Sunday, 1 June 2014

कचहरी का लोकतन्त्र प्रापर्टी डीलरों के चंगुल मे ........

कचहरी के लोकतन्त्र पर प्रापर्टी डीलरो का ग्रहण चिन्ता का विषय है। तन्त्र का लोक गायब हो चला है और उसका स्थान धनबल ने ले लिया है। स्थानीय समाचार पत्रों के अनुसार पिछले दिनों सम्पन्न कानपुर बार एसोसियेसन के सालाना चुनाव में करीब चार करोड रूपया व्यय हुआ है। महामन्त्री पद के एक प्रत्याशी ने लगभग पच्चीस लाख रूपये व्यय किये है। उन्होंने पन्द्रह सौ मतदाताओं का सदस्यता शुल्क लगभग साढे चार लाख रूपया जमा किया और करीब दो सौ महिला अधिवक्ताओं को डिनर सेट का चुनाव पूर्व उपहार देने के लिए करीब दो लाख रूपये व्यय किये है। लन्च डिनर और काकटेल पार्टियो का व्यय अलग से किया गया है। संयुक्त मन्त्री पद के सभी प्रत्याशिओ में  अनाप शनाप व्यय की जबर्दस्त होड रही है। महामन्त्री के बाद संयुक्त मन्त्री का पद सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। कचहरी की पूरी युवा शक्ति इस पद पर केन्द्रित हो जाती है। एकदम छात्र संघ की तर्ज पर इस पद का प्रचार होता है। एक एक मतदाता से इस पद का प्रत्याशी या उसका समर्थक कम से कम दस बार जरूर मिलता है। इस बार इस पद के एक प्रत्याशी ने सबसे ज्यादा मँहगे और आकर्षक पोस्टर लगाये। लन्च एवं डिनर के आयोजन में उसने महामन्त्री पद के प्रत्याशियों को कही पीछे छोड दिया है।
बार एसोसियेशन का कोई भी पद लाभ का पद नही है। केवल प्रतिष्ठा एवं मान सम्मान का पद है इसलिए इन पदों पर निर्वाचित होने के लिए लाखो रूपया पानी की तरह बहाने का कोई औचित्य समझ से परे है। 
वकालत आज भी आम लोगों को शोषण एवं अन्याय से निजात दिनाने का माध्यम है। जीविका उपार्जन का साधन है परन्तु अन्य व्यवसायों की तरह अन्धाधुन्ध कमाई का साधन नही है। अपनी शालीनता ईमानदारी ओर व्यवसायिक कुशलता के बल पर शोषित पीडित को न्याय दिलाना अधिवक्ताओं की प्रतिबद्धता है। इसीलिए विधि उसे न्यायालय के अधिकारी के रूप में सम्मान देती है। दोनों पक्षो के अधिवक्ता एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी नही होते बल्कि दोनों अपने अपने स्तरो पर विवाद के न्यायपूर्ण निष्पक्ष समाधान के लिए न्यायालय की सहायता करते है। न्यायालय के समक्ष इससे ज्यादा या इससे कम किसी अधिवक्ता की कोई भूमिका नही होती। इसलिए नही माना जा सकता कि एसोसियेसन का पदाधिकारी होने से आर्थिक लाभ के अनगिनत अवसरों का पिटारा खुलता है, परन्तु दूसरी ओर एक घटना याद आती है, जो कुछ और बयाँ करती है। कुछ वर्ष पूर्व किसी अन्य जनपद से ट्रान्सफर होकर आये एक जनपद न्यायाधीश को अपने समक्ष लगातार कई दिनों तक जमानत के अस्सी प्रतिशत मामलो में तत्कालीन पदाधिकारियों की नियमित उपस्थिति ने चैका दिया था। उनके चैकने से विवाद हुआ और फिर इतिहास में पहली बार न्यायालय का क्षेत्राधिकार कानपुर नगर से फतेहपुर स्थानान्तरित किया गया और उसके कारण वादकारियों और आम अधिवक्ताओं को कठिनाईयों का शिकार होना पड़ा।
बार एसोसियेसन के चुनाव मे अनाप शनाप खर्च का स्त्रोत क्या है। इतरी बडी रकम का इन्तजाम कौन करता है ? कहाँ से करता है ? क्या प्रत्याशी अपनी गाढी कमाई चुनाव में लगा देता है ? या निहित स्वार्थी तत्व अपने लाभ के लिए निवेश मानकार प्रत्याशिओं की मद्द करते है। इन प्रश्नों का उत्तर आसान नही है परन्तु इतना तय है कि अब कोई भी प्रत्याशी वापसी की गारण्टी के बिना केवल यश कीर्ति के लिए इतना रूपया व्यय नही करता। कहीं न कहीं ब्याज सहित वापसी की गारण्टी मिलती है। 
अभी कुछ ही दिन पूर्व एसोसियेसन के एक पूर्व पदाधिकारी की हत्या हुई थी जिसमें अन्य लोगों के साथ एक अधिवक्ता और पत्रकार भी अभियुक्त है। इसके पहले भी एक अधिवक्ता की हत्या हुई थी और उसमें भी एक अधिवक्ता को ही दोषी माना जा रहा था। चर्चाओं के अनुसार दोनों हत्याओं के पीछे जमीन विवाद रहा है। अधिवक्ता वृत्ति उनकी हत्या का कारण नही थी मैंने बतौर शासकीय अधिवक्ता कई लोगों को आजीवन कारावास से दण्डित कराया है। एक जज साहब के बहनोई और सांसद को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के तहत हत्या के एक मामले में बतौर अभियुक्त तलब कराया है परन्तु उसके कारण मैंने किसी के भी मन में अपने प्रति दुर्भावना नही देखी। मेरा अनुभव कहता है कि आम लोग अपने अधिवक्ता की तरह सामने वाले के अधिवक्ता का भी सम्मान करते है। उनसे चिढते नही है। कमोबेश सभी इन बातों को सच मानते है इसलिए निश्चित है कि विद्वान अधिवक्ताओं की हत्या के पीछे उसकी अधिवक्ता वृत्ति नही बल्कि अन्य कोई कारण होता है। इन कारणों की तह तक जाना  और फिर उनका सार्थक समाधान खोजना समय की जरूरत है।
आज कचहरी में कुछ ऐसे लोगों को भी चेम्बर आवंटित हो गये है जो अदालत के समक्ष अपने क्लाइण्ट के लिए तर्क वितर्क का विधि व्यवसाय नही करते बल्कि खुले आम विवादास्पद प्रापर्टी खरीदते बेचते है। शुरू में इस प्रकार के लोग चुनाव में परिदृश्य के पीछे से अपनी गोटे बैठाते थे परन्तु अब संकोच खत्म हो गया है क्योंकि कचहरी की राजनैतिक सक्रियता उन्हें प्रापर्टी डीलिंग के धन्धे में अपने अन्य प्रतिद्वन्दियों पर बढत दिला देती है। प्रशासनिक अधिकारियों के साथ उठने बैठने के सहज अवसर उपलब्ध हो जाते है। कचहरी की राजनीति में अधिवक्ता के रूप में प्रापर्टी डीलरों का बढता दखल चिन्ता का विषय है। इस प्रकार के लोग एक चुनाव समाप्त होने के तत्काल बाद अगले चुनाव की तैयारी शुरू कर देते है। इसी प्रकार के लोगों ने एसोसियेसन की गरिमा गिराई है और उसी कारण समाज में अधिवक्ताओ की प्रतिष्ठा कम हुई और उनकी सार्वजनिक छवि खराब हुई है इसलिए विधि व्यवसाय को प्रापर्टी डीलरों से मुक्त कराना आज की सबसे बडी जरूरत है। प्रापर्टी डीलिंग का व्यवसाय विधि व्यवसाय की परिधि में नही आता है। सन्तोष की बात है कि अपने पेशे में आ गई इस बीमारी को बुजुर्ग अधिवक्ताओं ने पहचान लिया है और उसके निर्मूलन के पहले कदम के रूप मे इस बार उन्होंने पहले से ज्यादा मतदान किया है जबकि मतदान वाले दिन सर्वाधिक तपन थी और एक किलो मीटर दूर पैदल जाकर मतदान करना था।
मानना होगा कि अब समाज के साथ कचहरी का भी चरित्र बदला है। वास्तव में व्यथित पक्षकार अब कचहरी आने से डरता है। न्यायालय का अुनचित सहारा लेकर आम लोगों के साथ अन्याय करने वाले अराजक तत्वों की संख्या तेजी से बढी है। एकपक्षीय निषेधाज्ञा आदेश के लिए ज्यादातर वाद अब बिल्डर दाखिल करते है जो लेखपालों की पदीय प्रतिबद्धता खरीद कर निर्धन किसानों की जमीन जबरन हथिया लेते है और फिर उन्हें निषेधाज्ञा वाद लम्बे समय तक लम्बित बनाये रखकर उन्हें अपनी शर्तों पर समझौता करने के लिए विवश करते है। ऐसे लोग निवेश मानकर चुनाव में प्रत्याशियों की आर्थिक मद्द करते है। इस प्रकार के तत्वों को कचहरी में प्रभावहीन रखने के लिए आवश्यक है कि हम सब अपना सदस्या शुल्क खुद जमा करे। पिछले एक दशक से अपना सदस्यता शुल्क खुद जमा न करने की प्रवृत्ति बढी है। प्रत्याशियों के लिए अनिवार्य हो गया है कि वे अपने सम्भावित समर्थकों का सदस्यता शुल्क चुनाव के पहले खुद जमा कराये। एक अधिवक्ता का सदस्यता शुल्क तीन सौ रूपया होता है और यदि एक हजार सदस्यो का सदस्यता शुल्क जमा कराना पडा तो प्रत्याशी को करीब तीन लाख रूपये औपचारिक चुनाव प्रचार प्रारम्भ होने के पहले ही व्यय करना पडता है। इस पैसे की व्यवस्था के लिए प्रत्याशियों को किसी न किसी धन्धेबाज की मद्द लेने के लिए मजबूर होना पडता है। उनकी इस मजबूरी के लिए हम सब जिम्मेदार है।
कानपुर की संघर्ष प्रधान राजनीति सम्पूर्ण देश में अनुकरणीय मानी जाती थी। इस सबमे कानपुर बार एसोसियेसन का उल्लेखनीय योगदान इतिहास में दर्ज है। देश को प्रथम विधि मन्त्री, मध्य प्रदेश को प्रथम मुख्य मन्त्री, सर्वोच्च न्यायालय को मुख्य न्यायाधीश और उच्च न्यायालय को कई न्यायाधीश देने का गौरव एसोसियेसन की पूँजी है जो उसे अन्यों से अलग श्रेष्ठ होने का अहसास कराती है। आजकल बार एसोसियेसन के चुनावों की तुलना छात्र संघ से की जाती है जो एकदम गलत है। डी.ए.वी. कालेज छात्र संघ के चुनाव में पीपल के पत्तों पर नाम की मोहर लगाकर प्रचार किया जाता था। पी.डब्ल्यू.डी. में ठेकेदारी करने वाले पेशेवर छात्र नेताओं का छात्र संघों में दखल बढने के बाद पूरा छात्र आन्दोलन अराजकता का पर्याय बन गया है। हम सबको भी समझना चाहिये कि अवैध साधनों से कमाये गये धन का चुनाव में प्रयोग अपने साथ कई अनिवार्य बुराईयों की अपरिहार्यता का कारण बनता है। सदस्यता की एक मुश्त संघटित अदायगी अवैध साधनों से कमाये गये धन के बढते प्रभाव का प्रतिफल  है। न्यूनतम पाँच लाख रूपये शुरूआती व्यय करके अपने आपको जिताऊ प्रत्याशी सिद्ध करने की अनिवार्यता ने कचहरी के लोकतन्त्र से लोक को विलुप्त कर दिया है। आम अधिवक्ता की काबिलियत अब केवल वोट देने की रह गई है। चुनाव लडने के बारे में सोचना भी उसके लिए अपराध है।
अध्यक्ष एवं महामन्त्री के लिए क्रमशः 25 और 15 वर्ष के अनुभव की अनिवार्यता लागू करने के पीछे मंशा थी कि जो लोग इन पदों पर चुनाव लडेगे उनके लिए पहचान का कोई संकट नही होगा। उन्हें अपनी योग्यता साबित करने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नही करने होगे। इतनी लम्बी अवधि से विधि व्यवसाय में सक्रिय होने के कारण उनका आचरण व्यवहार, व्यवसायिक कुशलता और जनहित के मुद्दो पर उनकी प्रतिबद्धता से सभी परिचित होते है इसलिए उन्हे लम्बे चैडे पोस्टर लगाने या जुलूस निकालकर अपना टेम्पो हाई है का उद्घोष नही करना चाहिये। विजिटिंग कार्ड पर मोहर लगाकर अपने नाम को प्रसारित प्रचारित करना उनके लिए पर्याप्त है। पहले ऐसा ही होता था किसी भी पद का प्रत्याशी ढोल नगाडा नही बजवाता था परन्तु अब सभी पदो के प्रत्याशी लम्बे लम्बे बैनर टाँगते है, मंहगे गिफ्ट बाँटते है लन्च डिनर काकटेल में लाखों रूपया व्यय करते है। स्थानीय स्तर पर इस बीमारी का इलाज सम्भव नही है। बार काउन्सिल को खुद हस्तक्षेप करना होगा और किसी भी मूल्य पर वोट बैंक बनाने या बनाये रखने का मोह त्यागकर सभी पदों के लिए चुनाव खर्च की सीमा निर्धारित करनी होगी। अभी समय है, चेतिये अन्यथा छात्र संघो की तरह बार एसोसियेसन को प्रापर्टी डीलरों का संघटित गिरोह बनने से कोई रोक नही सकेगा और फिर हम सभी हाथ मलते रह जायेंगे।

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