गर्व से कहो हम ब्राह्मण है, चाणक्य के उत्तराधिकारी है, का उद्द्घोेष करने वाले अपने उत्तर प्रदेश से राज्य सभा सदस्य श्री बृजेश पाठक ने सांसद होने के नातेे फर्जी बिल लगाकर बेईमानी पूर्वक 2.20 लाख रूपये का चूना संसद को लगाया है। सी0बी0आई ने श्री पाठक सहित छः सांसदो के विरूद्ध फर्जी दस्तावेज बनाने और उनके फर्जी होने की जानकारी के बावजूद उन्हें एकदम सही दस्तावेज के रूप में प्रयोग करके बेईमानीपूर्वक धनराशि प्राप्त करने के आरोप में मुकदमा पंजीकृत कराया है। इस घटना को लेकर मैं शर्मिन्दा होना चाहता था, परन्तु उसी समय शर्म ने मेरे मन से कहा कि इस प्रकार के विषय अब उससे (शर्म) ऊपर उठ चुके है और उन पर शर्मिन्दा होकर आप हमें शर्मिन्दा न करें। शर्म ने मेरे मन को बताया कि इन चीजों को भ्रष्टाचार की दृष्टि से देखना अपराध है। आपको याद नही है कि अन्ना आन्दोलन के दौरान संसद मे अपराधी बैठते है की बात कहे जाने पर संसद के दोनों सदनों के सदस्य आग बबूला हो गये थे और एक स्वर में सभी ने इसकी निन्दा की थी, परन्तु अपने ही साथी द्वारा फर्जी बिल लगाकर राजकोष को अनुचित क्षति पहुँचाने वाली घटना के बीच वें शर्म को नही आने देते। वे कुछ दिन बाद इस घटना को वित्तीय अनियमितता बताकर अपने साथी के बचाव का सम्मानजनक रास्ता निकाल लेंगे या कहेंगे कि सत्तारूढ दल सी0बी0आई0 का दुरूपयोग करके उन्हें परेशान कर रहा है लेकिन कोई चाणक्य को याद नही करेगा जिसने निजी अध्ययन अध्यापन के लिए भी राजकोष का उपयोग नही किया।
साम्यवादी नेता सोमनाथ चटर्जी ने अपने लोक सभा अध्यक्ष रहने के दौरान संसद में प्रश्न पूँछने के लिए पैसा माँगने के आरोपी सांसदों को संसद से निष्कासित करने का साहस दिखाया था, परन्तु निष्कासित सांसदों में से एक राजाराम पाल को कानपुर देहात (अकबरपुर) की जनता ने फिर से चुनकर लोक सभा भेज दिया था। संसद में प्रश्न पूँछने के लिए सांसद द्वारा पैसा माँगने की बात सोची भी नही जा सकती थी।, जनहित के मुद्दो पर संसद में सरकार को घेरना़ प्रश्न पूँछना चर्चा परिचर्चा करना सांसद जी की पदीय प्रतिबद्धता है। मतदाताओं ने उन्हें इसी काम के लिए चुना है। संसद में प्रश्न की अपनी महत्ता है इसीलिये कानपुर की श्रमिक समस्या पर राज्य सभा में नियमो के तहत प्रश्न पूँछने की अनुमति न मिलने की स्थिति मे प्रख्यात समाजवादी नेता राजनारायण श्रमिको को तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी0वी0 गिरि के आवास पर ले गये। श्रमिको को उनसे मिलवाया और उसके बाद राज्य सभा में श्रमिको की समस्या पर सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर किया गया।
बृजेश पाठक, महमूद मदनी, लाल मिंग, रेणु बाला, डी. बन्दोपाध्याय जे.पी.एन. सिंह जैसो की हरकतों को देखकर लगता है कि क्या अब हमारी संसद सदा सदा के लिए मधु लिमये जैसे सांसदो के लिए तरसती रहेगी। अब क्या कोई ऐसा राजनेता सामने नही आयेगा जो सांसद के नाते सरकार या अन्य किसी से उपकृत होना स्वीकार न करे। लोक सभा चुनाव हारने के बाद मधु जी अपने ग्रह नगर वापस जाना चाहते थे। इन्दिरा जी ने उनसे दिल्ली में ही रहने का निवेदन किया और सांसद के रूप में उन्हें आंवटित आवास खाली न करने के लिए रहा। उन्होंने उपकृत होने से इन्कार कर दिया और उसके बाद भूतपूर्व सांसदों को नई दिल्ली में आवास आवंटित करने की नीति बनाई गई। आज सभी दलों में ऐसे सांसदों की भरमार होती जा रही है जो अपने संसदीय क्षेत्र के हितों के मूल्य पर निजी लाभ हेतु सरकार से उपकृत होने के लिए तत्पर रहते है। उन्हें कभी कोई शर्म नही आती है।
आज विधायको सांसदो के वेतन भत्तो आदि में अभूतपूर्व वृद्धि हो गई है। एक भी दिन सांसद रहे लोगों को आजीवन पेन्शन की सुविधा है। रेल एवं हवाई किराये में विशेष रियायते उन्हें दी गई है। जन प्रतिनिधि के नाते अपने संसदीय क्षेत्र की समस्याओं के समाधान मे सहभागी होने के लिए उन्हें पर्याप्त सुविधाये उपलब्ध है परन्तु अपने लालच पर उनका कोई नियन्त्रण नही है इसीलिये उपलब्ध सुविधायें उन्हे अपर्याप्त लगती है। परतन्त्र भारत में काँगे्रस ने निर्णय लिया था कि उनके मंत्री कराची अधिवेशन के प्रस्ताव का सम्मान करते हुये पाँच सौ रूपये से ज्यादा वेतन नही लेगे। अनुशासन और गाँधीवादी जीवन शैली का पालन करते हुये आदतन खादी पहनेंगे। काँग्रेस मन्त्रियों के इस आचरण ने उन्हें अन्य मन्त्रियों की तुलना में विशिष्ट बनाया और आभास दिया कि वे वास्तव में दरिद्र नारायण का प्रतिनिधित्व करते है। डाक्टर राम मनोहर लोहिया समाजवादी मन्त्रियों सांसदो एवं विधायको से भी ऐसे ही आचरण की अपेक्षा करते थे। मधु लिमये राजनारायण जनेश्वर मिश्रा मोहन सिंह जैसे उनके अनुयायी उनकी अपेक्षा पर खरे उतरे है। स्वतन्त्र भारत की राजनीति के शुरूआती दौर में संसद या विधान सभा के अधिवेशनों या संसदीय समिति की बैठको के दौरान बँगले दिये जाते थे। धीरे धीरे सांसद या विधायक के नाते मिलने वाले बँगले स्थायी आवास बना लिये गये और कई लोगों ने अपने बँगलों के बड़े भाग को किराये पर उठाकर कमाई शुरू कर दी। राजनैतिक दलों ने अपने सांसदों विधायको की इस लालची प्रवृत्ति पर कभी अंकुश नही लगाया और दुष्परिणाम के रूप में कभी प्रश्न पूँछने के नाम पर पैसा माँगने, सांसद निधि के कामों में ठेकेदारो से कमीशन लेने और फर्जी यात्रा बिलों के आधार पर अनुचित लाभ प्राप्त करने की घटनाओं में इजाफा हुआ है। कानपुर नगर निगम में एक नगर प्रमुख ने नियमों एवं परम्पराओं को ताक पर रखकर खुद अपने लिए एक मकान आवंटित कर लिया। उनकी मृत्यु के बाद भी उनके परिजनों का उस पर कब्जा बना हुआ है। साम्यवादी सांसदों को छोडकर अधिकांश सांसद महँगी कारों से संसद आते है। कोई भी राजनैतिक दल अपने सांसदों को संसद की वैन से संसद आने या आदतन सादगी से रहने के लिए नही कहता।
गाँधी को सम्बोधित एक पत्र में तिलक ने लिखा कि ‘‘दुनिया साधुओं के लिए नही है’’ के जवाब में गाँधी ने उन्हें बताया कि दुनिया को साधुओं के लिए न समझना बौद्धिक आलस्य है। हम यह समझते आये है कि व्यक्तिगत सत्य और राजनैतिक सत्य का मापदण्ड जुदा होता है। वैयक्तिक सदाचार शास्त्र की दृष्टि से जिस काम को हम घृणा की दृष्टि से देखते है, उसी काम को हम राजनैतिक दृष्टि से अच्छा समझते है। धोखा देना, विश्वासघात करना, झूठ बोलना सदाचार शास्त्र की दृष्टि से पाप है परन्तु राजनैतिक व्यक्ति यदि विश्वासघात, झूठ, दम्भ का सहारा लेता है तो उसे कोई बुरा नही मानता। गाँधी, तिलक युग में इस प्रकार की बातें बौद्धिक विचार विमर्श तक सीमित रही होंगी, परन्तु वर्तमान राजनैतिक माहौल में विश्वासघात, झूठ और दम्भ जैसे अवगुणों का सार्वजनिक महत्व तेजी से बढ़ा है। अब सार्वजनिक जीवन में मधु लिमये जैसे लोग नही दिखते जिन्हें देखकर विश्वास होता था कि अपनी निष्ठाओं, आस्थाओं और सिद्धान्तों पर जिया जा सकता है। समझौता करने और जीते जी अपने को खोने की जरूरत नही है। मधु लिमये ने भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया। गोवा की पुर्तगाली राज से मुक्ति तक आजादी की लड़ाई लड़ते रहे लेकिन स्वतन्त्रा संग्राम सेनानी का ताम्र पत्र नही लिया। पेन्शन लेने की तो बात ही नही उठती। आपातकाल के दौरान लोक सभा का कार्यकाल पाँच वर्ष से छः वर्ष किये जाने के विरोध में उन्होंने लोक सभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। पण्डारा पार्क में जिस छोटे से घर में रहना उन्होंने स्वीकार किया था उसका भी किराया उन्होंने हमेशा चुकाया। संसद के पुस्तकालय में पढ़ने और संदर्भ देखने के लिए भी तिपहिया स्कूटर से जाते जिसे सुरक्षा वाले गेट के बाहर ही रोक देते। उनके लिए एक ठीक ठाक घर, वाहन और दूसरी रोजमर्रा की सुविधायें सुलभ करवाने में न किसी को हिचक होती न किसी का कोई अहसान। लेकिन मधु लिमये ने स्वतन्त्रा संग्राम सेनानी, पूर्व सांसद और राजनैता बने रहने के बजाय साधारण नागरिक बने रहना पसन्द किया जिसके इस देश मेें कोई विशेषाधिकार नही माने जाते।
तुलसीदास ने मन्थरा से कहलवाया था कि ‘‘कोऊ नृप होय, हमे का हानी, चेरी छांडि बनहीं न रानी’’। अपने राजनेताओ, नौकरशाहो और उद्योगपतियों के त्रिकोण ने आम लोगों को मन्थरा की मानसिकता मे जीने के लिए विवश कर दिया है। इसीलिए ‘‘बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है’’ की कहावत राजनैतिक क्षेत्र में पूरी तरह लागू होती है। सभी राजनैतिक दल स्थानीय कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करके बृजेश पाठक, शशि भूषण सिंह, अतीक अहमद, पप्पू यादव जैसो को बेहिचक टिकट देते है और फिर यही लोग जीतकर जनता की छाती पर मूँग दरते है। ऐसे लोगों को संसद और विधान सभाओं से बाहर रखने के लिए आवश्यक है कि अब हम अपना वोट उसी प्रत्याशी को दे जिसमें सोचने और बोलने का साहस हो।
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