Sunday, 27 April 2014

केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण, अपीलीय क्षेत्राधिकार, पुनर्विचार जरूरी ......

सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय पीठ द्वारा एल. चन्द्र कुमार बनाम यूनियन आफ इण्डिया (1997-3-एस0सी0सी0-पेज 261) में प्रतिपादित विधि के बाद केन्द्रीय प्रशाशनिक न्यायाधिकरण के फैसलों के विरूद्ध अपीलीय क्षेत्राधकार उच्च न्यायालय में निहित हो गया है जबकि मूल अधिनियम में अपील सुनने व निर्णीत करने का सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार सर्वोच्च न्यायालय में निहित था। आम्र्ड फोर्स ट्रिब्यूनल एक्ट 2007 में भी अपील का क्षेत्राधिकार सर्वोच्च न्यायालय में ही निहित है। केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण के फैसलों के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील योजित होने की स्थिति में कर्मचारियों के सेवासम्बन्धी विवादों के सहज, सस्ते और त्वरित निस्तारण में सहायता मिलती है।
केन्द्रीय प्रशाशनिक न्यायाधिकरण के गठन के पूर्व शासकीय कर्मचारियों के सेवा सम्बन्धी विवादों को सुनने व निर्णीत करने का सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार विभिन्न जनपदों के सिविल न्यायालयो में निहित था और मुकदमों के बोझ के कारण सेवा सम्बन्धी विवादों के निस्तारण में काफी विलम्ब होता था और कर्मचारी कचहरी के चक्कर काटा करते थे। इसलिए सरकार ने प्रशाशनिक न्यायाधिकरण अधिनियम 1985 और सभी न्यायाधिकरणों में एक समान प्रक्रिया के लिए केन्द्रीय प्रशाशनिक नियमावली 1987 लागू की। न्यायाधिकरण अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों से शासित होते थे। सिविल प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रावधानों का अनुपालन उनकी बाध्यता नही थी। न्यायाधिकरणों के समक्ष प्रस्तुत ओरिजिनल एप्लीकेशन (ओ.ए.) का निस्तारण प्रायः छः माह में हो जाता है। भारत सरकार के सम्बन्धित मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति ने पाया है कि मुकदमों के त्वरित निस्तारण में न्यायाधिकरणों का रिकार्ड अन्य न्यायालयों की तुलना में काफी अच्छा है। 
एल चन्द्र कुमार के मामले में प्रतिपादित किया गया है कि न्यायाधिकरण के फैसलो के विरूद्ध अनुच्छेद 136 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष सीधे अपील नही की जा सकती बल्कि व्यथित पक्षकार को संविधान के अनुच्छेद 226 एवं 227 के तहत उच्च न्यायालय के समक्ष अपील करने का अधिकार प्राप्त है। उच्च न्यायालय की डिवीजन बेन्च द्वारा पारित फैसलों को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रश्नगत किया जा सकता है। केन्द्रीय प्रशाशनिक न्यायाधिकरण के गठन के समय शासकीय कर्मचारियों को सहज सस्ता और त्वरित न्याय उपलब्ध कराने केे लिए मूल अधिनियम में अपीलीय क्षेत्राधिकार उच्च न्यायालय को प्रदत्त नही किया गया था। माना गया था कि न्यायाधिकरणों के फैसले के विरूध उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दाखिल करने की प्रक्रिया से विवाद के त्वरित और अन्तिम निस्तारण में विलम्ब कारित होगा, परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने एल. चन्द्र कुमार के मामले में अपने निर्णय के द्वारा एक नई अपील प्रक्रिया निर्मित कर दी है जो वास्तव में संविधान प्रदत्त शक्तियों के विभाजन के सुस्थापित सिद्धान्त के प्रतिकूल है।
शक्तियो के विभाजन का सिद्धान्त हमारे संविधान की आत्मा है और उसका एक विशेष गुण है। इन्दिरा नेहरू गाँधी बनाम राजनारायण (1975-एस0सी0सी0- सप्लीमेन्ट्री-पेज 1) में प्रतिपादित किया गया था कि भारत गणराज्य के तीनों अंग कार्यपालिका विधायिका और न्यायपालिका अपने अपने क्षेत्रों में संप्रभु है और इनमे से कोई एक दूसरे की शक्तियों और अधिकारक्षेत्र में हस्तक्षेप नही कर सकता। अपने देश में कार्यपालिका द्वारा संविधान की मूलभूत अवधारणा के विरूद्ध पारित किसी भी निर्णय को असंवैधानिक घोषित करने का क्षेत्राधिकार न्यायपालिका को प्राप्त है। इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित किसी निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय की बृहद बेन्च द्वारा अपास्त किया जाना अपेक्षित है। यूनियन आफ इण्डिया बनाम देवकी नन्दन अग्रवाल (1992-एस0सी.सी.-एल.एण्ड एस. पेज 248) में सर्वोच्च न्यायालय ने खुद प्रतिपादित किया है कि न्यायपालिका को विधायिका द्वारा बनाये गये किसी कानून को रिराइट रिफ्रेम या रिकास्ट करने का कोई क्षेत्राधिकार प्राप्त नही है। न्यायालय विधि में अपने स्तर पर न कोई शब्द बढ़ा सकता है और न उससे अलग कोई अर्थान्वयन करने का उसे कोई संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। आसिफ हमीद बनाम स्टेट आफ जे. एण्ड के (1989-एस.सी.सी. सप्लीमेन्ट्री-2 पेज-364) में भी प्रतिपादित किया गया है कि प्रशाशनिक निर्णयों की न्यायिक समीक्षा के अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते समय न्यायालय अपीलीय प्राधिकारी के रूप में कार्य नही करते और न न्यायालय विधायिका को उसके नीतिगत निर्णयों पर कोई निर्देश या सलाह दे सकते है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित उल्लिखित विधिक सिद्धान्तो को दृष्टिगत रखकर पूँछा जा सकता है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय किसी विधिक प्रावधान को संशोधित कर सकती है या फैसलों के विरूद्ध अपील के लिए किसी निश्चित प्रक्रिया का अनुपालन करने के लिए निर्देश जारी कर सकती है ? मेरी दृष्टि में सर्वोच्च न्यायालय को इस आशय का कोई क्षेत्राधिकार प्राप्त नही है। संविधान के तहत गठित प्रशासनिक न्यायाधिकरणों के फैसलों के विरूद्ध अपील सुनने व निर्णीत करने का क्षेत्राधिकार उच्च न्यायालयों में निहित करने का निर्णय पारित हो जाने के बाद कर्नाटका सर्विस एडमिनिस्टेªटिव ट्रिब्यूनल के चेयरमैन न्यायमूर्ति श्री शिव शंकर भाट ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। उन्होनें अपने त्याग पत्र में बताया था कि न्यायाधिकरण का विधिक स्तर डाउनग्रेडेड (कमतर) कर दिये जाने के कारण उनके लिए उस पद पर कार्य करना उचित नही है। एल. चन्द्र कुमार का निर्णय पारित होने के बाद तमिलनाडु सरकार ने चेन्नई  स्थिति सर्विस एडमिनिस्टेªटिव ट्रिब्यूनल समाप्त कर दिया तद्नुसार उनके कर्मचारियों को अपने सेवा सम्बन्धी विवादों के निस्तारण के लिए उच्च न्यायालय के समक्ष आवेदन करने का अधिकार प्राप्त हो गया है।
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित न्याय पाने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है परन्तु केन्द्रीय प्रशाशनिक न्यायाधिकरण की विधिक हैसियत कमतर हो जाने के कारण कर्मचारियों के लिए अब अपने सेवा सम्बन्धी विवादों के न्यायपूर्ण अन्तिम निपटारे के लिए उच्च न्यायालय के समक्ष भी अपना पक्ष प्रस्तुत करने की बाध्यता लागू हो गई है। इस प्रक्रिया के कारण निस्तारण में विलम्ब और व्यय दोनो में बढ़ोत्तरी हुई है। इसीलिए विधि आयोग ने अनुशंशा की है कि केन्द्रीय सरकार विधि में अपेक्षित संशोधन करे या एल. चन्द्र कुमार के मामले मे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय को पुनर्विचार के लिए बृहद पीठ के समक्ष संदर्भित कराने हेतु आवश्यक कार्यवाही सुनिश्चित कराये परन्तु पाँच वर्ष से ज्यादा की अवधि बीत जाने के बावजूद केन्द्र सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नही की है और न कर्मचारियों के संघटनों ने इस विषय पर सरकार पर दबाव बनाने के लिए कोई काम किया है।
भारत सरकार के सम्बन्धित मन्त्रालय की संसदीय स्थायी समिति ने भी अनुशंशा की है कि यदि न्यायाधिकरणों के फैसलो के विरूद्ध अपील का अधिकार उपलब्ध कराया जाना आवश्यक है तो इसे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उपलब्ध कराया जाना चाहिये। केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरणों के फैसलों के विरूद्ध अपीलीय क्षेत्राधिकार के प्रश्न पर विधि आयोग और सम्बन्धित मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति की राय एक सामान है। वास्तव में शासकीय कर्मचारियों के व्यापक हितों और प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम 1985 पारित करने के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एल चन्द्र कुमार के केस में सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय पीठ के निर्णय पर बृहद पीठ द्वारा पुनर्विचार किया जाना आवश्यक है। 
उच्च न्यायालयों के समक्ष पहले से ही बड़ी संख्या में मुकदमें लम्बित है और कई मुकदमों में दशकों से सुनवाई नही हो पा रही है। ऐसी दशा में न्यायाधिकरणों के फैसलों के विरूद्ध अपीलीय क्षेत्राधिकार के कारण उच्च न्यायालय के समक्ष लम्बित मुकदमों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हो सकती है और इसके कारण आम लोगों को त्वरित न्याय प्रदान करने में व्यवधान उत्पन्न होगा जो किसी के भी हित में नही है। इन्हीं सब तथ्यों पर विचार करके विधायिका ने प्रशाशनिक न्यायाधिकरण अधिनियम 1985 में उच्च न्यायालय के समक्ष अपील का कोई प्रावधान नही बनाया था। एल. चन्द्र कुमार के मामले मे सर्वोच्च न्यायालय ने अपने स्तर पर अपील की एक नई प्रक्रिया निर्धारित की है और उसका यह कार्य संविधान प्रदत्त शक्तियों के विभाजन के सिद्धान्त के प्रतिकूल है। इसलिए चीफ जस्टिस आफ इण्डिया को स्वप्रेरणा से एल. चन्द्र कुमार बनाम यूनियन आफ इण्डिया (1997-3-एस.सी.सी. पेज 261) में पारित निर्णय को पुनर्विचार के लिए बृहद पीठ के समक्ष संदर्भित करना चाहिये या भारत सरकार को एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल एक्ट 1985 में संशोधन करके अधिनियम में ही  अपीलीय प्राधिकारी की नियुक्ति उनकी शक्तियों और अपील प्रक्रिया का प्रावधान कर देना चाहिये।

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