Friday, 27 September 2019

आइये जाने सुफीया मस्जिद या सुफीया गिरजाघर



     करीब 1500 वर्ष पहले रोम के सम्राट कांसटेंटाइन ने यह फैसला किया कि अपनी राजधानी पूरब की ओर ले जायें, ताकि वह पूर्वी हमलों से साम्राज्य की रक्षा की जा सके। उसने बासफोरस के सुन्दर तट को राजधानी के लिए चुना और बाईजेंटियम की छोटी पहाड़ियों पर एक विशाल नगर की स्थापना की। ईसा की चैथी सदी खत्म होने वाली थी, जब कांसटेंटिनोपल (उर्फ कुस्तुतुनिया) का जन्म हुआ। सम्राट कांसटेंटाइन ने केवल राजधानी ही नही बदली, बल्कि उससे भी बड़ा एक परिवर्तन किया। उसने ईसाई-धर्म स्वीकार किया और छठी सदी में कुस्तुतुनिया में एक आलीशान कैथीड्रल (बड़ा गिरजाघर) बनाया जो सैंट सोफिया के नाम से मशहूर हुआ। पूर्वी रोमन साम्राज्य का यह सबसे बड़ा गिरजाघर था और सम्राटों की यह इच्छा था कि वह बेमिसाल बने और अपनी शान और ऊँचे दर्जे की कला में साम्राज्य के योग्य हो। उनकी इच्छा पूरी हुई और यह गिरजाघर आइजेंटाइन कला की सबसे बड़ी इमारत थी। सैंट सोफिया का केथोड्रल ग्रीक चर्च-धर्म का केन्द्र था और नौ सौ वर्ष तक एक ऐसा ही रहा। बीच में एक दफा रोम के पक्षपाती ईसाई (जो मुसलमानों से जेहाद लड़ने आये थे) कुस्तुतुनिया पर टूट पड़े और उस पर उन्होंने कब्जा भी कर लिया, लेकिन वे जल्दी ही निकाल दिये गये। आखिर में जब पूर्वी रोम साम्राज्य एक हजार वर्ष से अधिक चल चुका था और सैंट सोफीया की अवस्था भी लगभग नौ सौ वर्ष की हो रही थी, तब एक नया हमला हुआ, जिसने उस पुराने साम्राज्य का अन्त कर दिया। पन्द्रवी सदी में ओसमानली तुर्कों ने कुस्तुतुनिया पर फतह पाई। नतीजा यह हुआ कि वहाँ का जो सबसे बड़ा ईसाई केथीड्रल था, वह अब सबसे बड़ी मस्जिद हो गयी।। सैंट सोफिया का नाम आया सुफीया हो गया। उसकी यह नई जिन्दगी भी लम्बी निकली सैकड़ों वर्षों की एक तरह से वह आलीशान मस्जिद एक ऐसी निशानी बन गई, जिस पर दूर-दूर से निगाहें आकर टकराती थीं और बड़े मनसूबे गांठती थी। उन्नीसवीं सदी में तुर्की साम्राज्य कमजोर हो रहा था। रूस इतना बड़ा देश होते हुए एक बन्द देश था। उसके साम्राज्य भर में कोई ऐसा खुला बंदरगाह नही था। रूस को यह असह्म था कि उसके धर्म का सबसे पुराना और प्रतिष्ठित गिरजाघर मस्जिद बना रहे परन्तु रूस उस पर कब्जा न कर सका बल्कि अंग्रेजों ने कुस्तुतुनिया पर कब्जा कर लिया। 486 वर्ष बाद इस पुराने शहर की हुकूमत इस्लामी हाथों से निकलकर फिर ईसाई हाथों में आई। सुल्तान खलीफा जरूर मौजूद थे, लेकिन वह एक गुड्डे की भाॅति थे। जिधर मोड़ दिये जाये, उधर ही घूम जाते थे। आया सुफिया भी हस्बमामूल खड़ी थी और मस्जिद भी, लेकिन उस की वह शान कहाँ, जो आजाद वक्त में थी, जब स्वयं सुल्तान उसमें जुमें की नमाज पढ़ने जाते थे और आया सुफीया ? उसका क्या हाल हुआ ? वह चैदह सौ वर्ष की इमारत इस्ताम्बूल में खड़ी है और जिन्दगी की ऊँच-नीच को देखती जाती है। नौ सौ वर्ष तक उसके ग्रीक धार्मिक गाने सुने और अनेक सुगन्धियों को, जो ग्रीक पूजा में रहती हैं, सूंघा। फिर चार सौ अस्सी वर्ष तक अरबी अजान की आवाज उसके कानों में आई और नमाज पढ़ने वालो की कतारें उसके पत्थरों पर खड़ी हुई और अब ? एक दिन वर्ष 1935 में गाजी मुस्तफा कमालपाशा के हुक्म से आया सुफीया मस्जिद नही रही। बगैर किसी धूमधाम के वहाँ के मुस्लिम-मुल्ला वगैरा हटा दिये गये और अन्य मस्जिदों में भेज दिये गये। अब यह तय हुआ कि आया सुफीया बजाय मस्जिद के संग्रहालय हो- खासकर बाईजेंटाइन कलाओं का। बाइजेंटाइन जमाना तुर्की के आने से पहले का ईसाई जमाना था। तुर्कों ने कुस्तुतुनिया पर कब्जा 1452 ई0 में किया था। उस समय से समझाा जाता है कि बाइजेंटाइन कला खत्म हो गयी, इसलिए अब आया सुफीया एक प्रकार से फिर ईसाई जमाने को वापस चली गई-मुस्तफा कमाल के हुक्म से। लेकिन वे पत्थर और दीवारों खामोश है। उन्हांेने इतवार की ईसाई-पूजा और जुमें की नमाजें बहुत देखीं, अब हर दिन की नुमाइश है उनके साये में, दुनिया बदलती रही, लेकिन वे कायम हैं। उनके घिसे हुए चेहरे पर कुछ हल्के मुस्कराहट-सी मालूम होती है और धीमी आवाज-सी कानों में आती है-इंसान भी कितना बेवकूफ और जाहिल है कि वह हजारों वर्ष के तजुरबे से कुछ नही सीखता और बार-बार वही हिमाकतें करता है।
     लाहौर की शहीदगंज मस्जिद को लेकर उपजे विवाद के दौरान 07 अगस्त 1935 को पण्डित जवाहर लाल नेहरू द्वारा लिखे गये पत्र का सम्पादित अंश

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