आजादी के पहले वर्ष 1860 में व्हिटले कमीशन से लेकर वर्ष 1946 में गठित रेगा कमेटी तक सभी ने उद्योगों में ठेका प्रथा को एबालिश करने की सलाह दी है परन्तु अब वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने ग्रिडको लिमिटेड एण्ड एनादर बनाम सदानन्दा डोलोई एण्ड अदर्स (2014-1-सुप्रीम कोर्ट केसेज एल.एण्ड एस.- पेज 400) के द्वारा वर्ष 1960 में स्टैण्डर्ड वैक्यूम रिफायनरी कमेटी के मामले में पारित अपने निर्णय के प्रतिकूल विशेषज्ञता के नाम पर संविदागत रोजगार को स्वीकृति प्रदान की है। स्वतन्त्र भारत में द्वितीय पंचवर्षीय योजना के दौरान प्लानिग कमीशन ने भी संविदागत रोजगार को कुप्रथा मानकार उसको समाप्त करने की अनुशंशा की थी और उसकी अनुशंशा के तहत वर्ष 1970 में केन्द्र सरकार ने कान्टेªक्ट लेबर (रेगुलेशन एण्ड एबालिशन) एक्ट पारित किया है जो सम्पूर्ण देश में 10 फरवरी 1971 से लागू हो गया है।
आजादी के बाद अपने देश ने प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व विकाश किया है। श्रमिको किसानों और निर्बल वर्ग के आर्थिक सामाजिक विकाश के लिए कल्याणकारी योजनाये लागू की गई परन्तु संविदागत रोजगार के मामले में देश ने यूटर्न ले लिया और अब पीछे की ओर जाने की तैयारी है। निजी क्षेत्र की तुलना में सार्वजनिक क्षेत्र में संविदागत रोजगार तेजी से बढ़ा है। सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में 32 प्रतिशत संविदा श्रमिक कार्यरत है। कान्टेªक्ट लेबर (रेगुलेशन एण्ड एबालिशन) एक्ट पारित किये जाते समय मेहनतकश लोगों को विश्वास दिलाया गया था कि स्थायी प्रकृति का कोई भी कार्य संविदा पर नही कराया जायेगा परन्तु आज स्थितियाँ एकदम बदल गई है और उद्योगों को बढ़ावा देने के नाम पर स्थायी एवं अस्थायी प्रकृति के कामों के अन्तर को मिटाकर सभी प्रकार के कामों को संविदा पर कराने की खुली छूट दे दी गई है। आजादी के पहले और आजादी के शुरूआती वर्षो में संविदा पर काम की प्रथा को अपमानजनक, अमानवीय और शोषणकारी व्यवस्था के रूप में देखा जाता था परन्तु अब उसे सम्मानजनक व्यवस्था के रूप में स्वीकृति प्रदान करने का अभियान जारी है जो संविदान की मूलभूत अवधारणा और राज्य के नीति निदेशक तत्वों के प्रतिकूल है।
सेन्ट्रल इनलैण्ड वाटर ट्रान्सपोर्ट कारपोरेशन लिमिटेड बनाम ब्रोजो नाथ गाँगुली (1986-3-सुप्रीम कोर्ट केसेज - पेज 156) में सर्वोच्च न्यायालय ने एक समान बारगेनिग पावर न होने की स्थिति में निष्पादित अनुबन्धों की अनुचित एवं अतार्किक शर्तो को प्रबल पक्ष के अनुरोध पर इन्फोर्स कराने से इन्कार कर दिया था परन्तु पिछले कुछ दशको में विधि में आये विकाश के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने संविदा की शर्तो के तहत संविदागत रोजगार को समाप्त करने की अनुमति प्रदान कर दी है और प्रतिपादित किया है कि ऐसे मामलो में व्यथित पक्षकार को केवल क्षतिपूर्ति पाने का अधिकार प्राप्त है। संविदा की शर्तो पर न्यायिक हस्तक्षेप न्यायसंगत नही है।
पिछले कुछ दशको में कहा जाने लगा है कि किसी पक्षकार को अनुबन्ध निष्पादित करने के लिए बाध्य नही किया जाता। विधि के तहत उसे अनुबन्ध स्वीकार करने या न करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उभय पक्षों को एक दूसरे के विरूद्ध संविदा की शर्तो के तहत उपचार प्राप्त होते है और वे उसे विधि के तहत इनफोर्स करा सकते है। संविदा के तहत उत्पन्न विवादों को संविदा की शर्तो के अनुसार सुलझाया जायेगा। किसी अन्य विधि का लाभ पक्षकारों को नही दिया जाना चाहिये। इस प्रकार के तर्क व्यवसायिक विवादों में न्यायसंगत हो सकते है, परन्तु रोजगार के मामलों में इस प्रकार के तर्क शुरूआत से ही भारत की सुस्थापित लोकनीति के प्रतिकूल है। सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने डी0टी0सी0 बनाम मजदूर काँग्रेस (1991-सुप्रीम कोर्ट केसेज-एल.एण्ड एस.- पेज 1213) में प्रतिपादित किया था कि हायर एण्ड फायर नीति के तहत संविदागत मामलों मे श्रमिको को रोजगार से वंचित करना सेवा शर्तो के प्रतिकूल है।
यूनियन आफ इण्डिया बनाम अरूण कुमार राय (1986-1-एस0सी0सी0-पेज 675) में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया है। कि मूलतः संविदा पर नियुक्त कर्मचारी लगातार एक ही पद पर कार्य करते रहने के कारण शासकीय कर्मचारी का स्टेटस एक्वायर कर लेते है और उसके बाद वे संविदा की शर्तो के तहत नही बल्कि सम्बन्धितत विभाग की सेवाशर्तो के तहत शासित होते है। इसके पूर्व रोशन लाल टण्डन बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया (ए0आई0आर0-1967-एस.सी.पेज 1889) में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया था कि संविदा पर नियुक्त कर्मचारी और बतौर सेवायोजक सरकार के मध्य विधिक सम्बन्ध स्थापित हो जाते है और उनके वेतन भत्ते और अन्य प्रकार की सुविधायें विधि द्वारा नियन्त्रित होती है। सरकार और उसके कर्मचारियों के मध्य लीगल रिलेशनशिप एक ठेकेदार और उसके श्रमिक के सम्बन्धों की तरह नही होती बल्कि सरकार के साथ उसके कर्मचारी की रिलेशनशिप एकदम अलग होती है। उनकी जिम्मेदारियाँ और शक्तियाँ विधि द्वारा शासित एवं नियन्त्रित होती है। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद बैंक बनाम प्रेम सिंह (1996-10-एस.सी.सी. पेज 597) के द्वारा संविदा अवधि समाप्त हो जाने के बाद संविदा कर्मचारी को नियमित नियुक्ति पाने का अधिकारी घोषित किया था।
आर्थिक उदारीकरण के पूर्व अपने देश में संविदा कर्मचारियों को किसी भी रिक्त पद पर लगातार कार्यरत होने की स्थिति में नियमित नियुक्ति का अधिकार प्राप्त था परन्तु आर्थिक उदारीकरण के बाद पूँजी निवेश को आकर्षित करने और उद्योग धन्धों को संरक्षण देने के नाम पर रोजगार के मामलों में सुस्थापित विधि को बदल दिया गया है और अब बड़े पैमाने पर सभी प्रकार के कार्य संविदा श्रमिको से कराया जाने लगा है। वर्तमान प्रचलित व्यवस्था के तहत संविदा श्रमिको को जीवन निर्वाह लायक वेतन भत्ते आदि सुविधाओं और सामाजिक सुरक्षा से वंचित रखा जाता है और उनके ऊपर किसी युक्तियुक्त कारण के बिना किसी भी क्षण हटा दिये जाने का खतरा सदैव मँडराता रहता है। श्रम एवं रोजगार मन्त्रालय ने संविदा श्रमिकों की इन समस्याओं पर गम्भीरता से विचार किया है और वर्ष 2011 में संविदा कर्मचारियों को नियमित कर्मचारियों की तरह वेतन और अन्य सुविधायें दिये जाने की अनुशंशा की थी। दिनांक 22 जनवरी 2011 को आयोजित राज्यों के श्रम मन्त्रियों ने अपने सम्मेलन में भी एकराय होकर कान्टेªक्ट लेबर (रेगुलेशन एण्ड एबालिशन) एक्ट 1970 में संशोधन करके संविदा श्रमिकों को उसी प्रकृति का कार्य करने वाले अन्य कर्मचारियों की तरह वेतन अवकाश आदि सभी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा दिये जाने की अनुशंशा की थी। इन अनुशंशाओं के द्वारा माना गया था कि संविदा श्रमिको और नियमित कर्मचारियों के मध्य केवल कार्यकाल का अन्तर होगा अन्य सभी मामलों में संविदा श्रमिकों को नियमित कर्मचारियों की तरह सभी प्रकार की सुविधायें और वेतन आदि दिये जायेंगे, परन्तु केन्द्र सरकार के कैबिनेट सेक्रेटिएट ने इस आशय के सभी प्रस्तावों के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी है।
अपने देश में सुस्थापित लोकनीति के तहत सरकार और उसके अधीनस्थ सार्वजनिक प्रतिष्ठान ‘‘माडल इम्प्लायर’’ माने जाते है और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने कर्मचारियों को सम्मानजनक जीवन जीने लायक वेतन, अवकाश और सभी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराके निजीक्षेत्र के सेवायोजकों के समक्ष एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करेंगे और विवाद रहित औद्योगीकरण के लिए समाज के सभी वर्गो की सुख समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करेंगे परन्तु अपने देश में केन्द्र और विभिन्न दलों की राज्य सरकारे अपने कर्मचारियों के प्रति एलिएन जैसा व्यवहार करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट आफ झारखण्ड एण्ड एनादर बनाम हरिहर यादव एण्ड अदर्स (2014-2-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज-114) में नाराजगी व्यक्त करते हुये कहा है कि राज्य सरकार या कारपोरेशन अपने कर्मचारियों के प्रति संवेदनहीन व्यवहार कर रही है और उन्हें अपने कर्मचारियों के भरण पोषण की कोई चिन्ता नही है। उन्हें इस प्रकार कार्य करने का कोई अधिकार नही है। उनके इस आचरण से संविधान की आत्मा को चोट पहुँचती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इसके पूर्व भूपेन्द्र नाथ हजारिका बनाम स्टेट आफ आसाम (2013-2-एस0सी0सी0-पेज 516) में चेतावनी के स्वर में सरकारों को बताया था कि कर्मचारियों की आशाओं पर तुषारापात की स्थितियाँ उत्पन्न नही की जानी चाहिये। अपने कर्मचारियों के मध्य विश्वास का वातावरण सदैव बनाये रखना चाहिये। सुशासन उसी स्थिति में माना जाता है जब कर्मचारियों में अपने साथ धोखा न होने और गरिमा पूर्ण सम्मानजनक निष्पक्ष व्यवहार का विश्वास बना रहे। अपने कर्मचारियों में अपनी सदभावना का विश्वास बनाये बिना कोई सरकार सुशासन का दावा नही कर सकती।
सर्वोच्च न्यायालय ने हरिजिन्दर सिंह बनाम पंजाब स्टेट बेयर हाउसिंग कारपोरेशन (2010-3-एस.सी.सी.-पेज 192) में स्पष्ट रूप से कहा है कि यदि कोई व्यक्ति अपने भरण पोषण से वंचित होता है तो वह सभी प्रकार के संवैधानिक अधिकारों से वंचित हो जाता है और संविधान प्रदत्त आर्थिक सामाजिक विकाश के एक समान अवसर का अधिकार उसके लिए व्यर्थ हो जाता है। संविधान के तहत अपने नागरिकों के लिए सामाजिक एवं आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित कराना राज्य का दायित्व है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित उक्त सिद्धान्तों से स्पष्ट हो जाता है कि संविदागत रोजगार का कान्सेप्ट समाजवादी लोक तन्त्रात्मक गणराज्य के प्रतिकूल है और स्वतन्त्र भारत में इसकी सामाजिक स्वीकृति के सभी प्रयास शुरूआत से ही अपमानजनक, अमानवीय और शोषणकारी है।
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