उसके लिए दण्डित किया जाये परन्तु उनके अनुचित आचरण का कोई लाभ जघन्यतम अपराध के दोषियो को नही दिया जाना चाहिये।
अपने देश में अफजल गुरू की दया याचिका में विलम्ब राजनैतिक मुद्दा रहा है, परन्तु राजीव गाँधी के हत्यारो की रिहाई के जयललिता फरमान पर राजनेताओं की सार्वजनिक चुप्पी चिन्ता का विषय है। अफजल का मामला बोट बैंक की दृष्टि से मुफीद बैठता था। उसकी प्रतिक्रिया में सारे देश में हलचल होती थी। आज तमिलनाडु में राजीव गाँधी के हत्यारो की माफी वहाँ के स्थानीय राजनैतिक समीकरणो के अनुकूल है। आगामी लोक सभा मे तमिलनाडु के सांसदो की भूमिका निर्णायक हो सकती है। पता नही किसको जयललिता की जरूरत पड़ जाये इसीलिए सब चुप है। केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में तमिलनाडु सरकार के निर्णय के विरूद्ध याचिका दाखिल करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली है।

Sunday, 16 February 2014

सभी राजनैतिक दल जिताऊ प्रत्याशियों की तुलना में आदर्श कार्यकर्ताओं को वरीयता दें ...........

पिछला गुरूवार 13 फरवरी 2014 संसदीय इतिहास में सबसे कलंकित दिन के रूप में याद किया जायेगा। सभी राजनैतिक दलों ने इसकी निन्दा की और दुर्भाग्यपूर्ण बताया है परन्तु किसी राजनेता ने संसद में सांसदों द्वारा किये जा रहे इस प्रकार के आपराधिक कृत्यों के कारणो पर चर्चा नही की है। सभी राजनैतिक दल तात्कालिक नफा नुकसान को दृष्टिगत रखकर अपने अपने तरीके से चुप्पी साध गये है। एक हिन्दी अखबार ने भी त्वरित टिप्पणी की है और लिखा है कि ‘‘स्वतन्त्र भारत के इतिहास में लोकसभा में गुरूवार सबसे शर्मनाक दिन था। आन्ध्र प्रदेश के माननीय सांसदो ने संसदीय मर्यादा तार तार कर दी। काँग्रेस के आला कमान प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह उनके सलाहकार सदन के बाहर से तथा नायब राहुल गाँधी से लेकर अधिकांश केन्द्रीय मन्त्री और काँग्रेस के संकट मोचक सदन के अन्दर यह शर्मनाक नजारा टुकुर टुकुर देखते रहे। यह नजारा काँग्रेस के वोट बैंक की राजनीति के अतीत का ही नही वर्तमान का भी जीता जागता उदाहरण है। राजनैतिक दलों की तरह आरोप प्रत्यारोप में उलझकर इस अखबार ने भी घटना का सरलीकरण करके उसके बहु आयामी दुष्प्रभाव और उसके कारणो की चर्चा नही की है और न मालूम क्यों अपने अघोषित राजनैतिक एजेण्डे को आगे बढ़ाया है।
समझना चाहिये कि आज जो कुछ भी घटित हुआ है, उसकी पृष्ठभूमि तेलंगाना विवाद में निहित नही है। राम लाल के संचार मन्त्री रहने के दौरान टेलीकाम घोटाले को लेकर लगातार कई सप्ताह तक संसद में काम काज ठप करने से इसकी शुरूआत हुई है। उसके बाद प्रायः सभी संसदीय सत्र हंगामे और शोर शराबे का शिकार होते रहे है और इसके लिए सभी एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहते है परन्तु संसदीय सत्रो को सुचारू रूप से संचालित करने और उसमें गम्भीर विचार विमर्श के लिए कभी कोई ठोस कार्य योजना नही बनाई गई। समाजवादी नेता राजनरायण संसद मे अपनी बात कहने का अवसर न देने नाराज होकर हंगामा करते थे। आज के सांसद संसद को विचार विमर्श करने से वंचित रखने के दुराशय से हंगामा करते है। उन्हें शायद नही मालुम कि संसदीय नियमो का सहारा लेकर संसद के अन्दर भी सरकार का पर्दाफाश किया जा सकता है।
1974 में रेल कर्मचारियों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल के दौरान समाजवाद नेता मधुलिमये ने लोक सभा में कोई शोर शराबा किये बिना केवल संसदीय नियमों का सहारा लेकर की कर्मचारियों के विरूद्ध सरकारी दमन को उजागर किया और इन्दिरागाँधी की सरकार को कटघरे में खड़ा करके निरूत्तर कर दिया था। उन्होंने पूँछा था कि रेल कर्मचारियों और उनके सेवायोजक के मध्य उत्पन्न विवाद के समाधान और जारी गतिरोध को तोड़ने के लिए आद्यौगिक विवाद अधिनियम के तहत श्रम मन्त्रालय ने क्या प्रयास किये है उस समय के श्रम मन्त्री और पूरी भारत सरकार संसद में इस प्रश्न का कोई उत्तर नही दे सकी थी। विरोध का यह तरीका आज विलुप्त हो गया है। संसद का बहिष्कार करने की तुलना में संसदीय नियमो का सहारा लेकर ज्यादा प्रभावी तरीके से सरकार का पर्दाफाश किया जा सकता है परन्तु अब कोई सांसद संसदीय नियमों एवं परम्पराओं का अध्ययन करना ही नही चाहता बल्कि मनमाने तरीके से स्वनिर्मित नियमों के तहत संसद को ठप करने में अपनी शान समझते है।
वास्तव में सम्पूर्ण घटनाक्रम के लिए सभी राजनैतिक दल दोषी है। कमोवेश सभी ने संसदीय मर्यादाओं को तार तार किया है। उत्तर प्रदेश विधान सभा मे भाजपा पर किये गये जान लेवा हमले के दोषी विधायको पर राजनैतिक कारणो से कोई कार्यवाही नही हो सकी। इसी प्रकार विधान सभा में अश्लील वीडियो देख रहे विधायको को एक स्वर में निन्दा नही की गई और उसके कारण अमर्यादित आचरण करने वाले कभी हतोत्साहित नही हो सके। संसद में हंगामा करने वाले सांसदो को भी अपने दलो के अन्दर महत्व मिलता है। उन्हें संरक्षण दिया जाता है।
सभी राजनैतिक दलो ने संसद और विधान मण्डलो में बहस और विचार विमर्श का महत्व घटाया है। राज्य विधान मण्डलों के सत्रो की अवधि का निरन्तर कम होता जाना चिन्ता का विषय है। चर्चा कराये बिना सरकारी प्रस्तावो को पारित कराना आम बात हो गई है। संसद देश की समस्याओं और उसके समाधान के लिए नीतिगत विचार विमर्श की सर्वोच्च संस्था है और यदि आपसी सहिष्णुता और मानवीय गरिमा के साथ यहा भी विचार विमर्श चर्चा परिचर्चा सम्भव नही हो सकी तो फिर संसदीय लोकतन्त्र के लिए खतरा सुनिश्चित है। राजनीति के विद्यार्थी संसद के प्रेरणा प्राप्त करते है और उसके अनुरूप अपने राजनैतिक आचार विचार को ढालते है। संसद में सड़क छाप गुण्डागर्दी को देखकर इस व्यवस्था के प्रति उनका आक्रोश बढ़ता है और विश्वास कम होता है। संसद मे हगांमा करके काम काज ठप करा देने की कार्यवाही विरोध का सही तरीका नही है। राजनैतिक दलो ने विरोध के इस सस्ते तरीके पर पुनर्विचार करके हालात को सुधारने की दिशा मे कोई सार्थक प्रयास नही किया तो निश्चित रूप से पूरे देश को भयावह स्थितियों का सामना करना पडेगा।
यह सच है कि संसद और उसकी परम्पराओ मे गिरावट के लिए भारतीय जनता पार्टी आदि दलो की तुलना में काँग्रेस ज्यादा जिम्मेेदार है। वर्ष 1980 के मध्यावधि चुनावों के बाद संजय गाँधी और उनके समर्थको ने संसद में चरण सिंह जैसे वयोबृद्ध नेताओं के भाषण के दौरान सीटी बजाकर हुडदंग की शुरूआत की थी। राज्य सभा में काँग्रेसी सांसदो के व्यवहार से व्यथित होकर उपराष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा इस्तीफे की पेशकश करने को विवश हुये थे। संसद में अपनी माँगो पर समर्थन जुटाने के लिए मिर्च स्प्रे का प्रयोग करने वाले श्री एल. राजगोपाल काँग्रेस के टिकट पर लोक सभा सदस्य चुने गये है। इन्होंने कभी अपने एक निजी विधेयक के द्वारा लगातार तीन सत्रो में सदन की कार्यवाही में व्यवधान उत्पन्न करने वाले सांसद की सदस्यता रद्द करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। वे कठोर कार्यवाही के पक्षधर रहे है इसलिए अब उन्हें अपने किये के लिए स्वयं अपनी सजा तय करने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये।
काँग्रेस ने पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार को अल्पमत से बहुमत में बदलने के लिए करोड़ो रूपये खर्च करके शिवू सोरेन अजीत सिंह और उनके साथियो की निष्ठा खरीदी थी। 14 वीं लोक सभा में भी काँग्रेसियो ने धन बल के द्वारा बहुमत का जुगाड किया और इस अनैतिक आचरण के कारण उन्हें किसी नकारात्मक परिणाम का सामना नही करना पड़ा इसलिए अपनी तात्कालिक सुविधा और लाभ के लिए सभी दलो ने संसद की गरिमा का अपमान किया है और उसके लिए कोई शर्मिन्दा भी नही है।
संसद की गरिमा अपने संसदीय लोकतन्त्र का अभिन्न एवं अपरिहार्य भाग है इसलिए उसकी रक्षा का दायित्व राजनैतिक दलों से ज्यादा जनता पर है। संसद की गरिमा को तार तार करने वाले सांसद अपने असंसदीय आचरण से राजनैतिक लोक प्रियता प्राप्त करना चाहते है। राजनैतिक दल राजनैतिक पृष्ठ भूमि के आदर्श कार्यकर्ताओ की तुलना में आपराधिक पृष्ठ भूमि के जिताऊ प्रत्याशियो को चुनाव लडाने में वरीयता देते है और जनता भी उन्हें वोट देकर जिता देती है। संसद में प्रश्न पूँछने के लिए खुले आम घूस लेते पकड़े गये सांसद को अकबरपुर (कानपुर) क्षेत्र के मतदाताओ ने पुनः जिताकर घूस लेने के लिए उन्हें क्षमा कर दिया जबकि तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने दृढतापूर्वक उनकी सदस्यता रद्द करने का फैसला लिया था।
प्रथम लोक सभा अध्यक्ष श्री गणेश वासुदेव मावलंकर ने कहा था कि सच्चे लोकतन्त्र के लिए व्यक्ति को केवल संविधान के उपबन्धों अथवा विधान मण्डल के कार्य संचालन के लिए बनाये गये नियमो के अनुपालन तक सीमित नही रहना चाहिये बल्कि सदस्यों में लोकतन्त्र की सच्ची भावना विकसित करनी चाहिये। संसद में निर्णय बहुमत के आधार पर लिये जाते है परन्तु यदि सरकार का कार्य केवल उपस्थित सदस्यो की संख्या और उनकी गिनती तक सीमित रखा गया तो संसदीय लोकतन्त्र का यह पाना सम्भव नही हो पायेगा। हमे सहन शीलता स्वतन्त्र रूप से चर्चा और समझदारी की भावना का विकाश करना चाहिये। केवल इसी एक रास्ते से लोकतन्त्र की भावना को पोषित रखा जा सकता है। इस प्रकार की भावनाओं को जीवित रखने के लिए आवश्यक है कि सभी राजनैतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि के जिताऊ प्रत्याशियों की तुलना में अपने आदर्श कार्यकर्ताओं को संसद और विधान मण्डलों का टिकट थमायें। 

Sunday, 9 February 2014

आज कचहरी की बात अपने अनुजो के साथ ........

किसी ने कहा है कि जिस कर्म से आपकी पहचान होती है, वही आपका धर्म है और उसमें कुशलता प्राप्त करने के लिए किये जा रहे अनवरत प्रयत्न आपकी पूजा है। इस दृष्टि से देखा जाये तो वकालत अपने आपमें धर्म है और इसीलिए सम्पूर्ण विश्व में वकीलों को श्रद्धा एवं सम्मान से देखा जाता है। वकालत त्याग तपस्या एवं संघर्ष का जीवन है। जीविकोपार्जन का साधन है परन्तु साथ मे अपने अन्दर की अच्छाइयों को सार्वजनिक करने का माध्यम भी है।
कचहरी में अधिवक्ताओं की नई पौध को निखरने के अवसर देने की परम्परा है। अन्याय अत्याचार उत्पीड़न के विरूद्ध अपने तरीके से सोचने समझने और अधिकारो की लड़ाई में आम आदमी के साथ सहभागी होने के अवसर यहाँ उपलब्ध है। अन्य क्षेत्रों की तुलना में अपने युवा साथियों को सजाने सँवारने का काम बखूबी किया जाता है। ‘‘कुछ है जो हस्ती मिटती नही हमारी’’ के कथन में हस्ती को प्रधानता और ‘‘कुछ है’’ को भुला देने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण कुछ पुरानी घटनाओ से रूबरू होने की आज जरूरत है।
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व सालिसिटर जनरल एवं सांसद रहे श्री एफ.एस. नरीमन कहते है कि नये अधिवक्ताओं को अदालत कक्ष में अपनी जबान की तुलना में अपने दिमाग को ज्यादा सजग और तर्को को गम्भीर बनाना चाहिये। प्रत्येक दिन न्यायालय आना चाहिये और किसी भी दशा में ज्यादा बोलने से बचना चाहिये। वकालत की शुरूआत में सभी इससे रूबरू होते है परन्तु इसके दुष्परिणामों की जानकारी काफी बाद में हो पाती है। अपनी बात प्रारम्भ करने के तत्काल बाद पहले कुछ वाक्यों मे ही प्रश्नगत विवाद का सार बताने का अभ्यास करना चाहिये। शुरूआत में कठिनाई हो सकती है, परन्तु यदि पहले से लिखकर बोलने की आदत डाली जाये तो निश्चित रूप से लाभ मिलता है। अपने क्लाइन्ट के दृष्टिकोण से किया गया प्रस्तुतीकरण कभी नुकसान देह नही होता जबकि अदालत में ज्यादा विद्वान दिखना सदैव घातक होता है। 
श्रम कानूनों के प्रख्यात विशेषज्ञ अधिवक्ता गणेश दत्त बाजपेई, अर्जुन अरोड़ा और विमल मेहरोत्रा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष बर्खास्तगी के मामले में अलग अलग श्रमिको का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। लन्च पूर्व गणेश दत्त बाजपेई और अर्जुन अरोड़ा की बहस सुनने के बाद उनकी याचिकाओं को अदालत ने खारिज कर दिया। लन्च बाद विमल मेहरोत्रा की बारी आई। जज साहब ने खुद उन्हें याद दिलाया कि पहले दो याचिकाये खारिज हो चुकी है। अब क्या बचा है ? अनमने से बहस सुनने को तैयार हुये परन्तु विमल मेहरोत्रा ने भुक्तभोगी श्रमिक की तरह घटनाक्रम का आँखो देखा हाल सुनाया। उसे सुनकर जज साहब ने पहले पारित आदेश निरस्त करके तीनो याचिकायें स्वीकार की। विमल मेहरोत्रा कहा करते थे कि आम लोगों की तरह अदालत का अपना एक ईगो होता है। उसे पढ़ाने, उसे उसके कर्तव्यों का ज्ञान कराने की आवश्यकता नही है। आवश्यकता केवल और केवल पत्रावली में उपलब्ध तथ्यों के प्रति उसका ध्यान आकृष्ट कराने की है।
अधीनस्थ न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय तक प्रत्येक स्तर पर न्यायिक अधिकारी नये अधिवक्ताओं को प्रोत्साहित करते है इसलिए यदि सुनवाई स्थगित कराने के लिए भी अदालत के समक्ष उपस्थित होने के पूर्व प्रश्नगत विवाद और उसमें अपने पक्ष की संक्षेप जानकारी कर लेनी चाहिये। वकालती जीवन के पहले वर्ष में एफ.एस. नरीमन नानी पालकीवाला के जूनियर थे और उन्हे मुम्बई उच्च न्यायालय में एक दिन मुख्य न्यायमूर्ति श्री एम.सी. छागला एवं श्री गजेन्द्र गडकर की खण्डपीठ के समक्ष सुनवाई स्थगित कराने के लिए उपस्थित होना पड़ा। न्यायमूर्ति छागला ने सुनवाई स्थगित नही की बल्कि प्रश्नगत विवाद के सम्बन्ध मे कई प्रश्न पूँछ लिये। नरीमन ने सभी प्रश्नों का सटीक उत्तर दिया और उसके कारण न्यायमूर्ति छागला सदैव उनके प्रति उदार बने रहे। न्यायमूर्ति गजेन्द्र गडकर बाद में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और श्री एफ.एस. नरीमन सालिसिटर जनरल हुये। जूनियर अधिवक्ता द्वारा पत्रावली पढ़कर अदालत के समक्ष उपस्थित होने से न्यायिक अधिकारी के साथ साथ क्लाइण्ट पर भी उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है।
नये अधिवक्ताओं को अदालत में सदैव विनम्र रहना चाहियें। कानपुर कचहरी में अपर जनपर न्यायाधीश के पद पर अपनी तैनाती के दौरान श्री ओ.पी. त्रिपाठी ने फौजदारी मामलों में गैर जमानती वारण्ट जारी करने के बाद नई श्योरिटीज लिये बिना कभी कोई वारण्ट रिकाल नही किया। एक दिन मनीष मिश्रा के एक क्लाइण्ट के विरूद्ध वारण्ट जारी हो गया। वारण्ट बनाकर उसे जेल भेजा जाने लगा। इस बीच मनीष आ गये। विधि की कोई नजीर बताये बिना उन्होंने विनम्रता से क्लाइण्ट के उपस्थित न हो पाने की परिस्थितियाँ बताई। जज साहब वारण्ट रिकाल करने को मजबूर हुये। अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने केवल यही एक वारण्ट बिना श्योरिटीज लिए रिकाल किया था। 
कचहरी वकालत में मानवीय गुणो की पाठशाला है। सुल्तान नियाजी साहब और बैरिस्टर नरेन्द्र जीत सिंह अपनी अपनी राजनैतिक विचार धाराओं के अग्रणी प्रतिनिधि थे। एक धुर बामपन्थी और दूसरा कट्टर हिन्दूवादी। दोनो के बीच वैचारिक मदभेद जगजाहिर थे, परन्तु उनमें कोई मनभेद नही था। बार एसोसियेशन में अपने अधिवक्ता के ऊपर अपनी विचारधारा को उन दोनों ने कभी हावी नही होने दिया। अध्यक्ष पद के चुनाव में सुल्तान नियाजी ने वैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह की प्रत्यासिता का खुल कर समर्थन किया था। अपने कार्य व्यवहार एवं आचरण से उन्होंने सिद्ध किया कि अन्य कुछ भी होने की तुलना में अधिवक्ता होना ज्यादा महत्वपूर्ण है। एक न्यायिक अधिकारी आदतन कक्ष में प्रार्थनापत्र की भाषी शैली की समीक्षा करके जाने अनजाने सम्बन्धित अधिवक्ता को उपहास का विषय बना लिया करते थे। सभी उनकी इस आदत से परेशान थे। सुल्तान नियाजी साहब ने उसका समाधान खोजा। उन्होंने कुछ लिखे बिना एक प्रार्थनापत्र उनके समक्ष प्रस्तुत किया और अपनी समस्या बताकर कहा कि जिस तरह लिखा जाता है आप लिखा दें ताकि आपको गल्तियाँ खोजने का कष्ट न उठाना पड़े। नियाजी साहब के इस विनम्र विरोध की जानकारी तत्कालीन जनपद न्यायाधीश को प्राप्त हुई और उसके बाद से प्रार्थनापत्रों की भाषा शैली पर चर्चा बन्द हो गई। 
वकालत के शुरूआती दिनों में बेहद विनम्र और विद्वान अधिवक्ता श्रीप्रकाश गुप्त के साथ आरबीटेªशन के एक मामले में, मैं विपक्षी पक्षकार का अधिवक्ता था। गुणदोष के आधार पर पारित एक आदेश के विरूद्ध मैने रिव्यू दाखिल किया। रिव्यू के समर्थन में मुझे अपनी बात कहनी थी। मैं असमंजस में था, मेरी दशा भाप कर श्रीप्रकाश जी ने पूरी अदालत में कहा कि इनका रिव्यू मेन्टेनेबल है और उसके कारण रिव्यू अलाऊ हो गया। वास्तव में मेरिट पर रिव्यू के आधार पर्याप्त नही थे, परन्तु श्रीप्रकाश गुप्त ने मुझे हतोत्साहित न होने देने के लिए रिव्यू अलाऊ करा दिया। इसी प्रकार सिविल जज श्री जगदीश्वर सिंह के समक्ष मैने आरबीटेªशन एक्ट की धारा 34 के तहत प्रार्थनापत्र प्रस्तुत किया। बहस के दौरान ज्ञात हुआ कि जिस तिथि पर प्रार्थनापत्र प्रस्तुत किया गया था उस समय आरबीट्रेशन एक्ट निरसित हो चुका था और आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट लागू हो चुका था जिसकी मुझे जानकारी नही थी। मैनें अपनी अज्ञानता स्वीकार की और मेरी निर्दोष स्वीकरोक्ति को दृष्टिगत रखकर मुझे दूसरा प्रार्थनापत्र प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया गया।
अदालत के समक्ष कुछ भी बताने के पूर्व उसके गुण दोष पर विचार अवश्य करना चाहिये। कई बार जल्द बाजी में कुछ ऐसी बाते लिख जाती है जो बाद में घातक सिद्ध होती है। डिले कन्डोन के लिए ट्रेन की देरी को आधार बनाया गया परन्तु बहस के दौरान प्रकाश में आया कि टेªन लेट नही थी। टेªन आने का निर्धारित समय 12 बजे ही था और उसके कारण जानबूझकर देर से आना पाया गया। क्या लिखना है? क्या पूँछना है? सबको मालूम होता है लेकिन केवल अनुभवी अधिवक्ता को मालूम होता है कि क्या नही पूँछना चाहिये? सात वर्षीय गवाह से जिरह के दौरान पूँछा गया कि आप अपने नाना की सब बात मानते हो वे जो कहते है करते हो? इन प्रश्नों का गवाह ने हाँ में उत्तर दिया। अभियुक्त के अधिवक्ता को उनका मनचाहा उत्तर मिल चुका था, परन्तु ज्यादा स्पष्टता के लालच में उन्होंने आगे पूँछा कि ‘‘आज तुम वही बता रहे हो जो नाना ने बताया है’’ गवाह ने कहा ‘‘नही ’’ जो देखा था वो बताया है। इस एक प्रश्न ने बचाव की पूरा इमारत ढहा दी और अभियुक्त को आजीवन कारावास का दण्ड भुगतना पड़ा। 
वकालती जीवन में पैसा महत्वपूर्ण है लेकिन दवे कुचले लागों को दी गई निशुल्क विधिक सहायता किसी नामी गिरामी कम्पनी को दी गई प्रोफेशनल एडवाइज से ज्यादा पे करती है। दवे कुचले लोग सूरजमुखी नही होते। वे अपने वकील को सदा श्रद्धा से देखते है। कानपुर में वकालत बन्द करके बैंगलोर चले गये प्रख्यात अधिवक्ता श्री एन.के. नायर पिछले सप्ताह कचहरी में थे। उनके चैम्बर में उनसे मिलने वालो का ताँता लगा था। कई श्रमिक नेता उपस्थित थे और उनके बीच चर्चा राहुल मोदी या अन्य किसी राजनेता की नही बल्कि राष्ट्र जीवन में परिवर्तन का कारण बने जन आन्दोलनो और अब उनके कमजोर हो जाने के कारण आम आदमी की वेबसी पर विचार विमर्श हो रहा था। हममे से कम लोगो को मालुम है कि अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान वर्ष 1955-56 में एन.के. नायर ने डी.ए.वी. कालेज छात्रावास में छात्र आन्दोलन के बल पर दलित छात्रों को सवर्ण छात्रों के भोजनालय में उनके साथ खाना खाने का अधिकार दिलाया और 1957 में मूलगंज चैराहे पर गुलामी के प्रतीक क्वीन विक्टोरिया की मूर्ति को तोडा था।
कचहरी का वर्तमान वातावरण इस गौरवगाथा के प्रतिकूल होता जा रहा है। अभी कुछ वर्ष पहले अपने भाई लोगों ने स्थानीय विवाद के कारण कानपुर कचहरी के वकील और बाद में भारत के प्रथम विधि मन्त्री बने कैलाश नाथ काटजू की प्रतिमा स्थापित नही होने दी। सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश श्री मार्केण्डेय काटजू प्रख्यात अधिवक्ता श्रीराम जेठमलानी सहित कई प्रमुख विधि वेताओं को कचहरी परिसर में परिचर्चा नही करने दी थी। शालीनता और धूम धड़ाके के बिना अपनी संस्थाओं के होने वाले चुनावो को छात्र संघों की तर्ज पर कराया जाने लगा है। इस सब को रोकना और अपनी पुरानी परम्पराओं को पुर्नस्थापित करना आज की जरूरत है। 

Sunday, 2 February 2014

खिलवाड़ है कानून व्यवस्था के साथ दया याचिकाओ में विलम्ब.................

दया यचिकाओं के निस्तारण मे विलम्ब को आधार बना कर सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं अपने द्वारा घोषित जघन्यतम अपराधो के पन्द्रह दोषियो की सजा को मृत्युदण्ड से आजीवन कारावास में तब्दील करके पूरे देश को हतप्रभ किया है। इस फैलसे से दस्यु सरगना वीरप्पन के खतरनाक सहयोगियो, बाइस पुलिस कर्मियो की हत्या के दोषियो, वाराणसी मे अपने भाई उसकी पत्नी, बेटा और दो बेटियो इटावा में अपनी पत्नी और पाँच बेटियो, पीलीभीत में अपने ही घर के तेरह सदस्यो की हत्या के दोषियो को राहत मिलेगी और दूसरी ओर राजीव गाँधी के हत्यारो और पंजाब के देवेन्द्र पाल सिंह भुल्लर जैसे आतंकवादियो की सजा में तब्दीली का रास्ता खुल सकता है और यदि विधिक कारणो से ऐसा नही हो सका और उन्हें फाँसी दी गई तो इतिहासकारो को पक्षपात और अन्याय की एक घटना के रूप में इसे दर्शाने का एक अवसर तो मिल ही जायेगा। इस प्रकार की परिस्थितियाँ कानून व्यवस्था के लिए घातक और राष्ट्र एवं समाज के व्यापक हितो के प्रतिकूल होती है।
दया याचिकाओं का निस्तारण केन्द्रीय गृह मन्त्रालय और राष्ट्रपति कार्यालय के उच्च स्तरीय विचार विमर्श का विषय है। राज्यपाल द्वारा दया याचिका के खारिज करने की सूचना केन्द्रीय गृह मन्त्रालय को राज्य सरकार द्वारा भेजी जाती है और इसके अतिरिक्त इसके निस्तारण में उनकी कोई भूमिका नही होती है। संसद में हमले के दोषी अफजल गुरू को फाँसी दिये जाने के मामले को राजनैतिक रंग दिये जाने के बावजूद दया याचिकाओं के निस्तारण में शीघ्रता लाने का कोई प्रयास न किया जाना चिन्ता का विषय है। दया याचिकाओ के निस्तारण में जारी विलम्ब के कारण ही राजीव गाँधी के हत्यारो को फाँसी की सजा से बचाने के लिए तमिलनाडु के राजनैतिक दल लामबन्द होने का दुस्साहस कर सके। इसी प्रकार की कोशिश पंजाव में बेअत सिंह के हत्यारों के मामलो में भी की गई है। दया याचिकाओं में विलम्ब के कारण एकान्तवास झेल रहे दोषियो की तकलीफ चिन्ता का विषय है, परन्तु उनको उनके किये की सजा न दिला पाने की विवशता झेल रहे पीडि़त परिवारो की वेदना भी समान चिन्ता का विषय है। केन्द्रीय गृह मन्त्रालय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पीडि़त परिवारों की वेदना का प्रतिनिधित्व करने और इस पूरे मामले मे अपनी भूमिका के निर्वहन में असफल सिद्ध हुआ है और उसके कारण सर्वोच्च न्यायालय पीडि़त परिवारो की मानसिक वेदना की तुलना में दोषियो के मानवाधिकारों को वरीयता देने के लिए मजबूर हुआ है।
केन्द्र सरकार ने श्री वीरप्पा मोईली के कानून मन्त्री रहने के दौरान अपनी लिटिगेशन पालिसी घोषित की थी और उसमें व्यवस्था की गई थी कि केन्द्र सरकार न्यायालयो के समक्ष अपने विरूद्ध लम्बित मामलों में नियत तिथि पर निर्धारित कार्यवाही सुनिश्चित करायेगी और स्थगन प्रार्थनापत्र अपवाद स्वरूप ही प्रस्तुत करेगी। आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 पारित करके उसने व्यवस्था की है कि आपराधिक मामलो में विचारण के दौरान दिन प्रतिदिन सुनवाई की जायेगी। इसी प्रकार सिविल मामलों में नब्बे दिन के अन्दर लिखित कथन दाखिल करने की अनिवार्यता लागू की गई है अर्थात केन्द्र सरकार मानती है कि विलम्ब से किया गया न्याय अन्याय के समान होता है। विचारण न्यायालयो के समक्ष मुकदमों के निस्तारण में जारी विलम्ब पर अंकुश लगाने के लिए केन्द्रीय सरकार ने विधि में कई संशोधन किये है परन्तु अपने स्तर पर हो रहे विलम्ब को कम करने के लिए उसने कोई प्रयास नही किये है जबकि सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले के पूर्व वर्ष 1983 और 1989 में अपने अलग अलग फैसलों में सर्वोच्च न्यायालय ने फाँसी की सजा के फैसलों को निष्पादित करने में हो रहे विलम्ब की निन्दा की थी। वर्ष 1974 में न्यायमूर्ति श्रीकृष्णा अय्यर ने अपने निर्णय में लम्बे समय तक दोषी को एकान्तवास में रखने की घटनाओं को अमानवीय बताया था, परन्तु केन्द्र सरकार ने इन निर्णयों से कोई सबक नही लिया और अपनी निर्णय प्रक्रिया को यथावत बनाया रखा। 
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि मृत्यु दण्ड से दण्डित दोषियों को राष्ट्रपति के समक्ष अपने विरूद्ध पारित दण्डादेश के विरूद्ध दया याचिका प्रस्तुत करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। दया याचिकाओं पर विचार करना राष्ट्रपति का संवैधानिक दायित्व है। इसमें उनकी निजी कृपा की कोई भूमिका नही है। राष्ट्रपति का संवैधानिक दायित्व होने के कारण न्यायालय उनके इस दायित्व को पूरा करने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नही कर सकती परन्तु इसका यह अर्थ नही है कि राष्ट्रपति के समक्ष उसे अनन्त काल तक लम्बित बनाये रखा जाये। वास्तव में सम्बन्धित अधिकारी स्वयं पहल करके अपने स्तर पर समय सीमा निर्धारित कर सकते है। अपने समक्ष लम्बित पत्रावली का समयबद्ध निस्तारण सुनिश्चित करने कराने से विधि में कोई प्रतिबन्ध नही है। विधि और राष्ट्र अपने अधिकारियों प्राधिकारियों से इस प्रकार की पहल की अपेक्षा करता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस फैसले के द्वारा दया याचिकाओ के निस्तारण के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नही की है परन्तु कई सुसंगत दिशा निर्देश जारी किये है जिसके अनुपालन की अनिवार्यता लागू हो जाने से दया याचिकाओं के निस्तारण में जारी विलम्ब पर अंकुश लगाया जा सकेगा। फैसले में कहा गया है कि ‘‘जैसे ही दया याचिका प्राप्त होती है या राज्यपाल द्वारा उसके खारिज किये जाने की सूचना राज्य सरकार प्रेषित करती है तो केन्द्रीय गृह मन्त्रालय के सम्बन्धित अधिकारी विचारण न्यायालय उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय सहित न्यायालय और पुलिस के सभी सुसंगत अभिलेख तत्काल एकत्र करेंगे और उसे समय सीमा के अन्दर गृह मन्त्रालय को भेजेंगे। इस प्रकार भेजे गये अभिलेखो पर यदि महामहिम के कार्यालय के स्तर पर कोई कार्यवाही नही की जाती तो गृह मन्त्रालय एक निश्चित अन्तराल के बाद लगातार रिमाइन्डर भेजकर अपने स्तर पर दयायाचिकाओं के अतिशीघ्र निस्तारण के लिए प्रयत्नशील रहेंगे। इस दौरान राष्ट्रपति के कार्यालय से यदि कोई सूचना या दस्तावेज माँगा जाता है तो तत्काल उसे उपलब्ध करायेंगे।
निर्णय के तहत अब फाँसी की सजा पाये दोषियों को कई सुसंगत अधिकार प्राप्त हो सकेंगे। अभी तक की व्यवस्था के तहत जेल अधिकारियों के लिए दया याचिका के निरस्त होने की सूचना दोषी को देने की कोई अनिवार्यता नही थी और न फाँसी दिये जाने के पूर्व दोषी और उसके परिजनों की अनिवार्य मुलाकात की कोई व्यवस्था थी। परन्तु अब आवश्यक बना दिया गया है कि जेल अधिकारी निरस्तीकरण की लिखित सूचना एक सप्ताह के अन्दर दोषी और उसके परिजनो को देगे और दया याचिका तैयार करने के लिए आवश्यक साधन और कानूनी सहायता दोषी को उपलब्ध करायेगे।
आतंकवादी अफजल गुरू को फाँसी दिये जाने के पूर्व उसके परिजनों को सूचित न करने की घटना को दृष्टिगत रखकर सर्वोच्च न्यायालय ने अब दोषी को फाँसी पर लटकाये जाने के चैदह दिन पूर्व इसकी सूचना दोषी और उसके परिजनों को देने और इस अवधि में उसके परिजनों से उसकी अनिवार्य मुलाकात को आदेशात्मक बना दिया है। ताकि दोषी भगवान से अपने लिए शान्ति माँग सके और फाँसी के लिए अपने आपको मानसिक रूप से तैयार कर लें। उसे अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों की समुचित व्यवस्था और वसीयत निष्पादित करने का भी अवसर दिया जायेगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने 7 जनवरी 2014 को पारित अपने एक निर्णय में आपराधिक मामलों की विवचेना में लापरवाही और विचारण के दौरान न्यायालय के समक्ष अभियोजन का समुचित पक्ष प्रस्तुत न करने वाले लोक अभियोजको की जिम्मेदारी चिन्हित करके उनके विरूद्ध विभागीय कार्यवाही सुनिश्चित कराने का निर्देश जारी किया है। इस निर्णय में कहा गया है कि अभियोजन की कमियों के कारण अभियुक्तों की रिहाई से पीडि़त परिवारों को असीमित वेदना का शिकार होना पड़ता है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला दया याचिकाओं के निस्तारण में विलम्ब के लिए दोषी अधिकारियों एवं प्राधिकारियों पर भी लागू होता है। जघन्यतम अपराधों के 15 दोषियों की दया याचिकाओं के निस्तारण में विलम्ब के कारणो की जाँच की जानी चाहिये और उसके लिए दोषी अधिकारियों एवं प्राधिकारियों को चिन्हित करके उन्हें दण्डित किया जाना आवश्यक है।
समझना चाहिये कि आम आदमी दया याचिकाओं के संवैधानिक प्रावधानो उसकी समय सीमा या अन्य प्रक्रियागत व्यवस्थाओं से वाकिफ नही है। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जघन्यतम अपराध का दोषी बताये गये लोगो की रिहाई से कानून व्यवस्था के प्रति उसका विश्वास घटता है इसलिए सम्बन्धित अधिकारियों प्राधिकारियों को चिन्ता करके दया याचिकाओं के निस्तारण मे जारी विलम्ब पर अंकुश लगाने के लिए दया याचिकाओं के निस्तारण के लिए समय सीमा निर्धारित करनी चाहिये और यदि आवश्यक प्रतीत हो तो संविधान संशोधन का मार्ग प्रशस्त करना चाहियें।