Sunday, 15 June 2014

कन्टेमप्ट आफ कोर्ट दोषपूर्ण अवधारणा विधि में बदलाव जरूरी .........

न्यायालय की अवमानना के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश बार काउन्सिल के आवाहन पर सम्पूर्ण प्रदेश में अधिवक्ताओं ने दिनांक 10 जून दिनांक 11 जून दिनांक 12 जून 2014 को लगातार तीन दिन कार्य बहिस्कार करके अपना विरोध दर्ज कराया है। अवमानना जैसे संवेदनशील न्यायिक मुद्दे पर बार काउन्सिल का आक्रामक रवैया गम्भीर चिन्तन का विषय है। प्रदेश में पहली बार अवमानना विधि सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन का कारण बनी है। केन्द्रीय कानून मन्त्री रहे प्रख्यात अधिवक्ता श्री शान्ति भूषण ने सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीशो पर भ्रष्टाचार में संलिप्त रहने का आरोप लगाकर अपने विरूद्ध अवमानना की कार्यवाही को आमन्त्रित किया है। इस मुद्दे पर तहलका मैगजीन के सम्पादक और अधिवक्ता श्री प्रशान्त भूषण पहले से ही अवमानना कार्यवाही का सामना कर रहे है और न्यायाधीशो पर लगाये गये आरोपो पर एकदम अडिग है अर्थात उनकी ओर से क्षमा याचना करने या आरोप वापस लेने की कोई सम्भावना नही है।
पदम भूषण से सम्मानित मनोनीत राज्य सभा सदस्य एवं पूर्व सालिसिटर जनरल श्री फाली एस नरीमन ने अपनी पुस्तक ‘‘ द स्टेट आफ द नेशन’’ में कमबेटिंग करप्शन इन द हायर ज्यूडिसरी पर चर्चा करते हुये बताया है कि सर्वोच्च न्यायालय की कोर्ट संख्या 2 के समक्ष मिसलेनियस डे के दिन एक वादकारी स्वयं उपस्थित (इन परशन) होकर अपने मामले के गुण दोष पर तेज आवाज में अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहा था कोर्ट ने उसे तेज आवाज में न बोलने के लिए कहा लेकिन वह सुन नही पाया और किसी एक बिन्दु, जो उसकी दृष्टि में सुसंगत था पर लगातार तेज आवाज में जोर देता रहा। कोर्ट नाराज हो गयी और कोर्ट मार्शल को उसे न्यायालय से बाहर करने के लिए आदेशित किया। किसी वादकारी को न्यायालय से जबरन बाहर करने के आदेश ने श्री नरीमन को व्यथित किया उन्होंने तत्काल कोर्ट मार्शल को रोका और कहा कि न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहे किसी वादकारी को जबरन कोर्ट रूम से बाहर नही किया जा सकता। कोर्ट मार्शल ने उनकी नही सुनी। वादकारी को जबरन कोर्ट से बाहर कर दिया गया और उसका मुकदमा भी खारिज हो गया। श्री नरीमन ने इस घटना की शिकायत तत्कालीन चीफ जस्टिस श्री वी.एन. खरे से की। न्यायमूर्ति श्री खरे ने वादकारी से उसके साथ हुये दुव्र्यवहार के लिए न्यायालय की तरफ से क्षमा याचना की और उसके मुकदमें को रिस्टोर करने का आदेश पारित करके सुनवाई के लिए उसी बेंच के समक्ष भेज दिया।
मुख्य न्यायमूर्ति श्री हिदायतुल्लाह ने आर.सी. कपूर बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए.आई.आर.-1970-सुप्रीम कोर्ट - पेज 1318) में प्रतिपादित किया था कि न्यायपूर्ण आलोचना के विरूद्ध अन्य संस्थाओं की तरह न्यायालयो को भी कोई विशेषाधिकार प्राप्त नही है। अपनी निष्पक्षता, पारदर्शिता, योग्यता, ज्ञान और कुशलता के बावजूद वे सदैव अपने आपके सही होने का दावा नही कर सकते। उनके द्वारा भी गलती होने की सम्भावना बनी रहती है। सर्वोच्च न्यायालय के एक अन्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री वी.आर. कृष्णा अय्यर ने भी स्पष्ट रूप से कहा है कि देश में कोई भी संविधान के ऊपर नही है। सभी को अपनी न्यायपूर्ण आलोचना सुननी चाहिये। वास्तव में विदेशी शासन के दोरान बनी अवमानना विधि में ‘‘अवमानना’’ को परिभाषित नही किया गया था। स्वतन्त्र भारत में पहली बार श्री एच.एन. सान्याल कमेटी ने इस कमी को दूर करने की अनुशंशा की। उनकी रिपोर्ट के आधार पर कन्टेमप्ट आफ कोर्ट एक्ट 1971 पारित हुआ। इस अधिनियम मे अवमानना की परिधि को सीमित किया गया। निर्दोष प्रकाशन उसके वितरण निष्पक्ष एवं वास्तविक रिपोर्टिंग न्यायिक कार्यवाहियों की न्यायपूर्ण आलोचना अधीनस्थ न्यायालयो के न्यायिक अधिकारियों की शिकायत आदि को अवमानना की परिधि से बाहर रखा गया है।
न्यायालय के आदेशों के अनुपालन, निष्पक्षता एवं पारदर्शिता से न्यायिक कार्यवाहियो के संचालन और न्यायालय परिसर मे भय मुक्त वातावरण बनाये रखने के लिए अवमानना की शक्तियों और कड़ाई से उसके प्रयोग पर किसी को आपत्ति नही है। कोई नही चाहता कि न्यायालय और न्यायिक अधिकारियों के विरूद्ध किसी स्तर पर कोई अनर्गल दोषारोपण करे। समाज की स्थायी सुख शान्ति के लिए आवश्यक है कि न्यायालय के निर्णयों का अनुपालन हर हाल में सुनिश्चित कराया जाये और इसमें अवरोध पैदा करने वालो को दण्डित किया जाये, परन्तु न्यायालय की अधिकारिता को स्कैण्डिलाइज करने के आरोप मे अवमानना कार्यवाही को लेकर असहमति के स्वर तेज हो गये है। उत्तर प्रदेश बार काउन्सिल के आवाहन पर अधिवक्ताओं का सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन इसी असहमति का परिचायक है।
अवमानना विधि पर पुनर्विचार की वकालत करते हुये सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री मार्केण्डेय काटजू ने स्पष्ट किया है कि लोकतन्त्र में लोग सर्वोच्च है तद्नुसार न्यायाधीश, सांसद, विधायक, मन्त्री, नौकरशाह आदि सभी ‘‘आम लोगों’’ के नौकर है। संविधान में भी कहा गया है कि हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिको को सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते है। संविधान सभा के उपर्युक्त शब्द खुद बताते है कि संविधान की प्रक्रति और चरित्र लोकतन्त्रात्मक है और उसकी शक्तियाँ आम लोगों मे निहित है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि देश के सभी अधिकारी प्राधिकारी लोगों के अधीन है और उनके नौकर है इसलिए यदि नौकर नियमानुसार कार्य नही करते तो मालिक को अधिकार है कि वह अपने नौकरो की आलोचना करे। लोकतन्त्र में लोगों को न्यायाधीशो की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त है। 
संविधान लोगों द्वारा लोगों के लिए बनाया गया है और संविधान ने आम लोगों के आपसी विवादों और उनकी समस्याओं के न्यायपूर्ण समाधान के लिए न्यायालय निर्मित किये है। समाज में लोगों के बीच विवाद उत्पन्न होते रहते है और यदि उनके न्यायपूर्ण समाधान के लिए कोई फोरम नही बनाया गया होता तो लोग अपनी समस्याओं या विवाद के समाधान के लिए हिंसक साधनों का सहारा लेते। ऐसी दशा में एक सशक्त सेफ्टी वाल के रूप में न्यायालयों को देख जाना चाहिये जो लोगों को अपनी समस्याओं या विवाद के गुणदोष पर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर देते है और सुस्थापित विधि सिद्धान्तों के तहत समाधान के लिए आदेश पारित करते है। कोई समाज न्यायालय के बिना लोगों की सुख शान्ति और उनकी प्रतिष्ठा की गारण्टी नही दे सकता। इन परिस्थितियों मे स्पष्ट हो जाता है कि न्यायिक कार्यवाहियों के निस्पक्ष, न्यायपूर्ण, पारदर्शी संचालन के लिए न्यायालय की अवमानना का सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ है लेकिन इस अवधारणा का कतई यह अर्थ नही है कि लोगों को न्यायालय की न्यायपूर्ण आलोचना करने से वंचित कर दिया जाये। भाषण एवं अभिव्यक्ति की संविधान प्रदत्त स्वतन्त्रता भी हमे न्यायालय के अनुचित कार्यो की न्यायपूर्ण आलोचना का अधिकार देती है।
न्यायालय अवमान विधि विदेशी शासको की अवधारणा है। परतन्त्र भारत में देश की सम्पूर्ण शक्तियाँ देश के आम लोगों में नही बल्कि विदेशी शासन में निहित हुआ करती थी। अनुच्छेद 19 (1) (ए) जैसे प्रावधान देश में लागू नही थे। अब हम आजाद है, हमारा अपना संविधान है इसलिए अब लोकतान्त्रिक भारत में विदेशी शासको की अवधारणा के तहत अधिनियमित अवमानना कानून की उपयोगिता पर नये सिर से विचार की जरूरत है।
आम लोगो का न्यायपालिका पर अटूट विश्वास है। मैने अति साधारण लोगों को अपने विधिपूर्ण अधिकारो की रक्षा के लिए न्यायालय के विश्वास के सहारे पर शक्तिशाली लोगो से टकराते और जीतते देखा है। न्यायालय के विश्वास के सहारे जीतने पर आम लोगो के चेहरे पर आई खुशी को देखने का अवसर न्यायाधीशो को नही मिल पाता इसलिए कई बार वे प्रशासनिक अधिकारियों की तरह सोचने लगते है और उन्हीं की तरह अपनी विवेकीय शक्तियों के श्रेष्ठता भाव को अहंकार में बदलने की गलती करने लगे है। वास्तव में न्यायपालिका के प्रति आम लोगों के विश्वास को अक्षुण्य बनाये रखना खुद न्यायपालिका की अपनी जिम्मेदारी है। उन्हें याद रखना चाहिये कि उनके विरूद्ध अनर्गल दोषारोपण आम लोगो को कतई पसन्द नही, लेकिन उन्हें भी बेहिचक स्वीकार करना चाहिये कि अब उनके बीच न्यायमूर्ति रामास्वामी न्यायमूर्ति सौमित्रसेन, न्यायमूर्ति पी.डी. दिनकरन, न्यायमूर्ति निर्मल यादव जैसो की संख्या बढ रही है। न्यायमूर्ति श्रीमती ज्ञानसुधा मिश्रा एवं न्यायमूर्ति श्री सी.के. प्रसाद की सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष नियुक्ति के समय हुये वाद विवाद ने मानवीय दुर्बलताओं के पक्ष को प्रबल किया है। मान लेना चाहिये कि काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसी मानवीय दुर्बलताओं से ऊपर उठना आज केे सामाजिक प्राणी के लिए पहले की तुलना में ज्यादा दुष्कर है। इसलिए आरोपो, शिकायतों से चिढना नही चाहिये, बल्कि ‘‘निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय’’ की सर्वमान्य अवधारणा को दृष्टिगत रखकर न्यायपूर्ण आलोचना का सम्मान करना चाहिये और अपने आचरण से ऐसा वातावरण बनाना चाहिये जिससे इस व्यवस्था के सम्पर्क में आने वाले लोगो का विश्वास इस व्यवस्था के प्रति और ज्यादा सुदृढ हो सके।

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