‘‘एट एनीटाइम विदआउट एसाइनिग एनी काज’’ निजी क्षेत्र मे कर्मचारियों के नियुक्ति पत्रों में धडल्ले से लिखे जा रहे यह दो शब्द अपने देश में प्रचलित लोकनीति के प्रतिकूल है और उसका प्रभाव किसी भी कर्मचारी की सामाजिक सुरक्षा और उसकी पारिवारिक व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर देता है। जबकि विदआउट एसाइनिंग एनी काज का अर्थ विदआउट एकजिस्टेन्स आफ एनी काज नही है अर्थात किसी युक्ति युक्त कारण के बिना सेवायोजक किसी कर्मचारी को सेवा से पृथक नही कर सकते है परन्तु वस्तु स्थिति इसके प्रतिकूल है और कोई न कोई कर्मचारी कल से न आने का फरमान सुनने को अभिशप्त है।
निजी क्षेत्र में श्रम कानूनों का उल्लंघन आम बात है। श्रमिको को विधि द्वारा प्रदत्त न्यूनतम वेतन की गारन्टी सहित सभी सामाजिक सुविधाओं से वंचित रखा जाता है। आठ घण्टे की जगह बारह घण्टे काम लिया जाता है और उनके सामने किसी भी समय हटा दिये जाने का खतरा सदैव बरकरार रहता है। कर्मचारियों के पक्ष मे अनेक कानून होने के बावजूद टेªड यूनियन मूवमेन्ट कमजोर हो जाने के कारण उनका लाभ कर्मचारियो को नही मिल पाता। अभी पिछले दिनो एक निजी क्षेत्र की बैंक ने अपने कर्मचारी के विरूद्ध आरोप पत्र जारी किया और उसकी घरेलू जाँच के लिए नई दिल्ली के एक विद्वान अधिवक्ता को जाँच अधिकारी नियुक्त करके वहीं घरेलू जाँच शुरू करा दी। कर्मचारी को अपने व्यय पर कानपुर से नई दिल्ली जाकर जाँच में भाग लेने के लिए आदेशित किया गया। इस प्रकार की गई घरेलू जाँच सहज और सुलभ न्याय की भावना और प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तो के प्रतिकूल है परन्तु श्रम विभाग के सम्बन्धित अधिकारियो ने कर्मचारी की शिकायत पर सेवायोजको की मनमानी को रोका नही। उसे अपनी मूक सहमति दी और कर्मचारी नौकरी से बाहर हो गया। इस प्रकार की मनमानी के विरूद्ध समुचित कानून होने के बावजूद श्रम विभाग द्वारा कर्मचारी की मद्द न करने के कारण सेवायोजको का मनोबल बढ़ता है और कर्मचारी अकेलेपन का अहसास करके अन्याय झेलने को मजबूर हो जाते है।
निजी क्षेत्र के कारखानों, बैंको, बीमा कम्पनियों और सेवाप्रदाता प्रतिष्ठानों में कर्मचारी को दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में रखा जाता है। श्रम कानूनों के प्रतिकूल न्यूनतम वेतन से कम वेतन और बारह घण्टे के कार्य दिवस का नियम यहाँ कड़ाई से लागू है। रविवार सहित सार्वजनिक अवकाशों पर भी इनके कार्यालय खुलते है और कर्मचारियों को उपस्थिति दर्ज करानी पड़ती है। इन प्रतिष्ठानों द्वारा कर्मचारियों को दिये जा रहे नियुक्ति पत्र अपने देश के श्रम कानूनों का मजाक उड़ाते है। ई.एस.आई. प्रावीडेण्ड फण्ड ग्रेच्युटी जैसी सर्वस्वीकृत सुविधाओं के लिए विधि के तहत देय सेवायोजको के अंशदान को भी कर्मचारियों के वेतन पैकेज मे जोड़ा जाता है। स्थायी प्रकृति के अधिकांश काम एक मुश्त वेतन पर रिटेनर बताकर कराये जाते है और सम्बन्धित कर्मचारी को विधि के तहत देय सामाजिक सुरक्षा से वंचित रखा जाता है।
असंघटित क्षेत्र के कारखानों, बैंकों, बीमा कम्पनियों, नान बैंकिंग फायनेन्स कम्पनियों, टेलीकाम कम्पनियों और अन्य प्रतिष्ठानों में कान्टेªक्ट लेबर (रेगुलेशन एण्ड एबालिशन) एक्ट 1970 और इकक्वल रेम्युनेरेशन एक्ट 1976 को ठेंगा दिखाकर कम्पनी के कामों के लिए एक दूसरी कम्पनी बना ली गई है। इस दूसरी कम्पनी के कर्मचारियों से मूल कम्पनी का काम लिया जाता है परन्तु मूल कम्पनी के कर्मचारियों की तुलना में काफी कम वेतन दिया जाता है जबकि वे मूल कम्पनी के परिसर मे मूल कम्पनी के अधिकारियों के नियन्त्रण एवं निर्देशन में उन्हीं का काम उन्हीं के लिए करते है। किसी प्रतिष्ठान मे कार्य विशेष के लिए कर्मचारियों को अलग अलग वेतन नही दिया जा सकता। समान काम के लिए समान वेतन का सिद्धान्त अपने देश में लागू है। इस सम्बन्ध में स्थापित विधि है, सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट दिशा निर्देश है परन्तु श्रम विभाग के अधिकारियों की आपराधिक उदासीनता के चलते विधि का उल्लंघन धडल्ले से बेरोकटोक जारी है और कर्मचारी नौकरी की कोई सुरक्षा न होने के कारण घुट घुट कर अपने साथ हो रहे इस अन्याय को सहन कर रहा है।
वित्तविहीन विद्यालयों में अध्यापकों की दशा आज सबसे ज्यादा खराब है। अधिकांश अध्यापक हाडतोड मेहनत करने के बावजूद न्यूनतम वेतन से कम वेतन पर किसी भी समय निकाले जाने के खतरों के बीच काम करने को अभिशप्त है। सरकार भी उनकी मदद के लिए कोई कारगर कानून बनाने मे हिचकती रहती हैै। सभी जानते है कि अब स्कूल खोलना कोई मिशन या सामाजिक कार्य नही रह गया है। सभी लोग अपने अपने तरीके से स्कूलो को कमाई का साधन बनाये हुये है इसलिए अब समय आ गया है कि स्कूलो को व्यवसाय घोषित करके आद्यौगिक विवाद अधिनियम की परिधि में लाया जाये। अन्य कामगारों की तरह अध्यापक भी श्रमजीवी है परन्तु एक साजिश के तहत उसे श्रमिक की परिधि से बाहर रखा गया है। उसे श्रम कानूनों के तहत अपनी नौकरी सुरक्षित बनाये रखने का अधिकार दिया जाना चाहिये।
अभी पिछले दिनों विचारधारा आधारित एक माध्यमिक विद्यालय के प्रधानाचार्य को एक कपड़ा व्यवसायी प्रबन्धक ने एकदम मनमाने तरीके से अपमान जनक स्थितियाँ पैदा करके हटा दिया। प्रधानाचार्य जी खुद भी विचारधारा के सिपाही हैं परन्तु विचारधारा के अग्रणी लोगों ने प्रधानाचार्य की गुहार नही सुनी, उन्हें मझधार में छोड़ दिया और प्रबन्धक को मनमाने तरीके से काम करते रहने दिया। वास्तव मे आज राजनेताओं में शिक्षण संस्थाये खोलने की होड़ चल रही है। शिक्षण संस्थाये मोटी कमाई का साधन है इसलिए सभी अपने अपने स्तरों पर विद्यार्थियों से मोटी फीस लेने के बावजूद अध्यापक को सम्मानजनक जीवन जीने लायक वेतन नही देते और उनका भरपूर शोषण करते है और शोषण के नये नये तरीके ईजाद करके एक दूसरे को मजबूती देते है। चोर चोर मौसेरे भाई की कहावत विद्यालयों के प्रबन्धकों पर पूरी तरह चरितार्थ होती है।
माध्यमिक शिक्षक संघ ने खुद को आन्दोलन में तब्दील करके शैक्षिक सामान्तशाही के विरूद्ध जबर्दस्त अभियान चलाया और अध्यापको को प्रबन्धको के शोषण से निजात दिलाई थी परन्तु अब उसके चाल चरित्र और चेहरे से आन्दोलन गायब हो गया है और अन्य राजनैतिक दलों की तरह उसकी सम्पूर्ण गतिविधियाँ विधान परिषद के चुनाव के इर्द गिर्द सिमट कर रह गई है और दूसरी ओर अध्यापकों का शोषण तेजी से बढ़ा है परन्तु सशक्त नेतृत्व के अभाव में अध्यापक उत्पीड़न झेलने के लिए अभिशप्त है। कन्नौज जनपद के कई अध्यापक मनमाने तरीके से निकाले जाने के बाद महीनों से जिला विद्यालय निरीक्षक कार्यालय और अपने विद्यालय के बीच चकरघन्नी की तरह घूम रहे है। जिला विद्यालय निरीक्षक का आदेश हाथ मे लिये है परन्तु प्रबन्धकों ने आदेश को रददी कागज मानकर उन्हें काम पर नही लिया और न वेतन दिया है। आज राजनैतिक और सामाजिक दृष्टि से प्रबन्धक पहले की तुलना मे ज्यादा ताकतवर हुआ है और अध्यापक की असहायता और अकेलापन दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
याद आता है कि टेªड यूनियन आन्दोलन को उद्योग विरोधी और माध्यमिक शिक्षक संघ को पढाई विरोधी बताना एक फैशन हो गया था और उसमें पत्रकार बन्धु सबसे आगे थे। लखनऊ में हिन्द मजदूर सभा के नेता उमाशंकर के नेतृत्व मे पत्रकार संघटित हुये। उनकी संघटित शक्ति के कारण मालिक दबाव में आयें। इस दौर मे किसी युक्तियुक्त कारण के बिना किसी को नौकरी से हटा पाना सम्भव नही रह गया था परन्तु इसी बीच एक अखबार समूह के उकसावे में अपने क्षणिक लाभ के लिए कुछ युवा पत्रकारों ने अपने ही संघटन को तहस नहस कर लिया। 1987 मे इण्डिन एक्सप्रेस की हडताल और उसके नेता नागराजन को अपने पत्रकार बन्धुओं ने ही तात्कालिक लाभ के लिए फ्लाप कराने में प्रबन्धकों का शर्मनाक सहयोग किया था। कानपुर में भी विष्णु त्रिपाठी और ओम प्रकाश त्रिपाठी के विरूद्ध एक पत्रकार ने श्रम न्यायालय के समक्ष गवाही दी थी। इस प्रकार की आत्मघाती घटनाओं की याद दिलाकर बताना चाहता हूँ कि मीडिया जगत मे ठेका प्रथा इसी का प्रतिफल है। सभी जानते है कि स्थायी प्रकृति का कोई भी काम ठेके पर नही कराया जा सकता। मीडिया कर्मी समाज मे सबसे ज्यादा सजग और बुद्धिजीवी माने जाते है। सत्ता प्रतिष्ठान को हिला देने की कुब्बत केवल उनके पास है परन्तु ‘‘एट एनी टाइम विदआउट एसाइनिंग एनी काज’’ नौकरी से हटाये जाने पर उसका प्रतिकार करने की कुब्बत उनके पास नही है। एक मीडिया प्रतिष्ठान ने बड़े पैमाने पर अपने कर्मचारियों की छटनी की है। श्रम कानूनों के तहत उपलब्ध कोई सामाजिक सुरक्षा ठेका पत्रकारों को उपलब्ध नही है। सत्तर के दशक में उस दौर के एक मुखर पत्रकार ने अपने मालिको से एक दिन वस्त्राभाव के कारण कार्य पर उपस्थित न हो पाने के लिए अवकाश माँगा था। व्यंग्य और आक्रोश में कही गई उनकी यह बात पत्रकारों की आर्थिक दशा का वास्तविक चित्रण करती है। सभी जानते है कि पत्रकारों की आर्थिक स्थिति में आज भी कोई बड़ा सुधार नही हुआ है परन्तु आगे बढ़कर अन्याय का प्रतिकार करने के लिए कोई तैयार नही है सभी अपने अपने कारणों से मालिकों के लिए हँसी खुशी लाइजनिंग करने को तैयार बैठे है। स्थितियाँ खराब है परन्तु निराश होने की जरूरत नही है। सभी श्रमजीवी लोगों को एक बात अच्छी तरह मन में बैठा लेनी चाहिये कि कोई भी पूँजीपति अपने कार्य के प्रति मेहनतकसो की निष्ठा, ईमानदारी और मेहनत के बल पर कमाई गई सम्पत्ति से मेहनतकसो का वाजिब हिस्सा हँसी खुशी देने के लिए तैयार नही है। मेहनतकसो को सब कुछ लड़कर मिला है, लड़कर मिलेगा, वे लड़ेंगे तभी कुछ पायेंगे इसलिए दिनकर के शब्दों में ‘‘आवो श्रमिक कृषक नागरिकों, इन्कलाब का नारा दो, शिक्षक गुरूजन बुद्धिजीवियों अनुभव भरा सहारा दो, फिर देंखे हम.........।’’
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