Sunday, 8 November 2015

बिहार का जनादेश राष्ट्रीय राजनीति के लिए एक नया संदेश


डा0 मनोहर लोहिया कहा करते थे कि असल संघर्ष हिन्दू मुस्लिम के बीच नही उदारमना हिन्दुओं और साम्प्रदायिक हिन्दुआंे के बीच है। भारत की बहुसंख्या आबादी उदारमना हिन्दुओ की है और वे आदतन सभी धर्मो का आदर करते है। बिहार चुनाव प्रचार के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने उदारमना हिन्दुओ और साम्प्रदायिक हिन्दुओ के इस संघर्ष को पुरजोर हवा देने का काम किया है। भाजपा की हार पर पाकिस्तान में पटाखे दगाने या असहिष्णुता के सवाल पर शाहरूख खान को पाकिस्तानी एजेण्ट बताने की घटनायंे इसी बात की ओर इशारा करती है परन्तु बिहार के जनादेश ने सम्पूर्ण देश में साम्प्रदायिक हिन्दुओ की हार और उदारमना हिन्दुओं की जीत का मार्ग प्रशस्त किया है। असहिष्णुता भारत के मूल चरित्र के खिलाफ है। बिहार की जनता ने अपने प्रदेश से श्री जार्ज फर्नाडीज और स्व0 मधु लिमये को लोकसभा के लिए जिताकर अपने जातिवादी या साम्प्रदायिक न होने का परिचय काफी पहले दे दिया था और आज उन्होंने उसकी पुनरावृत्ति की है। 
2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की अभूतपूर्व सफलता सबका साथ सबका विकास के उद्घोष की जीत थी। आम लोगों ने काँग्रेसी कुशासन से त्रस्त होकर जीवन यापन में रोजमर्रा की समस्याओं से निजात पाने के लिए श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री बनाने के लिए मतदान किया था। किसी ने भी हिन्दू होने के नाते मुसलमानों के विरोध में नकारात्मक मतदान नही किया था। मतदान सकारात्मक था और किसी भी दशा में उसका उद्देश्य पाकिस्तान के मुस्लिम राष्ट्र की प्रतिक्रिया में हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए नही था परन्तु साक्षी योगी और साध्यवियांे ने आम लोगो के जनादेश की अपने तरीके से व्याख्या करके आम लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है जो निश्चित रूप से व्यापाक राष्ट्रीय हितो के प्रतिकूल है।
विभिन्नता में एकता भारत की विशेषता है और इसी विशेषता के बल पर हमारे पास ऐसा कुछ ह,ै जिसने हमारी हस्ती को मिटने नही दिया। विश्व की अनेकों सभ्यताएं विलुप्त हो गई परन्तु वर्षो की गुलामी के बावजूद भारतीय सभ्यता, संस्कार और संस्कृति अक्षुण्य बनी हुई है। यह कहना गलत होगा कि इन संस्कारों और संस्कृति को नष्ट करने का कोई सुनियोजित प्रयास किया जा रहा है परन्तु यह भी सच है कि असहमति के प्रति घृणा का वातावरण बनाया जा रहा है। किसी को भी पाकिस्तानी बता देना एक आम बात हो गई है। प्रख्यात शायर मुनव्वर राणा ने सार्वजनिक रूप से अपने इस दर्द का इजहार किया है।
साम्प्रदायिक उन्माद और दंगे काँग्रेसी शासनकाल में भी होते रहे है। अटल बिहारी बाजपेयी के समय ईसाई प्रचारक ग्राहृम स्टेन और उनके दो बच्चों की हत्या की गई परन्तु उस समय के सत्तारूढ़ नेताओं ने इन घटनाओं का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन नही किया था। दादरी में अखलाक की हत्या के बाद स्थानीय सांसद और केन्द्रीय मन्त्री महेश शर्मा के बयान ने संवेदनहीनता का परिचय दिया है। योगी आदित्यनाथ और साध्वीप्राची और साक्षी महाराज के बयानों ने असहिष्णुता की आग में घी डालने का काम किया है। साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लोटाये जाने की घटनाआंे पर साहित्यकारों की निष्ठा पर सवाल उठाना किसी भी दशा में जायज नहीं है परन्तु बेधड़क ऊल जलूल सवाल उठाये जा रहे है। बिहार आन्दोलन के दौरान फणीश्वर नाथ रेणू और 1984 के आपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में खुशवन्त सिंह द्वारा पुरस्कार लौटाये जाने पर काँग्रेसी नेताओं की प्रतिक्रिया आज के भाजपा नेताओं की प्रतिक्रिया से मिलती जुलती है। कोई अन्तर नहीं दिखता।
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153ए की संवैधानिक वैधता को लेकर वन मैन आर्मी के स्वयंभू सेनापति डा0 सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका का केन्द्र सरकार ने शपथपत्र देकर विरोध किया है। इस शपथपत्र में केन्द्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 19(2) के सन्दर्भ में कानून व्यवस्था के हित का हवाला देते हुए धारा 153ए को सही बताया है जबकि डा0 स्वामी ने इस धारा को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के खिलाफ बताया था और उसे अवैध घोषित करने की माँग की हैं। डा0 स्वामी पर असम के काजीरंगा विश्वविद्यालय में भड़काऊ भाषण देने के आरोप में धारा 153ए के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है। केन्द्र सरकार ने उनके खिलाफ चल रहे मुकदमे को सही बताया है। परन्तु जानबूझकर साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाले किसी साध्वी, योगी, महन्त, ओवैशी या अपने मन्त्री पर अभी तक कोई कार्यवाही नही की और इसी कारण विपक्षी दलोें को पूरे देश में असहिष्णुता के नाम पर मोदी सरकार के विरुद्ध वातावरण बनाने का अवसर प्राप्त हुआ है।
भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओ के असंयमित बयानो के कारण असहिष्णुता के आरोपो को हवा मिली है। शाहरूख खान पर भाजपा नेताओं के बयान ने सभी लोगों को चिन्तित किया है। समझना कठिन है कि भाजपा से वैचारिक असहमति रखने वाले किसी भी व्यक्ति को पाकिस्तान का एजेण्ट बता देने या उसे पाकिस्तान भेज देने की सलाह देने का क्या औचित्य है। भाजपा नेताओं ने नितीश को पाकिस्तान और लालू यादव को बांग्लादेश भेजने की बात कहकर स्वयं अपने आपको शर्मिन्दा किया है। आपातकाल के दौरान जेलों में निरुद्ध राजनैतिक बन्दी कहा करते थे कि हम आपके विचारो से कतई सहमत नही हैं परन्तु आपको हम से असहमति रखने का अधिकार है और आपके इस अधिकार की रक्षा के लिए हम अपने प्राण न्यौछावर कर सकते है। लोकतान्त्रिक विश्वास और सद्भाव की यह परम्परा आज विलुप्त होती जा रही है।
आजकल भाजपा नेता ”तब आप कहाँ थे“ पूँछकर अपने वैचारिक विरोधी को अपमानित करने का प्रयास करते रहते है। लोगों से पूछते है कि इमरजेन्सी के दौरान आप कहाँ थे? 1984 के सिख नरसंहार के समय आप क्या कर रहे थे? 1995 के बाद जन्मी आज की युवा पीढ़ी उस समय नहीं थी। उसने इतिहास के पन्नो में इन घटनाओं को पढ़ा है और उसके आधार पर इन घटनाओं को समझने की कोशिश की है परन्तु इतिहास आज की युवा पीढ़ी को ”तब आप कहाँ थे“ पूँछने वालो से पूँछने के लिए प्रेरित करना चाहता है कि आजादी की लड़ाई के दौरान आप या आपके पूर्वज कहाँ थे? आजादी की लड़ाई मे आपका क्या योगदान है? आजादी की लड़ाई में अपना कोई योगदान न होने के कारण ऐसे लोग स्वतन्त्रता आन्दोलन की विरासत को नेस्तनाबूत करने के लिए गाँधी नेहरू का चरित्र हनन और गोडसे को महिमामण्डित करने का प्रयास करते रहते है। बिहार की जनता ने इन साजिश को समझा है और शायद इसी कारण उसने नितीश और लालू यादव के पक्ष में जबरदस्त जनादेश देकर पूरे देश को एक नया संदेश दिया है। सभी को इस संदेश की इबारत पढ़नी ही चाहिए ताकि लोकतन्त्र जिन्दा रहे और कोई शासक इन्दिरा गाँधी की तरह तानाशाही थोपने का दुस्साहस न कर सके।

Sunday, 11 October 2015

कट्टरता नहीं विभिन्नता में एकता भारत की विशेषता

                                                 

कानपुर हो या गुवाहाटी अपना देश अपनी माटी, विभिन्नता में एकता भारत की विशेषता, का नारा लगाते समय विद्यार्थी जीवन में हम सब देश की एकता अखण्डता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते थे और मन ही मन उत्साहित रहते थे परन्तु जीवन के संध्याकाल में इन नारो के सन्देश का खोखलापन अब हमें डराने लगा है। अहसास होता है कि कोई भी नारा लगाया जाये या कुछ भी कहा जाये परन्तु जमीनी स्तर पर हम आगामी चुनाव में वोट बैक से मजबूत रखने के लिए करते वही है जिससे धार्मिक उन्माद और कट्टरपन को बढ़ाया मिलता है। असहिष्णुता और साम्प्रदायिक असद्भाव को बढ़ने बढ़ाने के आरोप प्रत्यारोप के बीच शुक्र है कि महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने खुद को पहचानने का जोखिम उठाया और देशवासियों को भी उनकी पहचान की याद दिलाकर बता दिया कि सद्भाव और सहिष्णुता भारत के राष्ट्र जीवन का मूल आधार है।
प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई के दौरान नित्य प्रति स्कूल में ”ईश्वर अल्ला एक ही नाम सबको सम्मति दे भगवान“ के प्रार्थना की जाती थी। सभी धर्मो के विद्याथिर्यों को इस प्रकार की प्रार्थनाओं के माध्यम से धार्मिक सहिष्णुता बनाये रखने के संस्कार दिये जाते थे। कल करखानो में भी सभी लोग एक दूसरे की धार्मिक भावनओं का सम्मान करते हुए पसीना बहाकर अपनी जीविका कमाते थे। कही कोई धार्मिक उन्माद या कट्टरता नही थी। पता ही नही चला कब कहाँ ”ईश्वर अल्ला एक ही नाम“ वाला सद्भाव खो गया और मण्डल कमण्डल के अभियान ने समाज का पूरा ताना बाना बिगाड़कर जाति धर्म की टूटती दीवारों को पहले में ज्यादा मजबूत कर दिया है। 21वीं सदी के भारत में बकरे के माँस को गोमाँस बताकर बिसाहड़ा गाँव में अखलाक की हत्या को भी वोट बैंक की तरह देखने जाने से कोई आहत नहीं हो रहा है। राष्ट्र के स्तर पर इस प्रकार की मानसिकता शर्म का विषय है परन्तु शासक होने के नाते जिन्हें शर्मिन्दगी महसूस करनी चाहिए उन्होेंने इस घटना को एक हादसा बताकर पूरे देश को अपमानित किया है।
राजनैतिक कारणों से धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ाया जा रहा है और उसके कारण समान में प्रत्येक स्तर पर एक दूसरे पर विश्वास और सामाजिक सद्भाव नित्य प्रति कम होता जा रहा है और कट्टरता बढ़ रही है। मामूली बातों पर साम्प्रदायिक उन्माद का माहौल बन जाता है और इससे खुराफात की साजिश रचने वालो को कोई न कोई बहाना मिल ही जाता है। इस समस्या को समझने और उसके नियन्त्रण की जरूरत है परन्तु इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास होता दिखता नहीं है। वास्तव मे धार्मिक उन्माद और असहिष्णुता राजनैतिक समस्या नहीं है। इसका सम्बन्ध समाज और संस्कृति से है परन्तु समाधान की अपेक्षा राजनीति से की जा रही है जबकि सबको पता है कि समाज राजनीतिज्ञो पर बिल्कुल विश्वास नहीं करता। वास्तव में राजनीतिज्ञो की कथनी करनी में भयंकर विरोधाभास है और वे नही चाहते कि समाज में समरसता कायम रहे। 
बिसाहड़ा अखलाक की निर्भय हत्या के पहले एम.एम. कालवर्गी नरेन्द्र दाभोलकर और गोविन्द पनसारे की हत्यायें भी धार्मिक कट्टरता का प्रतिफल है इन घटनाओं ने समाज को झकझोरा है और इसीलिए राष्ट्रपति ने देशवासियों को भारत की मूल परम्परा की याद दिलायी है और उन बुनियादी मूल्यों को रेखांकित किया है जिनका पालन समाज को करना चाहिये। सहिष्णुता, सहनशीलता और एक दूसरे के विचारों का सम्मान भारतीय समाज की विशेषता है और इन्ही शाश्वत मूल्यों को अपनाने के कारण ”कुछ है जो हस्ती मिटती नही हमारी“ की श्रेष्ठता के साथ हम आदिकाल से जीते चले आ रहे है।
धार्मिक उन्माद की बढ़ती घटनाओं के बीच प्रधानमन्त्री का मौन चिन्ता का विषय है परन्तु उनके स्वाभाविक सहयोगी शिवसेना ने इस विषय में सराहनीय काम किया है। शिवसेवा के मुखपत्र सामना के सम्पादकीय में ठीक ही लिखा गया है कि कलबुर्गी नरेन्द्र दाभोलकर तथा कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गोविन्द पन्सारे को अपने विचार व्यक्त करने की पूरी स्वतन्त्ऱता थी। विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर हमला किसी स्वतन्त्र देश की आत्मा की हत्या के समान है। अगर हिन्दुत्व के नाम देश में विरोधी आवाजों को इसी प्रकार समाप्त किया जाता रहा तो भारत तालिबानी आतंकवाद की आलोचना करने का अपना हक खो देगा।

Monday, 5 October 2015

बिसाहड़ा में दोषियों को सजा, किसी की प्राथमिकता में नहीं


केन्द्रीय पर्यटन एवं सास्कृतिक मन्त्री श्री महेश शर्मा ने नई दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा के  बिसाहड़ा गाँव की घटना को एक हादसा बताकर उसकी क्रूरता को कमतर करने का प्रयास किया है। वही दूसरी ओर साध्वी प्राची ने गोमाँस के नाम पर इकलाख की क्रूर हत्या को जायज बताकर इस प्रकार की साम्प्रदायिक उन्मादी घटनाओं की पुनरावृत्ति का घातक संकेत दिया है। इन दोनो बयानो ने जाँच एजेन्सियांे को अपनी हद में रहने की नसीहत दी है और इसके द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि इस घटना के कारणों की तह तक पहुँचने के प्रयासों का परिणाम हितकर नहीं होगा। दाषियांे को सजा दिलाना किसी की भी प्राथमिकता में नहीं है।
बिसाहड़ा गाँच की घटना एक सोची समझी उन्मादी साजिश का प्रतिफल हैं। इस घटना के लिए दो चार व्यक्ति नहीं बल्कि एक विशेष प्रकार का सोच जिम्मेदार है। घटना के बाद आस-पास के सभी लोगों ने इकलाख की हत्या और उनके बेटे पर जानलेवा हमला को गलत बताया परन्तु साथ ही साथ पुलिस की कार्यवाही को एक पक्षीय बताना भी उन सब ने   आवश्यक माना है। सभी भारी संख्या में इकलाख के घर पर उन्मादियों की उपस्थिति स्वीकार करते है परन्तु उनकी पहचान बताने के लिए तैयार नहीं हैं। इस प्रकार की घटनाओं के लिए  यही सबसे बड़ी त्रासदी है। समुचित साक्ष्य के साथ दोषियों की पहचान सुनिश्चित कराये बिना किसी भी आरोपी अदालत दण्डित नहीं कर सकती और इसी कारण प्रायः साम्प्रदायिक घटनाओं में दोषियों को सजा नहीं मिलती और उनका मनोबल बढ़ता रहता है। वास्तव में इस प्रकार की घटनाओं से तात्कालिक राजनैतिक लाभ प्राप्त करना राजनेताओं का पसंदीदा शौक है।
केन्द्रीय मन्त्री द्वारा इस घटना को हादसा बताये जाने के बाद जाँच एजेन्सियों के लिए विवेचना के दौरान दोषियों को विरुद्ध समुचित साक्ष्य संकलित करना कठिन हो गया है। स्थानीय महिलाओं ने इस घटना की रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों पर हमला करके अपना मन्तव्य स्पष्ट कर दिया है। इस हमले के पीछे भी किसी न किसी राजनेता की साजिश है। कोई नही चाहता कि घटना के वास्तविक दाषियों को चिन्हित किया जा सके और इसीलिए   आस-पास का कोइ्र व्यक्ति जाँच एजेन्सियों के साथ कोई सहयोग नहीं करेगा। बल्कि उन्हें गुमराह करने का प्रयास किया जायेगा। अन्ततः उसका लाभ दोषियों को प्राप्त होगा। आज विवेचक अपनी केस डायरी में साक्षियों का कोई भी बयान लिखकर आरोप पत्र विचारण के लिए अदालत भेज दे परन्तु अदालत के सामने विचारण के समय अभियोजन साक्षियों का पक्षद्रोही होना सुनिश्चित सा दिख रहा है।
केन्द्र या राज्य दोनों के जिम्मेदार मन्त्री वास्तविक दोषियों को चिन्हित करने के लिए जाँच एजेन्सियों को अपने विवेक पर निर्णय लेने की स्वतऩ्त्रता देने के लिए तैयार नहीं है। कहते सभी है कि उन्मादियों की कोई जाति या धर्म नही होता। वे केवल और केवल उन्मादी होते है परन्तु सत्यता सदा इसके प्रतिकूल होती हंै कोई न कोई राजनेता अपने कारणों से उन्मादियों की मदद करता है क्योंकि यही उन्मादी उनकी राजनैतिक फसल के लिए खाद, पानी का काम करते है। कुछ वर्ष पहले कानपुर में सम्प्रदायिक घटनाओं के दौरान एक दस वर्षीय बच्ची के सामने उन्मादियों न उसके दुधमुँहे भाई का पैर पकड़कर पत्थर पर पटककर मार डाला था। उस बच्ची ने दाषियों की पहचान भी बताई थी। पुलिस ने आरोप पत्र भी प्रेषित किया परन्तु विचारण समय साक्ष्य देने के लिए उस बच्ची को अभियोजन एजेन्सियाँ अदालत के समक्ष प्रस्तुत नहीं कर सकी। अपनी आँखों के सामने इतना क्रूर मंजर देखने के बाद उसके माँ बाप मकान छोड़कर चले गये और पुलिस ने भी दोषियों को सजा दिलाने के लिए उनकों खोजने का कोई प्रयास नहीं किया और सभी अभियुक्त साक्ष्य के आभाव में दोषमुक्त कर दिये गये। उस बच्ची की कहानी और उसका चेहरा जब भी मुझे याद आता है, मन दहल जाता है और इस मामले में कुछ भी न कर पाने की मजबूरी पर ग्लानि महसूस होती है।
बिसाहड़ा जैसी घटनाओं में साम्प्रदायिक कारणों से दोषियांे के विरुद्ध अदालत के सामने अभियोजन एजेन्सियाँ समुचित विश्वसनीय साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाती। सरकारों के स्तर पर दाषियों को दण्डित कराने के लिए संघठित प्रयास कराने की अपेक्षा मुआवजे के नाम पर कुछ धनराशि बाँटकर उसका राजनैतिक फायदा उठाने में सभी की दिलचस्पी ज्यादा होती है। इस मामले में भी यही हो रहा हैं। स्थानीय पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। इसके बाद मनमाने तरीके से साक्षियों के बयान अंकित करके विचारण के लिए आरोप पत्र अदालत भेजकर स्थानीय पुलिस अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेगी और मान लेगी कि अब इसके आगे की कार्यवाही अदालत के सरकारी वकील की जिम्मेदारी है जबकि उसे मालूम है कि सरकारी वकील की अपनी सीमाएँ पहले से निर्धारित है उसकी नियुक्ति सत्तारूढ़ दल के किसी सांसद या विधायक की सिफारिश पर होती है और हर तीन साल बाद उसके कार्यकाल का नवीनीकरण और सांसद या विधायक की सिफारिश पर ही किया जाता है। साम्प्रदायिक घटनाओं में प्रायः भावी राजनेता दोषी होते है जो किसी न किसी वर्तमान राजनेता के निकटतम होते है। ऐसे दोषियों के विरुद्ध समुचित तैयारी के साथ अदालत के सामने साक्षी परीक्षित करा के अपने नवीनीकरण को जोखिम में डालने की अपेक्षा सरकारी वकील से सभी करते है। उससे सभी निष्पक्षता और पारदर्शिता की अपेक्षा करते है परन्तु उसको अपनी पदीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए विवेकीय शक्तियों का प्रयोग करने की छूट देने के लिए राजनेता तैयार नहीं है। सरकारी वकीलों पर राजनेताओं के शिकंजे के कारण गवाहों को पक्ष द्रोहिता के लिए अवसर उपलब्ध कराना उनकी मजबूरी होती है और इसीलिए राजनैतिक कसूर वाले दाषियों को सजा नहीं हो पाती। बिसाहड़ा मामले में भी ऐसा ही नहीं होगा इसकी  गारण्टी प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी या मुख्यमंत्री अखिलेश यादव देने के लिए तैयार नहीं है।

Sunday, 27 September 2015

पुलिस थाने आतंक उत्पीड़न और अन्याय का पर्याय

मैं प्रायः कहा करता हूँ कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जनहित में पारित निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों की चैखट तक आते आते दम तोड़ देते है और आम लोग उसके लाभ से वंचित रह जाते है। पुलिस सुधार पर प्रकाश सिंह बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर मेरी कहावत पूरी तरह लागू होती है। अदालत ने इसे लागू करने की समय सीमा भी निर्धारित की थी। इस निर्णय के बाद एक लम्बा समय बीत गया है और इस अवधि में सभी राजनैतिक दलों को सत्तारूढ़ होने का अवसर मिला परन्तु किसी ने इसे लागू करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। कोई कुछ भी कहे लेकिन सच यही है कि अदालत का निर्णय लकागू करके कोई भी राजनैतिक दल सत्तारूढ़ रहने के दौरान पुलिस पर अपना शिकंजा कम नहीं करना चाहता। कहते सभी है कि पुलिस का वर्तमान ढ़ाचा औपनिवेशिक है और उसे बदलने की सख्त जरूरत है परन्तु उसे न बदलने के लिए सभी राजनेताओं में मूक सहमति है और इसीलिए सर्वाच्च न्यायालय की मानीटरिंग के बावजूद 22 सितम्बर 2006 का निर्णय अपने लागू होने की प्रतीक्षा में निरर्थक सा होने लगा है।

सम्पूर्ण देश मंे पुलिसकर्मी आज भी विदेशी शासन की तर्ज पर सत्तारूढ़ दल के राजनेताओं की हनक बनाये रखने के लिए आम लोगों को उत्पीडि़त करने का माध्यम है। केन्द्र या राज्य सभी स्तरों पर सत्तारूढ़ नेताओं द्वारा अपने राजनैतिक विरोधियों के विरुद्ध पुलिस का दुरुपयोग आम बात हो गई है। बेटी के विवाह के दिन हिमांचल प्रदेश के मुख्यमन्त्री के घर पर आयकर विभाग का छापा या दिल्ली के पूर्व कानून मन्त्री श्री सोमनाथ भारती के विरुद्ध घरेलू हिंसा के पारिवारिक मामले में दिल्ली पुलिस की तत्परता सत्ता के दुरुपयोग का ज्वलन्त उदाहरण है। सत्तारूढ़ दल के नेताओ को खुश रखने के लिए पुलिस ने राजनैतिक कार्यकर्ताओं और जघन्य अपराधियों के अन्तर को मिटा दिया हैं। आन्दोलनकारियों पर सेवन क्रिमिनल लाॅ अमेन्डमेन्ट एक्ट सरीखे कानूनों के तहत गम्भीर अपराधों में मुकदमें पंजीकृत करना आम बात हो गई है।

काँग्रेसी राज के भ्रष्टाचार की कितनी भी आलोचना की जाये परन्तु यह सच है कि आन्दोलनकारियों के प्रति उनका रवैया कभी दुश्मनी भरा नहीं रहा है। छात्र आन्दोलनों के दौरान गिरफ्तारी के कारण कभी किसी छात्रनेता के साथ अपराधियों और व्यवहार नहीं किया जाता था। आन्दोलन समाप्त होते ही आपराधिक धाराओं में पंजीकृत मुकदमें भी वापस हो जाते थे परन्तु अब ऐसा नहीं होता और आन्दोलनकारियों को अदालत के सामने विचारण झेलना ही पड़ता है। नारायण दत्त तिवारी के मुख्य मन्त्रीत्व काल में कानपुर की कपड़ा मिलों के मजदूरों ने लगातार गई दिनों तक लखनऊ, मुम्बई रेलमार्ग जाम रखा था परन्तु आन्दोलनकारियों के प्रति शासन की उदार नीति के कारण उन्हंें बलपूर्वक खदेड़ा नहीं गया। उनकी माँगे मानी गई। इस आन्दोलन के कुछ ही महीनो बाद प्रदेश की सत्ता मंे आई मुलायम सिंह यादव की सरकार ने एल.एम.एल. स्कूटर के आन्दोलनकारी श्रमिकांे पर गोली चलवाई थी जिसमंे कई श्रमिक शहीद हुये थे जबकि इनके नेता डा0 राममनोहर लोहिया आन्दोलनकारियों पर गोली चलाने के सख्त विरोधी थे।

काँग्रेसी शासन में पुलिस के दुरुपयोग का सर्वाधिक शिकार समाजवादी पार्टी और जनसंघ भारतीय जनता पार्टी के कार्यरत हुये है इसलिए इन दलों की सरकारों से पुलिस को पब्लिक ओरियेन्टेड सेवा प्रदाता संस्थान बनाने की दिशा में पहल करने की अपेक्षा की जाती थी। परन्तु इन दोनों दलों की सरकारों ने आम लोगों को निराश किया है। इनके राज मंे भी काँग्रेसी राज की तहत पुलिस को मनमानी करने की छूट प्राप्त है।

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप पुलिस को स्वायत्ता न मिलने और उनके नित्य प्रति के कामों में सत्तारूढ़ दल के संस्थागत हस्तक्षेप के कारण ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ पुलिसकर्मियों का मनोबल कमजोर होता है ओर उससे अपराधांे का जाँच एवं विवेचना कुप्रभावित होती हैं। सत्तारूढ़ दल के एक विधायक की संतुष्टि के लिए जी.एस.वी.एम. मेडिकल कालेज छात्रावास में पुलिसिया आक्रमण के दोषियों पर आज तक कोई कार्यवाही नही की गई है और आन्दोलनकारी छात्रों की संरक्षक डा0 आरती लाल चन्दानी को निलम्बित कर दिया गया है। पुलिस पर सत्तारूढ़ दल के एकाधिकार के कारण आम लोग पुलिस पर विश्वास नहीं करते। माना जाता है कि उनका आचरण जनविरोधी है और उनसे सम्पर्क आकरण परेशानियों का आमन्त्रण है इसलिए हर व्यक्ति पुलिस से दूर भागता है। वास्तव में अपनी ज्ञात आय पर अपना गुजारा करने वाले पुलिसकर्मियों को प्रोत्साहित करने की जरूरत हैं। वर्तमान व्यवस्था ऐसे लोगो को हतोत्साहित करती है।

उत्तर प्रदेश की नब्बे प्रतिशत पुलिस स्टेशनों पर एक ही जाति के थानेदारों की तैनाती और पुलिस अधीक्षक से ऊपर के अधिकारियांे का कोई कार्यकाल निर्धारित न होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय/दिशा निर्देशों का लागू होना अन्य किसी राज्य की तुलता में ज्यादा जरूरी है। इस राज्य में सत्तारूढ़ दल के सांसदो, विधायकों के हस्तक्षेप के बिना बड़ी से बड़ी बारदात की रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती। अभी पिछले दिनों जिलाधिकारी के स्पष्ट आदेश के बावजूद एक लड़की की शिकायत पर दो माह बाद मुकदमा पंजीकृत किया गया और आरोपी एक जाति विशेष का होने के कारण अभी तक उसके विरुद्ध कार्यवाही नहीं की गई है एस.एस.पी. आदि वरिष्ठ अधिकारियों के समक्ष बड़ी संख्या में नित्य प्रति फरियादियों की उपस्थिति दर्शाती है कि आम लोगों को स्थानीय पुलिसकर्मियों की निष्पक्षता और पारदर्शिता के प्रति तनिक भी विश्वास नहीं है।

वास्तव में उत्तर प्रदेश में पुलिस स्टेशन आतंक, उत्पीड़न, अन्याय और उगाही का पर्याय बन गये हैं। पिछले दिनों थाना बर्रा के थानाध्यक्ष ने एक फायनेन्स कम्पनी के अधिकारी को उत्पीडि़त करके कई हजार रूपये की उगाही की थी। हालांकि बाद में एस.पी. के हस्तक्षेप के बाद उगाही की रकम वापस की गई परन्तु जाति विशेष के दोषी पुलिस अधिकारी पर चाहकर भी एस.एस.पी. कोई कार्यवाही नही कर सके। इसलिए सर्वाेच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि पुलिस की प्रतिबद्धता और जवाबदेही केवल शासन के प्रति है और उसका नियन्त्रण और सूपरविजन इस तरह किया जाना चाहिए कि स्थानीय स्तरों पर थानांे में पुलिसकर्मी अपने पदीय कर्तव्यों का निर्वहन के दौरान किसी व्यक्ति की हैसियत या किसी प्रकार के बाहरी दबाव से कुप्रभावित न हो। मामले की परिस्थितियों के गुण-दोष या उन्हंे जो भी न्यायोचित लगंे उन्हें वही करने का प्रशिक्षण और छूट दी जानी चाहिए।

सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय का सभी राजनैतिक दलों ने स्वागत किया और उसे एतिहासिक बताया था परन्तु सत्यता कुछ और ही थी। वास्तव में किसी राजनेता को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुरूप पुलिस को स्वायत्ता प्रदान करना रास नहीं आता। सभी उस पर अपना शिकंजा मजबूत बनाये रखना चाहते है उन्हे लगता है कि यह पुलिस उनके नियन्त्रण से बाहर हो गई तो प्रापर्टी डीलिंग जैसे गुण्डई आधारित उनके धन्धे बन्द हो जायेेंगे और इसीलिए सभी दलों की सरकारों ने इसे लागू न करने के तरीके ईजाद किये है। आदेश में कहा गया है कि राज्य सरकार द्वारा अपने कानून बना लिये जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुपालन की बाध्यता समाप्त हो जायेगी इसलिए कई राज्यों ने आनन-फानन में नये पुलिस अधिनियम बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की मूल भावना को ठेंगा दिखाया है।

अटल बिहारी बाजपेई की सरकार ने अक्टूबर 2005 में प्रख्यात विधिवेत्ता श्री सोली सोराव जी की अध्यक्षता में पुलिस एक्ट ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन किया था। जिसने 30 अक्टूबर 2006 को माडल पुलिस एक्ट को प्रारूप केन्द्र सरकार को सौंप दिया है। माना जा रहा था कि उसी प्रारूप के आधार पर केन्द्र सरकार अपना पुलिस एक्ट बनायेगी और फिर राज्य सरकार भी उसी के अनुरूप अपने राज्यों में कानून बना लेगी परन्तु अक्टूबर 2006 के बाद अपने अवशेष कार्यकाल में श्री अटल बिहारी बाजपेई की सरकार ने और फिर दस वर्षो तक मनमोहन सिंह सरकार ने सोली सोराव जी कमेटी की अनुशंसाओं को लागू करने के लिए कोई पहल नहीं की। इस विषय पर अब मोदी सरकार की चुप्पी भी निराशा का कारण बना रही है।

Sunday, 20 September 2015

अनावश्यक गिरफ्तारियाँ व्यक्ति केे मौलिक अधिकारों का हनन


दण्ड प्रक्रिया संहिता में नई धारा 41ए जोड़कर विश्वनीय साक्ष्य संकलित किये बिना अभियुक्तों की गिरफ्तारी पर विधिक रोक लगाये जाने के बावजूद आम लोगों पर गिरफ्तारी का पुलिसिया कहर जारी है। पूँछताछ पर अन्य किसी नाम पर किसी को भी कोई कारण बताये बिना निरुद्ध रखना और फिर उसे उत्पीडि़त करना पुलिस कर्मियों की फितरत है। इसमें सुधार की कोई गुन्जाइस दिखती भी नहीं है। आजादी के बाद पुलिस में सुधार के लिए बनाये गये किसी भी कमीशन की रिपोर्ट को लागू करना किसी भी सरकार की प्राथमिकता में नहीं रहा है। सभी दलों ने अपनी अपनी सरकारों के दौरान उसके दुरुपयोग में महारथ हासिल की है और इसी कारण पुलिस को जनता ओरियेन्टेड एक निष्पक्ष एवं पारदर्शी सर्विस प्रोवाइडर संस्थान बनाने की दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं की जा रही है। और उसके कारण आम लोगों को उत्पीडि़त करने के लिए पुलिसकर्मियांे को खुली छूट मिली हुई है और उन पर अंकुश रखना किसी की भी चिन्ता का विषय नही हैं। जबकि इससे आम लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन होता है।

अपने देश की 1353 जेलों में निरुद्ध लगभग चार लाख लोगों में आधे से ज्यादा विचाराधीन बन्दी है अर्थात अपने विरुद्ध कोई दोष सिद्ध हुये बना भी वह जेल में है। इनमें से अधिकांश आर्थिक कारणों से जमानत का प्रबन्ध न कर पाने के कारण जेल में रहने को अधिशप्त हैं। अपने देश में प्रतिवर्ष लगभग पचहत्तर लाख व्यक्ति गिरफ्तार किये जाते है। इनमें से अस्सी प्रतिशत लोग साधारण अपराधों या सात वर्ष तककी सजा वाले अपराधों में गिरफ्तार किये जाते है। ऐसे अभियुक्तों के फरार होने विचारण के समय अदालत के समक्ष हाजिर न रहने या साक्षियांे को डराने, धमकानें कुप्रभावित करने की अशंका न के बराबर होती है। ऐसे लोगों गिरफ्तार करके जेल भेजने और अदालत के सक्षम उनकी जमानत का विरोध करने का कोई युक्तियुक्त आधार न होने के बावजूद अभियोजन कीतरफ से जमानत का विरोध किया जाता हैं। दुर्भाग्यवश जमानत प्रार्थनापत्रों की सुनवााई केे दौरान थाने से रिपोर्ट नही आई पुट अप टुमारो का आदेश आम बात हो गई हैऔर इस कारण साधारण मामलों में जेल जाना मजबूरी बन गया है। परिवाद के मामलों में तलबी आदेश के बाद न्यायालय द्वारा भेजे गये सम्मन के अनुपालन में न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने वाले अभियुक्तों को पहले जमानत अधिकार स्वरूप मिल जाया करती थी परन्तु अब ऐसे मामलों में भी अभियुक्त जेल भेज दिये जाते है जबकि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 88 के तहत तलवी आदेश के बाद अभियुक्तों की उपस्थिति बजरिये अधिवक्ता स्वीकार की जा सकती है। इसका स्पष्ट प्रावधान विधि में है।

आपातकाल के बाद सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार ने पुलिस सुधार के लिए धर्मवीर आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि इकसठ प्रतिशत आपराधिक मामलों में अभियुक्तों की गिरफ्तारी जरूरी नहीं होती। सर्वोच्च न्यायालय ने जोगेन्द्र सिंह के मामले में जारी अपने दिशा निर्देशो में कहा था कि पुलिस को केवल उन्ही मामलों में गिरफ्तारी करनी चाहिये जहाँ इसकी वास्तविक जरूरत हो। केवल औपचारिकतावश नामजद अभियुक्तों को गिरफ्तार करके महीनो जेल में निरुद्ध रखना न्याय संगत नही है। इन दिशा निर्देशों की  प्रकृति आदेशात्मक है परन्तु स्थानीय स्तरों पर अनावश्यक गिरफ्तारियों पर कोई रोक नहीं लगी। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालयने लाला कमलेन्दु प्रसाद के मामले में फिर से एक नया आदेश पारित किया परन्तु आम लोगों पर गिरफ्तारी का पुलिसिया कहर बन्द नहीं हो सका हैं। लाला कमलेन्दु प्रसाद के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय होने के बावजूद अधिनस्थ न्यायालयों के समक्ष आम लोगों को इसका लाभ नही मिल सका। इस निर्णय का लाभ प्राप्त करने के लिए हाई कोर्ट की शरण लेनी पड़ती है और उसका व्यय वहन करना सब लोगों के वश की बात नही है।

आपराधिक न्याय प्रशासन में सुधार के लिए बनाई गई मलिमथ कमेटी ने वर्ष 2000 मे अटल बिहारी बाजपेयी सरकार के समक्ष प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में अनावश्यक गिरफ्तारियों पर चिन्ता जताई थी और इसके समाधान के लिए कई सार्थक सुझाव दिये थे परन्तु अन्य आयोगो एवं कमेटियों की तरह मलिमथ कमेटी की अनुशंासाये भी लागू होने की प्रतीक्षा में दम तोड़ने लगी हैं। मलिमथ कमेटी ने सुझाव दिया थाकि पुलिस को गिरफ्तारी का अधिकार देने वाले संज्ञेय अपराधों की संख्या कम कर दी जाये। कुछ गम्भीर अपराधों को छोड़कर अवशेष मामलों को असंज्ञेय अपराध के रूप में वर्गीकृत किया जाये ताकि इन मामलों में गिरफ्तारी का अधिकार स्वतः समाप्त हो सके। कुछ विशेष अपराधों में अदालत की अनुमति से अभियुक्तों की गिरफ्तारी का अधिकार पुलिस को दिया जा सकता है परन्तु वर्तमान व्यवस्था को किसी भी दशा में जारी रखना न्यायसंगत नही हैं।

सात वर्ष तक की सजा वाले अपराधों में विश्वसनीय साक्ष्य संकलित किये बिना गिरफ्तारी पर विधिक रोक लगने के बाद देश में गिरफ्तार किये गये व्यक्तियों की संख्या चैहत्तर लाख से बढ़कर उन्यासी लाख हो गई है जो इस तथ्य का प्रतीक है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करके बढ़ाई गयी धारा 41ए का लाभ आम लोगों को प्राप्त नहीं हो सका जबकि विधिक सेवा प्राधिकरण सहित सभी सम्बन्धित एजेन्सियों ने इस धारा का व्यापाक प्रचार किया है। स्थानीय पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी के अधिकार मे किसी भी प्रकार की कटौती को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानते है इसलिए उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। आँकड़े जाहिर करते हैकि करीब चालिस प्रतिशत विचाराधीन बन्दी पहले तीन महीने के भीतर जेल से जमानत पर रिहा हो जाते है। लगभग साठ प्रतिशत विचारधीन बन्दियों को एक वर्ष के अन्दर जमानत मिल जाती है। इनमें से अधिकांश मामलोें मे विचारण के दौरान अभियुक्त के विरुद्ध अभियोजन एजेन्सी अदालत के समक्ष समुचित साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाती और अभियुक्त दोषमुक्त हो जाता है और उसको जेल भेजने का औचित्य निराधार साबित हो जाता है। इससे यह भी साबित हो जाता है कि पुलिस अपनी हनक बनाये रखने और आम लोगो को सबक सिखाने के लिए किसी मुक्ति युक्त आधार के बिना लोगों को गिरफ्तार करके जेल भेज देती है जो गिरफ्तारी के अधिकार की मूल भावना के प्रतिकूल हैं।

आम लोगों को अनावश्यक गिरफ्तारी से बचाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने अपने स्तर पर सार्थक पहल की हैं परन्तु यह पहल अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी कार्य प्रणाली में सुधार के लिए पे्ररित नहीं कर पा रही हैं जबकि अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। गिरफ्तार किये गये व्यक्तियों को जमानत पर रिहा करने के बजाय विचाराधीन बन्दी के रूप में उन्हें एक या दो दिन के लिए जेल भेज देने की अधीनस्थ न्यायालयों की मानसिकता भी सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों को उनकी मूल भावना के अनुरूप लागू करने में एक बड़ी बाधा है। थाना कोतवाली हलद्वानी में एक व्यवसायिक विवाद में स्थानीय पुलिस ने एक कम्पनी के अधिकारी को बरेली में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया जबकि उस मामले में नैनीताल हाईकोर्ट ने गिरफ्तारी पर रोक लगा रखी थी और न्यायिक मजिस्ट्रेट ने भी तकनीकी कारणांे से गिरफ्तार अधिकारी को जमानत नही दी और जेल भेज दिया। इस मामले में अन्य अभियुक्तों को न्यायिक मजिस्टेªट के समक्ष उपस्थित हुये बिना सर्वोच्च न्यायालय ने पाँच हजार रूपये की दो जमानतों और इतनी ही राशि के बन्धपत्र पर रिहा करने का आदेश पारित किया था। बाद में इस मामले की प्रथम सूचना रिपोर्ट को नैनीताल हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति बी.सी. काण्डपाल ने खारिज भी कर दिया था परन्तु स्थानीय पुलिस की धींगामुस्ती और न्यायिक अधिकारी की रूटीन वर्किंग के कारण एक निर्दोष व्यक्ति को बाइस दिन तक जेल में रहकर सामाजिक आपमान और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों पर जिम्मेदारी डाली है कि जब उनके समक्ष किसी गिरफ्तार व्यक्ति को पेश किया जाये तो उन्हें समीक्षा करनी चाहिए कि क्या गिरफ्तारी आवश्यक थी? और यदि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों के गुण दोष पर गिरफ्तारी अनावश्यक प्रतीत हो तो व्यक्ति को तत्काल जमानत पर रिहा कर दे। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भीकहा है कि इन दिशा निर्देशों का अनुपालन न करने वाले पुलिस कर्मियों और न्यायालय की अवमानना का दोषी माना जाय। मुझे नहीं लगता कि मेरे जीवनकाल में सर्वोच्च न्यायालय के इस दिशा निर्देश का अनुपालन अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष सुनिश्चित कराया जा सकेगा।                  

Sunday, 6 September 2015

 घरेलू हिंसा पीडि़त पति भी है कोई उसकी सुनता नहीं
आम तौर पर कानून की नजर में पत्नी निरीह और पीडि़त मानी जाती है। उसके साथ ससुराल में हर स्तर पर अन्याय किया जाता है उसे दहेज के लिए प्रताडि़त किया जाता है परन्तु वास्तव में हर समय यही सच नहीं होता। कई बार पति पत्नी की तुलना में ज्यादा पीडि़त और अकेला होता है। माँ और पत्नी के बीच में पिसता रहता है परन्तु सार्वजनिक स्तर पर उसे ही दोषी माना जाता है।
पिछले दिनों एक पढ़ी लिखी उद्यमी पत्नी ने अपने पति के गाल पर समोसा रगडा और फिर वहीं पर पति के साथ मार पीट करके उसे अपमानित किया। इस घटना को देखने वाले सभी लोगों ने पति को उसकी कायरता के लिए धिक्कारा परन्तु पति ने उसके विरूद्ध कहीं कोई शिकायत दर्ज नही कराई। पत्नी आज भी साधिकार पतिग्रह में रह रही है अपने तरीके से पति के खर्चे पर अपनी जीवन जीती है। पत्नी इस मामले मंे हर तरह से दोषी है और जानबूझकर अपने पति और सास ससुर को अपमानित करके प्रताडि़त कर रही है परन्तु कानून में पत्नी को दण्डित कराने की कोई व्यवस्था न होने के कारण पति असहाय होकर उत्पीड़न झेलने को अभिशप्त है।
वास्तव में पति पत्नी के विवाद में पति और उसके निकटतम सम्बन्धियों को दोषी मानने की अवधारणा ने पति को अन्याय का शिकार बना दिया है। शादी के बाद प्रायः दहेज को लेकर घर में विवाद होते रहते है परन्तु इस प्रकार के वास्तविक विवाद पुलिस के स्तर तक नहीं जाते। पति पत्नी के बीच किन्ही और कारणों को लेकर विवाद उत्पन्न होते है। दोनों की एक समान पढ़ाई लिखाई और उसके कारण अपने आपको सामने वाले से ज्यादा श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति दाम्पत्य विवादों का एक बड़ा कारण है। पारिवारिक स्तर पर सामंजस्य बिठा न पाने के कारण भी विवाद उत्पन्न होते है। दहेज की इन विवादों में कोई भूमिका नहीं होती परन्तु शिकायत दहेज को आधार बनाकर की जाती हैै जिसमें पति की विवाहित बहनों और उनके पतियों को भी शामिल कर लिया जाता है। प्रथम सूचना रिपार्ट दर्ज हो जाने के बाद पूरा परिवार आत्म ग्लानि का शिकार हो जाता है और फिर पत्नी मनमाफिक तरीके से पति को समझौता करने के लिए विवश करती हैै।
डामेस्टिक वायलेन्स एक्ट के तहत शुरुआत में ही पति को दोषी मान लिया जाता है। जबकि आपराधिक न्यायशास्त्र का नियम है कि जब तक दोष सिद्ध न हो जाये तब तक आरोपी को निर्दोष माना जाना चाहिये। कहा जाता है कि दस दोषी छूट जायें परन्तु किसी भी दशा में एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए लेकिन डामेस्टिक वायलेन्स एक्ट के तहत की गई शिकायतों पर पति को शुरुआत में ही  दोषी मानकर जमानत कराने के लिए मजबूर किया जाता है और फिर अदालती कार्यवाही के दौरान उसे नित्य पति अपमानित भी होना पड़ता है।
पुलिस स्टेशनों पर पति की शिकायत पर पत्नी के विरूद्ध मुकदमा पंजीकृत नहीं किया जाता जबकि पति भी घरेलू हिंसा का शिकार होता है वास्तव में डामेस्टिक वायलेन्स एक्ट सीताओं को उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाया गया था परन्तु व्यवहार में इसका लाभ केवल सूर्पनखाओं को प्राप्त होता रहा है। सम्पूर्ण देश में पति अपनी पत्नियों द्वारा पंजीकृत कराये गये आपराधिक मुकदमों से उत्पीडि़त हो रहे है। परन्तु उनकी व्यथा को समझने के लिए कोई तैयार नहीं है। एक स्कूल टीचर ने कक्षा 9 के अपने विद्यार्थी को अपने साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए उत्प्रेरित किया और फिर उससे उसके माता पिता की इच्छा के प्रतिकूल आर्य समाज मन्दिर में शादी कर ली। इस विवाह में दहेज की कोई भूमिका नहीं थी परन्तु पत्नी ने थाना किदवई नगर कानपुर नगर में अपने नाबालिग पति और उसके माता पिता के विरूद्ध दहेज उत्पीड़न के आरोप में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करा दी है। पति ने भी अपनी पत्नी के विरूद्ध थाने में शिकायती पत्र दिया है परन्तु उसकी शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट अभी तक दर्ज नहीं की गई।
दाम्पत्य विवादों को पत्नी के विरूद्ध अपराध की तरह देखने और मानने के कारण पतियों का उत्पीड़न तेजी से बढ़ा है। हलाँकि सात वर्ष तक की सजा के आपराधिक मामलों मंे विश्वसनीय साक्ष्य संकलित किये बिना गिरफ्तारी पर रोक लग जाने के कारण तत्काल जेल जाने का खतरा टल गया है। परन्तु यदि पत्नी की मनमर्जी के अनुसार पति पक्ष समझौते के लिए तैयार नहीं होता तो उसे जमानत करानी ही पड़ती है और फिर विचारण का सामना करना पड़ता है जो कई वर्ष तक चलता है। दाम्पत्य विवादों को अपराध मानने की अवधारणा का उद्देश्य कुछ भी रहा हो परन्तु अब इसका जमकर दुरुपयोग हो रहा है। वृद्ध दादा दादी और किशोर भाई बहनों को मुस्लिम बना देना आम बात हो गई है दाम्पत्य विवाद पारिवारिक सामाजिक समस्या है और उसे इसी रूप में देखा जाना चाहिये। पारिवारिक ताना बाना और सामाजिक शक्तियाँ निरन्तर कमजोर होती जा रही है आज हर व्यक्ति अपने को केन्द्र बिन्दु मानकर निर्णय चाहता है जो पारिवारिक जीवन में सम्भव नहीं है। सभी को एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना होगा। एक लड़की पत्नी के साथ माँ, बहन, बुआ, चाची, मामी और भाभी भी होती हैं इसलिए उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करने के पहले उसे और उसके माता पिता को  सभी पारिवारिक पहलुओं पर विचार करना चाहिए और घर के स्तर पर पति पत्नी को अपने मतभेद दूर करने के अवसर दिये जाने चाहिए।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498ए, 304बी एवं 3/4 दहेज प्रतिषेध अधिनियम के मुकदमांे में विवेचना क्षेत्राधिकारी स्तर के पुलिस अधिकारी से कराई जाती है और इसके पीछे विधायिका की मंशा थी कि सम्पूर्ण घटनाक्रम की जांच निष्पक्ष पारदर्शी तरीके से हो ताकि किसी निर्दोष के विरूद्ध आरोप पत्र दाखिल न  हो सके परन्तु क्षेत्राधिकारी अपने स्तर पर पारिवारिक मतभेदों को दूर करने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं करता बल्कि सभी नामजद लोगों के विरूद्ध आरोप पत्र विचारण के लिए प्रेषित कर देता है। एक मामले में पत्नी की मृत्यु प्रसव के दौरान अस्पताल में हुई। परन्तु लड़की के पिता नेे दहेज हत्या का मुकदमा पंजीकृत करा दिया। जिसमें पन्द्रह वर्ष पहले ब्याही गई बहन और उसके पति को भी मुल्जिम बनाया गया चिकित्सकीय साक्ष्य से दहेज हत्या का कोई मामला नहीं बनता था परन्तु सम्पूर्ण परिवार को अदालत ने धारा 304बी के तहत निर्दोष पाया और दहेज प्रतिषेध अधिनियम के तहत पति और उसके नातेदारों को दोषी मानने की अवधारण के कारण तीन वर्ष के सक्षम कारावास से दण्डित किया।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498ए, 304बी, 306 दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धारा 3/4 साक्ष्य अधिनियम की धारा 113बी और डामेस्टिक वायलेन्स एक्ट महिलाओं की सुरक्षा के लिए अधिनियमित किये गये है परन्तु अब यह धाराये पतियों के विरूद्ध विधिक आतंक से कम नहीं है। इन धाराओं के आतंक के कारण पति अपनी पत्नी की मनमानी झेलने के लिए अभिशप्त है। अभियोजन एजेन्सी भी इन धाराओे का अनुचित सहारा लेकर पति अैर उसके नातेदारों का उत्पीड़न करती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रीती गुप्ता बनाम स्टेट आफ आर झारखण्ड (ए.आई.आर-2010- सुप्रीमकोर्ट- पेज 3313) में इन धाराओं के दरुपयोग पर चिन्ता व्यक्त की है। विधि आयोग ने भी इन धाराओ में संशोधन की सिपारिस की है परन्तु सरकार के स्तर पर अभी तक कोई सकारात्मक पहल नहीं की गयी हैं।


Sunday, 23 August 2015

प्राथमिक स्तर पर एक समान शिक्षा अदालती आदेश कारगर नही

 डाक्टर राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि लोग मेरी बात सुनेंगे, शायद मेरे मरने के बाद। उनकी इस बात को एक समान शिक्षा के सवाल पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के हालिया फैसले ने चरितार्थ किया है। वे मानते थे कि संसदीय लोकतन्त्र की सफलता और उसके स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि देश के सभी बच्चों के लिए एक जैसी शिक्षा अनिवार्य की जाये। 1974 के जे.पी. मूवमेन्ट के दौरान भी दोहरी शिक्षा व्यवस्था एक महत्वपूर्ण मुद्दा था लेकिन इस आन्दोलन की लहर पर सवार होकर सत्ता सुख पाने वाले तत्कालीन छात्र नेताओं ने राजनेता बनने के सफर के दौरान इस मुद्दे को भुला दिया और दोहरी शिक्षा के जंजाल को पहले से ज्यादा मजबूत करने का काम तेजी से किया है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति श्री सुधीर अग्रवाल ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि मन्त्रियों, नेताओं, आई.ए.एस. अफसरों, जजो और सरकारी कर्मचारियों निगम अर्धसरकारी संस्थानों या जो कोई भी राज्य के खजाने से वेतन ले रहा है उनके बच्चों को सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य किया जाये। उन्होनंे अपने इस निर्णय के अनुपालन के लिए मुख्य सचिव से अन्य अधिकारियों के साथ विचार विमर्श करके नीति बनाने और अगले शैक्षिक सत्र से इसे लागू करने का निर्देश दिया है।
संविधान के नीति निदेशक तत्व में भी कहा गया है कि राज्य छः वर्ष तक की आयु के छोटे बच्चों की देखभाल करने और उन्हंे शिक्षा देने का प्रयास करे। 42 वे संविधान संशोधन अधिनियम 1976 में अनुच्छेद 39(च) के माध्यम से नीति निदेशक तत्वों मंे बच्चों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावारण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधायें दिये जाने का प्रावधान किया गया है। और इसी को दृष्टिगत      रखकर मनमोहन सिंह सरकार ने निःशुल्क एवं अनिवार्य बात शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू किया जो उत्तर प्रदेश में दिनांक 27 जुलाई 2011 से प्रभावी है परन्तु धरातल पर यह अधिनियम केवल और केवल कानूनी विशेषज्ञों के बीच चर्चा तक सीमित है। अपने नौनिहालों को उनके उज्जवल भविष्य के लिए एक समान शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराना राज्य का दायित्व है परन्तु उनको अपने इस दायित्व की सुध नही है इसीलिए न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। विधायिका के मामलो में न्यायपालिका का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप संविधान सम्मत नहीं है परन्तु अपने कर्तव्यों के प्रति राज्य सरकारों की उदासीनता के कारण आम आदमी न्यायपालिका के हस्तक्षेप को उचित मानता है।
आजादी के तत्काल बाद से प्रारम्भिक शिक्षा में सुधार और उसे अनिवार्य बनाने की चर्चा की जा रही है परन्तु उसे सुधारने या उसे अनिवार्य बनाने के लिए कभी किसी सरकार ने ईमानदार प्रयास नहीं किये है और उसी कारण सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में विद्यार्थियों को आजादी के अड़सठ साल बाद  भी अनिवार्य बुनियाादी सुविधाओं के लिए तरसना पड़ता है।
शिक्षा के निजीकरण ने दोहरी शिक्षा व्यवस्था को और ज्यादा मजबूत किया है। निजी क्षेत्र के स्कूलों की आँधी ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था की जड़े हिला दी है। सरकारी स्कूलों के अध्यापक भी अब अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते है। आज से पचास साल पहले डाक्टर, वकील, इंजीनियर और अधिकारियों के बच्चे अपने घर के पास सरकारी स्कूल में ही पढ़ते थे और वहीं के विद्यार्थियों में से कई आई.ए.एस. ,पी.सी.एस. हुए है जबकि उस समय प्राथमिक विद्यालायों में हाईस्कूल पास और माध्यमिक विद्यालयों में सामान्य स्नातक अध्यापन करते थे। अब तो प्राथमिक विद्यालयों में भी प्रथम श्रेणी के परास्नातकांे की नियुिक्त की जा रही है और उन्हें शासकीय कर्मचारियों की तरह आकर्षक वेतन, भत्ते और सुविधायें दी जा रही है। लेकिन इनके विद्यार्थी शुद्ध हिन्दी लिखने में भी निपुण नहीं हो पा रहे है सच कहा जाये तो उन्हे निपुण करने का प्रयास भी नहीं किया जाता। अधिकांश नव नियुक्त आध्यापक केवल हाजिरी लगाने के लिए विद्यालय जाते हैं। विद्यार्थियों को पढ़ाने से उनका कोई वास्ता नहीं है।
मुलायम सिंह, कल्याण सिंह और मायावती के अन्धभक्त और कट्टर अनुयायी        आर्थिक विपन्नता के कारण बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों या कारपोरेट स्कूलों में पढ़ा पाने में अपने आपको असमर्थ पाते है। स्थानीय सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना उनकी मजबूरी है। उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है परन्तु इन लोगों ने अपने मुख्य मन्त्रित्व काल में स्थानीय सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधायें उपलब्ध करा कर उनकी शैक्षिक गुणवत्ता को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया। अपने विद्यार्थी जीवन में इन लोगों ने दोहरी शिक्षा व्यवस्था के लिए काँग्रेसी सरकारों को जमकर कोसा है और उसके विरूद्ध आन्दोलन किये है। कल्याण सिंह ने अपने कार्यकाल में प्राथमिक स्कूलों में उच्च शिक्षित अध्यापको की नियुक्ति की थी और उसके बाद कमोबेश सभी सरकारों ने अध्यापको की नियुक्ति में शैक्षिक मापदण्डों के साथ समझौता नहीं किया परन्तु स्कूलों में अध्ययन अध्यापन लायक गरिमामय रचनात्मक माहौल बनाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया। सैकड़ो स्कूलों में केवल एक अध्यापक कक्षा एक से पाँच तक के विद्यार्थियों को पढ़ा रहे है। भारी कमी के बावजूद अध्यापकों से गैर शैक्षणिक कार्य लिया जाना आम बात हो गयी है। प्राथमिक स्कूलों में दो और उच्च प्राथमिक स्कूलों में विज्ञान गणित और भाषा के कम से कम तीन अध्यापकों की नियुक्ति का प्रावधान है। अखिलेश सरकार को स्वयं संज्ञान लेकर न्यायपालिका के हस्तक्षेप की प्रतीक्षा किये बिना आर्थिक दृष्टि से विपन्न परिवारों के नौनिहालों के उज्जवल भविष्य के लिए सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में बुनियादी शैक्षिक सुविधाये उपलब्ध करानी चाहिए।
पचास साठ के दशक में जिला पंचायत, नगर पालिकाओं, रेलवे आदि के प्राथमिक विद्यालय हुआ करते थे और वहां अच्छी पढ़ाई भी होती थी समय के साथ इन स्कूलों के भवनों का व्यवसायिक महत्व बढ़ गया इसलिए इन स्कूलों की जमीनों को बेचने के लिए जानबूझकर प्रचार किया गया कि अब कोई अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना ही नही चाहता जबकि सच इसके प्रतिकूल है। आज भी जिन सरकारी स्कूलों का शैक्षिक स्तर ठीक है, वहां आम लोगो के बच्चों को प्रवेश नहीं मिल पाता। सार्वजनिक धन से स्थापित दिल्ली का संस्कृति स्कूल इसका जीता जागता उदाहरण है। इस स्कूल में आला नौकरशाहों और उच्च स्तरीय राजनेताओं के बच्चों को प्रवेश मिल पाता हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत इस स्कूल में एक भी निर्धन विद्यार्थी को प्रवेश नहीं मिल पाता। केन्द्र सरकार की नाक के नीचे उसके व्यय पर चल रहे इस स्कूल में शिक्षा के अधिकार अधिनियम को लागू करने की चिन्ता किसी को नहीं है। प्राथमिक स्तर पर एक समान शिक्षा नीति लागू करने के लिए अदालती आदेश कारगर नहीं है परन्तु यह भी सच है कि यदि न्यायमूर्ति श्री सुधीर अग्रवाल द्वारा पारित आदेश का अनुपालन प्रदेश सरकार सुनिश्चित कराये और सरकारी, अर्द्धसरकारी कर्मचारियों, जनप्रतिनिधियों, न्यायाधीशों आदि सरकारी खजाने से वेतन या पारिश्रमिक पाने वाले विशिष्ट लोगों के बच्चे जब सरकारी स्कूलोें में पढ़ने लगेंगे तो निश्चित रूप से दोहरी शिक्षा व्यवस्था के अभिशाप से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा।

Sunday, 9 August 2015

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Monday, 3 August 2015

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Sunday, 26 April 2015

न्याय की अवधारणा फिर पराजित हुई


सर्वोच्च न्यायालय के सुस्पष्ट दिशा निर्देशो के बावजूद 28 फरवरी 2014 को गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक मेडिकल कालेज मे तत्कालीन एस.एस.पी. यशस्वी यादव के नेतृत्व और निर्देशन मे जबरन घुसकर निहत्थे छात्रो को मारने पीटने उनके लैपटाप, मोबाइल लूटने और उनके साथ अमानवीय व्यवहार करने के लिये दोषी पुलिस कर्मियो को दण्डित नही किया जा सका। पीडित छात्रो और प्राध्यापको को सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग करके दोषी पुलिस कर्मियो के समर्थन मे शपथपत्र देने के लिये मजबूर किया गया है। इसके पूर्व चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यायल मे देर रात जबरन घुसकर कानपुर की मित्र पुलिस ने छात्रावासो मे सो रहे छात्रो को बुरी तरह मारा पीटा था और उस मामले मे भी पुलिस कर्मियो के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की गयी और उसके कारण पुलिस कर्मियो का मनोबल बढा हुआ है और वे अपने आपको आज भी शासक मानते है।
गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक मेडिकल कालेज की घटना पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लिया और न्यायमूर्ति श्री राजमणि चैहान की अध्यक्षता मे न्यायिक जाँच आयोग का गठन किया था। न्यायमूर्ति श्री चैहान ने घटना स्थल पर आकर सम्बद्ध पक्षो के बयान लिये। एक दूसरे को गवाहो से जिरह का अवसर दिया और अपनी जाँच रिपोर्ट सरकार को सौप दी है। जाँच मे गवाहो की परीक्षा प्रतिपरीक्षा से सिद्ध हो गया था कि तत्कालीन एस.एस.पी के नेतृत्व और निर्देशन मे पुलिस कर्मियो ने अपनी पदीय शक्तियो का आपराधिक दुरूपयोग किया और छात्रावासो मे जबरन घुसकर निहत्थे छात्रो पर हमला किया और लूट पाट की है । न्यायिक जाॅच के कारण सभी को विश्वास था कि पदीय अधिकारो का दुरूपयोग करने के लिये पुलिस कर्मी निश्चित रूप से दण्डित होगे और फिर भविष्य मे कोई पुलिस कर्मी आम जनता को उत्पीडित करने का दुस्साहस नही कर सकेगा परन्तु जिस तरीके से एस0आई0टी0 (स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम) ने दोषी पुलिस कर्मियो को निर्दोष साबित करने के लिये साक्षियो के शपथपत्र एकत्र करने मे तत्परता दिखाई और फिर फाइनल रिपोर्ट लगाकर सम्पूर्ण प्रकरण को ठन्डे बस्ते मे डाल दिया है, उसको देखकर हैरत होती है। मेडिकल कालेज की घटना पर विवेचक का यह आचरण लोकतन्त्र के गाल पर जबर्दस्त तमाचा है और इसके द्वारा सभी को न्याय की अवधारणा का गला घोटा गया है।
मुझे नही मालूम कि “नेहरू तेरे राज मे पुलिस डकैती करती है“ का उद्धोष डा0 राम मनोहर लोहिया ने क्यो और किन परिस्थितियो मे किया था? परन्तु 28 फरवरी 2014 को गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक मेडिकल कालेज छात्रावास मे पुलिसिया अत्याचार के दोषी पुलिस कर्मियो को विधिपूर्ण दण्ड से बचाने के लिये उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किये गये प्रयासो को देखकर सिद्ध होता है कि नेहरू सरकार पर डाक्टर राम मनोहर लोहिया की टिप्पणी अखिलेश सरकार पर पूरी तरह लागू होती है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कभी कहा था कि उत्तर प्रदेश पुलिस संघटित अपराधियो का सरकारी गिरोह है। उत्तर प्रदेश पुलिस पर न्यायालय की यह टिप्पणी मेडिकल कालेज प्रकरण पर एकदम सामयिक है और उसे किसी भी दशा मे दुर्भावनापूर्ण नही माना जा सकता। अपने देश प्रदेश मे पुलिस कर्मियो को किसी के भी साथ अभद्रता करने उन्हे फर्जी मामले बनाकर गिरफ्तार करने और अभिरक्षा के दौरान अमानवीय व्यवहार करने का अधोषित अधिकार प्राप्त है। थानो की जनरल डायरी (जी0डी0) एकदम मनमाने तरीके से लिखी जाती है। वर्तमान मे केन्द्र और राज्य सरकारो के कई कैबिनेट मन्त्रियो और मुख्यमन्त्रियो को पुलिसिया अत्याचारो का प्रत्यक्ष अनुभव है परन्तु अपने तत्कालिक स्वार्थो और स्थानीय राजनैतिक कारणो से इन लोगो ने समुचित अवसर होते हुये भी अपने पुलिस बलो को पब्लिक ओरियेन्टेड सेवा प्रदाता संस्थान बनाने की दिशा मे कभी कोई पहल नही की बल्कि न्यायालयो द्वारा किये गये प्रयासो मे पलीता लगाने का काम किया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व डी.जी.पी. श्री प्रकाश सिंह की याचिका पर दिये गये निर्णय को किसी भी राजनैतिक दल की सरकार ने लागू नही किया है और इसी कारण स्वतन्त्र भारत मे भी पुलिस कर्मियो की अराजकता बेलगाम है और किसी के भी साथ अमानवीय व्यवहार उनकी आदत है।
4- 5 जून 2011 की रात मे रामलीला मैदान के योग शिविर पर दिल्ली पुलिस का आचरण और गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक मेडिकल कालेज मे उत्तर प्रदेश पुलिस का आचरण एक जैसा रहा है। दोनो मामलो मे पुलिस ने निहत्थे नागरिको के साथ मारपीट की उन पर हमला किया और उनके साथ अमानवीय व्यवहार करके उनके मानवाधिकारो का हनन किया है। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सु मोटू रिट पिटीशन (क्रिमिनल) सं0 122 सन् 2011 मे दिनांक 23 फरवरी 2012 को पारित निर्णय के तहत मेडिकल कालेज की घटना पर स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम द्वारा प्रस्तुत फाइनल रिपोर्ट शुरूआत से ही विधि विरूद्ध हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस निर्णय मे स्पष्ट किया था कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत न्यूसेन्स या आंशकित खतरे के अर्जेण्ट मामलो मे प्रशासनिक अधिकारियो को किसी भी प्रकार की भीड को तितर बितर करने के लिये निरोधक कार्यवाही करने का अधिकार प्राप्त है परन्तु आम जनता के विरूद्ध इस प्रकार की कार्यवाही करने के पूर्व सम्बन्धित मजिस्टेªट के लिये रीजन्ड लिखित आदेश पारित करना आवश्यक है। आदेश की प्रति सम्बन्धित लोगो पर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 134 मे उपबन्धित रीति से तामील कराया जाना भी आवश्यक है। पुलिस अधिनियम मे भी इस आशय का प्रावधान है जो शुरूआत से ही पुलिस अधिकारियो के संज्ञान मे रहता है परन्तु मेडिकल कालेज प्रकरण मे तत्कालीन एस.एस.पी. ने छात्रो पर हमला करने के पूर्व उन्हे तितर बितर होने या शान्ति पूर्वक छात्रावास खाली करने का कोई नोटिस नही दिया है। छात्रावास मे पुलिस के जबरिया प्रवेश के समय छात्रावासो मे किसी प्रकार की अशान्ति नही थी और न शान्ति भंग का कोई तात्कालिक खतरा विद्यमान था। ऐसी दशा मे एस.एस.पी. यशस्वी यादव और उनके सहयोगियो द्वारा की गई सम्पूर्ण कार्यवाही दोषपूर्ण थी और उसके द्वारा जानबूझकर छात्रो के मौलिक अधिकारो का हनन सर्वविधित है। इसलिये फाइनल रिपोर्ट केवल और केवल एक तमाशा है और उससे सिद्ध होता है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने इस प्रकरण मे अपने संवैधानिक दायित्वो का पालन नही किया और दोषी पुलिस कर्मियो को पीडित छात्रो पर अनुचित दबाव बनाने के लिये अवसर उपलब्ध कराये है।
मेडिकल कालेज के प्रकरण मे न्यायमूर्ति श्री आर.एम. चैहान की न्यायिक जाॅच रिपोर्ट आवश्यक कार्यवाही के लिये उत्तर प्रदेश सरकार के समक्ष लम्बित है और उसके आधार पर एस.एस.पी. यशस्वी यादव और उनके सहयोगियो के विरूद्ध उनकी सेवा शर्तो के तहत विभागीय अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सकती है। स्टेट आॅफ मध्य प्रदेश एण्ड अदर्स बनाम परवेज खाॅ (2015-1- सुप्रीम कोर्ट केसेज- एल. एण्ड एस पेज 544) और इसके पहले अन्य कई मामलो मे प्रतिपादित किया है कि आपराधिक धाराओ मे विचारण के समय न्यायालय द्वारा दोष मुक्त घोषित हो जाने के बाद भी शासकीय कर्मचारियो के विरूद्ध विभागीय जाॅच मे अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि आपाराधिक मामलो मे अभियुक्त साक्षियो के पक्षदोही हो जाने या आपस मे समझौता हो जाने के कारण सन्देह का लाभ देकर दोष मुक्त किया जा सकता है परन्तु अनुशासनात्मक कार्यवाही  के लिये विभागीय जाॅच का दायरा दूसरा होता है। इसमे सन्देह का लाभ नही दिया जा सकता। एस0एस0पी0 यशस्वी यादव ने अपने पदीय अधिकारो का दुरूपयोग किया है और उसके कारण पुलिस बल की प्रतिष्ठा धूमिल हुई और आम लोगो मे उसके प्रति अविश्वास बढा है इसलिये एस0एस0पी0 और उनके सहयोगियो के विरूद्ध डा0 राम मनोहर लोहिया और जनेश्वर मिश्रा की आत्मा की शान्ति और व्यवस्था के प्रति आम लोगो के विश्वास को सुदृढ बनाये रखने के लिये अखिलेश सरकार को अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित करानी चाहिये अन्यथा पीडित छात्रो और प्राध्यापको को मन ही मन असहाय होने का दंश सदैव डसता रहेगा जो सम्पूर्ण व्यवस्था और लोकतन्त्र के लिये हितकर नही है।


Sunday, 5 April 2015

न्यायपालिका अपने अन्दर स्व आकलन की प्रक्रिया विकसित करे


प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने आज सम्पूर्ण देश के उच्च न्यायालयो के मुुख्य न्यायाधीशो के नई दिल्ली मे आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन को संबोधित करते हुये उन्हे अपने अन्दर स्व आकलन की प्रक्रिया विकसित करने की सलाह दी है और याद दिलाया कि अपने देश मे उन पर भगवान की तरह विश्वास किया जाता है। राजनेताओ और सरकार द्वारा की गई गलतियो को वे सुधार सकते है परन्तु यदि उन्होने कोई गलती की तो सब कुछ समाप्त हो जायेगा और उसे कोई सुधार नही सकेगा। इसमे राजनेताओ और सरकार की कोई भूमिका नही है। स्व  आकलन की आन्तरिक प्रक्रिया के महत्व को प्रतिपादित करते हुये प्रधानमन्त्री ने कहा कि यदि किसी कारणवश न्यायापालिका की प्रतिष्ठा या उसके प्रति लोगो के विश्वास मे कोई कमी आई तो वह सम्पूर्ण राष्ट्र के लिये घातक होगा। न्याय के प्रति आम लोगो की अपेक्षाओ के अनुरूप परफेक्ट होने की दिशा मे भी उन्हे अग्रसर रहना चाहिये। प्रधानमन्त्री ने उन्हे चेताया कि वे किसी भी दशा मे पूर्वाग्रहो के प्रभाव मे न आये।
अपने देश मे सभी स्तरो के न्यायाधीश आये दिन कार्यपालिका आदि समाज के सभी क्षेत्रो मे अपनी विवेकीय शक्तियो के तहत हस्तक्षेप करते दिखाई देते है परन्तु अपनी व्यवस्थागत कमियो को दूर करने के प्रति उदासीन रहना उनकी आदत बन गयी है। सर्वोच्च न्यायालय से लेकर अधीनस्थ न्यायालयो तक भ्रष्टाचार की शिकायते आम हो गई है परन्तु इन शिकायतो के कारणो को चिन्हित करके तत्काल उन्हे दूर करने के लिये कोई आन्तरिक तन्त्र न्यायपालिका ने अभी तक विकसित नही किया है और उसी कारण प्रधानमन्त्री को आज उन्हे स्व आकलन की प्रक्रिया विकसित करने की सलाह देने के लिये बाध्य होना पडा है।
18 वर्ष पहले मई 1997 मे इसी प्रकार के एक सम्मेलन के दौरान “ रिस्टेटमेन्ट आॅफ वैल्यू आफ ज्यूडिशियल लाइफ” का उद्घोष और “न्याय होना ही नही न्याय दिखना भी चाहिये” का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया था। न्यायपालिका की निष्पक्षता और पारदर्शिता के लिये सभी स्तरो के न्यायालयो मे इस सिद्धान्त का अनुपालन सुनिश्चित कराया जाना खुद न्यायपलिका की जिम्मेदारी है।
अपने देश मे 2.64 लाख मुकदमे अधीनस्थ न्यायालयो के समक्ष और करीब 42 लाख मुकदमे विभिन्न उच्च न्यायालयो के समक्ष लम्बित है। लम्बित मुकदमो के निस्तारण की गति  दाखिल होने वाले मुकदमो की गति से काफी धीमी है। आज अधीनस्थ न्यायालयो के समक्ष प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत दाखिल होने वाले मुकदमे भी उसी  दिन निस्तारित नही किये जाते जबकि सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश है कि यदि प्रार्थना पत्र मे वर्णित कथानक से प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध का होना दर्शित होता है तो प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना थानाध्यक्ष की पदीय प्रतिबद्धता है। इतने स्पष्ट आदेश के बावजूद प्रार्थना पत्र पर सम्बन्धित पुलिस स्टेशन से रिपोर्ट मॅगाने की औपचारिकता पूरी की जाती है और फिर बहस के लिये कई तिथियाॅ नियत होती है। इसी कारण निस्तारण मे विलम्ब होता है और पेन्डेन्सी बढती है।
अधीनस्थ न्यायालयो के समक्ष आपराधिक विचारणों में लगने वाले विलम्ब को कम करना आज एक बड़ी समस्या है। प्रायः इसके लिए सरकार या बचाव पक्ष के अधिवक्ताओ के स्थगन प्रार्थनापत्रो को दोषी माना जाता है। बिलम्ब के लिए सरकार या स्थगन प्रार्थना पत्र कतई दोषी नही है। विलम्ब को कम करने की सभी स्थितियाँ न्यायालयों के नियन्त्रण में है और उनके स्तर पर गुणात्मक कार्यवाही नही की जाती है और उदारता पूर्वक स्थगन प्रार्थना पत्र स्वीकार किये जाते है। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों के तहत दण्ड प्रक्रिया संहिता में अपेक्षित संशोधन कर दिये है। अब उन्हें लागू करना न्यायालयों की अपनी जिम्मेदारी है। अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष सर्वाेच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देश निष्प्रभावी हो जाते है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के सर्कुलर संख्या 25ध्61 दिनांक 26 अक्टूबर 1961 के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को किसी भी अन्य कार्य की तुलना में आपराधिक विचारणें को वरीयता देने और गवाही प्रारम्भ होने के बाद दिन प्रतिदिन सुनवाई जारी रखने का निर्देश जारी किया गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने रजिस्ट्रार को पुनः इसी आशय का सुर्कुलर जारी करने का निर्देश दिया है जो इस तथ्य का परिचायक है कि वर्ष 1961 से वर्ष 2013 के मध्य अधीनस्थ न्यायालयों की वर्किंग में कोई गुणात्मक सुधार नही हो सका है। स्थितियाँ ज्यों की त्यों बनी हुयी है इसलिए अब आवश्यक हो गया है कि न्यायिक सुधारो के लिए कोई नई विधि बनाये बिना विद्यमान कानूनों को अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर लागू कराने के लिए युद्ध स्तरीय प्रयास किये जायें।
सर्वोच्च न्यायालय ने राम रामेश्वरी देवी एण्ड अदर्स बनाम निर्मला देवी एण्ड अदर्स (2011-3-जे.सी.एल.आर.-पेज 518-एस.सी) मे पारित अपने निर्णय के द्वारा सिविल लिटिगेशन के त्वरित और समयबद्ध निस्तारण के लिए मुकदमा दाखिल होने के दिन ही निर्णय की तिथि निर्धारित करने का आदेश जारी किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्देश मे कहा था कि अधीनस्थ न्यायालय नये मुकदमो के दाखिले के समय विचारण का सम्पूर्ण शिडयूल्ड निर्धारित करे और लिखित कथन से लेकर निर्णय पारित होने की अवधि में प्रत्येक प्रक्रम के लिए तिथियाँ नियत कर दे। आवश्यक प्रकीर्ण प्रार्थनापत्रों का निस्तारण इसी अवधि में ही किया जाये और मूल कार्यो के लिए निर्धारित तिथियों पर नियत कार्यवाही अपवाद स्वरूप ही स्थगित की जाये, परन्तु निर्णय की तिथि में किसी भी दशा में परिवर्तन न किया जाये। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित यह निर्णय अभी तक क्रियान्वयन की प्रतीक्षा में है जबकि सभी को मालूम है कि यदि इस निर्णय के अनुरूप दाखिले की तिथि पर निर्णय की तिथि बता   दी जाये तो निश्चित रूप से वादकारियो को अपने नये मुकदमो मे पेन्डेन्सी का शिकार नही होना पडेगा।
मुख्य न्यायाधीशो के सम्मेलन मे विभिन्न न्यायालयो के समक्ष लम्बित मुकदमो की पेन्डेन्सी पर भी विचार किया जाना है। इस सम्मेलन मे पारित प्रस्तावो और प्रधानमन्त्री के सारगर्भित उद्बोधन का अधीनस्थ न्यायालयो की दिन प्रतिदिन की वर्किग पर क्या प्रभाव पडेगा? कोई नही जानता ? परन्तु सभी जानते है कि सभी स्तरो के न्यायालयो की वर्किग मे गुणात्मक सुधार लागू करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयो द्वारा पारित आदेशो का अनुपालन सुनिश्चित करा दिया जाये तो पेन्डेन्सी अपने आप समाप्त हो जायेगी और न्यायपालिका के प्रति आम लोगो का विश्वास खुद ब खुद पहले से ज्यादा मजबूत हो जायेगा और साल दर साल न्यायिक सुधारो के लिये सम्मेलन आयोजित करने की जरूरत नही पडेगी।

Monday, 30 March 2015

न्यायिक व्यवस्था का भविष्य लाॅ स्कूलो के प्रोडक्टस पर निर्भर


सम्पूर्ण विधि व्यवसाय और न्यायिक परिवार का भविष्य लाॅ स्कूलो के प्रोडक्टस पर निर्भर है इस प्रोडक्ट को पहले से बेहतर टिकाउ और आर्कषक बनाये रखने के लिये बार काउन्सिल आफ इण्डिया, नेशनल नालेज कामीशन, विधि आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने आजादी के बाद कई अवसरो पर ग्लोबल जरूरतो की दृष्टि से अपनी अध्ययन अध्यापन पद्धित मे व्यापक सुधार करने,  विद्याथर््िायो के लिये समुचित लायब्रेरी, क्लास रूम, कुशल फैकल्टी, रिसर्च और इण्टरनेट की सुविधाये उपलब्ध कराने और कानून को रट कर पास करने की परीक्षा पद्धित को ज्यादा से ज्यादा प्रयोगात्मक बनाने की सलाह दी है। परन्तु लाॅ स्कूलो और लीगल एजूकेशन को नियन्त्रित एवम संचालित करने की कोई एक पेशेवर नियामक संस्था न होने के कारण इन सुझाओ को लागू करने के लिये लाॅ स्कूलो को मजबूर नही किया जा सका और उनका प्रोडक्ट दिन प्रति दिन समय के साथ चलने मे अपने आपको असमर्थ पाने लगा है। जो अपने लोक़तान्त्रिक समाज के हित मे नही है।
वर्तमान युग मे अधिकाशं लाॅ स्कूल निजी क्षेत्र द्वारा नियन्त्रित एवम संचालित है और केवल लाभ कमाना उनका उद्देश है। इसीलिये इन स्कूलो में डोनेशन अदा करने की क्षमता के अनुरूप प्रवेश के नियमो मे बदलाव किये जाते है। उन विद्यार्थियो को भी प्रवेश दिया जाता है जिनकी “लाॅ” में केाई रूचि नही होती और अन्य किसी विषय मे प्रवेश पाने से वंचित हो जाने वाले विद्यार्थी भी लाॅ मे प्रवेश ले लेते है। अन्य किसी विषय की तुलना में लाॅ स्कूल मे प्रवेश ज्यादा आसान और सस्ता भी है। लाॅ स्कूलो की परीक्षा मे प्रथम श्रेणी या विशेष योग्यता पाने वाले विद्यार्थी  आल इण्डिया बार एग्जामिनेशन मे बुरी तरह फेल हुये है जबकि इस परीक्षा मे प्रश्ना का उत्तर लिखने के लिये किताब ले जाने की उन्हे अनुमति दी गई थी
अधिकांश लाॅ स्कूलो मे विधि की पढाई “ इनफारमेशन आॅफ लाॅ” की तर्ज पर कराई जाती है । “नालेज इन लाॅ” उनकी प्राथमिकता नही है। विधि आयोग ने माना है कि विधि के निम्नतम शैक्षिक स्तर के लिये स्वयं लाॅ स्कूल जिम्मेदार है। वे अपने स्तर पर शैक्षिक स्तर के उन्नयन के लिये कोई सार्थक प्रयास नही कर रहे है बल्कि ज्यादा से ज्यादा विधि स्नातक तैयार कर रहे है जो न्यायिक क्षेत्र की अपेक्षाओ पर खरा नही उतरते और वकालत के लिये सक्षम नही होते।
आधुनिक युग की जरूरतो की दृष्टि से विधि स्नातको के अध्ययन अध्यायन की प्रक्रिया मे आमूल चूल परिवर्तन जरूरी है। अध्यापको को निरन्तर अपडेट रखने की संस्थागत व्यवस्था की जानी है। अधिकांश अध्यापको के पास रिसर्च का कोई अनुभव नही है और न उनके पास कोई विजन है। किताबो मे लिखी धाराओ को क्लास रूम मे सुनाकर विद्यार्थियो को पास करा  देने मे उन्हे महारथ हासिल है। अधिकांश लाॅ कालेजो के टीचर लाॅ के विषयो पर  खुद कभी कोई आर्टिकल नही लिखते इसलिये उनसे अपेक्षा भी नही की जा सकती कि वे अपने विद्यार्थियो को लिखने और रिसर्च करने के लिये प्रोत्साहित करेगे।
लाॅ स्कूलो की परीक्षा पद्वित भी एक बडी समस्य है। सभी को मानना चाहिये कि परीक्षा मेमोरी टेस्टिंग या याददाश्त की क्षमता का आकलन करने केे लिये नही कराई जाती। विधि की परीक्षा मे विद्यार्थी का अलग तरीके से मूल्यांकन जरूरी है। प्रश्नपत्रो को समस्याओ और विश्लेषणो के आधार पर दो भागो मे विभाजित किया जाना चाहिये। समस्या आधारित प्रश्नो से विधिक समझ और विश्लेषण आधारित प्रश्नो से विधिक सिद्धान्तो का प्रयोग करने की क्षमता का आकलन किया जा सकता है। नेशनल कालेज कमीशन ने भी इस प्रकार के प्रश्नपत्रो की अनुशंशा की है।
विधि आयेाग के चेयरमैन न्यायमूर्ति श्री एम0 जगन्नाध राव ने भी परीक्षा पैटर्न को बदलने की सिफारिश की है। उन्होने केवल बीस प्रतिशत प्रश्न विश्लेषण आधारित पूछने और  अवशेष अस्सी प्रतिशत प्रश्न लीगल प्रोब्लेम पर पूछने पर जोर दिया है। इन प्रश्नो मे मूट कोर्टस और सेमिनार आदि गतिविधियो से सम्बन्धित प्रश्न भी हो सकते है। इस प्रकार के अस्सी प्रतिशत प्रश्नो का उत्तर देने के लिये परीक्षा कक्ष मे विद्यार्थी को पुस्तक देखने की भी अनुमति दी जानी चाहिये। किताबो को देखने की अनुमति देने से  सुस्पष्ट हो जायेगा कि परीक्षार्थी ने विधि का अध्ययन कितनी गहराई से किया है और उससे उसके सोचने समझने की तार्किक क्षमता का भी आकलन करने मे सहायता मिलेगी। हो सकता है कि प्रश्नपत्र मे बताई गई समस्या का एक से ज्यादा समाधान हो परन्तु उसके उत्तर से परीक्षार्थी की एप्रोच और उसके सोचने की शैली का पता चलेगा। इस प्रकार की परीक्षा पद्वित से नकल की समस्या स्वतः समाप्त हो जायेगी और कोई अध्यापक परीक्षा कक्ष मे किसी परीक्षार्थी को कोेई अनुचित लाभ भी नही पहॅुचा सकेगा। इस प्रकार की परीक्षा पद्वित केे लिये निश्चित रूप से अध्ययन अध्यापन का तरीका बदलना होगा और उस बदली परिस्थितियेा मे विद्यार्थी खुद ब खुद क्लास रूम के प्रति आकृष्ट होगा।
अनुभव से पाया गया ज्ञान सर्वश्रेष्ठ होता है । विधि के मामले मे यह सिद्धान्त पूरी तरह लागू होता है। नेशलन लाॅ स्कूलो की स्थापना के बाद मूट कोर्टस और क्लिनिकल लीगल एजूकेशन के माध्यम से विद्यार्थिओ को लाॅ का ज्ञान देने की एक नई पद्धित का विकास  हुआ है। क्लिनिकल मेथलाजी खुद काम करके सीखने की पद्धित है। इस पद्धित की पढाई से विद्यार्थी को बौद्धिक और पेशेवर तरीके से अपना विकास करने के अवसर प्राप्त होते है। सामाजिक परिप्रेक्ष मे विधि का लाभ सभी तक पहॅुचाने के लक्ष्य को दृष्टि मे रखकर विधि का अध्ययन अध्यापन किया जाता है और इसलिये प्रेक्टिकल ट्रेनिंग उसकी आत्मा है। क्लिनिकल कार्यक्रम विद्यार्थी को दिन प्रतिदिन की सामाजिक समस्याओ के साथ प्रत्यक्ष जुडने और उनके समाधान के लिये एक अधिवक्ता की तरह सोचने का अवसर उपलब्ध कराते है जो क्लास रूम के परम्परागत लेक्चर के द्वारा सम्भव नही है।
दि इन्स्टीटयूट अॅाफ रूरल रिसर्च एण्ड डेवलपमेन्ट और जिन्दल ग्लोबल लाॅ स्कूल के संयुक्त क्लिनिकल लाॅ प्रोग्राम के तहत विद्यार्थियो ने ग्राम वासियो को उनके अधिकारो के प्रति जागरूक किया और उन्हे बताया कि वे किस तरह अपने लोक तान्त्रिक अधिकारो का प्रयोग करके अपने जीवन मे खुशहाली ला सकते है। इसी तरह सक्षम फाउण्डेशन चैरिटेबल सोसाइटी ने कानपुर देहात के एक गाॅव मे उसके निवासियो को सात वर्ष तक की सजा वाली आपराधिक धाराओ मे गिरफतारी के पहले स्थानीय पुलिस द्वारा नोटिस देने की अनिवार्यता और उन्हे प्ली आफ बारगेनिग की जानकारी दी। इसके द्वारा सहभागी विद्यार्थियो को लीगल रिसर्च काउन्सिलिग नेगोशियेशन और लोगो के विधिपूर्ण अधिकारो की रक्षा के लिये एक अधिवक्ता के नाते अपनी भूमिका का निर्वहन करने की शिक्षा मिली जो बाद में वकालत के दौरान भी उनके लिये उपयोगी सिद्ध हुयी।
मूट कोर्ट के माध्यम से विद्यार्थियो को विधि को समझने और उसके प्रस्तुतीकरण के असीम अवसर मिलते है । नेशनल लाॅ स्कूलो और उसी तरह के कुछ कालेजो मे मूट कोर्ट उनकी संस्कृति मे शामिल हो गया है परन्तु अधिकांश लाॅ कालेजो मे मूट कोर्ट केवल औपचारिकता है। कालजो को मजबूर किया जाना चाहिये कि वे अपने यहाॅ इस प्रकार की गतिविधियो को बढावा दे। इस प्रकार की गतिविधियो से सम्बन्धित लाॅ स्कूल के साथ साथ समाज को भी फायदा होता है ।
लीगल एजूकेशन व्यवस्था परिवर्तन का भी माध्यम है। शासक और शोषक वर्ग से ह्यदय परिवर्तन की अपेक्षा नही की जा सकती परन्तु विधि के माध्यम से उन्हे अपने शोषणकारी रवैये मे परिवर्तन के लिये बाध्य किया जा सकता है। अभी दो दिन पहले विधि की एक छात्रा के प्रयास से सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय प्रौद्योगिक अधिनियम की धारा 66ए को अवैधानिक घोषित किया है।

Sunday, 22 March 2015

घटिया लीगल एजूकेशन: बार काउन्सिल जिम्मेदार


आजादी के 68 वर्षो के बाद भी अपने देश में लाॅ की पढाई आज भी विज्ञान की तरह नही कराई जाती। दूर दराज के शहरो, कस्बो के लाॅ स्कूलो मे अप्रशिक्षित अध्यापको द्वारा सदियों पुरानी पद्वित से लाॅ का अध्ययन अध्यापन किया जाता है। कुशल फैकल्टी और लायब्रेरी जैसी मूल भूत सुविधाये उपलब्ध नही है। इन स्कूलो में रिसर्च सेमिनार सामयिक परिचर्चा वर्कशाप मूट कोर्ट के बारे मे सोचना भी बेमानी है जबकि संविधान के नीति निदेशक तत्वो के तहत सुशासन का लाभ आम जन तक पहुॅचाने मे लीगल एजूकेशन की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस विषय मे एडवोकेट एक्ट 1961 के तहत प्राप्त अपने अधिकारो का सम्यक प्रयोग और उसके अनुरूप कर्तव्यो का निर्वहन करने मे बार काउन्सिल आफ इण्डिया बुरी तरह असफल रही है। उसकी अस्पष्ट दशा दिशा के कारण लाॅ स्कूलो की संख्या में अभूतपूर्व बढोत्तरी हुई है परन्तु उसके द्वारा लीगल एजूकेशन की गुणवक्ता मे बढोत्तरी का केाई प्रयास नही किया गया है।


लीगल एजूकेशन मे आधार भूत परिवर्तन के लिये वर्ष 2005 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री मनमोहन सिंह द्वारा गठित नेशनल कालेज कमीशन ने एक वर्किग ग्रुप की स्थापना की थी जिसमेे न्यायमूर्ति जगन्नाथ राव, लीला सेठ, सैम पित्रोदा, डा0 माधवन मेनन, डा0 बी.एस.चिमनी, डा0 मोहन गोपाल, पी.पी.राव, निशिथ देसाई शामिल थे। इस वर्किग ग्रुप ने मुख्य रूप से टीचिंग इनफ्रास्ट्रक्चर, एडमिनिस्ट्रेशन की समस्याओ को चिन्हित किया। ग्रुप ने लाॅ स्कूलो के लिये कुशल फैकल्टी की चयन पद्धित परीक्षा पैटर्न, रिसर्च डेवलपमेन्ट, शिक्षा की गुणवत्ता और पढाई के साथ व्यवहारिक प्रशिक्षण जैसी मूल भूत समस्याओ के समाधान पर विचार विमर्श किया। इस ग्रुप ने सभी स्तरो पर सम्बद्ध पक्षो के साथ व्यापक विचार विमर्श और चर्चा परिचर्चा के बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जो क्रियान्वयन की प्रतीक्षा मे धूल फाॅक रही है।
इस वर्किग ग्रुप ने अपने अध्ययन के दौरान पाया कि सम्पूर्ण देश मे केवल कुछ लाॅ स्कूल समय की माॅग के अनुरूप शिक्षा उपलब्ध करा रहे है। अधिकाश स्कूलो मे आज भी सदियों पुराने परम्परागत तरीको से अध्ययन अध्यापन किया जा रहा है। अधिकांश स्कूलो मे कम वेतन देने के लालच मे कुशल और प्रतिबद्ध अध्यापको का चयन नही किया जाता । रिसर्च प्रशिक्षण केन्द्र लायब्रेरी जैसी मूल भूत जरूरते उनकी चिन्ता मे नही है।
पचास साल पहल लाॅ स्कूलो के सामने फौजदारी राजस्व और सिविल मामलो की पढाई का लक्ष्य हुआ करता था। इस पद्धित मे शिक्षित लाॅ ग्रेजुयेट तहसीलो और अधीनस्थ न्यायालयो के समय वकालत करने मे सक्षम हुआ करते थे। इन्ही मे कुछ स्थानीय लाॅ स्कूलो में पार्टटाइम अध्यापन भी किया करते थे परन्तु 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद स्थितियाॅ एकदम बदल गई। लीगल एजूकेशन की पूरी अवधारणा मे अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ है। अब ट्रेड कामर्स और इण्डस्ट्री को भी लाॅ ग्रेजुयेट की आवश्यकता पडने लगी है। अन्तरराष्ट्ररीय संदर्भाे मे लीगल एजूकेशन का महत्व बढा है। आज श्रम कानूनो का अध्ययन जरूरी हो गया है। पिछले दस, पन्द्रह वर्षो मे नान बैकिग फायनेन्स कम्पनियो और अन्य वित्तीय संस्थानो मे नान प्रैक्टिसिंग एडवोकेट्स को सेवा का अवसर मिला है परन्तु आरबीट्रेशन, बैकिग विधि और ए0डी0आर0 सिस्टम की समुचित शिक्षा दीक्षा न होने के कारण इस संस्थानो मे सेवारत लाॅ ग्रेजुयेट रिकवरी एजेन्ट बन कर रह गये है और विधि एवम विधिक प्रक्रिया से एकदम अनजान प्रबन्धको की डाॅट सुनने को विवश है। उनके सामने पदोन्नति और अच्छे अवसरो का अभाव है जिसके कारण उनमे से अधिकांश फ्रेस्टेट हो रहे है। उनका आत्म विश्वास टूट गया है और अब वे तहसील स्तर पर भी वकालत करने का साहस नही करते।
अस्सी प्रतिशत लाॅ ग्रेजुयेट उन स्कूलो में शिक्षित होता है जो किसी ने किसी राजनेता द्वारा नियन्त्रित एवम संचालित है और वे सबके सब विधि शिक्षा की गुणवत्ता के दुश्मन है। इन स्कूलो मे कोई प्लेसमेन्ट नही होता और अधिकांश ग्रेजुयेट बेरोजगार रह जाते है। बेमन से ऐसे ग्रेजुयेट वकालत के लिये कचहरी मे प्रवेश करते है। कचहरी में बीस प्रतिशत लोगो का एकाधिकार है। नये लोगो के लिये सम्भावनाये सीमित है। अधिवक्ता पुत्रो और कुछ प्रभावशाली परिवारो के बच्चो को छोडकर अधिकांश युवा अधिवक्ता अपने सीनियर एडवोकेेट के मुंशी के जूनियर के नाते काम करने को विवश है। उन्हे जानबूझकर अदालतो के सामने अपनी बात कहने का अवसर नही दिया जाता जिसके कारण अस्सी प्रतिशत अधिवक्ता संधर्ष का जीवन जी रहा है। संधर्षरत अधिवक्ता अपने संख्या बल का महत्व जान गया है।    साधारण विवादो मे भी आन्दोलन का सहारा उसकी आदत और जरूरत बन गयी है। अब वे प्रेशर ग्रुप के रूप मे विकसित हो गये है। स्थानीय बार एसोसिऐशन और बार काउन्सिल के सदस्य के चुनाव को नियन्त्रित करने मे सफल हो रहे है और उसके कारण सीखने सिखाने का वातावरण दूषित हो गया है। प्रापटी डीलिंग जैसे काम उन्हे आक्रष्ट करते है। युवा अधिवक्ताओ में अदालतो के सामने उपस्थित होने के लिये निरन्तर कुशलता प्राप्त करने मे बढती अरूचि सम्पूर्ण न्याय प्रशासन के लिये चिन्ता का विषय है।
नौकरी मे आने के बाद न्यायिक अधिकारियो को उनके लिये गठित नेशनल ज्यूडिशियल एकेडमी मे प्रशिक्षण दिया जाता है और रोजमर्रा की जरूरतो की दृष्टि से उन्हे नियमित रूप से अध्ययन मेटेरियल भी उपलब्ध कराया जाता है लेकिन अधिवक्ताओ और प्रासीक्यूटर्स के प्रशिक्षण की केाई संस्थागत व्यवस्था नही है। राज्य बार काउन्सिल एडवोकेट के रूप में सदस्यता देने के बाद उनके प्रशिक्षण की कभी कोई चिन्ता नही करती है।
मेडिकल कालेजो मे फाॅरेन्सिक मेडिसिन पढाई जाती है और कचहरी में नित्यप्रति उसका प्रयोग होता है। आपराधिक विचारणो  मे इन्जरी रिपोर्ट, पोस्टमार्टम रिपोर्ट की पुष्टि के लिये सम्बन्धित चिकित्सक बतौर अभियोजन साक्षी परीक्षित किया जाता है और उसके बाद   बचाव पक्ष के अधिवक्ता को उससे प्रति परीक्षा करनी होती है। इतनी महत्वपूर्ण शैक्षिक जरूरत के बावजूद स्थानीय लाॅ कालेजो में फारेन्सिक मेडिसिन को पढाने की कोई व्यवस्था नही है। अधिवक्ताओ और प्रासीक्यूटर्स को अपने स्तर पर इसका ज्ञान अर्जित करना होता है जो वास्तव में कठिन है। लम्बे अर्से से वकालत कर रहे अधिकांश लोग इस विधि मे पारंगत नही हो पाते और उनके इस अज्ञान से कई बार किसी न किसी का नुकसान होता है।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ए0एम0 अहमदी, जगन्नाथ राव एवम बी0एन0 कृपाल की तीन सदस्यीय समिति ने लीगल एजूकेशन मे व्यापक सुधार के लिये कई सुझाव दिये है। लाॅ कमीशन भी अपनी 184 वी रिपोर्ट में कई सामयिक अनुशंसाये की है परन्तु केन्द्र सरकार इन अनुशंसाओ को लागू करने के प्रति गम्भीर नही है। एडवोकेट एक्ट 1961 के तहत लीगल एजूकेशन बार काउन्सिल आफ इण्डिया ने नियन्त्रण में है। उसके सदस्य अपने अपने क्षेत्रो   में पारंगत अधिवक्ता है परन्तु उनमे से अधिकांश के पास अध्यापन और शैक्षिक संस्थानो को संचालित करने का कोई प्रत्यक्ष अनुभव नही है। बार काउन्सिल लाॅ स्कूलो मे गुणवत्ता पूर्ण शैक्षिक माहौल बनाने मे असफल सिद्ध हुई हैं।
बार काउन्सिल की असफलता को दृष्टिगत रखकर नेशनल नालेज कमीशन ने  लीगल एजूकेशन को बार काउन्सिल के अधिकार क्षेत्र से बाहर करने की सिफारिश की है। आल इण्डिया काउन्सिल आफ टेक्निकल एजूकेशन और मेडिकल काउन्सिल आफ इण्डिया की तरह  लीगल एजूकेशन को भी नियन्त्रित एवम संचालित करने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर आॅल इण्डिया काउन्सिल फार लीगल एजूकेशन का गठन समय की जरूरत है। संसद को कानून बनाकर इस दिशा मे पहल करनी चाहिये। काउन्सिल को समय की जरूरतो की दृष्टिगत रखकर व्यापक परिप्रेक्ष्य मे फैकल्टी डेवलपमेन्ट, एकेडेमिक क्लालिटी एशश्योरेन्स, रिसर्च एण्ड इन्सटीटयूशनल डेवलपमेन्ट, एडमिनिस्ट्रेशन, फाइनेन्स शैक्षिक सत्रो के नियमन, पाढयक्रम और अध्यापको की नियुक्ति प्रक्रिया मे सुधार के लिये समेकित रोड मैप बनाने और उसे लागू करने का अधिकार दिया जाना चाहिये। काउन्सिल मे केन्द्र सरकार विभिन्न राज्य सरकारो, लाॅ कालेजो, विश्व विद्यालयो, बार काउन्सिल और विद्यार्थिओ के निर्वाचित प्रतिनिधियो को शामिल किया जाना चाहिये। काउन्सिल नियमित रूप से लाॅ स्कूलो का निरीक्षण करे और गुणवत्ता पूर्ण शैक्षिक माहोल सुनिश्चित कराये।


Sunday, 15 March 2015

कचहरी मे आये दिन की अशान्ति बार काउन्सिल की असफलता


इलाहाबाद कचहरी मे वकीलो और पुलिस के बीच कहासुनी के बाद दरोगा ने ताबडतोड फायरिंग की जिससे वकील नवी अहमद की मृत्यु हो गयी। घटना के विरोध में बार काउन्सिल आॅफ इण्डिया ने 16 मार्च सोमवार को सम्पूर्ण देश में न्यायिक कार्य के बहिस्कार की घोषणा की है। हलाॅकि सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश और देश के कई हिस्सो मे घटना के तत्काल बाद से अधिवक्ता न्यायिक कार्य से विरत है। उत्तर प्रदेश सरकार ने घटना की सी.बी.आई. से जाॅच और मृतक अधिवक्ता के परिजनो को दस  लाख रूपये की आर्थिक सहायता देने की घोषणा की है।
इस प्रकार की घटनाओ के बाद सी.बी.आई. जाॅच दोषियो को सजा और धायलो को उचित मुआवजा देने की माॅग और इन माॅगो को पूरी करने के लिये न्यायिक या गैर न्यायिक जाॅच आयोगो का गान कोई नई बात नही है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अन्दर तत्कालीन सत्तारूठ दल के कार्यकर्ताओ द्वारा की गई तोडफोड के बाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश द्वारा सेना बुला लेने की स्मृतियाॅ अभी धुंधली नही हुई है परन्तु कचहरी को नियन्त्रित एवम संचालित करने वाले नीति नियंताओ ने इन घटनाओ से कोई सबक नही लिया। समझना समझाना होगा कि वकील और पुलिस दोनो राष्ट्र जीवन के महत्वपूर्ण और सामान्तर स्तम्भ है। दोनो की समाज को जरूरत है और उनके मध्य कोई प्रतिस्पर्धा नही है। उनके मध्य बढता टकराव किसी के भी हित मे नही है। उनकी वैमनस्यता राष्ट्र और समान के व्यापक हितो के प्रतिकूल है परन्तु सरकार उच्च न्यायालय या बार काउन्सिल इसके कारणो को चिन्हित करके उन्हे दूर करने का सार्थक प्रयास करते दिखती नही है जो चिन्ता का विषय है।
7 अप्रैल 2010 को कानपुर कचहरी में एक विद्वान अधिवक्ता और दरोगा के मध्य किसी निजी बाहरी विवाद को लेकर कहासुनी हो गई थी। विवाद को सुलझाने के लिये प्रथम अपर जनपद न्यायाधीश के कक्ष में वार्ता हो रही थी। इसी बीच अफरातफरी मच गई और पुलिस कर्मियों ने जनपद न्यायाधीश की अनुमति के बिना वकीलो को पीटना शुरू कर दिया। चैम्बर मे शान्तिपूर्वक अपना काम निपटा रहे वरिष्ठ अधिवक्ताओ को भी बुरी तरह पीटा गया। पुलिस कर्मियों ने स्टैण्ड में खडी वकीलो की कार, स्कूटर, मोटर साइकिले जला  दी। उन्हे तोडा फोडा। जबरजस्त हडताल हुई और कानपुर का न्यायिक क्षेत्राधिकार इटावा स्थानान्तरित कर दिया गया परन्तु हडताल खत्म नही हुई। इलाहाबाद हाई कोर्ट के घेराव की धोषणा  हुई। केन्द्रीय विधि मन्त्री के हस्तक्षेप के बाद हडताल समाप्त हुई। हाई कोर्ट ने अपने तीन कार्यरत न्यायाधीशो की समिति घटना की जाॅच के लिये गठित की। न्यायाधीशो की समिति ने घटना के विभिन्न पहलुओ की जाॅच के लिये कचहरी के सभी पक्षो के साथ विचार विमर्श किया परन्तु उसकी रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नही की गयी। इस घटना के बाद वकीलो की माॅग पर तत्कालीन जनपद न्यायाधीश को स्थानान्तरित किया गया था और कार्यरत न्यायाधीशो की समिति होने के कारण अपेक्षा की गयी थी कि यह जाॅच समिति वकील पुलिस संधर्ष के कारणो को चिन्हित करके उनको दूर करने का मार्ग प्रशस्त करेगी परन्तु सरकारो द्वारा गठित जाॅच समितियो की तरह इस न्यायिक समिति ने भी सभी को निराश किया और घायल वकीलो केा आज तक कोई मुआवजा नही मिला है और न अब कोई उसकी बात करता है।
कचहरी की समस्याओ के समाधान मे आॅल इण्डिया बार काउन्सिल और प्रदेश बार काउन्सिल की महत्वपूर्ण भूमिका है। कहा जाये कि निर्णायक भूमिका है तो भी इसमें कोई अतिशयोक्ति नही है परन्तु बार काउन्सिल अपनी इस भूमिका के निर्वहन के प्रति असफल सिद्ध हुई है। बार काउन्सिल ने वकील पुलिस संधर्ष के कारणो को चिन्हित करके उसे दूर कराने की दिशा में अभी तक कोई पहल नही की है और न जाॅच समितियो की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का सरकार पर कभी कोई दबाब बनाया है। जो हुआ सो  हुआ। सुबह का भूला यदि शाम को लौट आये तो उसे भूला नही कहते इसलिये बार काउन्सिल को देर किये बिना स्वयं पहल करके वकील पुलिस संधर्ष के कारणो को चिन्हित करने के लिये अपने स्तर पर एक समिति का गठन करना चाहिये जो विभिन्न पहलुओ पर विचार करके सुधार का रोड मैप तैयार करे।
सभी को समझना होगा कि आये दिन होने वाली मारपीट और झगडो के पीछे प्रायः वकालत वृत्ति का विवाद नही होता। अपने विरोधी के अधिवक्ता के साथ सम्मानजनक व्यवहार आम वाद कारियो का स्वभाव है आदत है। शायद ही कभी किसी पक्षकार ने अपने विरोधी के अधिवक्ता के साथ अभद्रता की हो ऐसी दशा में अपने विरोधी के वकील की हत्या कर देने की कल्पना करना भी अस्वभाविक है फिर भी अधिवक्ताओ की हत्याये हो रही है।  उन पर जान लेवा हमले बढे है इसलिये इनके कारणो को चिन्हित करना आवश्यक है।
कचहरी में आये दिन हो रही मारपीट की घटनाओ के लिये प्रायः युवा अधिवक्ताओ को दोषी बताया जाता है। जिसमें कोई सच्चाई नही है। वकालत को अपनी जीविका बनाने का सपना देख रहा एक युवक कुछ सीखने पहले से बेहतर बनने और बौद्विक स्तर पर प्रतिष्ठा पाने के लिये कचहरी मे प्रवेश करता है। कचहरी के अधिवक्ता संघटन नव आगन्तुक के सपनो को साकार करने के लिये संस्थागत स्तर पर उसकी कोई मदद नही करते बल्कि स्थानीय राजनीति में उसकी उर्जा का दुरूपयोग करते है और यही से उसकी दिशा बदलती है।
अपने गठन के बाद से आज तक बार काउन्सिलो ने कभी यह जानने का प्रयास नही  किया कि उसके सदस्य कहाॅ किस स्थिति में जी रहे है? नये अधिवक्ताओ के नियमित प्रशिक्षण की उसने कभी कोई व्यवस्था नही  की है। उन्हे इस महा समुद्र में खुद तैरने के लिये भगवान भरोसे छोड दिया है इसलिये वकीलो में केवल प्रापर्टी डीलिंग का काम करने का आकर्षण बढता जा रहा है। प्रापर्टी डीलिंग का काम अधिवक्ता वृत्ति में नही आता परन्तु कचहरी का  पूरा लोकतन्त्र ऐसे लोगो के चंगुल मे फॅस गया है और उसके बेकाबू हो जाने का खतरा भी बढा है। अभी कुछ दिन पहले एक चैम्बर के सामने कब्जे के विवाद में एक विद्वान अधिवक्ता ने कानपुर बार एसोसिऐशन की कार्यकारिणी कक्ष में महामन्त्री की उपस्थिति में अपने अधिवक्ता साथिओ पर रिवाल्वर तान दी। इसके पहले भी इस प्रकार की घटनाये हो चुकी है। कानपुर में भी न्यायिक बहिस्कार के विवाद में एक अधिवक्ता को  अपनी जान गवानी पडी थी। अधिवक्ता होने की आड मे कचहरी के अन्दर विवादास्पद प्रापर्टी को खरीदने, बेचने का व्यवसाय करने वाले तत्वो को चिन्हित करना और फिर उन्हे कचहरी से बाहर का रास्ता दिखाना आम अधिवक्ताओ के व्यापक हितो और कचहरी के स्वास्थ्य के लिये जरूरी है। परन्तु आल इण्डिया बार काउन्सिल और विभिन्न राज्यो की बार काउन्सिल वोट बैक की राजनीति के कारण कचहरी परिसर में अराजक्ता की फैलती बीमारी को रोकने के लिये कढवी दवा का उपचार करने के लिये तैयार नही है और यह उसकी असफलता है।
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Sunday, 8 March 2015

महिलाओ को कमतर मानने की मानसिकता अभी जिन्दा है।

अभी पिछले दिनो मुम्बई  स्थित एक ट्रेड यूनियन फेडरेशन अॅाफ वेस्टर्न इण्डिया सिने इम्प्लाइज ने महिला कर्मचारो को मेेक-अप आर्टिस्ट के रूप में सेवायोजन के लिये सदस्यता देने से इन्कार कर दिया। फेडरेशन ने महिला कर्मचारो को केवल हेयर डेªसर के रूप में प्रोफेशन के लिये सदस्यता देने अैार पुरूष कर्मकारो को हेयर ड्रेसर के साथ साथ मेक अप आर्टिस्ट के लिये भी प्रोफेशन चुनने की अनुमति प्रदान कर रखी है। लिंग आधारित भेदभाव होने के बावजूद रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन ने फेडरेशन को अपनी नियमावली से इस नियम को प्रथक करने के लिये नही कहा और महिला कर्मकाराो की शिकायत पर फेडरेशन के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की जबकि किसी भी ट्रेड यूनियन की नियमावली से लिंग आधारित भेदभाव के नियमो को प्रथक रखना उनकी पदीय प्रतिबध्ता है।
महिलाओ की शिकायत पर सर्वेच्च न्यायालय ने इस मामले मे हस्तक्षेप किया और अपना निर्णय (चारू खुराना बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया-2015-1-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 192) के द्वारा नियमावली के इस क्लाज को रद करके रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन को आदेशित किया कि वे चार सप्ताह के अन्दर फेडरेशन में मेक अप आर्टिस्ट के रूप में महिला कर्मकारो की सदस्यता सुनिश्चित कराये और यदि फेडरेशन केाई व्यवधान उत्पन्न करे तो पुलिस अधिकारी अपनी पदीय प्रतिबध्ताओ के  तहत महिला कर्मचारियो को उत्पीडन के विरूद्ध सुरक्षा प्रदान करे।
समुचित संवैधानिक प्रावधानो और सर्वोच्च न्यायालय के नियमित हस्तक्षेप के बावजूद महिलाओ को कमतर मानने की  मानसिकता आज भी जिन्दा है। नीरा माथुर बनाम एल0आई0सी0( 1992-1-एस0सी0पी0-पेज 286) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय जीवन बीमा निगम  में महिला कर्मचारियो के लिये अपनी माहवारी की अवधि, माहवारी की  पिछली तिथि, प्रेगेनेन्सी और गर्भपात जैसी नितांत व्यक्तिगत जानकारियो को प्रबन्धको के समक्ष प्रस्तुत करने की अनिवार्यता केा असंवैधानिक घोषित किया है। इसके पूर्व मायादेवी के मामले (1986-1-एस0सी0आर0 पेज 743) में भी सर्वोच्च न्यायालय ने विवाहित महिलाओ के लिये सार्वजनिक पद पर नौकरी के लिये आवेदन करने के पूर्व अपने पति की सहमति होने की अनिवार्यता को भी असंवैधानिक घोषित किया था और आवेदन पत्र में इस आशय के कालम को हटा देने का आदेश जारी किया । न्यायालय ने महिलाओ के लिये इस प्रकार की सूचनाये उपलब्ध कराने की अनिवार्यता को महिलाओ की गरिमा और उनकी निजता के अधिकार का उल्लधंन माना था। अधिक पढे.....।कअवबंजमवचपदपवदण्इसवहेचवजण्पद
    जागरूकता और सर्वाेच्च न्यायालय के सुस्पष्ट आदेशो के बावजूद माना जा सकता था कि कोई नियेाक्ता लिंग के आधार पर अपने कर्मचारियो के साथ विभेद नही करेगा और महिला होने के नाते किसी कर्मचारी को रोजगार के किसी अवसर से वंचित नही करेगा परन्तु आजादी के इतने लम्बे वर्षो के बावजूद ऐसा नही हो सका और महिलाओ के साथ भेदभाव जारी है। मैकिननान मैकेनजी एण्ड कम्पनी लिमिटेड ने अपने प्रतिष्ठान में महिला और पुरूष स्टेनेाग्राफर के बीच लिंग के  आधार पर विभेद बन्द नही किया। महिला स्टेनोग्राफर को पुरूष स्टेनोग्राफर की तुलना में कम वेतन दिया जाता था। स्थानीय श्रम अधिकारियो ने इस विभेद को मिटाने के लिये अपने स्तर पर कोई सार्थक पहल नही की। सर्वोच्च न्यायालय को पुनः हस्तक्षेप करना पडा। मैकिननान मैकेनजी एण्ड कम्पनी लि0 बनाम आॅडेª डी0 कोस्टा(1987-2-एस0सी0पी0 पेज 469) के द्वारा पुनः सर्वोच्च न्यायालय ने इस विभेद को समाप्त कराया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि समान काम का समान वेतन दिया जाना चाहिये। इस  संस्थन में वरिष्ठ अधिकारियो के साथ गोपनीय कार्य करने के लिये किसी स्टेनोग्राफर की  नियुक्ति नही की जाती और न किसी महिला को किसी वरिष्ठ अधिकारी के साथ गोपनीय काम करने के लिये स्थानान्तरित किया जाता है। पुरूष और महिला दोनो की नियुक्ति प्रक्रिया और शैक्षिणिक योग्यताये एक समान होने के बावजूद महिला स्टेनोग्राफर को पुरूषो की तुलना मे कम वेतन दिया जाना स्पष्ट रूप से डिस्क्रिमिनिनेशन है और संविधान किसी भी दशा में इसकी इजाजत नही देता।
स्वामी विवेकानन्द ने कभी कहा था कि जिस तरह चिडिया अपने एक पंख के सहारे उड नही सकती ठीक उसी तरह महिलाओ को पीछे रखकर कोई समाज आगे नही बढ सकता परन्तु अपना समाज आज भी महिलाओ की मौलिक स्वतन्त्रता का सम्मान नही करता। किसी न किसी बहाने उन्हे कमतर मानकर उनके साथ अन्याय किये जाने  की प्रथाये आज भी जारी है । उनकी नैसर्गिक प्रतिभा और सम्भावनाओ को घर की चहार  दीवारी में कैद करके जिसको जब जहाॅ अवसर मिलता है, उनका शोषण करने से चूकता नही है। अपनी इस स्थिति के लिये महिलाये भी  कम जिम्मेदार नही है। माॅ के नाते बेटी और बेटे के बीच विभेद की शुरूआत वे स्वंय करती है और नित्य प्रति किसी और के अनुचित व्यवहार के कारण अनावश्यक बन्दिशे लगाकर बेटियो के आत्म विश्वास को झकझोर देती है।
महिलाओ के साथ सदियो से चले आ रहे अन्याय को दृष्टिगत रखकर अपने संविधान निर्माताओ ने संविधान में  ही स्पष्ट कर दिया था कि भारतीय गणराज्य पुरूष और महिला अपने सभी नागरिको को समान रूप से जीविका के समुचित         साधन उपलब्ध कराने के लिये ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना और उसका संरक्षण करके लोक कल्याण को बढावा देगा जिससे सभी के साथ सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय हो सके और राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाये इन्ही उददेश्यो की प्राप्ति के लिये अनवरत प्रयास रत रहें और किसी नागरिक के साथ धमर््ा मूलवंश जाति लिंग जन्म स्थान के आधार पर कोई विभेद न किया जा सके।
फ्रान्स की प्रख्यात साहित्यकार सिमोन देवोनार ने कहा है कि औरत पैदा होती है परन्तु उसमें दीनता समाज पैदा करता है। कोमलता स्नेह और कमजोरी को  अैारत का प्रतिरूप माना जाता है। झाॅसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजो के छक्के छुडाकर पूरे भारत का गौरव बढाया था परन्तु कहा जाता है कि उन्होने भारतीय नारी का गौरव बढाया है। कोई  क्यो नही कहता कि गाॅधी नेहरू पटेल सुभाष ने भारतीय पुरूषो का गौरव बढाया है। इस प्रकार की बाते भी महिलाओ को उनके योगदान का पूरा महत्व न देने और उन्हे कमतर बनाये रखने का षडयन्त्र है। मधु किश्वर बनाम स्टेट आॅफ बिहार(1996-5-एस0सी0पी0 पेज 125) मे सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि भारतीय महिलाये अपने साथ हो  रहे अन्याय को मौन भाव से बर्दाश्त करती है। आत्म त्याग और अपने अधिकारो को त्यागते रहना उनकी आदत बन गई है और उनकी यही आदत सभी असमानताओ का आधार हैं।
संविधान के अनुच्छेद 51 क में प्रावधान है कि सरकार भारत के सभी लोगो में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो और ऐसी प्रथाओ का त्याग करे जो महिलाओ के सम्मान के विरूद्ध हो। नागरिको के कर्तव्य सरकार के सामूहिक कर्तव्यो की परिधि में आते है। सरकार का  दायित्व है कि सभी को अवसरो की समानता सुनिश्चित कराये और किसी भी दशा में अवसरो में कटौती न होने दे। संविधान के अनुच्छेद 14,19(1) जी. और 21 के तहत राज्य किसी भी नागरिक केे साथ धर्म मूलवंश जाति या लिंग के आधार पर कोई विभेद नही किया जा सकता   और सभी को भारत के राज्य क्षेत्र केे किसी भाग में निवास करने बस जाने कोई वृत्ति उप जीविका व्यापार या कारोबार करने का अधिकार है। इसलिये सरकार को ऐसी नीतियां बनानी होगी जिसमें पुरूष और महिलाओ में किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो और लिंग के आधार पर उन्हे किसी रोजगार या जीविका से वंचित न होना  पडे और सरकार को ऐसा माहौल बनाना होगा जिसमें किसी रोजगार के लिये महिलाओ के साथ किसी प्रकार का भेदभाव करने का कोई साहस न कर सके।