सम्पूर्ण विधि व्यवसाय और न्यायिक परिवार का भविष्य लाॅ स्कूलो के प्रोडक्टस पर निर्भर है इस प्रोडक्ट को पहले से बेहतर टिकाउ और आर्कषक बनाये रखने के लिये बार काउन्सिल आफ इण्डिया, नेशनल नालेज कामीशन, विधि आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने आजादी के बाद कई अवसरो पर ग्लोबल जरूरतो की दृष्टि से अपनी अध्ययन अध्यापन पद्धित मे व्यापक सुधार करने, विद्याथर््िायो के लिये समुचित लायब्रेरी, क्लास रूम, कुशल फैकल्टी, रिसर्च और इण्टरनेट की सुविधाये उपलब्ध कराने और कानून को रट कर पास करने की परीक्षा पद्धित को ज्यादा से ज्यादा प्रयोगात्मक बनाने की सलाह दी है। परन्तु लाॅ स्कूलो और लीगल एजूकेशन को नियन्त्रित एवम संचालित करने की कोई एक पेशेवर नियामक संस्था न होने के कारण इन सुझाओ को लागू करने के लिये लाॅ स्कूलो को मजबूर नही किया जा सका और उनका प्रोडक्ट दिन प्रति दिन समय के साथ चलने मे अपने आपको असमर्थ पाने लगा है। जो अपने लोक़तान्त्रिक समाज के हित मे नही है।
वर्तमान युग मे अधिकाशं लाॅ स्कूल निजी क्षेत्र द्वारा नियन्त्रित एवम संचालित है और केवल लाभ कमाना उनका उद्देश है। इसीलिये इन स्कूलो में डोनेशन अदा करने की क्षमता के अनुरूप प्रवेश के नियमो मे बदलाव किये जाते है। उन विद्यार्थियो को भी प्रवेश दिया जाता है जिनकी “लाॅ” में केाई रूचि नही होती और अन्य किसी विषय मे प्रवेश पाने से वंचित हो जाने वाले विद्यार्थी भी लाॅ मे प्रवेश ले लेते है। अन्य किसी विषय की तुलना में लाॅ स्कूल मे प्रवेश ज्यादा आसान और सस्ता भी है। लाॅ स्कूलो की परीक्षा मे प्रथम श्रेणी या विशेष योग्यता पाने वाले विद्यार्थी आल इण्डिया बार एग्जामिनेशन मे बुरी तरह फेल हुये है जबकि इस परीक्षा मे प्रश्ना का उत्तर लिखने के लिये किताब ले जाने की उन्हे अनुमति दी गई थी
अधिकांश लाॅ स्कूलो मे विधि की पढाई “ इनफारमेशन आॅफ लाॅ” की तर्ज पर कराई जाती है । “नालेज इन लाॅ” उनकी प्राथमिकता नही है। विधि आयोग ने माना है कि विधि के निम्नतम शैक्षिक स्तर के लिये स्वयं लाॅ स्कूल जिम्मेदार है। वे अपने स्तर पर शैक्षिक स्तर के उन्नयन के लिये कोई सार्थक प्रयास नही कर रहे है बल्कि ज्यादा से ज्यादा विधि स्नातक तैयार कर रहे है जो न्यायिक क्षेत्र की अपेक्षाओ पर खरा नही उतरते और वकालत के लिये सक्षम नही होते।
आधुनिक युग की जरूरतो की दृष्टि से विधि स्नातको के अध्ययन अध्यायन की प्रक्रिया मे आमूल चूल परिवर्तन जरूरी है। अध्यापको को निरन्तर अपडेट रखने की संस्थागत व्यवस्था की जानी है। अधिकांश अध्यापको के पास रिसर्च का कोई अनुभव नही है और न उनके पास कोई विजन है। किताबो मे लिखी धाराओ को क्लास रूम मे सुनाकर विद्यार्थियो को पास करा देने मे उन्हे महारथ हासिल है। अधिकांश लाॅ कालेजो के टीचर लाॅ के विषयो पर खुद कभी कोई आर्टिकल नही लिखते इसलिये उनसे अपेक्षा भी नही की जा सकती कि वे अपने विद्यार्थियो को लिखने और रिसर्च करने के लिये प्रोत्साहित करेगे।
लाॅ स्कूलो की परीक्षा पद्वित भी एक बडी समस्य है। सभी को मानना चाहिये कि परीक्षा मेमोरी टेस्टिंग या याददाश्त की क्षमता का आकलन करने केे लिये नही कराई जाती। विधि की परीक्षा मे विद्यार्थी का अलग तरीके से मूल्यांकन जरूरी है। प्रश्नपत्रो को समस्याओ और विश्लेषणो के आधार पर दो भागो मे विभाजित किया जाना चाहिये। समस्या आधारित प्रश्नो से विधिक समझ और विश्लेषण आधारित प्रश्नो से विधिक सिद्धान्तो का प्रयोग करने की क्षमता का आकलन किया जा सकता है। नेशनल कालेज कमीशन ने भी इस प्रकार के प्रश्नपत्रो की अनुशंशा की है।
विधि आयेाग के चेयरमैन न्यायमूर्ति श्री एम0 जगन्नाध राव ने भी परीक्षा पैटर्न को बदलने की सिफारिश की है। उन्होने केवल बीस प्रतिशत प्रश्न विश्लेषण आधारित पूछने और अवशेष अस्सी प्रतिशत प्रश्न लीगल प्रोब्लेम पर पूछने पर जोर दिया है। इन प्रश्नो मे मूट कोर्टस और सेमिनार आदि गतिविधियो से सम्बन्धित प्रश्न भी हो सकते है। इस प्रकार के अस्सी प्रतिशत प्रश्नो का उत्तर देने के लिये परीक्षा कक्ष मे विद्यार्थी को पुस्तक देखने की भी अनुमति दी जानी चाहिये। किताबो को देखने की अनुमति देने से सुस्पष्ट हो जायेगा कि परीक्षार्थी ने विधि का अध्ययन कितनी गहराई से किया है और उससे उसके सोचने समझने की तार्किक क्षमता का भी आकलन करने मे सहायता मिलेगी। हो सकता है कि प्रश्नपत्र मे बताई गई समस्या का एक से ज्यादा समाधान हो परन्तु उसके उत्तर से परीक्षार्थी की एप्रोच और उसके सोचने की शैली का पता चलेगा। इस प्रकार की परीक्षा पद्वित से नकल की समस्या स्वतः समाप्त हो जायेगी और कोई अध्यापक परीक्षा कक्ष मे किसी परीक्षार्थी को कोेई अनुचित लाभ भी नही पहॅुचा सकेगा। इस प्रकार की परीक्षा पद्वित केे लिये निश्चित रूप से अध्ययन अध्यापन का तरीका बदलना होगा और उस बदली परिस्थितियेा मे विद्यार्थी खुद ब खुद क्लास रूम के प्रति आकृष्ट होगा।
अनुभव से पाया गया ज्ञान सर्वश्रेष्ठ होता है । विधि के मामले मे यह सिद्धान्त पूरी तरह लागू होता है। नेशलन लाॅ स्कूलो की स्थापना के बाद मूट कोर्टस और क्लिनिकल लीगल एजूकेशन के माध्यम से विद्यार्थिओ को लाॅ का ज्ञान देने की एक नई पद्धित का विकास हुआ है। क्लिनिकल मेथलाजी खुद काम करके सीखने की पद्धित है। इस पद्धित की पढाई से विद्यार्थी को बौद्धिक और पेशेवर तरीके से अपना विकास करने के अवसर प्राप्त होते है। सामाजिक परिप्रेक्ष मे विधि का लाभ सभी तक पहॅुचाने के लक्ष्य को दृष्टि मे रखकर विधि का अध्ययन अध्यापन किया जाता है और इसलिये प्रेक्टिकल ट्रेनिंग उसकी आत्मा है। क्लिनिकल कार्यक्रम विद्यार्थी को दिन प्रतिदिन की सामाजिक समस्याओ के साथ प्रत्यक्ष जुडने और उनके समाधान के लिये एक अधिवक्ता की तरह सोचने का अवसर उपलब्ध कराते है जो क्लास रूम के परम्परागत लेक्चर के द्वारा सम्भव नही है।
दि इन्स्टीटयूट अॅाफ रूरल रिसर्च एण्ड डेवलपमेन्ट और जिन्दल ग्लोबल लाॅ स्कूल के संयुक्त क्लिनिकल लाॅ प्रोग्राम के तहत विद्यार्थियो ने ग्राम वासियो को उनके अधिकारो के प्रति जागरूक किया और उन्हे बताया कि वे किस तरह अपने लोक तान्त्रिक अधिकारो का प्रयोग करके अपने जीवन मे खुशहाली ला सकते है। इसी तरह सक्षम फाउण्डेशन चैरिटेबल सोसाइटी ने कानपुर देहात के एक गाॅव मे उसके निवासियो को सात वर्ष तक की सजा वाली आपराधिक धाराओ मे गिरफतारी के पहले स्थानीय पुलिस द्वारा नोटिस देने की अनिवार्यता और उन्हे प्ली आफ बारगेनिग की जानकारी दी। इसके द्वारा सहभागी विद्यार्थियो को लीगल रिसर्च काउन्सिलिग नेगोशियेशन और लोगो के विधिपूर्ण अधिकारो की रक्षा के लिये एक अधिवक्ता के नाते अपनी भूमिका का निर्वहन करने की शिक्षा मिली जो बाद में वकालत के दौरान भी उनके लिये उपयोगी सिद्ध हुयी।
मूट कोर्ट के माध्यम से विद्यार्थियो को विधि को समझने और उसके प्रस्तुतीकरण के असीम अवसर मिलते है । नेशनल लाॅ स्कूलो और उसी तरह के कुछ कालेजो मे मूट कोर्ट उनकी संस्कृति मे शामिल हो गया है परन्तु अधिकांश लाॅ कालेजो मे मूट कोर्ट केवल औपचारिकता है। कालजो को मजबूर किया जाना चाहिये कि वे अपने यहाॅ इस प्रकार की गतिविधियो को बढावा दे। इस प्रकार की गतिविधियो से सम्बन्धित लाॅ स्कूल के साथ साथ समाज को भी फायदा होता है ।
लीगल एजूकेशन व्यवस्था परिवर्तन का भी माध्यम है। शासक और शोषक वर्ग से ह्यदय परिवर्तन की अपेक्षा नही की जा सकती परन्तु विधि के माध्यम से उन्हे अपने शोषणकारी रवैये मे परिवर्तन के लिये बाध्य किया जा सकता है। अभी दो दिन पहले विधि की एक छात्रा के प्रयास से सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय प्रौद्योगिक अधिनियम की धारा 66ए को अवैधानिक घोषित किया है।