पत्रकारिता को भाँड़ बताना भी एक साजिश है हम सब जानते है कि " अखबार " प्रकाशित करना साधारण काम नहीं है । इसके लिए भारी पूँजी निवेश की जरूरत होती है इसलिये अखबार के मालिक कई बार कारपोरेट घरानों के साथ कुछ समझौते करने के लिए विवश होते है परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अखबार की सम्पादकीय टीम खुद ब खुद गुलाम हो जाती है ।
18 से 35 आयु वर्ग के मित्रो को शायद राजीव शुक्ला की स्टोरी " बेईमान राजा ईमानदार वित्त मंत्री " हवाला मामले ( जिसमे आड़वानी जी का भी नाम था ) मे रामबहादुर राय की स्टोरी की जानकारी नहीं है । यह दोनों क्रमशः कांग्रेस और भाजपा के घोषित समर्थक है और इन दोनों ने अपने अपने दलों के शीर्ष नेतृत्व का पर्दाफाश करने मे कोई कोताही नहीं की । कुछ और पीछे बताऊँ, अपने के विक्रम राव भाई ने आई पी एस की नौकरी त्याग कर टाइम्स ऑफ इंडिया ज्वाइन किया । हमारी पीढ़ी " दिनमान " सारिका" पढते हुए बड़ी हुई है । धर्म युग के विशेषांक और गणेश मंत्री के लेखआज भी पढे जाँयें तो उसमे बहुत कुछ नया मिलेगा ।
पत्रकारिता कैरियर नहीं मिशन है परन्तु गली मुहल्लो मे राजनेताओं या अचानक अमीर हो गये लोगों द्वारा खोले गये पत्रकारिता महाविद्यालयों ने इसे कैरियर बना दिया है ।रामबहादुर राय, राजीव शुक्ला, प्रवाल मैत्र , प्रशान्त मिश्र , राम कृपाल सिंह, और अंशुमान तिवारी ( सभी को मै निजी तौर पर जानता हूँ) अपने विद्यार्थी जीवन मे प्रतियोगिता दर्पण नही, गाँधी, मार्कस, सात्र, अरस्तू,एम एन राय , लोहिया, अज्ञेय , विमल मित्र, जैसे विद्वानों का साहित्य पढते थे । उनके मन मे किशोरावस्था से ही सामाजिक परिवर्तन के लिए तड़पन थी, अपनी इस तड़पन को संतुष्ट करने केलिए वे पत्रकारिता मे आये है ।पत्रकारिता इन सबका शौक था , मजबूरी नहीं।
आई आई एम सी , जामिया मिलिया जैसे संस्थानों को छोड़ दिया जाये , तो कोई ऐसा संस्थान नहीं है , जहाँ आदरणीय विष्णु त्रिपाठी जैसे अध्यापक हो। मेरा मानना है कि एक साजिश के तहत पत्रकारिता की पढाई को मँहगा किया गया है ताकि ग़रीबी बेकारी अशिक्षा बीमारी भोगने वाले सामान्य परिवारों के बच्चे इसमे आने ही न पायें। चाटुकार हर युग मे रहे है, हर युग मे रहेंगे। आजादी के पहले रामबृक्ष बेनीपुरी भी थे और कई अंग्रेज के गुलाम पत्रकार भी थे । आज रवीशकुमार की तरह बेबाक अपनी बात कहने वाले बहुत से पत्रकार जिला स्तरो पर सक्रिय है । हमारे कानपुर मे एक बार शीशामऊ बाजार मे आग लग गई, तबके केन्द्रीय मंत्री आरिफ भाई की पत्नी क्षेत्रीय विधायक थी , वे नहीं चाहते थे कि यह समाचार प्रमुखता से छपे , उनहोंने मालिकों पर दबाव भी बनाया परन्तु दूसरे दिन " जागरण " मे प्रमोद तिवारी ने सही सही वृत्तांत छाप दिया । आज वही लोग पत्रकारों को भाँड़ बता रहे है , जो रवीशकुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी और अंशुमान तिवारी को अपने जाल मे फँसा नहीं पा रहे है ।
18 से 35 आयु वर्ग के मित्रो को शायद राजीव शुक्ला की स्टोरी " बेईमान राजा ईमानदार वित्त मंत्री " हवाला मामले ( जिसमे आड़वानी जी का भी नाम था ) मे रामबहादुर राय की स्टोरी की जानकारी नहीं है । यह दोनों क्रमशः कांग्रेस और भाजपा के घोषित समर्थक है और इन दोनों ने अपने अपने दलों के शीर्ष नेतृत्व का पर्दाफाश करने मे कोई कोताही नहीं की । कुछ और पीछे बताऊँ, अपने के विक्रम राव भाई ने आई पी एस की नौकरी त्याग कर टाइम्स ऑफ इंडिया ज्वाइन किया । हमारी पीढ़ी " दिनमान " सारिका" पढते हुए बड़ी हुई है । धर्म युग के विशेषांक और गणेश मंत्री के लेखआज भी पढे जाँयें तो उसमे बहुत कुछ नया मिलेगा ।
पत्रकारिता कैरियर नहीं मिशन है परन्तु गली मुहल्लो मे राजनेताओं या अचानक अमीर हो गये लोगों द्वारा खोले गये पत्रकारिता महाविद्यालयों ने इसे कैरियर बना दिया है ।रामबहादुर राय, राजीव शुक्ला, प्रवाल मैत्र , प्रशान्त मिश्र , राम कृपाल सिंह, और अंशुमान तिवारी ( सभी को मै निजी तौर पर जानता हूँ) अपने विद्यार्थी जीवन मे प्रतियोगिता दर्पण नही, गाँधी, मार्कस, सात्र, अरस्तू,एम एन राय , लोहिया, अज्ञेय , विमल मित्र, जैसे विद्वानों का साहित्य पढते थे । उनके मन मे किशोरावस्था से ही सामाजिक परिवर्तन के लिए तड़पन थी, अपनी इस तड़पन को संतुष्ट करने केलिए वे पत्रकारिता मे आये है ।पत्रकारिता इन सबका शौक था , मजबूरी नहीं।
आई आई एम सी , जामिया मिलिया जैसे संस्थानों को छोड़ दिया जाये , तो कोई ऐसा संस्थान नहीं है , जहाँ आदरणीय विष्णु त्रिपाठी जैसे अध्यापक हो। मेरा मानना है कि एक साजिश के तहत पत्रकारिता की पढाई को मँहगा किया गया है ताकि ग़रीबी बेकारी अशिक्षा बीमारी भोगने वाले सामान्य परिवारों के बच्चे इसमे आने ही न पायें। चाटुकार हर युग मे रहे है, हर युग मे रहेंगे। आजादी के पहले रामबृक्ष बेनीपुरी भी थे और कई अंग्रेज के गुलाम पत्रकार भी थे । आज रवीशकुमार की तरह बेबाक अपनी बात कहने वाले बहुत से पत्रकार जिला स्तरो पर सक्रिय है । हमारे कानपुर मे एक बार शीशामऊ बाजार मे आग लग गई, तबके केन्द्रीय मंत्री आरिफ भाई की पत्नी क्षेत्रीय विधायक थी , वे नहीं चाहते थे कि यह समाचार प्रमुखता से छपे , उनहोंने मालिकों पर दबाव भी बनाया परन्तु दूसरे दिन " जागरण " मे प्रमोद तिवारी ने सही सही वृत्तांत छाप दिया । आज वही लोग पत्रकारों को भाँड़ बता रहे है , जो रवीशकुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी और अंशुमान तिवारी को अपने जाल मे फँसा नहीं पा रहे है ।
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