मन ही मन अच्छे दिन आयेंगे की कल्पना करता हुआ आज अचानक कालपी रोड कानपुर नगर स्थित जे.के. मैन्यूफैक्चर्स (कैलाश मिल) के सामने पहुँच गया, जहाँ मैंने हाई स्कूल पास करने के बाद अपना कैरियर शुरू किया था। मेरे पिता भी इसी मिल में मजदूरी करते थे। यह मिल हमारे परिवार की आर्थिक सुरक्षा की गारण्टी थी। हँसी खुशी का माध्यम था। एक दिन अचानक इस मिल में उत्पादन बन्द हो गया और सभी मजदूर बेरोजगार हो गये। सबको अपने परिवार के भरण पोषण के लिए दर दर की ठोकरे खानी पड़ी। फिर आया वर्ष 1977 का वह दौर जब हम सबने सुना ‘डरो मत अभी हम जिन्दा है’ आशा जगी विश्वास हुआ कि नई सरकार बनने के बाद मिल चलेगी और हमे हमारी खुशियाँ वापस मिल जायेंगी लेकिन नई सरकार आई फिर चली भी गई लेकिन मिल नही खुली। इस बीच बच्चे बडे हो गये, उनकी पढाई छूट गई, लडकियाँ सयानी हो गईं और उनकी शादी के लिए दहेज न जुटा पाने की चिन्ता में कईयों को आत्म हत्या करनी पड़ी, लेकिन शहर के कर्णधारों की सेहत पर कोई असर नही पड़ा।
ग्यारह कपडा मिलों और कई उद्योगों को अपने में समेटे कानपुर उत्तर भारत का मैनचेस्टर हुआ करता था। जाति धर्म और भाषा का कोई विभेद किये बिना कानपुर सबको अपने आँचल की छाँव में रोजी रोटी कमाने का अवसर देता था। पढे लिखे बाबू साहब टाइप लोग बताया करते है कि इन मिलो को मजदूर नेताओं विशेषकर लाल झण्डे वालों ने बन्द करा दिया है। इस बात को सच भी मान लिया जाये तो कोई बाबू साहेब कभी नही बताते कि इन मिलों को उनकी पूरी क्षमता से चलाने के लिए मिल मालिको को किसने रोका था ? कौन सी मिल श्रमिकों की हड़ताल के कारण बन्द हुई है ? इन बाबू साहेब लोगो को कुछ भी नही मालूम इन्हें किसी न किसी की लहर में वस्तुस्थिति के प्रतिकूल अर्नगल दोषारोपण करने की आदत है और इसी प्रकार के लोगों ने पूरे मजदूर आन्दोलन और संघर्ष की राजनीति को उद्योग विरोधी बताने का अभियान चलाकर मजदूरो को एक बार फिर पूँजीपतियों के शोषण का शिकार बना दिया है।
आज धर्म और जाति के प्रचार प्रसार ने गरीबी नही गरीब की पहचान मिटा दी है। गरीबी, अशिक्षा, बीमारी और असमानता के खिलाफ संघर्ष करने वालों को अप्रासांगिक मानने की मानसिकता ने संघर्ष की राजनीति को मटियामेट कर दिया है। कैलाश मिल के गेट पर मुझे वे दिन भी याद आये जब कपडा उद्योग के लिए के.के. पाण्डेय एवार्ड की अनुशंसाओं के विरोध में कई दिनांे तक मजदूरों ने लखनऊ मुम्बई रेल मार्ग को अवरूद्ध रखा और उसके प्रभाव में अन्ततः सरकार ने के.के. पाण्डेय एवार्ड को ही खारिज कर दिया। इस आन्दोलन की लहर पर सवार होकर तत्कालीन श्रमिक नेता सुभाषिनी अली लोक सभा और शिव कुमार बेरिया एवं गणेश दीक्षित विधान सभा के लिए निर्वाचित हुये। इन सबकी जीत के बाद फिर एक बार श्रमिकों में आशा जगी सबने सोचा कि अपने बीच के ये लोग केन्द्र सरकार और राज्य सरकार पर दबाव बनवाकर मिलो की दशा को सुधारने अर्थात श्रमिको के आर्थिक उत्थान के लिए कोई सार्थक नीतिगत खाका तैयार करायेंगे। इन लोगों ने भी मिलों की दशा को सुधारने का कोई प्रयास नही किया बल्कि इनके कार्यकाल में लोहिया स्कूटर के श्रमिको पर पुलिस ने गोली चलाई कई श्रमिक शहीद हुये और कई लोग नौकरी से निकाल दिये गये। इस दौरान प्रदेश में डाक्टर राम मनोहर लोहिया के कथित अनुयायी मुलायम सिंह यादव मुख्यमन्त्री थे और उन्होंने श्रमिको पर गोली चलाने का आदेश देने वाले अधिकारियों को दण्डित करने का कोई प्रयास नही किया जबकि उनके नेता डाक्टर राम मनोहर लोहिया जन आन्दोलनों के दौरान आन्दोलनकारियों पर लाठी गोली चलाने के सख्त विरोधी थे और उन्होंने श्रमिको पर गोली चलाने पर अपनी ही पार्टी की केरल सरकार से इस्तीफा माँगा था। 1977 की तरह फिर एक बार आम श्रमिकों की आशाओं पर तुषारापात हुआ और श्रमिको ने अपने आपको ठगा हुआ महसूस किया।
आशाओं पर तुषारापात की यादों के बीच मुझे रिक्शे वाले खोमचे वाले गली मुहल्लो में सडक किनारे सब्जी बेचने वाले वे लोग एक बार फिर याद आये जो पिछले दिनों चुनाव प्रचार के दौरान ‘‘अबकी बार मोदी सरकार’’ का उद्घोष करते दिखाई देते थे। इन सब लोगों में ‘अच्छे दिन आने वाले है’ की आशा जगी है। सबने सुना है कि गुजरात में गरीब अमीर का भेद किये बिना सभी बच्चे स्कूल जाने लगे है। कोई बेरोजगार नही है, सभी को जीवन जीने लायक रोजी मिल जाती है इसलिए अब वे अपने प्रदेश में भी इन्हीं परिस्थितियों की कल्पना करने लगे है लेकिन इस प्रकार की कल्पना मुझे डराती है, पुरानी निराशाओं की याद दिलाती है।
वर्ष 1991 में वित्त मन्त्री के रूप में मनमोहन सिंह द्वारा पदभार ग्रहण करने और दिनांक 17 मई 2014 को प्रधानमन्त्री के पद से उनके त्याग पत्र देने की अवधि में अपने देश ने नेहरूवादी आर्थिक माडल को तिलांजलि देकर मनमोहन सिंह के आर्थिक उदारवाद को अपनाया है और इसके द्वारा देश के मध्यम वर्ग को अमीर बनने का सपना दिखाया गया है। बडे पैमाने पर कारखानों को बन्द करके श्रमिको को स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के लिए मजबूर किया गया। विनिवेश के नाम पर सार्वनजिक क्षेत्र की परिसम्पत्तियों को बेचा गया और पूरे देश में नये सिरे से ठेकेदारी की प्रथा को पुर्नजीवित करने का पाप किया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र में निजी क्षेत्र से ज्यादा ठेका श्रमिको की संख्या इस तथ्य की पुष्टि करती है।
अपना लोकतान्त्रिक समाजवादी गणराज्य केन्द्र सरकार से आदर्श नियोक्ता होने की अपेक्षा करता है। संविधान के डाइरेक्टिव प्रीन्सिपल्स उसकी आत्मा है और उसके अनुसार राज्य अपने नागरिको के बीच आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसाओं में लगे हुये लोगो के समूहो के बीच भी प्रतिष्ठा सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा। राज्य का यह भी दायित्व है कि पुरूष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालको की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न होने दे और सुनिश्चित कराये कि आर्थिक आवश्यकताओं से विवश होकर नागरिको को ऐसे रोजगारों मे न जाना पडे जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हो। स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति के नाम पर जबरन बेरोजगार किये गये श्रमिक अपनी वृद्धावस्था में रिक्शा चलाकर अपना पेट पालने को मजबूर है। बेरोजगार परिवार की आर्थिक जरूरतो में हाथ बटाने के लिए पढने की उम्र मे बच्चो को ढावो और चाय की दुकानों में बँधुवा जीवन जीने की विवशता झेलने को अभिशप्त होना पडा है। इस प्रकार के सभी लोग एक बार फिर अच्छे दिन आने वाले है की कल्पना में मगन है।
जाति धर्म की श्रेष्ठता के अहसास ने आम लोगो को और ज्यादा गरीब बना दिया है। कालेजो विश्व विद्यालयों से लेकर कल कारखानों तक सभी स्तरों पर अन्याय शोषण असमानता के विरूद्ध संघर्ष के दीवाने इन्ही परिवारों से आते थे। गरीबी भूख बीमारी से उनका सीधा नाता था। उनकी वाणी से नकली गुस्सा नही, भोगा सच निकलता था। आज का नेतृत्व सुख सुविधा और परिवार वाद की उपज है, उसे आन्दोलन से नफरत है। उसके पास संघर्ष का कोई इतिहास नही है। वह खुद पूँजीपतियों के क्लब में शामिल होने के लिए जद्दोजहद करता दिखता है इसलिए जनहित के मुद्दे पर संसद में प्रश्न पूँछने के लिए पैसा माँगने मे उसे कोई शर्म नही आती। किसी भी दल के टिकट पर चुनाव लडना उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता नही होती केवल जीत के समीकरणों के साथ तालमेल बैठाने के लिए वे एक साथ कई दलों में टिकट माँग लेते है। ऐसे लोग ही आज हर जगह प्रभावशाली है इसलिए मेरा मन अच्छे दिन आने वाले है की कल्पना करते ही डरने लगता है। मुझे नही दिखता कोई ऐसा चेहरा जो देश के जल, जंगल, जमीन और आर्थिक संसाधनों का निजी लाभ के लिए दोहन करने वाले तत्वो को संसद में बेनकाब कर सके।
मैनचेस्टर से कस्बा बनने की यात्रा के दौरान कानपुर को सभी राजनीतिक दलों ने निराश किया है। सभी ने आशायें जगाकर उससे वोट लिये, अपनी सरकारें बनाई परन्तु उसके आर्थिक कायाकल्प के लिए संजीवनी देने हेतु कुछ भी नही किया। 21वीं सदी है, सबको मालूम है कि खुशियाँ आश्वासन से नही कुछ करने से मिलती है। आज के परिप्रेक्ष्य में कानपुर के लिए कुछ करने का मतलब है कि राज्य या केन्द्र सरकार के स्थानीय नीति निर्धारक अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर बिना कोई देरी किये नये उद्यमियों को कानपुर की ओर आकृष्ट करें और उन्हें सड़क, बिजली, पानी, सुरक्षा जैसी आधारभूत सुविधायें उपलब्ध कराये और फिर उन्हें श्रमिको को उनका वाजिब हक देने के लिए मजबूर करें। समस्या कानपुर में नही है, लोगों में नही है, समस्याओं की जड़ में प्रभावशाली लोग है जो अब कानपुर को प्रापर्टी डीलर के नजरिये से देखते है। उन्हें सुधरना होगा, खुद सुधरें, या सरकार उन्हें सुधारे। कानपुर का नौजवान अपने शहर को फिर से मैनचेस्टर बनाने के लिए अपना सर्वोत्तम समर्पित करने को प्रतिबद्ध है और उसकी प्रतिबद्धता उसकी कोई मजबूरी नही उसके हृदय की आवाज है। इस पदचाप को सुन रहे हैं न .......?
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