Sunday, 4 August 2013

फैशन बन गया है अपराधीकरण का विरोध .......


        दागी राजनेताओं पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने के बाद सभी दलों ने निर्णय का समर्थन करके यह जताने का प्रयास किया है कि वे राजनीति मे आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओ के बढ़ते प्रभाव से चिन्तित है। वास्तव में राजनीति के अपराधीकरण पर सार्वजनिक चिन्ता और उसकी चर्चा करना अब फैशन बन गया है, परन्तु राजनीति से अपराधियों को पृथक रखने की दिशा में आज के राजनैतिक दलों ने कभी कोई ईमानदार कोशिश नही की है। सभी लकीर का फकीर बने हुये है। पचास के दशक में तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू और प्रख्यात समाजवादी विचारक जय प्रकाश नारायण ने मजदूर संगठनों में अपराधियों को संरक्षण देने के आरोप प्रत्यारोप के बीच अपने अपने स्तरों पर इण्डियन नेशनल ट्रेड यूनियन काँग्रेस और हिन्द मजूदर सभा मे अपराधी तत्वों की पहचान कराई और फिर दोनों संगठनों ने सार्वजनिक स्वीकारोक्ति करके ऐसे तत्वों को बाहर का रास्ता दिखा दिया।
        राजनीति से अपराधियों को पृथक करने के लिए सभी दलों के राजनेताओं को पण्डित नेहरू और जय प्रकाश नारायण की तरह का साहस करना होगा। मुझे नही लगता कि आज का कोई राजनेता इस प्रकार का साहस करने के लिए तैयार है। सभी राजनीतिक दल अपनी सुविधा और तात्कालिक आवश्यकता को दृष्टिगत रखकर अपराध और अपराधी की परिभाषा गढ़ने में माहिर है और इसके लिए वे कभी शर्मिन्दगी महसूस नही करते।
           काँग्रेस पर इस प्रकार के तत्वों को बढ़ावा देने का आरोप काफी पुराना हो गया है। परन्तु भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और अब बहुजन समाज पार्टी ने भी अपराधियों को टिकट देने में कोई कोताही नही की है और उसी का परिणाम है कि राजनेताओं द्वारा अपराधियों पर की गई किसी टिप्पणी को आम जनता गम्भीरता से नही लेती है। सभी दलों के अन्दर कार्यकर्ताओं का राजनैतिक प्रशिक्षण बन्द हो गया है। दल विशेष किस राजनैतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है। प्रायः उस दल के पदाधिकारियों को भी नही मालूम होता। पिछले दो दशको में सेक्युलर और नान सेक्युलर की चर्चा ने राजनैतिक विचारधाराओं की चर्चा पर विराम लगा दिया है। जाति तोड़ों, दाम बाँधो, आय का अन्तर घटाओं जैसे सामयिक मुद्दों पर अब राजनैतिक आन्दोलन नही होते और दलों के अन्दर भी केवल व्यक्तियों की चर्चा होती है विचारधारा आधारित चर्चाओं को छुआछूत की बीमारी मान लिया गया है।
          प्रख्यात साहित्यकार और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रामवृक्ष बेनीपुरी ने एक समाजवादी नेता से कहा था कि ‘‘आप समाजवाद छोड़ सकते है क्योंकि आपका समाजवाद आपकी राजनीति का एक अंग है। आपने उसे पढ़कर प्राप्त किया है और राजनीति के एक मोहरे के रूप मे उसका प्रयोग कर रहे है। एक दिन आपको पता चले कि वे किताबें गलत है या आपकी राजनीति बताये कि अब सीधी राह नही चलकर कतरिया कर चलना है तो समाजवाद को छोड़ने मे आपको तनकि भी झिझक नही होगी परन्तु वे लोग जो छात्रावासों मे एक रूपये नगद मेस फीस न दे पाने के कारण चावल को भुनाकर भकोसते रहे है। दिन रात भूख, बीमारी और गंदगी से रूबरू होते है वे यथा स्थिति के समर्थक नही हो सकते। उन्हें तो समाजवादी रहना ही पड़ेगा। पिछले चुनाव मे बसपा के हाथी पर सवार और अब इस चुनाव में साइकिल पर सवारी के लिये बेताब राजनेताओं पर यह एक सटीक टिप्पणी है।
            आन्दोलनों की राजनीति बन्द हो गई इसलिए तपेतपाये साधन विहीन कार्यकर्ताओं को पार्टी टिकट न देने का सिलसिला स्वयं हमारे नेताओं ने शुरू किया है। जाति और धर्म के गुणा भाग के बीच आदर्श कार्यकर्ता को जिताऊ प्रत्याशी की तुलना में कमतर आंकने की एक नई संस्कृति को जन्म हुआ है और इसी संस्कृति ने राजनीति में अपराधियों को अपना वर्चस्व बढ़ाने के सहज अवसर उपलब्ध कराये है। राजनेताओं को समझ में नही आता कि आम जनता पैसे और पसीने की लड़ाई में सदा पसीने के साथ खड़ी होती है। आज का राजनेता अपने दल में प्रत्याशी के चयन के समय प्रत्याशी विशेष की ईमानारी, दलीय निष्ठा और जनआन्दोलनों में उसकी सहभागिता को संज्ञान मे नही लेते। स्थानीय स्तर के राजनैतिक कार्यकर्ता राजनीति को साधना का क्षेत्र और त्याग तपस्या द्वारा जनसेवा करने का माध्यम मानते है। गाँधी, लोहिया, जय प्रकाश और दीनदयाल उपाध्याय ने राजनीति को जनसेवा का साधन बनाने की कोशिश की थी, परन्तु उनके घोषित शिष्यों ने उनकी चेष्टा को विफल करके राजनीति को अपनी निजी महत्वकांक्षाओं का साधन बना लिया है।
         राजनीति में अपराधियों के वर्चस्व का तात्कालिक प्रभाव किसी भी दल में उसके निष्ठावान कार्यकर्ताओं पर पड़ता है परन्तु अलग अलग स्तरों पर साधन सम्पन्न सूरजमुखी नव आगन्तुकों से पिट रहे यह कार्यकर्ता दल की सीमाओं में संगठित होकर अपने दलों मे इस प्रकार के तत्वों के प्रवेश का विरोध नही कर पाते और दूसरे दल की कथित अपराधी के विरूद्ध धरना प्रदर्शन करने में अपनी शक्ति जाया करते है और जब वही व्यक्ति उनके दल का टिकट पा जाता है तो दलीय प्रतिबद्धता के नाम पर उसका समर्थन करने को अभिशप्त हो जाते है। किसी भी दल का कोई राजनेता अपने दल में अपने समर्थक अपराधी तत्वों की पहचान करके उसे बाहर का रास्ता नही दिखायेगा। ऐसे तत्वों से राजनेता लाभान्वित होते है। परन्तु स्थानीय स्तर के राजनैतिक कार्यकर्ताओं का दायित्व है कि वे अपने अपने स्तरों पर अपराधी तत्वों की पहचान सुनिश्चित करके उन्हें दल से बाहर का रास्ता दिखाने का मार्ग प्रशस्त करें। 


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