दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 के आदेशात्मक प्रावधानों के बावजूद देश को हिला देने वाले निर्भया काण्ड के एक अभियुक्त को आठ माह के बाद सजा सुनाई जा सकी है। इस मामले के अन्य अभियुक्तों का विचारण अभी जारी है। विधि में स्पष्ट व्यवस्था है कि धारा 376 से 376 घ तक के अपराधो का विचारण साक्षियों की गवाही प्रारम्भ होने की तिथि से दो माह की अवधि के अन्दर पूरा किया जायेगा परन्तु जमीनी हकीकत ठीक इसके प्रतिकूल है और अधीनस्थ न्यायालय दो माह के अन्दर आपराधिक विचारण निर्णीत करने की इच्छाशक्ति नही दिखा पा रहे है जबकि आपराधिक मामलों में विलम्ब होने से अपराधियों का मनोबल बढ़ता है। आम पीडि़त और साक्षी विलम्ब से प्रताडि़त होकर प्रायः अपने पूर्व बयानों से मुकर जाते है और अपराधी को अपने किये की सजा नही मिल पाती जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के लिये घातक है।
आपरााधिक विचारणों का समयबद्ध निस्तारण न हो पाने की जमीनी समस्याओं पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अनिल कुमार शर्मा बनाम स्टेट आफ यू.पी. (2013-2-जे.आई.सी.-पेज 428-इलाहाबाद) में विचार किया है और उसमें सुधार के लिए दिशा निर्देश भी जारी किये है। हलाँकि न्यायालय ने अपने निर्णय मे पहले जारी किये गये निर्देशों का पालन न होने पर निराशा व्यक्त की है।
प्रचलित व्यवस्था के तहत किसी भी आपराध की विवेचना पूर्ण करने के बाद विवेचक दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 (2) के तहत अभियुक्त के विरूद्ध आरोप पत्र सम्बन्धित थाने के मजिस्टेªट के समक्ष प्रस्तुत करते है। आरोपपत्र प्रस्तुत करते समय विवेचक अभियुक्त को न्यायालय के समक्ष पेश नही करता और न उसे आरोपपत्र दाखिल होने की सूचना देता है। आरोपपत्र दाखिल हो जाने के बाद विवेचक की
जिम्मेदारी पूरी हो जाती है और वह प्रश्नगत प्रकरण से अपने आपको अलग मान लेता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 207 के तहत पुलिस रिपोर्ट, प्रथम सूचना रिपोर्ट की प्रति साक्षियों के बयान की प्रति धारा 164 के तहत लेखबद्ध की गई संस्वीकृतियों या कथनों की प्रति विचारण प्रारम्भ होने के पूर्व सम्बन्धित मजिस्टेªट के न्यायलय से अभियुक्त को दी जाती। इन प्रतियों के तैयार हो जाने के बाद अभियुक्त को उपस्थित होने के लिए सम्मन भेजा जाता है और फिर जब तक सभी अभियुक्त उपस्थित होकर धारा 207 के तहत देय सभी प्रतियाँ प्राप्त नही कर लेते तब तक पत्रावली विचारण के लिए सत्र न्यायालय के समक्ष प्रेषित नही की जा सकती है। वास्तव में अभियुक्तों को प्रतियाँ उपलब्ध कराने में काफी विलम्ब होता है और कई बार अभियुक्त खुद प्रतियाँ प्राप्त नही करता और किसी न किसी बहाने पत्रावली को सत्र न्यायालय के समक्ष भेजे जाने की कार्यवाही में विलम्ब कारित कराता है। इस विलम्ब को रोकने के लिए न्यायालय ने सुझाव दिया है कि क्षेत्राधिकारी स्तर पर फोटो काफी मशीन उपलब्ध कराई जाये ताकि विवेचक आरोप पत्र के साथ अपेक्षित कागजातों की छाया प्रतियाँ भी न्यायालय के समक्ष दाखिल कर सके। इसके द्वारा उपस्थिति के लिए नियत प्रथम तिथि पर ही अभियुक्त को अपेक्षित कागजातों की प्रतियाँ दी जा सकेंगी और उसे तारीख बढ़वाने का कोई बहाना नही मिलेगा।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 (2) के तहत सत्र न्यायालयों द्वारा विचारणीय अपराधों मे भी आरोपपत्र सम्बन्धित मजिस्टेªट के समक्ष प्रस्तुत किये जाते है। इस प्रकार प्रस्तुत आरोपपत्रों पर सम्बन्धित मजिस्टेªट के समक्ष कोई न्यायिक कार्यवाही नही की जाती है। केवल औपचारिकताओं का निर्वहन होता है। न्यायिक विवेक का प्रयोग किये बिना विशुद्ध यान्त्रिक तरीके से पत्रावली को विचारण के लिए सत्र न्यायालय के समक्ष प्रेषित करने की औपचारिकता निभाई जाती है और इसके कारण विचारण प्रारम्भ होने में विलम्ब होता है और इससे अभियुक्त या अभियोजन किसी को मामले के गुणदोष पर कोई लाभ नही मिलता है। सत्र न्यायालयों के समक्ष विचारणीय अपराधों का विचारण शुरू करने मे देरी की इस जमीनी समस्या पर विचार किया गया है और सम्बन्धित पक्षों को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 209 में संशोधन करने का सुझाव माननीय उच्च न्यायालय ने दिया है। सत्र न्यायालयों के समक्ष विचारणीय अपराधों मे विवेचक को आरोपत्र सीधे सत्र न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने और आरोपपत्र प्रस्तुत करने के पूर्व अभियुक्त को भी प्रस्तुत करने की तिथि से अवगत कराने की अदेशात्मक व्यवस्था करने के लिए अपेक्षित संशोधन करने की सलाह दी गयी है। इस व्यवस्था के लागू हो जाने से हत्या डकैती राहजनी बालात्कार जैसे जघन्य अपराधों के विचारण में विलम्ब को काफी हद तक कम किया जा सकता है। अभियुक्त को आरोपपत्र प्रस्तुत करने की सूचना देने से उसके निवास स्थान की पुनः पुष्टि हो सकती है ताकि सही पते के अभाव में विचारण के दौरान उस पर सम्मन की तामीली में अकारण अवरोध न उत्पन्न हो।
दिन प्रतिदिन के स्थगन प्रार्थनापत्र आपराधिक विचारणों के जल्दी निस्तारण में सबसे बड़ी बाधा है। हलाँकि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 के प्रावधानों की आदेशात्मक प्रकृति होने के बावजूद जमीनी स्तर पर स्थगन प्रार्थनापत्रों पर अंकुश नही लगाया जा सका है। स्थगन प्रार्थनापत्र निसंकोच दाखिल किये जाते है और स्वीकार होते है। इन स्थितियों पर प्रभावी नियन्त्रण के लिए दिनांक 17.01.2013 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णयों का हवाला देते हुये सर्कुलर जारी किया है। इसके पूर्व दिनांक 23.11.1992 एवं दिनांक 06.12.2000 को भी उच्च न्यायालय ने सर्कुलर जारी करके आपराधिक विचारणों में स्थगन प्रार्थनापत्रों पर लगाम लगाने का निर्देश जारी किया था। दिल्ली उच्च न्यायालय सहित सभी उच्च न्यायालयों ने भी इस आशय के दिशा निर्देश जारी किये है परन्तु दिल्ली के राष्ट्रव्यापी चर्चित रेप काण्ड में इन दिशा निर्देशों का अनुपालन न हो पाने से प्रमाणित होता है कि सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश अधीनस्थ न्यायालयों की चैखट तक पहुँचते पहुँचते दम तोड देते है। अधीनस्थ न्यायालयों में दिन प्रतिदिन की वर्किंग यथावत है और उसमे तत्काल परिवर्तन की कोई आशा भी नही दिखती।
नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट की धारा 138 के परिवाद और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत प्रस्तुत प्रार्थना पत्रों के बढ़ते बोझ के कारण भी आपराधिक विचारणों में दिन प्रतिदिन की सुनवाई मे अवरोध उत्पन्न होता है। व्यवहारिक रवैया अपनाकर इन मामलों की सुनवाई के कारण होने वाले विलम्ब को कम किया जा सकता है परन्तु अधीनस्थ न्यायालय उसके लिए तैयार नही है। आपराधिक परिवादों में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 88 को निष्प्रयोज्य मान लिया गया है। जबकि इस धारा का प्रयोग करके कई तरह की औपचारिकताओं को कम करके समय की बचत की जा सकती है। इस धारा का उपयोग करके सम्मन पर उपस्थित होने वाले अभियुक्तों को जमानत प्रार्थनापत्र प्रस्तुत करने आदि से मुक्त रखा जा सकता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने डा. गुलजार बनाम स्टेट आफ यू.पी. एण्ड अदर्स (2013-1-जे.आई.सी.-पेज 896-इलाहाबाद) में सभी मुख्य न्यायिक मजिस्टेªटो को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 88 के तहत सम्मन पर उपस्थित होने वाले अभियुक्तो की उपस्थिति प्रतिभू सहित या प्रतिभू रहित बन्धपत्र पर स्वीकार करने के लिए सर्कुलर जारी किया है। इसी प्रकार सर्वाेच्च न्यायालय ने नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट की धारा 138 के मामलों में तलबी आदेश के बाद प्रथम नियत तिथि पर उपस्थित होकर चेक में अंकित राशि का भुगतान करने वाले अभियुक्तो के विरूद्ध संस्थित परिवाद समाप्त करने का निर्देश पारित किया है। आदेशात्मक प्रकृति के इन निर्देशों का प्रयोग करके समय बचाने का कोई प्रयास नही किया जा रहा है। सभी निर्देश विधिक जर्नलों की शोभा बढ़ा रहे है।
न्यायालयों पर बढ़ते बोझ को कम करने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करके अभिवाक सौदेबाजी प्ली आफ बारगेनिंग का एक नया अध्याय जोड़ा गया है। इस अध्याय की धारा 265 ख के तहत सात वर्ष तक की सजा के अपराधो में अभियुक्त को न्यायालय के समक्ष पीडि़त के साथ सौदेबाजी करके मामलों को निपटाने की सुविधा दी गई है। इस धारा के तहत आवेदन प्राप्त होने पर न्यायालय के लिए आवश्यक है कि वह मामले का समाधानप्रद निपटारा करने के लिए लोक अभियोजक, विवेचक और पीडि़त की बैठक हेतु तिथि नियत करे और उसमें भाग लेने के लिए नोटिस जारी करें। इस प्रकार आयोजित बैठक मे पारस्परिक सहमति ये यदि मामले का निपटारा हो जाता है तो अभियुक्त पीडि़त को आपसी सहमति से प्रतिकर प्रदान करेगा और अभियुक्त को अपराधी परिवीक्षा अधिनियम के तहत परिवीक्षा पर छोड़ा जा सकता है। आपराधिक मामलों के त्वरित निपटारे की यह एक सस्ती और सहज व्यवस्था है और इसके माध्यम से न्यायालय के बोझ को कम करके विचारणों के लिए समय बचाया जा सकता है परन्तु सभी पक्षों के लिए लाभप्रद होने के बावजूद न्यायालयों के समक्ष यह व्यवस्था आज भी प्रभावी नही हो सकी।
आपराधिक विचारणों में लगने वाले विलम्ब को कम करना आज एक बड़ी समस्या है। प्रायः इसके लिए सरकार को दोषी माना जाता है। बिलम्ब के लिए सरकार कतई दोषी नही है। विलम्ब को कम करने की सभी स्थितियाँ न्यायालयों के नियन्त्रण में है और उनके स्तर पर गुणात्मक कार्यवाही नही हो पा रही है। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों के तहत दण्ड प्रक्रिया संहिता में अपेक्षित संशोधन कर दिये है। अब उन्हें लागू करना न्यायालयों की अपनी जिम्मेदारी है। अधीनस्थ न्यायालयों में उच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देश निष्प्रभावी हो जाते है। हाईकोर्ट सर्कुलर संख्या 25/61 दिनांक 26 अक्टूबर 1961 के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को किसी भी अन्य कार्य की तुलना में आपराधिक विचारणें को वरीयता देने और गवाही प्रारम्भ होने के बाद दिन प्रतिदिन सुनवाई जारी रखने का निर्देश जारी किया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने रजिस्ट्रार को पुनः इसी आशय का सुर्कुलर जारी करने का निर्देश दिया है जो इस तथ्य का परिचायक है कि वर्ष 1961 से वर्ष 2013 के मध्य अधीनस्थ न्यायालयों की वर्किंग में कोई गुणात्मक सुधार नही हो सका है। स्थितियाँ ज्यों की त्यों बनी हुयी है इसलिए अब आवश्यक हो गया है कि न्यायिक सुधारो के लिए कोई नई विधि बनाये बिना विद्यमान कानूनों को अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर लागू कराने के लिए युद्ध स्तरीय प्रयास किये जायें।
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