Sunday, 30 March 2014

राजनेता कारपोरेट गठजोड श्रमिक हितों के प्रतिकूल ............

पिछले चार दशकों में कारपोरेट घरानों के साथ राजनेताओं की निकटता ने श्रमिक हितों के साथ समझौते को बढ़ावा देकर श्रमिकों को शोषण एवं अन्याय झेलने के लिए विवश किया है। उद्योगों को संरक्षण और पूँजी निवेश के नाम पर पूँजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने और श्रमिको के अधिकारों मे कटौती की निर्लज्ज छूट दी गई है। आज सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में भी नौकरी की गारण्टी नही रह गई है। किसी रिक्त पर पर एक वर्ष में लगातर दो सौ चालिस दिन कार्य कर लेने पर स्थायी करने की सर्वस्वीकृत विधि निष्प्रभावी मान ली गई है। केन्द्र सरकार सहित सभी राज्य सरकारें अब स्थायी प्रकृति के रिक्त पदों पर भी संविदा और तदर्थ आधार पर नियुक्तियों को वरीयता देती है और पन्द्रह बीस वर्ष तक लगातार एक ही पद पर एक ही प्रकृति का कार्य करने वाले कर्मचारियों को न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना स्थायी नही करती और उन्हें उनके कार्य की प्रकृति के अनुसार विधिवत् देय वेतन से भी वंचित रखती है जबकि संविधान के तहत राज्य का दायित्व है कि वह उपयुक्त विधि या किसी अन्य रीति से कृषि उद्योग या अन्य प्रकार के सभी श्रमिकों को काम निर्वाह मजदूरी शिष्ट जीवन स्तर और अवकाश का सम्पूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाएं तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवसर उपलब्ध कराये। राज्य का यह भी दायित्व है कि वे विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुये लोगों केे समूहों के मध्य प्रतिष्ठा सुविधाओं अवसरों एवं आय की असमानता समाप्त करने का प्रयास करें।
केन्द्र सरकार ने अपने इस दायित्व की पूर्ति के लिए भविष्य निधि और ई.एस.आई. जैसी सामाजिक सुरक्षा की योजना लागू की और रोजगार की गारण्टी सुनिश्चित कराने के लिए एक छोटे कदम के रूप में कान्टेªक्ट लेबर (रेगुलेशन एण्ड एबांलीशन) एक्ट 1970 पारित करके स्थायी प्रकृति के कार्यो को संविदा पर कराना प्रतिबन्धित कर दिया। इस अधिनियम में स्पष्ट रूप से कहा गया है केवल अस्थायी प्रकृति के कार्य संविदा पर कराये जायेंगे, परन्तु एक वर्ष में लगातार एक सौ बीस दिन से ज्यादा अवधि तक चलने वाले कार्य को अस्थायी प्रकृति का नही माना जायेगा। केन्द्र और सभी राज्य सरकारों ने इस अधिनियम को भुला दिया है और अब धडल्ले से स्थायी प्रकृति के कामों को संविदा श्रमिको से कराया जाना एक समान्य सी बात हो गई है और किसी को इसमें कोई दोष नही दिखता।
सर्वोच्च न्यायालय ने सेक्रेटरी स्टेट आफ कर्नाटक बनाम उमा देवी (2006-4-एस.सी.सी.-पेज- 1) के द्वारा प्रतिपादित किया है कि यदि एडहाक कैजुअल या संविदा पर नियुक्त कर्मचारी पद के अनुकूल शिक्षित है और स्वीकृत पद पर लगातार कई वर्षो से कार्यरत है तो उसे उसी पद पर नियमित किया जाना चाहिये। इस निर्णय को आधार बनाकर विभिन्न उच्च न्यायालयों ने रिक्त स्वीकृत पदों पर वर्षो से लगातार कार्यरत एडहाक कैजुअल या संविदा कर्मचारियों को उन्हीं पदों पर स्थायी करने के आदेश पारित किये है। इस सिद्धान्त एवं निर्णय की प्रकृति आदेशात्मक है परन्तु निजी क्षेत्र के साथ साथ केन्द्र सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों ने इसका अनुपालन सुनिश्चित नही कराया बल्कि अधिकांश मामलों में खुद अपने द्वारा अपनाई गई नियुक्ति प्रक्रिया को दोषपूर्ण बताकर कर्मचारियों को उमा देवी के मामले में पारित निर्णय का लाभ देने से इन्कार कर दिया है।
उल्लिखित निर्णय पारित होने के बाद मिनेरल एक्सप्लोरेशन कारपोरेशन इम्प्लाइज यूनियन बनाम मिनेरल एक्सप्लोरेशन कारपोरेशन लिमिटेड एण्ड अदर्स (2006-6-एस.सी.सी.-पेज- 31) एवं स्टेट आफ मध्य प्रदेश अदर्स बनाम ललित कुमार वर्मा (2007-1-एस.सी.सी. पेज 575) में सुनवाई के दौरान न्यायालय के समक्ष सरकार की और से दलील दी गई कि सम्बन्धित कर्मचारियों की नियुक्ति में रिक्रूटमेन्ट नियमों का पालन नही किया गया और नियमानुसार स्क्रीनिग कमेटी का गठन भी नही किया गया। नई नियुक्तियों पर प्रतिबन्ध होने के कारण कोई नियुक्ति नही की जा सकती थी। इस प्रकार की सरकारी दलीलों का केवल एक ही अर्थ है कि अब सरकार के स्तर पर भी खुद अपने द्वारा की गई अनियमितताओं का अनुचित लाभ उठाने और स्वीकृत रिक्त पदों पर वर्षों से कार्यरत कर्मचारियों को अनन्त काल तक संविदा श्रमिक बनाये रखकर उनको उनके विधिपूर्ण अधिकारों से वंचित रखने की प्रवृत्ति बढ़ी है। सभी जानते है कि सरकार और उसके अधीनस्थ विभागों में किसी भी स्तर के कर्मचारी की नियुक्ति सम्बन्धित सक्षम प्राधिकारी की सहमति जानकारी और अनुमति के बिना नही की जा सकती। सभी नियुक्ति पत्र सक्षम प्राधिकारी के हस्ताक्षर से जारी होते है। ऐसी दशा में इस प्रकार की नियुक्तियों को अवैधानिक बताना सम्बन्धित कर्मचारियों के साथ खुला अन्याय है और इसके लिए तकनीकी कारणों का सहारा लेकर कर्मचारियों को उनके विधिपूर्ण अधिकारों से वंचित नही किया जाना चाहियें बल्कि कर्मचारियों के शोषण एवं उत्पीड़न के आरोप में सम्बन्धित अधिकारियों के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित करायी जानी चाहिये। 
सर्वोच्च न्यायालय ने एम.पी. हाउसिंग बोर्ड एण्ड एनादर बनाम मनोज श्रीवास्तव (2006-2-सुप्रीम कोर्ट केसेज- पेज 702) में स्थायी और अस्थायी कर्मचारी को परिभाषित किया है। सम्बन्धित राज्य में लागू विधि के तहत एक या उससे अधिक रिक्त पद पर लगातार छः माह तक सन्तोषजनक कार्य करने वाले कर्मचारी को स्थायी माना जाता है। अस्थायी श्रमिक उसे माना जाता है जो अस्थायी प्रकृति के कार्य या स्थायी प्रकृति के कार्य के लिए अतिरिक्त श्रमिक के रूप में अल्प अवधि के लिए नियोजित किया जाता है परन्तु यदि ऐसा कर्मचारी लगातार छः माह तक सन्तोष जनक कार्य कर लेता है तो उसे भी स्थायी कर्मचारी माना जायेगा। इस बिन्दु पर सुस्पष्ट विधि होने के बावजूद नियुक्ति प्रक्रिया को दोषपूर्ण बताकर सेवायोजक कर्मचारी को स्थायी नही करते। नियुक्ति के समय कोई कर्मचारी नियुक्ति प्रक्रिया की वैधता पर सवाल नही उठा सकता और न उससे इस आशय की जानकारी करने की अपेक्षा करने का कोई विधिपूर्ण औचित्य है।
भारत सरकार के प्रतिष्ठान भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने अपनी अधिकृत वेब साइट मे सूचना प्रकाशित करके विधि अधिकारियों के पद पर नियुक्ति के लिए प्रार्थनापत्र आमन्त्रित किये है। इसके पूर्व राष्ट्रीय सूचना आयोग ने भी अपनी अधिकृत वेब साइट में अठारह पदों पर नियुक्ति के लिए सूचना प्रकाशित की थी और लिखित परीक्षा एवं साक्षात्कार के बाद सफल अभ्यर्थियों को एक वर्ष के लिए संविदा पर नियुक्ति भी दे दी है। नियुक्ति पत्र पर स्पष्ट रूप से लिखा है कि संविदा की अवधि सक्षम प्राधिकारी की अनुमति से बढ़ायी भी जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मोहम्मद आसिफ एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ बिहार एण्ड अदर्स (2010-5-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 475) में प्रतिपादित विधि के तहत राष्ट्रीय सूचना आयोग या भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग मे संविदा एडहाक या कैजुअल आधार पर नियुक्त किये गये अभ्यर्थी संविदा अवधि समाप्त हो जाने के बाद पद समाप्त न होने की दशा में स्थायी होने के विधिपूर्ण अधिकारी है। निर्णय में कहा गया है कि स्वीकृत पदों पर सक्षम प्राधिकारी द्वारा रिक्त पदो के लिए सार्वजनिक विज्ञापन जारी करके की गई संविदा आधारित नियुक्तियाँ अवैधानिक नही मानी जा सकती। यदि किसी अभ्यर्थी ने स्वीकृत पद पर लगातार 240 दिन या उससे ज्यादा अवधि तक कार्य किया है तो उसे उस पद पर स्थायी होने के अधिकार से वंचित नही किया जा सकता है और उसे कार्यकाल की सुरक्षा दी जानी चाहियें। सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में किसी भी पद पर संविदा एडहाक या कैजुअल कर्मचारी की नियुक्ति और बाद में उसके कार्यकाल को विस्तारित करने का आदेश सक्षम प्राधिकारी की सहमति जानकारी या अनुमति के बिना नही किया जाता और न किया जा सकता है ऐसी दशा में आदर्श नियोक्ता होने के नाते स्वयं सरकार को आगे बढ़कर सन्तोष प्रद कार्य करने वाले अभ्यर्थियों को कार्यकाल की सुरक्षा देने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये परन्तु सरकारों का आचरण ठीक इसके प्रतिकूल है। अपने देश में संविधान लागूू होने के बाद अर्जित अवकाश और कैजुअल अवकाश सभी कर्मचारियों को अधिकार स्वरूप दिया जाता है परन्तु अधिकृत सरकारी वेब साइटो पर सम्बन्धित विभागों की तरफ से एडहाक कैजुअल या संविदा पर नियुक्ति के लिए प्रकाशित विज्ञापनों मे स्पष्ट रूप से लिखा जाता है कि साप्ताहिक और सार्वजनिक अवकाशो के अतिरिक्त अन्य कोई अवकाश नही दिया जायेगा। इस प्रकार के फरमानों से श्रम कानूनों का सार्वजनिक उल्लंघन होता है ओर कर्मचारियों के सामाजिक हितों का हनन होता है। सरकार के इस आचरण से प्रेरणा लेकर निजी क्षेत्र ने अपने प्रतिष्ठानों में अघोषित नियमों के तहत कार्य दिवस आठ घण्टे से बढ़ाकर दस घण्टे कर लिया है और साप्ताहिक अवकाश के दिन भी कर्मचारियों को कार्य पर उपस्थित होने के लिए मजबूर किया जाता है।
पूँजीपतियों के साथ राजनेताओं की मिली भगत और श्रम विभाग के अधिकारियों की आपराधिक उदासीनता के कारण असंघटित क्षेत्र के श्रमिक सेवायोजको द्वारा किये जा रहे शोषण एवं उत्पीड़न को झेलने के लिए अभिशप्त है। किताबों में श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा और उनके आर्थिक विकाश के लिए कानून बना दिये गये है परन्तु जमीनी स्तर पर उनका लाभ आम श्रमिकों तक पहुँचाने की चिन्ता किसी को नही है। कान्टेªक्ट लेबर (रेगुलेशन एण्ड एबालिशन) एक्ट 1970 पारित करके केन्द्र सरकार ने भारत में ठेका श्रमिकों की कुप्रथा को समाप्त करने का विश्वास दिलाया था। इसके बाद इस कुप्रथा को समाप्त करने की दिशा में ईमानदार प्रयास भी किये गये है, परन्तु आर्थिक उदारीकरण के बाद अब नये सिरे से संविदा पर नियोजन का अभियान जारी है। सरकारी या निजी क्षेत्र का कोई प्रतिष्ठान इसे अछूता नही है। राजनेता, कारपोरेट या सरकार को इस कुप्रथा के पुनर्जीवित हो जाने से कोई समस्या हो या न हो परन्तु आम लोग इस कुप्रथा के कारण पूँजीपतियों का उत्पीड़न झेलने के लिए अभिशप्त है। इसलिए समय आ गया है कि इस कुप्रथा को समाप्त कराने के लिए हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है, का पुनः उद्घोष किया जाये।

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