Sunday, 25 May 2014

बार एसोसियेशन के चुनाव खर्चो में संस्थागत अंकुश समय की जरूरत ....

कानपुर बार एसोसियेसन के चुनाव प्रचार में जेठ की दुपहरिया की तरह तपन बढ़ गई है। धन बल के सहारे सभी अपने प्रतिद्वन्दी पर बढत का भ्रम बनाये हुये है। इतनी भीषण गर्मी में लू लपट के बीच घर घर जाकर वोट माँगना अब मजबूरी बन गया है। रोज शाम को कही न कहीं कोई न कोई प्रत्याशी औसतन दो सौ लोगों को भोजन करा रहा है। इसके पहले प्रत्याशियों ने अपने समर्थक मतदाताओं का सदस्यता शुल्क भी जमा किया है। बताया जाता है कि महामन्त्री पद के एक प्रत्याशी ने करीब पन्द्रह सौ समर्थको का सदस्यता शुल्क लगभग चार लाख रूपया एक मुश्त जमा किया है। संयुक्त मन्त्री पद के प्रत्याशियों में धनबल के प्रदर्शन की जबर्दस्त होड लगी है। कोई किसी से किसी मामले में पीछे दिखना ही नही चाहता और उसके कारण चुनाव व्यय जरूरत से कही ज्यादा बढ गया है और अब कोई आम अधिवक्ता चुनाव लडने के बारे में सोच भी नही सकता। 
बार एसोसियेशन अपने गठन के समय से एक आन्दोलन रही है कभी ट्रेड यूनियन नही रही है। शोषण अन्याय अत्याचार और असमानता के विरूद्ध जन संघर्षो में उसकी सहभागिता आम लोगों के लिए प्रेरणास्पद रही है। आजादी की लडाई में उसके संस्थापक सदस्यों पण्डित पृथ्वीनाथ चक, मोती लाल नेहरू, कैलाश नाथ काटजू की सक्रिय सहभागिता इतिहास का पन्ना है। आजादी के बाद देश के प्रथम विधि मन्त्री और मध्य प्रदेश के प्रथम मुख्यमन्त्री के पद को सुशोभित करके कैलाश नाथ काटजू ने कानपुर बार एसोसियेशन को गौरवान्वित किया है, परन्तु हमने अपने व्यक्तिगत विवादों के कारण उनके शताब्दी वर्ष में उनकी मूर्ति का अनावरण बार एसोसियेशन परिसर में नही होने दिया। उनके पौत्र और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू को शताब्दी समारोह का आयोजन कचहरी के बाहर करने के लिए विवश हुये। देश के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के शताब्दी वर्ष में 10 फरवरी 1957 को गुलामी का प्रतीक महारानी विक्टोरिया की मूर्ति को नेस्तनाबूद करने के कारण नेहरू सरकार के आदेश पर चार माह तक जेल में निरूद्ध रहने का गौरव भी इसी एसोसियेशन के सदस्य और बाद में महामन्त्री हुये श्री एन.के. नायर एवं उनके साथियो को प्राप्त है।
अपने गठन की शुरूआत से ही कानपुर बार एसोसियेशन जाति, धर्म, सम्प्रदाय क्षेत्र की भावनाओं से ऊपर रही है। सदस्यों के राजनैतिक मतभेद एसोसियेशन के पटल पर सदैव प्रभावहीन रहे है। सभी एसोसियेशन की गरिमा और उसके प्रोटोकाल को सर्वोपरि मानते है और इसी सबके कारण अध्यक्ष पद के चुनाव में प्रख्यात साम्यवादी विचारक सुल्तान नियाजी को अपने धुर विरोधी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बैरिस्टर नरेन्द्र जीत सिंह का समर्थन करने में कोई झिझक महसूस नही हुई। उन्होंने समर्थन देते समय कहा था कि उनके मध्य राजनैतिक मतभेद जगजाहिर है परन्तु बार एसोसियेशन के अध्यक्ष पद के लिए वे सर्वश्रेष्ठ प्रत्याशी है लेकिन अब एसोसियेशन के चुनाव में इस प्रकार की भावनायें विलुप्त हो गई है। राजनैतिक दलों की तरह जीत के लिए जाति, धर्म, सम्प्रदाय क्षेत्र के आधार पर रणनीति बनाई जाने लगी है। अब अधिकांश लोग वोट देते समय प्रत्याशी के व्यक्तिगत गुणो की तुलना में उसकी जाति को वरीयता देते है।
बार काउन्सिल के हस्तक्षेप के बाद अब माडल बाई लाज के आधार पर चुनाव कराये जाते है। कार्यकाल पूरा होते ही एल्डर कमेटी एसोसियेशन का कार्यभार अपने नियन्त्रण मे ले लेती है और वही अगली कार्यकारिणी का चुनाव कराती है। एल्डर कमेटी ने चुनाव प्रचार के लिए आचार संहिता भी घोषित की है परन्तु बढ चढ कर उसका उल्लंघन सभी प्रत्याशी खुले आम करते है और उसे रोक पाना सम्भव नही हो पा रहा है।
चुनाव प्रचार में खर्च की कोई सीमा निर्धारित न होने के कारण महामन्त्री के पद के लिए किसी भी प्रत्याशी को कम से कम दस लाख रूपये व्यय करने पडते है। सैकड़ो की संख्या में डिफाल्टर सदस्यों का सदस्यता शुल्क जमा कराने से लेकर मतदान के दिन सभी के लिए लन्च पैकेट बँटवाने तक कई जायज नाजायज मदों में अनाप शनाप खर्च आज चुनावी आवश्यकता बन गई है। विजिटिंग कार्ड पर मोहर लगाकर वोट माँगने की प्रथा एकदम खत्म हो गई है। इस तरह के चुनाव प्रचार की बाते करना भी वर्जित है। अब तो पम्पलेट पोस्टर बैनर यदि विपक्षी से ज्यादा चमकीला और बडा न हो तो प्रत्याशी के समर्थक मायूस हो जाते है और कोई नही चहता कि प्रचार के दौरान उनके समर्थक मायूस हो।
बार एसोसियेशन के चुनाव में बाहरी लोगों की रूचि और सक्रियता चिन्ता का विषय है। इस प्रकार के निहित स्वार्थी तत्वों का केवल अपने स्वार्थ से मतलब होता है और वे पूँजी निवेश की तरह सभी की आर्थिक मदद करने को तत्पर रहते है। ऐसे लोगों को बेनकाब करने की जरूरत है। पिछले दिनों एक हाउसिंग सोसाइटी के सचिव ने किसी फर्जी आदमी को रमेश चन्द्र बनाकर असली रमेश चन्द्र की कई एकड़ जमीन अपने नाम ट्रान्सफर करा ली। इस संव्यवहार में प्रभावशाली पदाधिकारी के पुत्र का नाम प्रकाश में आया है। उनके विरूद्ध थाना कोतवाली में आपराधिक धाराओं में नामजद मुकदमा पंजीकृत है परन्तु एसोसियेशन की धमक के कारण पुलिस उन्हें गिरफ्तार नही कर रही है और उन्ही के सहारे हाउसिंग सोसाइटी का सचिव भी गिरफ्तारी से बचा हुआ है। ऐसे किस्से अब आम हो गये है जो कचहरी के लोकतन्त्र के लिए हितकर नही है। कचहरी के लोकतन्त्र से लोक को अप्रासांगिक होने से बचाने के लिए आवश्यक है कि चुनाव प्रचार के व्यय पर संस्थागत रोक लगाई जाये। 
बेलगाम चुनाव खर्च के कारण आज कोई महिला अधिवक्ता महामन्त्री या अध्यक्ष पद का चुनाव लडने का साहस नही कर पाती। बार एसोसियेशन के 128 वर्ष के इतिहास में अभी तक कोई महिला अध्यक्ष या महामन्त्री के पद पर निर्वाचित नही हो सकी है जबकि संख्या और व्यवसायिक कुशलता की दृष्टि से उनकी उल्लेखनीय साझेदारी है और वे एक जुट होकर चुनाव परिणामों को अपने तरीके से प्रभावित करने में सक्षम है। बार काउन्सिल को इस दिशा में आगे बढकर पहल करनी चाहिये। चुनाव खर्च की सीमा निर्धारित करने के लिए आवश्यक सुसंगत खर्चो की एक सूची बनाई जाये। कचहरी के बाहर किसी भी प्रकार से चुनाव प्रचार की अनुमति न दी जाये। प्रचार के दौरान सांय कालीन भोजो और कचहरी के अन्दर सामूहिक अल्पाहारो पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये। इस प्रकार की व्यवस्थायें लागू हो जाने के बाद आम अधिवक्ता भी चुनाव लडने का साहस करने लगेगा। चुनाव प्रक्रिया मे आम लोगो की सक्रिय सहभागिता के अतिरिक्त अन्य कोई तन्त्र कचहरी के बाहर के निहित स्वार्थी तत्वों को बार एसोसियेशन चुनाव से बाहर रखने में सक्षम नही है।
बार एसोसियेशन का गौरवमयी इतिहास है पदाधिकारी चुने जाने के बाद बैरिस्टर नरेन्द्र जीत सिंह, एन.के. नायर, युधिष्ठिर तालवाड, ओंकार नाथ सेठ, गोपी श्याम निगम, गोपाल कृष्ण पाण्डेय, विश्वनाथ कपूर आदि ने अपने सम्पूर्ण कार्यकाल के दौरान निषेधाज्ञा या जमानत के किसी नये मामले में अपना वकालतनामा दाखिल नही किया है और न अदालत के समक्ष उपस्थित हुये। अपनी शालीनता और व्यवसायिक कुशलता के बल पर वे प्रशासनिक एवं न्यायिक अधिकारियों पर अपना दबाव बनाते रहे है। व्यवसायिक कुशलता, सहिष्णुता और सामने वाले के विचारों का आदर इस पेशे की विशिष्टता है। इस विशिष्टता को सतत् बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि बार एसोसियेशन अपने नये सदस्यों को अपने गौरवमयी इतिहास से अवगत कराने का कोई तन्त्र विकसित करे। 
राजनैतिक क्षेत्र में भी कानपुर बार एसोसियेशन के सदस्यों की उल्लेखनीय सहभागिता रही है। देश के प्रथम विधि मन्त्री कैलाश नाथ काटजू विधान परिषद अध्यक्ष वीरेन्द्र स्वरूप विधान सभा अध्यक्ष हरि किशन श्रीवास्तव, सुखराम सिंह यादव, जनसंघ विधायक दल के नेता गंगा राम तालवाड, श्रम मन्त्री गणेश दत्त बाजपेई, कृषि मन्त्री चैधरी नरेन्द्र सिंह, वर्तमान केन्द्रीय संसदीय कार्य राज्य मन्त्री राजीव शुक्ल, रेशम वस्त्र मन्त्री शिव कुमार बेरिया ने अपना राजनैतिक परचम बार एसोसियेशन के सदस्य के नाते फैलाया है। इन लोगों ने बार एसोसियेशन को शोषण अन्याय अत्याचार और असमानता के विरूद्ध जन संघर्षो में अपना हथियार बनाया और आम लोगों को न्याय दिलाने और उनके मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अपनी व्यवसायिक कुशलता का प्रयोग किया है, परन्तु शनै शनै कानपुर बार एसोसियेशन अपनी गौरवमयी गाथा को भूलने लगी है। जाति धर्म के गुणा भाग और अपना मासिक सदस्यता शुल्क जमा न करने की बढ़ती प्रवृत्ति ने त्याग और संघर्ष के वातावरण को विषाक्त कर दिया है। शालीनता से होने वाले चुनाव गैर अधिवक्ता पेशेवर अधिवक्ता नेताओं के हस्तक्षेप के कारण टेम्पो हाई है के नारो और जुलूसों के बीच होने लगे है। धन बल पर चुनाव जीता जा रहा है। व्यक्तिगत स्तर पर सभी इससे व्यथित है, उसे बुरा बताते है, सुधार चाहते है परन्तु खुद अपना मासिक सदस्यता शुल्क नियमित रूप से जमा करके सुधार हेतु आगे बढकर पहल करने के लिए कोई तैयार नही है।

Sunday, 18 May 2014

डरो मत हम जिन्दा हैं के उद्दघोष से अच्छे दिन आने वाले हैं, के बीच का मेरा सच ................

मन ही मन अच्छे दिन आयेंगे की कल्पना करता हुआ आज अचानक कालपी रोड कानपुर नगर स्थित जे.के. मैन्यूफैक्चर्स (कैलाश मिल) के सामने पहुँच गया, जहाँ मैंने हाई स्कूल पास करने के बाद अपना कैरियर शुरू किया था। मेरे पिता भी इसी मिल में मजदूरी करते थे। यह मिल हमारे परिवार की आर्थिक सुरक्षा की गारण्टी थी। हँसी खुशी का माध्यम था। एक दिन अचानक इस मिल में उत्पादन बन्द हो गया और सभी मजदूर बेरोजगार हो गये। सबको अपने परिवार के भरण पोषण के लिए दर दर की ठोकरे खानी पड़ी। फिर आया वर्ष 1977 का वह दौर जब हम सबने सुना ‘डरो मत अभी हम जिन्दा है’ आशा जगी विश्वास हुआ कि नई सरकार बनने के बाद मिल चलेगी और हमे हमारी खुशियाँ वापस मिल जायेंगी लेकिन नई सरकार आई फिर चली भी गई लेकिन मिल नही खुली। इस बीच बच्चे बडे हो गये, उनकी पढाई छूट गई, लडकियाँ सयानी हो गईं और उनकी शादी के लिए दहेज न जुटा पाने की चिन्ता में कईयों को आत्म हत्या करनी पड़ी, लेकिन शहर के कर्णधारों की सेहत पर कोई असर नही पड़ा। 
ग्यारह कपडा मिलों और कई उद्योगों को अपने में समेटे कानपुर उत्तर भारत का मैनचेस्टर हुआ करता था। जाति धर्म और भाषा का कोई विभेद किये बिना कानपुर सबको अपने आँचल की छाँव में रोजी रोटी कमाने का अवसर देता था। पढे लिखे बाबू साहब टाइप लोग बताया करते है कि इन मिलो को मजदूर नेताओं विशेषकर लाल झण्डे वालों ने बन्द करा दिया है। इस बात को सच भी मान लिया जाये तो कोई बाबू साहेब कभी नही बताते कि इन मिलों को उनकी पूरी क्षमता से चलाने के लिए मिल मालिको को किसने रोका था ? कौन सी मिल श्रमिकों की हड़ताल के कारण बन्द हुई है ? इन बाबू साहेब लोगो को कुछ भी नही मालूम इन्हें किसी न किसी की लहर में वस्तुस्थिति के प्रतिकूल अर्नगल दोषारोपण करने की आदत है और इसी प्रकार के लोगों ने पूरे मजदूर आन्दोलन और संघर्ष की राजनीति को उद्योग विरोधी बताने का अभियान चलाकर मजदूरो को एक बार फिर पूँजीपतियों के शोषण का शिकार बना दिया है।
आज धर्म और जाति के प्रचार प्रसार ने गरीबी नही गरीब की पहचान मिटा दी है। गरीबी, अशिक्षा, बीमारी और असमानता के खिलाफ संघर्ष करने वालों को अप्रासांगिक मानने की मानसिकता ने संघर्ष की राजनीति को मटियामेट कर दिया है। कैलाश मिल के गेट पर मुझे वे दिन भी याद आये जब कपडा उद्योग के लिए के.के. पाण्डेय एवार्ड की अनुशंसाओं के विरोध में कई दिनांे तक मजदूरों ने लखनऊ मुम्बई रेल मार्ग को अवरूद्ध रखा और उसके प्रभाव में अन्ततः सरकार ने के.के. पाण्डेय एवार्ड को ही खारिज कर दिया। इस आन्दोलन की लहर पर सवार होकर तत्कालीन श्रमिक नेता सुभाषिनी अली लोक सभा और शिव कुमार बेरिया एवं गणेश दीक्षित विधान सभा के लिए निर्वाचित हुये। इन सबकी जीत के बाद फिर एक बार श्रमिकों में आशा जगी सबने सोचा कि अपने बीच के ये लोग केन्द्र सरकार और राज्य सरकार पर दबाव बनवाकर मिलो की दशा को सुधारने अर्थात श्रमिको के आर्थिक उत्थान के लिए कोई सार्थक नीतिगत खाका तैयार करायेंगे। इन लोगों ने भी मिलों की दशा को सुधारने का कोई प्रयास नही किया बल्कि इनके कार्यकाल में लोहिया स्कूटर के श्रमिको पर पुलिस ने गोली चलाई कई श्रमिक शहीद हुये और कई लोग नौकरी से निकाल दिये गये। इस दौरान प्रदेश में डाक्टर राम मनोहर लोहिया के कथित अनुयायी मुलायम सिंह यादव मुख्यमन्त्री थे और उन्होंने श्रमिको पर गोली चलाने का आदेश देने वाले अधिकारियों को दण्डित करने का कोई प्रयास नही किया जबकि उनके नेता डाक्टर राम मनोहर लोहिया जन आन्दोलनों के दौरान आन्दोलनकारियों पर लाठी गोली चलाने के सख्त विरोधी थे और उन्होंने श्रमिको पर गोली चलाने पर अपनी ही पार्टी की केरल सरकार से इस्तीफा माँगा था। 1977 की तरह फिर एक बार आम श्रमिकों की आशाओं पर तुषारापात हुआ और श्रमिको ने अपने आपको ठगा हुआ महसूस किया। 
आशाओं पर तुषारापात की यादों के बीच मुझे रिक्शे वाले खोमचे वाले गली मुहल्लो में सडक किनारे सब्जी बेचने वाले वे लोग एक बार फिर याद आये जो पिछले दिनों चुनाव प्रचार के दौरान ‘‘अबकी बार मोदी सरकार’’ का उद्घोष करते दिखाई देते थे। इन सब लोगों में ‘अच्छे दिन आने वाले है’ की आशा जगी है। सबने सुना है कि गुजरात में गरीब अमीर का भेद किये बिना सभी बच्चे स्कूल जाने लगे है। कोई बेरोजगार नही है, सभी को जीवन जीने लायक रोजी मिल जाती है इसलिए अब वे अपने प्रदेश में भी इन्हीं परिस्थितियों की कल्पना करने लगे है लेकिन इस प्रकार की कल्पना मुझे डराती है, पुरानी निराशाओं की याद दिलाती है।
वर्ष 1991 में वित्त मन्त्री के रूप में मनमोहन सिंह द्वारा पदभार ग्रहण करने और दिनांक 17 मई 2014 को प्रधानमन्त्री के पद से उनके त्याग पत्र देने की अवधि में अपने देश ने नेहरूवादी आर्थिक माडल को तिलांजलि देकर मनमोहन सिंह के आर्थिक उदारवाद को अपनाया है और इसके द्वारा देश के मध्यम वर्ग को अमीर बनने का सपना दिखाया गया है। बडे पैमाने पर कारखानों को बन्द करके श्रमिको को स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के लिए मजबूर किया गया। विनिवेश के नाम पर सार्वनजिक क्षेत्र की परिसम्पत्तियों को बेचा गया और पूरे देश में नये सिरे से ठेकेदारी की प्रथा को पुर्नजीवित करने का पाप किया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र में निजी क्षेत्र से ज्यादा ठेका श्रमिको की संख्या इस तथ्य की पुष्टि करती है।
अपना लोकतान्त्रिक समाजवादी गणराज्य केन्द्र सरकार से आदर्श नियोक्ता होने की अपेक्षा करता है। संविधान के डाइरेक्टिव प्रीन्सिपल्स उसकी आत्मा है और उसके अनुसार राज्य अपने नागरिको के बीच आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसाओं में लगे हुये लोगो के समूहो के बीच भी प्रतिष्ठा सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा। राज्य का यह भी दायित्व है कि पुरूष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालको की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न होने दे और सुनिश्चित कराये कि आर्थिक आवश्यकताओं से विवश होकर नागरिको को ऐसे रोजगारों मे न जाना पडे जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हो। स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति के नाम पर जबरन बेरोजगार किये गये श्रमिक अपनी वृद्धावस्था में रिक्शा चलाकर अपना पेट पालने को मजबूर है। बेरोजगार परिवार की आर्थिक जरूरतो में हाथ बटाने के लिए पढने की उम्र मे बच्चो को ढावो और चाय की दुकानों में बँधुवा जीवन जीने की विवशता झेलने को अभिशप्त होना पडा है। इस प्रकार के सभी लोग एक बार फिर अच्छे दिन आने वाले है की कल्पना में मगन है।
जाति धर्म की श्रेष्ठता के अहसास ने आम लोगो को और ज्यादा गरीब बना दिया है। कालेजो विश्व विद्यालयों से लेकर कल कारखानों तक सभी स्तरों पर अन्याय शोषण असमानता के विरूद्ध संघर्ष के दीवाने इन्ही परिवारों से आते थे। गरीबी भूख बीमारी से उनका सीधा नाता था। उनकी वाणी से नकली गुस्सा नही, भोगा सच निकलता था।  आज का नेतृत्व सुख सुविधा और परिवार वाद की उपज है, उसे आन्दोलन से नफरत है। उसके पास संघर्ष का कोई इतिहास नही है। वह खुद पूँजीपतियों के क्लब में शामिल होने के लिए जद्दोजहद करता दिखता है इसलिए जनहित के मुद्दे पर संसद में प्रश्न पूँछने के लिए पैसा माँगने मे उसे कोई शर्म नही आती। किसी भी दल के टिकट पर चुनाव लडना उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता नही होती केवल जीत के समीकरणों के साथ तालमेल बैठाने के लिए वे एक साथ कई दलों में टिकट माँग लेते है। ऐसे लोग ही आज हर जगह प्रभावशाली है इसलिए मेरा मन अच्छे दिन आने वाले है की कल्पना करते ही डरने लगता है। मुझे नही दिखता कोई ऐसा चेहरा जो देश के जल, जंगल, जमीन और आर्थिक संसाधनों का निजी लाभ के लिए दोहन करने वाले तत्वो को संसद में बेनकाब कर सके।
मैनचेस्टर से कस्बा बनने की यात्रा के दौरान कानपुर को सभी राजनीतिक दलों ने निराश किया है। सभी ने आशायें जगाकर उससे वोट लिये, अपनी सरकारें बनाई परन्तु उसके आर्थिक कायाकल्प के लिए संजीवनी देने हेतु कुछ भी नही किया। 21वीं सदी है, सबको मालूम है कि खुशियाँ आश्वासन से नही कुछ करने से मिलती है। आज के परिप्रेक्ष्य में कानपुर के लिए कुछ करने का मतलब है कि राज्य या केन्द्र सरकार के स्थानीय नीति निर्धारक अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर बिना कोई देरी किये नये उद्यमियों को कानपुर की ओर आकृष्ट करें और उन्हें सड़क, बिजली, पानी, सुरक्षा जैसी आधारभूत सुविधायें उपलब्ध कराये और फिर उन्हें श्रमिको को उनका वाजिब हक देने के लिए मजबूर करें। समस्या कानपुर में नही है, लोगों में नही है, समस्याओं की जड़ में प्रभावशाली लोग है जो अब कानपुर को प्रापर्टी डीलर के नजरिये से देखते है। उन्हें सुधरना होगा, खुद सुधरें, या सरकार उन्हें सुधारे। कानपुर का नौजवान अपने शहर को फिर से मैनचेस्टर बनाने के लिए अपना सर्वोत्तम समर्पित करने को प्रतिबद्ध है और उसकी प्रतिबद्धता उसकी कोई मजबूरी नही उसके हृदय की आवाज है। इस पदचाप को सुन रहे हैं न .......?

Sunday, 11 May 2014

प्ली बारगेनिग अभियुक्तो के लिए खुद को दण्डित करने की यूनिक रेमेडी

आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2005 के द्वारा देश में पहली बार विचारण प्रारम्भ होने के पूर्व अभियुक्त को अभियोजन की उपस्थिति में अमेरिकी तर्ज पर पीडित के साथ बातचीत करके अपने विरूद्ध अधिरोपित आरोपों पर सजा भुगतने की जगह सम्मानजनक आपसी समाधान खोजने का नायाब तरीका उपलब्ध कराया गया है। दण्ड प्रक्रिया संहिता में चैप्टर 21 ए के तहत बारह नई धाराये 265 ए, बी, सी, डी, ई, एफ, जी, एच, आई, जे, के, एल जोडी गई है और इसके द्वारा अभियुक्त को अधिकार दिया गया है कि वह अदालत के समक्ष प्रार्थनापत्र देकर पीडि़त के साथ स्वयं बातचीत करे और अभियोजन की उपस्थिति में आपसी समझौते की शर्ते तय करके आपराधिक मुकदमों को निपटारा कराये। अमेरिका सहित अनेक यूरोपीय देशों में इस प्रक्रिया का ज्यादा से ज्यादा उपयोग किया जाता है, परन्तु व्यापक प्रचार प्रसार न हो पाने के कारण भारतीय अदालतों में प्ली आफ बारगेनिग से अभियुक्त या पीडि़त कोई लाभन्वित नही हो पा रहा है। आपसी रजामन्दी से आपराधिक मुकदमों के निस्तारण के लिए आज भी गवाहों को अपने पूर्व बयानों से मुकरने के लिए पक्षद्रोही बनाने पर ज्यादा विश्वास किया जाता है।
प्ली बारगेनिग की अवधारण ऐग्लो अमेरिकन आपराधिक न्याय प्रशासन की उपज है। अमेरिका में इस प्रक्रिया का प्रयोग 19वीं शताब्दी में शुरू हो गया था। इस प्रक्रिया ने अदालतों में लम्बित मुकदमों का बोझ काफी कम किया है। अमेरिकी अदालतों मे प्ली बारगेनिग का लाभ उठाकर प्रत्येक मिनट पर एक आपराधिक मुकदमा निस्तारित किया जाता है। इस प्रक्रिया का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग किये जाने के कारण नब्बे प्रतिशत आपराधिक मामले विचारण प्रारम्भ होने के पूर्व ही निस्तारित हो जाते है। अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक न्याय प्रशासन के लिए प्ली बारगेनिग को प्रत्येक स्तर पर प्रोत्साहित करने की जरूरत बताई है। इंग्लैण्ड में इसे क्रिमिनल प्रोसीजर एण्ड इन्वेस्टिगेशन एक्ट 1996 के द्वारा स्वीकार किया गया है।
अपने देश में पहली बार विधि आयोग ने अपनी 142वीं रिपोर्ट के द्वारा अपराध स्वीकार करने की स्थिति में अभियुक्त को उसके विरूद्ध अधिरोपित आरोपों में निर्धारित सजा से कम सजा देने की अनुशंशा की थी। अपनी 154वीं रिपोर्ट में विधि आयोग ने पुनः प्ली बारगेनिग को आपराधिक विधि में शामिल करने की अनुशंशा की। इन दोनों रिपोर्ट के आधार पर वर्ष 2001 में विधि आयोग की 177वीं रिपोर्ट और मलिमाथ कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर आपराधिक विधि संशोधन बिल 2003 पारित हुआ परन्तु वह विधि नही बन सका। कुछ संशोधनों के साथ सरकार ने पुनः आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2005 के द्वारा उसे संसद के समक्ष प्रस्तुत किया। दिनांक 13.12.2005 को राज्य सभा और दिनांक 22.12.2005 को लोक सभा ने इसे पास कर दिया और उसके बाद केन्द्र सरकार ने अधिनियम संख्या 2 सन 2006 के द्वारा इसे लागू भी कर दिया है।
प्ली बारगेनिग का लाभ प्राप्त करने के लिए अभियुक्त को विचारण न्यायालय के समक्ष विचारण प्रारम्भ होने के पूर्व शपथपत्र के साथ प्रार्थनापत्र प्रस्तुत करना होता है। प्रार्थनापत्र प्राप्त होने के बाद अदालत सुनिश्चित करती है कि अभियुक्त ने बिना किसी दबाव के स्वेच्छा से प्रार्थनापत्र प्रस्तुत किया है या नही और यदि पाया जाता है कि अभियुक्त ने प्रार्थनापत्र स्वेच्छा से नही दिया है तो  उस पर विचार नही किया जायेगा। स्वेच्छा से प्रस्तुत प्रार्थनापत्र पर अदालत लोक अभियोजक या मुकदमा वादी (इनफार्मेन्ट) को आपसी सहमति से सम्मानजनक समाधान खोजने के लिए बातचीत करने हेतु नोटिस जारी करती है। अभियोजन पीडित और अभियुक्त के बीच आपसी रजामन्दी के लिए बातचीत की प्रक्रिया मे अदालत का कोई हस्तक्षेप नही होता। तीनों पक्ष समझौते की शर्ते खुद तय करने के लिए स्वतन्त्र है। तीनों पक्ष आपसी बातचीत के द्वारा क्षतिपूर्ति के लिए जो भी राशि निर्धारित करेगे, उसे अदालत किसी भी दशा में घटा या बढ़ा नही सकती। यदि अभियुक्त प्रथम बार आरोपी है तो अदालत अभियुक्त को प्रोवेशन पर रिहा करेगी और यदि विधि में अधिरोपित आरोप के लिए कोई न्यूनतम दण्ड निर्धारित है तो अदालत न्यूनतम दण्ड की आधी या चैथाई अवधि के दण्ड से दण्डित कर सकती है। प्ली बारगेनिग के मामलो मे अभियुक्त को धारा 428 का लाभ देकर जेल मं बिताई गई अवधि के दण्ड से भी दण्डित किया जा सकता है। इसका लाभ आदतन अपराधियों और उन अभियुक्तों को नही दिया जाता, जिनके विरूद्ध 14 वर्ष से कम आयु के बच्चो या महिलाओं के विरूद्ध अपराध करने का आरोप है। प्ली बारगेनिग के तहत आपसी सहमति न बन पाने की दशा में बातचीत की प्रक्रिया के दौरान अभियुक्त द्वारा की गई किसी संस्वीकृति का उसके विरूद्ध किसी भी दशा में कोई उपयोग नही किया जा सकेगा।
प्ली बारगेनिग के माध्यम से आपराधिक मुकदमों के निस्तारण में तेजी लायी जा सकती है और विचाराधीन बन्दियों की रिहाई का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। अदालतों पर लम्बित मुकदमों का बोझ कम किया जा सकता है। साधारण विवादों पर अदालतों का चक्कर काट रहे अभियुक्त इनफार्मेन्ट और गवाहों के आपसी मन मुटाव को भी प्ली बारगेनिग के द्वारा कम किया जा सकता है जो समाज की स्थायी सुख शान्ति के लिए आवश्यक है। इस प्रक्रिया के द्वारा मुकदमों के निस्तारण से अभियोजन को अदालत के समक्ष अभियुक्तो के विरूद्ध आरोपों को सिद्ध करने के लिए गवाह प्रस्तुत करने के खर्चो से मुक्ति मिल जाती है और उसका समय भी बचता है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323, 504, 506 के तहत साधारण अपराध हो या धारा 302, 395 के तहत गम्भीर अपराध, सभी मामलों में अभियोजन को अदालत के समक्ष न्यूनतम छः गवाह प्रस्तुत करने होते है। इसलिए यदि साधारण अपराधों में प्ली बारगेनिग के तहत आपसी समझौते के द्वारा मुकदमों का निस्तारण किया जाये तो गम्भीर अपराधों में दोषियों को उनके किये की सजा दिलाने के लिए अभियोजन को ज्यादा समय और अवसर प्राप्त हो सकते है। सम्पूर्ण देश में मजिस्ट्रेट के न्यायालयों का अधिकांश समय साधारण मामलों में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए धारा 156 (3) के तहत प्रस्तुत प्रार्थनापत्रों और इसी प्रकार के अन्य प्रकीर्ण प्रार्थनापत्रों के निस्तारण्ण मे व्यय होता है जिसके कारण साक्ष्य अंकित किये बिना गवाहों को वापस करना पड़ता है और उससे पक्षद्रोहिता को बढ़ावा मिलता है, जो आपराधिक न्याय प्रशासन के लिए हितकर नही है। 
भारतीय जेलों में पचहत्तर प्रतिशत से ज्यादा विचाराधीन बन्दी है और उनमें से लगभग नौ प्रतिशत बन्दी पिछले कई वर्षों से विचारण शुरू होने की प्रतीक्षा में जेल और अदालत के बीच भटक रहे है। ऐसे अभियुक्तों को सरकार के स्तर पर प्ली बारगेनिग के तहत प्राप्त उनके विधिपूर्ण अधिकार से अवगत कराया जाना चाहिये। उन्हें बताया जाये कि यदि उन्होंने पहली बार कोई अपराध किया है और प्ली बारगेनिग के तहत पीडि़त के साथ बातचीत करके यदि वे क्षतिपूर्ति देने के लिए कोई सुलह समझौता कर लेते है तो उन्हें सजा नही होगी और प्रोबेशन का लाभ देकर उन्हें तत्काल रिहा कर दिया जायेगा। सरकार के स्तर पर प्ली बारगेनिग को प्रचारित करने का कोई प्रयास नही किया गया है। अन्य किसी से इस प्रकार के प्रयास की अपेक्षा नही की जा सकती है।
भारतीय कारागारों मे विचाराधीन बन्दियो और अदालतों को आपराधिक मुकदमों के बोझ से प्ली बारगेनिग का अधिकाधिक प्रयोग करके निजात दिलाई जा सकती है। इसके लिए आवश्यक है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 320 के तहत समझौता योग्य अपराधों की सूची में कुछ नये अपराधो को भी जोड़ा जाये। यह सच है कि अपराध व्यक्ति के विरूद्ध नही बल्कि समाज के विरूद्ध होते है, परन्तु समाज की स्थायी सुख शान्ति के लिए व्यक्तिगत प्रकृति वाले अपराधें में समझौते की अनुमति जरूरी है। प्ली बारगेनिग इस सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति का एक सशक्त माध्यम हो सकता है।

Sunday, 4 May 2014

मजीठिया बेज बोर्ड सुप्रीम कोर्ट ने समझी पत्रकारों की व्यथा......

सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बावजूद अधिकांश समाचार पत्रों ने अपने कर्मचारियों को मजीठिया बेज बोर्ड की सिफारिशों के अनुरूप वेतन नही दिया इसलिए दिनांक 7 मई 2014 को देय एरियर की प्रथम किश्त के भुगतान की बात सोचना भी अपराध है। एक्सप्रेस न्यूज पेपर (पी) लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए.आई.आर-1958-एस0सी0 पेज 158) में पारित निर्णय से लेकर कुछ ही दिन पूर्व पारित निर्णय ए.बी.पी. (पी) लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया (2014-3-एस.सी.सी.- पेज 327) के बीच कई दशक बीत चुके है परन्तु अपने कर्मचारियों के प्रति अखबार मालिको के शोषक रवैये मे कोई तब्दीली नही आई है बल्कि अब तो आठ घण्टे से ज्यादा काम लेने भविष्यनिधि ग्रेच्युटी आदि सामाजिक सुविधाओं के लाभ से वंचित रखने के दुराशय से समाचार संकलन लेखन सम्पादन जैसे स्थायी प्रकृति के कामों के लिए संविदा नियुक्तियों की वरीयता मे किसी को कोई झिझक नही होती जबकि इस प्रकार की नियुक्तियाँ भारत की संवैधानिक लोकनीति के प्रतिकूल है।
मजीठिया बेज बोर्ड की सिफारिशों को संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 19 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के प्रतिकूल बताने वाले अखबर मालिकों ने स्वेच्छा से अपने कर्मचारियों को सम्मान जनक जीवन जीने लायक वेतन और अन्य सुविधायें देने के लिए अपने स्तर पर कभी कोई पहल नही की है और दूसरी और पत्रकारों गैर पत्रकारों की आर्थिक, सामाजिक, बेहतरी के लिए सरकारी प्रयासो मे रोडा अटकाते रहे है। वर्किंग जर्नलिस्ट एण्ड अदर्स न्यूज पेपर इम्पलाइज (कन्डीशन आफ सर्विस) एण्ड मिसलेनियस प्रोवीजन एक्ट 1955 के समय से सेवायोजकों का रवैया कर्मचारी विरोधी रहा है जबकि इन्ही कर्मचारियों की मेहनत निष्ठा एवं लगन के बल पर प्रेम की स्वतन्त्रता के अधिकार का भरपूर दोहन करके सेवायोजको ने अपना अखिल भारतीय आर्थिक साम्राज्य स्थापित किया है और इन्ही कर्मचारिया को उनके जोखिम भरी कार्य की प्रकृति के अनुरूप वेतन देने के लिए अपने आपको आर्थिक दृष्टि से अक्षम बताने में उन्हें कोई शर्म नही आती।
मजीठिया बेज बोर्ड के गठन के पूर्व केन्द्र सरकार ने अलग अलग अवसरों पर दिवेटिया, शिन्दे, पालेकर, बछावत एवं मनिसाना बेज बोर्डो का गठन किया था। दिवेटिया बेज बोर्ड की अनुशंसाओं के विरूद्ध एक्सप्रेस न्यूज पेपर लिमिटेड ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उसके बाद शिन्दे बेज बोर्ड की अनुशंसाओं के विरूद्ध प्रेस ट्रस्ट आफ इण्डिया ने याचिका दाखिल की। पालेकर बेज बोर्ड का भी अखबार के मालिको ने विरोध किया। बछावत एवं मनिसाना बेज बोर्ड की अनुशंसाओं को भी न्यायालय में चुनौती दी गई थी। हलाँकि मनिसाना बेज बोर्ड की अनुशंसाओं को अधिकांश समाचार पत्रों ने अपने यहाँ लागू कर दिया था। मजीठिया बेज बोर्ड की अनुशंसाओं को केन्द्र सरकार द्वारा स्वीकार किये जाने के बाद उसे अपास्त कराने के लिए पूर्व की भाँति पुनः अखबार मालिको ने उसके विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल की है और उसमें आरोप लगाया कि 1955 मे अधिनियमित वर्किग जर्नलिस्ट (कन्डीशन आफ सर्विस) एण्ड मिसलेनियस प्रोवीजन्स एक्ट अनुपयोगी हो चुका है। उन्होंने मजीठिया वेतन आयोग के गठन में प्रक्रियागत अनियमितताओं का भी आरोप लगाया और उसकी सिफारिशों को संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 19 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकारों के प्रतिकूल बताया है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष ए.बी.पी.(पी) लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया में सुनवाई के दौरान मालिको ने अखबार उद्योग में ठेका प्रथा को पुर्नजीवित करने की वकालत की है। उनकी तरफ से कहा गया कि उदारीकरण के बाद आर्थिक परिदृश्य एकदम बदल गया है तद्नुसार अब पत्रकारों गैर पत्रकारों की सेवा शर्तो को सरकारी स्तर पर नियन्त्रित करने की कोई आवश्यकता नही रह गई है। सभी विशेषज्ञ पत्रकार संविदा पर कार्य करना पसन्द करते है। उन्हें आपसी बातचीत के द्वारा निर्धारित वेतनमान से ज्यादा बेहतर वेतन और सुविधायें प्राप्त हो जाती है। मालिको ने बताया कि इण्टरनेट डिजिटल मीडिया न्यूज चैनल्स और विदेशी समाचार पत्रों के साथ कम्पटीशन का दौर है इसलिए पहले की तुलना में अब सभी स्तरों पर उच्च स्तरीय विद्वता की जरूरत है जो संविदा पर ही उपलब्ध हो सकती है। ऐसी दशा में बेज बोर्ड की उपयोगिता खत्म हो चुकी है।
एक्सप्रेस न्यूज पेपर (पी) लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए.आई.आर.-1958-एस.सी.-पेज 578) के द्वारा दिवेटिया बेज बोर्ड की अनुशंसायें अपास्त हो जाने और फिर केन्द्र सरकार द्वारा वर्किग जर्नलिस्ट (फिक्सेशन आफ रेट्स आफ बेजेस) एक्ट 1958 पारित किये जाने के बाद से आज तक अखबार के मालिको ने स्वेच्छा से अपने कर्मचारियों के वेतन भत्तो में कभी कोई बढोत्तरी नही की है और न टेªड यूनियन बनाने के उनके अधिकार को कभी कोई सम्मान दिया है। न्यूज पेपर इण्डस्ट्री में प्रत्येक स्तर पर शोषण अन्याय एवं विषमता बरकरार है। आज भी पत्रकारों को पाँच सात हजार रूपये मासिक पर कार्य करने के लिए विवश किया जाता है। महिला कर्मचारियों को मातृत्व अवकाश से सदा वंचित रखा जाता है। मुम्बई में श्रम न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद महिला पत्रकार को मातृत्व अवकाश प्राप्त हुआ है। मजीठिया बेज बोर्ड की अनुशंसाओं को केन्द्र सरकार द्वारा स्वीकार किये जाने और फिर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसकी पुष्टि कर दिये जाने के बाद पत्रकारों में उसके लाभो को पाने की एक आशा जगी है, परन्तु मालिको के स्तर पर उसे निराशा मे बदलने के लिए षड्यन्त्र जारी है।
सर्वोच्च न्यायालय ने पत्रकारों की दशा और उनकी व्यथा को अच्छी तरह समझा है। अखबार मालिको की सभी आपत्तियों पर तर्क संगत विचार करके न्यायालय ने उसे खारिज किया है। मालिको की तरफ से पत्रकारों को विशेष दर्जा दिये जाने का विरोध किया गया है। उनकी आपत्तियों को दरकिनार करते हुये निर्णय में कहा गया है कि यह सच है कि अन्य उद्योगों में कर्मचारियों को समय के अनुरूप बेहतर बेतन भत्ते आदि सुविधायें नही दी जा सकी है परन्तु इसका यह अर्थ नही है कि समाचार पत्रों के कर्मचारियों को भी उन सभी सुविधाओं से वंचित रखा जाये। न्यूज पेपर इण्डस्ट्री अपने आप मे एक क्लास है और उसे उस रूप में बेहतर सुविधायें उपलब्ध कराने से किसी के संवैधानिक अधिकारों का हनन नही होता है। मजीठिया बेज बोर्ड ने समाचार पत्रों की वित्तीय क्षमता का आंकलन करने के लिए उनके अखिल भारतीय टर्न ओवर के आधार पर उन्हें आठ भागों में वर्गीकृत किया है। इसके पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने इण्डियन एक्सप्रेस न्यूज पेपर्स (पी) लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया (1996-एस.सी.सी.-एल.एण्ड एस.-पेज 243) में प्रतिपादित किया था कि कर्मचारियों के वेतन भत्तो के निर्धारण के लिए किसी समाचार पत्र का अखिल भारतीय स्तर पर किया गया वर्गीकरण विधिविरूद्ध नही है। 
समाजवादी विचारक डा. राम मनोहर लोहिया की मृत्यु के बाद अपने देश में विभिन्न स्तरों पर कर्मचारियों के वेतन के अन्तर को कम कराने का आन्दोलन समाप्त हो गया है। वे किसी भी स्तर के कर्मचारी को न्यूनतम वेतन से दस गुने से ज्यादा वेतन दिये जाने को अनुचित बताते थे। अब एक ही उद्योग में अलग अलग कर्मचारियों के वेतन में कई गुने का अन्तर है और इस नीति को सभी स्तरों पर स्वीकार कर लिया गया है। इसलिए पत्रकारों और अन्य उद्योगों के कर्मचारियों के वेतन के अन्तर को अनुच्छेद 14 के प्रतिकूल बताना न्यायसंगत नही है। वास्तव में पत्रकारों के कार्य की प्रक्रति अन्य उद्योगो के कर्मचारियों से एकदम पृथक होती है। उनका जीवन हर समय खतरे में रहता है। सभी समाचार पत्र प्रातःकाल आते है। इसलिए पत्रकारो को संस्करण प्रकाशित होने के पूर्व एक निश्चित समय सीमा के अन्दर सभी सूचनाओं को उपलब्ध कराने की अनिवार्यता झेलनी पड़ती है। वे कोई सूचना कल के लिए नही टाल सकते। उनके द्वारा संकलित सूचनाओं की गुणवत्ता से उनके कार्य का मूल्यांकन होता है। हर क्षण वे दबाव में होते है इसके बावजूद कार्यकाल की असुरक्षा उनकी नौकरी का एक आवश्यक अंग बन चुका है। अन्य उद्यागों में इस प्रकार की असुरक्षा नही होती है। इस प्रोफेशन में अन्य की तुलना में ज्यादा बेरोजगारी है और इसी कारण मालिको या उनके मुँहलगे सम्पादक की निजी संतुष्टि के लिए संसद कवर करने वाले पत्रकार को किसी छोटे शहर का नगर निगम कवर करने का फरमान इस उद्योग में एक आम बात है। पत्रकारों के वेतन भत्तों आदि सुविधाओं को उनकी कार्य की प्रकृति के कारण विशेष रूप से देखा जाना जरूरी है। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने एक्सप्रेस पब्लिेकशन (मदुरई) बनाम यूनियन आफ इण्डिया (2004-11-एस.सी.सी.-पेज 526) मे प्रतिपादित किया था कि अखबारों के प्रकाशन में कर्मचारियों की महती भूमिका है और उनकी बेहतरी के लिए बनाई गई विधि से प्रेस की स्वतन्त्रता किसी भी दशा में बाधित नही होती। निर्णय में कहा गया है कि कर्मचारियों को सुविधाये उपलब्ध कराने के लिए मालिको पर पडने वाले आर्थिक बोझ को किसी भी दशा में ‘हार्स ट्रीटमेन्ट’ नही माना जा सकता। आर्थिक अक्षमता वाले तर्क को अमान्य करते हुये कहा गया है कि अपने कर्मचारियो को बेहतर सुविधाये देना अखबार का दायित्व है और इसका अनुपालन वे कैसे करेंगे यह उनकी चिन्ता का विषय है। प्रेस की स्वतन्त्रता का इससे कोई सम्बन्ध नही है।