Sunday, 29 June 2014

संवैधानिक अवरोधों के बावजूद आपातकाल का खतरा बरकरार है.......

26 जून 2014 को कांस्टीट्यूशन क्लब नई दिल्ली में ‘‘आपातकाल का राजनैतिक संदर्भ’’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में आपातकाल विरोधी संघर्ष के अग्रिम पंक्ति के सूत्रधारों में एक श्री राम बहादुर राय के भाषण के दौरान कथित लोकतन्त्र सेनानियों द्वारा व्यवधान उत्पन्न करके उन्हें चुप कराते समय ’’लोकतन्त्र हम शार्मिन्दा है, तेरे कातिल जिन्दा है’’ का नारा लगाने की मेरी प्रबल इच्छा थी। राम बहादुर राय के विचारोे में असहमत होने का अधिकार सभी को था परन्तु असहमति के स्वर को संख्या बल पर दबाने का अधिकार किसी को नही है। असहमति को दबाने के प्रयास लोकतन्त्र के हित में नही होते। लोकतन्त्र सेनानियो ने अपने इस आचरण से संविधान प्रदत्त भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन किया है। 
लोकतन्त्र सेनानी स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की तरह सुविधायें और पेन्शन चाहते है। वे अपनी तुलना 9 अगस्त 1942 के क्रान्तिवीरो के साथ करते है। राम बहादुर राय इस प्रकार की तुलना से सहमत नही थे। उनका कहना था कि 9 अगस्त 1942 के दिन तत्कालीन नेतृत्व और उनके अनुयायियो को पता था कि अब क्या करना है ? कैसे करना है ? परन्तु 25 जून 1975 को इमर्जेन्सी घोषित होने के समय तत्कालीन राष्ट्रीय नेतृत्व गफलत में था। अटल जी बैगलोर में थे,आडवाणी और मधुदण्डवते बैगलोर जाने के लिये एयरपोर्ट पर थे, मधुलिमये मध्यप्रदेश में जनजागरण के लिये सभायें करते धूम रहे थे।इन सबने आपातकाल जैसी स्थिति की कल्पना भी नही की थी। इसी कारण 26 जून 1975 को सारे देश में सन्नाटा था। विरोध का कोई स्वर सुनाई नही पड़ा। दैनिक जागरण कानपुर ने अपना सम्पादकीय कालम खाली छोड़ कर विरोध प्रदर्शित किया था परन्तु सम्पादक और सम्पादक पुत्र की गिरफ्तारी होने के तत्काल बाद पूरे प्रतिष्ठान ने तीसरे दिन ही माफी माँग ली थी।
26 जून 1975 की तानाशाही मानसिकता आज पहले से ज्यादा ताकतवर हुई है। उस समय राजनैतिक दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र था। सामान्य कार्यकर्ता भी नेतृत्व की आलोचना कर सकता था। काँग्रेस के अन्दर रहकर चन्द्रशेखर और उनके साथियों ने जे.पी. आन्दोलन के प्रति इन्दिरा गाँधी के रवैये का सशक्त विरोध किया था। परन्तु आज किसी भी राजनैतिक दल में नीतिगत विषयों पर भी नेतृत्व से असहमति को दल विरोध माना जाता है। नेतृत्व के साथ सहमति जताते रहना राजनैतिक अस्तित्व के लिए आवश्यक हो गया है। सामूहिक विचार विमर्श मुद्दो पर सार्वजनिक बहस और असहमति के प्रति सम्मान गुजरे जमाने की बाते हो गई है।
25 जून 1975 को देश पर थोपी गयी तानाशाही संविधान के माध्यम से केन्द्रीय मंत्रीमण्डल ने इसे स्वीकार किया । राष्ट्रपति न इस पर अपने हस्ताक्षर बनाये और न्यायपालिका ने भी उस पर मोहर लगायी। किसी स्तर पर इन्दिरा गाँधी की तानाशाही से विरोध का सामना नही करना पडा। जयप्रकाश नारायण सहित सम्पूर्ण नेतृत्व किंकर्तव्यविमूढ के स्थिति में था। 25 जून 1975 को अपनी गिरफ्तारी के बाद पहली बार दिनांक 21 जुलाई1975 केा जयप्रकाश नारायण ने अपनी डायरी में लिखा ‘‘मेरा सारा संसार मेरे चारों तरफ खण्ड विखण्ड बिखरा पडा है लगता नही है कि अब मैं अपनी आँखों से कभी इन्हे समेटा हुआ देख पाऊँगा । मैं कोशिश तो कर रहा था कि लोकतन्त्र की प्रक्रिया में अधिकाधिक लोगों को जोड कर इसका क्षितिज थोडा व्यापक कर सकूँ। लेकिन मेरा गणित कहा गलत पडा ? मैं ‘‘हमारा गणित‘‘नही लिख रहा हूँ क्योकि यह जो भी कुछ भी हुआ है उसकी जिम्मेवारी मेरी है और वह मुझे ही लेनी चाहिये। मैं इस आकलन में चूक गया था कि किसी लोकताॅन्त्रिक व्यवस्था में अपने से असहमत लोगों के अशान्तिमय लोकतान्त्रिक आन्दोलन को कुचलने के लिये कोई प्रधानमंत्री किस हद तक जा सकता है। मैं इतना तो अनुमान करता था कि इस आन्दोलन को रोकने के लिये प्रधानमंत्री सभी किस्म के सामान्य और असामान्य कानूनों  की मदद लेगें लेकिन वे इसके लिये लोकतंत्र का ही गला घोट देगें,यह मैनें सोचा नही था मैं इस पर भी भरोसा नही कर पा रहा हूँ कि  अगर प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ सोचा तो उनके वरिष्ठ सहयोगियोें ने उनकी पार्टी ने जिसकी लोकतांत्रिक परम्परा काॅफी मजबूत रही है,उन्हे ऐसा करने दिया‘‘। जयप्रकाश नारायण का यह सवाल आज भी जिन्दा है असहमति के प्रति इन्दिरा गाँधी वाली मानसिकता पहले से ज्यादा ताकतवर होकर उभरी है। 
1974 से 2014 के बीच आम आदमी के सपनों में कोई खास बदलाव नही आया है। आम आदमी आजादी के बाद से लगातार एक अद्द घर, सस्ता भोजन चलने फिरने लायक सडक पीने योग्य पानी और सुरक्षा एवं सम्मान की चाहत रखता है। उसने कभी टाटा विडला अम्बानी बनने का सपना नही देखा। परन्तु उसके सपनों के विखरने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। उसके सपनों को समेटने सहेजने और उन्हें साकार करने की दूर दृष्टि किसी राजनेता के पास नही है। सभी उसे ठगते रहे है। उसकी निराशा का कमोबेश सभी राजनैतिक दलों ने अपने तात्कालिक लाभ के लिये दुरूपयोग किया है। 
जे.पी. आन्दोलन के बाद अन्ना आन्दोलन के समय देश में एक बार फिर आशा का संचार हुआ था। भ्रष्टाचार के विरूद्ध उनके आन्दोलन के साथ सम्पूर्ण देश मेें एकजुटता आई थी। लगा कि भ्रष्टाचार का युग समाप्त हो चला और देश एक नई करवट लेगा लेकिन अन्ना जी और उनके सहयोगियो ने भी देश को निराश किया। अन्ना जी अपने नित नये बयानों के कारण महत्वहीन हो गये और उनके प्रखर सहयोगी अरविन्द केजरीवाल अति जल्दबाजी में राजनेताओं के चक्रव्यूह का शिकार हो गये।
आजादी के तत्काल बाद डाक्टर राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए जबर्दस्त राजनैतिक आन्दोलन हुये है। डाक्टर लोहिया अपने समर्थको के बीच राजनैतिक विचारों पर बहस को आमन्त्रित करते थे। इन  बहसो में सामान्य कार्यकर्ता बेहिचक लोहिया जी का भी विरोध कर सकता था। इस प्रकार के विरोध को वे प्रोत्साहित करते थे। आज सभी दलों को अपने कार्यकर्ताओं के बीच दलीय मंचो पर इस प्रकार की असहमति को प्रोत्साहित करना चाहिये। आदर्श रूप में सभी इसे स्वीकार करते है परन्तु व्यवहारिक स्तर पर सिद्धान्तहीन विचार शून्य कार्यकर्ताओं को ही प्राथमिकता दी जाती है इसीलिए जगदम्बिका पाल, रामकृपाल यादव, रामविलास पासवान जैसो को केवल सांसद बनने के लिए अपने धुरविरोधी मोदी का गुणगान करने मे कोई वैचारिक झिझक नही होती है। लोकतन्त्र को जिन्दा रखने और उसे प्रति क्षण मजबूत बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि मुद्दा आधारित सार्वजनिक चर्चा परिचर्चा के द्वारा आम जनता की सक्रियता सहभागिता बढाई जाये और मुद्दा आधारित आलोचना करने का साहस रखने वाले कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता देने का माहौल बनाया जाये।
जून 1975 से मार्च 1977 के मध्य जेल जाने वाले अधिकांश राजनैतिक कार्यकर्ताओं के जीवन का संध्याकाल है। मुलायम सिंह यादव और उसके बाद कई अन्य मुख्यमन्त्रियों ने उन्हें सहयोगी के साथ निःशुल्क बस यात्रा और प्रतिमाह सम्मान राशि (पेन्शन) से उपकृत करके उनके अन्दर इन सुविधाओं को भोगते रहने की लालसा जगा दी है। इसलिए अब वे अपने इन तात्कालिक हितों के विरूद्ध राम बहादुर राय जैसो की बात सुनना ही नही चाहते जबकि उन्हे मालूम है कि मीसा कानून के तहत सबसे पहली गिरफतारी उन्ही की हुयी थी और बिहार आन्दोलन का नेतृत्व करनें के लिये जयप्रकाश जी को मनाने में उनकी महती भूमिका रही थी। आपातकाल सेनानियों को याद रखना होगा कि समाज उन्हें मुलायम सिंह या अन्य किसी मुख्यमन्त्री द्वारा उपकृत किये जाने के कारण सम्मान नही देता। समाज उन्हें आपातकाल के विरोध में उनके योगदान, लोकतन्त्र के प्रति उनकी जिद, जोश और जज्बे को सलाम करता है। आपातकाल सेनानियों को अपनी इस जिद, जोश और जज्बे को भावी पीढियों के लिए जिन्दा रखना होगा। दुःख की बात है कि लोकतन्त्र सेनानियों के सम्मेलन अब केवल सरकार से उपकृत होने की लालसा मे आयोजित किये जाते है। उनमे अब वर्तमान राजनैतिक माहौल में एकाधिकार की बढती प्रवृत्तियों, जो अन्ततः तानाशाही का मार्ग प्रशस्त करती है, पर चोट नही की जाती।
देश के लोकतन्त्र के इतिहास में आपातकाल एक गम्भीर त्रासदी थी। इन्दिरा गाँधी ने अपने निजी स्वार्थ के लिए इसे देश पर थोप दिया था। आपातकाल के कारणों और उसके निवारण के लिए किये गये प्रयासों से भावी पीढी को अवगत कराना आवश्यक है। उसे बताया जाना चाहिये कि 18 मार्च 1974 को हाथ पीछे बाँधे और मुँह पर पट्टी बाँधे बमुश्किल एक हजार लोग पटना की सड़को पर जयप्रकाश के नेतृत्व मे उतरे, तो दिल्ली में बैठे सत्ताधीशों की अकड और उनका घमण्ड धूल धूसरित हो गया था। देश ने इसके पहले निनाद करता ऐसा सन्नाटा कभी नही देखा था। उसकी तपन मे सत्ताधीशो को झुलसा दिया था। इन्दिरा गाँधी और उनके सिपहसालारो के अनेकानेक अत्याचारों के बावजूद ‘‘खोलो खोलो जेल के तालें, ये दीवाने आये है या दम है कितना दमन मे तेरे, देख लिया और देखेंगे’’ का उद्दघोष करके कक्षा 10, 11, 12 के विद्यार्थी भी उनके लिए चुनौती बनकर सडको पर उतरे थे। कांस्टीट्यूशन क्लब में एकत्र सेनानियों को राम बहादुर राय उनके इसी पौरूष से रूबरू कराना चाहते थे, परन्तु मोदी सरकार से उपकृत होने की आकांक्षा पाले सेनानियों को पेंशन और सुविधाओं की लालच ने अन्धा बना दिया और उन सब ने जाने अन्जाने अपने विरोधी विचारो को दबाकर इन्दिरा गाँधी की अधिनायकवादी मानसिकता को जीवन प्रदान किया है।

Sunday, 22 June 2014

सांसदों के घोटालों पर अब संसद शर्मिन्दा नही होती.......

गर्व से कहो हम ब्राह्मण है, चाणक्य के उत्तराधिकारी है, का उद्द्घोेष करने वाले अपने उत्तर प्रदेश से राज्य सभा सदस्य श्री बृजेश पाठक ने सांसद होने के नातेे फर्जी बिल लगाकर बेईमानी पूर्वक 2.20 लाख रूपये का चूना संसद को लगाया है। सी0बी0आई ने श्री पाठक सहित छः सांसदो के विरूद्ध फर्जी दस्तावेज बनाने और उनके फर्जी होने की जानकारी के बावजूद उन्हें एकदम सही दस्तावेज के रूप में प्रयोग करके बेईमानीपूर्वक धनराशि प्राप्त करने के आरोप में मुकदमा पंजीकृत कराया है। इस घटना को लेकर मैं शर्मिन्दा होना चाहता था, परन्तु उसी समय शर्म ने मेरे मन से कहा कि इस प्रकार के विषय अब उससे (शर्म) ऊपर उठ चुके है और उन पर शर्मिन्दा होकर आप हमें शर्मिन्दा न करें। शर्म ने मेरे मन को बताया कि इन चीजों को भ्रष्टाचार की दृष्टि से देखना अपराध है। आपको याद नही है कि अन्ना आन्दोलन के दौरान संसद मे अपराधी बैठते है की बात कहे जाने पर संसद के दोनों सदनों के सदस्य आग बबूला हो गये थे और एक स्वर में सभी ने इसकी निन्दा की थी, परन्तु अपने ही साथी द्वारा फर्जी बिल लगाकर राजकोष को अनुचित क्षति पहुँचाने वाली घटना के बीच वें शर्म को नही आने देते। वे कुछ दिन बाद इस घटना को वित्तीय अनियमितता बताकर अपने साथी के बचाव का सम्मानजनक रास्ता निकाल लेंगे या कहेंगे कि सत्तारूढ दल सी0बी0आई0 का दुरूपयोग करके उन्हें परेशान कर रहा है लेकिन कोई चाणक्य को याद नही करेगा जिसने निजी अध्ययन अध्यापन के लिए भी राजकोष का उपयोग नही किया।
साम्यवादी नेता सोमनाथ चटर्जी ने अपने लोक सभा अध्यक्ष रहने के दौरान संसद में प्रश्न पूँछने के लिए पैसा माँगने के आरोपी सांसदों को संसद से निष्कासित करने का साहस दिखाया था, परन्तु निष्कासित सांसदों में से एक राजाराम पाल को कानपुर देहात (अकबरपुर) की जनता ने फिर से चुनकर लोक सभा भेज दिया था। संसद में प्रश्न पूँछने के लिए सांसद द्वारा पैसा माँगने की बात सोची भी नही जा सकती थी।, जनहित के मुद्दो पर संसद में सरकार को घेरना़ प्रश्न पूँछना चर्चा परिचर्चा करना सांसद जी की पदीय प्रतिबद्धता है। मतदाताओं ने उन्हें इसी काम के लिए चुना है। संसद में प्रश्न की अपनी महत्ता है इसीलिये कानपुर की श्रमिक समस्या पर राज्य सभा में नियमो के तहत प्रश्न पूँछने की अनुमति न मिलने की स्थिति मे प्रख्यात समाजवादी नेता राजनारायण श्रमिको को तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी0वी0 गिरि के आवास पर ले गये। श्रमिको को उनसे मिलवाया और उसके बाद राज्य सभा में श्रमिको की समस्या पर सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर किया गया।
बृजेश पाठक, महमूद मदनी, लाल मिंग, रेणु बाला, डी. बन्दोपाध्याय जे.पी.एन. सिंह जैसो की हरकतों को देखकर लगता है कि क्या अब हमारी संसद सदा सदा के लिए मधु लिमये जैसे सांसदो के लिए तरसती रहेगी। अब क्या कोई ऐसा राजनेता सामने नही आयेगा जो सांसद के नाते सरकार या अन्य किसी से उपकृत होना स्वीकार न करे। लोक सभा चुनाव हारने के बाद मधु जी अपने ग्रह नगर वापस जाना चाहते थे। इन्दिरा जी ने उनसे दिल्ली में ही रहने का निवेदन किया और सांसद के रूप में उन्हें आंवटित आवास खाली न करने के लिए रहा। उन्होंने उपकृत होने से इन्कार कर दिया और उसके बाद भूतपूर्व सांसदों को नई दिल्ली में आवास आवंटित करने की नीति बनाई गई। आज सभी दलों में ऐसे सांसदों की भरमार होती जा रही है जो अपने संसदीय क्षेत्र के हितों के मूल्य पर निजी लाभ हेतु सरकार से उपकृत होने के लिए तत्पर रहते है। उन्हें कभी कोई शर्म नही आती है।
आज विधायको सांसदो के वेतन भत्तो आदि में अभूतपूर्व वृद्धि हो गई है। एक भी दिन सांसद रहे लोगों को आजीवन पेन्शन की सुविधा है। रेल एवं हवाई किराये में विशेष रियायते उन्हें दी गई है। जन प्रतिनिधि के नाते अपने संसदीय क्षेत्र की समस्याओं के समाधान मे सहभागी होने के लिए उन्हें पर्याप्त सुविधाये उपलब्ध है परन्तु अपने लालच पर उनका कोई नियन्त्रण नही है इसीलिये उपलब्ध सुविधायें उन्हे अपर्याप्त लगती है। परतन्त्र भारत में काँगे्रस ने निर्णय लिया था कि उनके मंत्री कराची अधिवेशन के प्रस्ताव का सम्मान करते हुये पाँच सौ रूपये से ज्यादा वेतन नही लेगे। अनुशासन और गाँधीवादी जीवन शैली का पालन करते हुये आदतन खादी पहनेंगे। काँग्रेस मन्त्रियों के इस आचरण ने उन्हें अन्य मन्त्रियों की तुलना में विशिष्ट बनाया और आभास दिया कि वे वास्तव में दरिद्र नारायण का प्रतिनिधित्व करते है। डाक्टर राम मनोहर लोहिया समाजवादी मन्त्रियों सांसदो एवं विधायको से भी ऐसे ही आचरण की अपेक्षा करते थे। मधु लिमये राजनारायण जनेश्वर मिश्रा मोहन सिंह जैसे उनके अनुयायी उनकी अपेक्षा पर खरे उतरे है। स्वतन्त्र भारत की राजनीति के शुरूआती दौर में संसद या विधान सभा के अधिवेशनों या संसदीय समिति की बैठको के दौरान बँगले दिये जाते थे। धीरे धीरे सांसद या विधायक के नाते मिलने वाले बँगले स्थायी आवास बना लिये गये और कई लोगों ने अपने बँगलों के बड़े भाग को किराये पर उठाकर कमाई शुरू कर दी। राजनैतिक दलों ने अपने सांसदों विधायको की इस लालची प्रवृत्ति पर कभी अंकुश नही लगाया और दुष्परिणाम के रूप में कभी प्रश्न पूँछने के नाम पर पैसा माँगने, सांसद निधि के कामों में ठेकेदारो से कमीशन लेने और फर्जी यात्रा बिलों के आधार पर अनुचित लाभ प्राप्त करने की घटनाओं में इजाफा हुआ है। कानपुर नगर निगम में एक नगर प्रमुख ने नियमों एवं परम्पराओं को ताक पर रखकर खुद अपने लिए एक मकान आवंटित कर लिया। उनकी मृत्यु के बाद भी उनके परिजनों का उस पर कब्जा बना हुआ है। साम्यवादी सांसदों को छोडकर अधिकांश सांसद महँगी कारों से संसद आते है। कोई भी राजनैतिक दल अपने सांसदों को संसद की वैन से संसद आने या आदतन सादगी से रहने के लिए नही कहता।
गाँधी को सम्बोधित एक पत्र में तिलक ने लिखा कि ‘‘दुनिया साधुओं के लिए नही है’’ के जवाब में गाँधी ने उन्हें बताया कि दुनिया को साधुओं के लिए न समझना बौद्धिक आलस्य है। हम यह समझते आये है कि व्यक्तिगत सत्य और राजनैतिक सत्य का मापदण्ड जुदा होता है। वैयक्तिक सदाचार शास्त्र की दृष्टि से जिस काम को हम घृणा की दृष्टि से देखते है, उसी काम को हम राजनैतिक दृष्टि से अच्छा समझते है। धोखा देना, विश्वासघात करना, झूठ बोलना सदाचार शास्त्र की दृष्टि से पाप है परन्तु राजनैतिक व्यक्ति यदि विश्वासघात, झूठ, दम्भ का सहारा लेता है तो उसे कोई बुरा नही मानता। गाँधी, तिलक युग में इस प्रकार की बातें बौद्धिक विचार विमर्श तक सीमित रही होंगी, परन्तु वर्तमान राजनैतिक माहौल में विश्वासघात, झूठ और दम्भ जैसे अवगुणों का सार्वजनिक महत्व तेजी से बढ़ा है। अब सार्वजनिक जीवन में मधु लिमये जैसे लोग नही दिखते जिन्हें देखकर विश्वास होता था कि अपनी निष्ठाओं, आस्थाओं और सिद्धान्तों पर जिया जा सकता है। समझौता करने और जीते जी अपने को खोने की जरूरत नही है। मधु लिमये ने भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया। गोवा की पुर्तगाली राज से मुक्ति तक आजादी की लड़ाई लड़ते रहे लेकिन स्वतन्त्रा संग्राम सेनानी का ताम्र पत्र नही लिया। पेन्शन लेने की तो बात ही नही उठती। आपातकाल के दौरान लोक सभा का कार्यकाल पाँच वर्ष से छः वर्ष किये जाने के विरोध में उन्होंने लोक सभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। पण्डारा पार्क में जिस छोटे से घर में रहना उन्होंने स्वीकार किया था उसका भी किराया उन्होंने हमेशा चुकाया। संसद के पुस्तकालय में पढ़ने और संदर्भ देखने के लिए भी तिपहिया स्कूटर से जाते जिसे सुरक्षा वाले गेट के बाहर ही रोक देते। उनके लिए एक ठीक ठाक घर, वाहन और दूसरी रोजमर्रा की सुविधायें सुलभ करवाने में न किसी को हिचक होती न किसी का कोई अहसान। लेकिन मधु लिमये ने स्वतन्त्रा संग्राम सेनानी, पूर्व सांसद और राजनैता बने रहने के बजाय साधारण नागरिक बने रहना पसन्द किया जिसके इस देश मेें कोई विशेषाधिकार नही माने जाते। 
तुलसीदास ने मन्थरा से कहलवाया था कि ‘‘कोऊ नृप होय, हमे का हानी, चेरी छांडि बनहीं न रानी’’। अपने राजनेताओ, नौकरशाहो और उद्योगपतियों के त्रिकोण ने आम लोगों को मन्थरा की मानसिकता मे जीने के लिए विवश कर दिया है। इसीलिए ‘‘बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है’’ की कहावत राजनैतिक क्षेत्र में पूरी तरह लागू होती है। सभी राजनैतिक दल स्थानीय कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करके बृजेश पाठक, शशि भूषण सिंह, अतीक अहमद, पप्पू यादव जैसो को बेहिचक टिकट देते है और फिर यही लोग जीतकर जनता की छाती पर मूँग दरते है। ऐसे लोगों को संसद और विधान सभाओं से बाहर रखने के लिए आवश्यक है कि अब हम अपना वोट उसी प्रत्याशी को दे जिसमें सोचने और बोलने का साहस हो।

Sunday, 15 June 2014

कन्टेमप्ट आफ कोर्ट दोषपूर्ण अवधारणा विधि में बदलाव जरूरी .........

न्यायालय की अवमानना के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश बार काउन्सिल के आवाहन पर सम्पूर्ण प्रदेश में अधिवक्ताओं ने दिनांक 10 जून दिनांक 11 जून दिनांक 12 जून 2014 को लगातार तीन दिन कार्य बहिस्कार करके अपना विरोध दर्ज कराया है। अवमानना जैसे संवेदनशील न्यायिक मुद्दे पर बार काउन्सिल का आक्रामक रवैया गम्भीर चिन्तन का विषय है। प्रदेश में पहली बार अवमानना विधि सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन का कारण बनी है। केन्द्रीय कानून मन्त्री रहे प्रख्यात अधिवक्ता श्री शान्ति भूषण ने सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीशो पर भ्रष्टाचार में संलिप्त रहने का आरोप लगाकर अपने विरूद्ध अवमानना की कार्यवाही को आमन्त्रित किया है। इस मुद्दे पर तहलका मैगजीन के सम्पादक और अधिवक्ता श्री प्रशान्त भूषण पहले से ही अवमानना कार्यवाही का सामना कर रहे है और न्यायाधीशो पर लगाये गये आरोपो पर एकदम अडिग है अर्थात उनकी ओर से क्षमा याचना करने या आरोप वापस लेने की कोई सम्भावना नही है।
पदम भूषण से सम्मानित मनोनीत राज्य सभा सदस्य एवं पूर्व सालिसिटर जनरल श्री फाली एस नरीमन ने अपनी पुस्तक ‘‘ द स्टेट आफ द नेशन’’ में कमबेटिंग करप्शन इन द हायर ज्यूडिसरी पर चर्चा करते हुये बताया है कि सर्वोच्च न्यायालय की कोर्ट संख्या 2 के समक्ष मिसलेनियस डे के दिन एक वादकारी स्वयं उपस्थित (इन परशन) होकर अपने मामले के गुण दोष पर तेज आवाज में अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहा था कोर्ट ने उसे तेज आवाज में न बोलने के लिए कहा लेकिन वह सुन नही पाया और किसी एक बिन्दु, जो उसकी दृष्टि में सुसंगत था पर लगातार तेज आवाज में जोर देता रहा। कोर्ट नाराज हो गयी और कोर्ट मार्शल को उसे न्यायालय से बाहर करने के लिए आदेशित किया। किसी वादकारी को न्यायालय से जबरन बाहर करने के आदेश ने श्री नरीमन को व्यथित किया उन्होंने तत्काल कोर्ट मार्शल को रोका और कहा कि न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहे किसी वादकारी को जबरन कोर्ट रूम से बाहर नही किया जा सकता। कोर्ट मार्शल ने उनकी नही सुनी। वादकारी को जबरन कोर्ट से बाहर कर दिया गया और उसका मुकदमा भी खारिज हो गया। श्री नरीमन ने इस घटना की शिकायत तत्कालीन चीफ जस्टिस श्री वी.एन. खरे से की। न्यायमूर्ति श्री खरे ने वादकारी से उसके साथ हुये दुव्र्यवहार के लिए न्यायालय की तरफ से क्षमा याचना की और उसके मुकदमें को रिस्टोर करने का आदेश पारित करके सुनवाई के लिए उसी बेंच के समक्ष भेज दिया।
मुख्य न्यायमूर्ति श्री हिदायतुल्लाह ने आर.सी. कपूर बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए.आई.आर.-1970-सुप्रीम कोर्ट - पेज 1318) में प्रतिपादित किया था कि न्यायपूर्ण आलोचना के विरूद्ध अन्य संस्थाओं की तरह न्यायालयो को भी कोई विशेषाधिकार प्राप्त नही है। अपनी निष्पक्षता, पारदर्शिता, योग्यता, ज्ञान और कुशलता के बावजूद वे सदैव अपने आपके सही होने का दावा नही कर सकते। उनके द्वारा भी गलती होने की सम्भावना बनी रहती है। सर्वोच्च न्यायालय के एक अन्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री वी.आर. कृष्णा अय्यर ने भी स्पष्ट रूप से कहा है कि देश में कोई भी संविधान के ऊपर नही है। सभी को अपनी न्यायपूर्ण आलोचना सुननी चाहिये। वास्तव में विदेशी शासन के दोरान बनी अवमानना विधि में ‘‘अवमानना’’ को परिभाषित नही किया गया था। स्वतन्त्र भारत में पहली बार श्री एच.एन. सान्याल कमेटी ने इस कमी को दूर करने की अनुशंशा की। उनकी रिपोर्ट के आधार पर कन्टेमप्ट आफ कोर्ट एक्ट 1971 पारित हुआ। इस अधिनियम मे अवमानना की परिधि को सीमित किया गया। निर्दोष प्रकाशन उसके वितरण निष्पक्ष एवं वास्तविक रिपोर्टिंग न्यायिक कार्यवाहियों की न्यायपूर्ण आलोचना अधीनस्थ न्यायालयो के न्यायिक अधिकारियों की शिकायत आदि को अवमानना की परिधि से बाहर रखा गया है।
न्यायालय के आदेशों के अनुपालन, निष्पक्षता एवं पारदर्शिता से न्यायिक कार्यवाहियो के संचालन और न्यायालय परिसर मे भय मुक्त वातावरण बनाये रखने के लिए अवमानना की शक्तियों और कड़ाई से उसके प्रयोग पर किसी को आपत्ति नही है। कोई नही चाहता कि न्यायालय और न्यायिक अधिकारियों के विरूद्ध किसी स्तर पर कोई अनर्गल दोषारोपण करे। समाज की स्थायी सुख शान्ति के लिए आवश्यक है कि न्यायालय के निर्णयों का अनुपालन हर हाल में सुनिश्चित कराया जाये और इसमें अवरोध पैदा करने वालो को दण्डित किया जाये, परन्तु न्यायालय की अधिकारिता को स्कैण्डिलाइज करने के आरोप मे अवमानना कार्यवाही को लेकर असहमति के स्वर तेज हो गये है। उत्तर प्रदेश बार काउन्सिल के आवाहन पर अधिवक्ताओं का सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन इसी असहमति का परिचायक है।
अवमानना विधि पर पुनर्विचार की वकालत करते हुये सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री मार्केण्डेय काटजू ने स्पष्ट किया है कि लोकतन्त्र में लोग सर्वोच्च है तद्नुसार न्यायाधीश, सांसद, विधायक, मन्त्री, नौकरशाह आदि सभी ‘‘आम लोगों’’ के नौकर है। संविधान में भी कहा गया है कि हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिको को सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते है। संविधान सभा के उपर्युक्त शब्द खुद बताते है कि संविधान की प्रक्रति और चरित्र लोकतन्त्रात्मक है और उसकी शक्तियाँ आम लोगों मे निहित है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि देश के सभी अधिकारी प्राधिकारी लोगों के अधीन है और उनके नौकर है इसलिए यदि नौकर नियमानुसार कार्य नही करते तो मालिक को अधिकार है कि वह अपने नौकरो की आलोचना करे। लोकतन्त्र में लोगों को न्यायाधीशो की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त है। 
संविधान लोगों द्वारा लोगों के लिए बनाया गया है और संविधान ने आम लोगों के आपसी विवादों और उनकी समस्याओं के न्यायपूर्ण समाधान के लिए न्यायालय निर्मित किये है। समाज में लोगों के बीच विवाद उत्पन्न होते रहते है और यदि उनके न्यायपूर्ण समाधान के लिए कोई फोरम नही बनाया गया होता तो लोग अपनी समस्याओं या विवाद के समाधान के लिए हिंसक साधनों का सहारा लेते। ऐसी दशा में एक सशक्त सेफ्टी वाल के रूप में न्यायालयों को देख जाना चाहिये जो लोगों को अपनी समस्याओं या विवाद के गुणदोष पर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर देते है और सुस्थापित विधि सिद्धान्तों के तहत समाधान के लिए आदेश पारित करते है। कोई समाज न्यायालय के बिना लोगों की सुख शान्ति और उनकी प्रतिष्ठा की गारण्टी नही दे सकता। इन परिस्थितियों मे स्पष्ट हो जाता है कि न्यायिक कार्यवाहियों के निस्पक्ष, न्यायपूर्ण, पारदर्शी संचालन के लिए न्यायालय की अवमानना का सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ है लेकिन इस अवधारणा का कतई यह अर्थ नही है कि लोगों को न्यायालय की न्यायपूर्ण आलोचना करने से वंचित कर दिया जाये। भाषण एवं अभिव्यक्ति की संविधान प्रदत्त स्वतन्त्रता भी हमे न्यायालय के अनुचित कार्यो की न्यायपूर्ण आलोचना का अधिकार देती है।
न्यायालय अवमान विधि विदेशी शासको की अवधारणा है। परतन्त्र भारत में देश की सम्पूर्ण शक्तियाँ देश के आम लोगों में नही बल्कि विदेशी शासन में निहित हुआ करती थी। अनुच्छेद 19 (1) (ए) जैसे प्रावधान देश में लागू नही थे। अब हम आजाद है, हमारा अपना संविधान है इसलिए अब लोकतान्त्रिक भारत में विदेशी शासको की अवधारणा के तहत अधिनियमित अवमानना कानून की उपयोगिता पर नये सिर से विचार की जरूरत है।
आम लोगो का न्यायपालिका पर अटूट विश्वास है। मैने अति साधारण लोगों को अपने विधिपूर्ण अधिकारो की रक्षा के लिए न्यायालय के विश्वास के सहारे पर शक्तिशाली लोगो से टकराते और जीतते देखा है। न्यायालय के विश्वास के सहारे जीतने पर आम लोगो के चेहरे पर आई खुशी को देखने का अवसर न्यायाधीशो को नही मिल पाता इसलिए कई बार वे प्रशासनिक अधिकारियों की तरह सोचने लगते है और उन्हीं की तरह अपनी विवेकीय शक्तियों के श्रेष्ठता भाव को अहंकार में बदलने की गलती करने लगे है। वास्तव में न्यायपालिका के प्रति आम लोगों के विश्वास को अक्षुण्य बनाये रखना खुद न्यायपालिका की अपनी जिम्मेदारी है। उन्हें याद रखना चाहिये कि उनके विरूद्ध अनर्गल दोषारोपण आम लोगो को कतई पसन्द नही, लेकिन उन्हें भी बेहिचक स्वीकार करना चाहिये कि अब उनके बीच न्यायमूर्ति रामास्वामी न्यायमूर्ति सौमित्रसेन, न्यायमूर्ति पी.डी. दिनकरन, न्यायमूर्ति निर्मल यादव जैसो की संख्या बढ रही है। न्यायमूर्ति श्रीमती ज्ञानसुधा मिश्रा एवं न्यायमूर्ति श्री सी.के. प्रसाद की सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष नियुक्ति के समय हुये वाद विवाद ने मानवीय दुर्बलताओं के पक्ष को प्रबल किया है। मान लेना चाहिये कि काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसी मानवीय दुर्बलताओं से ऊपर उठना आज केे सामाजिक प्राणी के लिए पहले की तुलना में ज्यादा दुष्कर है। इसलिए आरोपो, शिकायतों से चिढना नही चाहिये, बल्कि ‘‘निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय’’ की सर्वमान्य अवधारणा को दृष्टिगत रखकर न्यायपूर्ण आलोचना का सम्मान करना चाहिये और अपने आचरण से ऐसा वातावरण बनाना चाहिये जिससे इस व्यवस्था के सम्पर्क में आने वाले लोगो का विश्वास इस व्यवस्था के प्रति और ज्यादा सुदृढ हो सके।

Sunday, 8 June 2014

यातायात संस्कृति विकसित किये बिना सड़क दुर्घटनाओं पर अंकुश सम्भव नही ...................

सड़क दुर्घटना में अपने एक वरिष्ठ सहयोगी को खो देने के कारण मोदी सरकार के लिए सड़क सुरक्षा और दुर्घटनाओ पर प्रभावी अंकुश पूर्व सरकार की तुलना में कही ज्यादा चिन्ता का विषय है और उसी कारण केन्द्रीय मन्त्री गोपीनाथ मुण्डे के आकस्मिक निधन के तत्काल बाद केन्द्रीय सड़क परिवहन मन्त्री श्री नितिन गडकरी ने अपने मन्त्रालय के अधिकारियों की आपात बैठक बुलाई और विचार विमर्श के बाद सम्पूर्ण देश में यातायात व्यवस्था में सुधार के लिए सड़क परिवहन से सम्बन्धित कानूनो और उसके प्रभावी अनुपालन के लिए बुनियादी ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन करने की इच्छा जताई है। अपनी इस इच्छापूर्ति के लिए उन्होंने नया मोटर वाहन कानून बनाने, दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरो में चैराहों पर सी.सी.टी.वी. कैमरे लगाने व्हेकिल ट्रैकिंग सिस्टम लगाकर यातायात नियमों का उल्लंघन करने वालो का आटोमेटिक चालान करने और वाहन के इन्जिन एवं बाडी की डिजायन में समयानुकूल परिवर्तन करने का एलान किया है। उन्होंने यह भी बताया है कि सरकार अमेरिका जापान जर्मनी आदि कई देशो के सड़क सुरक्षा सम्बन्धी कानूनो का 15 दिन के अन्दर अध्ययन करेगी और एक ऐसा साफ्टवेयर विकसित करेगी जिसके द्वारा कई जगहो से ड्राइविंग लायसेन्स बनवाने की प्रवृत्ति पर नकेल लगाई जा सकेगी। 
नितिन गडकरी की इस घोषणा के पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक न्यायमूर्ति श्री एस. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में सड़क सुरक्षा और मोटर वाहन विधि के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन किया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित इस समिति में न्यायमूर्ति श्री राधाकृष्णन के अलावा भूतपूर्व ट्रान्सपोर्ट सचिव श्री एस. सुन्दर एवं सेन्ट्रल रोड रिसर्च इन्स्टीट्यूट के मुख्य वैज्ञानिक डा0 निशि मित्तल शामिल है। यह समिति इन्फोर्समेन्ट, इन्जिीनियरिग, एजूकेशन और इमरजेन्सी केयर जैसे चार मुद्दो पर विचार करेगी और तीन माह के अन्दर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपनी प्रथम रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। समिति सड़को की हालत में सुधार और उन पर बोझ कम करने के उपाय भी सुझायेगी।  
यातायात व्यवस्था को सुधारने और सड़क दुर्घटनाओं पर प्रभावी अंकुश के लिए युद्ध स्तर पर केन्द्रीयकृत प्रयास की जरूरत है और उसमें केन्द्र सरकार की तुलना में राज्य सरकारों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है। राज्य सरकारों के रचनात्मक सहयोग के बिना कुछ भी सम्भव नही है। यातायात नियमो का जानबूझकर उल्लंघन आदतन अपनी साइड पर न चलना, मौका मिलते ही तेज गति से वाहन भगाना व्यवसायिक वाहनों पर आदतन ओवर लोडिग करना और यात्री वाहनों पर निर्धारित संख्या से ज्यादा सवारियाँ बैठाना अपने देश में यातायात संस्कृति है। इन आदतो के कारण होने वाले हादसो का ज्ञान सभी को है। सभी इन आदतो से छुटकारा चाहते है, परन्तु कुछ ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो गई है जिसने सभी को इसे व्यवस्था का एक अंग मानकर उसके साथ सामन्जस्य बिठा कर सड़क पर चलने के लिए मजबूर कर रखा है। आम लोगो की इस आदत पर नियमो के तहत अंकुश लगाना पुलिस कर्मियो की पदीय प्रतिबद्धता है परन्तु यही सब उनकी कमाई का जरिया भी है इसलिए उनके स्तर पर यातायात को व्यवस्थित करने के लिए कभी कोई प्रभावी कार्यवाही नही की जाती बल्कि उनके द्वारा मौके पर सौ पचास रूपये की घूस लेकर यातायात नियमों के उल्लंघन की अनुमति दे दी जाती है। 
सड़क दुर्घटनाओं के लिए वाहन चालक सबसे ज्यादा जिम्मेदार होते है परन्तु उन पर अंकुश के लिए ड्राइविग लायसेन्स जारी करने की वर्तमान लचर व्यवस्था को सुधारने का कोई प्रयास नही किया जाता। घर पर बैठे बैठे लायसेन्स मिल जाता है। रोड टेस्ट की औपचारिकता कागजो पर पूरी कर ली जाती है। इसीलिए वाहन चालक लापरवाह और गैर जिम्मेदार होते है और सड़क पर वाहन चलाने के बुनियादी अनुशासन का जानबूझकर उल्लंघन करते है। उनमें ट्रैफिक सेन्स की भारी कमी होती है। सड़क सुरक्षा के नियमो का उल्लंघन उनकी आदत में शुमार होता है। शहरी क्षेत्रों में ज्यादातर दुर्घटनाये अनुभवहीन टेम्पो चालको के कारण घटित होती है परन्तु उन्हें सड़क पर अनुशाशित रहने और परिवहन के नियम सिखाने की कोई कोशिश नही की जाती। टेम्पो व्यावसायिक वाहन की परिधि में आता है, परतु लाइट मोटर व्हेकिल के लायसेन्स पर टेम्पो चलाये जा रहे है। टेम्पो का परमिट जारी करते समय उसके चालक के लायसेन्स की पड़ताल जरूरी है। 
यातायात व्यवस्था को सुधाने के नाम पर आये दिन दुपहिया वाहनो के कागजात चेक किये जाते है जबकि न्यूनतम दुर्घटनाये दुपहिया वाहन चालको के कारण घटित होती है। अधिकांश दुर्घटनाये टेम्पो, ट्रक, कार चालको की आपराधिक लापरवाही से घटित होती है, परन्तु उनके लायसेन्स चेक नही किये जाते। अनाधिकृत ड्राइविग लायसेन्स लेकर वे धडल्ले से वाहन चलाते है और दुर्घटनाये करते है। राजमार्गो मे कुछ स्थानो पर आये दिन दुर्घटनाये होती है परन्तु उन्हें चिन्हित करके मौके पर सुरक्षा उपाय करने का कोई तन्त्र विकसित नही हो सका है। प्रस्तावित मोटर वाहन कानून में एक ऐसा साफ्टवेयर विकसित करने की बात कही जा रही है जिसके द्वारा सम्पूर्ण देश में ड्राइविग लायसेन्स जारी करने और उसे नियन्त्रित करने की प्रक्रिया को केन्द्रीयकृत किया जा सकेगा।
सड़क दुर्घटनाओं में पुलिस स्टेशन पर आपराधिक धाराओं मे मुकदमे पंजीकृत किये जाते है परन्तु इन मुकदमो की विवेचना आदेशात्मक विधिक प्रावधानों के कारण मजबूरी में की जाती है। विवेचक मालिक द्वारा बताये गये वाहन चालक के विरूद्ध आरोपपत्र प्रेषित करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते है। दुर्घटना के समय वाहन चला रहे व्यक्ति की पहचान सुनिश्चित करने और उसके पास अधिकृत ड्राईविंग लायसेन्स था या नही ? की जानकारी संकलित करना उनकी चिन्ता या उनकी विवेचना का विषय नही होता। मोटर वाहन अधिनियम की धारा 158 (6) में प्रावधान है कि थानाध्यक्ष सड़क दुर्घटना में किसी व्यक्ति की मृत्यु होने या गम्भीर रूप से घायल होने की सूचना प्राप्त होने के तीस दिन के अन्दर जाँच पूरी करके अपनी रिपोर्ट सम्बन्धित मोटर एक्सीडेन्ट क्लेम ट्रिब्यूनल अर्थात जनपद न्यायाधीश के समक्ष भेजेंगे। इस सम्बन्ध मे सर्वोच्च न्यायालय ने भी आदेशात्मक दिशा निर्देश जारी किये है परन्तु किसी थानाध्यक्ष ने आज तक इन दिशा निर्देशों के तहत कोई रिपोर्ट जनपद न्यायाधीश के समक्ष नही भेजी है। थाना नौबस्ता कानपुर नगर में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 279 एवं 304 के तहत दिनांक 06.04.2014 को पंजीकृत मुकदमा अपराध संख्या 245 सन् 2014 में विवेचक ने अभी तक कोई रिपोर्ट जनपद न्यायाधीश के समक्ष प्रेषित नही की। जबकि मुकदमा वादी और अन्य प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों ने विवेचक के समक्ष बयान दिया है कि वाहन चालक ने टक्कर लगने के तत्काल बाद अपनी गाड़ी को नही रोका और घायल महिला को घसीटते हुये काफी दूर तक ले गया और उसके जीवन के बचाने का कोई प्रयास नही किया बल्कि कुचल जाने से उसकी मृत्यु हो सकती है की जानकारी के बावजूद उस पर अपनी गाड़ी के पहिये चढाकर उसे कुचल दिया और उसी कारण उसकी मृत्यु हुई। मुकदमा वादी ने दुर्घटना के समय सी.सी.टी.वी. कैमरे के फुटेज भी विवेचक को उपलब्ध कराये है। यह पूरा मामला वरिष्ठ अधिकारियों के संज्ञान मे है और स्थानीय समाचार पत्रों में भी प्रमुखता से प्रकाशित हुआ है, परन्तु विवेचक महोदय ने इस मुकदमें को अभी तक धारा 304 में तरमीम नही किया है जबकि घटना की प्रकृति और उपलब्ध साक्ष्य गैर इरादतन हत्या का बखान करती है।
सड़क दुर्घटनाओं के मामलो में भारत प्रथम स्थान पर है। ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों की तुलना में ज्यादा दुर्घटनाये होती है। सालाना लगभग डेढ लाख लोग सड़क दुर्घटनाओं में अपना जीवन गँवाते है अर्थात चार सौ अस्सी परिवार प्रतिदिन सड़क दुर्घटनाओं के कारण अनाथ होते है। सड़क दुर्घटनाये किसी भयावह महामारी से कम नही है परन्तु वर्तमान कानूनो के तहत इसे जमानती अपराध माना जाता है। इसीलिए दोषी के मन में कोई भय नही होता। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 279 के तहत छः माह के लिए सजा या एक हजार रूपये का जुर्माना या दोनों और धारा 304 के तहत दो वर्ष की सजा या एक हजार रूपया जुर्माना या दोनो की सजा का प्रावधान है। अर्थात दोषी वाहन चालक केवल एक हजार रूपये का जुर्माना देकर छूट जाता है। आशा की जानी चाहिये कि प्रस्तावित कानून में इस लचर प्रावधान को बदला जायेगा और नशे की हालत में अनियिन्त्रित गति से वाहन चलाने वालो पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 के तहत हत्या की कोटि में न आने वाले मानव वध के अपराध का  मुकदमा चलेगा। 
अपने देश में वाहनो की तादाद बडी तेजी से बढी है परन्तु उसकी तुलना में सड़को का विकाश नही किया गया। राजमार्गो और ग्रामीण इलाको की सड़को की हालत बहुत ज्यादा खराब है। सड़को पर बनाये गये डिवाइडर भी दुर्घटना का कारण बनते है। इसलिए सड़क डिजायन मे भी परिवर्तन की जरूरत है। डिवाइडर कंक्रीट के और काफी ऊचे बनाये जाते है जो वाहन पर चालक के तनिक से अनियन्त्रण पर हादसे का कारण बनते है। विकसित देशो में डिवाइडर ऊँचे नही होते बल्कि उन पर घनी झाडियाँ लगाई जाती है। जिसके कारण डिवाइडर से वाहन टकराने की स्थिति में कम से कम नुकसान होता है।
केवल कानून और तकनीक के बल पर सड़क परिवहन को सुरक्षित नही किया जा सकता और न दुर्घटनाओं पर प्रभावी अंकुश लगाया जा सकता है। इसके लिए समाज में अच्छे और सुरक्षित तरीके से वाहन चलाने की भावना पैदा करने की जरूरत है। तेज रफ्तार वाहन चलाना और दूसरो की परवाह न करना बहुतेरे अपनी शान समझते है। कई बाइक चालक कहीं भी मुड जाने और करतबी अंदाज में लहराते हुये चलने को अपना अधिकार मानते है। प्रायः रात दस बजे से सुबह छः सात बजे के बीच चैराहो पर पुलिस कर्मियो की तैनाती नही होती ऐसे में लोग वेपरवाही से नियमो का उल्लंघन करके दुर्घटना कारित करते है। आँकड़े बताते है कि केवल दिल्ली में इस साल पन्द्रह मई तक एक सौ सैतालिस लोग रात के बारह बजे से सुबह आठ बजे के बीच सड़क दुर्घटनाओं में मारे गये है। इसलिए जरूरी है कि कानूनी प्रावधानों को कठोर बनाया जाये। कठोरता से उनका अनुपालन सुनिश्चित किया जाये, ज्यादा दुर्घटना वाली जगहों को चिन्हित करके वहाँ सी.सी.टी.वी. कैमरे लगाकर नियमित सतर्कता बरती जाये और जमीनी हकीकत को दृष्टिगत रखकर ऐसी नीति बनाई जाये जिसमें साईकिल से चलने वालों और पैदल राहगीरो को भी सड़क पार करने की सुरक्षित सुविधा प्रदान की जा सके।

Sunday, 1 June 2014

कचहरी का लोकतन्त्र प्रापर्टी डीलरों के चंगुल मे ........

कचहरी के लोकतन्त्र पर प्रापर्टी डीलरो का ग्रहण चिन्ता का विषय है। तन्त्र का लोक गायब हो चला है और उसका स्थान धनबल ने ले लिया है। स्थानीय समाचार पत्रों के अनुसार पिछले दिनों सम्पन्न कानपुर बार एसोसियेसन के सालाना चुनाव में करीब चार करोड रूपया व्यय हुआ है। महामन्त्री पद के एक प्रत्याशी ने लगभग पच्चीस लाख रूपये व्यय किये है। उन्होंने पन्द्रह सौ मतदाताओं का सदस्यता शुल्क लगभग साढे चार लाख रूपया जमा किया और करीब दो सौ महिला अधिवक्ताओं को डिनर सेट का चुनाव पूर्व उपहार देने के लिए करीब दो लाख रूपये व्यय किये है। लन्च डिनर और काकटेल पार्टियो का व्यय अलग से किया गया है। संयुक्त मन्त्री पद के सभी प्रत्याशिओ में  अनाप शनाप व्यय की जबर्दस्त होड रही है। महामन्त्री के बाद संयुक्त मन्त्री का पद सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। कचहरी की पूरी युवा शक्ति इस पद पर केन्द्रित हो जाती है। एकदम छात्र संघ की तर्ज पर इस पद का प्रचार होता है। एक एक मतदाता से इस पद का प्रत्याशी या उसका समर्थक कम से कम दस बार जरूर मिलता है। इस बार इस पद के एक प्रत्याशी ने सबसे ज्यादा मँहगे और आकर्षक पोस्टर लगाये। लन्च एवं डिनर के आयोजन में उसने महामन्त्री पद के प्रत्याशियों को कही पीछे छोड दिया है।
बार एसोसियेशन का कोई भी पद लाभ का पद नही है। केवल प्रतिष्ठा एवं मान सम्मान का पद है इसलिए इन पदों पर निर्वाचित होने के लिए लाखो रूपया पानी की तरह बहाने का कोई औचित्य समझ से परे है। 
वकालत आज भी आम लोगों को शोषण एवं अन्याय से निजात दिनाने का माध्यम है। जीविका उपार्जन का साधन है परन्तु अन्य व्यवसायों की तरह अन्धाधुन्ध कमाई का साधन नही है। अपनी शालीनता ईमानदारी ओर व्यवसायिक कुशलता के बल पर शोषित पीडित को न्याय दिलाना अधिवक्ताओं की प्रतिबद्धता है। इसीलिए विधि उसे न्यायालय के अधिकारी के रूप में सम्मान देती है। दोनों पक्षो के अधिवक्ता एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी नही होते बल्कि दोनों अपने अपने स्तरो पर विवाद के न्यायपूर्ण निष्पक्ष समाधान के लिए न्यायालय की सहायता करते है। न्यायालय के समक्ष इससे ज्यादा या इससे कम किसी अधिवक्ता की कोई भूमिका नही होती। इसलिए नही माना जा सकता कि एसोसियेसन का पदाधिकारी होने से आर्थिक लाभ के अनगिनत अवसरों का पिटारा खुलता है, परन्तु दूसरी ओर एक घटना याद आती है, जो कुछ और बयाँ करती है। कुछ वर्ष पूर्व किसी अन्य जनपद से ट्रान्सफर होकर आये एक जनपद न्यायाधीश को अपने समक्ष लगातार कई दिनों तक जमानत के अस्सी प्रतिशत मामलो में तत्कालीन पदाधिकारियों की नियमित उपस्थिति ने चैका दिया था। उनके चैकने से विवाद हुआ और फिर इतिहास में पहली बार न्यायालय का क्षेत्राधिकार कानपुर नगर से फतेहपुर स्थानान्तरित किया गया और उसके कारण वादकारियों और आम अधिवक्ताओं को कठिनाईयों का शिकार होना पड़ा।
बार एसोसियेसन के चुनाव मे अनाप शनाप खर्च का स्त्रोत क्या है। इतरी बडी रकम का इन्तजाम कौन करता है ? कहाँ से करता है ? क्या प्रत्याशी अपनी गाढी कमाई चुनाव में लगा देता है ? या निहित स्वार्थी तत्व अपने लाभ के लिए निवेश मानकार प्रत्याशिओं की मद्द करते है। इन प्रश्नों का उत्तर आसान नही है परन्तु इतना तय है कि अब कोई भी प्रत्याशी वापसी की गारण्टी के बिना केवल यश कीर्ति के लिए इतना रूपया व्यय नही करता। कहीं न कहीं ब्याज सहित वापसी की गारण्टी मिलती है। 
अभी कुछ ही दिन पूर्व एसोसियेसन के एक पूर्व पदाधिकारी की हत्या हुई थी जिसमें अन्य लोगों के साथ एक अधिवक्ता और पत्रकार भी अभियुक्त है। इसके पहले भी एक अधिवक्ता की हत्या हुई थी और उसमें भी एक अधिवक्ता को ही दोषी माना जा रहा था। चर्चाओं के अनुसार दोनों हत्याओं के पीछे जमीन विवाद रहा है। अधिवक्ता वृत्ति उनकी हत्या का कारण नही थी मैंने बतौर शासकीय अधिवक्ता कई लोगों को आजीवन कारावास से दण्डित कराया है। एक जज साहब के बहनोई और सांसद को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के तहत हत्या के एक मामले में बतौर अभियुक्त तलब कराया है परन्तु उसके कारण मैंने किसी के भी मन में अपने प्रति दुर्भावना नही देखी। मेरा अनुभव कहता है कि आम लोग अपने अधिवक्ता की तरह सामने वाले के अधिवक्ता का भी सम्मान करते है। उनसे चिढते नही है। कमोबेश सभी इन बातों को सच मानते है इसलिए निश्चित है कि विद्वान अधिवक्ताओं की हत्या के पीछे उसकी अधिवक्ता वृत्ति नही बल्कि अन्य कोई कारण होता है। इन कारणों की तह तक जाना  और फिर उनका सार्थक समाधान खोजना समय की जरूरत है।
आज कचहरी में कुछ ऐसे लोगों को भी चेम्बर आवंटित हो गये है जो अदालत के समक्ष अपने क्लाइण्ट के लिए तर्क वितर्क का विधि व्यवसाय नही करते बल्कि खुले आम विवादास्पद प्रापर्टी खरीदते बेचते है। शुरू में इस प्रकार के लोग चुनाव में परिदृश्य के पीछे से अपनी गोटे बैठाते थे परन्तु अब संकोच खत्म हो गया है क्योंकि कचहरी की राजनैतिक सक्रियता उन्हें प्रापर्टी डीलिंग के धन्धे में अपने अन्य प्रतिद्वन्दियों पर बढत दिला देती है। प्रशासनिक अधिकारियों के साथ उठने बैठने के सहज अवसर उपलब्ध हो जाते है। कचहरी की राजनीति में अधिवक्ता के रूप में प्रापर्टी डीलरों का बढता दखल चिन्ता का विषय है। इस प्रकार के लोग एक चुनाव समाप्त होने के तत्काल बाद अगले चुनाव की तैयारी शुरू कर देते है। इसी प्रकार के लोगों ने एसोसियेसन की गरिमा गिराई है और उसी कारण समाज में अधिवक्ताओ की प्रतिष्ठा कम हुई और उनकी सार्वजनिक छवि खराब हुई है इसलिए विधि व्यवसाय को प्रापर्टी डीलरों से मुक्त कराना आज की सबसे बडी जरूरत है। प्रापर्टी डीलिंग का व्यवसाय विधि व्यवसाय की परिधि में नही आता है। सन्तोष की बात है कि अपने पेशे में आ गई इस बीमारी को बुजुर्ग अधिवक्ताओं ने पहचान लिया है और उसके निर्मूलन के पहले कदम के रूप मे इस बार उन्होंने पहले से ज्यादा मतदान किया है जबकि मतदान वाले दिन सर्वाधिक तपन थी और एक किलो मीटर दूर पैदल जाकर मतदान करना था।
मानना होगा कि अब समाज के साथ कचहरी का भी चरित्र बदला है। वास्तव में व्यथित पक्षकार अब कचहरी आने से डरता है। न्यायालय का अुनचित सहारा लेकर आम लोगों के साथ अन्याय करने वाले अराजक तत्वों की संख्या तेजी से बढी है। एकपक्षीय निषेधाज्ञा आदेश के लिए ज्यादातर वाद अब बिल्डर दाखिल करते है जो लेखपालों की पदीय प्रतिबद्धता खरीद कर निर्धन किसानों की जमीन जबरन हथिया लेते है और फिर उन्हें निषेधाज्ञा वाद लम्बे समय तक लम्बित बनाये रखकर उन्हें अपनी शर्तों पर समझौता करने के लिए विवश करते है। ऐसे लोग निवेश मानकर चुनाव में प्रत्याशियों की आर्थिक मद्द करते है। इस प्रकार के तत्वों को कचहरी में प्रभावहीन रखने के लिए आवश्यक है कि हम सब अपना सदस्या शुल्क खुद जमा करे। पिछले एक दशक से अपना सदस्यता शुल्क खुद जमा न करने की प्रवृत्ति बढी है। प्रत्याशियों के लिए अनिवार्य हो गया है कि वे अपने सम्भावित समर्थकों का सदस्यता शुल्क चुनाव के पहले खुद जमा कराये। एक अधिवक्ता का सदस्यता शुल्क तीन सौ रूपया होता है और यदि एक हजार सदस्यो का सदस्यता शुल्क जमा कराना पडा तो प्रत्याशी को करीब तीन लाख रूपये औपचारिक चुनाव प्रचार प्रारम्भ होने के पहले ही व्यय करना पडता है। इस पैसे की व्यवस्था के लिए प्रत्याशियों को किसी न किसी धन्धेबाज की मद्द लेने के लिए मजबूर होना पडता है। उनकी इस मजबूरी के लिए हम सब जिम्मेदार है।
कानपुर की संघर्ष प्रधान राजनीति सम्पूर्ण देश में अनुकरणीय मानी जाती थी। इस सबमे कानपुर बार एसोसियेसन का उल्लेखनीय योगदान इतिहास में दर्ज है। देश को प्रथम विधि मन्त्री, मध्य प्रदेश को प्रथम मुख्य मन्त्री, सर्वोच्च न्यायालय को मुख्य न्यायाधीश और उच्च न्यायालय को कई न्यायाधीश देने का गौरव एसोसियेसन की पूँजी है जो उसे अन्यों से अलग श्रेष्ठ होने का अहसास कराती है। आजकल बार एसोसियेसन के चुनावों की तुलना छात्र संघ से की जाती है जो एकदम गलत है। डी.ए.वी. कालेज छात्र संघ के चुनाव में पीपल के पत्तों पर नाम की मोहर लगाकर प्रचार किया जाता था। पी.डब्ल्यू.डी. में ठेकेदारी करने वाले पेशेवर छात्र नेताओं का छात्र संघों में दखल बढने के बाद पूरा छात्र आन्दोलन अराजकता का पर्याय बन गया है। हम सबको भी समझना चाहिये कि अवैध साधनों से कमाये गये धन का चुनाव में प्रयोग अपने साथ कई अनिवार्य बुराईयों की अपरिहार्यता का कारण बनता है। सदस्यता की एक मुश्त संघटित अदायगी अवैध साधनों से कमाये गये धन के बढते प्रभाव का प्रतिफल  है। न्यूनतम पाँच लाख रूपये शुरूआती व्यय करके अपने आपको जिताऊ प्रत्याशी सिद्ध करने की अनिवार्यता ने कचहरी के लोकतन्त्र से लोक को विलुप्त कर दिया है। आम अधिवक्ता की काबिलियत अब केवल वोट देने की रह गई है। चुनाव लडने के बारे में सोचना भी उसके लिए अपराध है।
अध्यक्ष एवं महामन्त्री के लिए क्रमशः 25 और 15 वर्ष के अनुभव की अनिवार्यता लागू करने के पीछे मंशा थी कि जो लोग इन पदों पर चुनाव लडेगे उनके लिए पहचान का कोई संकट नही होगा। उन्हें अपनी योग्यता साबित करने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नही करने होगे। इतनी लम्बी अवधि से विधि व्यवसाय में सक्रिय होने के कारण उनका आचरण व्यवहार, व्यवसायिक कुशलता और जनहित के मुद्दो पर उनकी प्रतिबद्धता से सभी परिचित होते है इसलिए उन्हे लम्बे चैडे पोस्टर लगाने या जुलूस निकालकर अपना टेम्पो हाई है का उद्घोष नही करना चाहिये। विजिटिंग कार्ड पर मोहर लगाकर अपने नाम को प्रसारित प्रचारित करना उनके लिए पर्याप्त है। पहले ऐसा ही होता था किसी भी पद का प्रत्याशी ढोल नगाडा नही बजवाता था परन्तु अब सभी पदो के प्रत्याशी लम्बे लम्बे बैनर टाँगते है, मंहगे गिफ्ट बाँटते है लन्च डिनर काकटेल में लाखों रूपया व्यय करते है। स्थानीय स्तर पर इस बीमारी का इलाज सम्भव नही है। बार काउन्सिल को खुद हस्तक्षेप करना होगा और किसी भी मूल्य पर वोट बैंक बनाने या बनाये रखने का मोह त्यागकर सभी पदों के लिए चुनाव खर्च की सीमा निर्धारित करनी होगी। अभी समय है, चेतिये अन्यथा छात्र संघो की तरह बार एसोसियेसन को प्रापर्टी डीलरों का संघटित गिरोह बनने से कोई रोक नही सकेगा और फिर हम सभी हाथ मलते रह जायेंगे।