Saturday, 28 December 2013

टू फिंगर टेस्ट पीडि़ता की गरिमा के प्रतिकूल..................

केन्द्रीय सरकार ने बालात्कार पीडि़तों के चिकित्सकीय परीक्षण के लिए जारी अपने दिशा निर्देशों में टू फिंगर टेस्ट और उसके आधार पर पीडि़ता को सहवास का आदी बताये जाने की प्रथा को बन्द करने की सलाह दी है। दिशा निर्देशों के तहत अब परीक्षण रिपोर्ट मे बालात्कार शब्द का प्रयोग नही किया जायेगा। बालात्कार विधिक शब्द है और मेडिकल डायग्नोसिस से इसका कोई सम्बन्ध नही है। चिकित्सको को अपनी रिपोर्ट में पीडि़ता के प्रायवेट पार्टस की बाहरी और आन्तरिक चोटों, उनके रंग, आकार और आयु का स्पष्ट उल्लेख करके साक्ष्य आधारित ओपीनियन देनी चाहिये ताकि विचारण के समय न्यायालय को परीक्षण रिपोर्ट के आधार पर किसी निष्कर्ष तक पहुँचने मे सहायता प्राप्त हो सके। अपने देश में आज भी टू फिंगर प्रवेश को आधार मानकर पीडि़ता को सहवास का आदी बताने का दस्तूर जारी है जबकि विश्व स्वास्थ संघठन सहित सभी चिकित्सकीय संघठनों ने इसे अवैज्ञानिक एवं अमानवीय घोषित किया है।
सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकीय परीक्षण और विवेचना के दौरान पीडि़ता को नये सिरे से बालात्कार के अमानवीय अनुभव से गुजरना पड़ता है। इस दौरान पीडि़ता को मानसिक एवं भावनात्मक सहारे की जरूरत होती है। पुलिसकर्मी और अस्पताल के कर्मचारी अपने व्यवहार से जाने अनजाने पीडि़ता को शर्मिन्दगी का शिकार बनाते है। परीक्षण कक्ष के बाहर सभी तरह के मरीज बैठे होते है। किसका रेप हुआ है, की आवाज देकर उसे बुलाया जाता है इसे सुनते है वहाँ उपस्थित सभी की दृष्टि पीडि़ता पर पड़ती है और उस क्षण मन ही मन पीडि़ता अपने आपमें शर्मिन्दगी का शिकार बनती है। इसी बीच कक्ष में पहुँचते ही कई लोगों की उपस्थिति में मेज पर लेट जाओं, सलवार उतारो, पैर फैलाओं जैसी बातें कही जाती है और फिर डाक्टर की दो अँगुलिया का प्रवेश पीडि़ता के लिए अपमानजनक ही नही कष्टदायी भी होता है। परीक्षण के लिए यह सब किया जाना आवश्यक हो सकता है परन्तु इन मामलों में यान्त्रिक तरीके से की गई कार्यवाही नुकशान देह होती है। इसीलिए केन्द्रीय सरकार के नये दिशा निर्देशों में परीक्षण के पूर्व पीडि़ता और यदि वह 12 वर्ष से कम आयु की है तो उसके माता पिता की सहमति लेने का आदेशात्मक प्रावधान किया गया है। दिशा निर्देशों मे कहा गया है कि परीक्षण प्रारम्भ करने के पूर्व डाक्टर पीडि़ता को सहानभूति के स्वर में शालीनता से उसकी अपनी भाषा में परीक्षण की आवश्यकता और उसकी प्रक्रिया के बारे में जानकारी देंगे और यदि वह परीक्षण के लिए अपनी सहमति नही देती है तो उसे अपने आन्तरिक अंगों का परीक्षण कराने के लिए बाध्य नही किया जायेगा। परीक्षण महिला चिकित्सक द्वारा किया जायेगा और यदि वह उपलब्ध नही है तो पुरूष चिकित्सक के साथ परीक्षण के दौरान किसी महिला की उपस्थिति आवश्यक बना दी गई है।
पीडि़ता के आन्तरिक अंग का चिकित्सकीय परीक्षण अभियुक्त के विरूद्ध सुसंगत विश्वसनीय साक्ष्य संकलित करने के लिए किया जाता है। चिकित्सकीय परीक्षण की वर्तमान प्रक्रिया और उसकी शब्दावली शुरूआत से ही दोषपूर्ण है और उसके द्वारा पीडि़ता की मानवीय गरिमा और उसके आत्म सम्मान को ठेस पहुँचती है। वैज्ञानिक तथ्यों से सिद्ध हो चुका है कि हाईमेन का इनटैक्ट होना वर्जिनिटी का परिचायक नही है। ज्यादा भागदौड़, साइकिलिंग, स्वीमिंग जैसी शारीरिक गतिविधियों के कारण भी हाईमेन फट जाता है। इसलिए इसका फटना या इनटेक्ट होना दोनों स्थितियाँ पीडि़ता के प्रतिकूल नही होती। चिकित्सक प्रायः प्रायवेट पार्टस की आन्तरिक चोटो का उल्लेख नही करते इसलिए विचारण के समय उनके रंग, आकृति या आयु की जानकारी नही हो पाती। केवल दो अँगुलियों के प्रवेश और हाईमेन के फटने को आधार बनाकर पीडि़ता को सहवास का आदी बता दिया जाता है, जो पीडि़ता के साथ सरासर अन्याय है और इससे उसकी प्रायवेसी का हनन होता है। कक्षा 6 की एक छात्रा को परीक्षण में सहवास का आदी बताया गया जबकि घटना के दिन उसकी आयु केवल 13 वर्ष 9 माह थी। वास्तव में चिकित्सको को परीक्षण रिपोर्ट मे पीडि़ता को सहवास का आदी बताकर ‘‘बालात्कार के बारे में कोई स्पष्ट राय नही दी जा सकती’’ जैसी शब्दावली का प्रयोग करने की मनाही है। उन्हें केवल बाहरी और आन्तरिक चोटो का विवरण सुस्पष्टता से लिखना होता है। विवाहित महिलायें भी बालात्कार का शिकार होती है इसलिए बालात्कार के विचारण में सहवास का आदी होने या न होने की तुलना में प्रायवेट पार्टस की आन्तरिक चोटें ज्यादा विश्वसनीय महत्वपूर्ण सुसंगत साक्ष्य होती है।
स्टेट आफ उत्तर प्रदेश बनाम मुन्शी (ए.आइ.आर. 2009-एस.सी. पेज 370) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सहवास का पूर्व अनुभव किसी महिला की शिकायत के प्रभाव और उसकी विश्वसनीयता को कम नही करता। विचारण के समय न्यायालय के समक्ष उसके पूर्व सहवास का अनुभव प्रश्नगत नही होता। कथित घटना प्रश्नगत होती है। बालात्कार हुआ है या नही की पुष्टि के लिए साक्ष्य प्रस्तुत की जाती है। यदि किसी महिला को सहवास का पूर्व अनुभव है या उसने अपनी वर्जिनिटी खो दी है तो इसका यह अर्थ नही कि किसी व्यक्ति को उसकी सम्मति के बिना जबरन उसके साथ बालात्कार करने का लायसेन्स मिल जाता है। विचारण अभियुक्त का होता है पीडि़ता का नही। साक्ष्य अधिनियम की धारा 53 एवं 54 में भी प्रावधान है कि यदि पीडि़ता का चरित्र खुद में प्रश्नगत नही है तो विचारण के लिए उसका चरित्र सुसंगत तथ्य नही है। उस पर विचार नही किया जा सकता। किसी भी महिला को लैंगिक सहवास के लिए इन्कार करने का अधिकार प्राप्त है। उसकी अपनी साक्ष्य किसी इन्जर्ड साक्षी की तुलना में ज्यादा विश्वसनीय है। परीक्षण करते समय चिकित्सको को समझना चाहिये कि इन्जर्ड साक्षी को केवल शरीर पर चोटे आती है और समय के साथ उसके घाव भर जाते है परन्तु बालात्कार में पीडि़ता को शारीरिक चोटो के अलावा भावनात्मक एवं मानसिक स्तर पर भी चोटे आती है। एक निर्दोष अवयस्क लड़की के मामले मे तो इसका अवसाद ताजिन्दगी उसे सालता रहता है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के फैसलो को दृष्टिगत रखकर परीक्षण प्रक्रिया को ज्यादा मानवीय बनाये जाने की आवश्यकता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने लिल्लू उर्फ राजेश एण्ड एनादर बनाम स्टेट आफ हरियाणा (2013-3-जे.आई.सी. पेज 534-एस.सी.) में पारित अपने निर्णय के द्वारा दो अँगुलियो के प्रवेश आधारित चिकित्सकीय परीक्षण को अवैज्ञानिक अमानवीय और पीडि़ता की मानवीय गरिमा के प्रतिकूल बताया है। इससे उसकी प्रायवेसी का हनन होता है। सुस्थापित विधि है कि सहवास का आदी होने से पीडि़ता की सहमति की उपधारणा नही बनाई जा सकती है। इसलिए तत्काल प्रभाव से परीक्षण रिपोर्ट में बालात्कार सहवास का आदी दो अँगुलियों के प्रवेश जैसे शब्द लिखना बन्द कर दिया जाये और यदि कोई चिकित्सक उसका उल्लंघन करे तो उसके विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित करायी जाये।

Saturday, 21 December 2013

धारा 321 के दुरूपयोग मे सपा सरकार को महारथ हासिल.............

उत्तर प्रदेश में विशुद्ध वोट बैंक की राजनीति को ध्यान में रखकर सपा नेता श्री मुलायम सिंह यादव ने अपने मुख्य मन्त्रित्व काल में दस्यु सरगना फूलन देवी के विरूद्ध एक ही जाति के बीस व्यक्तियों की सामूहिक हत्या के मुकदमें सहित 55 लम्बित मुकदमों को वापस लेने का फरमान जारी करके दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के दुरूपयोग की शुरूआत की थी। उनके पुत्र अखिलेश यादव ने अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुये केन्द्र सरकार की पूर्व अनुमति लिए बिना प्रदेश के विभिन्न न्यायालयों में आतंकी वारदातों में शामिल 15 आरोपियो के मुकदमें वापस लेने का आदेश परित किया है जबकि दण्ड प्रक्रिया संहिता में केन्द्र सरकार से सम्बन्धित अपराधों में उसकी सम्मति प्राप्त किये बिना अभियोजन वापस लेने की मनाही है।
अखिलेश सरकार ने आतंकी वारदातों मे शामिल शरीफ उर्फ सरफराज थाना दशाश्वमेघ वाराणसी, मोहम्मद तारिक काजमी थाना कैन्ट गोरखपुर, इम्त्यिाज अली थाना सचेण्डी सितारा बेगम थाना बिठूर अरशद थाना स्वरूप नगर कानपुर नगर, मकसूद ताज मोहम्मद एवं जावेद उर्फ गुड्डू थाना रामपुरगंज, खालिद मुजाहिद बाराबंकी, मो. याकूब नाका, मोहम्मद कलीम एवं अबुल मोबीन थाना कैसरबाग, मुख्तार हुसैन, मोहम्मद अली, अकबर, अजीमुर्रहमान, नौशाद हाफिज, नूरूल इस्लाम थाना वजीरगंज जनपद लखनऊ, महमूद हसन उर्फ बाबू थाना नजीराबाद बिजनौर को उनके विरूद्ध अधिरोपित आरोपो में विधिपूर्ण दण्ड से बचाने के लिए न्यायालय के समक्ष लम्बित मुकदमों को वापस लेने का आदेश पारित किया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनके आदेश को निरस्त कर दिया है।
फूलन देवी के मामले में कानपुर देहात के तत्कालीन प्रथम अपर जनपद एवं सत्र न्यायाधीश ने अभियोजन वापसी के प्रार्थनापत्र को रद्द करके राज्य सरकार के मन्सूबों पर पानी फेर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने भी विचारण न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। लेकिन राज्य सरकारे अभियोजन वापसी पर सर्वोच्च न्यायालय या विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा प्रतिपारित विधि का अनुपालन करने के लिए तैयार नही है और सदा मनमानी करती है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 मे कहा गया है कि ‘‘किसी मामले का भारसाधक कोई लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक (अदालत का सरकारी वकील) निर्णय सुनाये जाने के पूर्व किसी समय किसी व्यक्ति के अभियोजन को या तो साधारणतः या उन अपराधो में से किसी एक या अधिक के बारे में जिनके लिए उस व्यक्ति का विचारण किया जा रहा है, न्यायालय की सम्मति से वापस ले सकता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने दण्ड प्रक्रिया संहिता में राज्य स्तरीय संशोधन करके अधिनियम संख्या 18 सन् 1991 के द्वारा धारा 321 में किसी मामले को भार साधक’’ शब्दो के बाद राज्य सरकार के इस प्रभाव की ‘‘लिखित अनुमति पर जिसे न्यायालय में दाखिल किया जायेगा’’ शब्द अन्तः स्थापित किये है।
धारा 321 की शब्दावली से स्पष्ट है कि राज्य सरकार को आपराधिक मुकदमे वापस लेने के लिए असीमित शक्तियाँ प्राप्त नही है। अभियोजन वापसी के लिए सम्बन्धित न्यायालय की सम्मति आवश्यक है। सम्मति की प्रकृति आदेशात्मक है। केवल औपचारिकता नही है। तर्कपूर्ण ठोस आधारों के बिना प्रार्थनापत्र प्रस्तुत नही किये जा सकते। यह सच है कि राज्य सरकार प्रधान लोक अभियोजक है और इस नाते उसे किसी के विरूद्ध अभियोजन चलाने या न चलाने का अधिकार प्राप्त है परन्तु इसका यह अर्थ नही है कि बिना एकदम मनमाने तरीके से मुकदमा वापसी का अधिकार प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय ने घनश्याम बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश एण्ड अदर्स (2006-3-जे.आई.सी.-पेज 573-एस.सी.) में प्रतिपादित किया है कि लोक अभियोजक न्यायहित में मुकदमा वापस ले सकता है। अधिनियम में न्यायहित को परिभाषित नही किया गया है और उसका अनुचित लाभ उठाकर राज्य सरकार अपने समर्थको को उपकृत करने के लिए किसी युक्तियुक्त आधार के बिना मुकदमें वापस लेती है और उनके इस आचरण से आपराधिक न्याय प्रशासन के प्रति आम लोगों को विश्वास घटता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट आफ बिहार बनाम राम नरेश पाण्डेय एण्ड अदर्स (1957-सुप्रीम कोर्ट- पेज 389) में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 494 (वर्तमान में धारा 321) की व्याख्या करते हुये प्रतिपादित किया था कि यह धारा लोक अभियोजक को अभियोजन वापसी के लिए न्यायालय की सम्मति प्राप्त करने का अधिकार देती है। इस धारा में मुकदमा वापसी के लिए किन्ही आधारों का उल्लेख नही है लेकिन कहा गया है कि सम्मति देने या न देने का निर्णय न्यायिक कार्यवाही है। इसलिए इस आशय के प्रार्थनापत्रों के निस्तारण के समय प्रार्थनापत्र में वर्णित आधारों की सद्भावना के गुणदोष पर विचार किया जायेगा और देखा जायेगा कि राज्य सरकार या लोक अभियोजक ने किसी व्यक्ति विशेष को अनुचित लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से तो प्रार्थनापत्र प्रस्तुत नही किया है। अर्थात राज्य सरकार के आशय और उद्देश्य की न्यायिक समीक्षा की जायेगी।
स्टेट आफ उड़ीसा बनाम चन्द्रिका महापात्र एण्ड अदर्स (ए.आई.आर. 1977-पेज 903-एस.सी.) में न्यायमूर्ति श्री पी.एन. भगवती ने प्रतिपादित किया था कि इस प्रकार के मामलों में आपराधिक न्याय प्रशासन का हित सर्वोच्च होता है। इसलिए कोई हार्ड एण्ड फास्ट नियम नही बनाये जा सकते और न निर्धारित किया जा सकता है कि किस प्रकृति के मुकदमें वापस लिये जा सकते है या किस प्रकृति के मुकदमों को वापस लने की सम्मति न्यायालय द्वारा नही दी जा सकती है। प्रत्येक मामले की परिस्थितियाँ अलग अलग होती है। न्यायहित में आपराधिक न्याय प्रशासन की बेहतरी को ध्यान में रखकर सम्मति देने या न देने का निर्णय लिया जाना चाहिये। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जनपद बिजनौर में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 147, 148, 149, 307, 332, 353, 188, 504 एवं जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 130 (2) के तहत पंजीकृत मुकदमें को सम्पूर्ण अभियोजन साक्ष्य समाप्त हो जाने के बाद निर्णय के प्रकृम पर वापस लेने के लिए पारित आदेश की समीक्षा करते हुये प्रतिपादित किया है कि जनहित का आशय आम जनता के व्यापक हितों से है और उसमें शासकीय कर्मचारियों द्वारा अपने पदीय कर्तव्यों के अनुशरण मे की गयी विधिपूर्ण कार्यवाही भी शामिल है। पुलिस कर्मियो पर हमला करके उनके कर्तव्यों मे अवरोध पैदा करने के आरोपो के अभियुक्तों को विधिपूर्ण दण्ड से बचाने के लिए किसी भी प्रयास से सम्पूर्ण व्यवस्था हतोत्साहित होती है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती नूरजहाँ बनाम स्टेट आफ यू.पी. एण्ड अदर्स (2013-2-जे.आई.सी.-पेज 47) में प्रतिपादित किया है कि इस प्रकार के मुकदमें धारा 321 की परिधि में नही आते। इस निर्णय से स्पष्ट है कि हत्या और डकैती जैसे जघन्य अपराधों के मुकदमे धारा 321 के तहत वापस नही लिये जा सकते है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 और इस पर सर्वोच्च न्यायालय एवं विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों से सुस्पष्ट है कि इस मामले में सम्बन्धित अदालत के लोक अभियोजक (सरकारी वकील) की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। विधि उससे अपने स्तर पर निष्पक्षता एवं पारदर्शी तरीके से निर्णय लेने की अपेक्षा करती है। कई निर्णयों में कहा गया है कि उसे राज्य सरकार के रबर स्टैम्प की तरह काम नही करना चाहिये। कोई भी अधिवक्ता पत्रावली में उपलब्ध तथ्यों एवं साक्ष्यों के प्रतिकूल केवल और केवल निर्देशों पर कार्य नही करना चाहता परन्तु उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सरकारी वकीलो से न्यायसंगत आदर्श आचरण की अपेक्षा करना उनके साथ अन्याय है। हत्या, डकैती जैसे जघन्य अपराधों के विचारण के संचालन के लिए सरकारी वकीलों की नियुक्ति सत्तारूढ़ दल के नेताओं की निजी पसन्द नापसन्द के आधार पर की जाती है और किसी भी समय बिना कोई कारण बताये उन्हें हटाया जा सकता है ऐसी दशा में मुकदमा वापसी के निर्देशो के गुणदोष पर स्वतन्त्रापूर्वक विचार करने और तर्कपूर्ण आधार होने की दशा में ही न्यायालय की सम्मति लेने हेतु प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करने की बात करके वे सत्तारूढ़ दल के नेता को नाराज करने का जोखिम नही ले सकते।
वास्तव मे हत्या, डकैती जैसे जघन्य अपराधों में मुकदमा वापसी के निर्देशों को राज्य सरकार के विधि परामर्शी विभाग की असफलता के रूप में देखा जाना चाहिये। इस विभाग मे उच्च न्यायालय के अधीन सेवारत न्यायिक अधिकारी तैनात किये जाते है और मुकदमा वापसी के निर्देशों में उनकी निर्णायक भूमिका होती है। वे सरकार के अधीन नही होते और मुख्यमन्त्री या अन्य किसी मन्त्री के निर्देश पर विधि के प्रतिकूल जारी निर्देशों का पालन उनकी बाध्यता नही है। वे स्पष्ट रूप से मना कर सकते है परन्तु न मालूम क्यो वे अपनी न्यायिक भूमिका को भुलाकर राज्य सरकारो के अनुचित आदेशो को कानूनी जामा पहनाते है। समय आ गया है कि सर्वोच्च न्यायालय खुद पहल करे और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के आशय और उद्देश्य की स्पष्ट व्याख्या करके मुकदमा वापसी के आधारो के निर्धारण मार्ग प्रशस्त करे।

Sunday, 8 December 2013

आर्थिक बेबसी में आत्महत्या समाज की असंवेदनशीलता का परिचायक ...............


कानपुर में पिछले दिनों वैवाहिक विवाद में पत्नी द्वारा आत्महत्या करने के बाद, आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करने के आरोप में जेल जाने के भय से धनकुट्टी निवासी मनोज गुप्ता ने आत्महत्या कर ली। उसके ससुराल वाले मामले को रफा दफा करने के लिए उससे तीन लाख रूपये की माँग कर रहे थे और धमकी दी थी कि रूपये न दिये तो उसे, उसके माँ बाप को जेल जाने से कोई बचा नही सकेगा। मनोज रूपयों की व्यवस्था नही कर सका और जेल जाने से न बच पाने की बेबसी में फाँसी पर झूल गया। एक ओर पत्नी की आत्महत्या का गम और दूसरी ओर अपने माता पिता और खुद को जेल जाने से बचाने के लिए रूपयों का इन्तजाम न कर पाने की बेबसी के दोहरे दबाव में मनोज ने आत्महत्या की है। वैवाहिक उत्पीड़न दहेज हत्या और पत्नी को आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करने के मामलों में प्रायः सच कुछ और ही होता है। रिपोर्ट दर्ज हो जाने के बाद सभी नामजद परिजन जेल जाते है, सुनवाई में देरी होती है। ऐसे में अदालत का फैसला कुछ भी हो परन्तु आरोपी सामाजिक रूप से तो दण्डित हो ही जाता है।
मनोज जैसे संवेदनशील लोगों की बेवसी सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में है। प्रीति गुप्ता बनाम स्टेट आफ झारखण्ड (ए.आई.आर.-2010-सुप्रीम कोर्ट-पेज 3363) में न्यायालय ने माना था कि भारतीय दण्उ संहिता की धारा 498 ए के मामलों में प्रायः परिवादी बेबुनियाद कथनों का सहारा लेकर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करा देता है। कई बार विवाहित बहनों और नाबालिग देबरों की भी मुल्जिम बना दिया जाता है जबकि दहेज लेने देने में उनकी अपनी कोई भूमिका नही होती।
दहेज की झूठी शिकायतों के कारण परिवार के टूटते ताने बाने पर न्यायालय ने चिन्ता जताई थी और अधिवक्ताओं से अनुरोध किया था कि वे अपने स्तर पर इस प्रकार की प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करें और इसे मानवीय समस्या मानकर आपसी समझदारी विकसित करने का माहौल पैदा करें और प्रयास करे कि एक शिकायत कई अन्य शिकायतों का कारण न बनने पाये। थाना जाटोपुरा जनपद एटा में पारिवारिक झगड़े के बीच लड़की के मर जाने पर उसके माता पिता ने अपने दामाद के विरूद्ध दहेज हत्या का मुदकमा पंजीकृत करा दिया। इस मामले (अजय कुमार बनाम स्टेट आफ यू.पी.-2012-1-जे.आई.सी. पेज 464-इलाहाबाद) की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने पाया कि प्रेम विवाह होने के कारण अभियुक्त और मृतका के पिता के मध्य सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध नही थे। हेबियस कारपस पिटीशन दाखिल होने के बाद उच्च न्यायालय के आदेश से लड़की अपने पिता की अभिरक्षा से लड़के को सौपी गयी थी। दहेज का कोई विवाद उनके मध्य नही था। दहेज की अधिकांश शिकायतों में इसी प्रकार फर्जी कथानक बनाकर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करायी जाती है। 
शुशील कुमार शर्मा बनाम यूनियन आफ इण्डिया (2005-3-जे.आई.सी. पेज 263 एस.सी.) में कहा गया है कि भारतीय दण्ड संहिता में धारा 498 ए का प्रावधान दहेज की समस्या से निजात पाने के उद्देश्य से किया गया था, परन्तु अब देखा जा रहा है कि इस प्रावधान का बड़े पैमाने पर दुरूपयोग किया जाने लगा है। विधि किसी भी दशा मे अपने दुरूपयोग की अनुमति नही देती और यदि इसे रोका नही गया तो यह खुद में एक नये प्रकार की सामाजिक समस्या का कारण बनेगा, जो पूरी सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था के लिए घातक है। इस प्रावधान के दुरूपयोग को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने राम गोपाल बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 498 ए को कम्पाउण्डेबल एवं जमानती बनाने का सुझाव केन्द्र सरकार और विधि आयोग को दिया है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी राजीव वर्मा बनाम स्टेट आफ यू.पी.- 2004-2-जे.आई.सी.- पेज 581 में इसी आशय का सुझाव दिया है। सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने वैवाहिक विवादों में गिरफ्तारी को अनावश्यक घोषित किया है और प्रत्येक स्तर पर उभयपक्षों के मध्य आपसी बातचीत के द्वारा विवादों को सुलझाने पर जोर दिया है।
राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने भी गिरफ्तारी की शक्तियों को पुलिसिया भ्रष्टाचार का स्त्रोत माना है। अपनी रिपोर्ट में आयोग ने कहा था कि किसी भी आरोप में गिरफ्तारी के लिए विधिपूर्ण आधारो को नही बल्कि न्यायपूर्ण आधारों को प्रमुखता दी जानी चाहिये। ला कमीशन ने भी अपनी रिपार्ट में सुझाव दिया है कि जमानती अपराधों और परिवादों के मामले में अभियुक्त को उपस्थित होने के लिए डाक के माध्यम से एपीरियेन्स नोटिस भेजी जानी चाहिये ताकि स्थानीय पुलिसकर्मी न्यायालय के सम्मन को वारण्ट बताकर लोगों को उत्पीडि़त न कर सके। पुलिस के माध्यम से सम्मन भेजने की प्रथा आम लोगों के उत्पीड़न का कारण है। शीला बरसे बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र (ए.आई.आर.-1983-एस.सी. पेज 378) में प्रतिपादित किया गया था कि वारण्ट के बिना गिरफ्तारी दी दशा में गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारण से तत्काल अवगत कराना और स्थानीय लीगल ऐड कमेटी को इस गिरफ्तारी की सूचना देना आवश्यक है। इन निर्देशों के द्वारा सम्बन्धित न्यायिक मजिस्टेªट को भी आदेशित किया गया था कि वे अपने समक्ष प्रस्तुत किये जाने के समय गिरफ्तार व्यक्ति से अभिरक्षा के दौरान पुलिस के व्यवहार के बारे में जानकारी प्राप्त करें और अभियुक्त को उसके अधिकारों की जानकारी दें। प्रायः अधिकारों की जानकारी न होने और न्यायिक मजिस्टेªट द्वारा खुद कोई जानकारी न करने के कारण गिरफ्तार व्यक्ति अपने साथ हुये उत्पीड़न के लिए दोषियों के विरूद्ध शिकायत नही कर पाता।
केन्द्र सरकार ने दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करके प्रथम सूचना रिपोर्ट में नामजद होने के बावजूद हत्या, डकैती, बालात्कार जैसे जघन्य अपराधों को छोड़कर सात वर्ष तक की सजा वाले मामलों में गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होने के बाद पुलिस पहले नामजद व्यक्तियों को गिरफ्तार करती थी और उसके बाद साक्ष्य संकलन की कार्यवाही शुरू होती थी। दण्ड प्रक्रिया संहिता मे धारा 41 (1) (बी) जोड़कर केन्द्र सरकार ने व्यवस्था कर दी है कि अब केवल नामजद होने के कारण किसी को गिरफ्तार नही किया जायेगा बल्कि संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्त होने पर पुलिस सबसे पहले आरोपी को नोटिस भेजकर नियत तिथि व समय पर उपस्थित होने के लिए कहेगी और आरोपी का पक्ष सुनने के बाद उसके विरूद्ध सुसंगत विश्वसनीय साक्ष्य होने की दशा में ही उसे गिरफ्तार करेगी। अर्थात केवल नामजद होने के कारण किसी को भी उसका पक्ष सुने बिना गिरफ्तार नही किया जा सकता है। गिरफ्तारी के कारणों को केस डायरी में लेखबद्ध करना आवश्यक बना दिया गया है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने क्रिमिनल मिसलेनियस रिट पिटीशन संख्या 15102 सन् 2013 अमीर हुसैन एण्ड 6 अदर्स बनाम स्टेट आफ यू.पी. 2 अदर्स में स्पष्ट किया है कि यदि विवेचक किसी को गिरफ्तार करके रिमान्ड के लिए न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करता है और न्यायालय को प्रतीत होता है कि गिरफ्तारी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 (1) (बी) या 41 ए में निर्धारित प्रक्रिया के प्रतिकूल की गई है तो मजिस्टेªट अभियुक्त को प्रतिभू संहित या प्रतिभू रहित बन्धपत्र लेकर रिहा करेंगे। रूटीन मैनर में गिरफ्तारी अब प्रतिबन्धित हो गई है। सभी पुलिस अधिकारियों को विधि की इस मंशा से अवगत करा दिया गया है। इस सबके बावजूद आम लोगों में अपनी गिरफ्तारी की आशंका कम नही हुई है। लोगों का मानना है कि विधि कुछ भी कहती हो परन्तु पुलिस जब जहाँ जिसे चाहे गिरफ्तार करके जेल भेज सकती है इसलिए कोई पुलिस पर विश्वास नही करता।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने संजीव कुमार एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ यू.पी. एण्ड अदर्स (2011-2-जे.आई.सी. पेज 481) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को आधार बनाकर अधीनस्थ न्यायालयों को निर्देशित किया है कि वैवाहिक विवादों में जमानत प्रार्थनापत्रों के निस्तारण के पूर्व पक्षकारों को अपने विवाद आपसी सुलह समझौते से सुलझाने के लिए प्रोत्साहित करें। सुलह समझौते के प्रयास असफल हो जाने के बाद ही जमानत प्रार्थनापत्रों का गुणदोष के आधार पर निस्तारण किया जायें। सर्वोच्च न्यायालय ने लाल कमलेन्द्र प्रताप सिंह बनाम स्टेट आफ यू.पी. (2009-1-जे0आई0सी0 पेज 677-एस.सी.) और इलाहाबाद हाई कोर्ट की पूर्ण पीठ ने अमरावती एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ यू0पी0 (2004-2-जे.आई.सी. पेज 630) के द्वारा नामजद अभियुक्तों को व्यक्तिगत बन्धपत्र लेकर अन्तरिम जमानत पर रिहा करने का आदेश पारित किया है। उच्च न्यायालय के समक्ष आवेदन किये बिना इन मामलों में प्रतिपादित सिद्धान्तों का लाभ आम लोगों को नही मिल पाता। वैवाहिक विवादों में आम लोगों को न्यायपूर्ण राहत प्रदान करने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों को आगे आना होगा और खुद पहल करके लाल कमलेन्द्र प्रताप सिंह एवं अमरावती के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों की भावना और स्पिरिट के अनुरूप लोगों को अन्तरिम जमानत पर रिहा करने का माहौल बनाना होगा और तभी जेल जाने के भय से मनोज गुप्ता जैसे संवेदनशील लोग बेबसी में आत्महत्या के लिए मजबूर नही होंगे।

Sunday, 1 December 2013

पक्षपातपूर्ण विवेचना सम्पूर्ण व्यवस्था के लिए घातक..............

आरूषि हत्याकाण्ड का फैसला आने के बाद उसकी विवेचना को लेकर सी.बी. आई. और उत्तर प्रदेश पुलिस के बीच हुई तू तू मैं मैं से एक बार फिर गम्भीर अपराधों में भी जाँच एजेन्सियों के मध्य तालमेल न होने और विवेचना की गुणवत्ता को सुधारने के लिए कोई एकीकृत प्रयास न किये जाने का सच सामने आया है। विवेचना आपराधिक न्याय प्रशासन की आत्मा है। विचारण का पूरा ताना बाना इसी पर निर्भर है और इसीलिए दण्ड प्रक्रिया संहिता में विवेचक को असीमित शक्तियाँ दी गई है। उसके काम में हस्तक्षेप करने की अनुमति सर्वोच्च न्यायालय ने खुद को भी नही दी है। परन्तु इन असीमित शक्तियों के दुरूपयोग ने आपराधिक जाँच एजेन्सियों के प्रति आम लोगों के विश्वास को कम किया है।
सी.बी.आई. के पूर्व निदेशक श्री जोगिन्दर सिंह ने उत्तर प्रदेश पुलिस पर आरूषि काण्ड मे अपना काम एकदम सही तरीके से न करने का गम्भीर दोषारोपण किया है। सी.बी.आई की तरफ से कहा गया है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने कई स्तरों पर लापरवाही का परिचय दिया जिसके कारण सी.बी.आई. को अपनी जाँच पड़ताल करने में विलम्ब हुआ। सच भी है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने आरूषि की हत्या की सूचना पाने के तत्काल बाद घटना स्थल का वैज्ञानिक तरीकों से निरीक्षण नही किया। आसपास की तलाशी नही ली और उसके कारण हेमराज की लाश छत पर पड़ी होने की जानकारी बाद में सामने आई। विवेचक ने घटना स्थल से फिंगर प्रिन्ट जैसी सुसंगत साक्ष्य को संकलित न करके अकुशलता का परिचय दिया और तमाम महत्वपूर्ण सबूतो को या तो एकत्र नही किया या उन्हें नष्ट हो जाने के अवसर उपलब्ध करायें।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भैरो बनाम स्टेट आफ यू.पी. (2012-2-जे.आई.सी.पेज 107-इलाहाबाद) में पारित अपने एक निर्णय में स्थानीय पुलिस द्वारा विवेचना के दौरान वैज्ञानिक तरीकों से साक्ष्य संकलित न करने की कमी पर नाराजगी जताई थी। निर्णय में कहा गया है कि 21वीं सदी में होने के बावजूद पुलिस अपराध की विवेचना आज भी सदियों पुराने तरीके से करती है। सम्पूर्ण विश्व में विवेचना के तरीके बदले है, वैज्ञानिक साधनों से परिस्थितिजन्य साक्ष्य एकत्र करने का प्रचलन बढ़ा है, परन्तु अपने यहाँ विवेचना की गुणवत्ता को बढ़ाने का कोई प्रयास नही किया जा रहा है। उच्च न्यायालय ने जनपद स्तर पर फारेन्सिक साइन्स लेबोरेटरी की आवश्यकता बताई थी। जनपद स्तरों पर यदि डी.एन.ए. डेवलपमेन्ट सुविधायें उपलब्ध हो और घटना के तत्काल बाद मौके से सैम्पल एकत्र करके उनका परीक्षण किया जाये तो दोषियों को चिन्हित करना आसान हो सकता है। बालात्कार और हत्या के एक मामले में स्थानीय पुलिस ने वैजिनल स्मियर स्लाइड और स्वाब को डी.एन.ए. परीक्षण के लिए नही भेजा। विचारण न्यायालय के आदेश से तीन वर्ष बाद उसका परीक्षण कराया गया। तब तक उसका प्रभाव खत्म हो चुका था और इस लम्बी अवधि के बाद परीक्षण कराये जाने के कारण विधि विज्ञान प्रयोगशाला के वैज्ञानिक कोई स्पष्ट ओपिनियन नही बना सके।
दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत किसी भी अपराध का विचारण स्थानीय पुलिस द्वारा विवेचना के दौरान केस डायरी में साक्षियों के अंकित बयान के आधार पर किया जाता है। विवेचना के दौरान विवेचचक को साक्ष्य संकलन के लिए पूरी स्वतन्त्रता दी गई है। आपराधिक विधि में इस प्रकार की स्वतन्त्रता दिये जाने का उद्देश्य कुछ भी रहा हो, अब उसका दुरूपयोग होने लगा है। निष्पक्षता एवं पारदर्शिता का महत्वपूर्ण तत्व गायब हो गया है। यह तथ्य सर्वोच्च न्यायालय के भी संज्ञान में है। करण सिंह बनाम स्टेट आफ हरियाण एण्ड अदर्स (2013-3-जे.आई.सी.-पेज 177-सुप्रीम कोर्ट) में पुन प्रतिपादित किया है कि आपराधिक मामलों की विवेचना को किसी भी मूल्य पर दुर्भावना और पक्षपात से बचाना होगा। विवेचना के दौरान अभियुक्त या परिवादी किसी को भी प्रताडि़त नही किया जाना चाहियें ताकि किसी के भी मन में विवेचना की निष्पक्षता को लेकर शक की गुन्जाइस न रहे। अभियोजन कथानक को सही साबित करने के लिए साक्ष्य संकलित करना या कथित अभियुक्त को किसी भी तरह दण्डित कराना विवेचना का उद्देश्य नही है। विवेचना कथित अपराध के वास्तविक कारणों का पता लगाने, दोषियों को खोजने और सत्य की तह तक पहुँचने के लिए कराई जाती है। विवेचक आम नागरिको की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की गारण्टी का संरक्षक होता है और विधि उससे किसी भी निर्दोष को फर्जी अधिभयोजन के कारण प्रताडि़त होने से बचाने की अपेक्षा करती है। विवेचक की पदीय प्रतिबद्धता है कि वह किसी के भी साथ अन्याय न होने दे।
पक्षपात पूर्व विवेचना न्याय का गला घोट देती है और उसके कारण आम लोगों को अनुच्छेद 19, 20 एवं 21 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकारों का हनन होता है। बाबू भाई बनाम स्टेट आफ गुजरात एण्ड अदर्स (2012-12-एस.सी.सी.-पेज- 254) मे सर्वोच्च न्यायालय ने विवेचना को सभी प्रकार के दबावों से मुक्त रखने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है परन्तु अनुभव बताते है कि थानों के स्तर पर इन सिद्धान्तों का प्रभाव सुभाषित से ज्यादा नही होता। राम विहारी यादव बनाम स्टेट आफ बिहार एण्ड अदर्स (ए.आई.आर-1998-एस.सी.-पेज-1850) और अमर सिंह बनाम बलबिन्दर सिंह एण्ड अदर्स (ए.आई.आर.-2003-एस.सी.-पेज-1164) में कहा है कि पूर्वाग्रहों और पक्षपातपूर्ण तरीके से की गई विवेचना केवल जाँच एजेन्सियों के प्रति ही नही बल्कि सम्पूर्ण आपराधिक न्यायप्रशासन के प्रति आम लोगों का विश्वास कम करती है।
कानून व्यवस्था से जुड़े पुलिस अधिकारियों का अधिकांश समय विभागीय बैठकों, मन्त्रियों के स्वागत सत्कार और दुपहिया वाहनों के कागजों की चेकिंग में बीत जाता है। उन्हें गुणवत्तापूर्ण विवेचना करने का समय नही मिलता। इन परिस्थितियों मे उनसे विवेचना की गुणवत्ता सुधारने के लिए खुद की पहल पर कुशलता बढ़ाने के प्रयास की अपेक्षा करना न्यायसंगत नही है। इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त श्री प्रकाश सिंह की याचिका पर सभी राज्य सरकारों से कानून व्यवस्था और विवेचना का अलग अलग कैडर बनाने का निर्देश काफी पहले दिया था परन्तु राज्य सरकारों ने इस दिशा में कोई सार्थक पहल नही की है और न वर्तमान व्यवस्था में अपने स्तर पर विवेचना की गुणवत्ता बढ़ाने का कोई प्रयास किया है।
अदालतों द्वारा विवेचना के लिए आयोग्य ठहराये गये पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध राज्य सरकारे कोई कार्यवाही नही करती। जनपद न्यायाधीश कानपुर नगर श्री शैलेन्द्र सक्सेना अपने कार्यकाल के दौरान हत्या के एक मामले मे एक ही परिवार के कई लोगों को मृत्यु दण्ड से दण्डित करते हुये मामले के विवेचक से भविष्य में कभी विवेचना न कराये जाने का निर्णय पारित किया था। इसी प्रकार के एक मामले में तत्कालीन थानाध्यक्ष नजीराबाद को अपर जनपद न्यायाधीश श्री ओ.पी. त्रिपाठी ने फर्जी घटना बनाने और घटना के फर्जी होने की जानकारी के बावजूद अभियोजन के लिए चार्जशीट भेजने का दोषी पाये जाने के बाद उनके विरूद्ध मुकदमा पंजीकृत करने का आदेश पारित किया था परन्तु इन दोनों मामलों में दोषी विवेचको के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की गई है जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने दयाल सिंह एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ उत्तराखण्ड (2012-8-एस.सी.सी.-पेज-263) में स्पष्ट रूप से कहा है कि आपराधिक मामलों की विवेचना में पक्षपात या भ्रष्टाचार की जानकारी होने पर विवेचक के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित कराना राज्य का दायित्व है। इस प्रकार के आचरण वाले विवेचकों के विरूद्ध उनकी सेवा निवृत्ति के बाद भी कार्यवाही की जानी चाहियें।
किसी भी मामले में फर्जी गवाह खोजना और फिर उसी आधार पर अपराध के खुलासे की वाह वाही लूटना स्थानीय पुलिस अधिकारियों का प्रिय शगल है और इसी कारण विचारण के समय साक्षियों की पक्षद्रोहिता बढ़ी है। प्रेमचन्द्र बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए.आई.आर.-1981-पेज 613) की सुनवाई के समय एक व्यक्ति द्वारा बतौर अभियोजन साक्षी तीन हजार मामलों में गवाही देने का तथ्य प्रकाश में आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रकार के पेशेवर साक्षियों को पूरी न्यायिक व्यवस्था के लिए प्रदूषण बताया था। इस सबको देखकर लगता है कि आम लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा और देश में सुशासन बनाये रखने के लिए कानून व्यवस्था को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में शामिल करना आवश्यक हो गया है।