Sunday, 16 March 2014

समाजवाद आपकी रणनीति, हम बेसहारों की जरूरत................


हमारे बचपन में समाजवाद साम्यवाद असमानता गरीबी भूख और बीमारी के विरूद्ध जन संघर्षो का प्रतीक था। प्रत्येक महीने की 10 तारीख को पहली तारीख का इन्तजार करने वाले हमारे अभिभावकों में नया जमाना आयेगा कमाने वाला खायेगा, लूटने वाला जायेगा का उद्घोष सुखमय भविष्य की आशा जगाता था। इसीलिए प्रख्यात साहित्यकार और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रामवृक्ष बेनीपुरी ने एक समाजवादी नेता से कहा था कि ‘‘समाजवाद आपकी राजनीति का एक अंग है, आपने उसे किताबे पढ़कर प्राप्त किया है और राजनीति में एक मोहरे के रूप में उसका इस्तेमाल करते है। जिस दिन आपको पता चलेगा कि ये किताबे गलत है या आपकी राजनैतिक जरूरत आपको बतायेगी कि अब सीधी राह न जाकर कतरिया कर चलना है तो समाजवाद को तिलांजलि देने मे आपको तनिक भी झिझक नही होगी’’ लेकिन मै उसे कैसे छोड सकता हूँ, समाजवाद मैने अनुभवों से ग्रहण किया है, उसमे आप बीती समाई हुई है, मेरे आसपास जो लोग रहे या हैं, उसमें उनकी पीड़ा पिरोई हुई है। उनके मुरझाये चेहरे हमे समाजवादी बने रहने के लिए मजबूर रखते है। 
पिछले चुनाव में गाँधी लोहिया के नाम पर वोट माँगने और आज के चुनाव में गुरू गोलबलकर दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर वोट माँगने को बेताब राजनेताओं पर यह एक सटीक टिप्पणी है। आज के अधिकांश राजनेताओं ने गरीबी भूख और बीमारी को किताबों में पढ़ा है। समाजवाद उनकी प्रतिबद्धता नही राजनैतिक रणनीति है। उससे उनका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नही है। उनमें से किसी ने भी बेनीपुरी जी की तरह क्लास में सदैव फस्र्ट आने के बावजूद एक रूपयें की नगद मेस की फीस न दे पाने के कारण चावल को भुनाकर भकोसने की मजबूरी नही झेली। दिन रात अपने आस पास भूख बीमारी और गन्दगी के दर्शन नही किये है। इसलिए असमानता गरीबी बेरोजगारी और अशिक्षा के विरूद्ध संघर्ष करने की तुलना में धर्म निरपेक्षता के विरूद्ध नकली संघर्ष उन्हें रास आता है और संसदीय समितियों में टाटा बिडला अम्बानी जैसे कारपोरेट घरानो के अनुकूल नीति निर्धारित कराते समय उन्हें कोई झिझक महसूस नही होती और निर्लज्जता पूर्वक उनके साथ फोटो खिंचाने में उन्हें गर्व महसूस होता है।
राजनीति का चरित्र एकदम बदल गया है। राजनीति कभी साधना का क्षेत्र हुआ करती थी। त्याग तपस्या के द्वारा उसे जनसेवा का साधन बनाया गया था। दयनीय आर्थिक स्थितियों के बावजूद शोषण के विरूद्ध संघर्ष के दौरान पीछे मुड़कर न देखने वाले राजनैतिक कार्यकर्ता अर्जुन की तरह न दैन्यतम् न पलायनम् की टेक सदैव निभाते थे इसलिए उन्हें समाज अपना नायक मानता था। अपने अपने दलो में वे निर्णायक भूमिका में होते थे परन्तु पारिवारिक घरानो के रूप में उभरी राजनैतिक पार्टियों ने आन्दोलनकारी कार्यकर्ताओं को किनारे लगा कर उनकी तुलना में जिताऊ प्रत्याशियों को वरीयता देने का नियम बना लिया है इसलिए दल बदल को बढ़ावा मिला और चुनाव के ऐन मौके पर नरेन्द्रमोदी और राम विलास पासवान द्वारा एक दूसरे की महिमा बखारने से किसी को अचरज नही हुआ। सभी ने इसे जाने पहचाने राजनैतिक अवसरवाद के रूप में देखा है और मन ही मन उसकी भत्र्सना की।
विद्यार्थी जीवन में छात्र संघ का अध्यक्ष एवं महामन्त्री निर्वाचित होना महत्वपूर्ण हुआ करता था परन्तु समाजवादी युवजन सभा स्टूडेन्ट फेडरेशन आफ इण्डिया और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता केवल चुनावी जीत के लिए किसी दूसरे संघटन के साथ मिलकर चुनाव नही लड़ते थे। अपनी विचारधारा के साथ हारने में गर्व महसूस करते थे। उसी का परिणाम है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जनेश्वर मिश्रा, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मार्केेण्डेय सिंह, दिल्ली विश्वविद्यालय के अरूण जेटली, लखनऊ विश्वविद्यालय के अतुल अन्जान, गोरखपुर विश्वविद्यालय के शिव प्रताप शुक्ल जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रकाश करात को राजनैतिक यात्रा के दौरान कभी अपनी शुरूआती विचारधारा के प्रति अविश्वास या उसमें परिर्वतन की आवश्यकता प्रतीत नही हुई। ये और इनके समकालीन आज भी शुरूआती प्रतिबद्धताओं को अपनी महत्वपूर्ण राजनीति धरोहर मानते है।
राजनेताओं के द्वारा विचारधारा से ज्यादा जीत के लिए चुनावी समीकरणो को वरीयता दिये जाने के कारण सभी दलों में प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का महत्व घटा है। चुनाव के ऐन मौके पर दल बदल करके चुनाव जीतने वाले राजनेताओं के कारण संसदीय व्यवस्था मजाक बन जाती है और आम मतदाता अपने आपको ठगा महसूस करता है। चैधरी अजीत सिंह वर्ष 1991 मे नरसिंह राव सरकार में मन्त्री थे और फिर 1999 में अटल बिहारी सरकार और अब मनमोहन सिंह मन्त्रिमण्डल में भी मन्त्रिपद पाने में कामयाब हुये है। राम विलास पासवान ने कई प्रधानमन्त्रियों के साथ मन्त्रिपद शुशोभित किया है। गोधरा में कथित नरसंहार के बाद अटल बिहारी बाजपेई मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र देने वाले पासवान गोधरा काण्ड के समय गुजरात के मुख्यमन्त्री रहे नरेन्द्र मोदी को इस चुनाव में प्रधानमन्त्री बनाने के लिए प्रतिबद्ध है और वे भूल गये है कि उन्होंने कभी बी.जे.पी. को भारत जलाओं पार्टी कहा था। करूणानिधि की पार्टी तीसरे मोर्चे की सरकार का हिस्सा रही। उसने एन.डी.ए. और संप्रग दोनो की सरकारो मे भी बेहिचक सहभागिता की है। सोनिया गाँधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर काँग्रेस छोडकर नया दल बनाने वाले शरद पवार सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार में कृषि मन्त्री है और महाराष्ट्र में उन्ही के साथ सरकार चला रहे है। इस सबसे स्पष्ट होता है कि आज की राजनीति मौका परस्ती और अवसरवाद को बढ़ावा देती है। इन सबके नेतृत्व में साध्य के लिए साधनों की पवित्रता की बात करना बेमानी हो गया है।
राजनीति में विचारधारा के प्रति कोई प्रतिबद्धता न रह जाने के कारण लोक सभा के चुनावो में भी राष्ट्रीय विषयों पर कोई चर्चा नही हो रही है। सभी मानने लगे है कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है और वह केवल तात्कालिक मुद्दो को ध्यान में रखकर वोट देती है। गम्भीर विषयों पर चर्चा से वोट नही मिलता। इन बातों में सच्चाई हो सकती है परन्तु इन बातो को झुठलाना और देश की वास्तविक समस्याओं से आम जनता का रूबरू कराना और अपनी नीतियों के तहत उनका समाधान प्रस्तुत करना राजनैतिक दलों की जिम्मेदारी है। उन्हें स्पष्ट रूप से बताना चाहिये कि उनकी सरकार दूसरे दल की सरकार से किन अर्थो में अलग होगी।
नरसिंह राव के प्रधान मन्त्रित्व काल में बतौर वित्तमन्त्री मनमोहन सिंह ने देश को उदार बाद की और धकेलकर समाजवादी नीतियों से बाय बाय कर ली थी। उनकी उदारवादी नीतियाँ एन.डी.ए.के शाशनकाल में भी यथावत जारी रही जिसके कारण आम लोगों के हितों की बलि चढ़ाकर सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों को वी.आर.एस. देकर ताला बन्दी की गई और उन्ही उत्पादों के लिए निजी क्षेत्र को संरक्षण देने का सिलसिला शुरू किया गया। इस चुनाव में सभी राजनैतिक दल मनमोहन सिंह सरकार को हर स्तर पर विफल बता रहे है परन्तु किसी ने भी स्पष्ट नही किया है कि चुनाव के बाद नई सरकार मनमोहन सिंह की उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति क्या रवैया अपनायेगी ?
अपने देश में डाइरेक्टिव प्रिन्सिपल्स को संविधान की आत्मा माना जाता है परन्तु उन्हें लागू कराना किसी भी दल की प्राथमिकता सूची में नही है। आम लोगों को मिलने वाली सुविधाओं को लाभ हानि के तराजू में तोलने की एक नयी परिपाटी को जन्म दिया गया है और उसके तहत सुविधाओं में सब्सिडी काटी जा रही है। जबकि आम जनता को सुख सुविधाये उपलब्ध कराना राज्य का प्रथम और परम दायित्व है।
राजनैतिक दलो में विचारधारा आधारित संस्कृति समाप्त हो जाने के कारण वर्तमान चुनाव में विचारधारा की कोई चर्चा नही हो रही है। एक दूसरे पर कीचड़ उछालकर अपने आपको श्रेष्ठ बताने की होड जारी है। गुजरात चुनाव में अफजल गुरू की फाँसी को मुद्दा बनाने वाले नरेन्द्र मोदी राजीव गाँधी के हत्यारो की फाँसी के मामले में मौन है। कोई नही कहता कि नई सरकार आने पर संसद में कानून बनाकर आतंकवादी घटनाओं के दोषी आरोपियो को फाँसी देने के लिए समयबद्ध कार्यनीति बनायी जायेगी। चुनाव के दौरान प्रचार का प्रावधान इसलिए किया गया है कि सभी राजनैतिक दल प्रचार के द्वारा अपने सिद्धान्तों और उनके अनुरूप अगले पाँच वर्ष के लिए शाशन की निर्धारित नीति का खाका जनता के सामने पेश करे। विजन डाक्यूमेन्ट या चुनाव घोषणापत्र एक औपचारिकता बनकर रह गया है। चुनाव जीतने के बाद कोई सांसद संसदीय दल की बैठको में इसकी चर्चा नही करता।
हर हाथ को काम हर खेत को पानी, जाति तोड़ो, दाम बाँधो, हिमालय बचाओं हिन्दी हटाओं जैसे नारे में निहितार्थ सम्बन्धित राजनैतिक दल की आर्थिक सामाजिक नीति परिलक्षित करते थे। सत्ताधारी या विपक्षी राजनेता इसी प्रकार के मुद्दो पर आन्दोलन करके जनता में अपनी पैठ बनाते थे और चुनाव में इन्ही मुद्दो पर वोट माँगते थे। इसीलिए उन दिनों संसद की चर्चाये समाचार पत्रों में प्रकाशित होती थी परन्तु अब समाचार पत्रों की सूचनाओं पर संसद में चर्चा होती है। संसद में अपने प्रतिनिधियों का अराजनैतिक व्यवहार देखकर आम नागरिक व्यथित है। उनकी व्यथा विद्रोह का रूप अख्तियार करे कि उसके पहले राजनैतिक दलों को सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए त्याग तपस्या की राजनीति का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये। 

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