Sunday, 29 June 2014

संवैधानिक अवरोधों के बावजूद आपातकाल का खतरा बरकरार है.......

26 जून 2014 को कांस्टीट्यूशन क्लब नई दिल्ली में ‘‘आपातकाल का राजनैतिक संदर्भ’’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में आपातकाल विरोधी संघर्ष के अग्रिम पंक्ति के सूत्रधारों में एक श्री राम बहादुर राय के भाषण के दौरान कथित लोकतन्त्र सेनानियों द्वारा व्यवधान उत्पन्न करके उन्हें चुप कराते समय ’’लोकतन्त्र हम शार्मिन्दा है, तेरे कातिल जिन्दा है’’ का नारा लगाने की मेरी प्रबल इच्छा थी। राम बहादुर राय के विचारोे में असहमत होने का अधिकार सभी को था परन्तु असहमति के स्वर को संख्या बल पर दबाने का अधिकार किसी को नही है। असहमति को दबाने के प्रयास लोकतन्त्र के हित में नही होते। लोकतन्त्र सेनानियो ने अपने इस आचरण से संविधान प्रदत्त भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन किया है। 
लोकतन्त्र सेनानी स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की तरह सुविधायें और पेन्शन चाहते है। वे अपनी तुलना 9 अगस्त 1942 के क्रान्तिवीरो के साथ करते है। राम बहादुर राय इस प्रकार की तुलना से सहमत नही थे। उनका कहना था कि 9 अगस्त 1942 के दिन तत्कालीन नेतृत्व और उनके अनुयायियो को पता था कि अब क्या करना है ? कैसे करना है ? परन्तु 25 जून 1975 को इमर्जेन्सी घोषित होने के समय तत्कालीन राष्ट्रीय नेतृत्व गफलत में था। अटल जी बैगलोर में थे,आडवाणी और मधुदण्डवते बैगलोर जाने के लिये एयरपोर्ट पर थे, मधुलिमये मध्यप्रदेश में जनजागरण के लिये सभायें करते धूम रहे थे।इन सबने आपातकाल जैसी स्थिति की कल्पना भी नही की थी। इसी कारण 26 जून 1975 को सारे देश में सन्नाटा था। विरोध का कोई स्वर सुनाई नही पड़ा। दैनिक जागरण कानपुर ने अपना सम्पादकीय कालम खाली छोड़ कर विरोध प्रदर्शित किया था परन्तु सम्पादक और सम्पादक पुत्र की गिरफ्तारी होने के तत्काल बाद पूरे प्रतिष्ठान ने तीसरे दिन ही माफी माँग ली थी।
26 जून 1975 की तानाशाही मानसिकता आज पहले से ज्यादा ताकतवर हुई है। उस समय राजनैतिक दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र था। सामान्य कार्यकर्ता भी नेतृत्व की आलोचना कर सकता था। काँग्रेस के अन्दर रहकर चन्द्रशेखर और उनके साथियों ने जे.पी. आन्दोलन के प्रति इन्दिरा गाँधी के रवैये का सशक्त विरोध किया था। परन्तु आज किसी भी राजनैतिक दल में नीतिगत विषयों पर भी नेतृत्व से असहमति को दल विरोध माना जाता है। नेतृत्व के साथ सहमति जताते रहना राजनैतिक अस्तित्व के लिए आवश्यक हो गया है। सामूहिक विचार विमर्श मुद्दो पर सार्वजनिक बहस और असहमति के प्रति सम्मान गुजरे जमाने की बाते हो गई है।
25 जून 1975 को देश पर थोपी गयी तानाशाही संविधान के माध्यम से केन्द्रीय मंत्रीमण्डल ने इसे स्वीकार किया । राष्ट्रपति न इस पर अपने हस्ताक्षर बनाये और न्यायपालिका ने भी उस पर मोहर लगायी। किसी स्तर पर इन्दिरा गाँधी की तानाशाही से विरोध का सामना नही करना पडा। जयप्रकाश नारायण सहित सम्पूर्ण नेतृत्व किंकर्तव्यविमूढ के स्थिति में था। 25 जून 1975 को अपनी गिरफ्तारी के बाद पहली बार दिनांक 21 जुलाई1975 केा जयप्रकाश नारायण ने अपनी डायरी में लिखा ‘‘मेरा सारा संसार मेरे चारों तरफ खण्ड विखण्ड बिखरा पडा है लगता नही है कि अब मैं अपनी आँखों से कभी इन्हे समेटा हुआ देख पाऊँगा । मैं कोशिश तो कर रहा था कि लोकतन्त्र की प्रक्रिया में अधिकाधिक लोगों को जोड कर इसका क्षितिज थोडा व्यापक कर सकूँ। लेकिन मेरा गणित कहा गलत पडा ? मैं ‘‘हमारा गणित‘‘नही लिख रहा हूँ क्योकि यह जो भी कुछ भी हुआ है उसकी जिम्मेवारी मेरी है और वह मुझे ही लेनी चाहिये। मैं इस आकलन में चूक गया था कि किसी लोकताॅन्त्रिक व्यवस्था में अपने से असहमत लोगों के अशान्तिमय लोकतान्त्रिक आन्दोलन को कुचलने के लिये कोई प्रधानमंत्री किस हद तक जा सकता है। मैं इतना तो अनुमान करता था कि इस आन्दोलन को रोकने के लिये प्रधानमंत्री सभी किस्म के सामान्य और असामान्य कानूनों  की मदद लेगें लेकिन वे इसके लिये लोकतंत्र का ही गला घोट देगें,यह मैनें सोचा नही था मैं इस पर भी भरोसा नही कर पा रहा हूँ कि  अगर प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ सोचा तो उनके वरिष्ठ सहयोगियोें ने उनकी पार्टी ने जिसकी लोकतांत्रिक परम्परा काॅफी मजबूत रही है,उन्हे ऐसा करने दिया‘‘। जयप्रकाश नारायण का यह सवाल आज भी जिन्दा है असहमति के प्रति इन्दिरा गाँधी वाली मानसिकता पहले से ज्यादा ताकतवर होकर उभरी है। 
1974 से 2014 के बीच आम आदमी के सपनों में कोई खास बदलाव नही आया है। आम आदमी आजादी के बाद से लगातार एक अद्द घर, सस्ता भोजन चलने फिरने लायक सडक पीने योग्य पानी और सुरक्षा एवं सम्मान की चाहत रखता है। उसने कभी टाटा विडला अम्बानी बनने का सपना नही देखा। परन्तु उसके सपनों के विखरने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। उसके सपनों को समेटने सहेजने और उन्हें साकार करने की दूर दृष्टि किसी राजनेता के पास नही है। सभी उसे ठगते रहे है। उसकी निराशा का कमोबेश सभी राजनैतिक दलों ने अपने तात्कालिक लाभ के लिये दुरूपयोग किया है। 
जे.पी. आन्दोलन के बाद अन्ना आन्दोलन के समय देश में एक बार फिर आशा का संचार हुआ था। भ्रष्टाचार के विरूद्ध उनके आन्दोलन के साथ सम्पूर्ण देश मेें एकजुटता आई थी। लगा कि भ्रष्टाचार का युग समाप्त हो चला और देश एक नई करवट लेगा लेकिन अन्ना जी और उनके सहयोगियो ने भी देश को निराश किया। अन्ना जी अपने नित नये बयानों के कारण महत्वहीन हो गये और उनके प्रखर सहयोगी अरविन्द केजरीवाल अति जल्दबाजी में राजनेताओं के चक्रव्यूह का शिकार हो गये।
आजादी के तत्काल बाद डाक्टर राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए जबर्दस्त राजनैतिक आन्दोलन हुये है। डाक्टर लोहिया अपने समर्थको के बीच राजनैतिक विचारों पर बहस को आमन्त्रित करते थे। इन  बहसो में सामान्य कार्यकर्ता बेहिचक लोहिया जी का भी विरोध कर सकता था। इस प्रकार के विरोध को वे प्रोत्साहित करते थे। आज सभी दलों को अपने कार्यकर्ताओं के बीच दलीय मंचो पर इस प्रकार की असहमति को प्रोत्साहित करना चाहिये। आदर्श रूप में सभी इसे स्वीकार करते है परन्तु व्यवहारिक स्तर पर सिद्धान्तहीन विचार शून्य कार्यकर्ताओं को ही प्राथमिकता दी जाती है इसीलिए जगदम्बिका पाल, रामकृपाल यादव, रामविलास पासवान जैसो को केवल सांसद बनने के लिए अपने धुरविरोधी मोदी का गुणगान करने मे कोई वैचारिक झिझक नही होती है। लोकतन्त्र को जिन्दा रखने और उसे प्रति क्षण मजबूत बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि मुद्दा आधारित सार्वजनिक चर्चा परिचर्चा के द्वारा आम जनता की सक्रियता सहभागिता बढाई जाये और मुद्दा आधारित आलोचना करने का साहस रखने वाले कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता देने का माहौल बनाया जाये।
जून 1975 से मार्च 1977 के मध्य जेल जाने वाले अधिकांश राजनैतिक कार्यकर्ताओं के जीवन का संध्याकाल है। मुलायम सिंह यादव और उसके बाद कई अन्य मुख्यमन्त्रियों ने उन्हें सहयोगी के साथ निःशुल्क बस यात्रा और प्रतिमाह सम्मान राशि (पेन्शन) से उपकृत करके उनके अन्दर इन सुविधाओं को भोगते रहने की लालसा जगा दी है। इसलिए अब वे अपने इन तात्कालिक हितों के विरूद्ध राम बहादुर राय जैसो की बात सुनना ही नही चाहते जबकि उन्हे मालूम है कि मीसा कानून के तहत सबसे पहली गिरफतारी उन्ही की हुयी थी और बिहार आन्दोलन का नेतृत्व करनें के लिये जयप्रकाश जी को मनाने में उनकी महती भूमिका रही थी। आपातकाल सेनानियों को याद रखना होगा कि समाज उन्हें मुलायम सिंह या अन्य किसी मुख्यमन्त्री द्वारा उपकृत किये जाने के कारण सम्मान नही देता। समाज उन्हें आपातकाल के विरोध में उनके योगदान, लोकतन्त्र के प्रति उनकी जिद, जोश और जज्बे को सलाम करता है। आपातकाल सेनानियों को अपनी इस जिद, जोश और जज्बे को भावी पीढियों के लिए जिन्दा रखना होगा। दुःख की बात है कि लोकतन्त्र सेनानियों के सम्मेलन अब केवल सरकार से उपकृत होने की लालसा मे आयोजित किये जाते है। उनमे अब वर्तमान राजनैतिक माहौल में एकाधिकार की बढती प्रवृत्तियों, जो अन्ततः तानाशाही का मार्ग प्रशस्त करती है, पर चोट नही की जाती।
देश के लोकतन्त्र के इतिहास में आपातकाल एक गम्भीर त्रासदी थी। इन्दिरा गाँधी ने अपने निजी स्वार्थ के लिए इसे देश पर थोप दिया था। आपातकाल के कारणों और उसके निवारण के लिए किये गये प्रयासों से भावी पीढी को अवगत कराना आवश्यक है। उसे बताया जाना चाहिये कि 18 मार्च 1974 को हाथ पीछे बाँधे और मुँह पर पट्टी बाँधे बमुश्किल एक हजार लोग पटना की सड़को पर जयप्रकाश के नेतृत्व मे उतरे, तो दिल्ली में बैठे सत्ताधीशों की अकड और उनका घमण्ड धूल धूसरित हो गया था। देश ने इसके पहले निनाद करता ऐसा सन्नाटा कभी नही देखा था। उसकी तपन मे सत्ताधीशो को झुलसा दिया था। इन्दिरा गाँधी और उनके सिपहसालारो के अनेकानेक अत्याचारों के बावजूद ‘‘खोलो खोलो जेल के तालें, ये दीवाने आये है या दम है कितना दमन मे तेरे, देख लिया और देखेंगे’’ का उद्दघोष करके कक्षा 10, 11, 12 के विद्यार्थी भी उनके लिए चुनौती बनकर सडको पर उतरे थे। कांस्टीट्यूशन क्लब में एकत्र सेनानियों को राम बहादुर राय उनके इसी पौरूष से रूबरू कराना चाहते थे, परन्तु मोदी सरकार से उपकृत होने की आकांक्षा पाले सेनानियों को पेंशन और सुविधाओं की लालच ने अन्धा बना दिया और उन सब ने जाने अन्जाने अपने विरोधी विचारो को दबाकर इन्दिरा गाँधी की अधिनायकवादी मानसिकता को जीवन प्रदान किया है।

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