इलाहाबाद कचहरी मे वकीलो और पुलिस के बीच कहासुनी के बाद दरोगा ने ताबडतोड फायरिंग की जिससे वकील नवी अहमद की मृत्यु हो गयी। घटना के विरोध में बार काउन्सिल आॅफ इण्डिया ने 16 मार्च सोमवार को सम्पूर्ण देश में न्यायिक कार्य के बहिस्कार की घोषणा की है। हलाॅकि सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश और देश के कई हिस्सो मे घटना के तत्काल बाद से अधिवक्ता न्यायिक कार्य से विरत है। उत्तर प्रदेश सरकार ने घटना की सी.बी.आई. से जाॅच और मृतक अधिवक्ता के परिजनो को दस लाख रूपये की आर्थिक सहायता देने की घोषणा की है।
इस प्रकार की घटनाओ के बाद सी.बी.आई. जाॅच दोषियो को सजा और धायलो को उचित मुआवजा देने की माॅग और इन माॅगो को पूरी करने के लिये न्यायिक या गैर न्यायिक जाॅच आयोगो का गान कोई नई बात नही है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अन्दर तत्कालीन सत्तारूठ दल के कार्यकर्ताओ द्वारा की गई तोडफोड के बाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश द्वारा सेना बुला लेने की स्मृतियाॅ अभी धुंधली नही हुई है परन्तु कचहरी को नियन्त्रित एवम संचालित करने वाले नीति नियंताओ ने इन घटनाओ से कोई सबक नही लिया। समझना समझाना होगा कि वकील और पुलिस दोनो राष्ट्र जीवन के महत्वपूर्ण और सामान्तर स्तम्भ है। दोनो की समाज को जरूरत है और उनके मध्य कोई प्रतिस्पर्धा नही है। उनके मध्य बढता टकराव किसी के भी हित मे नही है। उनकी वैमनस्यता राष्ट्र और समान के व्यापक हितो के प्रतिकूल है परन्तु सरकार उच्च न्यायालय या बार काउन्सिल इसके कारणो को चिन्हित करके उन्हे दूर करने का सार्थक प्रयास करते दिखती नही है जो चिन्ता का विषय है।
7 अप्रैल 2010 को कानपुर कचहरी में एक विद्वान अधिवक्ता और दरोगा के मध्य किसी निजी बाहरी विवाद को लेकर कहासुनी हो गई थी। विवाद को सुलझाने के लिये प्रथम अपर जनपद न्यायाधीश के कक्ष में वार्ता हो रही थी। इसी बीच अफरातफरी मच गई और पुलिस कर्मियों ने जनपद न्यायाधीश की अनुमति के बिना वकीलो को पीटना शुरू कर दिया। चैम्बर मे शान्तिपूर्वक अपना काम निपटा रहे वरिष्ठ अधिवक्ताओ को भी बुरी तरह पीटा गया। पुलिस कर्मियों ने स्टैण्ड में खडी वकीलो की कार, स्कूटर, मोटर साइकिले जला दी। उन्हे तोडा फोडा। जबरजस्त हडताल हुई और कानपुर का न्यायिक क्षेत्राधिकार इटावा स्थानान्तरित कर दिया गया परन्तु हडताल खत्म नही हुई। इलाहाबाद हाई कोर्ट के घेराव की धोषणा हुई। केन्द्रीय विधि मन्त्री के हस्तक्षेप के बाद हडताल समाप्त हुई। हाई कोर्ट ने अपने तीन कार्यरत न्यायाधीशो की समिति घटना की जाॅच के लिये गठित की। न्यायाधीशो की समिति ने घटना के विभिन्न पहलुओ की जाॅच के लिये कचहरी के सभी पक्षो के साथ विचार विमर्श किया परन्तु उसकी रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नही की गयी। इस घटना के बाद वकीलो की माॅग पर तत्कालीन जनपद न्यायाधीश को स्थानान्तरित किया गया था और कार्यरत न्यायाधीशो की समिति होने के कारण अपेक्षा की गयी थी कि यह जाॅच समिति वकील पुलिस संधर्ष के कारणो को चिन्हित करके उनको दूर करने का मार्ग प्रशस्त करेगी परन्तु सरकारो द्वारा गठित जाॅच समितियो की तरह इस न्यायिक समिति ने भी सभी को निराश किया और घायल वकीलो केा आज तक कोई मुआवजा नही मिला है और न अब कोई उसकी बात करता है।
कचहरी की समस्याओ के समाधान मे आॅल इण्डिया बार काउन्सिल और प्रदेश बार काउन्सिल की महत्वपूर्ण भूमिका है। कहा जाये कि निर्णायक भूमिका है तो भी इसमें कोई अतिशयोक्ति नही है परन्तु बार काउन्सिल अपनी इस भूमिका के निर्वहन के प्रति असफल सिद्ध हुई है। बार काउन्सिल ने वकील पुलिस संधर्ष के कारणो को चिन्हित करके उसे दूर कराने की दिशा में अभी तक कोई पहल नही की है और न जाॅच समितियो की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का सरकार पर कभी कोई दबाब बनाया है। जो हुआ सो हुआ। सुबह का भूला यदि शाम को लौट आये तो उसे भूला नही कहते इसलिये बार काउन्सिल को देर किये बिना स्वयं पहल करके वकील पुलिस संधर्ष के कारणो को चिन्हित करने के लिये अपने स्तर पर एक समिति का गठन करना चाहिये जो विभिन्न पहलुओ पर विचार करके सुधार का रोड मैप तैयार करे।
सभी को समझना होगा कि आये दिन होने वाली मारपीट और झगडो के पीछे प्रायः वकालत वृत्ति का विवाद नही होता। अपने विरोधी के अधिवक्ता के साथ सम्मानजनक व्यवहार आम वाद कारियो का स्वभाव है आदत है। शायद ही कभी किसी पक्षकार ने अपने विरोधी के अधिवक्ता के साथ अभद्रता की हो ऐसी दशा में अपने विरोधी के वकील की हत्या कर देने की कल्पना करना भी अस्वभाविक है फिर भी अधिवक्ताओ की हत्याये हो रही है। उन पर जान लेवा हमले बढे है इसलिये इनके कारणो को चिन्हित करना आवश्यक है।
कचहरी में आये दिन हो रही मारपीट की घटनाओ के लिये प्रायः युवा अधिवक्ताओ को दोषी बताया जाता है। जिसमें कोई सच्चाई नही है। वकालत को अपनी जीविका बनाने का सपना देख रहा एक युवक कुछ सीखने पहले से बेहतर बनने और बौद्विक स्तर पर प्रतिष्ठा पाने के लिये कचहरी मे प्रवेश करता है। कचहरी के अधिवक्ता संघटन नव आगन्तुक के सपनो को साकार करने के लिये संस्थागत स्तर पर उसकी कोई मदद नही करते बल्कि स्थानीय राजनीति में उसकी उर्जा का दुरूपयोग करते है और यही से उसकी दिशा बदलती है।
अपने गठन के बाद से आज तक बार काउन्सिलो ने कभी यह जानने का प्रयास नही किया कि उसके सदस्य कहाॅ किस स्थिति में जी रहे है? नये अधिवक्ताओ के नियमित प्रशिक्षण की उसने कभी कोई व्यवस्था नही की है। उन्हे इस महा समुद्र में खुद तैरने के लिये भगवान भरोसे छोड दिया है इसलिये वकीलो में केवल प्रापर्टी डीलिंग का काम करने का आकर्षण बढता जा रहा है। प्रापर्टी डीलिंग का काम अधिवक्ता वृत्ति में नही आता परन्तु कचहरी का पूरा लोकतन्त्र ऐसे लोगो के चंगुल मे फॅस गया है और उसके बेकाबू हो जाने का खतरा भी बढा है। अभी कुछ दिन पहले एक चैम्बर के सामने कब्जे के विवाद में एक विद्वान अधिवक्ता ने कानपुर बार एसोसिऐशन की कार्यकारिणी कक्ष में महामन्त्री की उपस्थिति में अपने अधिवक्ता साथिओ पर रिवाल्वर तान दी। इसके पहले भी इस प्रकार की घटनाये हो चुकी है। कानपुर में भी न्यायिक बहिस्कार के विवाद में एक अधिवक्ता को अपनी जान गवानी पडी थी। अधिवक्ता होने की आड मे कचहरी के अन्दर विवादास्पद प्रापर्टी को खरीदने, बेचने का व्यवसाय करने वाले तत्वो को चिन्हित करना और फिर उन्हे कचहरी से बाहर का रास्ता दिखाना आम अधिवक्ताओ के व्यापक हितो और कचहरी के स्वास्थ्य के लिये जरूरी है। परन्तु आल इण्डिया बार काउन्सिल और विभिन्न राज्यो की बार काउन्सिल वोट बैक की राजनीति के कारण कचहरी परिसर में अराजक्ता की फैलती बीमारी को रोकने के लिये कढवी दवा का उपचार करने के लिये तैयार नही है और यह उसकी असफलता है।
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