Sunday, 4 May 2014

मजीठिया बेज बोर्ड सुप्रीम कोर्ट ने समझी पत्रकारों की व्यथा......

सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बावजूद अधिकांश समाचार पत्रों ने अपने कर्मचारियों को मजीठिया बेज बोर्ड की सिफारिशों के अनुरूप वेतन नही दिया इसलिए दिनांक 7 मई 2014 को देय एरियर की प्रथम किश्त के भुगतान की बात सोचना भी अपराध है। एक्सप्रेस न्यूज पेपर (पी) लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए.आई.आर-1958-एस0सी0 पेज 158) में पारित निर्णय से लेकर कुछ ही दिन पूर्व पारित निर्णय ए.बी.पी. (पी) लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया (2014-3-एस.सी.सी.- पेज 327) के बीच कई दशक बीत चुके है परन्तु अपने कर्मचारियों के प्रति अखबार मालिको के शोषक रवैये मे कोई तब्दीली नही आई है बल्कि अब तो आठ घण्टे से ज्यादा काम लेने भविष्यनिधि ग्रेच्युटी आदि सामाजिक सुविधाओं के लाभ से वंचित रखने के दुराशय से समाचार संकलन लेखन सम्पादन जैसे स्थायी प्रकृति के कामों के लिए संविदा नियुक्तियों की वरीयता मे किसी को कोई झिझक नही होती जबकि इस प्रकार की नियुक्तियाँ भारत की संवैधानिक लोकनीति के प्रतिकूल है।
मजीठिया बेज बोर्ड की सिफारिशों को संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 19 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के प्रतिकूल बताने वाले अखबर मालिकों ने स्वेच्छा से अपने कर्मचारियों को सम्मान जनक जीवन जीने लायक वेतन और अन्य सुविधायें देने के लिए अपने स्तर पर कभी कोई पहल नही की है और दूसरी और पत्रकारों गैर पत्रकारों की आर्थिक, सामाजिक, बेहतरी के लिए सरकारी प्रयासो मे रोडा अटकाते रहे है। वर्किंग जर्नलिस्ट एण्ड अदर्स न्यूज पेपर इम्पलाइज (कन्डीशन आफ सर्विस) एण्ड मिसलेनियस प्रोवीजन एक्ट 1955 के समय से सेवायोजकों का रवैया कर्मचारी विरोधी रहा है जबकि इन्ही कर्मचारियों की मेहनत निष्ठा एवं लगन के बल पर प्रेम की स्वतन्त्रता के अधिकार का भरपूर दोहन करके सेवायोजको ने अपना अखिल भारतीय आर्थिक साम्राज्य स्थापित किया है और इन्ही कर्मचारिया को उनके जोखिम भरी कार्य की प्रकृति के अनुरूप वेतन देने के लिए अपने आपको आर्थिक दृष्टि से अक्षम बताने में उन्हें कोई शर्म नही आती।
मजीठिया बेज बोर्ड के गठन के पूर्व केन्द्र सरकार ने अलग अलग अवसरों पर दिवेटिया, शिन्दे, पालेकर, बछावत एवं मनिसाना बेज बोर्डो का गठन किया था। दिवेटिया बेज बोर्ड की अनुशंसाओं के विरूद्ध एक्सप्रेस न्यूज पेपर लिमिटेड ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उसके बाद शिन्दे बेज बोर्ड की अनुशंसाओं के विरूद्ध प्रेस ट्रस्ट आफ इण्डिया ने याचिका दाखिल की। पालेकर बेज बोर्ड का भी अखबार के मालिको ने विरोध किया। बछावत एवं मनिसाना बेज बोर्ड की अनुशंसाओं को भी न्यायालय में चुनौती दी गई थी। हलाँकि मनिसाना बेज बोर्ड की अनुशंसाओं को अधिकांश समाचार पत्रों ने अपने यहाँ लागू कर दिया था। मजीठिया बेज बोर्ड की अनुशंसाओं को केन्द्र सरकार द्वारा स्वीकार किये जाने के बाद उसे अपास्त कराने के लिए पूर्व की भाँति पुनः अखबार मालिको ने उसके विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल की है और उसमें आरोप लगाया कि 1955 मे अधिनियमित वर्किग जर्नलिस्ट (कन्डीशन आफ सर्विस) एण्ड मिसलेनियस प्रोवीजन्स एक्ट अनुपयोगी हो चुका है। उन्होंने मजीठिया वेतन आयोग के गठन में प्रक्रियागत अनियमितताओं का भी आरोप लगाया और उसकी सिफारिशों को संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 19 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकारों के प्रतिकूल बताया है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष ए.बी.पी.(पी) लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया में सुनवाई के दौरान मालिको ने अखबार उद्योग में ठेका प्रथा को पुर्नजीवित करने की वकालत की है। उनकी तरफ से कहा गया कि उदारीकरण के बाद आर्थिक परिदृश्य एकदम बदल गया है तद्नुसार अब पत्रकारों गैर पत्रकारों की सेवा शर्तो को सरकारी स्तर पर नियन्त्रित करने की कोई आवश्यकता नही रह गई है। सभी विशेषज्ञ पत्रकार संविदा पर कार्य करना पसन्द करते है। उन्हें आपसी बातचीत के द्वारा निर्धारित वेतनमान से ज्यादा बेहतर वेतन और सुविधायें प्राप्त हो जाती है। मालिको ने बताया कि इण्टरनेट डिजिटल मीडिया न्यूज चैनल्स और विदेशी समाचार पत्रों के साथ कम्पटीशन का दौर है इसलिए पहले की तुलना में अब सभी स्तरों पर उच्च स्तरीय विद्वता की जरूरत है जो संविदा पर ही उपलब्ध हो सकती है। ऐसी दशा में बेज बोर्ड की उपयोगिता खत्म हो चुकी है।
एक्सप्रेस न्यूज पेपर (पी) लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए.आई.आर.-1958-एस.सी.-पेज 578) के द्वारा दिवेटिया बेज बोर्ड की अनुशंसायें अपास्त हो जाने और फिर केन्द्र सरकार द्वारा वर्किग जर्नलिस्ट (फिक्सेशन आफ रेट्स आफ बेजेस) एक्ट 1958 पारित किये जाने के बाद से आज तक अखबार के मालिको ने स्वेच्छा से अपने कर्मचारियों के वेतन भत्तो में कभी कोई बढोत्तरी नही की है और न टेªड यूनियन बनाने के उनके अधिकार को कभी कोई सम्मान दिया है। न्यूज पेपर इण्डस्ट्री में प्रत्येक स्तर पर शोषण अन्याय एवं विषमता बरकरार है। आज भी पत्रकारों को पाँच सात हजार रूपये मासिक पर कार्य करने के लिए विवश किया जाता है। महिला कर्मचारियों को मातृत्व अवकाश से सदा वंचित रखा जाता है। मुम्बई में श्रम न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद महिला पत्रकार को मातृत्व अवकाश प्राप्त हुआ है। मजीठिया बेज बोर्ड की अनुशंसाओं को केन्द्र सरकार द्वारा स्वीकार किये जाने और फिर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसकी पुष्टि कर दिये जाने के बाद पत्रकारों में उसके लाभो को पाने की एक आशा जगी है, परन्तु मालिको के स्तर पर उसे निराशा मे बदलने के लिए षड्यन्त्र जारी है।
सर्वोच्च न्यायालय ने पत्रकारों की दशा और उनकी व्यथा को अच्छी तरह समझा है। अखबार मालिको की सभी आपत्तियों पर तर्क संगत विचार करके न्यायालय ने उसे खारिज किया है। मालिको की तरफ से पत्रकारों को विशेष दर्जा दिये जाने का विरोध किया गया है। उनकी आपत्तियों को दरकिनार करते हुये निर्णय में कहा गया है कि यह सच है कि अन्य उद्योगों में कर्मचारियों को समय के अनुरूप बेहतर बेतन भत्ते आदि सुविधायें नही दी जा सकी है परन्तु इसका यह अर्थ नही है कि समाचार पत्रों के कर्मचारियों को भी उन सभी सुविधाओं से वंचित रखा जाये। न्यूज पेपर इण्डस्ट्री अपने आप मे एक क्लास है और उसे उस रूप में बेहतर सुविधायें उपलब्ध कराने से किसी के संवैधानिक अधिकारों का हनन नही होता है। मजीठिया बेज बोर्ड ने समाचार पत्रों की वित्तीय क्षमता का आंकलन करने के लिए उनके अखिल भारतीय टर्न ओवर के आधार पर उन्हें आठ भागों में वर्गीकृत किया है। इसके पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने इण्डियन एक्सप्रेस न्यूज पेपर्स (पी) लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया (1996-एस.सी.सी.-एल.एण्ड एस.-पेज 243) में प्रतिपादित किया था कि कर्मचारियों के वेतन भत्तो के निर्धारण के लिए किसी समाचार पत्र का अखिल भारतीय स्तर पर किया गया वर्गीकरण विधिविरूद्ध नही है। 
समाजवादी विचारक डा. राम मनोहर लोहिया की मृत्यु के बाद अपने देश में विभिन्न स्तरों पर कर्मचारियों के वेतन के अन्तर को कम कराने का आन्दोलन समाप्त हो गया है। वे किसी भी स्तर के कर्मचारी को न्यूनतम वेतन से दस गुने से ज्यादा वेतन दिये जाने को अनुचित बताते थे। अब एक ही उद्योग में अलग अलग कर्मचारियों के वेतन में कई गुने का अन्तर है और इस नीति को सभी स्तरों पर स्वीकार कर लिया गया है। इसलिए पत्रकारों और अन्य उद्योगों के कर्मचारियों के वेतन के अन्तर को अनुच्छेद 14 के प्रतिकूल बताना न्यायसंगत नही है। वास्तव में पत्रकारों के कार्य की प्रक्रति अन्य उद्योगो के कर्मचारियों से एकदम पृथक होती है। उनका जीवन हर समय खतरे में रहता है। सभी समाचार पत्र प्रातःकाल आते है। इसलिए पत्रकारो को संस्करण प्रकाशित होने के पूर्व एक निश्चित समय सीमा के अन्दर सभी सूचनाओं को उपलब्ध कराने की अनिवार्यता झेलनी पड़ती है। वे कोई सूचना कल के लिए नही टाल सकते। उनके द्वारा संकलित सूचनाओं की गुणवत्ता से उनके कार्य का मूल्यांकन होता है। हर क्षण वे दबाव में होते है इसके बावजूद कार्यकाल की असुरक्षा उनकी नौकरी का एक आवश्यक अंग बन चुका है। अन्य उद्यागों में इस प्रकार की असुरक्षा नही होती है। इस प्रोफेशन में अन्य की तुलना में ज्यादा बेरोजगारी है और इसी कारण मालिको या उनके मुँहलगे सम्पादक की निजी संतुष्टि के लिए संसद कवर करने वाले पत्रकार को किसी छोटे शहर का नगर निगम कवर करने का फरमान इस उद्योग में एक आम बात है। पत्रकारों के वेतन भत्तों आदि सुविधाओं को उनकी कार्य की प्रकृति के कारण विशेष रूप से देखा जाना जरूरी है। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने एक्सप्रेस पब्लिेकशन (मदुरई) बनाम यूनियन आफ इण्डिया (2004-11-एस.सी.सी.-पेज 526) मे प्रतिपादित किया था कि अखबारों के प्रकाशन में कर्मचारियों की महती भूमिका है और उनकी बेहतरी के लिए बनाई गई विधि से प्रेस की स्वतन्त्रता किसी भी दशा में बाधित नही होती। निर्णय में कहा गया है कि कर्मचारियों को सुविधाये उपलब्ध कराने के लिए मालिको पर पडने वाले आर्थिक बोझ को किसी भी दशा में ‘हार्स ट्रीटमेन्ट’ नही माना जा सकता। आर्थिक अक्षमता वाले तर्क को अमान्य करते हुये कहा गया है कि अपने कर्मचारियो को बेहतर सुविधाये देना अखबार का दायित्व है और इसका अनुपालन वे कैसे करेंगे यह उनकी चिन्ता का विषय है। प्रेस की स्वतन्त्रता का इससे कोई सम्बन्ध नही है।

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