इन्दिरा गाँधी की तानाशाही के दौरान आपातकाल विरूद्ध कक्षा 12 का विद्यार्थी होने के नाते ‘‘दम है कितना दमन मे तेरे देख लिया और देखेंगे, इन्दिरा तेरी जेल अदालत देखी है और देखेंगे’’ का नारा लगाते हुये सत्याग्रह करके जेल जाना जीवन की सबसे महत्वपूर्ण और अविस्मरणीय घटना है। उन दिनों आये दिन सत्याग्रही गिरफ्तार करके कचहरी लाये जाते थे और वहाँ इन्दिरा विरोधी नारेबाजी के बीच लोगों के चेहरो पर सत्याग्रहियों के प्रति अपनेपन और सम्मान का भाव देखकर सत्याग्रहियों का उत्साह और मनोबल बढ़ जाता था। वास्तव में भारत की जनता ने कभी आपालकाल स्वीकार नही किया और न इसके लिए आज तक इन्दिरा गाँधी को क्षमा किया है।
आपातकाल भारत के लोकतान्त्रिक जीवन का काला अध्याय है। सोचा भी नही जा सकता था कि मोती लाल नेहरू और देशबन्धु चितरन्जन दास की ही तीसरी पीढ़ी असहमति को कुचलने का कारण बनेगी। इन्दिरा गाँधी को आन्तरिक आपातकाल लगाने का रास्ता देशबन्धु चितरन्जन दास के नाती सिद्धार्थ शंकर राय ने सुझाया था। शाह आयोग के समक्ष अपनी गवाही के दौरान उन्होंने बताया था कि 25 जून 1975 को उन्हें इन्दिरा गाँधी ने अपने आवास पर बुलाया और सलाह माँगी कि वर्तमान परिस्थितियों में कठोर कदम उठाने के लिए संविधान के किस अनुच्छेद के तहत कार्यवाही की जा सकती है ? उन्होंने अनुच्छेद 352 का सहारा लेने की सलाह दी। इन्दिरा जी ने उनसे यह भी कहा था कि आपातकाल लगाने के निर्णय की सूचना, अधिसूचना जारी हो जाने के बाद मन्त्रिमण्डल को दी जायेगी। श्री राय ने इन्दिरा गाँधी को संविधान की मर्यादा का उल्लंघन न करने की सलाह नही दी और आम भारतीयों के नागरिक अधिकारों का हनन करने के लिए देश पर आपातकाल थोपने में सक्रिय सहयोग किया था।
जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी बाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, राजनारायण मधुलिमये, बीजू पटनायक, मोरारी जी, भाई देसाई और कांग्रेस कार्य समिति के वरिष्ठ सदस्य चन्द्रशेखर जी सहित हजारों राजनैतिक कार्यकर्ताओं को बिना कोई कारण बताये सम्पूर्ण देश में गिरफ्तार कर लिया गया था। सभी प्रमुख राजनेताओं के गिरफ्तार हो जाने के कारण आपातकाल की घोषणा के तत्काल बाद उसके विरूद्ध कोई आन्दोलन खडा नही हो सका। कानपुर के दैनिक जागरण ने उस दिन अपने सम्पादकीय कालम में कुछ भी लिखे बिना उसमें प्रश्नचिन्ह बनाकर अपने प्रोफेशनल समर्पण और अदम्य साहस का परिचय दिया था परन्तु पिता पुत्र (श्री पूर्ण चन्द्र गुप्त एवं श्री नरेन्द्र मोहन गुप्त) की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने भी अपना स्वर बदल लिया और अब उनकी वर्तमान पीढ़ी सत्ता के साथ सामजस्य बिठाने को ही पत्रकारिता धर्म मानने लगी है।
आपातकाल में राजनैतिक कार्यकर्ता, पत्रकार और वकील सर्वाधिक प्रभावित हुये थे। राजनैतिक कार्यकर्ताओ ने उस दौर में सर्वाधिक निराश किया था। वकीलों ने प्रतिरोध के मामले में अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित की थी। आपातकाल का कारण बने राजनारायण के मुकदमें में सर्वाेच्च न्यायालय के समक्ष इन्दिरा गाँधी के वकील रहे श्री नानी पालकीवाला ने आपातकाल के विरोध में बाम्बे हाउस में अधिवक्ताओं की सभा की और इन्दिरा गाँधी को उनकी फाइल वापस कर दी। सर्वोच्च न्यायालय के एडिसनल साॅलिसिटर जनरल श्री पी.एस. नरीमन ने भी अपना पद त्याग दिया। आपात काल के विरोध में नानी पालकीवाला, रामजेठमलानी, के.एस. कूपर, ए.वी. दीवान, एस.जे. सोराबजी जैसे प्रख्यात वकीलों ने 18 अक्टूबर 1975 को जिन्नाहाउस में मीटिंग करके इन्दिरा गाँधी की सरकार का विरोध किया। न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर, न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना न्यायमूर्ति रंगराजन ने न्यायिक तरीके से सरकार को उनकी संवैधानिक मर्यादाओं की याद दिलायी। अपने कानपुर के युवा अधिवक्ता श्री विजय नारायण सिंह सेंगर ने भी जेल बन्दियों का निःशुल्क मुकदमा लड़कर प्रतिरोध में अतुलनीय योगदान किया था। बड़ौदा डाइनामाइट काण्ड में सर्वाेच्च न्यायालय के समक्ष जार्ज फर्नाडिज और उनके साथियों की तरफ से उपस्थित होकर उस समय की युवा अधिवक्ता श्रीमती सुषमा स्वराज ने भी साहस का परिचय दिया था। आज वे भारत की विदेश मन्त्री हैं।
आपातकाल के दौरान 253 पत्रकारों को भी गिरफ्तार किया गया। उनमें से 110 मीसा, 110 डिफेन्स आफ इण्डिया सल्स और 33 को अन्य कानूनों के अन्तर्गत बन्दी बनाया गया परन्तु पत्रकारिता जगत में इण्डियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका और पत्रकार कुलदीप नायर को छोड़कर लगभग सभी नामचीन लोगोें ने निराश किया था। वास्तव में इन्दिरा गाँधी ने उनसे झुकने को कहा परन्तु वे सब के सब रेंगने लगे थे। कमोवेश वही स्थिति अब फिर दोहरायी जाने लगी है और उसको देखकर डर लगने लगा है।
गाँवो कस्बों के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने आपातकाल को कभी स्वीकार नही किया और उसके विरूद्ध सशक्त जनमत बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। आपात काल के विरूद्ध सत्याग्रह करके गिरफ्तारी देने के निर्णय के बाद इण्टर कालेज के छात्रों, किसानों और छोटे व्यापारियों ने बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी दी थी। आज के विद्वान अधिवक्ता प्रकाश मिश्र आयु में सबसे छोटे सत्याग्रही थे और उस समय कक्षा 10 के विद्यार्थी थे। आपातकाल की घोषणा के पूर्व वार्डो में सभी राजनैतिक दलों की ईकाइयाँ के कम से कम पाँच पदाधिकारियों को स्थानीय प्रभावशाली राजनेता के रूप में जाना पहचाना जाता था, परन्तु उन सब ने निराश किया और उनमें से कई बीस सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करके आपातकाल समर्थकों के मनोबल को बढ़ाने का कारण भी बनें। आई.आई.टी कानपुर के छात्रों ने भी भूमिगत आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता की थी। आपात काल के दौरान भूमिगत कार्यकर्ताओं की तीन दिवसीय बैठक आई.आई.टी. छात्रावास में हुई थी। जिसमें उस समय के प्रख्यात छात्र नेता श्री राम बहादुर राय भी उपस्थित रहे थे।
सेंसरशिप के कारण बन्दी राजनेताओं के बारे में कोई समाचार नही छपते थे, परन्तु दो पृष्ठीय पम्पलेटों के माध्यम से अपने शुभचिन्तकों के बीच सूचना पहुँचाने का तन्त्र विकसित कर लिया गया था। पूरे आपात काल के दौरान इन्दिरा गाँधी की पुलिस और सी.बी.आई. इस तन्त्र के बारे में कोई जानकारी नही जुटा सकी। भूमिगत साहित्य बड़े पैमाने पर वितरित किया जाता था। अटल, आडवाणी और मधु दण्डले ने कर्नाटक हाई कोर्ट में अपनी नजरबन्दी के विरूद्ध समादेश याचिका दाखिल की थी जिस पर बहस के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री एम.सी. छागला मुम्बई से बँगलौर गये थे। न्यायालय के समक्ष हुई बहस का आँखों देखा हाल भूमिगत साहित्य में छापा गया था।
जेल जीवन में अपने घरों से आने वाले पत्रों को कई बार पढ़ना बहुत अच्छा लगता था। अधिकांश विद्यार्थियों ने अपने घर में कोई जानकारी दिये बिना सत्याग्रह करके गिरफ्तारी दी थी। कब रिहाई होगी कोई नही जानता था इस लिए स्वाभाविक रूप से माता पिता कुछ दुःखी हुये, वे अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिन्तित थे परन्तु राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन प्रचारक श्री विष्णु जी जिन्हें सभी मास्टर साहब कहते थे, ने गिरफ्तार विद्यार्थियों के घर वालों को अपने बच्चो पर गर्व करने के लिए तैयार किया। उनकी प्रेरणा से किसी माता पिता ने अपने बच्चो को बीस सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करके माफी माँग लेने के लिए उत्प्र्रेरित नही किया और न अन्य किसी प्रकार से कभी हतोत्साहित किया। मीसाबन्दियों गणेशदत्त बाजपेई, विनय भाई, सन्तोष शुक्ला, गणेश दीक्षित, डा. वी.एल. धूपड़, सन्तोष चन्देल आदि को कानपुर से अलग अलग दूसरी जेलों में स्थानान्तरित करने की सूचना बैरक में देर रात आयी। अलग अलग तीन बैरकों में बन्दी रखे गये थे। दीवार के किनारे खड़े होकर चिल्ला चिल्ला कर सूचना शेयर करके रात भर नारेबाजी की गयी। उस रात जेल में पहली बार माहौल गमगीन हुआ। दूसरे दिन सूर्योदय के काफी पहले इन सभी को बैरकों से निकालकर दूसरी जेलों के लिये रवाना कर दिया गया और उसके बाद उस दिन किसी ने खाना भी नही खाया। सायंकाल प्रख्यात साहित्यकार और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रामवृक्ष बेनीपुरी की किताब से 1942 मे जय प्रकाश जी और उनके साथियों के जेल से भागने का वर्णन सुनाया गया और उसको सुनने के बाद माहौल में फिर गर्मजोशी आ गयी।
जेल में सभी को व्यस्त रखने का पूरा इन्तजाम था। विद्यार्थियों को विषयवार पढ़ाने के लिए कक्षायें लगती थी। आई.आई.टी के विभागाध्यक्ष डा. वी.एल. धूपड़ वी.एस.एस.डी.कालेज के डा. ज्ञान चन्द्र अग्रवाल, डा. प्रकाश अवस्थी, डा. जगन्नाथ गुप्ता बन्दी विद्यार्थियों को पढ़ाते थे। कक्षा 10 एवं 12 के विद्यार्थियों को आई.आई.टी. के विभागाध्यक्ष से पढ़ने का सौभाग्य कभी किसी को नही मिला होगा। शाम को प्रख्यात अधिवक्ता श्री गोपाल कृष्ण पाण्डेय धार्मिक ग्रन्थों की कहानियाँ सुनाते थे और रात्रि में बी.एन.एस.डी. कालेज में रसायन शास्त्र के प्राध्यापक श्री रवीन्द्र पाठक अखबारों से चुटीले समाचार ढूँढ़कर सुनाते थे। कभी किसी को ऊबने या खाली होने का अहसास नही होने दिया गया।
आपातकाल के दौरान पुलिस का रवैया बेहद उत्पीड़क था। भूमिगत साहित्य का प्रकाशन स्थल जानने के लिए थाना बजरिया में सन्तोष शुक्ला के साथ उस समय के एस.एस.पी, ओ.पी. अग्निहोत्री ने अमानवीयता की सभी सीमाओं का उल्लंघन करके थर्ड डिग्री का प्रयोग किया था। रामदेव शुक्ला को डी.ए.वी. कालेज मे सत्याग्रह के बाद थाना कोतवाली ले जाते समय तत्कालीन कोतवाली इन्सपेक्टर सुरेन्द्र पाल शर्मा ने बुरी तरह मारा पीटा था। कानपुर में सत्याग्रहियों पर अत्याचार के लिए जिम्मेदार तत्कालीन अपर जिलाधिकारी (नगर) राम रतन राम को बाद में भारतीय जनता पार्टी ने राज्य सभा का टिकट देकर लोकतन्त्र सेनानियों को अपमानित भी किया था।
आपात काल के दौरान उत्तर प्रदेश के पाँच महानगरों में अफवाह उड़ी कि स्कूलों में बच्चों को नसबन्दी के टीके लगाये जा रहे है। इस अफवाह के कारण सभी शहरों में अफरातफरी मच गई। जो जहाँ था, वहीं से अपने बच्चों को स्कूल से लाने के लिए भागा। उस दिन मेरे बाल सखा और पूर्व केन्द्रीय मन्त्री श्री राजीव शुक्ला की माँ का लाला लाजपत राय अस्पताल में आॅपरेशन हुआ था और मैं सारा दिन वहीं उपस्थित था, परन्तु उसी दिन रात्रि में मेरे पारिवारिक सुपरिचित दरोगा ने मुझे अफवाह फैलाने के आरोप में गिरफ्तार किया जबकि उसे मालूम था कि मैं सारा दिन अस्पताल में रहा हूँ। उस दिन के बाद से मैं मानने लगा हूँ कि यदि अपने पिता जी दरोगा हो जायें तो मान लेना चाहियें कि वे दरोगा पहले है पिता जी बाद में। अर्थात दरोगा का अपना कोई चरित्र नहीं होता, अपने कैरियर और अपने राजनैतिक आका को खुश करने के लिए वह निर्दोष की फर्जी मुड़भेड़ में हत्या कर सकता है।
सभी दलों के प्रमुख नेताओं ने आपातकाल में पुलिसिया अत्याचार झेले थे। परन्तु किसी ने उससे कोई सबक नही लिया। जार्ज फर्नांडिज को हथकड़ी लगाकर न्यायालय लाया जाता था उनके भाई लारेन्स फर्नांडिज और अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी के साथ कर्नाटक पुलिस ने बेहद अमाननीय व्यवहार किया था। केरल में एक छात्र नेता को नक्सली बताकर रोड रोलर से कुचल कर मार डाला गया था। बरेली में संघ के स्वयं सेवक श्री वीरेन्द्र अटल के नाखून पुलिस ने उखाडे़ थे, परन्तु इन सब अमाननीय घटनाओं से आपात काल विरोधी राजनेताओं ने कोई सबक नही लिया। इनमें से कई बाद में प्रधानमन्त्री बने, मुख्यमन्त्री बने, केन्द्रीय मन्त्री बने और आज कई लोग देश और प्रदेश की सरकार में प्रभावशाली मन्त्री है परन्तु किसी ने पुलिस के उत्पीड़क रवैये पर अंकुश लगाकर उसे पब्लिक ओरिएन्टेड सेवा प्रदाता संस्थान बनाने के लिए कोई प्रयास नही किया। सर्वोच्च न्यायालय के सुस्पष्ट दिशा निर्देशों के बावजूद ”प्रकाश सिंह की याचिका पर“ पारित निर्णय का अनुपालन नही किया है। दुर्भाग्यवश इस मुद्दे पर कांग्रेस और उसके विरोधियों का रवैया एक जैसा है। आपातकाल विरोधी नेताओं ने भी अपनी सत्ता के दौरान जन आन्दोलनों को कुचलने में पुलिस का अनुचित सहारा लिया और आन्दोलनकारियों को बर्बरतापूर्वक पिटवाया है और उसके कारण आपातकाल के बाद के दौर में पुलिस बल में फर्जी मुड़भेड़ में निहत्थों को मार गिराने और फिर बहादुरी का खिताब लेने की होड़ तेजी से बढ़ी है।
आपातकाल की ज्यादतियों की जाँच के लिए मोरार जी भाई की सरकार ने न्यायमूर्ति श्री जे.सी. शाह की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन किया था। शाह आयोग की रिपोर्ट अधिकारिक रूप से गायब है। पूर्व सांसद श्री एरा सेझियन के प्रयास से उसकी प्रति उपलब्ध है। शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में राॅबर्ट फ्राँट के कथनों को उद्घृत करते हुये लिखा था कि ‘‘हम अपने जीवन में जो परिवर्तन चाहते है, उसका कारण यह है कि सत्य या तो हमारे पक्ष में है अथवा हमारे प्रतिकूल है। यदि प्रशासनिक तन्त्र को अपने देश में बच्चों के लिए सुरक्षित रखना है तो सेवाओं को ईमानदार और सक्षम प्रशासन के आधारभूत मूल्यों के आधार पर स्वयं को बेहतर बनाना होगा। इसके द्वारा ही अपनी प्रशासनिक सेवाओं के प्रति आम जनता की समाप्त हो गयी आस्था को दुबारा कायम किया जा सकता है। यदि हमें भावी पीढ़ियों को कोई लोकतान्त्रिक परम्परा देनी है तो हमे अपनी विधायिका में, अपने देश के सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक तन्त्र में, सत्य का पुनः प्रतिष्ठापन करना पडे़गा। यह कोई असम्भव या गम्भीर कार्य नही है। यह एक सरल मानवीय संदेश है आपातकाल पर यह एक कालजयी टिप्पणी है परन्तु हमारे राजनेताओं ने आपात काल से कोई सबक नही लिया और आज भी अपने अपने कारणों से किसी न किसी की अपरिहार्यता साबित करने के अभियान का हिस्सा बने हुये है और भूल जाते है कि नेतृत्व की अपरिहार्यता अन्ततः निरंकुश तानाशाही का मार्ग प्रशस्त करती है।
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