Monday, 30 March 2015

न्यायिक व्यवस्था का भविष्य लाॅ स्कूलो के प्रोडक्टस पर निर्भर


सम्पूर्ण विधि व्यवसाय और न्यायिक परिवार का भविष्य लाॅ स्कूलो के प्रोडक्टस पर निर्भर है इस प्रोडक्ट को पहले से बेहतर टिकाउ और आर्कषक बनाये रखने के लिये बार काउन्सिल आफ इण्डिया, नेशनल नालेज कामीशन, विधि आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने आजादी के बाद कई अवसरो पर ग्लोबल जरूरतो की दृष्टि से अपनी अध्ययन अध्यापन पद्धित मे व्यापक सुधार करने,  विद्याथर््िायो के लिये समुचित लायब्रेरी, क्लास रूम, कुशल फैकल्टी, रिसर्च और इण्टरनेट की सुविधाये उपलब्ध कराने और कानून को रट कर पास करने की परीक्षा पद्धित को ज्यादा से ज्यादा प्रयोगात्मक बनाने की सलाह दी है। परन्तु लाॅ स्कूलो और लीगल एजूकेशन को नियन्त्रित एवम संचालित करने की कोई एक पेशेवर नियामक संस्था न होने के कारण इन सुझाओ को लागू करने के लिये लाॅ स्कूलो को मजबूर नही किया जा सका और उनका प्रोडक्ट दिन प्रति दिन समय के साथ चलने मे अपने आपको असमर्थ पाने लगा है। जो अपने लोक़तान्त्रिक समाज के हित मे नही है।
वर्तमान युग मे अधिकाशं लाॅ स्कूल निजी क्षेत्र द्वारा नियन्त्रित एवम संचालित है और केवल लाभ कमाना उनका उद्देश है। इसीलिये इन स्कूलो में डोनेशन अदा करने की क्षमता के अनुरूप प्रवेश के नियमो मे बदलाव किये जाते है। उन विद्यार्थियो को भी प्रवेश दिया जाता है जिनकी “लाॅ” में केाई रूचि नही होती और अन्य किसी विषय मे प्रवेश पाने से वंचित हो जाने वाले विद्यार्थी भी लाॅ मे प्रवेश ले लेते है। अन्य किसी विषय की तुलना में लाॅ स्कूल मे प्रवेश ज्यादा आसान और सस्ता भी है। लाॅ स्कूलो की परीक्षा मे प्रथम श्रेणी या विशेष योग्यता पाने वाले विद्यार्थी  आल इण्डिया बार एग्जामिनेशन मे बुरी तरह फेल हुये है जबकि इस परीक्षा मे प्रश्ना का उत्तर लिखने के लिये किताब ले जाने की उन्हे अनुमति दी गई थी
अधिकांश लाॅ स्कूलो मे विधि की पढाई “ इनफारमेशन आॅफ लाॅ” की तर्ज पर कराई जाती है । “नालेज इन लाॅ” उनकी प्राथमिकता नही है। विधि आयोग ने माना है कि विधि के निम्नतम शैक्षिक स्तर के लिये स्वयं लाॅ स्कूल जिम्मेदार है। वे अपने स्तर पर शैक्षिक स्तर के उन्नयन के लिये कोई सार्थक प्रयास नही कर रहे है बल्कि ज्यादा से ज्यादा विधि स्नातक तैयार कर रहे है जो न्यायिक क्षेत्र की अपेक्षाओ पर खरा नही उतरते और वकालत के लिये सक्षम नही होते।
आधुनिक युग की जरूरतो की दृष्टि से विधि स्नातको के अध्ययन अध्यायन की प्रक्रिया मे आमूल चूल परिवर्तन जरूरी है। अध्यापको को निरन्तर अपडेट रखने की संस्थागत व्यवस्था की जानी है। अधिकांश अध्यापको के पास रिसर्च का कोई अनुभव नही है और न उनके पास कोई विजन है। किताबो मे लिखी धाराओ को क्लास रूम मे सुनाकर विद्यार्थियो को पास करा  देने मे उन्हे महारथ हासिल है। अधिकांश लाॅ कालेजो के टीचर लाॅ के विषयो पर  खुद कभी कोई आर्टिकल नही लिखते इसलिये उनसे अपेक्षा भी नही की जा सकती कि वे अपने विद्यार्थियो को लिखने और रिसर्च करने के लिये प्रोत्साहित करेगे।
लाॅ स्कूलो की परीक्षा पद्वित भी एक बडी समस्य है। सभी को मानना चाहिये कि परीक्षा मेमोरी टेस्टिंग या याददाश्त की क्षमता का आकलन करने केे लिये नही कराई जाती। विधि की परीक्षा मे विद्यार्थी का अलग तरीके से मूल्यांकन जरूरी है। प्रश्नपत्रो को समस्याओ और विश्लेषणो के आधार पर दो भागो मे विभाजित किया जाना चाहिये। समस्या आधारित प्रश्नो से विधिक समझ और विश्लेषण आधारित प्रश्नो से विधिक सिद्धान्तो का प्रयोग करने की क्षमता का आकलन किया जा सकता है। नेशनल कालेज कमीशन ने भी इस प्रकार के प्रश्नपत्रो की अनुशंशा की है।
विधि आयेाग के चेयरमैन न्यायमूर्ति श्री एम0 जगन्नाध राव ने भी परीक्षा पैटर्न को बदलने की सिफारिश की है। उन्होने केवल बीस प्रतिशत प्रश्न विश्लेषण आधारित पूछने और  अवशेष अस्सी प्रतिशत प्रश्न लीगल प्रोब्लेम पर पूछने पर जोर दिया है। इन प्रश्नो मे मूट कोर्टस और सेमिनार आदि गतिविधियो से सम्बन्धित प्रश्न भी हो सकते है। इस प्रकार के अस्सी प्रतिशत प्रश्नो का उत्तर देने के लिये परीक्षा कक्ष मे विद्यार्थी को पुस्तक देखने की भी अनुमति दी जानी चाहिये। किताबो को देखने की अनुमति देने से  सुस्पष्ट हो जायेगा कि परीक्षार्थी ने विधि का अध्ययन कितनी गहराई से किया है और उससे उसके सोचने समझने की तार्किक क्षमता का भी आकलन करने मे सहायता मिलेगी। हो सकता है कि प्रश्नपत्र मे बताई गई समस्या का एक से ज्यादा समाधान हो परन्तु उसके उत्तर से परीक्षार्थी की एप्रोच और उसके सोचने की शैली का पता चलेगा। इस प्रकार की परीक्षा पद्वित से नकल की समस्या स्वतः समाप्त हो जायेगी और कोई अध्यापक परीक्षा कक्ष मे किसी परीक्षार्थी को कोेई अनुचित लाभ भी नही पहॅुचा सकेगा। इस प्रकार की परीक्षा पद्वित केे लिये निश्चित रूप से अध्ययन अध्यापन का तरीका बदलना होगा और उस बदली परिस्थितियेा मे विद्यार्थी खुद ब खुद क्लास रूम के प्रति आकृष्ट होगा।
अनुभव से पाया गया ज्ञान सर्वश्रेष्ठ होता है । विधि के मामले मे यह सिद्धान्त पूरी तरह लागू होता है। नेशलन लाॅ स्कूलो की स्थापना के बाद मूट कोर्टस और क्लिनिकल लीगल एजूकेशन के माध्यम से विद्यार्थिओ को लाॅ का ज्ञान देने की एक नई पद्धित का विकास  हुआ है। क्लिनिकल मेथलाजी खुद काम करके सीखने की पद्धित है। इस पद्धित की पढाई से विद्यार्थी को बौद्धिक और पेशेवर तरीके से अपना विकास करने के अवसर प्राप्त होते है। सामाजिक परिप्रेक्ष मे विधि का लाभ सभी तक पहॅुचाने के लक्ष्य को दृष्टि मे रखकर विधि का अध्ययन अध्यापन किया जाता है और इसलिये प्रेक्टिकल ट्रेनिंग उसकी आत्मा है। क्लिनिकल कार्यक्रम विद्यार्थी को दिन प्रतिदिन की सामाजिक समस्याओ के साथ प्रत्यक्ष जुडने और उनके समाधान के लिये एक अधिवक्ता की तरह सोचने का अवसर उपलब्ध कराते है जो क्लास रूम के परम्परागत लेक्चर के द्वारा सम्भव नही है।
दि इन्स्टीटयूट अॅाफ रूरल रिसर्च एण्ड डेवलपमेन्ट और जिन्दल ग्लोबल लाॅ स्कूल के संयुक्त क्लिनिकल लाॅ प्रोग्राम के तहत विद्यार्थियो ने ग्राम वासियो को उनके अधिकारो के प्रति जागरूक किया और उन्हे बताया कि वे किस तरह अपने लोक तान्त्रिक अधिकारो का प्रयोग करके अपने जीवन मे खुशहाली ला सकते है। इसी तरह सक्षम फाउण्डेशन चैरिटेबल सोसाइटी ने कानपुर देहात के एक गाॅव मे उसके निवासियो को सात वर्ष तक की सजा वाली आपराधिक धाराओ मे गिरफतारी के पहले स्थानीय पुलिस द्वारा नोटिस देने की अनिवार्यता और उन्हे प्ली आफ बारगेनिग की जानकारी दी। इसके द्वारा सहभागी विद्यार्थियो को लीगल रिसर्च काउन्सिलिग नेगोशियेशन और लोगो के विधिपूर्ण अधिकारो की रक्षा के लिये एक अधिवक्ता के नाते अपनी भूमिका का निर्वहन करने की शिक्षा मिली जो बाद में वकालत के दौरान भी उनके लिये उपयोगी सिद्ध हुयी।
मूट कोर्ट के माध्यम से विद्यार्थियो को विधि को समझने और उसके प्रस्तुतीकरण के असीम अवसर मिलते है । नेशनल लाॅ स्कूलो और उसी तरह के कुछ कालेजो मे मूट कोर्ट उनकी संस्कृति मे शामिल हो गया है परन्तु अधिकांश लाॅ कालेजो मे मूट कोर्ट केवल औपचारिकता है। कालजो को मजबूर किया जाना चाहिये कि वे अपने यहाॅ इस प्रकार की गतिविधियो को बढावा दे। इस प्रकार की गतिविधियो से सम्बन्धित लाॅ स्कूल के साथ साथ समाज को भी फायदा होता है ।
लीगल एजूकेशन व्यवस्था परिवर्तन का भी माध्यम है। शासक और शोषक वर्ग से ह्यदय परिवर्तन की अपेक्षा नही की जा सकती परन्तु विधि के माध्यम से उन्हे अपने शोषणकारी रवैये मे परिवर्तन के लिये बाध्य किया जा सकता है। अभी दो दिन पहले विधि की एक छात्रा के प्रयास से सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय प्रौद्योगिक अधिनियम की धारा 66ए को अवैधानिक घोषित किया है।

Sunday, 22 March 2015

घटिया लीगल एजूकेशन: बार काउन्सिल जिम्मेदार


आजादी के 68 वर्षो के बाद भी अपने देश में लाॅ की पढाई आज भी विज्ञान की तरह नही कराई जाती। दूर दराज के शहरो, कस्बो के लाॅ स्कूलो मे अप्रशिक्षित अध्यापको द्वारा सदियों पुरानी पद्वित से लाॅ का अध्ययन अध्यापन किया जाता है। कुशल फैकल्टी और लायब्रेरी जैसी मूल भूत सुविधाये उपलब्ध नही है। इन स्कूलो में रिसर्च सेमिनार सामयिक परिचर्चा वर्कशाप मूट कोर्ट के बारे मे सोचना भी बेमानी है जबकि संविधान के नीति निदेशक तत्वो के तहत सुशासन का लाभ आम जन तक पहुॅचाने मे लीगल एजूकेशन की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस विषय मे एडवोकेट एक्ट 1961 के तहत प्राप्त अपने अधिकारो का सम्यक प्रयोग और उसके अनुरूप कर्तव्यो का निर्वहन करने मे बार काउन्सिल आफ इण्डिया बुरी तरह असफल रही है। उसकी अस्पष्ट दशा दिशा के कारण लाॅ स्कूलो की संख्या में अभूतपूर्व बढोत्तरी हुई है परन्तु उसके द्वारा लीगल एजूकेशन की गुणवक्ता मे बढोत्तरी का केाई प्रयास नही किया गया है।


लीगल एजूकेशन मे आधार भूत परिवर्तन के लिये वर्ष 2005 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री मनमोहन सिंह द्वारा गठित नेशनल कालेज कमीशन ने एक वर्किग ग्रुप की स्थापना की थी जिसमेे न्यायमूर्ति जगन्नाथ राव, लीला सेठ, सैम पित्रोदा, डा0 माधवन मेनन, डा0 बी.एस.चिमनी, डा0 मोहन गोपाल, पी.पी.राव, निशिथ देसाई शामिल थे। इस वर्किग ग्रुप ने मुख्य रूप से टीचिंग इनफ्रास्ट्रक्चर, एडमिनिस्ट्रेशन की समस्याओ को चिन्हित किया। ग्रुप ने लाॅ स्कूलो के लिये कुशल फैकल्टी की चयन पद्धित परीक्षा पैटर्न, रिसर्च डेवलपमेन्ट, शिक्षा की गुणवत्ता और पढाई के साथ व्यवहारिक प्रशिक्षण जैसी मूल भूत समस्याओ के समाधान पर विचार विमर्श किया। इस ग्रुप ने सभी स्तरो पर सम्बद्ध पक्षो के साथ व्यापक विचार विमर्श और चर्चा परिचर्चा के बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जो क्रियान्वयन की प्रतीक्षा मे धूल फाॅक रही है।
इस वर्किग ग्रुप ने अपने अध्ययन के दौरान पाया कि सम्पूर्ण देश मे केवल कुछ लाॅ स्कूल समय की माॅग के अनुरूप शिक्षा उपलब्ध करा रहे है। अधिकाश स्कूलो मे आज भी सदियों पुराने परम्परागत तरीको से अध्ययन अध्यापन किया जा रहा है। अधिकांश स्कूलो मे कम वेतन देने के लालच मे कुशल और प्रतिबद्ध अध्यापको का चयन नही किया जाता । रिसर्च प्रशिक्षण केन्द्र लायब्रेरी जैसी मूल भूत जरूरते उनकी चिन्ता मे नही है।
पचास साल पहल लाॅ स्कूलो के सामने फौजदारी राजस्व और सिविल मामलो की पढाई का लक्ष्य हुआ करता था। इस पद्धित मे शिक्षित लाॅ ग्रेजुयेट तहसीलो और अधीनस्थ न्यायालयो के समय वकालत करने मे सक्षम हुआ करते थे। इन्ही मे कुछ स्थानीय लाॅ स्कूलो में पार्टटाइम अध्यापन भी किया करते थे परन्तु 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद स्थितियाॅ एकदम बदल गई। लीगल एजूकेशन की पूरी अवधारणा मे अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ है। अब ट्रेड कामर्स और इण्डस्ट्री को भी लाॅ ग्रेजुयेट की आवश्यकता पडने लगी है। अन्तरराष्ट्ररीय संदर्भाे मे लीगल एजूकेशन का महत्व बढा है। आज श्रम कानूनो का अध्ययन जरूरी हो गया है। पिछले दस, पन्द्रह वर्षो मे नान बैकिग फायनेन्स कम्पनियो और अन्य वित्तीय संस्थानो मे नान प्रैक्टिसिंग एडवोकेट्स को सेवा का अवसर मिला है परन्तु आरबीट्रेशन, बैकिग विधि और ए0डी0आर0 सिस्टम की समुचित शिक्षा दीक्षा न होने के कारण इस संस्थानो मे सेवारत लाॅ ग्रेजुयेट रिकवरी एजेन्ट बन कर रह गये है और विधि एवम विधिक प्रक्रिया से एकदम अनजान प्रबन्धको की डाॅट सुनने को विवश है। उनके सामने पदोन्नति और अच्छे अवसरो का अभाव है जिसके कारण उनमे से अधिकांश फ्रेस्टेट हो रहे है। उनका आत्म विश्वास टूट गया है और अब वे तहसील स्तर पर भी वकालत करने का साहस नही करते।
अस्सी प्रतिशत लाॅ ग्रेजुयेट उन स्कूलो में शिक्षित होता है जो किसी ने किसी राजनेता द्वारा नियन्त्रित एवम संचालित है और वे सबके सब विधि शिक्षा की गुणवत्ता के दुश्मन है। इन स्कूलो मे कोई प्लेसमेन्ट नही होता और अधिकांश ग्रेजुयेट बेरोजगार रह जाते है। बेमन से ऐसे ग्रेजुयेट वकालत के लिये कचहरी मे प्रवेश करते है। कचहरी में बीस प्रतिशत लोगो का एकाधिकार है। नये लोगो के लिये सम्भावनाये सीमित है। अधिवक्ता पुत्रो और कुछ प्रभावशाली परिवारो के बच्चो को छोडकर अधिकांश युवा अधिवक्ता अपने सीनियर एडवोकेेट के मुंशी के जूनियर के नाते काम करने को विवश है। उन्हे जानबूझकर अदालतो के सामने अपनी बात कहने का अवसर नही दिया जाता जिसके कारण अस्सी प्रतिशत अधिवक्ता संधर्ष का जीवन जी रहा है। संधर्षरत अधिवक्ता अपने संख्या बल का महत्व जान गया है।    साधारण विवादो मे भी आन्दोलन का सहारा उसकी आदत और जरूरत बन गयी है। अब वे प्रेशर ग्रुप के रूप मे विकसित हो गये है। स्थानीय बार एसोसिऐशन और बार काउन्सिल के सदस्य के चुनाव को नियन्त्रित करने मे सफल हो रहे है और उसके कारण सीखने सिखाने का वातावरण दूषित हो गया है। प्रापटी डीलिंग जैसे काम उन्हे आक्रष्ट करते है। युवा अधिवक्ताओ में अदालतो के सामने उपस्थित होने के लिये निरन्तर कुशलता प्राप्त करने मे बढती अरूचि सम्पूर्ण न्याय प्रशासन के लिये चिन्ता का विषय है।
नौकरी मे आने के बाद न्यायिक अधिकारियो को उनके लिये गठित नेशनल ज्यूडिशियल एकेडमी मे प्रशिक्षण दिया जाता है और रोजमर्रा की जरूरतो की दृष्टि से उन्हे नियमित रूप से अध्ययन मेटेरियल भी उपलब्ध कराया जाता है लेकिन अधिवक्ताओ और प्रासीक्यूटर्स के प्रशिक्षण की केाई संस्थागत व्यवस्था नही है। राज्य बार काउन्सिल एडवोकेट के रूप में सदस्यता देने के बाद उनके प्रशिक्षण की कभी कोई चिन्ता नही करती है।
मेडिकल कालेजो मे फाॅरेन्सिक मेडिसिन पढाई जाती है और कचहरी में नित्यप्रति उसका प्रयोग होता है। आपराधिक विचारणो  मे इन्जरी रिपोर्ट, पोस्टमार्टम रिपोर्ट की पुष्टि के लिये सम्बन्धित चिकित्सक बतौर अभियोजन साक्षी परीक्षित किया जाता है और उसके बाद   बचाव पक्ष के अधिवक्ता को उससे प्रति परीक्षा करनी होती है। इतनी महत्वपूर्ण शैक्षिक जरूरत के बावजूद स्थानीय लाॅ कालेजो में फारेन्सिक मेडिसिन को पढाने की कोई व्यवस्था नही है। अधिवक्ताओ और प्रासीक्यूटर्स को अपने स्तर पर इसका ज्ञान अर्जित करना होता है जो वास्तव में कठिन है। लम्बे अर्से से वकालत कर रहे अधिकांश लोग इस विधि मे पारंगत नही हो पाते और उनके इस अज्ञान से कई बार किसी न किसी का नुकसान होता है।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ए0एम0 अहमदी, जगन्नाथ राव एवम बी0एन0 कृपाल की तीन सदस्यीय समिति ने लीगल एजूकेशन मे व्यापक सुधार के लिये कई सुझाव दिये है। लाॅ कमीशन भी अपनी 184 वी रिपोर्ट में कई सामयिक अनुशंसाये की है परन्तु केन्द्र सरकार इन अनुशंसाओ को लागू करने के प्रति गम्भीर नही है। एडवोकेट एक्ट 1961 के तहत लीगल एजूकेशन बार काउन्सिल आफ इण्डिया ने नियन्त्रण में है। उसके सदस्य अपने अपने क्षेत्रो   में पारंगत अधिवक्ता है परन्तु उनमे से अधिकांश के पास अध्यापन और शैक्षिक संस्थानो को संचालित करने का कोई प्रत्यक्ष अनुभव नही है। बार काउन्सिल लाॅ स्कूलो मे गुणवत्ता पूर्ण शैक्षिक माहौल बनाने मे असफल सिद्ध हुई हैं।
बार काउन्सिल की असफलता को दृष्टिगत रखकर नेशनल नालेज कमीशन ने  लीगल एजूकेशन को बार काउन्सिल के अधिकार क्षेत्र से बाहर करने की सिफारिश की है। आल इण्डिया काउन्सिल आफ टेक्निकल एजूकेशन और मेडिकल काउन्सिल आफ इण्डिया की तरह  लीगल एजूकेशन को भी नियन्त्रित एवम संचालित करने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर आॅल इण्डिया काउन्सिल फार लीगल एजूकेशन का गठन समय की जरूरत है। संसद को कानून बनाकर इस दिशा मे पहल करनी चाहिये। काउन्सिल को समय की जरूरतो की दृष्टिगत रखकर व्यापक परिप्रेक्ष्य मे फैकल्टी डेवलपमेन्ट, एकेडेमिक क्लालिटी एशश्योरेन्स, रिसर्च एण्ड इन्सटीटयूशनल डेवलपमेन्ट, एडमिनिस्ट्रेशन, फाइनेन्स शैक्षिक सत्रो के नियमन, पाढयक्रम और अध्यापको की नियुक्ति प्रक्रिया मे सुधार के लिये समेकित रोड मैप बनाने और उसे लागू करने का अधिकार दिया जाना चाहिये। काउन्सिल मे केन्द्र सरकार विभिन्न राज्य सरकारो, लाॅ कालेजो, विश्व विद्यालयो, बार काउन्सिल और विद्यार्थिओ के निर्वाचित प्रतिनिधियो को शामिल किया जाना चाहिये। काउन्सिल नियमित रूप से लाॅ स्कूलो का निरीक्षण करे और गुणवत्ता पूर्ण शैक्षिक माहोल सुनिश्चित कराये।


Sunday, 15 March 2015

कचहरी मे आये दिन की अशान्ति बार काउन्सिल की असफलता


इलाहाबाद कचहरी मे वकीलो और पुलिस के बीच कहासुनी के बाद दरोगा ने ताबडतोड फायरिंग की जिससे वकील नवी अहमद की मृत्यु हो गयी। घटना के विरोध में बार काउन्सिल आॅफ इण्डिया ने 16 मार्च सोमवार को सम्पूर्ण देश में न्यायिक कार्य के बहिस्कार की घोषणा की है। हलाॅकि सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश और देश के कई हिस्सो मे घटना के तत्काल बाद से अधिवक्ता न्यायिक कार्य से विरत है। उत्तर प्रदेश सरकार ने घटना की सी.बी.आई. से जाॅच और मृतक अधिवक्ता के परिजनो को दस  लाख रूपये की आर्थिक सहायता देने की घोषणा की है।
इस प्रकार की घटनाओ के बाद सी.बी.आई. जाॅच दोषियो को सजा और धायलो को उचित मुआवजा देने की माॅग और इन माॅगो को पूरी करने के लिये न्यायिक या गैर न्यायिक जाॅच आयोगो का गान कोई नई बात नही है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अन्दर तत्कालीन सत्तारूठ दल के कार्यकर्ताओ द्वारा की गई तोडफोड के बाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश द्वारा सेना बुला लेने की स्मृतियाॅ अभी धुंधली नही हुई है परन्तु कचहरी को नियन्त्रित एवम संचालित करने वाले नीति नियंताओ ने इन घटनाओ से कोई सबक नही लिया। समझना समझाना होगा कि वकील और पुलिस दोनो राष्ट्र जीवन के महत्वपूर्ण और सामान्तर स्तम्भ है। दोनो की समाज को जरूरत है और उनके मध्य कोई प्रतिस्पर्धा नही है। उनके मध्य बढता टकराव किसी के भी हित मे नही है। उनकी वैमनस्यता राष्ट्र और समान के व्यापक हितो के प्रतिकूल है परन्तु सरकार उच्च न्यायालय या बार काउन्सिल इसके कारणो को चिन्हित करके उन्हे दूर करने का सार्थक प्रयास करते दिखती नही है जो चिन्ता का विषय है।
7 अप्रैल 2010 को कानपुर कचहरी में एक विद्वान अधिवक्ता और दरोगा के मध्य किसी निजी बाहरी विवाद को लेकर कहासुनी हो गई थी। विवाद को सुलझाने के लिये प्रथम अपर जनपद न्यायाधीश के कक्ष में वार्ता हो रही थी। इसी बीच अफरातफरी मच गई और पुलिस कर्मियों ने जनपद न्यायाधीश की अनुमति के बिना वकीलो को पीटना शुरू कर दिया। चैम्बर मे शान्तिपूर्वक अपना काम निपटा रहे वरिष्ठ अधिवक्ताओ को भी बुरी तरह पीटा गया। पुलिस कर्मियों ने स्टैण्ड में खडी वकीलो की कार, स्कूटर, मोटर साइकिले जला  दी। उन्हे तोडा फोडा। जबरजस्त हडताल हुई और कानपुर का न्यायिक क्षेत्राधिकार इटावा स्थानान्तरित कर दिया गया परन्तु हडताल खत्म नही हुई। इलाहाबाद हाई कोर्ट के घेराव की धोषणा  हुई। केन्द्रीय विधि मन्त्री के हस्तक्षेप के बाद हडताल समाप्त हुई। हाई कोर्ट ने अपने तीन कार्यरत न्यायाधीशो की समिति घटना की जाॅच के लिये गठित की। न्यायाधीशो की समिति ने घटना के विभिन्न पहलुओ की जाॅच के लिये कचहरी के सभी पक्षो के साथ विचार विमर्श किया परन्तु उसकी रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नही की गयी। इस घटना के बाद वकीलो की माॅग पर तत्कालीन जनपद न्यायाधीश को स्थानान्तरित किया गया था और कार्यरत न्यायाधीशो की समिति होने के कारण अपेक्षा की गयी थी कि यह जाॅच समिति वकील पुलिस संधर्ष के कारणो को चिन्हित करके उनको दूर करने का मार्ग प्रशस्त करेगी परन्तु सरकारो द्वारा गठित जाॅच समितियो की तरह इस न्यायिक समिति ने भी सभी को निराश किया और घायल वकीलो केा आज तक कोई मुआवजा नही मिला है और न अब कोई उसकी बात करता है।
कचहरी की समस्याओ के समाधान मे आॅल इण्डिया बार काउन्सिल और प्रदेश बार काउन्सिल की महत्वपूर्ण भूमिका है। कहा जाये कि निर्णायक भूमिका है तो भी इसमें कोई अतिशयोक्ति नही है परन्तु बार काउन्सिल अपनी इस भूमिका के निर्वहन के प्रति असफल सिद्ध हुई है। बार काउन्सिल ने वकील पुलिस संधर्ष के कारणो को चिन्हित करके उसे दूर कराने की दिशा में अभी तक कोई पहल नही की है और न जाॅच समितियो की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का सरकार पर कभी कोई दबाब बनाया है। जो हुआ सो  हुआ। सुबह का भूला यदि शाम को लौट आये तो उसे भूला नही कहते इसलिये बार काउन्सिल को देर किये बिना स्वयं पहल करके वकील पुलिस संधर्ष के कारणो को चिन्हित करने के लिये अपने स्तर पर एक समिति का गठन करना चाहिये जो विभिन्न पहलुओ पर विचार करके सुधार का रोड मैप तैयार करे।
सभी को समझना होगा कि आये दिन होने वाली मारपीट और झगडो के पीछे प्रायः वकालत वृत्ति का विवाद नही होता। अपने विरोधी के अधिवक्ता के साथ सम्मानजनक व्यवहार आम वाद कारियो का स्वभाव है आदत है। शायद ही कभी किसी पक्षकार ने अपने विरोधी के अधिवक्ता के साथ अभद्रता की हो ऐसी दशा में अपने विरोधी के वकील की हत्या कर देने की कल्पना करना भी अस्वभाविक है फिर भी अधिवक्ताओ की हत्याये हो रही है।  उन पर जान लेवा हमले बढे है इसलिये इनके कारणो को चिन्हित करना आवश्यक है।
कचहरी में आये दिन हो रही मारपीट की घटनाओ के लिये प्रायः युवा अधिवक्ताओ को दोषी बताया जाता है। जिसमें कोई सच्चाई नही है। वकालत को अपनी जीविका बनाने का सपना देख रहा एक युवक कुछ सीखने पहले से बेहतर बनने और बौद्विक स्तर पर प्रतिष्ठा पाने के लिये कचहरी मे प्रवेश करता है। कचहरी के अधिवक्ता संघटन नव आगन्तुक के सपनो को साकार करने के लिये संस्थागत स्तर पर उसकी कोई मदद नही करते बल्कि स्थानीय राजनीति में उसकी उर्जा का दुरूपयोग करते है और यही से उसकी दिशा बदलती है।
अपने गठन के बाद से आज तक बार काउन्सिलो ने कभी यह जानने का प्रयास नही  किया कि उसके सदस्य कहाॅ किस स्थिति में जी रहे है? नये अधिवक्ताओ के नियमित प्रशिक्षण की उसने कभी कोई व्यवस्था नही  की है। उन्हे इस महा समुद्र में खुद तैरने के लिये भगवान भरोसे छोड दिया है इसलिये वकीलो में केवल प्रापर्टी डीलिंग का काम करने का आकर्षण बढता जा रहा है। प्रापर्टी डीलिंग का काम अधिवक्ता वृत्ति में नही आता परन्तु कचहरी का  पूरा लोकतन्त्र ऐसे लोगो के चंगुल मे फॅस गया है और उसके बेकाबू हो जाने का खतरा भी बढा है। अभी कुछ दिन पहले एक चैम्बर के सामने कब्जे के विवाद में एक विद्वान अधिवक्ता ने कानपुर बार एसोसिऐशन की कार्यकारिणी कक्ष में महामन्त्री की उपस्थिति में अपने अधिवक्ता साथिओ पर रिवाल्वर तान दी। इसके पहले भी इस प्रकार की घटनाये हो चुकी है। कानपुर में भी न्यायिक बहिस्कार के विवाद में एक अधिवक्ता को  अपनी जान गवानी पडी थी। अधिवक्ता होने की आड मे कचहरी के अन्दर विवादास्पद प्रापर्टी को खरीदने, बेचने का व्यवसाय करने वाले तत्वो को चिन्हित करना और फिर उन्हे कचहरी से बाहर का रास्ता दिखाना आम अधिवक्ताओ के व्यापक हितो और कचहरी के स्वास्थ्य के लिये जरूरी है। परन्तु आल इण्डिया बार काउन्सिल और विभिन्न राज्यो की बार काउन्सिल वोट बैक की राजनीति के कारण कचहरी परिसर में अराजक्ता की फैलती बीमारी को रोकने के लिये कढवी दवा का उपचार करने के लिये तैयार नही है और यह उसकी असफलता है।
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Sunday, 8 March 2015

महिलाओ को कमतर मानने की मानसिकता अभी जिन्दा है।

अभी पिछले दिनो मुम्बई  स्थित एक ट्रेड यूनियन फेडरेशन अॅाफ वेस्टर्न इण्डिया सिने इम्प्लाइज ने महिला कर्मचारो को मेेक-अप आर्टिस्ट के रूप में सेवायोजन के लिये सदस्यता देने से इन्कार कर दिया। फेडरेशन ने महिला कर्मचारो को केवल हेयर डेªसर के रूप में प्रोफेशन के लिये सदस्यता देने अैार पुरूष कर्मकारो को हेयर ड्रेसर के साथ साथ मेक अप आर्टिस्ट के लिये भी प्रोफेशन चुनने की अनुमति प्रदान कर रखी है। लिंग आधारित भेदभाव होने के बावजूद रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन ने फेडरेशन को अपनी नियमावली से इस नियम को प्रथक करने के लिये नही कहा और महिला कर्मकाराो की शिकायत पर फेडरेशन के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की जबकि किसी भी ट्रेड यूनियन की नियमावली से लिंग आधारित भेदभाव के नियमो को प्रथक रखना उनकी पदीय प्रतिबध्ता है।
महिलाओ की शिकायत पर सर्वेच्च न्यायालय ने इस मामले मे हस्तक्षेप किया और अपना निर्णय (चारू खुराना बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया-2015-1-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 192) के द्वारा नियमावली के इस क्लाज को रद करके रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन को आदेशित किया कि वे चार सप्ताह के अन्दर फेडरेशन में मेक अप आर्टिस्ट के रूप में महिला कर्मकारो की सदस्यता सुनिश्चित कराये और यदि फेडरेशन केाई व्यवधान उत्पन्न करे तो पुलिस अधिकारी अपनी पदीय प्रतिबध्ताओ के  तहत महिला कर्मचारियो को उत्पीडन के विरूद्ध सुरक्षा प्रदान करे।
समुचित संवैधानिक प्रावधानो और सर्वोच्च न्यायालय के नियमित हस्तक्षेप के बावजूद महिलाओ को कमतर मानने की  मानसिकता आज भी जिन्दा है। नीरा माथुर बनाम एल0आई0सी0( 1992-1-एस0सी0पी0-पेज 286) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय जीवन बीमा निगम  में महिला कर्मचारियो के लिये अपनी माहवारी की अवधि, माहवारी की  पिछली तिथि, प्रेगेनेन्सी और गर्भपात जैसी नितांत व्यक्तिगत जानकारियो को प्रबन्धको के समक्ष प्रस्तुत करने की अनिवार्यता केा असंवैधानिक घोषित किया है। इसके पूर्व मायादेवी के मामले (1986-1-एस0सी0आर0 पेज 743) में भी सर्वोच्च न्यायालय ने विवाहित महिलाओ के लिये सार्वजनिक पद पर नौकरी के लिये आवेदन करने के पूर्व अपने पति की सहमति होने की अनिवार्यता को भी असंवैधानिक घोषित किया था और आवेदन पत्र में इस आशय के कालम को हटा देने का आदेश जारी किया । न्यायालय ने महिलाओ के लिये इस प्रकार की सूचनाये उपलब्ध कराने की अनिवार्यता को महिलाओ की गरिमा और उनकी निजता के अधिकार का उल्लधंन माना था। अधिक पढे.....।कअवबंजमवचपदपवदण्इसवहेचवजण्पद
    जागरूकता और सर्वाेच्च न्यायालय के सुस्पष्ट आदेशो के बावजूद माना जा सकता था कि कोई नियेाक्ता लिंग के आधार पर अपने कर्मचारियो के साथ विभेद नही करेगा और महिला होने के नाते किसी कर्मचारी को रोजगार के किसी अवसर से वंचित नही करेगा परन्तु आजादी के इतने लम्बे वर्षो के बावजूद ऐसा नही हो सका और महिलाओ के साथ भेदभाव जारी है। मैकिननान मैकेनजी एण्ड कम्पनी लिमिटेड ने अपने प्रतिष्ठान में महिला और पुरूष स्टेनेाग्राफर के बीच लिंग के  आधार पर विभेद बन्द नही किया। महिला स्टेनोग्राफर को पुरूष स्टेनोग्राफर की तुलना में कम वेतन दिया जाता था। स्थानीय श्रम अधिकारियो ने इस विभेद को मिटाने के लिये अपने स्तर पर कोई सार्थक पहल नही की। सर्वोच्च न्यायालय को पुनः हस्तक्षेप करना पडा। मैकिननान मैकेनजी एण्ड कम्पनी लि0 बनाम आॅडेª डी0 कोस्टा(1987-2-एस0सी0पी0 पेज 469) के द्वारा पुनः सर्वोच्च न्यायालय ने इस विभेद को समाप्त कराया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि समान काम का समान वेतन दिया जाना चाहिये। इस  संस्थन में वरिष्ठ अधिकारियो के साथ गोपनीय कार्य करने के लिये किसी स्टेनोग्राफर की  नियुक्ति नही की जाती और न किसी महिला को किसी वरिष्ठ अधिकारी के साथ गोपनीय काम करने के लिये स्थानान्तरित किया जाता है। पुरूष और महिला दोनो की नियुक्ति प्रक्रिया और शैक्षिणिक योग्यताये एक समान होने के बावजूद महिला स्टेनोग्राफर को पुरूषो की तुलना मे कम वेतन दिया जाना स्पष्ट रूप से डिस्क्रिमिनिनेशन है और संविधान किसी भी दशा में इसकी इजाजत नही देता।
स्वामी विवेकानन्द ने कभी कहा था कि जिस तरह चिडिया अपने एक पंख के सहारे उड नही सकती ठीक उसी तरह महिलाओ को पीछे रखकर कोई समाज आगे नही बढ सकता परन्तु अपना समाज आज भी महिलाओ की मौलिक स्वतन्त्रता का सम्मान नही करता। किसी न किसी बहाने उन्हे कमतर मानकर उनके साथ अन्याय किये जाने  की प्रथाये आज भी जारी है । उनकी नैसर्गिक प्रतिभा और सम्भावनाओ को घर की चहार  दीवारी में कैद करके जिसको जब जहाॅ अवसर मिलता है, उनका शोषण करने से चूकता नही है। अपनी इस स्थिति के लिये महिलाये भी  कम जिम्मेदार नही है। माॅ के नाते बेटी और बेटे के बीच विभेद की शुरूआत वे स्वंय करती है और नित्य प्रति किसी और के अनुचित व्यवहार के कारण अनावश्यक बन्दिशे लगाकर बेटियो के आत्म विश्वास को झकझोर देती है।
महिलाओ के साथ सदियो से चले आ रहे अन्याय को दृष्टिगत रखकर अपने संविधान निर्माताओ ने संविधान में  ही स्पष्ट कर दिया था कि भारतीय गणराज्य पुरूष और महिला अपने सभी नागरिको को समान रूप से जीविका के समुचित         साधन उपलब्ध कराने के लिये ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना और उसका संरक्षण करके लोक कल्याण को बढावा देगा जिससे सभी के साथ सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय हो सके और राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाये इन्ही उददेश्यो की प्राप्ति के लिये अनवरत प्रयास रत रहें और किसी नागरिक के साथ धमर््ा मूलवंश जाति लिंग जन्म स्थान के आधार पर कोई विभेद न किया जा सके।
फ्रान्स की प्रख्यात साहित्यकार सिमोन देवोनार ने कहा है कि औरत पैदा होती है परन्तु उसमें दीनता समाज पैदा करता है। कोमलता स्नेह और कमजोरी को  अैारत का प्रतिरूप माना जाता है। झाॅसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजो के छक्के छुडाकर पूरे भारत का गौरव बढाया था परन्तु कहा जाता है कि उन्होने भारतीय नारी का गौरव बढाया है। कोई  क्यो नही कहता कि गाॅधी नेहरू पटेल सुभाष ने भारतीय पुरूषो का गौरव बढाया है। इस प्रकार की बाते भी महिलाओ को उनके योगदान का पूरा महत्व न देने और उन्हे कमतर बनाये रखने का षडयन्त्र है। मधु किश्वर बनाम स्टेट आॅफ बिहार(1996-5-एस0सी0पी0 पेज 125) मे सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि भारतीय महिलाये अपने साथ हो  रहे अन्याय को मौन भाव से बर्दाश्त करती है। आत्म त्याग और अपने अधिकारो को त्यागते रहना उनकी आदत बन गई है और उनकी यही आदत सभी असमानताओ का आधार हैं।
संविधान के अनुच्छेद 51 क में प्रावधान है कि सरकार भारत के सभी लोगो में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो और ऐसी प्रथाओ का त्याग करे जो महिलाओ के सम्मान के विरूद्ध हो। नागरिको के कर्तव्य सरकार के सामूहिक कर्तव्यो की परिधि में आते है। सरकार का  दायित्व है कि सभी को अवसरो की समानता सुनिश्चित कराये और किसी भी दशा में अवसरो में कटौती न होने दे। संविधान के अनुच्छेद 14,19(1) जी. और 21 के तहत राज्य किसी भी नागरिक केे साथ धर्म मूलवंश जाति या लिंग के आधार पर कोई विभेद नही किया जा सकता   और सभी को भारत के राज्य क्षेत्र केे किसी भाग में निवास करने बस जाने कोई वृत्ति उप जीविका व्यापार या कारोबार करने का अधिकार है। इसलिये सरकार को ऐसी नीतियां बनानी होगी जिसमें पुरूष और महिलाओ में किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो और लिंग के आधार पर उन्हे किसी रोजगार या जीविका से वंचित न होना  पडे और सरकार को ऐसा माहौल बनाना होगा जिसमें किसी रोजगार के लिये महिलाओ के साथ किसी प्रकार का भेदभाव करने का कोई साहस न कर सके।

Sunday, 1 March 2015

आम बजट आशाओ पर तुषारापात का पिटारा


संसद में आम बजट प्रस्तुत होने के बाद स्थानीय “आई नेक्स्ट” अखबार के दफ्तर में आम बजट पर परिचर्चा के दौरान सभी ने उसे निराशाजनक बताया। सीनियर चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट श्री धर्मेन्द्र श्रीवास्तव ने उसे विजन डाक्यूमेन्ट बताया। सीनियर सिटीजन श्री बद्री प्रसाद मिश्रा ने बजट में वरिष्ठ नागरिको को भूलने की शिकायत की। सी0एस0ए0 की सहायक प्रोफेसर डा0 विनीता सिंह ने बजट के प्रावधानो से परचेजिंग पावर घटने की आशंका जताई। डा0 विज्ञान सान्याल ने इलाज और जाॅचो के महॅगा हो जाने का खतरा बताया। कर्मचारी श्री अनुग्रह त्रिपाठी ने उसे मजदूर विरोधी बताया और अर्थ शास्त्र के प्राध्यापक डा0 एम.पी. सिंह ने एग्रीकल्चर सेक्टर के लिये समुचित प्रावधान न होने के कारण विकास के दावे के खोखलेपन का दर्द बयाॅ किया।
बजट में सर्विस टैक्स 12.36 प्रतिशत से बढाकर 14 प्रतिशत करने और उसके ऊपर 2 प्रतिशत स्वच्छता टैक्स जुड जाने से टैक्स की वास्तविक  दर 14.28 प्रतिशत हो गई है और इसके कारण रोजमर्रा की जरूरतों टेलीफोन, मोबाइल, सीमेन्ट, बीडी, सिगरेट,गुटखा,होटल में खाना, रहना,ब्यूटी पार्लर,कोरियर सेवायें, इन्श्योरेन्स,फ्लेवर्ड पेय,बोतल बन्द पानी, शेयर दलाली, क्रेडिट डेविट कार्ड की सेवाये,ड्राई क्लिनिंग आदि का महॅगा होना सुनिश्चित हो गया है और इस सबसे अच्छे दिन आने का सपना भी बिखर गया है।
वित्त मन्त्री अरूण जेटली विद्यार्थी नेता रहे है और विद्यार्थी नेता के नाते वे कुल बजट का  10 प्रतिशत शिक्षा और उसका बडा हिस्सा प्राथमिक शिक्षा पर खर्च किये जाने की वकालत किया करते थे परन्तु वित्त मन्त्री के रूप में अवसर मिलने पर उन्होने इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रयास नही किया है। यह सच है कि उन्होने उच्च शिक्षा और शोध संस्थाओ को बढावा देते हुये अधिकांश राज्यो मे एक केन्द्रीय संस्थान खोलने की घोषणा की है। हर ब्लाक में एक माडल स्कूल खोलने की भी योजना है परन्तु प्राथमिक शिक्षा के ढाॅचे को मजबूत करने के लिये सार्थक प्रयास नही किये गये है। प्राथमिक विद्यालयो का शैक्षिक स्तर बढाये बिना उच्च शिक्षा की सुविधाओ का लाभ गरीब मजदूर किसान के बच्चो को नही मिल सकेगा। सुदूर गाॅवो में आज भी प्राथमिक स्कूलो के पास भवन नही है। बालिका विद्यालयो में शौचालय की व्यवस्था नही है। कक्षा पाॅच के बाद अगली कक्षाओं की पढाई के लिये गाॅव के आसपास कोई स्कूल नही है। इस कमी को दूर करने के लिये बजट में कोई रोड मैप नही है। जो सबका साथ सबका विकास के नारे की सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह खडा करता है।
इस बजट मे शिक्षा के बजट मे कटौती भी की गई है। जिसे किसी भी दशा में उचित नही कहा जा सकता। स्कूली शिक्षा और साक्षरता के लिये पिछले बजट मे पचपन हजार करोड रूपये आवंटित किये गये थे परन्तु इस बार केवल 42 हजार करोड दिये गये है। इसी प्रकार उच्च शिक्षा में 28 हजार करोड की  जगह केवल 27 हजार करोड रूपये दिये गये है।
परिचर्चा के दौरान कहा गया कि वित्त मन्त्री ने कर्मचारी राज्य बीमा योजना और भविष्य निधि योजना के अशंदानो की अनिवार्य कटौती को स्वेच्छिक बनाने का निर्णय लेकर सामाजिक सुरक्षा की इन योजनाओ के भविष्य पर सवालिया निशान लगाया है। काफी संघर्ष के बाद तत्कालीन सरकार ने श्रमिको के और उनके परिवार के व्यापक हितों के लिये इन योजनाओ को शुरू किया और अब लगता है कि उसे  बन्द करने की तैयारी की जा रही है जबकि सबको पता है कि ई.एस.आई के अस्पतालो के कारण मजदूरो और उनके परिवारो को अच्छा इलाज मिल जाता है और सेवानिृवत्त के बाद भविष्य निधि से मिलने वाली राशि उनके वृद्धावस्था का मजबूर सहारा होता है। इन स्कीमो में किसी  भी प्रकार की कटौती श्रमिको के हित मे नही है।
कर्मचारी भविष्य निधि स्कीम मे लगभग 19 हजार करोड रूपया अन क्लेम्ड पडा हुआ है। वित्त मन्त्री इस पैसे का उपयोग  अपने तरीके से करना चाहते है जो किसी भी दशा में न्यायसंगत नही है । वास्तव में इस पैसे का उपयोग श्रमिको के कल्याण के लिये किया जाना चाहिये। कर्मचारी भविष्य निधि योजना के तहत सेवा निवृत्त कर्मचारियो को  एक हजार रूपये से कम पेन्शन दी जा रही है जिसे किसी  भी तरह समुचित नही कहा जा सकता। वित्त मन्त्री को  श्रमिको की इस पेन्शन राशि को बढाकर न्यूनतम तीन  हजार रूपये करना  चाहिये था।
भारतीय जनता पार्टी का यह बजट एक विजन डाक्यूमेन्ट है। इस बजट के दूरगामी परिणाम अच्छे हो सकते है परन्तु आम लोगो की तात्कालिक जरूरतो की  दृष्टि से बजट    निराशाजनक है। इस बजट से कारपोरेट धरानो को छोडकर किसी  को कोई लाभ नही दिखता। आयकर में कोई छूट न दिये जाने और सर्विस टैक्स की राशि बढा  देने से वेतन भोगी कर्मचारियो और छोटे कारोबारियों के पास बचत के विकल्प कम हो गये है। उनकी परचेजिंग क्षमता कम होगी और उन्हे अपनी मूलभूत जरूरतो के खर्चाे में कटौती करनी पडेगी। कोई भी व्यक्ति बच्चो के स्कूल की फीस, बिजली का बिल, हाउस टैक्स पानी आदि के बिल मोबाइल,टेलीफोन,पेट्रोल का खर्च कम नही कर सकता, इसलिये उसे अपने खुद की जरूरतो के लिये होने वाले खर्च कम करने पडेगें।
बजट में रोजगार बढाने के लिये नही बल्कि उद्यमशीलता केा बढाने के लिये बडी बडी बाते कही गयी है जो सुनने मे अच्छी लगती है परन्तु जमीन पर इसका लाभ आम युवा को  मिलता नही दिखता। एक सामान्य परिवार के युवा इन्जीनियर के लिये अपना उद्यम स्थापित करना कागजो में आसान हो सकता है परन्तु जमीन पर  हकीकत कुछ और होती  है। एक उद्योग लगाने के लिये जमीन से पॅूजी तक कई तरह के साधन जुटाने होते है। कागजो मे बताया जाता है कि वित्तीय संस्थान युवाओ की हर तरह की मदद करेगेे परन्तु भारी भरकम जमानत लिये बिना कोई भी बैंक एक सामान्य आर्थिक पृष्ठिभूमि के युवा को ऋण नही देते। बजट में इस दिशा में की गयी सभी घोषणाये सदिच्छा से ज्यादा कुछ नही है। रोड मैप का अभाव है। इसलिये बजट में  वित्त मन्त्री ने अपने समर्थको की आशाओं पर भी तुषारापात किया है।