शासकीय अधिवक्ता आपराधिक न्याय प्रशासन की महत्वपूर्ण इकाई है। उसकी नियुक्ति दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत की जाती है और वह स्वतन्त्र विधिक प्राधिकारी है। किसी भी दशा में अभियुक्त को दोषसिद्ध कराना उसका दायित्व नही है। निर्दोषिता की अवधारणा के सिद्धान्त का सम्मान करते हुये निष्पक्ष एवं पारदर्शी तरीके से विचारण में सहयोग करना उसकी पदीय प्रतिबद्धता है। इसी कारण आपराधिक विचारणों में प्रायवेट अधिव
क्ताओं की भूमिका को सीमित रखा गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने शिवकुमार बनाम हुकुम चन्द्र (1999- 7-एस.सी.जी.-पेज 467) में स्पष्ट किया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत सत्र न्यायालयों के समक्ष आपराधिक विचारणों का संचालन शासकीय अधिवक्ताो के अतिरिक्त अन्य किसी को करने की अनुमति नही है। निर्णय में कहा गया है कि यदि अभियुक्त के अधिवक्ता ने किसी महत्वपूर्ण सुसंगत तथ्य को नजर अन्दाज किया हो तो भी शासकीय अधिवक्ता को अभियुक्त की दोष सिद्धि या दोषमुक्ति को ध्यान मे लिये बिना न्यायालय के संज्ञान में सभी तथ्यों को लाना चाहियें।
सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने शासकीय अधिवक्तों विशेषतः सत्र न्यायालयों के समक्ष कार्यरत शासकीय अधिवक्ताओं की भूमिका की श्रेष्ठता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है और राज्य सरकारों से अपेक्षा की है कि वे शासकीय अधिवक्ताओ को न्यायालय के समक्ष अपने विवेक से स्वतन्त्रापूर्वक पारदर्शी तरीके से कार्य करने का माहौल उपलब्ध करायें परन्तु राज्य सरकारे विशेषतया उत्तर प्रदेश सरकार शासकीय अधिवक्ताओं को केवल और केवल अपने प्रति निष्ठावान बनाये रखने के लिए कटिबद्ध है। अपने इसी दुरासय की पूर्ति के लिए मुलायम सिंह यादव ने अपने मुख्यमन्त्रित्व काल में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 मे राज्य स्तरीय संशोधन करके शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति के लिए जनपद न्यायाधीश से राय लेने की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया था।
स्वतन्त्र भारत के इतिहास मे पहली बार मुलायम सिंह यादव ने किसी युक्तियुक्त कारण के बिना एकदम मनमाने तरीके से सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश मे सत्र न्यायालयों के समक्ष कार्यरत सभी शासकीय अधिवक्ताओं को हटा देने और केवल अपने दल के कार्यकर्ताओं को नियुक्त करने का फरमान जारी किया था। हलाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीलेखा विद्यार्थी बनाम स्टेट आफ यू.पी. (1991-एस.सी.सी.-पेज-212) के द्वारा मुलायम सिंह यादव के मन्सूबों पर पानी फेर दिया और वे हटाये गये शासकीय अधिवक्ताओ को कार्य पर लेने के लिए विवश हुये।
श्रीलेखा विद्यार्थी के मामले मे सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बावजूद मुलायम सिंह के नक्शेकदम पर चलते हुये सुश्री मायावती ने भी अपने मुख्य मन्त्रित्व काल मे सत्र न्यायालयों के समक्ष कार्यरत सभी शासकीय अधिवक्ताओ को एक साथ हटाकर अपने कार्यकताओ को नियुक्त करने मे कोई कोताही नही की। हलाँकि उनमे से कइयों ने शासकीय अधिवक्ता के रूप मे नियुक्ति के बाद पहले दिन पहली बार सत्र न्यायालय का मुँह देखा था और उनके पास एक भी सत्र परीक्षण के संचालन का अनुभव नही था। कोई राशन की दुकान का कोटेदार था तो कोई कही नौकरी करता था।
मुलायम सिंह यादव और मायावती दोनों ने अपने मुख्यमन्त्रित्व काल मे कुशल एवं श्रेष्ठ अधिवक्ताओ को शासकीय अधिवक्ता नियुक्त करने से परहेज किया है। सत्र न्यायालयो के समक्ष हत्या, बालात्कार, डकैती जैसे गम्भीर अपराधों मे अभियुक्तों का विचारण होता है परन्तु इन दोनो ने सत्र न्यायालयों के समक्ष आपराधिक विचारण का संचालन करने के लिए जिन विद्वान अधिवक्ताओ की नियुक्ति की है उनमे से अधिकांश पोस्टमार्टम रिपोर्ट तो छोडि़ये साधारण इन्जरी रिपोर्ट पढ़ने की कुशलता भी अर्जित नही कर सके है। किसी भी जनपद मे अभियुक्त के बचाव के लिए नामी गिरामी वकील उपस्थित होते है जो सभी पहलुओं पर बारीकी से होमवर्क करके अभियुक्त का बचाव करते है। ऐसी दशा में शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति प्रक्रिया को निष्पक्ष एवं पारदर्शी बनाये बिना आम आदमी को न्याय मिल पाना सम्भव नही है।
शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति मे खुल्लमखुल्ला राजनैतिक हस्तक्षेप मुलायम सिंह यादव ने शुरू किया और उनकी परम्परा को निर्लज्जता पूर्वक मायावती ने आगे बढ़ाया है। भाजपा शासन काल मे उसके न्यायमन्त्री श्री शिव प्रताप शुक्ल ने पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा नियुक्त किये गये किसी भी शासकीय अभिवक्ता को हटाया नही जबकि मायावती ने किसी युक्तियुक्त कारण के बिना उनके द्वारा नियुक्त कई लोगो को हटा दिया था। मायावती ने अपने कार्यकाल के दौरान शासकीय अधिवक्ताओ की फीस पाँच सौ रूपये से बढ़ाकर एक हजार रूपये प्रतिदिन की थी परन्तु पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा नियुक्ति शासकीय अधिवक्ताओं को एक साथ हटा दिये जाने के बाद इस बढ़ोत्तरी को लागू किया ताकि उसका लाभ केवल उनके द्वारा नियुक्त लोगो को ही प्राप्त हो सके। मुख्यमन्त्री के स्तर पर इस प्रकार की निर्लज्जता इसके पहले कभी नही देखी गई।
विधि शासकीय अधिवक्ताओ की नियुक्ति और उनके कार्यकाल के नवीनीकरण के लिए जनपद न्यायाधीश की सिफारिश को प्रधानता देती है परन्तु राज्य सरकारे जनपद न्यायाधीश की सिफारिश को अनदेखा करके अपने विधायकों सांसदों की पसन्द नापसन्द के आधार पर नियुक्तियाँ करने के लिए लालायित रहती है। कई बार नियुक्ति या नवीनीकरण के लिए विद्वान अधिवक्ता को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अभियुक्त रहे विधायक या सांसद के दरवाजे पर मथ्था टेकने के लिए अभिशप्त होना पड़ता है। सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्केण्डेय काटजू ने न्यायाधीश के रूप मे अपने कार्यकाल के दौरान पारित निर्णय मे राज्य सरकारो को चेताया था कि नियुक्तियों और नवीनीकरण में जनपद न्यायाधीश की राय को वरीयता देकर निष्पक्षता एवं पारदर्शिता सुनिश्चित नही करायी गई तो कोई भी कुशल अधिवक्ता शासकीय अधिवक्ता बनने के लिए तैयार नही होगा। उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्णय के आशय के अनुरूप एल.आर. मैनुअल मे संशोधन करने का निर्देश दिया था परन्तु उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार ने उनके निर्णय के प्रतिकूल नियुक्तियो के लिए जनपद न्यायाधीश से राय लेने की अनिवार्यता के प्रावधान को ही एल.आर. मैनुअल से से हटा दिया और मनमानी नियुक्ति करने का मार्ग सुगम कर लिया था।
काँग्रेस, कान्फ्रेन्स आफ प्रासीक्यूटर्स जनरल आफ यूरोप, इण्टरनेशनल ऐसोसियेशन आफ प्रासीक्यूटर्स ने अलग अलग अवसरों पर शासकीय अधिवक्ताओ के लिए उनकी भूमिका इथिक्स और प्रोफेशनल रेस्पान्सिबिलिटी को रेखांकित किया है। बार काउन्सिल आफ इण्डिया ने भी अपनी नियमावली मे शासकीय अधिवक्ता के रूप मे अपने सदस्यों की भूमिका निर्धारित की है और सभी ने माना है कि आपराधिक विचारण मे अभियुक्त को दण्डित कराना शासकीय अधिवक्ता का प्रधान कर्तव्य नही है। उसे निर्दोषिता की अवधारणा के सिद्धान्त और अभियुक्त की मानवीय गरिमा का सम्मान करते हुये सम्पूर्ण सुंसगत तथ्यों को प्रस्तुत करना चाहिये ताकि न्यायालय को न्याय करने मे सहूलियत हो परन्तु जमीनी हकीकत ठीक इसके प्रतिकूल है। राज्य सरकारे इस नियम को मानने के लिए तैयार नही है, मनमानी करने पर उतारू है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का अनुपालन वे केवल मजबूरी में करती है। राज्य सरकारों का न्यायिक मार्गदर्शन करने के लिए उच्च न्यायालय विधि परामर्शी के रूप में अपने न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति करती है परन्तु विधि परामर्शी भी राज्य सरकार के प्रतिबद्ध अधिकारी की तरह कार्य करते है और राज्य सरकारों को सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की मनमाफिक व्याख्या करने से कभी नही रोकते। राज्य सरकार की हाँ में हाँ मिलाना अब उन्होंने भी अपनी आदत मे सुमार कर लिया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विधि परामर्शी को तलब करके खुली अदालत मे कई बार जलील किया है परन्तु कोई सुधार नही हुआ। इन स्थितियों में सुधार की कोई सम्भावना नही है, आमूल चूल परिवर्तन की जरूरत है। वर्तमान संवैधानिक प्रावधानों के तहत कानून व्यवस्था राज्य सूची का विषय है। केन्द्र उसमे कोई हस्तक्षेप नही कर सकता। संविधान मे इस आशय का प्रावधान किये जाते समय किसी ने भी राजनैतिक व्यवस्था में विद्यमान गिरावट और कानून व्यवस्था में दिन प्रतिदिन के राजनैतिक हस्तक्षेप की कल्पना नही की होगी परन्तु अब यह सब यथार्थ है। अपराधी हाईटेक हो गया है और शासकीय अधिवक्ता आज भी बैलगाड़ी युग का। ऐसी दशा में आवश्यक हो गया है कि कानून व्यवस्था को केवल राज्यों के भरोसे न छोड़ा जाये बल्कि उसे समवर्ती सूची मे जोड़ने की पहल की जाये ताकि आम जनता का न्याय के प्रति भरोसा बरकरार रहे और राजनैतिक हस्तक्षेप के सहारे कोई दोषी दण्डित होने से बचने न पाये।
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