Saturday, 31 August 2013

अधीनस्थ न्यायालयों की वर्किंग में कोई गुणात्मक सुधार नही ........


दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 के आदेशात्मक प्रावधानों के बावजूद देश को हिला देने वाले निर्भया काण्ड के एक अभियुक्त को आठ माह के बाद सजा सुनाई जा सकी है। इस मामले के अन्य अभियुक्तों का विचारण अभी जारी है। विधि में स्पष्ट व्यवस्था है कि धारा 376 से 376 घ तक के अपराधो का विचारण साक्षियों की गवाही प्रारम्भ होने की तिथि से दो माह की अवधि के अन्दर पूरा किया जायेगा परन्तु जमीनी हकीकत ठीक इसके प्रतिकूल है और अधीनस्थ न्यायालय दो माह के अन्दर आपराधिक विचारण निर्णीत करने की इच्छाशक्ति नही दिखा पा रहे है जबकि आपराधिक मामलों में विलम्ब होने से अपराधियों का मनोबल बढ़ता है। आम पीडि़त और साक्षी विलम्ब से प्रताडि़त होकर प्रायः अपने पूर्व बयानों से मुकर जाते है और अपराधी को अपने किये की सजा नही मिल पाती जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के लिये घातक है।
आपरााधिक विचारणों का समयबद्ध निस्तारण न हो पाने की जमीनी समस्याओं पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अनिल कुमार शर्मा बनाम स्टेट आफ यू.पी. (2013-2-जे.आई.सी.-पेज 428-इलाहाबाद) में विचार किया है और उसमें सुधार के लिए दिशा निर्देश भी जारी किये है। हलाँकि न्यायालय ने अपने निर्णय मे पहले जारी किये गये निर्देशों का पालन न होने पर निराशा व्यक्त की है।
प्रचलित व्यवस्था के तहत किसी भी आपराध की विवेचना पूर्ण करने के बाद विवेचक दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 (2) के तहत अभियुक्त के विरूद्ध आरोप पत्र सम्बन्धित थाने के मजिस्टेªट के समक्ष प्रस्तुत करते है। आरोपपत्र प्रस्तुत करते समय विवेचक अभियुक्त को न्यायालय के समक्ष पेश नही करता और न उसे आरोपपत्र दाखिल होने की सूचना देता है। आरोपपत्र दाखिल हो जाने के बाद विवेचक की
जिम्मेदारी पूरी हो जाती है और वह प्रश्नगत प्रकरण से अपने आपको अलग मान लेता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 207 के तहत पुलिस रिपोर्ट, प्रथम सूचना रिपोर्ट की प्रति साक्षियों के बयान की प्रति धारा 164 के तहत लेखबद्ध की गई संस्वीकृतियों या कथनों की प्रति विचारण प्रारम्भ होने के पूर्व सम्बन्धित मजिस्टेªट के न्यायलय से अभियुक्त को दी जाती। इन प्रतियों के तैयार हो जाने के बाद अभियुक्त को उपस्थित होने के लिए सम्मन भेजा जाता है और फिर जब तक सभी अभियुक्त उपस्थित होकर धारा 207 के तहत देय सभी प्रतियाँ प्राप्त नही कर लेते तब तक पत्रावली विचारण के लिए सत्र न्यायालय के समक्ष प्रेषित नही की जा सकती है। वास्तव में अभियुक्तों को प्रतियाँ उपलब्ध कराने में काफी विलम्ब होता है और कई बार अभियुक्त खुद प्रतियाँ प्राप्त नही करता और किसी न किसी बहाने पत्रावली को सत्र न्यायालय के समक्ष भेजे जाने की कार्यवाही में विलम्ब कारित कराता है। इस विलम्ब को रोकने के लिए न्यायालय ने सुझाव दिया है कि क्षेत्राधिकारी स्तर पर फोटो काफी मशीन उपलब्ध कराई जाये ताकि विवेचक आरोप पत्र के साथ अपेक्षित कागजातों की छाया प्रतियाँ भी न्यायालय के समक्ष दाखिल कर सके। इसके द्वारा उपस्थिति के लिए नियत प्रथम तिथि पर ही अभियुक्त को अपेक्षित कागजातों की प्रतियाँ दी जा सकेंगी और उसे तारीख बढ़वाने का कोई बहाना नही मिलेगा। 
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 (2) के तहत सत्र न्यायालयों द्वारा विचारणीय अपराधों मे भी आरोपपत्र सम्बन्धित मजिस्टेªट के समक्ष प्रस्तुत किये जाते है। इस प्रकार प्रस्तुत आरोपपत्रों पर सम्बन्धित मजिस्टेªट के समक्ष कोई न्यायिक कार्यवाही नही की जाती है। केवल औपचारिकताओं का निर्वहन होता है। न्यायिक विवेक का प्रयोग किये बिना विशुद्ध यान्त्रिक तरीके से पत्रावली को विचारण के लिए सत्र न्यायालय के समक्ष प्रेषित करने की औपचारिकता निभाई जाती है और इसके कारण विचारण प्रारम्भ होने में विलम्ब होता है और इससे अभियुक्त या अभियोजन किसी को मामले के गुणदोष पर कोई लाभ नही मिलता है। सत्र न्यायालयों के समक्ष विचारणीय अपराधों का विचारण शुरू करने मे देरी की इस जमीनी समस्या पर विचार किया गया है और सम्बन्धित पक्षों को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 209 में संशोधन करने का सुझाव माननीय उच्च न्यायालय ने दिया है। सत्र न्यायालयों के समक्ष विचारणीय अपराधों मे विवेचक को आरोपत्र सीधे सत्र न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने और आरोपपत्र प्रस्तुत करने के पूर्व अभियुक्त को भी प्रस्तुत करने की तिथि से अवगत कराने की अदेशात्मक व्यवस्था करने के लिए अपेक्षित संशोधन करने की सलाह दी गयी है। इस व्यवस्था के लागू हो जाने से हत्या डकैती राहजनी बालात्कार जैसे जघन्य अपराधों के विचारण में विलम्ब को काफी हद तक कम किया जा सकता है। अभियुक्त को आरोपपत्र प्रस्तुत करने की सूचना देने से उसके निवास स्थान की पुनः पुष्टि हो सकती है ताकि सही पते के अभाव में विचारण के दौरान उस पर सम्मन की तामीली में अकारण अवरोध न उत्पन्न हो। 
दिन प्रतिदिन के स्थगन प्रार्थनापत्र आपराधिक विचारणों के जल्दी निस्तारण में सबसे बड़ी बाधा है। हलाँकि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 के प्रावधानों की आदेशात्मक प्रकृति होने के बावजूद जमीनी स्तर पर स्थगन प्रार्थनापत्रों पर अंकुश नही लगाया जा सका है। स्थगन प्रार्थनापत्र निसंकोच दाखिल किये जाते है और स्वीकार होते है। इन स्थितियों पर प्रभावी नियन्त्रण के लिए दिनांक 17.01.2013 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णयों का हवाला देते हुये सर्कुलर जारी किया है। इसके पूर्व दिनांक 23.11.1992 एवं दिनांक 06.12.2000 को भी उच्च न्यायालय ने सर्कुलर जारी करके आपराधिक विचारणों में स्थगन प्रार्थनापत्रों पर लगाम लगाने का निर्देश जारी किया था। दिल्ली उच्च न्यायालय सहित सभी उच्च न्यायालयों ने भी इस आशय के दिशा निर्देश जारी किये है परन्तु दिल्ली के राष्ट्रव्यापी चर्चित रेप काण्ड में इन दिशा निर्देशों का अनुपालन न हो पाने से प्रमाणित होता है कि सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश अधीनस्थ न्यायालयों की चैखट तक पहुँचते पहुँचते दम तोड देते है। अधीनस्थ न्यायालयों में दिन प्रतिदिन की वर्किंग यथावत है और उसमे तत्काल परिवर्तन की कोई आशा भी नही दिखती।
नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट की धारा 138 के परिवाद और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत प्रस्तुत प्रार्थना पत्रों के बढ़ते बोझ के कारण भी आपराधिक विचारणों में दिन प्रतिदिन की सुनवाई मे अवरोध उत्पन्न होता है। व्यवहारिक रवैया अपनाकर इन मामलों की सुनवाई के कारण होने वाले विलम्ब को कम किया जा सकता है परन्तु अधीनस्थ न्यायालय उसके लिए तैयार नही है। आपराधिक परिवादों में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 88 को निष्प्रयोज्य मान लिया गया है। जबकि इस धारा का प्रयोग करके कई तरह की औपचारिकताओं को कम करके समय की बचत की जा सकती है। इस धारा का उपयोग करके सम्मन पर उपस्थित होने वाले अभियुक्तों को जमानत प्रार्थनापत्र प्रस्तुत करने आदि से मुक्त रखा जा सकता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने डा. गुलजार बनाम स्टेट आफ यू.पी. एण्ड अदर्स (2013-1-जे.आई.सी.-पेज 896-इलाहाबाद) में सभी मुख्य न्यायिक मजिस्टेªटो को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 88 के तहत सम्मन पर उपस्थित होने वाले अभियुक्तो की उपस्थिति प्रतिभू सहित या प्रतिभू रहित बन्धपत्र पर स्वीकार करने के लिए सर्कुलर जारी किया है। इसी प्रकार सर्वाेच्च न्यायालय ने नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट की धारा 138 के मामलों में तलबी आदेश के बाद प्रथम नियत तिथि पर उपस्थित होकर चेक में अंकित राशि का भुगतान करने वाले अभियुक्तो के विरूद्ध संस्थित परिवाद समाप्त करने का निर्देश पारित किया है। आदेशात्मक प्रकृति के इन निर्देशों का प्रयोग करके समय बचाने का कोई प्रयास नही किया जा रहा है। सभी निर्देश विधिक जर्नलों की शोभा बढ़ा रहे है।
न्यायालयों पर बढ़ते बोझ को कम करने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करके अभिवाक सौदेबाजी प्ली आफ बारगेनिंग का एक नया अध्याय जोड़ा गया है। इस अध्याय की धारा 265 ख के तहत सात वर्ष तक की सजा के अपराधो में अभियुक्त को न्यायालय के समक्ष पीडि़त के साथ सौदेबाजी करके मामलों को निपटाने की सुविधा दी गई है। इस धारा के तहत आवेदन प्राप्त होने पर न्यायालय के लिए आवश्यक है कि वह मामले का समाधानप्रद निपटारा करने के लिए लोक अभियोजक, विवेचक और पीडि़त की बैठक हेतु तिथि नियत करे और उसमें भाग लेने के लिए नोटिस जारी करें। इस प्रकार आयोजित बैठक मे पारस्परिक सहमति ये यदि मामले का निपटारा हो जाता है तो अभियुक्त पीडि़त को आपसी सहमति से प्रतिकर प्रदान करेगा और अभियुक्त को अपराधी परिवीक्षा अधिनियम के तहत परिवीक्षा पर छोड़ा जा सकता है। आपराधिक मामलों के त्वरित निपटारे की यह एक सस्ती और सहज व्यवस्था है और इसके माध्यम से न्यायालय के बोझ को कम करके विचारणों के लिए समय बचाया जा सकता है परन्तु सभी पक्षों के लिए लाभप्रद होने के बावजूद न्यायालयों के समक्ष यह व्यवस्था आज भी प्रभावी नही हो सकी। 
आपराधिक विचारणों में लगने वाले विलम्ब को कम करना आज एक बड़ी समस्या है। प्रायः इसके लिए सरकार को दोषी माना जाता है। बिलम्ब के लिए सरकार कतई दोषी नही है। विलम्ब को कम करने की सभी स्थितियाँ न्यायालयों के नियन्त्रण में है और उनके स्तर पर गुणात्मक  कार्यवाही नही हो पा रही है। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों के तहत दण्ड प्रक्रिया संहिता में अपेक्षित संशोधन कर दिये है। अब उन्हें लागू करना न्यायालयों की अपनी जिम्मेदारी है। अधीनस्थ न्यायालयों में उच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देश निष्प्रभावी हो जाते है। हाईकोर्ट सर्कुलर संख्या 25/61 दिनांक 26 अक्टूबर 1961 के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को किसी भी अन्य कार्य की तुलना में आपराधिक विचारणें को वरीयता देने और गवाही प्रारम्भ होने के बाद दिन प्रतिदिन सुनवाई जारी रखने का निर्देश जारी किया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने रजिस्ट्रार को पुनः इसी आशय का सुर्कुलर जारी करने का निर्देश दिया है जो इस तथ्य का परिचायक है कि वर्ष 1961 से वर्ष 2013 के मध्य अधीनस्थ न्यायालयों की वर्किंग में कोई गुणात्मक सुधार नही हो सका है। स्थितियाँ ज्यों की त्यों बनी हुयी है इसलिए अब आवश्यक हो गया है कि न्यायिक सुधारो के लिए कोई नई विधि बनाये बिना विद्यमान कानूनों को अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर लागू कराने के लिए युद्ध स्तरीय प्रयास किये जायें।

Saturday, 24 August 2013

विधि का धडल्ले से उल्लघंन कर रहे है सेवायोजक .........


‘‘एट एनीटाइम विदआउट एसाइनिग एनी काज’’ निजी क्षेत्र मे कर्मचारियों के नियुक्ति पत्रों में धडल्ले से लिखे जा रहे यह दो शब्द अपने देश में प्रचलित लोकनीति के प्रतिकूल है और उसका प्रभाव किसी भी कर्मचारी की सामाजिक सुरक्षा और उसकी पारिवारिक व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर देता है। जबकि विदआउट एसाइनिंग एनी काज का अर्थ विदआउट एकजिस्टेन्स आफ एनी काज नही है अर्थात किसी युक्ति युक्त कारण के बिना सेवायोजक किसी कर्मचारी को सेवा से पृथक नही कर सकते है परन्तु वस्तु स्थिति इसके प्रतिकूल है और कोई न कोई कर्मचारी कल से न आने का फरमान सुनने को अभिशप्त है।
निजी क्षेत्र में श्रम कानूनों का उल्लंघन आम बात है। श्रमिको को विधि द्वारा प्रदत्त न्यूनतम वेतन की गारन्टी सहित सभी सामाजिक सुविधाओं से वंचित रखा जाता है। आठ घण्टे की जगह बारह घण्टे काम लिया जाता है और उनके सामने किसी भी समय हटा दिये जाने का खतरा सदैव बरकरार रहता है। कर्मचारियों के पक्ष मे अनेक कानून होने के बावजूद टेªड यूनियन मूवमेन्ट कमजोर हो जाने के कारण उनका लाभ कर्मचारियो को नही मिल पाता। अभी पिछले दिनो एक निजी क्षेत्र की बैंक ने अपने कर्मचारी के विरूद्ध आरोप पत्र जारी किया और उसकी घरेलू जाँच के लिए नई दिल्ली के एक विद्वान अधिवक्ता को जाँच अधिकारी नियुक्त करके वहीं घरेलू जाँच शुरू करा दी। कर्मचारी को अपने व्यय पर कानपुर से नई दिल्ली जाकर जाँच में भाग लेने के लिए आदेशित किया गया। इस प्रकार की गई घरेलू जाँच सहज और सुलभ न्याय की भावना और प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तो के प्रतिकूल है परन्तु श्रम विभाग के सम्बन्धित अधिकारियो ने कर्मचारी की शिकायत पर सेवायोजको की मनमानी को रोका नही। उसे अपनी मूक सहमति दी और कर्मचारी नौकरी से बाहर हो गया। इस प्रकार की मनमानी के विरूद्ध समुचित कानून होने के बावजूद श्रम विभाग द्वारा कर्मचारी की मद्द न करने के कारण सेवायोजको का मनोबल बढ़ता है और कर्मचारी अकेलेपन का अहसास करके अन्याय झेलने को मजबूर हो जाते है।
निजी क्षेत्र के कारखानों, बैंको, बीमा कम्पनियों और सेवाप्रदाता प्रतिष्ठानों में कर्मचारी को दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में रखा जाता है। श्रम कानूनों के प्रतिकूल न्यूनतम वेतन से कम वेतन और बारह घण्टे के कार्य दिवस का नियम यहाँ कड़ाई से लागू है। रविवार सहित सार्वजनिक अवकाशों पर भी इनके कार्यालय खुलते है और कर्मचारियों को उपस्थिति दर्ज करानी पड़ती है। इन प्रतिष्ठानों द्वारा कर्मचारियों को दिये जा रहे नियुक्ति पत्र अपने देश के श्रम कानूनों का मजाक उड़ाते है। ई.एस.आई. प्रावीडेण्ड फण्ड ग्रेच्युटी जैसी सर्वस्वीकृत सुविधाओं के लिए विधि के तहत देय सेवायोजको के अंशदान को भी कर्मचारियों के वेतन पैकेज मे जोड़ा जाता है। स्थायी प्रकृति के अधिकांश काम एक मुश्त वेतन पर रिटेनर बताकर कराये जाते है और सम्बन्धित कर्मचारी को विधि के तहत देय सामाजिक सुरक्षा से वंचित रखा जाता है। 
असंघटित क्षेत्र के कारखानों, बैंकों, बीमा कम्पनियों, नान बैंकिंग फायनेन्स कम्पनियों, टेलीकाम कम्पनियों और अन्य प्रतिष्ठानों में कान्टेªक्ट लेबर (रेगुलेशन एण्ड एबालिशन) एक्ट 1970 और इकक्वल रेम्युनेरेशन एक्ट 1976 को ठेंगा दिखाकर कम्पनी के कामों के लिए एक दूसरी कम्पनी बना ली गई है। इस दूसरी कम्पनी के कर्मचारियों से मूल कम्पनी का काम लिया जाता है परन्तु मूल कम्पनी के कर्मचारियों की तुलना में काफी कम वेतन दिया जाता है जबकि वे मूल कम्पनी के परिसर मे मूल कम्पनी के अधिकारियों के नियन्त्रण एवं निर्देशन में उन्हीं का काम उन्हीं के लिए करते है। किसी प्रतिष्ठान मे कार्य विशेष के लिए कर्मचारियों को अलग अलग वेतन नही दिया जा सकता। समान काम के लिए समान वेतन का सिद्धान्त अपने देश में लागू है। इस सम्बन्ध में स्थापित विधि है, सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट दिशा निर्देश है परन्तु श्रम विभाग के अधिकारियों की आपराधिक उदासीनता के चलते विधि का उल्लंघन धडल्ले से बेरोकटोक जारी है और कर्मचारी नौकरी की कोई सुरक्षा न होने के कारण घुट घुट कर अपने साथ हो रहे इस अन्याय को सहन कर रहा है।
वित्तविहीन विद्यालयों में अध्यापकों की दशा आज सबसे ज्यादा खराब है। अधिकांश अध्यापक हाडतोड मेहनत करने के बावजूद न्यूनतम वेतन से कम वेतन पर किसी भी समय निकाले जाने के खतरों के बीच काम करने को अभिशप्त है। सरकार भी उनकी मदद के लिए कोई कारगर कानून बनाने मे हिचकती रहती हैै। सभी जानते है कि अब स्कूल खोलना कोई मिशन या सामाजिक कार्य नही रह गया है। सभी लोग अपने अपने तरीके से स्कूलो को कमाई का साधन बनाये हुये है इसलिए अब समय आ गया है कि स्कूलो को व्यवसाय घोषित करके आद्यौगिक विवाद अधिनियम की परिधि में लाया जाये। अन्य कामगारों की तरह अध्यापक भी श्रमजीवी है परन्तु एक साजिश के तहत उसे श्रमिक की परिधि से बाहर रखा गया है। उसे श्रम कानूनों के तहत अपनी नौकरी सुरक्षित बनाये रखने का अधिकार दिया जाना चाहिये।
अभी पिछले दिनों विचारधारा आधारित एक माध्यमिक विद्यालय के प्रधानाचार्य को एक कपड़ा व्यवसायी प्रबन्धक ने एकदम मनमाने तरीके से अपमान जनक स्थितियाँ पैदा करके हटा दिया। प्रधानाचार्य जी खुद भी विचारधारा के सिपाही हैं परन्तु विचारधारा के अग्रणी लोगों ने प्रधानाचार्य की गुहार नही सुनी, उन्हें मझधार में छोड़ दिया और प्रबन्धक को मनमाने तरीके से काम करते रहने दिया। वास्तव मे आज राजनेताओं में शिक्षण संस्थाये खोलने की होड़ चल रही है। शिक्षण संस्थाये मोटी कमाई का साधन है इसलिए सभी अपने अपने स्तरों पर विद्यार्थियों से मोटी फीस लेने के बावजूद अध्यापक को सम्मानजनक जीवन जीने लायक वेतन नही देते और उनका भरपूर शोषण करते है और शोषण के नये नये तरीके ईजाद करके एक दूसरे को मजबूती देते है। चोर चोर मौसेरे भाई की कहावत विद्यालयों के प्रबन्धकों पर पूरी तरह चरितार्थ होती है।
माध्यमिक शिक्षक संघ ने खुद को आन्दोलन में तब्दील करके शैक्षिक सामान्तशाही के विरूद्ध  जबर्दस्त अभियान चलाया और अध्यापको को प्रबन्धको के शोषण से निजात दिलाई थी परन्तु अब उसके चाल चरित्र और चेहरे से आन्दोलन गायब हो गया है और अन्य राजनैतिक दलों की तरह उसकी सम्पूर्ण गतिविधियाँ विधान परिषद के चुनाव के इर्द गिर्द सिमट कर रह गई है और दूसरी ओर अध्यापकों का शोषण तेजी से बढ़ा है परन्तु सशक्त नेतृत्व के अभाव में अध्यापक उत्पीड़न झेलने के लिए अभिशप्त है। कन्नौज जनपद के कई अध्यापक मनमाने तरीके से निकाले जाने के बाद महीनों से जिला विद्यालय निरीक्षक कार्यालय और अपने विद्यालय के बीच चकरघन्नी की तरह घूम रहे है। जिला विद्यालय निरीक्षक का आदेश हाथ मे लिये है परन्तु प्रबन्धकों ने  आदेश को रददी कागज मानकर उन्हें काम पर नही लिया और न वेतन दिया है। आज राजनैतिक और सामाजिक दृष्टि से प्रबन्धक पहले की तुलना मे ज्यादा ताकतवर हुआ है और अध्यापक की असहायता और अकेलापन दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। 
याद आता है कि टेªड यूनियन आन्दोलन को उद्योग विरोधी और माध्यमिक शिक्षक संघ को पढाई विरोधी बताना एक फैशन हो गया था और उसमें पत्रकार बन्धु सबसे आगे थे। लखनऊ में हिन्द मजदूर सभा के नेता उमाशंकर के नेतृत्व मे पत्रकार संघटित हुये। उनकी संघटित शक्ति के कारण मालिक दबाव में आयें। इस दौर मे किसी युक्तियुक्त कारण के बिना किसी को नौकरी से हटा पाना सम्भव नही रह गया था परन्तु इसी बीच एक अखबार समूह के उकसावे में अपने क्षणिक लाभ के लिए कुछ युवा पत्रकारों ने अपने ही संघटन को तहस नहस कर लिया। 1987 मे इण्डिन एक्सप्रेस की हडताल और उसके नेता नागराजन को अपने पत्रकार बन्धुओं ने ही तात्कालिक लाभ के लिए फ्लाप कराने में प्रबन्धकों का शर्मनाक सहयोग किया था। कानपुर में भी विष्णु त्रिपाठी और ओम प्रकाश त्रिपाठी के विरूद्ध एक पत्रकार ने श्रम न्यायालय के समक्ष गवाही दी थी। इस प्रकार की आत्मघाती घटनाओं की याद दिलाकर बताना चाहता हूँ कि मीडिया जगत मे ठेका प्रथा इसी का प्रतिफल है। सभी जानते है कि स्थायी प्रकृति का कोई भी काम ठेके पर नही कराया जा सकता। मीडिया कर्मी समाज मे सबसे ज्यादा सजग और बुद्धिजीवी माने जाते है। सत्ता प्रतिष्ठान को हिला देने की कुब्बत केवल उनके पास है परन्तु ‘‘एट एनी टाइम विदआउट एसाइनिंग एनी काज’’ नौकरी से हटाये जाने पर उसका प्रतिकार करने की कुब्बत उनके पास नही है। एक मीडिया प्रतिष्ठान ने बड़े पैमाने पर अपने कर्मचारियों की छटनी की है। श्रम कानूनों के तहत उपलब्ध कोई सामाजिक सुरक्षा ठेका पत्रकारों को  उपलब्ध नही है। सत्तर के दशक में उस दौर के एक मुखर पत्रकार ने अपने मालिको से एक दिन वस्त्राभाव के कारण कार्य पर उपस्थित न हो पाने के लिए अवकाश माँगा था। व्यंग्य और आक्रोश में कही गई उनकी यह बात पत्रकारों की आर्थिक दशा का वास्तविक चित्रण करती है। सभी जानते है कि पत्रकारों की आर्थिक स्थिति में आज भी कोई बड़ा सुधार नही हुआ है परन्तु आगे बढ़कर अन्याय का प्रतिकार करने के लिए कोई तैयार नही है सभी अपने अपने कारणों से मालिकों के लिए हँसी खुशी लाइजनिंग करने को तैयार बैठे है। स्थितियाँ खराब है परन्तु निराश होने की जरूरत नही है। सभी श्रमजीवी लोगों को एक बात अच्छी तरह मन में बैठा लेनी चाहिये कि कोई भी पूँजीपति अपने कार्य के प्रति मेहनतकसो की निष्ठा, ईमानदारी और मेहनत के बल पर कमाई गई सम्पत्ति से मेहनतकसो का वाजिब हिस्सा हँसी खुशी देने के लिए तैयार नही है। मेहनतकसो को सब कुछ लड़कर मिला है, लड़कर मिलेगा, वे लड़ेंगे तभी कुछ पायेंगे इसलिए दिनकर के शब्दों में ‘‘आवो श्रमिक कृषक नागरिकों, इन्कलाब का नारा दो, शिक्षक गुरूजन बुद्धिजीवियों अनुभव भरा सहारा दो, फिर देंखे हम.........।’’ 

Sunday, 18 August 2013

अपराधी हाईटेक, शासकीय अधिवक्ता आज भी बैलगाड़ी युग का..............


शासकीय अधिवक्ता आपराधिक न्याय प्रशासन की महत्वपूर्ण इकाई है। उसकी नियुक्ति दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत की जाती है और वह स्वतन्त्र विधिक प्राधिकारी है। किसी भी दशा में अभियुक्त को दोषसिद्ध कराना उसका दायित्व नही है। निर्दोषिता की अवधारणा के सिद्धान्त का सम्मान करते हुये निष्पक्ष एवं पारदर्शी तरीके से विचारण में सहयोग करना उसकी पदीय प्रतिबद्धता है। इसी कारण आपराधिक विचारणों में प्रायवेट अधिव
क्ताओं की भूमिका को सीमित रखा गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने शिवकुमार बनाम हुकुम चन्द्र (1999- 7-एस.सी.जी.-पेज 467) में स्पष्ट किया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत सत्र न्यायालयों के समक्ष आपराधिक विचारणों का संचालन शासकीय अधिवक्ताो के अतिरिक्त अन्य किसी को करने की अनुमति नही है। निर्णय में कहा गया है कि यदि अभियुक्त के अधिवक्ता ने किसी महत्वपूर्ण सुसंगत तथ्य को नजर अन्दाज किया हो तो भी शासकीय अधिवक्ता को अभियुक्त की दोष सिद्धि या दोषमुक्ति को ध्यान मे लिये बिना न्यायालय के संज्ञान में सभी तथ्यों को लाना चाहियें। 
सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने शासकीय अधिवक्तों विशेषतः सत्र न्यायालयों के समक्ष कार्यरत शासकीय अधिवक्ताओं की भूमिका की श्रेष्ठता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है और राज्य सरकारों से अपेक्षा की है कि वे शासकीय अधिवक्ताओ को न्यायालय के समक्ष अपने विवेक से स्वतन्त्रापूर्वक पारदर्शी तरीके से कार्य करने का माहौल उपलब्ध करायें परन्तु राज्य सरकारे विशेषतया उत्तर प्रदेश सरकार शासकीय अधिवक्ताओं को केवल और केवल अपने प्रति निष्ठावान बनाये रखने के लिए कटिबद्ध है। अपने इसी दुरासय की पूर्ति के लिए मुलायम सिंह यादव ने अपने मुख्यमन्त्रित्व काल में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 मे राज्य स्तरीय संशोधन करके शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति के लिए जनपद न्यायाधीश से राय लेने की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया था। 
स्वतन्त्र भारत के इतिहास मे पहली बार मुलायम सिंह यादव ने किसी युक्तियुक्त कारण के बिना एकदम मनमाने तरीके से सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश मे सत्र न्यायालयों के समक्ष कार्यरत सभी शासकीय अधिवक्ताओं को हटा देने और केवल अपने दल के कार्यकर्ताओं को नियुक्त करने का फरमान जारी किया था। हलाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीलेखा विद्यार्थी बनाम स्टेट आफ यू.पी. (1991-एस.सी.सी.-पेज-212) के द्वारा मुलायम सिंह यादव के मन्सूबों पर पानी फेर दिया और वे हटाये गये शासकीय अधिवक्ताओ को कार्य पर लेने के लिए विवश हुये। 
श्रीलेखा विद्यार्थी के मामले मे सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बावजूद मुलायम सिंह के नक्शेकदम पर चलते हुये सुश्री मायावती ने भी अपने मुख्य मन्त्रित्व काल मे सत्र न्यायालयों के समक्ष कार्यरत सभी शासकीय अधिवक्ताओ को एक साथ हटाकर अपने कार्यकताओ को नियुक्त करने मे कोई कोताही नही की। हलाँकि उनमे से कइयों ने शासकीय अधिवक्ता के रूप मे नियुक्ति के बाद पहले दिन पहली बार सत्र न्यायालय का मुँह देखा था और उनके पास एक भी सत्र परीक्षण के संचालन का अनुभव नही था। कोई राशन की दुकान का कोटेदार था तो कोई कही नौकरी करता था।
मुलायम सिंह यादव और मायावती दोनों ने अपने मुख्यमन्त्रित्व काल मे कुशल एवं श्रेष्ठ अधिवक्ताओ को शासकीय अधिवक्ता नियुक्त करने से परहेज किया है। सत्र न्यायालयो के समक्ष हत्या, बालात्कार, डकैती जैसे गम्भीर अपराधों मे अभियुक्तों का विचारण होता है परन्तु इन दोनो ने सत्र न्यायालयों के समक्ष आपराधिक विचारण का संचालन करने के लिए जिन विद्वान अधिवक्ताओ की नियुक्ति की है उनमे से अधिकांश पोस्टमार्टम रिपोर्ट तो छोडि़ये साधारण इन्जरी रिपोर्ट पढ़ने की कुशलता भी अर्जित नही कर सके है। किसी भी जनपद मे अभियुक्त के बचाव के लिए नामी गिरामी वकील उपस्थित होते है जो सभी पहलुओं पर बारीकी से होमवर्क करके अभियुक्त का बचाव करते है। ऐसी दशा में शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति प्रक्रिया को निष्पक्ष एवं पारदर्शी बनाये बिना आम आदमी को न्याय मिल पाना सम्भव नही है।
शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति मे खुल्लमखुल्ला राजनैतिक हस्तक्षेप मुलायम सिंह यादव ने शुरू किया और उनकी परम्परा को निर्लज्जता पूर्वक मायावती ने आगे बढ़ाया है। भाजपा शासन काल मे उसके न्यायमन्त्री श्री शिव प्रताप शुक्ल ने पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा नियुक्त किये गये किसी भी शासकीय अभिवक्ता को हटाया नही जबकि मायावती ने किसी युक्तियुक्त कारण के बिना उनके द्वारा नियुक्त कई लोगो को हटा दिया था। मायावती ने अपने कार्यकाल के दौरान शासकीय अधिवक्ताओ की फीस पाँच सौ रूपये से बढ़ाकर एक हजार रूपये प्रतिदिन की थी परन्तु पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा नियुक्ति शासकीय अधिवक्ताओं को एक साथ हटा दिये जाने के बाद इस बढ़ोत्तरी को लागू किया ताकि उसका लाभ केवल उनके द्वारा नियुक्त लोगो को ही प्राप्त हो सके। मुख्यमन्त्री के स्तर पर इस प्रकार की निर्लज्जता इसके पहले कभी नही देखी गई। 
विधि शासकीय अधिवक्ताओ की नियुक्ति और उनके कार्यकाल के नवीनीकरण के लिए जनपद न्यायाधीश की सिफारिश को  प्रधानता देती है परन्तु राज्य सरकारे जनपद न्यायाधीश की सिफारिश को अनदेखा करके अपने विधायकों सांसदों की पसन्द नापसन्द के आधार पर नियुक्तियाँ करने के लिए लालायित रहती है। कई बार नियुक्ति या नवीनीकरण के लिए विद्वान अधिवक्ता को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अभियुक्त रहे विधायक या सांसद के दरवाजे पर मथ्था टेकने के लिए अभिशप्त होना पड़ता है। सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्केण्डेय काटजू ने न्यायाधीश के रूप मे अपने कार्यकाल के दौरान पारित निर्णय मे राज्य सरकारो को चेताया था कि नियुक्तियों और नवीनीकरण में जनपद न्यायाधीश की राय को वरीयता देकर निष्पक्षता एवं पारदर्शिता सुनिश्चित नही करायी गई तो कोई भी कुशल अधिवक्ता शासकीय अधिवक्ता बनने के लिए तैयार नही होगा। उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्णय के आशय के अनुरूप एल.आर. मैनुअल मे संशोधन करने का निर्देश दिया था परन्तु उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार ने उनके निर्णय के प्रतिकूल नियुक्तियो के लिए जनपद न्यायाधीश से राय लेने की अनिवार्यता के प्रावधान को ही एल.आर. मैनुअल से से हटा दिया और मनमानी नियुक्ति करने का मार्ग सुगम कर लिया था। 
प्रिवेन्शन आफ क्राइम एण्ड ट्रीटमेन्ट आफ आफेन्डर्स विषय पर आठवीं यूनाइटेड नेशन्श

काँग्रेस, कान्फ्रेन्स आफ प्रासीक्यूटर्स जनरल आफ यूरोप, इण्टरनेशनल ऐसोसियेशन आफ प्रासीक्यूटर्स ने अलग अलग अवसरों पर शासकीय अधिवक्ताओ के लिए उनकी भूमिका इथिक्स और प्रोफेशनल रेस्पान्सिबिलिटी को रेखांकित किया है। बार काउन्सिल आफ इण्डिया ने भी अपनी नियमावली मे शासकीय अधिवक्ता के रूप मे अपने सदस्यों की भूमिका निर्धारित की है और सभी ने माना है कि आपराधिक विचारण मे अभियुक्त को दण्डित कराना शासकीय अधिवक्ता का प्रधान कर्तव्य नही है। उसे निर्दोषिता की अवधारणा के सिद्धान्त और अभियुक्त की मानवीय गरिमा का सम्मान करते हुये सम्पूर्ण सुंसगत तथ्यों को प्रस्तुत करना चाहिये ताकि न्यायालय को न्याय करने मे सहूलियत हो परन्तु जमीनी हकीकत ठीक इसके प्रतिकूल है। राज्य सरकारे इस नियम को मानने के लिए तैयार नही है, मनमानी करने पर उतारू है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का अनुपालन वे केवल मजबूरी में करती है। राज्य सरकारों का न्यायिक मार्गदर्शन करने के लिए उच्च न्यायालय विधि परामर्शी के रूप में अपने न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति करती है परन्तु विधि परामर्शी भी राज्य सरकार के प्रतिबद्ध अधिकारी की तरह कार्य करते है और राज्य सरकारों को सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की मनमाफिक व्याख्या करने से कभी नही रोकते। राज्य सरकार की हाँ में हाँ मिलाना अब उन्होंने भी अपनी आदत मे सुमार कर लिया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विधि परामर्शी को तलब करके खुली अदालत मे कई बार जलील किया है परन्तु कोई सुधार नही हुआ। इन स्थितियों में सुधार की कोई सम्भावना नही है, आमूल चूल परिवर्तन की जरूरत है। वर्तमान संवैधानिक प्रावधानों के तहत कानून व्यवस्था राज्य सूची का विषय है। केन्द्र उसमे कोई हस्तक्षेप नही कर सकता। संविधान मे इस आशय का प्रावधान किये जाते समय किसी ने भी राजनैतिक व्यवस्था में विद्यमान गिरावट और कानून व्यवस्था में दिन प्रतिदिन के राजनैतिक हस्तक्षेप की कल्पना नही की होगी परन्तु अब यह सब यथार्थ है। अपराधी हाईटेक हो गया है और शासकीय अधिवक्ता आज भी बैलगाड़ी युग का। ऐसी दशा में आवश्यक हो गया है कि कानून व्यवस्था को केवल राज्यों के भरोसे न छोड़ा जाये बल्कि उसे समवर्ती सूची मे जोड़ने की पहल की जाये ताकि आम जनता का न्याय के प्रति भरोसा बरकरार रहे और राजनैतिक हस्तक्षेप के सहारे कोई दोषी दण्डित होने से बचने न पाये।


Monday, 12 August 2013

दया नियुक्तियों पर ग्रहण ..........................



केन्द्रीय सरकार ने आफिस मेमोरण्डम दिनांक 14.06.2001 जारी करके दया नियुक्तियों की कल्याणकारी योजना मे पलीता लगा दिया है। सरकारी आँकड़े बताते है कि प्रति वर्ष लगभग तीन प्रतिशत कर्मचारी सेवानिवृत्त होते है परन्तु केन्द्र उनके स्थान पर केवल एक प्रतिशत नई नियुक्तियाँ करती है और दो प्रतिशत पदो को समाप्त कर देती है। एक प्रतिशत पदो से ज्यादा नियुक्तियों पर रोक लगा दी गई है और इसी एक प्रतिशत नई नियुक्तियों में मृतक कर्मचारियों के आश्रितों को भी समायोजित किया जाता है। जबकि मूल स्कीम चालू करते समय कहा गया था कि दया नियुक्तियाँ अपवाद स्वरूप मृतक कर्मचारी के आश्रित को आर्थिक सम्बल प्रदान करने के लिए की जाती है इसलिए डाइरेक्ट रिक्रुटमेन्ट कोटा की नियमित नियुक्तियों में इन्हें शामिल नही किया जाना चाहिये।

सरकार के इस फरमान से दया नियुक्तियाँ सबसे ज्यादा कुप्रभावित हुई है। इस नये फरमान के कारण विभिन्न विभागों में दया आधार पर नियुक्त किये गये कई लोगों को आरक्षित कोटा से ज्यादा बताकर सेवा से पृथक करने की कार्यवाही की गई है जबकि इस स्कीम के तहत नियुक्ति केवल रेगुलर कैडर में ही की जाती है और किसी भी दशा में दया नियुक्ति कैजुवल दैनिक वेतन तदर्थ या संविदा कर्मचारी के रूप मे नही की जा सकती है।
दया नियुक्ति स्कीम केन्द्र सरकार की कल्याणकारी योजना का भाग है। संविधान के नीति निर्देशक तत्वों को दृष्टिगत रखकर दिनांक 09.10.1998 को इस स्कीम का शुभारम्भ किया गया था। आकस्मिक मृत्यु या चिकित्सकीय आधार पर सेवानिवृत्त कर्मचारी के परिवार को आर्थिक कठिनाइयों से बचाने के उद्देश्य से इसे बनाया गया है। इस स्कीम का सम्पूर्ण देश में स्वागत हुआ और उसके कारण कई परिवार अपने मुखिया की आकस्मिक मृत्यु दशा में भुखमरी का शिकार होने से बचे है।
केन्द्र सरकार ने खुद अपनी इस कल्याणकारी योजना के पर कतरने का काम किया है। इस सम्बन्ध में जारी आफिस मेमोरण्डम दिनांक 16.05.2001 एवं दिनांक 14.06.2006 ने आफिस मेमोरण्डम दिनांक 09.10.1998 की मूल भावना एवं उसके उद्देश्यों के प्रतिकूल है। इन दोनों आदेशों के कारण अब कई वास्तविक जरूरतमन्दों के साथ अन्याय हो रहा है और वे नौकरी पाने के अपने इस विधिपूर्ण अधिकार से वंचित हो गये है।
मूल स्कीम के तहत केन्द्र सरकार ने अपनी सेवाओं में ग्रुप सी एवं डी पदों पर डाइरेक्ट रिक्रूटमेन्ट कोटा की कुल रिक्तियों मे केवल पाँच प्रतिशत पदों पर दया के आधार पर नियुक्ति देने का प्रावधान किया था। नियुक्ति के बाद अभ्यर्थी को उसकी जाति आधारित निर्धारित आरक्षित पदों में समायोजित करने की भी व्यवस्था है। मूल स्कीम में कहा गया था कि मृतक या सेवानिवृत्त कर्मचारी के विभाग में यदि कोई पद दया नियुक्ति के लिए उपलब्ध नही है तो आश्रित को अन्य किसी मन्त्रालय या विभाग की उपलब्ध रिक्ति मे समायोचित किया जायेगा। इस आशय का स्पष्ट प्रावधान है परन्तु सम्बन्धित विभाग अन्य किसी विभाग या मन्त्रालय मे दया नियुक्ति की सम्भावनायें तलाशे बिना रिक्ति न होने का आधार बताकर दया नियुक्ति देने से इन्कार कर देते है जो दया नियुक्ति स्कीम की मूल भावना के प्रतिकूल है और किसी की दशा में न्यायसंगत नही है। स्थानीय स्तर पर कर्मचारियों की कम संख्या वाले कार्यालयों में रिक्ति न होने का बहाना आसानी से मिल जाता है।
दि डिपार्टमेन्ट आफ पर्सनल एण्ड टेªनिग मिनिस्ट्री आफ पर्सनल पब्लिक ग्रीवान्स एण्ड पेन्शन ने दया नियुक्तियों के लिए अपने मूल मेमोरण्डम की मूल भावना और उद्देश्य के प्रतिकूल नये आदेश जारी करके अप्रत्यक्ष रूप से दया नियुक्तियों के अवसर सीमित कर दिये है। सरकार ने नई नियुक्तियों के लिए स्क्रीनिग कमेटी बनाकर उसे आदेशित किया है कि वे सुनिश्चित करें कि किसी भी मन्त्रालय या विभाग मे एक प्रतिशत से ज्यादा नई नियुक्तियाँ न होने पायें। इस नियम का अनुचित लाभ उठाकर कई पात्र आश्रितों को नौकरी से वंचित किया गया है और वे दया नियुक्ति के लिए सुपात्र होते हुये भी दर दर की ठोकरे खाने के लिए अभिशप्त है। केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण की सभी पीठो में दया नियुक्तियों से सम्बन्धित ओ.ए. बड़ी संख्या मे लम्बित है। 
सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया है कि दया नियुक्ति अधिकार स्वरूप प्राप्त नही की जा सकती परन्तु साथ मे यह भी स्पष्ट किया है कि स्कीम के मूल नियमों एवं शर्तो के तहत अपेक्षित अर्हता वाले अभ्यर्थियों को केवल तकनीकी आधार पर नियुक्ति देने से इन्कार नही किया जाना चाहिये। अधिकांश विभागों ने नौकरी देने की अर्हता के लिए कुछ मापदण्ड बनाये है। विभिन्न स्थितियों के लिए अलग अलग अंक निर्धारित किये है और इस प्रकार ज्यादा अंक पाने वालो को नौकरी दी जाती है। केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने कुल प्राप्तांको के आधार मे निष्पक्षता एवं पारदर्शिता की कमी के आरोपों को कई बार सही पाया है।
जे.सी.एम. की स्टैण्डिग कमेटी में कर्मचारियों की तरफ से दया नियुक्तियों की वर्तमान नीति को रिव्यू करने की माँग की गई है। कर्मचारियों की माँग के बाद स्टैण्डिग कमेटी ने सम्पूर्ण परिस्थितियों का बारीकी से अध्ययन किया है। वास्तव में नई नियुक्तियों के लिए रिक्तियों की संख्या निर्धारित करने के नियमों में परिवर्तन की आवश्यकता है। दया नियुक्तियों के लिए पात्र आश्रितों को नौकरी देने के बाद अवशेष रिक्तियों पर डाइरेक्ट रिक्रुटमेन्ट किया जाना चाहिये। मृतक आश्रितों की संख्या को डाइरेक्ट रिक्रुटमेन्ट की संख्या के साथ समायोजित नही किया जाना चाहिये। इस आशय से जारी निर्देश दिनांक 14.06.2006 को आधार बनाकर केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण ने केन्द्रीय सरकार की सेवा से निष्कासित आश्रितों का निष्कासन रद्द कर दिया और सभी आश्रितों को नौकरी में बनाये रखने का आदेश पारित किया है। केन्द्र सरकार की विशेष अनुमति याचिका पर उच्च न्यायालय और सर्वाेच्च न्यायालय ने केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण के आदेश में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया और केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण के निर्णय को यथावत् बनाये रखा है। 
सर्वोच्च न्यायालय ने डाइरेक्टर जनरल आफ पोस्ट बनाम के. चन्द्रशेखर राव (2013 - 1 - सुप्रीम कोर्ट केसेज लेबर एण्ड सर्विसेज-पेज 596) के मामले में दया नियुक्तियों के प्रति सरकारी रवैये के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि यह सच है किसी भी विषय पर नीति निर्धारित करना सरकार का विशेषाधिकार है परन्तु न्यायालय को उसकी न्यायिक समीक्षा का अधिकार प्राप्त है। अदालत ने अपने निर्णय में कहा कि प्रश्नगत संदर्भ में दया नियुक्तियों के लिए जारी मेमोरण्डम दिनांक 16.05.2001, दिनांक 14.06.2006 और इसके पहले जारी मेमोरण्डम दिनांक 04.07.2002 में विसंगतियाँ है और उससे अस्पष्टता उत्पन्न हुई है और पात्र आश्रित अपने अधिकारों से वंचित हुये है। सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को आश्रितों के विद्यमान अधिकारों के साथ कोई छेड़छाड़ किये बिना दया नियुक्ति के लिए एक समग्र नीति निर्धारित करने का आदेश दिया है।

Sunday, 4 August 2013

फैशन बन गया है अपराधीकरण का विरोध .......


        दागी राजनेताओं पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने के बाद सभी दलों ने निर्णय का समर्थन करके यह जताने का प्रयास किया है कि वे राजनीति मे आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओ के बढ़ते प्रभाव से चिन्तित है। वास्तव में राजनीति के अपराधीकरण पर सार्वजनिक चिन्ता और उसकी चर्चा करना अब फैशन बन गया है, परन्तु राजनीति से अपराधियों को पृथक रखने की दिशा में आज के राजनैतिक दलों ने कभी कोई ईमानदार कोशिश नही की है। सभी लकीर का फकीर बने हुये है। पचास के दशक में तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू और प्रख्यात समाजवादी विचारक जय प्रकाश नारायण ने मजदूर संगठनों में अपराधियों को संरक्षण देने के आरोप प्रत्यारोप के बीच अपने अपने स्तरों पर इण्डियन नेशनल ट्रेड यूनियन काँग्रेस और हिन्द मजूदर सभा मे अपराधी तत्वों की पहचान कराई और फिर दोनों संगठनों ने सार्वजनिक स्वीकारोक्ति करके ऐसे तत्वों को बाहर का रास्ता दिखा दिया।
        राजनीति से अपराधियों को पृथक करने के लिए सभी दलों के राजनेताओं को पण्डित नेहरू और जय प्रकाश नारायण की तरह का साहस करना होगा। मुझे नही लगता कि आज का कोई राजनेता इस प्रकार का साहस करने के लिए तैयार है। सभी राजनीतिक दल अपनी सुविधा और तात्कालिक आवश्यकता को दृष्टिगत रखकर अपराध और अपराधी की परिभाषा गढ़ने में माहिर है और इसके लिए वे कभी शर्मिन्दगी महसूस नही करते।
           काँग्रेस पर इस प्रकार के तत्वों को बढ़ावा देने का आरोप काफी पुराना हो गया है। परन्तु भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और अब बहुजन समाज पार्टी ने भी अपराधियों को टिकट देने में कोई कोताही नही की है और उसी का परिणाम है कि राजनेताओं द्वारा अपराधियों पर की गई किसी टिप्पणी को आम जनता गम्भीरता से नही लेती है। सभी दलों के अन्दर कार्यकर्ताओं का राजनैतिक प्रशिक्षण बन्द हो गया है। दल विशेष किस राजनैतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है। प्रायः उस दल के पदाधिकारियों को भी नही मालूम होता। पिछले दो दशको में सेक्युलर और नान सेक्युलर की चर्चा ने राजनैतिक विचारधाराओं की चर्चा पर विराम लगा दिया है। जाति तोड़ों, दाम बाँधो, आय का अन्तर घटाओं जैसे सामयिक मुद्दों पर अब राजनैतिक आन्दोलन नही होते और दलों के अन्दर भी केवल व्यक्तियों की चर्चा होती है विचारधारा आधारित चर्चाओं को छुआछूत की बीमारी मान लिया गया है।
          प्रख्यात साहित्यकार और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रामवृक्ष बेनीपुरी ने एक समाजवादी नेता से कहा था कि ‘‘आप समाजवाद छोड़ सकते है क्योंकि आपका समाजवाद आपकी राजनीति का एक अंग है। आपने उसे पढ़कर प्राप्त किया है और राजनीति के एक मोहरे के रूप मे उसका प्रयोग कर रहे है। एक दिन आपको पता चले कि वे किताबें गलत है या आपकी राजनीति बताये कि अब सीधी राह नही चलकर कतरिया कर चलना है तो समाजवाद को छोड़ने मे आपको तनकि भी झिझक नही होगी परन्तु वे लोग जो छात्रावासों मे एक रूपये नगद मेस फीस न दे पाने के कारण चावल को भुनाकर भकोसते रहे है। दिन रात भूख, बीमारी और गंदगी से रूबरू होते है वे यथा स्थिति के समर्थक नही हो सकते। उन्हें तो समाजवादी रहना ही पड़ेगा। पिछले चुनाव मे बसपा के हाथी पर सवार और अब इस चुनाव में साइकिल पर सवारी के लिये बेताब राजनेताओं पर यह एक सटीक टिप्पणी है।
            आन्दोलनों की राजनीति बन्द हो गई इसलिए तपेतपाये साधन विहीन कार्यकर्ताओं को पार्टी टिकट न देने का सिलसिला स्वयं हमारे नेताओं ने शुरू किया है। जाति और धर्म के गुणा भाग के बीच आदर्श कार्यकर्ता को जिताऊ प्रत्याशी की तुलना में कमतर आंकने की एक नई संस्कृति को जन्म हुआ है और इसी संस्कृति ने राजनीति में अपराधियों को अपना वर्चस्व बढ़ाने के सहज अवसर उपलब्ध कराये है। राजनेताओं को समझ में नही आता कि आम जनता पैसे और पसीने की लड़ाई में सदा पसीने के साथ खड़ी होती है। आज का राजनेता अपने दल में प्रत्याशी के चयन के समय प्रत्याशी विशेष की ईमानारी, दलीय निष्ठा और जनआन्दोलनों में उसकी सहभागिता को संज्ञान मे नही लेते। स्थानीय स्तर के राजनैतिक कार्यकर्ता राजनीति को साधना का क्षेत्र और त्याग तपस्या द्वारा जनसेवा करने का माध्यम मानते है। गाँधी, लोहिया, जय प्रकाश और दीनदयाल उपाध्याय ने राजनीति को जनसेवा का साधन बनाने की कोशिश की थी, परन्तु उनके घोषित शिष्यों ने उनकी चेष्टा को विफल करके राजनीति को अपनी निजी महत्वकांक्षाओं का साधन बना लिया है।
         राजनीति में अपराधियों के वर्चस्व का तात्कालिक प्रभाव किसी भी दल में उसके निष्ठावान कार्यकर्ताओं पर पड़ता है परन्तु अलग अलग स्तरों पर साधन सम्पन्न सूरजमुखी नव आगन्तुकों से पिट रहे यह कार्यकर्ता दल की सीमाओं में संगठित होकर अपने दलों मे इस प्रकार के तत्वों के प्रवेश का विरोध नही कर पाते और दूसरे दल की कथित अपराधी के विरूद्ध धरना प्रदर्शन करने में अपनी शक्ति जाया करते है और जब वही व्यक्ति उनके दल का टिकट पा जाता है तो दलीय प्रतिबद्धता के नाम पर उसका समर्थन करने को अभिशप्त हो जाते है। किसी भी दल का कोई राजनेता अपने दल में अपने समर्थक अपराधी तत्वों की पहचान करके उसे बाहर का रास्ता नही दिखायेगा। ऐसे तत्वों से राजनेता लाभान्वित होते है। परन्तु स्थानीय स्तर के राजनैतिक कार्यकर्ताओं का दायित्व है कि वे अपने अपने स्तरों पर अपराधी तत्वों की पहचान सुनिश्चित करके उन्हें दल से बाहर का रास्ता दिखाने का मार्ग प्रशस्त करें।