आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 अधिनियममित होने के पूर्व आरबीटेªटर द्वारा पारित एवार्ड को इन्फोर्स कराने के लिए उसे सिविल न्यायालय के समक्ष रूल आफ दि कोर्ट बनाने की अपरिहार्यता लागू थी। 1996 के अधिनियम में इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है और अब आरबीट्रेशन एवार्ड पारित होने की तिथि से तीन माह बाद स्वतः डिक्री बन जाता है और उसे जनपद न्यायाधीश के समक्ष आवेदन करके सिविल न्यायालय की डिक्री की तरह इन्फोर्स कराया जा सकता है।
नये अधिनियम में आरबीट्रेशन एवार्ड से व्यथित पक्षकारों को उसके विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए अधिनियम की धारा 34 के तहत उसके पारित होने की जानकारी पाने की तिथि से 3 माह के अन्दर जनपद न्यायाधीश के समक्ष 200/- रूपये का न्यायशुल्क अदा करके आवेदन करने का अधिकार प्राप्त है। एवार्ड को अपास्त कराने का प्रावधान पुराने अधिनियम में भी था, परन्तु नये अधिनियम में एवार्ड के विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए उपलब्ध आधारों का क्षेत्र सीमित कर दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तो के तहत न्यायालय को भी निश्चित सीमाओं के बाहर एवार्ड के विरूद्ध हस्तक्षेप करने का क्षेत्राधिकार प्राप्त नही है।
नये अधिनियम की धारा 34 के तहत आरबीट्रेशन एवार्ड को अपास्त कराने के लिए जनपद न्यायाधीश के समक्ष निम्नांकित आधारों को सिद्ध करना आवश्यक है-
कोई पक्षकार किसी असमर्थता से ग्रस्त था इसका मुख्य उदाहरण किसी पक्षकार का अस्वस्थ होना या पागलपन का शिकार होना इत्यादि हो सकता है।
यदि आरबीट्रेटर ने जिस विधि के अधीन आरबीटेªशन एग्रीमेन्ट किया था उस तत्समय प्रवृत्त विधि के अधीन विधिमान्य नही है, इसका अर्थ प्रायः यह है कि बारबीट्रेशन एग्रीमेन्ट की जननी संविदा होती है क्योंकि वह संविदा ही पक्षकारों के दायित्वों, कर्तव्यों और अधिकारों को निर्धारित करती है और जब वह संविदा ही अवैध होती है या विधि द्वारा मान्य नही होती तो निश्चत ही उसकी बाबत जो भी अरबीट्रेशन ट्रिब्युलन द्वारा एवार्ड दिया जायेगा वह भी विधिमान्य नही कहा जा सकता। अतः ऐसे आपत्ति के आधारो के फलस्वरूप एवार्ड को अपास्त करने के लिए न्यायालय से अनुरोध किया जा सकता है।
किसी पक्षकार को आरबीट्रेटर की नियुक्ति की या आरबीटेªशन कार्यवाहियों की उचित सूचना नही दी गई थी या वह अन्यथा अपना पक्ष प्रस्तुत करने में असमर्थ था। इस सम्बन्ध में यदि अधिनियम में वर्णित आधारों पर दृष्टि डाली जाये तो विदित होगा कि आरबीट्रेटर को पक्षकारों के साथ समान व्यवहार करना चाहिये और उन्हे सुनवाई के समुचित अवसर देना चाहिये। प्राकृतिक न्याय का मुख्य सिद्धान्त है कि सभी पक्षकारों को सुनवाई को पर्याप्त अवसर दिये जाये और उसको सुने बिना उनकी अनुपस्थित में कोई आदेश पारित न किया जाये अन्यथा वह आदेश विधि अनुसार नही माना जा सकता।
आरबीट्रेशन ट्रिब्युनल की शक्तियां एवं क्षेत्राधिकार आरबीट्रेशन एग्रीमेन्ट पर आधारित होते है अतः जहाँ पर आरबीट्रेशन टिब्युनल द्वारा जो भी एवार्ड पारित किया जाता है वह यदि क्षेत्राधिकार से बाहर है या जो शक्तियां आरबीट्रेशन ट्रिब्युनल को निहित नही की गई थी उसकी मर्यादाओं का उल्लंघन करके एवार्ड दिया जाता है तो निश्चय ही उस एवार्ड के विरूद्ध उसे अपास्त करने के लिए आवेदन किया जा सकता है। यदि एवार्ड ऐसे विषयों से संबन्धित है जिनकोे निर्देशित नही किया गया है या आरबीट्रेशन एग्रीमेन्ट के निबन्धनों के भीतर नही आता है या उसमें ऐसे विषयों पर विनिश्चय है जो बारबीट्रेशन के लिए किये गये रिफरेन्स की परिधि से बाहर है। इसमें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जिस विषय पर एवार्ड किया गया है जो आरबीटेªशन के लिए रिफर नही किया गया था और उसको यदि उस विषय पर किया गया विनिश्चय एवार्ड से अलग किया जा सकता है तो सम्पूर्ण एवार्ड को अपास्त करने के स्थान पर केवल उन्हीं विषयों पर किये गये विनिश्चयों को अपास्त किया जा सकता है।
आरबीट्रेशन ट्रिब्युनल की संरचना या आरबीट्रेशन प्रक्रिया पक्षकारों के मध्य निष्पादित संविदा के अनुसार नही थी।
नये अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि विवाद की विषयवस्तु तत्समय प्रवृत्त विधि की अधीन आरबीट्रेशन द्वारा निपटाये जाने योग्य नही है या एवार्ड भारत की लोकनीति के विरूद्ध है तो उस स्थिति में न्यायालय को एवार्ड अपास्त करने का अधिकार प्राप्त है।
इस अधिनियम और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के तहत आरबीट्रेटर को विवाद के निपटारे के लिए व्यापक शक्तियाँ दी गई है और न्यायालय द्वारा उसमें हस्तक्षेप करने की शक्तियों को सीमित कर दिया गया है और यहीं इस अधिनियम की विशेषता है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निणयों में प्रतिपादित किया है कि आरबीटेªशन में प्रश्नगत विवाद के गुणदोष पर आरबीटेªटर के एवार्ड के विरूद्ध समान्यतः न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करेगें। गुणदोष पर आरबीटेªटर के निष्कर्षो को अन्तिम माना जाता है अर्थात इस अधिनियम के तहत पारित एवार्ड को मुख्यतया प्रक्रियागत त्रुटियों के आधार पर ही अपास्त कराया जा सकता है। अपनी न्यायायिक व्यवस्था में प्रशिक्षित न्यायिक अधिकारियों द्वारा पारित निर्णयों में प्रायः त्रुटियां पायी जाती है और उच्च न्यायालय हस्तक्षेप करके अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर करते रहते है। ऐसी स्थितियों में आरबीट्रेटर द्वारा पारित एवार्ड के विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए न्यायालय के हस्तक्षेप को न्यूनतम कर देने की विधि में पुनर्विचार करने की जरूरत है।
आर्डनेन्स फैक्ट्री के एक विवाद के निपटारे के समय न्यायपूर्ण सुनवाई के लिए आरबीटेªटर ने क्लेम पिटीशन और डिफेन्स स्टेटमेन्ट के आधार पर वादबिन्दु निर्धारित किये और उभय पक्षों को वादबिन्दु के आधार पर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर दिया और इसके बाद एवार्ड पारित किया। जनपद न्यायाधीश के समक्ष एवार्ड के विरूद्ध उसे अपास्त करने के लिए इस आधार पर आपत्ति की गई की आरबीट्रेटर ने रिफर किये गये मामलों से बाहर जाकर निर्णय दिया है। न्यायालय ने इस आधार पर की गई आपत्ति को खारिज कर दिया और अवधारित किया है निपटारे के लिए वादबिन्दु निर्धारित करने के समय यदि आपत्ति नही की गई है तो, बाद में उस विषय पर आपत्ति नही की जा सकती।
अधिनियम की धारा 16 में क्षेत्राधिकार से सम्बन्धित आपत्तिों को सुनने और निर्णीत करने का सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार आरबीटेªटर में निहित है। प्रायः देखा जाता है कि धारा 34 के तहत प्रस्तुत आवेदनों में क्षेत्राधिकार के प्रश्न पर आपत्ति की जाती है। परन्तु इस आशय की आपत्ति धारा 34 के तहत शुरूआत से ही ग्राहय नही है। सर्वोच्च न्यायालय ने हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कारपोरेशन लिमिटेड बनाम पिंक सिटी मिडवे पेट्रोलियम (2003-6-एस.सी.सी. पेज 503) में प्रतिपादित किया है कि अनुबन्ध की विधिमान्यतः और आरबीट्रल ट्रिब्युनल के गठन से सम्बन्धित आपत्तियों को सुनने वा निर्णीत करने का क्षेत्राधिकार आरबीट्रेटर में ही निहित है।
एवार्ड में विधि की प्रत्यक्ष त्रुटि पूराने अधिनियम में एवार्ड के विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए सुसंगत आधार मानी जाती थी, परन्तु नये अधिनियम में इस आशय का कोई प्रावधान नहीं है और इसके कारण पक्षकारों को कई प्रकार की कठिनाइयों का शिकार होना पड़ा है। वैवहारिक कठिनाईयों को दृष्टिगत रखकर विधि आयोग ने अधिनियम की धारा 34 को संशोधित करनी की सलाह दी है, परन्तु सरकार के स्तर पर अभी तक कोई पहल नही की गयी है। विधि की सारवान त्रुटि
शुरूआत से ही आरबीट्रेशन एवार्ड को अपास्त करने का आधार रही है। प्रिवी काउन्सिल ने चैमप्से भारा एण्ड कम्पनी बनाम जीवराज बालू स्पिनिंग एण्ड वीविंग कम्पनी लिमिटेड (ए.आई.आर.-1923-पी.सी.-66) में इसकी व्याख्या की। अपने सर्वोच्च न्यायालय ने प्रिवी काउन्सिल द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त को आधार बनाकर एस.बी. दत्त बनाम यूनिवर्सिटी आफ दिल्ली (ए.आई.आर.-1958-सुप्रीम कोर्ट-1050) में विचार किया है। इस मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने प्राध्यापक श्री एस.बी. दत्त की सेवाएं समाप्त कर दी थी। उन्होंने विश्वविद्यालय अधिनियम के तहत अपने स्तर पर अपनी नौकरी की बर्खास्तगी को माध्यस्थम विवाद बताकर आरबीट्रेटर नियुक्त किया और इसकी सूचना विश्वविद्यालय को दी। विश्वविद्यालय ने उनके द्वारा आरबीट्रेटर नियुक्त करने की सूचना पर कोई संज्ञान नही लिया और न आरबीट्रेटर के समक्ष उपस्थित होकर अपना पक्ष प्रस्तुत किया जिसके कारण प्राध्यापक द्वारा नियुक्त आरबीट्रेटर सोल आरबीटेªटर बन गये और उन्होंने एवार्ड पारित करके सेवा समाप्ति के आदेश को अनुचित एवं दुर्भावनापूर्ण घोषित कर दिया और उन्हें नौकरी में रखने का एवार्ड पारित कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय आरबीट्रेटर द्वारा पारित एवार्ड अपास्त कर दिया और प्रतिपादित किया कि सेवा समाप्ति के आदेश के विरूद्ध विधि के तहत अनुतोष प्राप्त किया जा सकता है। आरबीट्रेटर को इस बिन्दु पर सुनवाई करने का कोई क्षेत्राधिकार प्राप्त नही था। इसी तरह का एक पिटीशन जनपद न्यायाधीश कानपुर नगर के समक्ष जी.एस.वी.एम. मेडिकल कालेज द्वारा अपने एक कर्मचारी आर.के. पाण्डेय के पक्ष में आरबीट्रेटर के द्वारा पारित माध्यस्थम पंचाट को अपास्त करने के लिए प्रस्तुत किया गया है। इस विवाद में श्री आर. के. पाण्डेय को मेडिकल कालेज ने 58 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त कर दिया था। उन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति के विरूद्ध उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल की। याचिका के लम्बित रहने के दौरान उन्होंने अपने स्तर पर आरबीटेªटर को नियुक्त किया और आरबीट्रेटर ने बतौर एकल मध्यस्थ एवार्ड पारित करके सेवानिवृत्त के आदेश को अनुचित एवं दुर्भावनापूर्ण घोषित कर दिया था। एवार्ड में प्रत्यक्षतः सारवान विधिक त्रुटि होने के बावजूद निर्धारित अवधि के अन्दर एवार्ड को अपास्त करने के लिए प्रार्थनापत्र प्रस्तुत न करने के कारण जी.एस.वी.एम. मेडिकल कालेज की आपत्ति खारिज करके एवार्ड को इन्फोर्स करने का आदेश पारित हो गया है।
निजी क्षेत्र के बैंक और नान बैंकिग फायनेन्स कम्पनियाँ अपनी बकाया राशि की वसूली के लिए ऋण दिये जाते समय उभय पक्षों के मध्य निष्पादित अनुबन्ध में अंकित आरबीटेªशन क्लाज का सहारा लेकर अपने मुख्यालय चेन्नई, मुम्बई, कोलकता आदि दूर दराज के शहरों में आरबीटेªशन कार्यवाही प्रारम्भ कर देते है जबकि अनुबन्ध सीतापुर, हरदोई, फतेहपुर, उन्नाव, गोडा बस्ती जैसे ग्रामीण इलाकों में हस्ताक्षरित कराया जाता है। पूरा अनुबन्ध एकपक्षीय होता है और बारोवर या उसके गारण्टर को आरबीट्रेशन क्लास की कोई जानकारी नही दी जाती, परन्तु इसके आधार पर सुनवाई चालू हो जाती है और एकपक्षीय सुनवाई करके एवार्ड पारित कर दिया जाता है। एवार्ड पारित हो जाने के बाद उसे इन्फोर्स कराने के लिए बारोवर के गृह जनपद में वसूली कार्यवाही चालू हो जाती है। न्यायालय द्वारा प्रेेषित नोटिस पाने के बाद बारोवर को अपने विरूद्ध पारित एवार्ड की जानकारी प्राप्त होती है और इस समय तक एवार्ड के विरूद्ध आपत्ति दाखिल करने के लिए निर्धारित तीन माह की अवधि समाप्त हो चुकी होती है तद्नुसार एवार्ड सिविल न्यायालय की डिक्री की तरह प्रवर्तनीय हो जाता है और उसके विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए आपत्ति प्रस्तुत करने का अधिकार भी समाप्त हो चुका होता है। इन स्थितियों में बारोवर को एकपक्षीय एवार्ड के अनुसार ब्याज सहित बकाया राशि अदा करने के लिए मजबूर होना पड़ता है जो भारत में प्रचलित लोकनीति एवं प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है। अनुबन्ध का निष्पादन फतेहपुर, उन्नाव और आरबीट्रेशन कार्यवाही चेन्नई, मुम्बई या कोलकता में करने से सहज और सस्ते न्याय की अवधारणा का भी उल्लंघन होता है और एक आम आदमी अपने विरूद्ध लम्बित कार्यवाही में प्रश्नगत विवाद के गुणदोष पर अपना पक्ष प्रस्तुत करने के समुचित अवसर से भी वंचित हो जाता है। समय की माँग है कि आम लोगों को इस प्रकार के अन्याय से बचाने के लिए आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट की धारा 34 में संशोधन करके एवार्ड में सारवान विधिक त्रुटि को भी एवार्ड को अपास्त करने का एक नया आधार बनाया जाये।
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