Sunday, 27 April 2014

केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण, अपीलीय क्षेत्राधिकार, पुनर्विचार जरूरी ......

सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय पीठ द्वारा एल. चन्द्र कुमार बनाम यूनियन आफ इण्डिया (1997-3-एस0सी0सी0-पेज 261) में प्रतिपादित विधि के बाद केन्द्रीय प्रशाशनिक न्यायाधिकरण के फैसलों के विरूद्ध अपीलीय क्षेत्राधकार उच्च न्यायालय में निहित हो गया है जबकि मूल अधिनियम में अपील सुनने व निर्णीत करने का सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार सर्वोच्च न्यायालय में निहित था। आम्र्ड फोर्स ट्रिब्यूनल एक्ट 2007 में भी अपील का क्षेत्राधिकार सर्वोच्च न्यायालय में ही निहित है। केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण के फैसलों के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील योजित होने की स्थिति में कर्मचारियों के सेवासम्बन्धी विवादों के सहज, सस्ते और त्वरित निस्तारण में सहायता मिलती है।
केन्द्रीय प्रशाशनिक न्यायाधिकरण के गठन के पूर्व शासकीय कर्मचारियों के सेवा सम्बन्धी विवादों को सुनने व निर्णीत करने का सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार विभिन्न जनपदों के सिविल न्यायालयो में निहित था और मुकदमों के बोझ के कारण सेवा सम्बन्धी विवादों के निस्तारण में काफी विलम्ब होता था और कर्मचारी कचहरी के चक्कर काटा करते थे। इसलिए सरकार ने प्रशाशनिक न्यायाधिकरण अधिनियम 1985 और सभी न्यायाधिकरणों में एक समान प्रक्रिया के लिए केन्द्रीय प्रशाशनिक नियमावली 1987 लागू की। न्यायाधिकरण अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों से शासित होते थे। सिविल प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रावधानों का अनुपालन उनकी बाध्यता नही थी। न्यायाधिकरणों के समक्ष प्रस्तुत ओरिजिनल एप्लीकेशन (ओ.ए.) का निस्तारण प्रायः छः माह में हो जाता है। भारत सरकार के सम्बन्धित मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति ने पाया है कि मुकदमों के त्वरित निस्तारण में न्यायाधिकरणों का रिकार्ड अन्य न्यायालयों की तुलना में काफी अच्छा है। 
एल चन्द्र कुमार के मामले में प्रतिपादित किया गया है कि न्यायाधिकरण के फैसलो के विरूद्ध अनुच्छेद 136 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष सीधे अपील नही की जा सकती बल्कि व्यथित पक्षकार को संविधान के अनुच्छेद 226 एवं 227 के तहत उच्च न्यायालय के समक्ष अपील करने का अधिकार प्राप्त है। उच्च न्यायालय की डिवीजन बेन्च द्वारा पारित फैसलों को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रश्नगत किया जा सकता है। केन्द्रीय प्रशाशनिक न्यायाधिकरण के गठन के समय शासकीय कर्मचारियों को सहज सस्ता और त्वरित न्याय उपलब्ध कराने केे लिए मूल अधिनियम में अपीलीय क्षेत्राधिकार उच्च न्यायालय को प्रदत्त नही किया गया था। माना गया था कि न्यायाधिकरणों के फैसले के विरूध उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दाखिल करने की प्रक्रिया से विवाद के त्वरित और अन्तिम निस्तारण में विलम्ब कारित होगा, परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने एल. चन्द्र कुमार के मामले में अपने निर्णय के द्वारा एक नई अपील प्रक्रिया निर्मित कर दी है जो वास्तव में संविधान प्रदत्त शक्तियों के विभाजन के सुस्थापित सिद्धान्त के प्रतिकूल है।
शक्तियो के विभाजन का सिद्धान्त हमारे संविधान की आत्मा है और उसका एक विशेष गुण है। इन्दिरा नेहरू गाँधी बनाम राजनारायण (1975-एस0सी0सी0- सप्लीमेन्ट्री-पेज 1) में प्रतिपादित किया गया था कि भारत गणराज्य के तीनों अंग कार्यपालिका विधायिका और न्यायपालिका अपने अपने क्षेत्रों में संप्रभु है और इनमे से कोई एक दूसरे की शक्तियों और अधिकारक्षेत्र में हस्तक्षेप नही कर सकता। अपने देश में कार्यपालिका द्वारा संविधान की मूलभूत अवधारणा के विरूद्ध पारित किसी भी निर्णय को असंवैधानिक घोषित करने का क्षेत्राधिकार न्यायपालिका को प्राप्त है। इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित किसी निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय की बृहद बेन्च द्वारा अपास्त किया जाना अपेक्षित है। यूनियन आफ इण्डिया बनाम देवकी नन्दन अग्रवाल (1992-एस0सी.सी.-एल.एण्ड एस. पेज 248) में सर्वोच्च न्यायालय ने खुद प्रतिपादित किया है कि न्यायपालिका को विधायिका द्वारा बनाये गये किसी कानून को रिराइट रिफ्रेम या रिकास्ट करने का कोई क्षेत्राधिकार प्राप्त नही है। न्यायालय विधि में अपने स्तर पर न कोई शब्द बढ़ा सकता है और न उससे अलग कोई अर्थान्वयन करने का उसे कोई संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। आसिफ हमीद बनाम स्टेट आफ जे. एण्ड के (1989-एस.सी.सी. सप्लीमेन्ट्री-2 पेज-364) में भी प्रतिपादित किया गया है कि प्रशाशनिक निर्णयों की न्यायिक समीक्षा के अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते समय न्यायालय अपीलीय प्राधिकारी के रूप में कार्य नही करते और न न्यायालय विधायिका को उसके नीतिगत निर्णयों पर कोई निर्देश या सलाह दे सकते है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित उल्लिखित विधिक सिद्धान्तो को दृष्टिगत रखकर पूँछा जा सकता है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय किसी विधिक प्रावधान को संशोधित कर सकती है या फैसलों के विरूद्ध अपील के लिए किसी निश्चित प्रक्रिया का अनुपालन करने के लिए निर्देश जारी कर सकती है ? मेरी दृष्टि में सर्वोच्च न्यायालय को इस आशय का कोई क्षेत्राधिकार प्राप्त नही है। संविधान के तहत गठित प्रशासनिक न्यायाधिकरणों के फैसलों के विरूद्ध अपील सुनने व निर्णीत करने का क्षेत्राधिकार उच्च न्यायालयों में निहित करने का निर्णय पारित हो जाने के बाद कर्नाटका सर्विस एडमिनिस्टेªटिव ट्रिब्यूनल के चेयरमैन न्यायमूर्ति श्री शिव शंकर भाट ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। उन्होनें अपने त्याग पत्र में बताया था कि न्यायाधिकरण का विधिक स्तर डाउनग्रेडेड (कमतर) कर दिये जाने के कारण उनके लिए उस पद पर कार्य करना उचित नही है। एल. चन्द्र कुमार का निर्णय पारित होने के बाद तमिलनाडु सरकार ने चेन्नई  स्थिति सर्विस एडमिनिस्टेªटिव ट्रिब्यूनल समाप्त कर दिया तद्नुसार उनके कर्मचारियों को अपने सेवा सम्बन्धी विवादों के निस्तारण के लिए उच्च न्यायालय के समक्ष आवेदन करने का अधिकार प्राप्त हो गया है।
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित न्याय पाने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है परन्तु केन्द्रीय प्रशाशनिक न्यायाधिकरण की विधिक हैसियत कमतर हो जाने के कारण कर्मचारियों के लिए अब अपने सेवा सम्बन्धी विवादों के न्यायपूर्ण अन्तिम निपटारे के लिए उच्च न्यायालय के समक्ष भी अपना पक्ष प्रस्तुत करने की बाध्यता लागू हो गई है। इस प्रक्रिया के कारण निस्तारण में विलम्ब और व्यय दोनो में बढ़ोत्तरी हुई है। इसीलिए विधि आयोग ने अनुशंशा की है कि केन्द्रीय सरकार विधि में अपेक्षित संशोधन करे या एल. चन्द्र कुमार के मामले मे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय को पुनर्विचार के लिए बृहद पीठ के समक्ष संदर्भित कराने हेतु आवश्यक कार्यवाही सुनिश्चित कराये परन्तु पाँच वर्ष से ज्यादा की अवधि बीत जाने के बावजूद केन्द्र सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नही की है और न कर्मचारियों के संघटनों ने इस विषय पर सरकार पर दबाव बनाने के लिए कोई काम किया है।
भारत सरकार के सम्बन्धित मन्त्रालय की संसदीय स्थायी समिति ने भी अनुशंशा की है कि यदि न्यायाधिकरणों के फैसलो के विरूद्ध अपील का अधिकार उपलब्ध कराया जाना आवश्यक है तो इसे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उपलब्ध कराया जाना चाहिये। केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरणों के फैसलों के विरूद्ध अपीलीय क्षेत्राधिकार के प्रश्न पर विधि आयोग और सम्बन्धित मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति की राय एक सामान है। वास्तव में शासकीय कर्मचारियों के व्यापक हितों और प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम 1985 पारित करने के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एल चन्द्र कुमार के केस में सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय पीठ के निर्णय पर बृहद पीठ द्वारा पुनर्विचार किया जाना आवश्यक है। 
उच्च न्यायालयों के समक्ष पहले से ही बड़ी संख्या में मुकदमें लम्बित है और कई मुकदमों में दशकों से सुनवाई नही हो पा रही है। ऐसी दशा में न्यायाधिकरणों के फैसलों के विरूद्ध अपीलीय क्षेत्राधिकार के कारण उच्च न्यायालय के समक्ष लम्बित मुकदमों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हो सकती है और इसके कारण आम लोगों को त्वरित न्याय प्रदान करने में व्यवधान उत्पन्न होगा जो किसी के भी हित में नही है। इन्हीं सब तथ्यों पर विचार करके विधायिका ने प्रशाशनिक न्यायाधिकरण अधिनियम 1985 में उच्च न्यायालय के समक्ष अपील का कोई प्रावधान नही बनाया था। एल. चन्द्र कुमार के मामले मे सर्वोच्च न्यायालय ने अपने स्तर पर अपील की एक नई प्रक्रिया निर्धारित की है और उसका यह कार्य संविधान प्रदत्त शक्तियों के विभाजन के सिद्धान्त के प्रतिकूल है। इसलिए चीफ जस्टिस आफ इण्डिया को स्वप्रेरणा से एल. चन्द्र कुमार बनाम यूनियन आफ इण्डिया (1997-3-एस.सी.सी. पेज 261) में पारित निर्णय को पुनर्विचार के लिए बृहद पीठ के समक्ष संदर्भित करना चाहिये या भारत सरकार को एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल एक्ट 1985 में संशोधन करके अधिनियम में ही  अपीलीय प्राधिकारी की नियुक्ति उनकी शक्तियों और अपील प्रक्रिया का प्रावधान कर देना चाहिये।

Sunday, 20 April 2014

दहेज में पोस्ट डेटेड चेक अन्तरात्मा के पतन की पराकाष्ठा .........

दहेज में भी पोस्ट डेटेड चेक सुनकर कुछ अटपटा लगता है लेकिन सच यही है। पिछले शुक्रवार को सरकारी आवासीय परिसर अर्मापुर इस्टेट में लड़के वालों ने जयमाल के पूर्व लड़की के पिता को दहेज में नगद धनराशि देने के लिए मजबूर किया। तत्काल पैसे की व्यवस्था नही हो सकी तो अदायगी सुनिश्चित कराने के लिए दो दो लाख रूपयें के चार पोस्ट डेटेड हस्ताक्षरित चेक देने के लिए मजबूर किया है। वर वधू दोनों गाँधी नगर के प्रतिष्ठित नेशलन इन्स्टीट्यूट आफ फैशन टेक्नालाजी के स्नातक है और विद्यार्थी जीवन से उनमें प्रेम सम्बन्ध रहे है परन्तु लड़की के दरवाजे पर बारात आ जाने के बाद दहेज की माँग पूरी हुये बिना जयमाल न होने देने की पिता की जिद के सामने लड़के ने घुटने टेककर लड़की के प्यार सद्भाव और विश्वास को चुटहिल किया है। चकनाचूर इसलिए नही का जा सकता कि अपने माता पिता की इच्छा के प्रतिकूल विद्यार्थी जीवन में प्यार की पींगे बढ़ाकर घर बसाने का सपना पालने वाली फैशन डिजायनर लड़की ने अपने प्रेमी और भावी जीवन साथी के परिजनों के लालची आचरण के विरोध में शादी करने से इनकार नही किया और न अपने प्रेमी को बताया कि हमारी जैसी गुणवान बहू पाकर आपके पिता को मेरे माता पिता के प्रति सार्वजनिक रूप से कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिये।
उच्च शिक्षित परिवार की यह घटना बताती है कि समाज में दहेज का दानव आज भी जिन्दा है और पहले से ज्यादा ताकतवर और निर्भीक हो गया है। अधिकांश परिवारों में दहेज के कारण लडकियों को प्रताडि़त करने की घटनायें बढ़ी है, कम नही हुई है। एक सार्वजनिक प्रतिष्ठान में प्रबन्धक के पद पर कार्यरत इन्जिनियर बहू पर उसके श्वसुर पूरा वेतन सौंप देने का दबाव बना रहे है। बहू ने इन्कार कर दिया तो अब पूरा परिवार उसे बदनाम करने पर तुला है और उसके डाक्टर पति ने अपने माता पिता के प्रभाव में उसे परित्यक्ता जीवन जीने के लिए विवश कर रखा है। इस मामले में लड़की के पति और श्वसुर का आचरण अपराध की परिधि मे आता है, परन्तु अपने समाज में लड़कियाँ आज भी ससुराली प्रताडना को अपना भाग्य समझकर झेल लेती है और दोनों परिवारों को मान मर्यादा बनाये रखने के लिए शिकायत से परहेज करती है।
दहेज की माँग पूरी न होने की स्थिति में लड़कियों को मार देने या आत्महत्या के लिए विवश करने की बढ़ती घटनाओं को दृष्टिगत रखकर उन पर प्रभावी अंकुश के लिए दहेज प्रतिषेध अधिनियम के अस्तित्व में होने के बावजूद भारतीय दण्ड संहिता में संशोधन करके धारा 304 बी और 498 ए को जोडा गया। भारतीय साक्ष्य अधिनियम में धारा 113ए एवं 113बी जोडकर अभियुक्त के दोषी होने की उपधारणा का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया और अपने आपको निर्दोष साबित करने का भार अभियुक्त पर डाल दिया गया है। विधि के इन प्रावधानों के तहत सम्पूर्ण देश में दहेज लोभियों को दण्डित किया गया परन्तु दहेज लोभियों पर अंकुश नही लगाया जा सका। दहेज का लेनदेन बदस्तूर जारी है जबकि दहेज प्रतिषेध अधिनियम के तहत दहेज लेना या देना दोनों अपराध है।
आज पूरे देश में दहेज की माँग को लेकर मुकदमों की संख्या में बेतहाशा बृद्धि हुई है और इसके कारण पूरा परिवारिक ताना बाना छिन्न भिन्न होने लगा है। लोगों का कहना है कि दहेज विरोध कानून महिला समर्थक है। महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाया गया यह कानून अब पुरूषों को उत्पीडि़त करने का हथियार बन गया है। इस प्रकार की शिकायतों को दृष्टिगत रखकर सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय खण्ड पीठ ने ललिता कुमारी बनाम गवर्नमेन्ट आफ उत्तर प्रदेश एण्ड अदर्स (2014-1-जे.आई.सी. पेज 166-एस.सी.) में प्रतिपादित किया है कि वैवाहिक विवादों और पारिवारिक झगड़ों की शिकायत पर आपराधिक धाराओं में मुकदमा पंजीकृत करने के पूर्व प्रारम्भिक जाँच अवश्य कराई जाये। सर्वोच्च न्यायालय ने इसके पूर्व प्रीति गुप्ता बनाम स्टेट आफ झारखण्ड (2010-7-एस.सी.सी. पेज-667) के द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 ए के तहत पूरे परिवार को दोषी बताये जाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर नाराजगी जताई है और इस पर प्रभावी अंकुश के लिए विधि में अपेक्षित संशोधन की सलाह दी थी। सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों के तहत अब प्रत्येक स्तर पर मीडिएशन सेन्टर स्थापित किये गये है और कोई भी विधिक कार्यवाही किये जाने के पूर्व पति पत्नी को आपसी विवाद मिडिएशन सेन्टर मे सुलझाने के लिए प्रोत्साहित किया जाने लगा है। सभी जानते है कि वैवाहिक विवादों में सवांदहीनता एक बडी समस्या है इस पर निजात पाने की दिशा में मीडिएशन सेन्टर ने सराहनीय प्रयास किये है। इन सेन्टर्स पर दोनों पक्षों को अपनी गल्ती सुधारने का अवसर दिया जाता है जिसके कारण कई बार आपसी मतभेद, मनभेद की परिधि में आने से बच जाते है। भावावेश और आक्रोश में की गई गल्तियों को सुधारने का अवसर हर एक को मिलना ही चाहिये।
यह सच है कि ससुराल मे अपनी प्रताड़ना के लिए कई बार बहुये अपने पति सास ससुर के साथ साथ निर्दोष विवाहित ननदो और उनके पतियों को भी दोषी बता देती है और इसके द्वारा वे ससुराल वालों पर अपना दबाव बनाती है। दहेज विरोधी कानून आज की परिस्थितियों में समाज के लिए उपयोगी है या नही ? इस पर बहस की जा सकती है। दोनों पक्षों के पास अपने अपने समर्थन में सुसंगत तर्क है परन्तु विवाह के बाद ससुराल में किसी न किसी बहाने नव वधुओं की प्रताड़ना एक कडवी सच्चाई है। प्रायः घरो मे किसी रस्म को लेकर या लडकी के किसी रिश्तेदार के व्यवहार को आधार बनाकर उलाहना देने की घटनाये नित्यप्रति होती है। कुछ लड़कियाँ नित्यप्रति के इन उलाहनों से परेशान नही होती। उसे सुना अनसुना करने की आदत डाल लेती है परन्तु कुछ लड़कियाँ ज्यादा संवेदनशील होती है और वे उलाहनों को बर्दास्त नही कर पाती है और धीरे धीरे उनकी सहन शक्ति समाप्त हो जाती है और फिर वे परिवार न्यायालय की ओर कदम बढ़ाकर दोनों परिवारों को सदा सदा के लिए एक दूसरे का दुश्मन बना देने का मार्ग प्रशस्त कर देती है। 
अपने समाज में विवाह के द्वारा दो परिवारों के बीच आपसी सद्भाव विश्वास आत्मीयता और पारस्परिक सहयोग के एक नये सम्बन्धों का सूत्रपात होता है। इसलिए विवाह का असर पति पत्नी के साथ साथ सम्पूर्ण परिवार और निकटतम सम्बन्धियों पर भी पड़ता है। पहले जब विवाह बुआ मौसी चाची के माध्यम से होते थे तब वर वधू दोनों एक दूसरे के परिवारों की रीति रिवाजों से परिचित होते थे परन्तु अब जब विवाह वैवाहिक विज्ञापनों के माध्यम से होने लगे है तो अब सभी को मानना चाहिये कि बहू को नये परिवार को जानने, समझने के लिए कुछ समय दिया जाना आवश्यक है। इस दौरान वर पक्ष को भी वधू के परिजनों पर अप्रिय टिप्पणी से बचना चाहिये। प्रायः देखा जाता है कि वैवाहिक विवादों की शुरूआत सास बहू या ननद भौजाई के आपसी मन मोटाव से होती है। शुरूआत में पति पत्नी के मध्य निजी स्तर पर कोई समस्या नही होती है। पति माँ और पत्नी के बीच पिसने लगता है। दोनों के मध्य सामन्जस्य बैठा पाना उसके लिए टेढी खीर हो जाता है। पुत्र के विवाह के बाद माँ को बेटे पर अपना नैसर्गिक अधिकार बहू के साथ शेयर करने की आदत डालनी चाहिये। प्रायः माँ ऐसा नही कर पाती और फिर वे अपने बेटे के जीवन में खुद ही अशान्ति को आमन्त्रित कर देती है। 
दहेज प्रताड़ना की फर्जी शिकायतों को दृष्टिगत रखने के बावजूद दहेज में पोस्ट डेटेड चेक की घटना बताती है कि दहेज विरोधी कानून आज भी पहले जैसा ही सार्थक और उपयोगी है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश के बाद विधि आयोग ने दिनांक 30 अगस्त 2012 को प्रस्तुत अपनी 243वीं रिपोर्ट में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498ए के तहत पंजीकृत मुकदमों को आधारहीन नही पाया है और इसीलिए उसने अनुशंशा की है कि वैवाहिक विवादों में गिरफ्तारी करने के पूर्व सावधानी बरती जानी चाहिये। आज सामाजिक शक्तियाँ कमजोर हो गई है और दहेज लोभियों ने दहेज विरोधी होने का आवरण ओढ लिया है। ऐसी दशा में इन पर केवल कानून के द्वारा अंकुश लगाया जा सकता है परन्तु दूसरी ओर इसके दुरूपयोग को रोकने के लिए कारगर उपायो की भी जरूरत है।

Sunday, 13 April 2014

मत पूछो किसी बच्चे से मजहब का नाम ..............

‘‘छोडो कल की बातें, कल की बात पुरानी नए दौर में लिखेंगे हम, मिलकर नई कहानी, हम है हिन्दुस्तानी’’ गीत के साथ स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘‘हिन्दुस्तान’’ द्वारा सामाजिक सौहार्द बनाये रखने के लिए आयोजित संवाद कार्यक्रम में ज्योतिषाचार्य पण्डित के. ए. दुबे पद्मेश, बडी मस्जिद के पेश इमाम मोहम्मद समी उल्ला, दादा मियाँ दरगाह के नायब सज्जादानशीन अबुल बरकात नजमी गुरूद्वारा भाई बन्नों साहब के प्रधान मोकम सिंह साहित्यकार कमल कुसद्दी, डा0 कमलेश द्विवेदी समाज सेवी छोटे भाई नरोना, मस्जिद ईदगाह के इमाम मुफ्ती मामूर अहमद एल.एल.जे.एम. चर्च के पादरी सत्येन्द्र श्रीवास्तव गाँधीवादी चिन्तक जगदम्बा भाई पनकी हनुमान मन्दिर के महन्त जितेन्द्र दास ने एक स्वर में सभी से कानपुर की सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को बचाये रखने के लिए संवेदनशील मसलों पर जज्बाती न होने की अपील की है। सभी ने कहा कि हमे समझना होगा कि चुनाव के वक्त ही ऐसे फसाद क्यों होते है ? कुछ लोग राजनैतिक कारणों से शहर की गंगा जमुनी तहजीब को नष्ट करने की साजिश रच रहे है। कानपुर की संस्कृति और सांस्कृति विरासत काफी मजबूत है ओर उसे तोडने के प्रयास कभी सफल नही होंगे।
8 अप्रैल 2014 राम नवमी के दिन चुनावी सरगर्मी के बीच शोभायात्रा के रास्ते को लेकर शुरू हुआ विवाद दो सम्प्रदाओं का विवाद बन गया। पत्थर बाजी हुई जिसमें पुलिस कर्मियों सहित कई लोग घायल हुये। पुलिस ने भीड़ को खदेड़ने के लिए जमकर लाठी चटकाई। बदले में गुस्साई भीड़ ने अपर नगर मजिस्टेªट की जीप में आग लगा दी। इस घटना के बाद सभी ने अपने अपने तरीके से एक दूसरे पर दोषारोपण किया है, परन्तु किसी ने भी घटना के मूल कारण और उसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति को चिन्हित करने की कोशिश नही की है और यही दंगों के प्रति समाज की त्रासदी है।
रावतपुर गाँव में सदियों से राम नवमी के अवसर पर शोभा यात्रा निकलती रही है। स्थानीय लोग धार्मिक कारणों से इसमें बढ चढ कर हिस्सा लेते है। जिस रास्ते से शोभा यात्रा गुजरती है वह रास्ता काफी दिनों से खराब था उसमें बडे बडे गुड्ढे थे जिसके कारण उस रास्ते से शोभा यात्रा को निकालने में कठिनाई महसूस की गई। यहाँ दो ही रास्ते है, एक खराब था तो दूसरे रास्ते से निकलना स्वाभाविक है, परन्तु शोभा यात्रा का तय मार्ग से हटकर निकलना कुछ लोगों को कभी पसन्द नही रहा। शाशन प्रशासन को इसकी बखूबी जानकारी थी, स्थानीय विधायक ने नगर आयुक्त से शोभा यात्रा के लिए तय मार्ग को ठीक कराने का अनुरोध भी किया था परन्तु सड़क ठीक नही कराई गई और न शाशन की तरफ से दोनों पक्षों को समझा बुझाकर नये रास्ते से शोभा यात्रा को ले जाने के लिए सदभाव बनाने का कोई प्रयास किया गया। अभी कुछ ही दिन पूर्व मुजफ्फर नगर के साम्प्रदायिक दंगे को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की विफलता बताया है। इसके बावजूद स्थानीय प्रशासन की आँख मूदो नीति से आशंका होती है कि राजनैतिक नेतृत्व के इशारे पर धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए शहर के अमन चैन को छीनने की कोई साजिश तो नही की गई है ?
साम्प्रदायिक दंगे अपने देश में राजनैतिक लाभ की गारन्टी बन गये है। राजनेता गरीबी, अशिक्षा, भूख, बीमारी, बेरोजगारी जैसी समस्याओं के समाधान की बाते बहुत ज्यादा करते है परन्तु जमीनी स्तर पर इनकी समाप्ति के लिए कोई सार्थक प्रयास नही करते इसलिए चुनाव के समय जाति सम्प्रदाय मन्दिर मस्जिद जैसे जज्बाती मुद्दो पर गोलबन्दी करके चुनावी परचम फैलाते है। पिछले दिनों मुजफ्फर नगर की घटनाओं ने स्थानीय स्तर पर सदियों पुराने सामाजिक सौहार्द के ताने बाने को बिगाड दिया है। सैकडों लोग बर्बाद हो गये अपने घर द्वार से बिछुड गये परन्तु इसमें राजनेताओं की सेहत पर कोई असर नही पडा बल्कि इन घटनाओं के कारण हुये धार्मिक धु्रवीकरण ने वोटो के रूप में उनकी राजनैतिक फसल को लहलहा दिया है।
देश की ग्रामीण संरचना में सदियों से हिन्दू मुसलमानों का साथ साथ रहना सामान्य बात है। सभी एक दूसरे के सुख दुख में शामिल होते है और धार्मिक तीज त्योहार साथ साथ मनाते थे। भारतीय विद्यालय इण्टर कालेज कानपुर में एक मुस्लिम लाइब्रेरियन हुआ करते थे। उन्होंने कई विद्यार्थियों को गाँधी की ‘‘गीतामाता’’ और तिलक की गीता पढने के लिए अभिप्रेरित किया था। मैंने उन्हीं से जाना था कि गीता के दूसरे अध्याय के अन्तिम चैदह श्लोकों में सम्पूर्ण गीता का सार निहित है। 1980 के दशक तक देश के प्रत्येक कोने में इस प्रकार के प्रयास दिखाई देते थे परन्तु धीरे धीरे ज्यादा आधुनिक होते हुये हम परम्परागत सहिष्णुता से दूर होते जा रहे है। गर्व से कहो हम हिन्दू है जैसी बातों का कोई धार्मिक या सामाजिक महत्व नही है परन्तु इस प्रकार की बातों का अभियान जारी है और इसी प्रकार की महत्वहीन बातों ने हमारी सामाजिक सहिष्णुता को कमजोर किया है। ‘‘न तो कोई हिन्दू है, और न ही मुसलमान, है तो केवल और केवल मानव’ गहन साधना के बाद बाहर आकर गुरू नानक देव महाराज ने सबसे पहले यही शब्द कहे थे। उन्होंने कुराने पाक के पवित्र शब्द ‘रब उल आलमीन’ का अर्थ बताया और कहा कि कहीं भी उसे ‘रब उल मुसलमीन’ नही कहा गया। वह न मुसलमानों का है और न हिन्दुओं का अपितु सारे आलम का है। सारे आलम के मायने है सभी का नाकि मात्र मनुष्य का, पशु, पक्षी, कीडे, मकोडे, पेड़, पौधे सभी का जैसे सूरज सबके लिए है धरती सबके लिए है उसी तरह वह सबके लिए है और एक है। गुरूनानक से निकली यह धारा कबीर रहीम रसखान के आँगन से होते हुये ‘‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान्’’ के शब्दो में गाँधी तक आई है लेकिन अब उसे सुखाने की तैयारी की जा रही है।
नानक, कबीर, रहीम, रसखान, गाँधी, लोहिया की परम्परा ‘‘कुछ है जो हस्ती मिटती नही हमारी’’ का आधार है। आजादी के बाद धर्म और जाति के नाम पर शक्तिशाली हुये कुछ लोग और संघटन भारत की इस परम्परा को नष्ट करके साम्प्रदायिक संकीर्णता पैदा करने पर आमादा है। ऐसे लोग स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश साम्राज्य और यूरोपीय संस्कृति से कोई दो सदी मुडभेड के बार उपजी भारतीय चेतना और स्वतन्त्रता के मूलाधार को भी नेस्तनाबुद कर देना चाहते है। ऐसे लोगों और उनके परिवारों का आजादी की लडाई मे कोई योगदान नही है। उनके पुरखे उन्नीसवी सदी के आखिरी दशको में भी थे और बीसवी सदी के पहले पाँच दशको में भी थे, जब भारत ने विदेशी शासको को खदेडकर अपनी आजादी हासिल की। बंदे मातरम और भारत माता की जय का उद्घोष करके जो लोग अंग्रेजो की जेलों में गये उनकी लाठियों से पिटे, उनकी गोलियों से शहीद हुये, हँसते हँसते फाँसी के फन्दे पर झूल गये, उनके बेटे बेटियों के लिए भारत धार्मिक राष्ट्र नही बल्कि लोकतान्त्रिक धर्म निरपेक्ष समाजवादी गणराज्य है जो अपने नागरिको के बीच धर्म जाति लिंग रंग का भेद नही करता और सभी लागों को सामाजिक आर्थिक सामाजिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति आस्था धर्म उपासना की स्वतन्त्रता अवसरों की समानता और व्यक्ति के नाते उसकी गरिमा की गारन्टी देता है। इसलिए कल की बाते छोड़कर हम सबको धर्म जाति सम्प्रदाय की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर अपने संविधान में विश्वास करना चाहिये। समझना चाहिये कि साम्प्रदायिक दंगे हमे कुछ नही देते और अब ‘‘मत पूछो किसी बच्चे से मजहब का नाम, उसे मजहब नही दूध रोटी की जरूरत है, भूखे बच्चे की मौत पर किसी धर्मग्रन्थ के आँसू नही आते, सिर्फ और सिर्फ माँ रोती है।

Sunday, 6 April 2014

संविदागत रोजगार समाजवादी गणराज्य की अवधारणा के प्रतिकूल....

आजादी के पहले वर्ष 1860 में व्हिटले कमीशन से लेकर वर्ष 1946 में गठित रेगा कमेटी तक सभी ने उद्योगों में ठेका प्रथा को एबालिश करने की सलाह दी है परन्तु अब वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने ग्रिडको लिमिटेड एण्ड एनादर बनाम सदानन्दा डोलोई एण्ड अदर्स (2014-1-सुप्रीम कोर्ट केसेज एल.एण्ड एस.- पेज 400) के द्वारा वर्ष 1960 में स्टैण्डर्ड वैक्यूम रिफायनरी कमेटी के मामले में पारित अपने निर्णय के प्रतिकूल विशेषज्ञता के नाम पर संविदागत रोजगार को स्वीकृति प्रदान की है। स्वतन्त्र भारत में द्वितीय पंचवर्षीय योजना के दौरान प्लानिग कमीशन ने भी संविदागत रोजगार को कुप्रथा मानकार उसको समाप्त करने की अनुशंशा की थी और उसकी अनुशंशा के तहत वर्ष 1970 में केन्द्र सरकार ने कान्टेªक्ट लेबर (रेगुलेशन एण्ड एबालिशन) एक्ट पारित किया है जो सम्पूर्ण देश में 10 फरवरी 1971 से लागू हो गया है।
आजादी के बाद अपने देश ने प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व विकाश किया है। श्रमिको किसानों और निर्बल वर्ग के आर्थिक सामाजिक विकाश के लिए कल्याणकारी योजनाये लागू की गई परन्तु संविदागत रोजगार के मामले में देश ने यूटर्न ले लिया और अब पीछे की ओर जाने की तैयारी है। निजी क्षेत्र की तुलना में सार्वजनिक क्षेत्र में संविदागत रोजगार तेजी से बढ़ा है। सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में 32 प्रतिशत संविदा श्रमिक कार्यरत है। कान्टेªक्ट लेबर (रेगुलेशन एण्ड एबालिशन) एक्ट पारित किये जाते समय मेहनतकश लोगों को विश्वास दिलाया गया था कि स्थायी प्रकृति का कोई भी कार्य संविदा पर नही कराया जायेगा परन्तु आज स्थितियाँ एकदम बदल गई है और उद्योगों को बढ़ावा देने के नाम पर स्थायी एवं अस्थायी प्रकृति के कामों के अन्तर को मिटाकर सभी प्रकार के कामों को संविदा पर कराने की खुली छूट दे दी गई है। आजादी के पहले और आजादी के शुरूआती वर्षो में संविदा पर काम की प्रथा को अपमानजनक, अमानवीय और शोषणकारी व्यवस्था के रूप में देखा जाता था परन्तु अब उसे सम्मानजनक व्यवस्था के रूप में स्वीकृति प्रदान करने का अभियान जारी है जो संविदान की मूलभूत अवधारणा  और राज्य के नीति निदेशक तत्वों के प्रतिकूल है। 
सेन्ट्रल इनलैण्ड वाटर ट्रान्सपोर्ट कारपोरेशन लिमिटेड बनाम ब्रोजो नाथ गाँगुली (1986-3-सुप्रीम कोर्ट केसेज - पेज 156) में सर्वोच्च न्यायालय ने एक समान बारगेनिग पावर न होने की स्थिति में निष्पादित अनुबन्धों की अनुचित एवं अतार्किक शर्तो को प्रबल पक्ष के अनुरोध पर इन्फोर्स कराने से इन्कार कर दिया था परन्तु पिछले कुछ दशको में विधि में आये विकाश के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने संविदा की शर्तो के तहत संविदागत रोजगार को समाप्त करने की अनुमति प्रदान कर दी है और प्रतिपादित किया है कि ऐसे मामलो में व्यथित पक्षकार को केवल क्षतिपूर्ति पाने का अधिकार प्राप्त है। संविदा की शर्तो पर न्यायिक हस्तक्षेप न्यायसंगत नही है।
पिछले कुछ दशको में कहा जाने लगा है कि किसी पक्षकार को अनुबन्ध निष्पादित करने के लिए बाध्य नही किया जाता। विधि के तहत उसे अनुबन्ध स्वीकार करने या न करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उभय पक्षों को एक दूसरे के विरूद्ध संविदा की शर्तो के तहत उपचार प्राप्त होते है और वे उसे विधि के तहत इनफोर्स करा सकते है। संविदा के तहत उत्पन्न विवादों को संविदा की शर्तो के अनुसार सुलझाया जायेगा। किसी अन्य विधि का लाभ पक्षकारों को नही दिया जाना चाहिये। इस प्रकार के तर्क व्यवसायिक विवादों में न्यायसंगत हो सकते है, परन्तु रोजगार के मामलों में इस प्रकार के तर्क शुरूआत से ही भारत की सुस्थापित लोकनीति के प्रतिकूल है। सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने डी0टी0सी0 बनाम मजदूर काँग्रेस (1991-सुप्रीम कोर्ट केसेज-एल.एण्ड एस.- पेज 1213) में प्रतिपादित किया था कि हायर एण्ड फायर नीति के तहत संविदागत मामलों मे श्रमिको को रोजगार से वंचित करना सेवा शर्तो के प्रतिकूल है।
यूनियन आफ इण्डिया बनाम अरूण कुमार राय (1986-1-एस0सी0सी0-पेज 675) में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया है। कि मूलतः संविदा पर नियुक्त कर्मचारी लगातार एक ही पद पर कार्य करते रहने के कारण शासकीय कर्मचारी का स्टेटस एक्वायर कर लेते है और उसके बाद वे संविदा की शर्तो के तहत नही बल्कि सम्बन्धितत विभाग की सेवाशर्तो के तहत शासित होते है। इसके पूर्व रोशन लाल टण्डन बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया (ए0आई0आर0-1967-एस.सी.पेज 1889) में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया था कि संविदा पर नियुक्त कर्मचारी और बतौर सेवायोजक सरकार के मध्य विधिक सम्बन्ध स्थापित हो जाते है और उनके वेतन भत्ते और अन्य प्रकार की सुविधायें विधि द्वारा नियन्त्रित होती है। सरकार और उसके कर्मचारियों के मध्य लीगल रिलेशनशिप एक ठेकेदार और उसके श्रमिक के सम्बन्धों की तरह नही होती बल्कि सरकार के साथ उसके कर्मचारी की रिलेशनशिप एकदम अलग होती है। उनकी जिम्मेदारियाँ और शक्तियाँ विधि द्वारा शासित एवं नियन्त्रित होती है। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद बैंक बनाम प्रेम सिंह (1996-10-एस.सी.सी. पेज 597) के द्वारा संविदा अवधि समाप्त हो जाने के बाद संविदा कर्मचारी को नियमित नियुक्ति पाने का अधिकारी घोषित किया था।
आर्थिक उदारीकरण के पूर्व अपने देश में संविदा कर्मचारियों को किसी भी रिक्त पद पर लगातार कार्यरत होने की स्थिति में नियमित नियुक्ति का अधिकार प्राप्त था परन्तु आर्थिक उदारीकरण के बाद पूँजी निवेश को आकर्षित करने और उद्योग धन्धों को संरक्षण देने के नाम पर रोजगार के मामलों में सुस्थापित विधि को बदल दिया गया है और अब बड़े पैमाने पर सभी प्रकार के कार्य संविदा श्रमिको से कराया जाने लगा है। वर्तमान प्रचलित व्यवस्था के तहत संविदा श्रमिको को जीवन निर्वाह लायक वेतन भत्ते आदि सुविधाओं और सामाजिक सुरक्षा से वंचित रखा जाता है और उनके ऊपर किसी युक्तियुक्त कारण के बिना किसी भी क्षण हटा दिये जाने का खतरा सदैव मँडराता रहता है। श्रम एवं रोजगार मन्त्रालय ने संविदा श्रमिकों की इन समस्याओं पर गम्भीरता से विचार किया है और वर्ष 2011 में संविदा कर्मचारियों को नियमित कर्मचारियों की तरह वेतन और अन्य सुविधायें दिये जाने की अनुशंशा की थी। दिनांक 22 जनवरी 2011 को आयोजित राज्यों के श्रम मन्त्रियों ने अपने सम्मेलन में भी एकराय होकर कान्टेªक्ट लेबर (रेगुलेशन एण्ड एबालिशन) एक्ट 1970 में संशोधन करके संविदा श्रमिकों को उसी प्रकृति का कार्य करने वाले अन्य कर्मचारियों की तरह वेतन अवकाश आदि सभी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा दिये जाने की अनुशंशा की थी। इन अनुशंशाओं के द्वारा माना गया था कि संविदा श्रमिको और नियमित कर्मचारियों के मध्य केवल कार्यकाल का अन्तर होगा अन्य सभी मामलों में संविदा श्रमिकों को नियमित कर्मचारियों की तरह सभी प्रकार की सुविधायें और वेतन आदि दिये जायेंगे, परन्तु केन्द्र सरकार के कैबिनेट सेक्रेटिएट ने इस आशय के सभी प्रस्तावों के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी है।
अपने देश में सुस्थापित लोकनीति के तहत सरकार और उसके अधीनस्थ सार्वजनिक प्रतिष्ठान ‘‘माडल इम्प्लायर’’ माने जाते है और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने कर्मचारियों को सम्मानजनक जीवन जीने लायक वेतन, अवकाश और सभी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराके निजीक्षेत्र के सेवायोजकों के समक्ष एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करेंगे और विवाद रहित औद्योगीकरण के लिए समाज के सभी वर्गो की सुख समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करेंगे परन्तु अपने देश में केन्द्र और विभिन्न दलों की राज्य सरकारे अपने कर्मचारियों के प्रति एलिएन जैसा व्यवहार करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट आफ झारखण्ड एण्ड एनादर बनाम हरिहर यादव एण्ड अदर्स (2014-2-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज-114) में नाराजगी व्यक्त करते हुये कहा है कि राज्य सरकार या कारपोरेशन अपने कर्मचारियों के प्रति संवेदनहीन व्यवहार कर रही है और उन्हें अपने कर्मचारियों के भरण पोषण की कोई चिन्ता नही है। उन्हें इस प्रकार कार्य करने का कोई अधिकार नही है। उनके इस आचरण से संविधान की आत्मा को चोट पहुँचती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इसके पूर्व भूपेन्द्र नाथ हजारिका बनाम स्टेट आफ आसाम (2013-2-एस0सी0सी0-पेज 516) में चेतावनी के स्वर में सरकारों को बताया था कि कर्मचारियों की आशाओं पर तुषारापात की स्थितियाँ उत्पन्न नही की जानी चाहिये। अपने कर्मचारियों के मध्य विश्वास का वातावरण सदैव बनाये रखना चाहिये। सुशासन उसी स्थिति में माना जाता है जब कर्मचारियों में अपने साथ धोखा न होने और गरिमा पूर्ण सम्मानजनक निष्पक्ष व्यवहार का विश्वास बना रहे। अपने कर्मचारियों में अपनी सदभावना का विश्वास बनाये बिना कोई सरकार सुशासन का दावा नही कर सकती।
सर्वोच्च न्यायालय ने हरिजिन्दर सिंह बनाम पंजाब स्टेट बेयर हाउसिंग कारपोरेशन (2010-3-एस.सी.सी.-पेज 192) में स्पष्ट रूप से कहा है कि यदि कोई व्यक्ति अपने भरण पोषण से वंचित होता है तो वह सभी प्रकार के संवैधानिक अधिकारों से वंचित हो जाता है और संविधान प्रदत्त आर्थिक सामाजिक विकाश के एक समान अवसर का अधिकार उसके लिए व्यर्थ हो जाता है। संविधान के तहत अपने नागरिकों के लिए सामाजिक एवं आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित कराना राज्य का दायित्व है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित उक्त सिद्धान्तों से स्पष्ट हो जाता है कि संविदागत रोजगार का कान्सेप्ट समाजवादी लोक तन्त्रात्मक गणराज्य के प्रतिकूल है और स्वतन्त्र भारत में इसकी सामाजिक स्वीकृति के सभी प्रयास शुरूआत से ही अपमानजनक, अमानवीय और शोषणकारी है।