Sunday, 30 March 2014

राजनेता कारपोरेट गठजोड श्रमिक हितों के प्रतिकूल ............

पिछले चार दशकों में कारपोरेट घरानों के साथ राजनेताओं की निकटता ने श्रमिक हितों के साथ समझौते को बढ़ावा देकर श्रमिकों को शोषण एवं अन्याय झेलने के लिए विवश किया है। उद्योगों को संरक्षण और पूँजी निवेश के नाम पर पूँजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने और श्रमिको के अधिकारों मे कटौती की निर्लज्ज छूट दी गई है। आज सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में भी नौकरी की गारण्टी नही रह गई है। किसी रिक्त पर पर एक वर्ष में लगातर दो सौ चालिस दिन कार्य कर लेने पर स्थायी करने की सर्वस्वीकृत विधि निष्प्रभावी मान ली गई है। केन्द्र सरकार सहित सभी राज्य सरकारें अब स्थायी प्रकृति के रिक्त पदों पर भी संविदा और तदर्थ आधार पर नियुक्तियों को वरीयता देती है और पन्द्रह बीस वर्ष तक लगातार एक ही पद पर एक ही प्रकृति का कार्य करने वाले कर्मचारियों को न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना स्थायी नही करती और उन्हें उनके कार्य की प्रकृति के अनुसार विधिवत् देय वेतन से भी वंचित रखती है जबकि संविधान के तहत राज्य का दायित्व है कि वह उपयुक्त विधि या किसी अन्य रीति से कृषि उद्योग या अन्य प्रकार के सभी श्रमिकों को काम निर्वाह मजदूरी शिष्ट जीवन स्तर और अवकाश का सम्पूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाएं तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवसर उपलब्ध कराये। राज्य का यह भी दायित्व है कि वे विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुये लोगों केे समूहों के मध्य प्रतिष्ठा सुविधाओं अवसरों एवं आय की असमानता समाप्त करने का प्रयास करें।
केन्द्र सरकार ने अपने इस दायित्व की पूर्ति के लिए भविष्य निधि और ई.एस.आई. जैसी सामाजिक सुरक्षा की योजना लागू की और रोजगार की गारण्टी सुनिश्चित कराने के लिए एक छोटे कदम के रूप में कान्टेªक्ट लेबर (रेगुलेशन एण्ड एबांलीशन) एक्ट 1970 पारित करके स्थायी प्रकृति के कार्यो को संविदा पर कराना प्रतिबन्धित कर दिया। इस अधिनियम में स्पष्ट रूप से कहा गया है केवल अस्थायी प्रकृति के कार्य संविदा पर कराये जायेंगे, परन्तु एक वर्ष में लगातार एक सौ बीस दिन से ज्यादा अवधि तक चलने वाले कार्य को अस्थायी प्रकृति का नही माना जायेगा। केन्द्र और सभी राज्य सरकारों ने इस अधिनियम को भुला दिया है और अब धडल्ले से स्थायी प्रकृति के कामों को संविदा श्रमिको से कराया जाना एक समान्य सी बात हो गई है और किसी को इसमें कोई दोष नही दिखता।
सर्वोच्च न्यायालय ने सेक्रेटरी स्टेट आफ कर्नाटक बनाम उमा देवी (2006-4-एस.सी.सी.-पेज- 1) के द्वारा प्रतिपादित किया है कि यदि एडहाक कैजुअल या संविदा पर नियुक्त कर्मचारी पद के अनुकूल शिक्षित है और स्वीकृत पद पर लगातार कई वर्षो से कार्यरत है तो उसे उसी पद पर नियमित किया जाना चाहिये। इस निर्णय को आधार बनाकर विभिन्न उच्च न्यायालयों ने रिक्त स्वीकृत पदों पर वर्षो से लगातार कार्यरत एडहाक कैजुअल या संविदा कर्मचारियों को उन्हीं पदों पर स्थायी करने के आदेश पारित किये है। इस सिद्धान्त एवं निर्णय की प्रकृति आदेशात्मक है परन्तु निजी क्षेत्र के साथ साथ केन्द्र सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों ने इसका अनुपालन सुनिश्चित नही कराया बल्कि अधिकांश मामलों में खुद अपने द्वारा अपनाई गई नियुक्ति प्रक्रिया को दोषपूर्ण बताकर कर्मचारियों को उमा देवी के मामले में पारित निर्णय का लाभ देने से इन्कार कर दिया है।
उल्लिखित निर्णय पारित होने के बाद मिनेरल एक्सप्लोरेशन कारपोरेशन इम्प्लाइज यूनियन बनाम मिनेरल एक्सप्लोरेशन कारपोरेशन लिमिटेड एण्ड अदर्स (2006-6-एस.सी.सी.-पेज- 31) एवं स्टेट आफ मध्य प्रदेश अदर्स बनाम ललित कुमार वर्मा (2007-1-एस.सी.सी. पेज 575) में सुनवाई के दौरान न्यायालय के समक्ष सरकार की और से दलील दी गई कि सम्बन्धित कर्मचारियों की नियुक्ति में रिक्रूटमेन्ट नियमों का पालन नही किया गया और नियमानुसार स्क्रीनिग कमेटी का गठन भी नही किया गया। नई नियुक्तियों पर प्रतिबन्ध होने के कारण कोई नियुक्ति नही की जा सकती थी। इस प्रकार की सरकारी दलीलों का केवल एक ही अर्थ है कि अब सरकार के स्तर पर भी खुद अपने द्वारा की गई अनियमितताओं का अनुचित लाभ उठाने और स्वीकृत रिक्त पदों पर वर्षों से कार्यरत कर्मचारियों को अनन्त काल तक संविदा श्रमिक बनाये रखकर उनको उनके विधिपूर्ण अधिकारों से वंचित रखने की प्रवृत्ति बढ़ी है। सभी जानते है कि सरकार और उसके अधीनस्थ विभागों में किसी भी स्तर के कर्मचारी की नियुक्ति सम्बन्धित सक्षम प्राधिकारी की सहमति जानकारी और अनुमति के बिना नही की जा सकती। सभी नियुक्ति पत्र सक्षम प्राधिकारी के हस्ताक्षर से जारी होते है। ऐसी दशा में इस प्रकार की नियुक्तियों को अवैधानिक बताना सम्बन्धित कर्मचारियों के साथ खुला अन्याय है और इसके लिए तकनीकी कारणों का सहारा लेकर कर्मचारियों को उनके विधिपूर्ण अधिकारों से वंचित नही किया जाना चाहियें बल्कि कर्मचारियों के शोषण एवं उत्पीड़न के आरोप में सम्बन्धित अधिकारियों के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित करायी जानी चाहिये। 
सर्वोच्च न्यायालय ने एम.पी. हाउसिंग बोर्ड एण्ड एनादर बनाम मनोज श्रीवास्तव (2006-2-सुप्रीम कोर्ट केसेज- पेज 702) में स्थायी और अस्थायी कर्मचारी को परिभाषित किया है। सम्बन्धित राज्य में लागू विधि के तहत एक या उससे अधिक रिक्त पद पर लगातार छः माह तक सन्तोषजनक कार्य करने वाले कर्मचारी को स्थायी माना जाता है। अस्थायी श्रमिक उसे माना जाता है जो अस्थायी प्रकृति के कार्य या स्थायी प्रकृति के कार्य के लिए अतिरिक्त श्रमिक के रूप में अल्प अवधि के लिए नियोजित किया जाता है परन्तु यदि ऐसा कर्मचारी लगातार छः माह तक सन्तोष जनक कार्य कर लेता है तो उसे भी स्थायी कर्मचारी माना जायेगा। इस बिन्दु पर सुस्पष्ट विधि होने के बावजूद नियुक्ति प्रक्रिया को दोषपूर्ण बताकर सेवायोजक कर्मचारी को स्थायी नही करते। नियुक्ति के समय कोई कर्मचारी नियुक्ति प्रक्रिया की वैधता पर सवाल नही उठा सकता और न उससे इस आशय की जानकारी करने की अपेक्षा करने का कोई विधिपूर्ण औचित्य है।
भारत सरकार के प्रतिष्ठान भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने अपनी अधिकृत वेब साइट मे सूचना प्रकाशित करके विधि अधिकारियों के पद पर नियुक्ति के लिए प्रार्थनापत्र आमन्त्रित किये है। इसके पूर्व राष्ट्रीय सूचना आयोग ने भी अपनी अधिकृत वेब साइट में अठारह पदों पर नियुक्ति के लिए सूचना प्रकाशित की थी और लिखित परीक्षा एवं साक्षात्कार के बाद सफल अभ्यर्थियों को एक वर्ष के लिए संविदा पर नियुक्ति भी दे दी है। नियुक्ति पत्र पर स्पष्ट रूप से लिखा है कि संविदा की अवधि सक्षम प्राधिकारी की अनुमति से बढ़ायी भी जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मोहम्मद आसिफ एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ बिहार एण्ड अदर्स (2010-5-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 475) में प्रतिपादित विधि के तहत राष्ट्रीय सूचना आयोग या भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग मे संविदा एडहाक या कैजुअल आधार पर नियुक्त किये गये अभ्यर्थी संविदा अवधि समाप्त हो जाने के बाद पद समाप्त न होने की दशा में स्थायी होने के विधिपूर्ण अधिकारी है। निर्णय में कहा गया है कि स्वीकृत पदों पर सक्षम प्राधिकारी द्वारा रिक्त पदो के लिए सार्वजनिक विज्ञापन जारी करके की गई संविदा आधारित नियुक्तियाँ अवैधानिक नही मानी जा सकती। यदि किसी अभ्यर्थी ने स्वीकृत पद पर लगातार 240 दिन या उससे ज्यादा अवधि तक कार्य किया है तो उसे उस पद पर स्थायी होने के अधिकार से वंचित नही किया जा सकता है और उसे कार्यकाल की सुरक्षा दी जानी चाहियें। सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में किसी भी पद पर संविदा एडहाक या कैजुअल कर्मचारी की नियुक्ति और बाद में उसके कार्यकाल को विस्तारित करने का आदेश सक्षम प्राधिकारी की सहमति जानकारी या अनुमति के बिना नही किया जाता और न किया जा सकता है ऐसी दशा में आदर्श नियोक्ता होने के नाते स्वयं सरकार को आगे बढ़कर सन्तोष प्रद कार्य करने वाले अभ्यर्थियों को कार्यकाल की सुरक्षा देने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये परन्तु सरकारों का आचरण ठीक इसके प्रतिकूल है। अपने देश में संविधान लागूू होने के बाद अर्जित अवकाश और कैजुअल अवकाश सभी कर्मचारियों को अधिकार स्वरूप दिया जाता है परन्तु अधिकृत सरकारी वेब साइटो पर सम्बन्धित विभागों की तरफ से एडहाक कैजुअल या संविदा पर नियुक्ति के लिए प्रकाशित विज्ञापनों मे स्पष्ट रूप से लिखा जाता है कि साप्ताहिक और सार्वजनिक अवकाशो के अतिरिक्त अन्य कोई अवकाश नही दिया जायेगा। इस प्रकार के फरमानों से श्रम कानूनों का सार्वजनिक उल्लंघन होता है ओर कर्मचारियों के सामाजिक हितों का हनन होता है। सरकार के इस आचरण से प्रेरणा लेकर निजी क्षेत्र ने अपने प्रतिष्ठानों में अघोषित नियमों के तहत कार्य दिवस आठ घण्टे से बढ़ाकर दस घण्टे कर लिया है और साप्ताहिक अवकाश के दिन भी कर्मचारियों को कार्य पर उपस्थित होने के लिए मजबूर किया जाता है।
पूँजीपतियों के साथ राजनेताओं की मिली भगत और श्रम विभाग के अधिकारियों की आपराधिक उदासीनता के कारण असंघटित क्षेत्र के श्रमिक सेवायोजको द्वारा किये जा रहे शोषण एवं उत्पीड़न को झेलने के लिए अभिशप्त है। किताबों में श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा और उनके आर्थिक विकाश के लिए कानून बना दिये गये है परन्तु जमीनी स्तर पर उनका लाभ आम श्रमिकों तक पहुँचाने की चिन्ता किसी को नही है। कान्टेªक्ट लेबर (रेगुलेशन एण्ड एबालिशन) एक्ट 1970 पारित करके केन्द्र सरकार ने भारत में ठेका श्रमिकों की कुप्रथा को समाप्त करने का विश्वास दिलाया था। इसके बाद इस कुप्रथा को समाप्त करने की दिशा में ईमानदार प्रयास भी किये गये है, परन्तु आर्थिक उदारीकरण के बाद अब नये सिरे से संविदा पर नियोजन का अभियान जारी है। सरकारी या निजी क्षेत्र का कोई प्रतिष्ठान इसे अछूता नही है। राजनेता, कारपोरेट या सरकार को इस कुप्रथा के पुनर्जीवित हो जाने से कोई समस्या हो या न हो परन्तु आम लोग इस कुप्रथा के कारण पूँजीपतियों का उत्पीड़न झेलने के लिए अभिशप्त है। इसलिए समय आ गया है कि इस कुप्रथा को समाप्त कराने के लिए हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है, का पुनः उद्घोष किया जाये।

Sunday, 23 March 2014

आरबीटेªशन एवार्ड को अपास्त करने के आधारो में बदलाव की जरूरत ......

आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 अधिनियममित होने के पूर्व आरबीटेªटर द्वारा पारित एवार्ड को इन्फोर्स कराने के लिए उसे सिविल न्यायालय के समक्ष रूल आफ दि कोर्ट बनाने की अपरिहार्यता लागू थी। 1996 के अधिनियम में इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है और अब आरबीट्रेशन एवार्ड पारित होने की तिथि से तीन माह बाद स्वतः डिक्री बन जाता है और उसे जनपद न्यायाधीश के समक्ष आवेदन करके सिविल न्यायालय की डिक्री की तरह इन्फोर्स कराया जा सकता है।
नये अधिनियम में आरबीट्रेशन एवार्ड से व्यथित पक्षकारों को उसके विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए अधिनियम की धारा 34 के तहत उसके पारित होने की जानकारी पाने की तिथि से 3 माह के अन्दर जनपद न्यायाधीश के समक्ष 200/- रूपये का न्यायशुल्क अदा करके आवेदन करने का अधिकार प्राप्त है। एवार्ड को अपास्त कराने का प्रावधान पुराने अधिनियम में भी था, परन्तु नये अधिनियम में एवार्ड के विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए उपलब्ध आधारों का क्षेत्र सीमित कर दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तो के तहत न्यायालय को भी निश्चित सीमाओं के बाहर एवार्ड के विरूद्ध हस्तक्षेप करने का क्षेत्राधिकार प्राप्त नही है।
नये अधिनियम की धारा 34 के तहत आरबीट्रेशन एवार्ड को अपास्त कराने के लिए जनपद न्यायाधीश के समक्ष निम्नांकित आधारों को सिद्ध करना आवश्यक है-
कोई पक्षकार किसी असमर्थता से ग्रस्त था इसका मुख्य उदाहरण किसी पक्षकार का अस्वस्थ होना या पागलपन का शिकार होना इत्यादि हो सकता है।
यदि आरबीट्रेटर ने जिस विधि के अधीन आरबीटेªशन एग्रीमेन्ट किया था उस तत्समय प्रवृत्त विधि के अधीन विधिमान्य नही है, इसका अर्थ प्रायः यह है कि बारबीट्रेशन एग्रीमेन्ट की जननी संविदा होती है क्योंकि वह संविदा ही पक्षकारों के दायित्वों, कर्तव्यों और अधिकारों को निर्धारित करती है और जब वह संविदा ही अवैध होती है या विधि द्वारा मान्य नही होती तो निश्चत ही उसकी बाबत जो भी अरबीट्रेशन ट्रिब्युलन द्वारा एवार्ड दिया जायेगा वह भी विधिमान्य नही कहा जा सकता। अतः ऐसे आपत्ति के आधारो के फलस्वरूप एवार्ड को अपास्त करने के लिए न्यायालय से अनुरोध किया जा सकता है।
किसी पक्षकार को आरबीट्रेटर की नियुक्ति की या आरबीटेªशन कार्यवाहियों की उचित सूचना नही दी गई थी या वह अन्यथा अपना पक्ष प्रस्तुत करने में असमर्थ था। इस सम्बन्ध में यदि अधिनियम में वर्णित आधारों पर दृष्टि डाली जाये तो विदित होगा कि आरबीट्रेटर को पक्षकारों के साथ समान व्यवहार करना चाहिये और उन्हे सुनवाई के समुचित अवसर देना चाहिये। प्राकृतिक न्याय का मुख्य सिद्धान्त है कि सभी पक्षकारों को सुनवाई को पर्याप्त अवसर दिये जाये और उसको सुने बिना उनकी अनुपस्थित में कोई आदेश पारित न किया जाये अन्यथा वह आदेश विधि अनुसार नही माना जा सकता।
आरबीट्रेशन ट्रिब्युनल की शक्तियां एवं क्षेत्राधिकार आरबीट्रेशन एग्रीमेन्ट पर आधारित होते है अतः जहाँ पर आरबीट्रेशन टिब्युनल द्वारा जो भी एवार्ड पारित किया जाता है वह यदि क्षेत्राधिकार से बाहर है या जो शक्तियां आरबीट्रेशन ट्रिब्युनल को निहित नही की गई थी उसकी मर्यादाओं का उल्लंघन करके एवार्ड दिया जाता है तो निश्चय ही उस एवार्ड के विरूद्ध उसे अपास्त करने के लिए आवेदन किया जा सकता है। यदि एवार्ड ऐसे विषयों से संबन्धित है जिनकोे निर्देशित नही किया गया है या आरबीट्रेशन एग्रीमेन्ट के निबन्धनों के भीतर नही आता है या उसमें ऐसे विषयों पर विनिश्चय है जो बारबीट्रेशन के लिए किये गये रिफरेन्स की परिधि से बाहर है। इसमें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जिस विषय पर एवार्ड किया गया है जो आरबीटेªशन के लिए रिफर नही किया गया था और उसको यदि उस विषय पर किया गया विनिश्चय एवार्ड से अलग किया जा सकता है तो सम्पूर्ण एवार्ड को अपास्त करने के स्थान पर केवल उन्हीं विषयों पर किये गये विनिश्चयों को अपास्त किया जा सकता है।
आरबीट्रेशन ट्रिब्युनल की संरचना या आरबीट्रेशन प्रक्रिया पक्षकारों के मध्य निष्पादित संविदा के अनुसार नही थी।
नये अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि विवाद की विषयवस्तु तत्समय प्रवृत्त विधि की अधीन आरबीट्रेशन द्वारा निपटाये जाने योग्य नही है या एवार्ड भारत की लोकनीति के विरूद्ध है तो उस स्थिति में न्यायालय को एवार्ड अपास्त करने का अधिकार प्राप्त है। 
इस अधिनियम और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के तहत आरबीट्रेटर को विवाद के निपटारे के लिए व्यापक शक्तियाँ दी गई है और न्यायालय द्वारा उसमें हस्तक्षेप करने की शक्तियों को सीमित कर दिया गया है और यहीं इस अधिनियम की विशेषता है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निणयों में प्रतिपादित किया है कि आरबीटेªशन में प्रश्नगत विवाद के गुणदोष पर आरबीटेªटर के एवार्ड के विरूद्ध समान्यतः न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करेगें। गुणदोष पर आरबीटेªटर के निष्कर्षो को अन्तिम माना जाता है अर्थात इस अधिनियम के तहत पारित एवार्ड को मुख्यतया प्रक्रियागत त्रुटियों के आधार पर ही अपास्त कराया जा सकता है। अपनी न्यायायिक व्यवस्था में प्रशिक्षित न्यायिक अधिकारियों द्वारा पारित निर्णयों में प्रायः त्रुटियां पायी जाती है और उच्च न्यायालय हस्तक्षेप करके अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर करते रहते है। ऐसी स्थितियों में आरबीट्रेटर द्वारा पारित एवार्ड के विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए न्यायालय के हस्तक्षेप को न्यूनतम कर देने की विधि में पुनर्विचार करने की जरूरत है। 
आर्डनेन्स फैक्ट्री के एक विवाद के निपटारे के समय न्यायपूर्ण सुनवाई के लिए आरबीटेªटर ने क्लेम पिटीशन और डिफेन्स स्टेटमेन्ट के आधार पर वादबिन्दु निर्धारित किये और उभय पक्षों को वादबिन्दु के आधार पर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर दिया और इसके बाद एवार्ड पारित किया। जनपद न्यायाधीश के समक्ष एवार्ड के विरूद्ध उसे अपास्त करने के लिए इस आधार पर आपत्ति की गई की आरबीट्रेटर ने रिफर किये गये मामलों से बाहर जाकर निर्णय दिया है। न्यायालय ने इस आधार पर की गई आपत्ति को खारिज कर दिया और अवधारित किया है निपटारे के लिए वादबिन्दु निर्धारित करने के समय यदि आपत्ति नही की गई है तो, बाद में उस विषय पर आपत्ति नही की जा सकती। 
अधिनियम की धारा 16 में क्षेत्राधिकार से सम्बन्धित आपत्तिों को सुनने और निर्णीत करने का सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार आरबीटेªटर में निहित है। प्रायः देखा जाता है कि धारा 34 के तहत प्रस्तुत आवेदनों में क्षेत्राधिकार के प्रश्न पर आपत्ति की जाती है। परन्तु इस आशय की आपत्ति धारा 34 के तहत शुरूआत से ही ग्राहय नही है। सर्वोच्च न्यायालय ने हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कारपोरेशन लिमिटेड बनाम पिंक सिटी मिडवे पेट्रोलियम (2003-6-एस.सी.सी. पेज 503) में प्रतिपादित किया है कि अनुबन्ध की विधिमान्यतः और आरबीट्रल ट्रिब्युनल के गठन से सम्बन्धित आपत्तियों को सुनने वा निर्णीत करने का क्षेत्राधिकार आरबीट्रेटर में ही निहित है।
एवार्ड में विधि की प्रत्यक्ष त्रुटि पूराने अधिनियम में एवार्ड के विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए सुसंगत आधार मानी जाती थी, परन्तु नये अधिनियम में इस आशय का कोई प्रावधान नहीं है और इसके कारण पक्षकारों को कई प्रकार की कठिनाइयों का शिकार होना पड़ा है। वैवहारिक कठिनाईयों को दृष्टिगत रखकर विधि आयोग ने अधिनियम की धारा 34 को संशोधित करनी की सलाह दी है, परन्तु सरकार के स्तर पर अभी तक कोई पहल नही की गयी है। विधि की सारवान त्रुटि 
शुरूआत से ही आरबीट्रेशन एवार्ड को अपास्त करने का आधार रही है। प्रिवी काउन्सिल ने चैमप्से भारा एण्ड कम्पनी बनाम जीवराज बालू स्पिनिंग एण्ड वीविंग कम्पनी लिमिटेड (ए.आई.आर.-1923-पी.सी.-66) में इसकी व्याख्या की। अपने सर्वोच्च न्यायालय ने प्रिवी काउन्सिल द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त को आधार बनाकर एस.बी. दत्त बनाम यूनिवर्सिटी आफ दिल्ली (ए.आई.आर.-1958-सुप्रीम कोर्ट-1050) में विचार किया है। इस मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने प्राध्यापक श्री एस.बी. दत्त की सेवाएं समाप्त कर दी थी। उन्होंने विश्वविद्यालय अधिनियम के तहत अपने स्तर पर अपनी नौकरी की बर्खास्तगी को माध्यस्थम विवाद बताकर आरबीट्रेटर नियुक्त किया और इसकी सूचना विश्वविद्यालय को दी। विश्वविद्यालय ने उनके द्वारा आरबीट्रेटर नियुक्त करने की सूचना पर कोई संज्ञान नही लिया और न आरबीट्रेटर के समक्ष उपस्थित होकर अपना पक्ष प्रस्तुत किया जिसके कारण प्राध्यापक द्वारा नियुक्त आरबीट्रेटर सोल आरबीटेªटर बन गये और उन्होंने एवार्ड पारित करके सेवा समाप्ति के आदेश को अनुचित एवं दुर्भावनापूर्ण घोषित कर दिया और उन्हें नौकरी में रखने का एवार्ड पारित कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय आरबीट्रेटर द्वारा पारित एवार्ड अपास्त कर दिया और प्रतिपादित किया कि सेवा समाप्ति के आदेश के विरूद्ध विधि के तहत अनुतोष प्राप्त किया जा सकता है। आरबीट्रेटर को इस बिन्दु पर सुनवाई करने का कोई क्षेत्राधिकार प्राप्त नही था। इसी तरह का एक पिटीशन जनपद न्यायाधीश कानपुर नगर के समक्ष जी.एस.वी.एम. मेडिकल कालेज द्वारा अपने एक कर्मचारी आर.के. पाण्डेय के पक्ष में आरबीट्रेटर के द्वारा पारित माध्यस्थम पंचाट को अपास्त करने के लिए प्रस्तुत किया गया है। इस विवाद में श्री आर. के. पाण्डेय को मेडिकल कालेज ने 58 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त कर दिया था। उन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति के विरूद्ध उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल की। याचिका के लम्बित रहने के दौरान उन्होंने अपने स्तर पर आरबीटेªटर को नियुक्त किया और आरबीट्रेटर ने बतौर एकल मध्यस्थ एवार्ड पारित करके सेवानिवृत्त के आदेश को अनुचित एवं दुर्भावनापूर्ण घोषित कर दिया था। एवार्ड में प्रत्यक्षतः सारवान विधिक त्रुटि होने के बावजूद निर्धारित अवधि के अन्दर एवार्ड को अपास्त करने के लिए प्रार्थनापत्र प्रस्तुत न करने के कारण जी.एस.वी.एम. मेडिकल कालेज की आपत्ति खारिज करके एवार्ड को इन्फोर्स करने का आदेश पारित हो गया है। 
निजी क्षेत्र के बैंक और नान बैंकिग फायनेन्स कम्पनियाँ अपनी बकाया राशि की वसूली के लिए ऋण दिये जाते समय उभय पक्षों के मध्य निष्पादित अनुबन्ध में अंकित आरबीटेªशन क्लाज का सहारा लेकर अपने मुख्यालय चेन्नई, मुम्बई, कोलकता आदि दूर दराज के शहरों में आरबीटेªशन कार्यवाही प्रारम्भ कर देते है जबकि अनुबन्ध सीतापुर, हरदोई, फतेहपुर, उन्नाव, गोडा बस्ती जैसे ग्रामीण इलाकों में हस्ताक्षरित कराया जाता है। पूरा अनुबन्ध एकपक्षीय होता है और बारोवर या उसके गारण्टर को आरबीट्रेशन क्लास की कोई जानकारी नही दी जाती, परन्तु इसके आधार पर सुनवाई चालू हो जाती है और एकपक्षीय सुनवाई करके एवार्ड पारित कर दिया जाता है। एवार्ड पारित हो जाने के बाद उसे इन्फोर्स कराने के लिए बारोवर के गृह जनपद में वसूली कार्यवाही चालू हो जाती है। न्यायालय द्वारा प्रेेषित नोटिस पाने के बाद बारोवर को अपने विरूद्ध पारित एवार्ड की जानकारी प्राप्त होती है और इस समय तक एवार्ड के विरूद्ध आपत्ति दाखिल करने के लिए निर्धारित तीन माह की अवधि समाप्त हो चुकी होती है तद्नुसार एवार्ड सिविल न्यायालय की डिक्री की तरह प्रवर्तनीय हो जाता है और उसके विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए आपत्ति प्रस्तुत करने का अधिकार भी समाप्त हो चुका होता है। इन स्थितियों में बारोवर को एकपक्षीय एवार्ड के अनुसार ब्याज सहित बकाया राशि अदा करने के लिए मजबूर होना पड़ता है जो भारत में प्रचलित लोकनीति एवं प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है। अनुबन्ध का निष्पादन फतेहपुर, उन्नाव और आरबीट्रेशन कार्यवाही चेन्नई, मुम्बई या कोलकता में करने से सहज और सस्ते न्याय की अवधारणा का भी उल्लंघन होता है और एक आम आदमी अपने विरूद्ध लम्बित कार्यवाही में प्रश्नगत विवाद के गुणदोष पर अपना पक्ष प्रस्तुत करने के समुचित अवसर से भी वंचित हो जाता है। समय की माँग है कि आम लोगों को इस प्रकार के अन्याय से बचाने के लिए आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट की धारा 34 में संशोधन करके एवार्ड में सारवान विधिक त्रुटि को भी एवार्ड को अपास्त करने का एक नया आधार बनाया जाये। 

Sunday, 16 March 2014

समाजवाद आपकी रणनीति, हम बेसहारों की जरूरत................


हमारे बचपन में समाजवाद साम्यवाद असमानता गरीबी भूख और बीमारी के विरूद्ध जन संघर्षो का प्रतीक था। प्रत्येक महीने की 10 तारीख को पहली तारीख का इन्तजार करने वाले हमारे अभिभावकों में नया जमाना आयेगा कमाने वाला खायेगा, लूटने वाला जायेगा का उद्घोष सुखमय भविष्य की आशा जगाता था। इसीलिए प्रख्यात साहित्यकार और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रामवृक्ष बेनीपुरी ने एक समाजवादी नेता से कहा था कि ‘‘समाजवाद आपकी राजनीति का एक अंग है, आपने उसे किताबे पढ़कर प्राप्त किया है और राजनीति में एक मोहरे के रूप में उसका इस्तेमाल करते है। जिस दिन आपको पता चलेगा कि ये किताबे गलत है या आपकी राजनैतिक जरूरत आपको बतायेगी कि अब सीधी राह न जाकर कतरिया कर चलना है तो समाजवाद को तिलांजलि देने मे आपको तनिक भी झिझक नही होगी’’ लेकिन मै उसे कैसे छोड सकता हूँ, समाजवाद मैने अनुभवों से ग्रहण किया है, उसमे आप बीती समाई हुई है, मेरे आसपास जो लोग रहे या हैं, उसमें उनकी पीड़ा पिरोई हुई है। उनके मुरझाये चेहरे हमे समाजवादी बने रहने के लिए मजबूर रखते है। 
पिछले चुनाव में गाँधी लोहिया के नाम पर वोट माँगने और आज के चुनाव में गुरू गोलबलकर दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर वोट माँगने को बेताब राजनेताओं पर यह एक सटीक टिप्पणी है। आज के अधिकांश राजनेताओं ने गरीबी भूख और बीमारी को किताबों में पढ़ा है। समाजवाद उनकी प्रतिबद्धता नही राजनैतिक रणनीति है। उससे उनका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नही है। उनमें से किसी ने भी बेनीपुरी जी की तरह क्लास में सदैव फस्र्ट आने के बावजूद एक रूपयें की नगद मेस की फीस न दे पाने के कारण चावल को भुनाकर भकोसने की मजबूरी नही झेली। दिन रात अपने आस पास भूख बीमारी और गन्दगी के दर्शन नही किये है। इसलिए असमानता गरीबी बेरोजगारी और अशिक्षा के विरूद्ध संघर्ष करने की तुलना में धर्म निरपेक्षता के विरूद्ध नकली संघर्ष उन्हें रास आता है और संसदीय समितियों में टाटा बिडला अम्बानी जैसे कारपोरेट घरानो के अनुकूल नीति निर्धारित कराते समय उन्हें कोई झिझक महसूस नही होती और निर्लज्जता पूर्वक उनके साथ फोटो खिंचाने में उन्हें गर्व महसूस होता है।
राजनीति का चरित्र एकदम बदल गया है। राजनीति कभी साधना का क्षेत्र हुआ करती थी। त्याग तपस्या के द्वारा उसे जनसेवा का साधन बनाया गया था। दयनीय आर्थिक स्थितियों के बावजूद शोषण के विरूद्ध संघर्ष के दौरान पीछे मुड़कर न देखने वाले राजनैतिक कार्यकर्ता अर्जुन की तरह न दैन्यतम् न पलायनम् की टेक सदैव निभाते थे इसलिए उन्हें समाज अपना नायक मानता था। अपने अपने दलो में वे निर्णायक भूमिका में होते थे परन्तु पारिवारिक घरानो के रूप में उभरी राजनैतिक पार्टियों ने आन्दोलनकारी कार्यकर्ताओं को किनारे लगा कर उनकी तुलना में जिताऊ प्रत्याशियों को वरीयता देने का नियम बना लिया है इसलिए दल बदल को बढ़ावा मिला और चुनाव के ऐन मौके पर नरेन्द्रमोदी और राम विलास पासवान द्वारा एक दूसरे की महिमा बखारने से किसी को अचरज नही हुआ। सभी ने इसे जाने पहचाने राजनैतिक अवसरवाद के रूप में देखा है और मन ही मन उसकी भत्र्सना की।
विद्यार्थी जीवन में छात्र संघ का अध्यक्ष एवं महामन्त्री निर्वाचित होना महत्वपूर्ण हुआ करता था परन्तु समाजवादी युवजन सभा स्टूडेन्ट फेडरेशन आफ इण्डिया और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता केवल चुनावी जीत के लिए किसी दूसरे संघटन के साथ मिलकर चुनाव नही लड़ते थे। अपनी विचारधारा के साथ हारने में गर्व महसूस करते थे। उसी का परिणाम है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जनेश्वर मिश्रा, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मार्केेण्डेय सिंह, दिल्ली विश्वविद्यालय के अरूण जेटली, लखनऊ विश्वविद्यालय के अतुल अन्जान, गोरखपुर विश्वविद्यालय के शिव प्रताप शुक्ल जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रकाश करात को राजनैतिक यात्रा के दौरान कभी अपनी शुरूआती विचारधारा के प्रति अविश्वास या उसमें परिर्वतन की आवश्यकता प्रतीत नही हुई। ये और इनके समकालीन आज भी शुरूआती प्रतिबद्धताओं को अपनी महत्वपूर्ण राजनीति धरोहर मानते है।
राजनेताओं के द्वारा विचारधारा से ज्यादा जीत के लिए चुनावी समीकरणो को वरीयता दिये जाने के कारण सभी दलों में प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का महत्व घटा है। चुनाव के ऐन मौके पर दल बदल करके चुनाव जीतने वाले राजनेताओं के कारण संसदीय व्यवस्था मजाक बन जाती है और आम मतदाता अपने आपको ठगा महसूस करता है। चैधरी अजीत सिंह वर्ष 1991 मे नरसिंह राव सरकार में मन्त्री थे और फिर 1999 में अटल बिहारी सरकार और अब मनमोहन सिंह मन्त्रिमण्डल में भी मन्त्रिपद पाने में कामयाब हुये है। राम विलास पासवान ने कई प्रधानमन्त्रियों के साथ मन्त्रिपद शुशोभित किया है। गोधरा में कथित नरसंहार के बाद अटल बिहारी बाजपेई मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र देने वाले पासवान गोधरा काण्ड के समय गुजरात के मुख्यमन्त्री रहे नरेन्द्र मोदी को इस चुनाव में प्रधानमन्त्री बनाने के लिए प्रतिबद्ध है और वे भूल गये है कि उन्होंने कभी बी.जे.पी. को भारत जलाओं पार्टी कहा था। करूणानिधि की पार्टी तीसरे मोर्चे की सरकार का हिस्सा रही। उसने एन.डी.ए. और संप्रग दोनो की सरकारो मे भी बेहिचक सहभागिता की है। सोनिया गाँधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर काँग्रेस छोडकर नया दल बनाने वाले शरद पवार सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार में कृषि मन्त्री है और महाराष्ट्र में उन्ही के साथ सरकार चला रहे है। इस सबसे स्पष्ट होता है कि आज की राजनीति मौका परस्ती और अवसरवाद को बढ़ावा देती है। इन सबके नेतृत्व में साध्य के लिए साधनों की पवित्रता की बात करना बेमानी हो गया है।
राजनीति में विचारधारा के प्रति कोई प्रतिबद्धता न रह जाने के कारण लोक सभा के चुनावो में भी राष्ट्रीय विषयों पर कोई चर्चा नही हो रही है। सभी मानने लगे है कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है और वह केवल तात्कालिक मुद्दो को ध्यान में रखकर वोट देती है। गम्भीर विषयों पर चर्चा से वोट नही मिलता। इन बातों में सच्चाई हो सकती है परन्तु इन बातो को झुठलाना और देश की वास्तविक समस्याओं से आम जनता का रूबरू कराना और अपनी नीतियों के तहत उनका समाधान प्रस्तुत करना राजनैतिक दलों की जिम्मेदारी है। उन्हें स्पष्ट रूप से बताना चाहिये कि उनकी सरकार दूसरे दल की सरकार से किन अर्थो में अलग होगी।
नरसिंह राव के प्रधान मन्त्रित्व काल में बतौर वित्तमन्त्री मनमोहन सिंह ने देश को उदार बाद की और धकेलकर समाजवादी नीतियों से बाय बाय कर ली थी। उनकी उदारवादी नीतियाँ एन.डी.ए.के शाशनकाल में भी यथावत जारी रही जिसके कारण आम लोगों के हितों की बलि चढ़ाकर सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों को वी.आर.एस. देकर ताला बन्दी की गई और उन्ही उत्पादों के लिए निजी क्षेत्र को संरक्षण देने का सिलसिला शुरू किया गया। इस चुनाव में सभी राजनैतिक दल मनमोहन सिंह सरकार को हर स्तर पर विफल बता रहे है परन्तु किसी ने भी स्पष्ट नही किया है कि चुनाव के बाद नई सरकार मनमोहन सिंह की उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति क्या रवैया अपनायेगी ?
अपने देश में डाइरेक्टिव प्रिन्सिपल्स को संविधान की आत्मा माना जाता है परन्तु उन्हें लागू कराना किसी भी दल की प्राथमिकता सूची में नही है। आम लोगों को मिलने वाली सुविधाओं को लाभ हानि के तराजू में तोलने की एक नयी परिपाटी को जन्म दिया गया है और उसके तहत सुविधाओं में सब्सिडी काटी जा रही है। जबकि आम जनता को सुख सुविधाये उपलब्ध कराना राज्य का प्रथम और परम दायित्व है।
राजनैतिक दलो में विचारधारा आधारित संस्कृति समाप्त हो जाने के कारण वर्तमान चुनाव में विचारधारा की कोई चर्चा नही हो रही है। एक दूसरे पर कीचड़ उछालकर अपने आपको श्रेष्ठ बताने की होड जारी है। गुजरात चुनाव में अफजल गुरू की फाँसी को मुद्दा बनाने वाले नरेन्द्र मोदी राजीव गाँधी के हत्यारो की फाँसी के मामले में मौन है। कोई नही कहता कि नई सरकार आने पर संसद में कानून बनाकर आतंकवादी घटनाओं के दोषी आरोपियो को फाँसी देने के लिए समयबद्ध कार्यनीति बनायी जायेगी। चुनाव के दौरान प्रचार का प्रावधान इसलिए किया गया है कि सभी राजनैतिक दल प्रचार के द्वारा अपने सिद्धान्तों और उनके अनुरूप अगले पाँच वर्ष के लिए शाशन की निर्धारित नीति का खाका जनता के सामने पेश करे। विजन डाक्यूमेन्ट या चुनाव घोषणापत्र एक औपचारिकता बनकर रह गया है। चुनाव जीतने के बाद कोई सांसद संसदीय दल की बैठको में इसकी चर्चा नही करता।
हर हाथ को काम हर खेत को पानी, जाति तोड़ो, दाम बाँधो, हिमालय बचाओं हिन्दी हटाओं जैसे नारे में निहितार्थ सम्बन्धित राजनैतिक दल की आर्थिक सामाजिक नीति परिलक्षित करते थे। सत्ताधारी या विपक्षी राजनेता इसी प्रकार के मुद्दो पर आन्दोलन करके जनता में अपनी पैठ बनाते थे और चुनाव में इन्ही मुद्दो पर वोट माँगते थे। इसीलिए उन दिनों संसद की चर्चाये समाचार पत्रों में प्रकाशित होती थी परन्तु अब समाचार पत्रों की सूचनाओं पर संसद में चर्चा होती है। संसद में अपने प्रतिनिधियों का अराजनैतिक व्यवहार देखकर आम नागरिक व्यथित है। उनकी व्यथा विद्रोह का रूप अख्तियार करे कि उसके पहले राजनैतिक दलों को सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए त्याग तपस्या की राजनीति का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये। 

Sunday, 9 March 2014

उत्तर प्रदेश पुलिस संघटित अपराधियों का सरकारी गिरोह....................

विभिन्न राज्य सरकारों में पदासीन रहे राजनेता कुछ भी कहे लेकिन सच यह है कि स्वतन्त्र भारत में पुलिस बल संघटित अपराधियों का एक सरकारी गिरोह बन गया है, जो राज्य की शक्तियों का प्रयोग प्रायः आम लोगों को उत्पीडित करके अवैध कमाई करने के लिए करती है। किसी को भी फर्जी मुकदमा बनाकर वर्षो के लिए जेल में निरूद्ध रहने के लिए अभिशप्त बना देने और फर्जी मुडभेड दिखाकर किसी की भी हत्या करने में इन्हें व्यवसायिक विशेषज्ञता हासिल है। आजादी के बाद सभी राजनैतिक दलों ने अलग अलग अवसरों पर पुलिसिया उत्पीडन और उसके द्वारा की गई ज्यादातियों का विरोध करने के लिए उसकी तुलना विदेशी शासन के जालिया वाला बाग काण्ड से की है परन्तु सत्तारूढ रहने के दौरान किसी ने भी पुलिस बल को पब्लिक ओरियेन्टेड सेवा प्रदाता संस्थान बनाने के लिए कोई पहल नही की, उस पर प्रभावी नियन्त्रण के लिए कोई तन्त्र विकसित नही किया बल्कि पुलिस कर्मियों को अपनी तात्कालिक राजनैतिक जरूरतो के लिहाज से आम लोगों के मानवाधिकारों के हनन की खुली छूट दी है। तमिलनाडु में तत्कालीन मुख्य मन्त्री सुश्री जयललिता को खुश करने के लिए स्थानीय पुलिस ने अटल बिहारी बाजपेई सरकार के मन्त्रियों को उनके घर से गिरफ्तार करके थाने के बन्दीगृह में डाल दिया था।
राजनेताओं द्वारा पोषित मनमानी के गरूर में स्थानीय पुलिस ने पिछली 28 फरवरी को जी.एस.वी.एम. मेडिकल कालेज कानपुर के छात्रों और सत्तारूढ दल के स्थानीय विधायक इरफान सोलंकी के मध्य कालेज परिसर के बाहर सड़क पर हुई मारपीट की एक साधारण घटना के बाद ज्येष्ठ पुलिस अधीक्षक के नेतृत्व में एकदम आक्रमण के अन्दाज में जबरन छात्रावास के अन्दर घुसकर छात्रों प्राध्यापको एवं उनके परिजनों को कायरता पूर्वक बेरहमी से पीटकर अपने संघटित अपराधी होने का परिचय दिया है। पुलिस कर्मियों ने कालेज के प्राचार्य डा. नवनीत कुमार प्राध्यापक डा. संजय काला, डा. अम्बरीश, डा. आर.पी. शर्मा के साथ मारपीट की। प्राध्यापक डा. शर्मा को मारते पीटते थाना स्वरूप नगर ले आये और वहाँ पर खुद एस.एस.पी. यशस्वी यादव ने उनके गाल पर चाँटे जड़े। इनमें से कोई भी विधायक के साथ मारपीट के समय घटना स्थल पर उपस्थित नही था और न उसमें उनकी कोई भूमिका थी, परन्तु एस.एस.पी. यशस्वी यादव ने किसी की नही सुनी और सत्तारूढ दल के विधायक की संतुष्टि के लिए छात्रावास में उपस्थित घटना से अन्जान छात्रों पर हमला बोला और उसके कारण घायल हुये छात्रों पर गम्भीर आपराधिक धाराओं में मुकदमें पंजीकृत करके उन्हें जेल में डाल दिया। पुलिस कर्मियों ने इस दौरान छात्रावास के बाहर खड़ी कारों, मोटर साइकिलों को तोड़ा फोड़ा लैपटाप उठा ले गये। किताबों को फाडकर उन पर लघुशंका की। पुलिस के इस अमानवीय आचरण से पूरी व्यवस्था शर्मसार हुई परन्तु निर्लज्ज एस.एस.पी. ने मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव के साथ अपनी निकटता के बल पर पुलिसिया व्यवहार का विरोध कर रहे आन्दोलनकारी डाक्टरों के विरूद्ध एस्मा लगाने की धमकी दी।
अपने देश में कोई भी कानून से ऊपर नही है। किसी को कानून अपने हाथ में लेने की अनुमति नही है। सभी अधिकारियों प्राधिकारियों को विधि के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना ही पड़ता है परन्तु सभी राज्यों मे पुलिसकर्मी कानून से ऊपर है ओर उन्हें आम नागरिको के मानवाधिकारों का हनन करने की खुली छूट है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पुलिस बलों की ज्यादती के विरूद्ध प्राप्त शिकायतो पर आपराधिक मुकदमा दर्ज करने का नियम बनाया है परन्तु अदालतो के हस्तक्षेप के बिना पुलिस कर्मियो के विरूद्ध मुकदमा पंजीकृत नही होता कानपुर में ही मेडिकल कालेज की घटना के पूर्व चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय छात्रावास में पुलिस कर्मियों ने रात्रि में छात्रावास के अपने कमरो मे सो रहे छात्रों पर हमला किया था। उनके कमरो के दरवाजे तोड़कर उन्हें बाहर लाया गया बेरहमी से पीटा गया और फिर तत्कालीन आई.जी. सुनील गुप्ता ने सो रहे भावी कृषि वैज्ञानिको पर फायरिंग करने का आरोप लगाया था जबकि उनमे से कई गोल्ड मेडलिस्ट थे और उनकी शैक्षिक पृष्ठभूमि आई.जी. जोन से ज्यादा बेहतर थी। 
 पुलिसकर्मी आम नागरिको के विरूद्ध बल प्रयोग करने के लिए कभी किसी नियम का पालन नही करते। सभी राज्यों में इस बाबत नियमावली बनी हुई है। योग गुरू बाबा रामदेव के कैम्प में सो रहे भक्तो पर लाठी चार्च के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने रामलीला मैदान इन्सीडेन्ट इन री (2012-1-सुप्रीम कोर्ट केसेज एल. एण्ड एस.-पेज 810) के द्वारा बल प्रयोग के लिए विस्तृत दिशा निर्देश जारी किये है। आदेशात्मक प्रकृति वाले इस दिशा निर्देश के तहत विधि विरूद्ध जमाव होने और उसके द्वारा लोक प्रशान्ति भंग करने की सम्भावना पर ही बल प्रयोग किया जा सकता है। बल प्रयोग किये जाने के पूर्व भीड़ को विधि विरूद्ध घोषित करके भीड़ को लाउड स्पीकर से उद्घोषणा के द्वारा विखरने का आदेश दिया जायेगा। चेतावनी और समझाबुझाकर भीड़ को तितर बितर करने का प्रयत्न किया जायेगा। इस प्रक्रिया के बाद भी भीड़ के न बिखरने पर न्यूनतम बल प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु स्पष्ट किया गया है कि ज्योंही भीड तितर बितर हो जाये त्योंही बल प्रयोग बन्द कर दिया जाये अर्थात किसी को भी दौड़ाकर नही पीटा जायेगा और इस दौरान घायल हो गये व्यक्तियोें को तत्काल प्राथमिक चिकित्सा के लिए अस्पताल भेजा जाना चाहिये। इस स्पष्ट नियम के बावजूद गम्भीर रूप से घायल छात्रों को जेल भेजा गया और उनके इलाज की कोई व्यवस्था नही की गई।
जी.एस.वी.एम. मेडिकल कालेज छात्रावास और इसके पूर्व चन्द्रशेखर कृषि विश्वविद्यालय छात्रावास में पुलिस कर्मियों ने सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों और खुद अपने पुलिस रेगुलेशन की धारा 70 में निर्धारित प्रक्रिया का जानबूझकर उल्लंघन किया और अपनी पदीय हैसियत और शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करके छात्रों के मानवाधिकारो का हनन किया है परन्तु राज्य सरकार ने अपने स्तर पर अपने अधिकारियों की गुण्डागर्दी की निन्दा नही की और न उनके विरूद्ध कार्यवाही करने के लिए कोई पहल की है। सर्वोच्च न्यायालय ने राम लीला मैदान वाली घटना में गम्भीर एवं साधारण रूप से घायल व्यक्तियो को क्रमशः पचास हजार रूपये एवं पच्चीस हजार रूपये बतौर क्षतिपूर्ति दिये जाने और दोषी पुलिस कर्मियों के विरूद्ध अनुशाशनात्मक कार्यवाही किये जाने का आदेश पारित किया था। सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के तहत उत्तर प्रदेश सरकार को अपने उद्दण्ड एस.एस.पी. यशस्वी यादव को हटाकर उनके विरूद्ध तत्काल विभागीय जाँच प्रारम्भ करनी चाहिये थी परन्तु ऐसा कुछ नही किया गया बल्कि एस.एस.पी. को हटाने की माँग कर रहे डाक्टरों पर एस्मा लगाने की धमकी दी गई। हाई कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद एस.एस.पी. को हटा दिया गया है। विधायक के विरूद्ध हत्या का मुकदमा पंजीकृत हो गया है परन्तु उनकी गिरफ्तारी नही हुई और दोषी पुलिस कर्मियों के विरूद्ध अभी तक विभागीय कार्यवाही करने का कोई संकेत नही दिया गया है। इन्डियन मेडिकल एसोसियेशन की अध्यक्षा एवं मेडिसिन विभाग की प्रमुख डा0 आरती लाल चन्दानी को विभागाध्यक्ष पर से हटा दिया गया है।
उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार अपने आपको डा. राम मनोहर लोहिया का अनुयायी बताती है। उन्होंने तो अपने जीवन काल में समाजवादी पार्टी की पहली सरकार द्वारा केरल में छात्रों पर बल प्रयोग करने के कारण पार्टी महासचिव होने के नाते अपनी ही सरकार से इस्तीफा माँगा था। वे मानते थे कि लोकतन्त्र में राज्य को अपने नागरिको पर बल प्रयोग करने की अनुमति नही है। वे आचरण के द्वारा समाजवादी और कांग्रेस सरकार की अन्तर को दिखाने में विश्वास रखते थे। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी हर दिन डा. लोहिया के विचारो और सिद्धान्तों का गला घोटती रहती है। अपने पहले मुख्य मन्त्रित्वकाल में मुलायम सिंह ने कानपुर में एल.एम.एम. स्कूटर फैक्ट्री के श्रमिको पर गोली चलवाई थी और आज जे.के. जूट मिल के श्रमिको पर उनके पुत्र अखिलेश यादव ने लाठी चार्ज कराया है। वास्तव में जन आन्दोलनों को बेरहमी से कुचलने की निर्लज्ज शुरूआत मुलायम सिंह ने की है। उनके मुख्यमन्त्री बनने के ठीक पहले कानपुर मे श्रमिको ने लखनऊ मुम्बई रेेल मार्ग पर कई दिनों तक धरना देकर रेल आवागमन एकदम बन्द करा दिया था, परन्तु मुख्यमन्त्री नारायण दत्त तिवारी ने श्रमिको पर बल प्रयोग की अनुमति नही दी बल्कि उनकी माँग स्वीकार करके के.के. पाण्डेय एवार्ड निरस्त कर दिया था। 
पुलिस का सोच व्यवहार एवं आचरण आज भी अंग्रेजो के शासनकाल की तरह आम नागरिकों को आतंकित रखने का है। स्वतन्त्र भारत में उनकी मानसिकता को बदलने का कोई प्रयास नही किया गया। पुलिसिया व्यवस्था में सुधार के लिए केन्द्र सरकार और अनेक राज्य सरकारों ने कई आयोगों का गठन किया है, परन्तु सभी आयोगों की रिपोर्ट सरकारी फाइलों मंें कैद है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने भी उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व डी.जी.पी. प्रकाश सिंह की याचिका पर पुलिसिया व्यवस्था में सुधार के लिए व्यापक दिशा निर्देश जारी किये है परन्तु किसी राज्य सरकार ने इन दिशा निर्देशो के अनुरूप अपने पुलिस बल में सुधार के लिए कोई प्रयास नही किया है। अपने उत्तर प्रदेश में सम्पूर्ण पुलिसिया तन्त्र जातिवादी हो गया है। अधिकांश थानों में एक ही जाति के थानाध्यक्षो की नियुक्ति इसका प्रमाण है। वोट बैंक को मजबूत बनाये रखने के लिए शासन को जातिवादी बनाये रखने के राजनैतिक लोभ के कारण निकट भविष्य में पुलिसकर्मियों से निष्पक्ष पारदर्शी और आम लोगों के प्रति सहृदय होने की अपेक्षा नही की जा सकती।

Sunday, 2 March 2014

नौकरी से बर्खास्तगी, नौकरशाहों की मनमानी का इलाज .........................

अपने देश में अनुच्छेद 311 और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 से संरक्षित नौकरशाहों द्वारा अपनी पदीय शक्तियों एवं प्रभाव का मनमाना प्रयोग करने से आम जनमानस का उत्पीड़न बढ़ा है। विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना स्वनिर्मित नियमों के तहत विधि का मनमाना अर्थान्वयन नौकरशाहों की आदत में शुमार है। उनकी मनमानी का शिकार हुआ एक आम नागरिक तन, मन, धन से टूट जाता है, बर्बाद हो जाता है परन्तु नौकरशाहों को उनके किये की सजा नही मिलती। बहुत हुआ तो एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरण करके पीडि़त के असहनीय घावों पर मरहम लगा दिया जाता है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मेसर्स प्रीति नर्सिंग होेम बनाम रीजनल प्रावीडेण्ड फण्ड कमिश्नर एण्ड अदर्स (2013-2-एल.बी.ई.एस.आर.-पेज 145-इलाहाबाद) में केन्द्रीय सरकार के अधिकारियो की मनमानी पर विचार करते हुये उनके विरूद्ध पाँच लाख रूपयें की कास्ट अधिरोपित की है। न्यायालय ने अपने निर्णय के द्वारा नौकरशाहों को याद दिलाया है कि अपना संविधान आम जनता को संप्रभु मानता है। उनके ऊपर कोई नही, कुछ नही। नौकरशाह सेवक होते है और आम लोगों के हित में काम करना उनकी संवैधानिक और पदीय प्रतिबद्धता है। संवैधानिक एवं विधिक प्रावधानों के विरूद्ध उनका आचरण सदैव राज्य की जवाबदेही का विषय है और राज्य किसी भी दशा में अपनी इस जवाबदेही से बच नही सकते।
अपने देश में नौकरशाहों से निष्पक्षता एवं पारदर्शी तरीके से अपने पदीय कर्तव्यों का निर्वहन करने की अपेक्षा की जाती है ताकि आम लोगों को अपने विधिपूर्ण अधिकारों से वंचित न होना पड़े और कोई व्यक्ति संगठन या समूह किसी को उत्पीडि़त न कर सके। उन्हें समझना चाहियें कि शासकीय कर्मचारी होने के नाते उन्हें सम्पूर्ण प्रशासनिक मशीनरी और राज्य की शक्तियों का सहयोग मिलता है और उनकी तुलना में एक आम नागरिक काफी कमजोर एवं असहाय होता है। नौकरशाहों द्वारा आम आदमी का उत्पीड़न सामाजिक दुराचार है और विधि उसकी अनुमति नही देती। नौकर शाहों के उत्पीडक आचरण से तात्कालिक रूप से एक व्यक्ति विशेष उत्पीडित होता हैै परन्तु उसका दुष्प्रभाव सम्पूर्ण व्यवस्था और समाज पर पड़ता है इसलिए ऐसे नौकरशाहों को अनुच्छेद 311 या दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 का संरक्षण देकर सेवा में बनाये रखना राष्ट्र समाज एवं लोकतन्त्र के लिए घातक है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सी.एम.डब्लू. पी. संख्या 1767 सन् 2011 जितेन्द्र कुमार शाव बनाम यूनियन आफ इण्डिया आदि की सुनवाई के समय आयकर विभाग कानपुर नगर में कार्यरत आयकर वसूली अधिकारी श्रीराम भार्गव के आचरण को विधि के प्रतिकूल पाया था, और घोषित किया है कि उन्होंने सम्पूर्ण कार्यवाही किसी बकाया कर की वसूली के लिए नही बल्कि केवल पिटीशनर जितेन्द्र कुमार शाव को उत्पीडि़त करने के दुरासय से की है। इस मामले में श्रीराम भार्गव ने अपनी पदीय शक्तियों का दुरूपयोग करके श्रीमती बैजयन्ती गुप्ता के नाम से पिटीशनर जितेन्द्र कुमार शाव के विरूद्ध खुद एक प्रार्थनापत्र बनाया और उसमें लिखा कि ‘‘पिछले वर्ष एक पुराना ट्रक खरीदने के लिए मैने अपने परिवार की सारी जमा पूँजी साढे पाँच लाख रूपये जितेन्द्र कुमार शाव निवासी फ्लेट नं. 107 कैलाश अपार्टमेन्ट सिविल लाइन्स कानपुर को दिया था परन्तु उन्होंने मेरे साथ धोखाधड़ी की। मुझे न ही ट्रक दिया न ही मेरा पैसा वापस किया। मेरे खिलाफ जो आयकर डिमाण्ड है उसकी अदायगी मय ब्याज के जितेन्द्र कुमार शाव निवासी फ्लेट नं. 107 कैलाश अपार्टमेन्ट सिविल लाइन्स कानपुर नगर के पास जमा साढे पाँच लाख रूपयों से कर ली जाये। साढे पाँच लाख रूपये जितेन्द्र कुमार शाव के स्टेट बैंक आफ हैदराबाद केनाल रोड कानपुर के खाता संख्या 62032584656 में मेरे पुत्र सुभाष चन्द्र ने दिनांक 21.05.2008 को नगद जमा करवाई थी’’ इस पत्र के आधार पर आयकर विभाग और उसके अधिकारी श्री राम भार्गव ने जितेन्द्र कमार शाव की करोड़ो रूपयों की चल अचल सम्पत्ति सीज कर दी। उन्हें भगोडा घोषित कर दिया और उनके व्यवसायिक संव्यवहारों पर रोक लगा दी। आयकर विभाग ने उच्च न्यायालय के समक्ष अपने अधिकारी की इस फर्जी कार्यवाही का समर्थन किया परन्तु शिकायतकर्ता श्रीमती बैजयन्ती गुप्ता को न्यायालय के समक्ष उपस्थित नही कर सका तद्नुसार श्री बैजयन्ती गुप्ता और उनके द्वारा प्रस्तुत प्रार्थनापत्र फर्जी पाया गया। आयकर विभाग उनका अस्तित्व सिद्ध नही कर सका। जितेन्द्र कुमार शाव के खाते में दिनांक 21.05.2008 को कोई नगद धनराशि जमा कराया जाना भी नही पाया गया। अर्थात आयकर अधिकारी श्रीराम भार्गव द्वारा की गई सम्पूर्ण कार्यवाही फर्जी पायी गई। इन स्थितियों में जितेन्द्र कुमार शाव की याचिका स्वीकार की गई। निर्णय में उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि सम्पूर्ण कार्यवाही पिटीशनर को उत्पीडित करने के लिए की गई है। उच्च न्यायालय द्वारा पारित इस निर्णय के विरूद्ध आयकर विभाग ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कोई अपील दाखिल नही की परन्तु दोषी अधिकारी श्रीराम भार्गव के विरूद्ध अभी तक कोई कार्यवाही भी नही की है और वे आज भी आयकर विभाग की सेवा में बने हुये है जबकि उन्हें सेवा में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार प्राप्त नही है और उन्हें अब तक सेवा से बर्खास्त कर देना चाहिये।

अपनी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में किसी अधिकारी या प्राधिकारी को विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना एकदम मनमाने तरीके से काम करने की अनुमति नही है। नौकरशाहो को विवेकीय शाक्तियाँ प्रशासनिक तन्त्र को सुव्यवस्थित बनाये रखने के लिए दी गई है। सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने कई बार प्रतिपादित किया है कि यदि कोई अधिकारी या प्राधिकारी मनमाने तरीके से काम करते हुये पाया जाये तो उसके विरूद्ध तत्काल प्रभावी कार्यवाही सुनिश्चित कराई जाये परन्तु नौकरशाहो के मामलो में प्रशासनिक तन्त्र विधि का अनुचित अर्थान्वयन करके अपने अधिकारियों के दोषों को छिपाता है। थाना हरबंश मोहाल कानपुर नगर में पंजीकृत एक मुकदमें में विवेचक जय प्रकाश शर्मा ने कई वर्ष पूर्व स्वर्ग सिधार गये लोगों का बयान बतौर साक्षी अंकित करके मुकदमें में फाइनल रिपोर्ट लगा दी और पीडि़त पर झूठी रिपोर्ट लिखाने का मुकदमा पंजीकृत करने के लिए पत्रावली न्यायालय के समक्ष प्रेषित कर दी है। बाद में पाया गया कि विवेचक द्वारा बनाये गये साक्षी बयान अंकित किये जाने की तिथि पर जीवित नही थे परन्तु विवेचक के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की गई बल्कि चैकी इन्चार्ज से पदोन्नति देकर उन्हें थानाध्यक्ष बना दिया गया इसी प्रकार उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्वमन्त्री श्री अमर मणि त्रिपाठी को विधिपूर्ण दण्ड से बचाने के लिए पुलिस अधिकारियों ने आई.आई.टी. के एक छात्र को कवियत्री मधुमिता की हत्या के मामले में मुल्जिम बना दिया था। हलाँकि बाद में अमर मणि त्रिपाठी और उनकी पत्नी को दोषी पाया गया और अदालत ने उन्हें आजीवन कारावास से दण्डित भी किया परन्तु आई.आई. टी. के निर्दोष छात्र को मुल्जिम बनाने में तुले पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की गयी और उन्हें माँफ कर दिया गया है।
उत्पीडक नौकरशाहो को उनके किये की सजा न मिल पाने के कारण आम आदमी के मन मे सम्पूर्ण व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा होता है, जो अन्ततः समाज की सुख शान्ति के लिए घातक हैै इसलिए उत्पीड़क अधिकारियों के विरूद्ध तत्काल कार्यवाही करके आम आदमी को उत्पीडन से बचाना चाहिये ताकि उसे असहाय होने का अहसास न हो और उसे सदैव महसूस हो कि शासन की शक्ति उसके साथ है और उसकी चिन्ता की जा रही है।
सर्वोच्च न्यायालय ने गाजियाबाद डेवलपमेन्ट अथार्टी बनाम बलबीर सिंह (जजमेन्ट टुडे-2004-5-एस.सी.-पेज 17) में प्रतिपादित किया है कि केन्द्र या राज्य सरकार को अपने उत्पीडक अधिकारियों के मनमाने आचरण को गम्भीरता से लेना चाहिये और किसी भी दशा में अधिकारियों को आम जनता के उत्पीडन का अवसर उपलब्ध नही कराना चाहियें। उन्हें हर हालत में अधिकारियो के उत्पीड़न से आम लोगों की रक्षा करनी होती है। सरकारे यदि अपने इस दायित्व का पालन करने में असफल रहती है तो वे एक तरफ अधिकारियों के भ्रष्टाचार को बढाने मे सहायक बनती है और दूसरी तरफ आम आदमी उनके शासन मे अन्याय सहने को अभिशप्त हो जाता है जो संविधान के उद्देश्यो के प्रतिकूल है। देलही जल बोर्ड बनाम नेशनल कैम्पेन फार डिग्निटी एण्ड राइट आफ सीवरेज एण्ड एलाइड वर्कस एण्ड अदर्स (जजमेन्ट टुडे-2011-8-एस.सी.-पेज 232) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने नौकरशाहो के उत्पीडक आचरण से पीडि़त लोगों को राज्य द्वारा क्षतिपूर्ति देने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है और इसी सिद्धान्त के तहत न्यायालय ने भविष्य निधि आयुक्त कार्यालय के सम्बन्धित अधिकारियो के उत्पीडन से त्रस्त प्रीति नर्सिंग होम इलाहाबाद को पाँच लाख रूपयो की छतिपूर्ति दिलाई है। निर्णय मे कहा गया है कि अधिकारियों का उत्पीडक रवैया भ्रष्टाचार की परिधि में आता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित विभिन्न निर्णयों से स्पष्ट हो जाता है कि अपने अधिकारियों के उत्पीडक आचरण पर लगाम लगाना सम्बन्धित सरकारों की संवैधानिक प्रतिबद्धता है और उन्हें अपने इस दायित्व की पूर्ति के लिए संविधान के अनुच्छेद 311 और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 को अधिकारियों के बचाव का कवच नही बनने देना चाहिये।