उत्तर प्रदेश सरकार ने संगठित अपराधियों पर नकेल कसने का ढ़िढ़ोंरा पीटने के लिए मकोका की दर्ज पर यूपीकोका बना लिया है और उसके द्वारा संदेश दिया है कि प्रदेश का मौजूदा कानूनी ढ़ाँचा अपराधों और अपराधियों को नियन्त्रित करने में अक्षम है। इसके पहले भी राज्य सरकारों ने इस आशय से कई कानून बनाये परन्तु अपराधों पर कभी कोई नियन्त्रण नही हो सका। हाँ, इस प्रकार के कानूनों के द्वारा अपने राजनैतिक विरोधियों की हिम्मत पस्त करने में कई बार सफलता मिल जाती है यद्यपि कहा जाता रहा है कि इन कानूनों का प्रयोग राजनैतिक विरोधियों पर नही किया जायेगा। इन्दिरा गाँधी ने भी मीसा और डीआईआर नाम के दो कानून बनाये थे और संसद में वायदा किया था कि इन कानूनों का प्रयोग किसी राजनीतिक व्यक्ति के विरुद्ध नही किया जायेगा परन्तु मीसा के तहत सबसे पहली गिरफ्तारी बिहार आन्दोलन के शीर्षस्थ नेता श्री राम बहादुर राय की हुई थी।
वास्तव में अपने देश में नये नये कानूनों की आवश्यकता नही है। सभी प्रकार के अपराधों पर नियन्त्रण के लिए मैकाले की बनायी भारतीय दण्ड संहिता अपने आप में आज भी पर्याप्त है। उसमें सभी अपराधों और उसके लिए दण्ड की व्यवस्था का समावेश है परन्तु पूरी व्यवस्था का राजनीतिकरण हो जाने के कारण वास्तविक अपराधियों को दण्डित कराना हमारी प्राथमिकता में नही रह गया है। मौजूदा कानूनी ढ़ाँचे को ईमानदार और पारदर्शी बनाये बिना अपराधों और अपराधियों पर नकेल नही कसी जा सकती। हम सब जानते है कि अपराधी हाईटेक हो गया है लेकिन अपने विवेचक आज भी बैलगाड़ी युग के हैं। उन्हें किसी को भी मारपीट कर अपराध कबूलवाने में महारथ हासिल है। वैज्ञानिक तरीके से सुसंगत साक्ष्य संकलित करने की कोई संस्थागत व्यवस्था हम आज तक विकसित नही कर सके हैं इसलिए हमारा पूरा आपराधिक न्यायतन्त्र प्रत्यक्षदर्शी साक्षी पर आधारित है और विवेचक द्वारा जबरदस्ती खोजा गया प्रत्यक्षदर्शी साक्षी अदालत के सामने पक्षद्रोही हो जाता है। साक्ष्य संकलन के लिए वैज्ञानिक तरीके अपनाकर इस समस्या से निपटा जा सकता है। यूपीकोका हो या अन्य कोई कानून, उसके तहत किसी अपराधी को सजा कराने में सम्बन्धित न्यायालय के शासकीय अधिवक्ता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है परन्तु राजनैतिक हस्तक्षेप और अपारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया के कारण मेरिट की अनदेखी करके शासकीय अधिवक्ता नियुक्त किये जाते है। कई बार अपराधी से विधायक या सांसद बनें राजनेता की सिफारिश पर उसकी नियुक्ति की जाती है। विधि आयोग ने शासकीय अधिवक्ताओं की भूमिका को कारगर बनाने के लिए कई सुझाव दिये है परन्तु किसी राज्य सरकार ने इन सुझावों को लागू नही किया।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 में पहले से प्रावधान है कि साक्षियों की परीक्षा प्रारम्भ हो जाने के बाद, सभी हाजिर साक्षियों की परीक्षा पूरी होने तक दिन प्रतिदिन जारी रखी जायेगी परन्तु इस नियम का अनुपालन अभी तक सुनिश्चित नही कराया गया है। जब हमारी सरकारों को नये नये कानून बनाने का शौक नही था, उस दौर में सत्र न्यायालय के समक्ष लगातार दो तीन दिन की तारीख नियत होती थी और नियत तिथि पर गवाह को अदालत के समक्ष प्रस्तुत करना विवेचक के लिए आवश्यक हुआ करता था। इस व्यवस्था के तहत विचारण में तेजी बनी रहती थी और साक्षियों की पक्षद्रोहिता पर भी अंकुश रहता था। वास्तव में नये नये कानून बनाने की तुलना में यदि विद्यमान कानूनों को ईमानदारी और पारदर्शिता से लागू करने पर जोर दिया जाये तो अपराधियों पर ज्यादा तेजी से अंकुश लगाया जा सकता है। अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अपने पूरे आपराधिक न्यायतन्त्र को पेशेवर और पारदर्शी बनाये बिना अपराधों या अपराधियों पर नियन्त्रण नही किया जा सकता।
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