अपने देश में अनुच्छेद 311 और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 से संरक्षित नौकरशाहों द्वारा अपनी पदीय शक्तियों एवं प्रभाव का मनमाना प्रयोग करने से आम जनमानस का उत्पीड़न बढ़ा है। विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना स्वनिर्मित नियमों के तहत विधि का मनमाना अर्थान्वयन नौकरशाहों की आदत में शुमार है। उनकी मनमानी का शिकार हुआ एक आम नागरिक तन, मन, धन से टूट जाता है, बर्बाद हो जाता है परन्तु नौकरशाहों को उनके किये की सजा नही मिलती। बहुत हुआ तो एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरण करके पीडि़त के असहनीय घावों पर मरहम लगा दिया जाता है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मेसर्स प्रीति नर्सिंग होेम बनाम रीजनल प्रावीडेण्ड फण्ड कमिश्नर एण्ड अदर्स (2013-2-एल.बी.ई.एस.आर.-पेज 145-इलाहाबाद) में केन्द्रीय सरकार के अधिकारियो की मनमानी पर विचार करते हुये उनके विरूद्ध पाँच लाख रूपयें की कास्ट अधिरोपित की है। न्यायालय ने अपने निर्णय के द्वारा नौकरशाहों को याद दिलाया है कि अपना संविधान आम जनता को संप्रभु मानता है। उनके ऊपर कोई नही, कुछ नही। नौकरशाह सेवक होते है और आम लोगों के हित में काम करना उनकी संवैधानिक और पदीय प्रतिबद्धता है। संवैधानिक एवं विधिक प्रावधानों के विरूद्ध उनका आचरण सदैव राज्य की जवाबदेही का विषय है और राज्य किसी भी दशा में अपनी इस जवाबदेही से बच नही सकते।
अपने देश में नौकरशाहों से निष्पक्षता एवं पारदर्शी तरीके से अपने पदीय कर्तव्यों का निर्वहन करने की अपेक्षा की जाती है ताकि आम लोगों को अपने विधिपूर्ण अधिकारों से वंचित न होना पड़े और कोई व्यक्ति संगठन या समूह किसी को उत्पीडि़त न कर सके। उन्हें समझना चाहियें कि शासकीय कर्मचारी होने के नाते उन्हें सम्पूर्ण प्रशासनिक मशीनरी और राज्य की शक्तियों का सहयोग मिलता है और उनकी तुलना में एक आम नागरिक काफी कमजोर एवं असहाय होता है। नौकरशाहों द्वारा आम आदमी का उत्पीड़न सामाजिक दुराचार है और विधि उसकी अनुमति नही देती। नौकर शाहों के उत्पीडक आचरण से तात्कालिक रूप से एक व्यक्ति विशेष उत्पीडित होता हैै परन्तु उसका दुष्प्रभाव सम्पूर्ण व्यवस्था और समाज पर पड़ता है इसलिए ऐसे नौकरशाहों को अनुच्छेद 311 या दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 का संरक्षण देकर सेवा में बनाये रखना राष्ट्र समाज एवं लोकतन्त्र के लिए घातक है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सी.एम.डब्लू. पी. संख्या 1767 सन् 2011 जितेन्द्र कुमार शाव बनाम यूनियन आफ इण्डिया आदि की सुनवाई के समय आयकर विभाग कानपुर नगर में कार्यरत आयकर वसूली अधिकारी श्रीराम भार्गव के आचरण को विधि के प्रतिकूल पाया था, और घोषित किया है कि उन्होंने सम्पूर्ण कार्यवाही किसी बकाया कर की वसूली के लिए नही बल्कि केवल पिटीशनर जितेन्द्र कुमार शाव को उत्पीडि़त करने के दुरासय से की है। इस मामले में श्रीराम भार्गव ने अपनी पदीय शक्तियों का दुरूपयोग करके श्रीमती बैजयन्ती गुप्ता के नाम से पिटीशनर जितेन्द्र कुमार शाव के विरूद्ध खुद एक प्रार्थनापत्र बनाया और उसमें लिखा कि ‘‘पिछले वर्ष एक पुराना ट्रक खरीदने के लिए मैने अपने परिवार की सारी जमा पूँजी साढे पाँच लाख रूपये जितेन्द्र कुमार शाव निवासी फ्लेट नं. 107 कैलाश अपार्टमेन्ट सिविल लाइन्स कानपुर को दिया था परन्तु उन्होंने मेरे साथ धोखाधड़ी की। मुझे न ही ट्रक दिया न ही मेरा पैसा वापस किया। मेरे खिलाफ जो आयकर डिमाण्ड है उसकी अदायगी मय ब्याज के जितेन्द्र कुमार शाव निवासी फ्लेट नं. 107 कैलाश अपार्टमेन्ट सिविल लाइन्स कानपुर नगर के पास जमा साढे पाँच लाख रूपयों से कर ली जाये। साढे पाँच लाख रूपये जितेन्द्र कुमार शाव के स्टेट बैंक आफ हैदराबाद केनाल रोड कानपुर के खाता संख्या 62032584656 में मेरे पुत्र सुभाष चन्द्र ने दिनांक 21.05.2008 को नगद जमा करवाई थी’’ इस पत्र के आधार पर आयकर विभाग और उसके अधिकारी श्री राम भार्गव ने जितेन्द्र कमार शाव की करोड़ो रूपयों की चल अचल सम्पत्ति सीज कर दी। उन्हें भगोडा घोषित कर दिया और उनके व्यवसायिक संव्यवहारों पर रोक लगा दी। आयकर विभाग ने उच्च न्यायालय के समक्ष अपने अधिकारी की इस फर्जी कार्यवाही का समर्थन किया परन्तु शिकायतकर्ता श्रीमती बैजयन्ती गुप्ता को न्यायालय के समक्ष उपस्थित नही कर सका तद्नुसार श्री बैजयन्ती गुप्ता और उनके द्वारा प्रस्तुत प्रार्थनापत्र फर्जी पाया गया। आयकर विभाग उनका अस्तित्व सिद्ध नही कर सका। जितेन्द्र कुमार शाव के खाते में दिनांक 21.05.2008 को कोई नगद धनराशि जमा कराया जाना भी नही पाया गया। अर्थात आयकर अधिकारी श्रीराम भार्गव द्वारा की गई सम्पूर्ण कार्यवाही फर्जी पायी गई। इन स्थितियों में जितेन्द्र कुमार शाव की याचिका स्वीकार की गई। निर्णय में उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि सम्पूर्ण कार्यवाही पिटीशनर को उत्पीडित करने के लिए की गई है। उच्च न्यायालय द्वारा पारित इस निर्णय के विरूद्ध आयकर विभाग ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कोई अपील दाखिल नही की परन्तु दोषी अधिकारी श्रीराम भार्गव के विरूद्ध अभी तक कोई कार्यवाही भी नही की है और वे आज भी आयकर विभाग की सेवा में बने हुये है जबकि उन्हें सेवा में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार प्राप्त नही है और उन्हें अब तक सेवा से बर्खास्त कर देना चाहिये।
अपनी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में किसी अधिकारी या प्राधिकारी को विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना एकदम मनमाने तरीके से काम करने की अनुमति नही है। नौकरशाहो को विवेकीय शाक्तियाँ प्रशासनिक तन्त्र को सुव्यवस्थित बनाये रखने के लिए दी गई है। सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने कई बार प्रतिपादित किया है कि यदि कोई अधिकारी या प्राधिकारी मनमाने तरीके से काम करते हुये पाया जाये तो उसके विरूद्ध तत्काल प्रभावी कार्यवाही सुनिश्चित कराई जाये परन्तु नौकरशाहो के मामलो में प्रशासनिक तन्त्र विधि का अनुचित अर्थान्वयन करके अपने अधिकारियों के दोषों को छिपाता है। थाना हरबंश मोहाल कानपुर नगर में पंजीकृत एक मुकदमें में विवेचक जय प्रकाश शर्मा ने कई वर्ष पूर्व स्वर्ग सिधार गये लोगों का बयान बतौर साक्षी अंकित करके मुकदमें में फाइनल रिपोर्ट लगा दी और पीडि़त पर झूठी रिपोर्ट लिखाने का मुकदमा पंजीकृत करने के लिए पत्रावली न्यायालय के समक्ष प्रेषित कर दी है। बाद में पाया गया कि विवेचक द्वारा बनाये गये साक्षी बयान अंकित किये जाने की तिथि पर जीवित नही थे परन्तु विवेचक के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की गई बल्कि चैकी इन्चार्ज से पदोन्नति देकर उन्हें थानाध्यक्ष बना दिया गया इसी प्रकार उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्वमन्त्री श्री अमर मणि त्रिपाठी को विधिपूर्ण दण्ड से बचाने के लिए पुलिस अधिकारियों ने आई.आई.टी. के एक छात्र को कवियत्री मधुमिता की हत्या के मामले में मुल्जिम बना दिया था। हलाँकि बाद में अमर मणि त्रिपाठी और उनकी पत्नी को दोषी पाया गया और अदालत ने उन्हें आजीवन कारावास से दण्डित भी किया परन्तु आई.आई. टी. के निर्दोष छात्र को मुल्जिम बनाने में तुले पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की गयी और उन्हें माँफ कर दिया गया है।
उत्पीडक नौकरशाहो को उनके किये की सजा न मिल पाने के कारण आम आदमी के मन मे सम्पूर्ण व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा होता है, जो अन्ततः समाज की सुख शान्ति के लिए घातक हैै इसलिए उत्पीड़क अधिकारियों के विरूद्ध तत्काल कार्यवाही करके आम आदमी को उत्पीडन से बचाना चाहिये ताकि उसे असहाय होने का अहसास न हो और उसे सदैव महसूस हो कि शासन की शक्ति उसके साथ है और उसकी चिन्ता की जा रही है।
सर्वोच्च न्यायालय ने गाजियाबाद डेवलपमेन्ट अथार्टी बनाम बलबीर सिंह (जजमेन्ट टुडे-2004-5-एस.सी.-पेज 17) में प्रतिपादित किया है कि केन्द्र या राज्य सरकार को अपने उत्पीडक अधिकारियों के मनमाने आचरण को गम्भीरता से लेना चाहिये और किसी भी दशा में अधिकारियों को आम जनता के उत्पीडन का अवसर उपलब्ध नही कराना चाहियें। उन्हें हर हालत में अधिकारियो के उत्पीड़न से आम लोगों की रक्षा करनी होती है। सरकारे यदि अपने इस दायित्व का पालन करने में असफल रहती है तो वे एक तरफ अधिकारियों के भ्रष्टाचार को बढाने मे सहायक बनती है और दूसरी तरफ आम आदमी उनके शासन मे अन्याय सहने को अभिशप्त हो जाता है जो संविधान के उद्देश्यो के प्रतिकूल है। देलही जल बोर्ड बनाम नेशनल कैम्पेन फार डिग्निटी एण्ड राइट आफ सीवरेज एण्ड एलाइड वर्कस एण्ड अदर्स (जजमेन्ट टुडे-2011-8-एस.सी.-पेज 232) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने नौकरशाहो के उत्पीडक आचरण से पीडि़त लोगों को राज्य द्वारा क्षतिपूर्ति देने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है और इसी सिद्धान्त के तहत न्यायालय ने भविष्य निधि आयुक्त कार्यालय के सम्बन्धित अधिकारियो के उत्पीडन से त्रस्त प्रीति नर्सिंग होम इलाहाबाद को पाँच लाख रूपयो की छतिपूर्ति दिलाई है। निर्णय मे कहा गया है कि अधिकारियों का उत्पीडक रवैया भ्रष्टाचार की परिधि में आता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित विभिन्न निर्णयों से स्पष्ट हो जाता है कि अपने अधिकारियों के उत्पीडक आचरण पर लगाम लगाना सम्बन्धित सरकारों की संवैधानिक प्रतिबद्धता है और उन्हें अपने इस दायित्व की पूर्ति के लिए संविधान के अनुच्छेद 311 और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 को अधिकारियों के बचाव का कवच नही बनने देना चाहिये।
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