Monday, 29 December 2014

सम्पत्ति के अधिकार की तरह है पेन्शन

सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट आॅफ झारखण्ड एण्ड अदर्स बनाम जितेन्द्र कुमार श्रीवास्तव एण्ड अदर्स (2014-2-सुप्रीम कोर्ट केसेज-एल एण्ड एस-570) में प्रतिपादित किया है कि किसी कर्मचारी को पेन्शन एवम ग्रेच्युटी उसके सेवायोजक की कृपा पर नही बल्कि सम्पत्ति के अधिकार के तहत प्राप्त होती है और किसी कर्मचारी को पेन्शन एवम ग्रेच्युटी के अधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 300 ए का उल्लघंन है। 
सुस्थापित और सर्वस्वीकृत है कि पेन्शन एवम ग्रेच्युटी किसी सेवायोजक की कृपा का प्रतिफल नही है। अपनी मेहनत निष्ठा और ईमानदारी से लम्बे समय तक सेवा करने वाले कर्मचारियों को इनके लाभ मिलते है। ये लाभ मेहनत से अर्जित लाभ है जो सम्पत्ति के अधिकार की तरह कर्मचारियों के सेवा हितलाभो के साथ निहित होते है और विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना कोई सेवायोजक किसी कर्मचारी को इनके लाभो से वंचित नही कर सकता है। 
झारखण्ड सरकार ने अपने एक कर्मचारी को उसके विरूद्ध भारतीय दण्ड संहिता एवम भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत पंजीकृत आपराधिक मुकदमों और विभागीय स्तर पर अनुशासनात्मक कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान सेवानिवृत्ति पर उसकी पंेशन अवकाश नकदीकरण एवम ग्रेच्युटी का भुगतान नही किया। राज्य सरकार के इस निर्णय के विरूद्ध कर्मचारी ने उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल की जिस पर उच्च न्यायालय ने आदेश पारित करके कर्मचारी को राज्य सरकार के समक्ष प्रतिवेदन दाखिल करने का निर्देश दिया। उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश के अनुपालन मे कर्मचारी ने राज्य सरकार के समक्ष प्रतिवेदन प्रस्तुत करके पेन्शन, ग्रेच्युटी एवम अवकाश नगदीकरण दिये जाने की माॅग की। परन्तु राज्य सरकार ने कर्मचारी के प्रतिवेदन को खारिज कर दिया। राज्य सरकार के इस आदेश के विरूद्ध कर्मचारी ने पुनः उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल की जो खारिज हो गयी। हाई कोर्ट के इस आदेश के विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिये कर्मचारी ने डिवीजन बेन्च के समक्ष अपील दाखिल की जिसे उच्च न्यायालय ने दूधनाथ पाण्डेय बनाम स्टेट आॅफ झारखण्ड (2007-2-बी.एल.जे.आर-2847) में फुल बेन्च द्वारा पारित निर्णय को दृष्टिगत रखकर स्वीकार कर लिया और राज्य सरकार को पेन्शन ग्रेच्युटी एवम अवकाश नगदीकरण का भुगतान करने के लिये आदेशित किया।
राज्य सरकार ने अपने पेन्शन नियमों में आपराधिक मुकदमा या अनुशासनात्मक कार्यवाही के लम्बित रहने के दौरान सेवा हितलाभों के भुगतान का कोई प्रावधान न होने के बावजूद केवल वित्त विभाग द्वारा जारी शासनादेश को आधार बनाकर पेन्शन एवम ग्रेच्युटी का भुगतान रोका था। राज्य सरकार ने संतराम शर्मा बनाम स्टेट आॅफ राजस्थान (ए.आई.आर-1967-सुप्रीम कोर्ट-1910) में पारित निर्णय का सहारा लेकर सर्वेच्च न्यायालय के समक्ष डिवीजन बेन्च द्वारा पारित निर्णय के विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिये अपील दाखिल की और दलील दी कि यदि किसी विषय विशेष के सम्बन्ध में कोई नियम विद्यमान नही है तो राज्य सरकार को अधिकार है कि वह प्रशासनिक आदेश जारी करके इस कमी को पूरा कर ले। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की इस दलील को स्वीकार नही किया और स्पष्ट किया कि संतराम शर्मा वाले मामले में न्यायालय के समक्ष प्रशासनिक आदेश के तहत पेन्शन एवम ग्रेच्युटी को रोके जाने का विवाद प्रश्नगत नही था बल्कि उसमें प्रशासनिक आदेश की विधिक हैसियत का विवाद प्रश्नगत था इसलिये संतराम शर्मा के मामले में प्रतिपादित विधि सेवा हितलाभों के विवाद में लागू नही हो सकती।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि यह सच है कि सेलेक्शन ग्रेड पदों पर जूनियर और सीनियर ग्रेड अधिकारियों की पदोन्नति का नियमो में कोई प्रावधान नही है। इसका यह अर्थ नही है कि जब तक सरकार इस आशय के नियम नही बनाती है तब तक सरकार पदोेन्नति के लिये कोई शासनादेश जारी नही किये जा सकते। इन स्थितियों में प्रशासनिक सहूलियतों के लिये राज्य सरकार को प्रशासनिक निर्देश जारी करने का अधिकार है परन्तु राज्य सरकार को प्रशासनिक आदेश के द्वारा किसी नियम को प्रतिस्थापित करने का अधिकार प्राप्त नही है। 
सर्वोच्च न्यायालय ने डी.एस नकारा बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया (1983-1-एस.सी.सी-305) में पेंशन क्यो दी जाती है? क्या सरकार या सेवायोजक अपने कर्मचारी को पंेशन देने के लिये बाध्य है? पेंशन क्या है? पेंशन का उद्देश्य क्या है? पंेशन देने में क्या जनहित है? आदि प्रश्नों का उत्तर देते हुये संवैधानिक पीठ द्वारा देवकी नन्दन प्रसाद बनाम स्टेट आॅफ बिहार (1971-2-एस.सी.सी-330) एवम स्टेट आॅफ पंजाब बनाम इकबाल सिंह (1976-2-एस.सी.सी-1) को उदधृत करते हुये स्पष्ट किया है कि पंेशन सेवायोजको की कृपा या उनकी सदिच्छा का प्रतिफल नही है बल्कि इसे पाना कर्मचारी का अधिकार है जो नियमों द्वारा शासित होता है। जो कर्मचारी इन नियमों की परिधि मे आता है उसे अधिकार स्वरूप पंेशन दिये जाने का प्रावधान है। इसी निर्णय में प्रतिपादित किया गया है कि पेंशन सम्पत्ति की तरह का अधिकार है जिससे कर्मचारी को विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना वंचित नही किया जा सकता। सर्वाेच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि पेंशन के अधिकार में किसी तरह का हस्तक्षेप संविधान के अनुच्छेद19(1)(एफ) और 31(1) को उल्लघंन है और सरकार पेंशन के अधिकार में प्रशासनिक आदेश के द्वारा कोई कटौती नही कर सकती और न उसे समाप्त कर सकती है।
पेंशन के अधिकार का विवाद के आर इररी बनाम स्टेट आफ पंजाब (ए.आइ.आर-1967- पंजाब-279) में पंजाब एण्ड हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष प्रश्नगत हुआ। उच्च न्यायालय ने सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा पारित दोनों पूर्व निर्णयों को आधार बनाकर प्रतिपादित किया कि पेंशन का अधिकार किसी कर्मचारी का महत्वपूर्ण अधिकार है। इस अधिकार में अनुशासनात्मक कार्यवाही के तहत यदि किसी प्रकार की कटौती की जानी है तो सम्बन्धित कर्मचारी को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का समुचित अवसर प्रदान किया जाना चाहिये। इस प्रकार के अवसर दिये बिना और इन अवसरों पर कर्मचारी द्वारा प्रस्तुत तथ्यों के गुणदोष पर विचार किये बिना पंेशन में कटौती का दण्ड अधिरोपित करने का कोई अधिकार सरकार या सेवायोजक को प्राप्त नही है। 
स्टेट आॅफ वेस्ट बंगाल बनाम हरेश सी. बनेर्जी (2006-7-एस.सी.सी-651) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार न माने जाने के बावजूद अनुच्छेद 300 ए के तहत पंेशन का अधिकार संवैधानिक अधिकार है और उसे सम्पत्ति के अधिकार के रूप में संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। प्रशासनिक निर्देश की प्रक्रति विधिक नही होती इसलिये वे विधि की परिधि में नही आते। तदनुसार किसी कर्मचारी को प्रशासनिक निर्देशो के तहत पेंशन एवम ग्रेच्यूटी के अधिकार से वंचित नही किया जा सकता।

Monday, 22 December 2014

मानवाधिकारो के लिये बदलना होगा पुलिस का रवैया

पिछले दिनों इण्डियन काउन्सिल आॅफ ह्ययूमैन राइट्स की एक कार्यशाला को सम्बोधित करते हुये उत्तराचंल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति श्री राजेश टंडन ने स्वीकार किया कि एन.डी.पी.एस. एक्ट के तहत पंजीकृत लगभग सभी मुकदमो में बरामदगी फर्जी होती है। स्थानीय पुलिस इस अधिनियम का जानबूझ कर दुरूपयोग करती है और उसने आम लोगो को उत्पीडित करने का इसे माध्यम बना लिया है। उन्होने अपने सम्बोधन में अपने अनुभवो को साझा करते हुये बताया कि मेरी पीठ के समक्ष जर्मनी की एक महिला के कब्जे से मादक पदार्थ की बरामदगी का मामला सामने आया जिस पर विचार करते हुये मैने पाया कि गिरफ्तार महिला को हिन्दी नही आती थी और उसे गिरफ्तार करने वाले पुलिस कर्मियों का अंग्रेजी भाषा से कोई वास्ता नही था परन्तु बरामदगी मेमो में लिखा था कि पुलिस कर्मियों ने महिला को बताया था कि उसे अपनी तलासी किसी मजिस्ट्रेेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष कराने का अधिकार प्राप्त है परन्तु महिला ने किसी मजिस्ट्रेेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी के लिये जाने से इनकार कर दिया और कहा कि आप पर मुझे विश्वास है और आप ही मेरी तलाशी ले लीजिये। माननीय न्यायमूर्ति के अनुसार उन्हे यह पूरी प्रक्रिया फर्जी प्रतीत हुई और उन्होने एन.डी.पी.एस एक्ट की धारा 50 का अनुपालन न होने के कारण विदेशी महिला को दोषमुक्त घोषित कर दिया और बाद में उनके निर्णय की पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय ने भी की थी।
मेरा अपना अनुभव भी बताता है कि स्वतन्त्र भारत में पुलिस बल संघटित अपराधियों का एक सरकारी गिरोह बन गया है, जो  राज्य की शक्तियों का प्रयोग प्रायः आम लोगो के मानवाधिकारो का हनन करने, उन्हे उत्पीडित करके अवैध कमाई करने के लिये करती है। किसी को भी फर्जी मुकदमा बनाकर वर्षो के लिये जेल में निरू़द्ध रहने के लिये अभिशप्त बना देने और फर्जी मुडभेड दिखाकर किसी की भी हत्या करने में इन्हे व्यवसायिक विशेषज्ञता हासिल है। आजादी के बाद सभी राजनैतिक दलों ने अलग अलग अवसरों पर पुलिसिया उत्पीडन और उसके द्वारा की गयी ज्यादातियों का विरोध करने के लिये उसकी तुलना विदेशी शासन के जलिया वाला बाग काण्ड से की है परन्तु सत्तारूढ रहने के दौरान किसी ने भी पुलिस बल को पब्लिक  ओरियेन्टेड सेवा प्रदाता संस्थान बनाने के लिये कोई पहल नही की, उस पर प्रभावी नियन्त्रण के लिये कोई तन्त्र विकसित नही किया बल्कि पुलिस कर्मियों को अपनी तत्कालिक राजनैतिक जरूरतों के लिहाज से आम लोगो के मानवाधिकारों के हनन की खुली छूट दी है। 
एन.डी.पी.एस. एक्ट के तहत सभी बरामदगी मेमो में लिखा रहता है कि हम पुलिस कर्मी गश्त पर जा रहे थे, सामने की ओर से एक व्यक्ति आता हुआ दिखायी दिया जो हम पुलिस वालो को अचानक देखकर ठिठका और पीछे मुडकर तेज कदमो से चलने लगा। शक हुआ उसे रोका टोका गया नही रूका। एकबारगी दौडाकर उसे पकड लिया । उससे भागने का कारण पूॅछा तो उसने बताया कि उसके पास चरस है। चरस होने की जानकारी प्राप्त होते ही उसे बताया गया कि उसे अपनी तलाशी किसी मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष कराने का अधिकार प्राप्त है परन्तु उसने तलाशी के लिये कहीं भी जाने से इनकार कर दिया और कहा कि हमें आप सब पर विश्वास है आप ही मेरी तलाशी ले लीजिये। इसी बीच उसने अपने पहने पैन्ट की दाहिनी जेब से एक पुडिया निकाल कर दी और कहा कि इसी में चरस है। प्रत्येक फर्द पर यही भाषा लिखी होती है और कभी कोई व्यक्ति पुलिस वालो की गिरफ्त में आने के पहले भागने के दौरान अपने जेब में रखी चरस को फेकता नही है और पुलिस वालो के आने का इन्तजार करता है। फर्द की भाषा से ही स्पष्ट हो जाता है कि पूरी प्रक्रिया एकदम फर्जी है और पुलिस अपने तरीके से फर्द लिखकर किसी को भी गिरफ्तार करके महीनों के लिये जेल भेज देती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने फर्जी मामले बनाकर लोगो को जेल भेज देने की पुलिसिया कार्यवाही की आलोचना करते हुये कई बार कहा है कि फर्जी मामलो में जेल जाने वाले  लोग वर्षो जेल में रहने के बाद जब रिहा होते है तो कोई उनका वह समय वापस नही दिला सकता जो उन्होने निर्दोष होने के बावजूद जेल में बिताया है। कई  बार अपने आपको निर्दोष साबित कराने के लिये उन्हे सर्वोच्च न्यायालय तक लम्बा कानूनी युद्ध लडना पडता है और उसके व्यय को वहन करने के लिये उन्हे कर्ज, शर्म और उत्पीडन का शिकार होना पडता है। परन्तु जिला प्रशासन या राज्य सरकार के स्तर पर इसकी कोई चिन्ता नही करता। कानपुर के रामा डेन्टल कालेज के एक विद्यार्थी को पुलिस ने उसके पास से चरस बरामद करके जेल भेज दिया। मानवाधिकार आयोग ने इस घटना की जाॅच कराई तो पूरी प्रक्रिया फर्जी पाई गयी। मानवाधिकार आयोग ने सम्बन्धित थानाध्यक्ष के विरूद्ध कार्यवाही की अनुशंसा की परन्तु उनके विरूद्ध कोई कार्यवाही नही हुयी। बाद में न्यायालय ने भी पूरे मामले को फर्जी पाया और विद्यार्थी को दोषमुक्त घोषित कर दिया परन्तु उसका पूरा कैरियर बरबाद हो गया और वह डाक्टर नही बन सका।
वास्तव में इस प्रकार की स्थितियों में निर्दोष नागरिकोे के उत्पीडन के लिये खुद व्यवस्था दोषी है। राज्य का संवैधानिक दायित्व है कि वे अपने नागरिको के मान समान और उसकी गरिमा की रक्षा करे और किसी भी दशा में निर्दोष को उत्पीडित होने से बचाये। राज्य सरकारो को अपने स्तर पर प्रक्रियागत व्यवस्था स्थापित करके सुनिश्चित कराना चाहिये कि किसी भी दशा में किसी भी नागरिक को स्थानीय पुलिस कर्मी फर्जी मामलों में फॅसाने का दुस्साहस न कर सकें और मामलों को विचारण के लिये न्यायालय के समक्ष प्रेषित करने के पूर्व उनकी सधन उच्चस्तरीय समीक्षा की जाये और केवल उन्ही मामलों में आरोप पत्र प्रेषित किये जाये जिनमें सजा के लिये समुचित विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध हो। औपचारिकतावश आरोप पत्र प्रेषित करने की प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन किये जायें। विवेचना पूरी हो जाने के बाद स्वतन्त्र मस्तिष्क का प्रयोग करके संकलित साक्ष्य की समीक्षा की जाये और यदि उनमें कोई कमी पायी जाये तो बेहिचक उन्हे दूर किया जाये। आवश्यकता प्रतीत हो तो नये सिरे से पुनः साक्ष्य संकलित की जाये परन्तु किसी भी दशा में अपर्याप्त साक्ष्य के साथ आरोप पत्र न्यायालय के समक्ष प्रेषित नही किये जाने चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाई गई इस उद्देश्यपरक प्रक्रिया से केवल उन्ही लोगो के विरूद्ध आरोप पत्र प्रेषित किये जा सकेगे जिनके विरूद्ध समुचित विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध होगी और उसके कारण अधिकांश अपराधो में अभियोजन को अभियुक्तो के विरूद्ध अधिरोपित आरोप  सिद्ध करने में सहजता होगी।
विदेशी शासन काल के दौरान वर्ष 1861 में बनाये गये पुलिस अधिनियम का उद्देश्य आतंक का राज्य कायम करके हम भारतीयो को उत्पीडित करके मान मर्यादा को धूलधुसरित करने का था। सोचा गया था कि आजाद भारत में इस अधिनियम को प्रभावहीन कर दिया जायेगा परन्तु अपने राज नेताओं ने इसमें कोई परिवर्तन नही किया और उसी कारण पुलिस का सोच व्यवहार एवं आचरण आज भी अंग्रेजो के शासनकाल की तरह आम नागरिकों को आतंकित रखने का है। स्वतन्त्र भारत में उनकी मानसिकता को बदलने का कोई  प्रयास नही किया गया। पुलिसिया व्यवस्था में सुधार के लिये केन्द्र सरकार और अनेक राज्य सरकारांे ने कई आयोगों का गठन किया है, परन्तु सभी आयोगों की रिपोर्ट सरकारी फाइलों में कैद है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने भी उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व डी.जी.पी. प्रकाश सिंह की याचिका पर पुलिसिया व्यवस्था में सुधार के लिये व्यापक दिशा निर्देश जारी किये है परन्तु  किसी राज्य सरकार ने इस दिशा निर्देशो के अनुरूप अपने पुलिस बल में सुधार के लिये कोई प्रयास नही किया है।  
किसी भी मामले में फर्जी गवाह खोजना और फिर उसी आधार पर अपराध के खुलासे की वाह वाही लूटना स्थानीय पुलिस अधिकारियों का प्रिय शगल है प्रेमचन्द्र बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया (ए.आई.आर.-1981-पेज 613) की सुनवाई के समय एक व्यक्ति द्वारा बतौर अभियोजन साक्षी तीन हजार मामलों में गवाही देने का तथ्य प्रकाश में आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रकार के पेशेवर साक्षियों की पूरी न्यायिक व्यवस्था के लिये प्रदूषण बताया था। सभी जानते है कि इस प्रकार का पुलिसिया आचरण मानवाधिकारो के लिये घातक है इस सबको देखकर लगता है कि आम लोगों के मानवाधिकारो की रक्षा और देश में सुशासन बनाये रखने के लिये कानून व्यवस्था को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में शामिल करना आवश्यक हो गया है।  

Sunday, 17 August 2014

न्यायिक नियुक्ति आयोग देर आये दुरस्त आये ................

उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों के चयन की अपारदर्शी कोलेजियम व्यवस्था को समाप्त करके केन्द्र सरकार ने संविधान की सर्वोच्चता के सुस्थापित सिद्धान्त को मान्यता दी है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश श्री आर.एम. लोढा सहित न्याय क्षेत्र के अधिकांश दिग्गज कोलेजियम व्यवस्था का मोह त्यागने को तैयार नही थे, परन्तु संसद ने जजो की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था बदलने वाले 99वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दे दी है। लोक सभा में यह बिल शून्य के मुकाबले 367 मतों से मंजूर किया गया है। 
 मुख्य न्यायाधीश श्री आर.एम. लोढा ने कोलेजियम व्यवस्था की वकालत करते हुये कहा था कि न्यायपालिका को बदनाम करते हुये भ्रमित करने वाला अभियान चलाया जा रहा है। उन्होंने न्या
याधीशों के चयन की मौजूदा कोलेजियम व्यवस्था को सही भी ठहराया है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि कोलिजियम गलत है तो हम भी गलत है।
कोलिजियम की व्यवस्था का संविधान में कोई प्रावधान नही है। इस व्यवस्था को खुद सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णयों के द्वारा स्थापित किया है। वास्तव मे यह व्यवस्था संविधान के प्रतिकूल है। संविधान के अनुच्छेद 124(2) एवं अनुच्छेद 217(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के जजो को भारत के मुख्य न्यायाधीश के सलाह के बाद महामहिम राष्ट्रपति नियुक्ति करते है। संविधान के अनुसार सरकार मुख्य न्यायाधीश की सलाह मानने के लिए बाध्य नही है। वर्ष 1993 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित एक निर्णय के बाद कोलेजियम सिस्टम की शुरूआत हुई। इसके तहत वरिष्ठ न्यायाधीशों का समूह सर्वोच्च न्यायालय और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति करने लगा। इस निर्णय के करीब पाँच साल बाद सर्वोच्च न्यायालय की 9 सदस्यीय संवेधानिक पीठ ने कार्यपालिका से सलाह के बाद जजों की नियुक्ति की सिफारिश की। जिसमें मुख्य न्यायाधीश की सलाह को निर्णायक माना गया। सरकार कोलेजियम द्वारा सुझाये गये नामों मे से ही नियुक्ति के लिए बाध्य होती थी। यदि सरकार किसी नाम पर सहमत नही है तो वह विचार के लिए कोलेजियम के पास उसे सिर्फ एक बार वापस भेज सकती थी। यदि कोलेजियम दोबारा वही नाम भेजता, तो उसकी अनुशंशा मानना सरकार की बाध्यता थी। यह पूरी प्रक्रिया बन्द कमरे में वरिष्ठ न्यायाधीशों के बीच बैठकर पूरी की जाती है और उसके बारे में आम लोगों के लिए कोई जानकारी प्राप्त कर पाना लगभग असम्भव है।
कोलेजियम व्यवस्था के लागू होने के बाद भारत दुनिया में इकलौता ऐसा देश बन गया था, जहाँ जजों की नियुक्ति स्वयं जज करते है। गोपनीयता के नाम पर पारदर्शिता की उपेक्षा की जाती है। जिसके कारण जजो की नियुक्ति में पक्षपात और भाई भतीजा वाद की शिकायतें आम होने लगी। जजों की गुणवत्ता में भी कमी आने की शिकायतें मिली है। 
कोलेजियम व्यवस्था के शुरूआती दौर में कहा जाता था कि सर्वोच्च न्यायालय और हाई कोर्ट के जजों को न्यायिक प्रक्रिया की जानकारी रखने वालो के बारे में अन्य किसी की तुलना में ज्यादा अच्छी जानकारी होती है। लिहाजा नियुक्ति में उनकी राय को वरीयता दी जानी चाहियें। इस व्यवस्था के समर्थकों की तरफ से तर्क दिया जाता था इससे न्यायपालिका को राजनीतिक दखलन्दाजी से मुक्त रखा जा सकेगा। इस प्रकार के तर्को से संदेश दिया गया कि कोलेजियम व्यवस्था लागू होने के पहले हमारी न्यायपालिका की नियुक्तियों में राजनीतिक हस्तक्षेप किया जाता था। जबकि वस्तुस्थिति इसके प्रतिकूल है। कोलेजियम व्यवस्था के पहले नियुक्ति किये गये सर्वोच्च न्यायालय और हाई कोर्ट के जजों ने न्याय के उच्च मानदण्डों की रक्षा की थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश श्री जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने ऐतिहासिक निर्णय के द्वारा 12 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी के लोक सभा चुनाव को रद्द करते हुये उन्हें अगले 6 वर्षों तक किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित किया था। बाद में इसी मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री वी.आर. कृष्णा अय्यर ने श्रीमती इन्दिरा गाँधी को संसद में मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया था। न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने अपनी पुस्तक ‘‘आफ द बेंच’’ में उस समय की कुछ घटनाओं को स्मरण करते हुये उल्लेख किया है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में निर्णय पारित होने के कुछ ही मिनटों बाद तत्कालीन विधि मन्त्री श्री एच.आर. गोखले ने उनसे मिलने की इच्छा जाहिर की थी। न्यायमूर्ति अय्यर ने स्पष्ट रूप से उनसे मिलने से इन्कार कर दिया था। इसलिए यह कहना एकदम गलत है कि कोलेजियम व्यवस्था के पहले के न्यायाधीशों की गुणवत्ता के साथ समझौते किये जाते थे। सत्यता तो यह है कि कोलेजियम व्यवस्था के द्वारा नियुक्त कई न्यायाधीशों की निष्ठा एवं ईमानदारी पर प्रश्नचिन्ह उपस्थिति हुये है और इन्हीं सब कारणों से कोलेजियम व्यवस्था में बदलाव की जरूरत महसूस हुई है।
कोलेजियम व्यवस्था की खामियाँ उजागर हो चुकी है और उसके स्थान पर केन्द्र सरकार द्वारा न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना की पहल स्वागत योग्य है, परन्तु साथ साथ यह भी ध्यान रखा जाना चाहिये कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामलें में सरकार की भूमिका ज्यादा प्रभावी और निर्णायक न होने पाये। यदि ऐसा कुछ होता है तो एक कमी से दूसरी कमी की ओर बढने वाली बात होगी। यह सच है कि ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण करना कठिन है। जिसमें किसी प्रकार की कोई कमी न हो।
हम सब जानते है कि जनपद न्यायालयों से सर्वोच्च न्यायालय तक सरकार का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए लोक अभियोजक, स्टैण्डिंग काउन्सिल, एडवोकेट जनरल, सालिसिटर जनरल आदि की निुयक्ति सरकार द्वारा की जाती है और इन नियुक्तियों में सदा सर्वदा मेरिट की अनदेखी होती है। जनपद न्यायालयों में विभिन्न दलों की राज्य सरकारें अपने दल के कार्यकर्ताओं को उपकृत करने के लिए नियुक्तियाँ करती है। उत्तर प्रदेश में मुख्यमन्त्री रहने के दौरान सुश्री मायावती ने सम्पूर्ण प्रदेश में अपनी पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा नियुक्त किये गये शासकीय अधिवक्ताओं को किसी युक्तियुक्त कारण के बिना हटा दिया और अपने दल के कार्यकर्ताओं को नियुक्त कर दिया। जबकि नियुक्ति पायें अधिकांश लोगों ने अपने वकालती जीवन के दौरान भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323, 504, 506 जैसे अपराधों के विचारण का सामना नही किया था और ऐसे लोगों को हत्या, बालात्कार, डकैती जैसे गम्भीर अपराधों के संचालन का अधिकार दे दिया गया। हलाँकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने बसपा सरकार द्वारा की गई सभी नियुक्तियों को रद्द कर दिया है और सर्वोच्च न्यायालय ने भी उच्च न्यायालय के फैसले पर मोहर लगा दी है, परन्तु अखिलेश सरकार भी शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति के मामले में बसपा सरकार के नक्शे कदम पर चलने में कोई शर्म महसूस नही कर रही है और वही सब करना चाहती है जो निर्लज्जतापूर्वक बसपा सरकार ने किया था। 
शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति में सभी स्तरों पर मेरिट की अन्देखी की घटनाओं को देखकर आशंका होती है कि जजों की नियुक्ति में भी सरकार की प्रभावी भूमिका हो जाने के बाद मेरिट के साथ समझौतों को कहीं वरीयता न दी जाने लगे। सरकार के मन्त्रियों से निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और पारदर्शी निर्णय की अपेक्षा नही की जा सकती। सम्पूर्ण देश में प्रभावी पदों पर छोटे मन के लोगों की तैनाती आज आम बात हो गयी है। इसलिए कई प्रकार की आशंकाओं को बल मिलता है। नियुक्ति व्यवस्था बदलने से इस प्रकार की आशंकाओं का समाधान नही होगा। नियुक्ति की अपारदर्शी प्रक्रिया के साथ साथ न्यायाधीशों के आचरण पर भी सवाल उठने लगे है। इसलिए जब तक न्यायाधीशों के लिए न्यायिक मानदण्ड और जवाबदेही तय नही होगी तब तक न्यायपालिका के दामन को दागदार करने वाले लोग उसकी प्रतिष्ठा और गरिमा को ठेस पहुँचाते ही रहेंगे। अभी ऐसा कोई तन्त्र विकसित नही हो सका है जो न्यायाधीशों के आचरण मे खोट पाये जाने पर उनके विरूद्ध कार्यवाही सुनिश्चित कराता हो। सर्वोच्च न्यायालय और हाई कोर्ट के जज को हटाना तो दूर उसे अवकाश पर भेजने और उसके विरूद्ध अनुशाशनात्मक कार्यवाही भी लगभग असम्भव है। जस्टिस दिनकरन का मामला सबके सामने है जिन्होंने आरोंपों की जाँच होने तक अवकाश पर जाने की सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम की सलाह मानने से इन्कार कर दिया था। 
प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग की संरचना अभी स्पष्ट नही है। आम सहमति बनाने की भी बात की जा रही है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रहे श्री मार्कण्डेय काटजू मानते है कि न्यायिक नियुक्ति आयोग मे सात सदस्य होने चाहियें जिसमें लोक सभा मे विपक्ष के नेता को शामिल किया जाना चाहियें और एक न्यायविद को राष्ट्रपति अपने विवेक से मनोनीत करें। चयन की प्रक्रिया को अमेरिकी सीनेट की तरह राष्ट्रीय स्तर पर टेलीविजन पर प्रसारित किया जाये। किसी भी दशा में न्यायिक स्वतन्त्रता के साथ कोई समझौता न हो और न्यायिक स्वतन्त्रा और न्यायिक जवाबदेही के बीच संतुलन बनाये रखा जाये। वास्तव में महत्वपूर्ण यह नही है कि नियुक्तियाँ न्यायपालिका करे या कार्यपालिका, महत्वपूर्ण यह है कि नियुक्तियाँ किस तरह से किन लोगों द्वारा की जाती है। अगर पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता बनाये रखी जाये और राजनैतिक गुणा भाग को नियुक्ति प्रक्रिया से दूर रखा जाये तो निश्चिित रूप से गुणवत्ता के साथ समझौता नही हो सकेगा और उन स्थितियों को पुनः दोहराना सम्भव नही होगा, जिसमें कार्यपालिका न्यायिक नियुक्तियों में अहम भूमिका निभाती थी और अपने कार्यकर्ताओं को जज नियुक्त करके उपकृत करने में कोई संकोच नही करती थी।

Friday, 1 August 2014

जजो की नियुक्ति में पारदर्शिता जरूरी ..................

मद्रास उच्च न्यायालय में एक भ्रष्ट न्यायाधीश की नियुक्ति के खुलासे में सम्बन्धित क्षेत्रों में व्यक्त की जा रही चिन्ताये सरासर दिखावा है। कौन नही जानता कि हमारी न्यायिक व्यवस्था माँ गंगा की तरह प्रदूषित हो चुकी है। नियुक्ति से फैसलों तक सब कुछ मैनेज होता है। काफी पहले वर्ष 1995 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति श्री एस.एस. सोढी ने ‘‘द अदर साइड आफ जस्टिस’’ नामक पुस्तक में अपने साथ हुये अन्याय को उजागर करते हुये बताया था कि सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायमूर्तियों की व्यक्तिगत खुन्नस में उनकी योग्यता को दरकिनार करके उन्हें सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नही बनने दिया था। तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति श्री ए.एम. अहमदी ने अपने दो अन्य वरिष्ठ न्यायमूर्तियों की सलाह से जस्टिस सगीर अहमद, जस्टिस जी.टी. नानावटी, जस्टिस के वेंकटस्वामी और जस्टिस एस.एस. सोढी को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त करने की अनुशंशा की थी परन्तु बाद मे जस्टिस सोढी को छोडकर अन्य तीनों न्यायमूर्तियों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद की शपथ दिलाई गई। बताया जाता
है कि सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायमूर्ति श्री आर0एम0 सहाय के सम्बन्धी को लखनऊ उच्च न्यायालय से इलाहाबाद उच्च न्यायालय स्थानान्तरित करने और फिर इस विषय पर उच्च स्तरीय दबाव के आगे नतमस्तक न होने के कारण जस्टिस एम.एस सोढी को न्यायमूर्तियों का कोपभाजन बनना पडा और उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनने से वंचित कर दिया गया।
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए वर्तमान कोलेजियम व्यवस्था का कोई प्रावधान संविधान में नही है। संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति में निहित है। संविधान में राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय जैसी भी स्थिति हो के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करके सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का प्रावधान है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलजियम व्यवस्था का जन्म वर्ष 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले से हुआ है। इसके बाद वर्ष 1998 में पुनः सर्वोच्च न्यायालय ने प्रेसीडेन्ट रिफरेन्स के मामले में अपना निर्णय सुनाकर कोलेजियम व्यवस्था को स्थायी बना दिया। इस निर्णय के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया कि मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली कोलेजियम में मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार वरिष्ठतम् जज होंगे और मुख्य न्यायाधीश अपने इन चार वरिष्ठ सहयोगियों से परामर्श करने के बाद ही नियुक्ति के लिए अपनी अनुशंशा सरकार को भेजेंगे और कोलेजियम की अनुशंशा सरकार पर बाध्यकर होगी।
कोलेजियम की इस व्यवस्था में सरकार की भूमिका लगभग समाप्त कर दी गई है। संवैधानिक प्रावधानों के तहत सरकार कोलेजियम से दुबारा विचार करने का आग्रह कर सकती है लेकिन अगर कोलेजियम अपनी अनुशंसाओं में कोई संशोधन नही करती और पूर्व अनुशंशा पर पुनः मोहर लगा देती है तो सरकार के लिए उसका पालन अपरिहार्य हो जाता है और वह उसे मानने से इन्कार नही कर सकती। वास्तव में यह पूरी व्यवस्था संविधान के प्रतिकूल है। संविधान में मुख्य न्यायाधीश को नियुक्ति के लिए अनुशंशा करने का अधिकार प्राप्त है। संविधान ने मुख्य न्यायमूर्ति को निर्णायक प्राधिकारी नही बनाया है। निर्णायक प्राधिकार राष्ट्रपति में निहित है। लेकिन वर्तमान व्यवस्था संविधान के इस स्पष्ट प्रावधान के प्रतिकूल है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने लिए न्यायाधीशो की नियुक्ति प्रक्रिया मे दावेदारों के गुण दोष का आकलन मुख्य न्यायमूर्ति और उनके अन्य वरिष्ठ सहयोगियो द्वारा अपने स्तर पर किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में कोई पारदर्शिता नही है। बन्द कमरे में जो कुछ तय किया जाता है उसकी भनक किसी को नही लगती और यही इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा दोष है। अपने देश में किसी सार्वजनिक पद पर कोई नियुक्ति पारदर्शिता अपनाये बिना एकदम मनमाने तरीके से नही की जा सकती। ऐसी दशा में न्यायाधीशो की नियुक्ति के लिए बन्द कमरे की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने का कोई विधिक औचित्य नही है और न संविधान इसकी अनुमति देता है।
आपातकाल के दौर को लोकतन्त्र का काला अध्याय माना जाये तो कोलेजियम व्यवस्था के अस्तित्व में आने के पूर्व सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए परम्परागत रूप से मुख्य न्यायाधीशें से परामर्श किया करती थी। यह भी सच है कि सरकार द्वारा नियुक्त किये गये न्यायाधीशों की निष्ठा ईमानदारी या योग्यता पर कभी प्रश्नचिन्ह नही लगे। कोलेजियम व्यवस्था के तहत नियुक्त न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप आम होते जा रहे है जो अपनी न्यायपालिका और अन्ततः लोकतन्त्र के हित में नही है। 
आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र मे भ्रष्टाचार अर्कमण्यता भाई, भतीजा वाद का बोल बाला है और उसके कारण व्यवस्था के प्रति लोगों का विश्वास घटता जा रहा है। इस प्रदूषित वातावरण मे भी आम लोगों को न्यायपालिका पर अटूट विश्वास है। लोग मानते है कि न्यायपालिका प्रदूषित हुई है परन्तु आज भी उसके अन्दर ईमानदार लोगों की संख्या ज्यादा है। इसलिए न्यायपालिका को साफ सुथरा रखना अन्य किसी व्यवस्था को साथ सुथरा रखने से ज्यादा जरूरी है। सन्तोष की बात है कि अपने देश में न्यायपालिका पर अँगुली नही उठाई जाती इसलिए न्यायपालिका को नियन्त्रित करने वालो का दायित्व बढ़ जाता है कि वे अपने बीच के प्रदूषण को चिन्हित करे और उन्हें बेहिचक बाहर का रास्ता दिखाये।
कोलेजियम सिस्टम को लेकर न्यायपालिका के अन्दर भी असन्तोष के स्वर उठने लगे है। न्यायमूर्ति चन्द्रमौलि प्रसाद और न्यायमूर्ति श्रीमती ज्ञान सुधा मिश्रा की सर्वोच्च न्यायालय मे नियुक्ति के समय शिकायतों का दौर चला था। हलाँकि दोनों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद की शपथ दिलाई गई परन्तु असन्तोष की चिंगारी तो उठी ही थी। पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री के.जी. बालाकृष्णन ने कोलेजियम सिस्टम के दोषों को स्वीकार करते हुये कहा था कि जब तक सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों द्वारा प्रचलित इस व्यवस्था में परिवर्तन नही होता वे इसे मानने के लिए बाध्य है।
कालेजियम सिस्टम के तहत न्यायाधीशों के पद पर नियुक्ति के दावेदारों की निष्ठा कुशलता ईमानदारी आदि गुण दोषो की परख नही हो पाती। अलग अलग स्तरों से जानकारी एकत्र करने का कोई प्रावधान नही है। मुख्य न्यायाधीश और अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश पूरी गोपनीयता बरतते हुये जानकारी एकत्र करते है। इस प्रक्रिया में पारदर्शिता न होने के कारण कमियों की सम्भावना बनी रहती है।
कोलेजियम सिस्टम दोषपूर्ण है और इसमें बदलाव समय की जरूरत है, परन्तु इसका यह अर्थ नही कि न्यायाधीशो की नियुक्ति का सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार सरकारों को दे दिया जाये। आज के राजनैतिक वातावरण में किसी भी दल की सरकार से न्यायपूर्ण आचरण की उम्मीद की अपेक्षा करना खुद को धोखा देना है। हम सब जानते है कि राज्य सभा में सदस्यों को मनोनीत करने के अधिकार का सभी दलो की सरकारों ने दुरूपयोग किया है। कला साहित्य आदि क्षेत्र के लोगों को नही बल्कि पराजित राजनेताओं का पुर्नवास करने के लिए इस प्रावधान का उपयोग किया जाता है। ऐसी दशा में आवश्यक है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा की तर्ज पर न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन किया जाये। अखिल भारतीय परीक्षा उत्तीर्ण करके नियुक्त होने वाले न्यायाधीश हरेक दृष्टि से सक्षम एवं सुयोग्य होंगे। 
अधिकांश कामनवेल्थ देशों में जजो की नियुक्ति के लिए नेशनल ज्यूडिशियल एप्वाइन्मेन्ट कमीशन स्थापित किये गये है। इस प्रकार के कमीशन यू.के. साउथ अफ्रीका और कनाडा में अच्छी तरह काम कर रहे है। इस प्रकार के कमीशन स्वतन्त्र होते है और इसके द्वारा न्यायपालिका कार्यपालिका और समाज के अन्य सम्बन्धित वर्गो के दृष्टि कोण के आधार पर विचार किया जाना सहज हो जाता है। इस प्रक्रिया में नियुक्ति के लिए सार्वजनिक उद्घोषणा के द्वारा प्रार्थनापत्र आमन्त्रित किय जाते है इसलिए उसकी पूरी प्रक्रिया अपने आप पारदर्शी हो जाती है और मनमानी की सम्भावनायें नगण्य हो जाती है। अपने देश में विधि आयोग ने वर्ष 1987 में इस आशय की अनुशंशा की थी, जो आज तक स्वीकृत होने की प्रतीक्षा में है।
मनमोहन सरकार ने अपने कार्यकाल में राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन के लिए लोक सभा में विधेयक पेश किया था जो लोक सभा का कार्यकाल समाप्त हो जाने के कारण समाप्त हो गया है। वर्तमान सरकार भी इसी आशय का संशोधन विधेयक संसद में प्रस्तुत करना चाहती है। वर्तमान सरकार के न्यायमन्त्री श्री रवि शंकर प्रसाद और वित्त मन्त्री श्री अरूण जेटली ने इस विषय पर वरिष्ठ विधि वेत्ताओं को साथ चर्चा की है।

Thursday, 24 July 2014

चिकित्सकीय लापरवाही आरोप ज्यादा हकीकत कम.............

बचपन में सुना करता था कि डा0 एस.पी. शुक्ला हृदय रोग का लक्षण दिखते ही तत्काल मारफिया या पेथीडीन इन्जेक्शन लगा देने के बाद मरीज को हृदय रोग संस्थान रिफर किया करते थे, परन्तु चिकित्सकीय लापरवाही की बढ़ती शिकायतों के कारण अब वे ऐसा नही करते बल्कि कोई दवा दिये बिना उसे नर्सिग होम ले जाने की सलाह देते है जबकि उन्हें मालुम है कि हृदय के मामलों में तत्काल इलाज मिलना बेहद जरूरी है। उन्हें भय रहता है कि यदि उन्होंने तात्कालिक आवश्यकता को दृष्टिगत रखकर इन्जेक्शन लगा दिया और अस्पताल पहुँचने के पहले रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई तो उनके विरूद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 ए के तहत मुकदमा पंजीकृत हो जायेगा और कई लाख रूपये की क्षतिपूर्ति के लिए उपभोक्ता अदालत के समक्ष परिवाद का भी उन्हें सामना करना पडेगा। इसी प्रकार मार्ग दुर्घटना में हेड इन्जरी की स्थिति में तत्काल खून के बहाव को रोकना आवश्यक होता है, परन्तु अब कोई डाक्टर ऐसे मरीजो का प्राथमिक उपचार नही करता और उसके कारण अस्पताल पहुँचने तक कई बार इन्जर्ड अन्य कई प्रकार के चिकित्सकीय परेशानियों का शिकार बना जाता है जो उसकी मृत्यु का कारण बनते है।
चिकित्सकीय व्यवसाय को उपभोक्ता संरक्षण फोरम की परिधि में ले लिये जाने के बाद चिकित्सको के विरूद्ध लापरवाही के आरोपों में इजाफा हुआ है। आये दिन इलाज में लापरवाही के नाम पर अस्पतालो और नर्सिग होम में तोड़ फोड़ की घटनाऐ होती रहती है। चिकित्सको के विरूद्ध आपराधिक धाराओं में मुकदमें या उपभोक्ता अदालतो में परिवाद आम बात हो गई है। मरीज और डाक्टर के बीच आपसी सद्भाव एवं विश्वास निरन्तर कम होता जा रहा है। जिसका सबसे ज्यादा नुकशान तत्काल इलाज की आवश्यकता वाले मरीजो को उठाना पड रहा है। गम्भीर मामलो में भी चिकित्सक अब मरीजो को प्राथमिक इलाज देने की अपेक्षा उसे किसी बडे अस्पताल या नर्सिग होम में रिफर करने को प्राथमिकता देने लगे है।
इण्डियन मेडिकल एसोसियेशन बनाम वी.पी. सन्था (1995-6-एस.सी.सी.-पेज 651) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया था कि चिकित्सकीय व्यवसाय अन्य व्यवसायो की तुलना में एकदम अलग तरीके का व्यवसाय है। इस व्यवसाय में प्रत्येक केस में सफलता सुनिश्चित नही होती। सफलता या असफलता का दारोमदार कई बार चिकित्सक के नियन्त्रण के बाहर होता है। उसकी कुशलता ज्ञान और बुद्धि एक सीमा के बाद प्रभावहीन हो जाती है। वास्तव में किसी चिकित्सक को केवल इस कारण मेडिकल नेगलीजेन्स का दोषी नही माना जाना चाहिये कि उसने किसी परिस्थिति विशेष में कोई एक निर्णय लिया जो बाद में गलत साबित हुआ। ऐसे किसी चिकित्सक या अन्य किसी क्षेत्र के विशेषज्ञ को खोज पाना लगभग असम्भव है जिससे कभी कोई गलती होती ही न हो। गम्भीर परिस्थितियों मे अपने सामने पडे मरीज के जीवन को बचाने या उसकी पीड़ा को कम करने के लिए चिकित्सक को तत्काल कोई न कोई निर्णय लेना ही होता है। इस प्रक्रिया के दौरान यदि उसके मन में कोई भय होगा तो वह अपनी कुशलता और विवेक के सहारे स्वतन्त्र निर्णय नही ले सकेगा और फिर वह विशेषज्ञ राय की प्रतीक्षा करेगा जो मरीज के इलाज की तात्कालिक आवश्यकता के हित में नही है।
रेस इप्सा लोक्यूटर स्वयं प्रमाण का सिद्धान्त चिकित्सकीय लापरवाही सिद्ध करने के लिए लागू नही हो सकता। कोई चिकित्सक या संवदेनशील व्यक्ति जानबूझकर किसी मरीज को छति पहुँचाने के दुराशय से गलत इलाज की सलाह नही दे सकते। इस प्रकार का आचरण सामान्य मानवीय स्वभाव के प्रतिकूल है। कथित झोला छाप डाक्टर भी अपने मरीजो का इलाज अपने सर्वोत्तम अनुभव और वर्षो की अर्जित कुशलता के बल पर पूरी जिम्मेदारी के साथ करते है। ग्रामीण अंचलों मे इलाज का सारा दारोमदार कथित झोलाछाप डाक्टरों पर निर्भर है और वे जानबूझकर कभी कोई लापरवाही नही करते। नामी गिरामी विशेषज्ञो का निर्णय भी कई बार गलत साबित हुआ है। 
मरीज के इलाज में जानबूझकर लापरवाही करने वाले चिकित्सक किसी भी दशा में सहानुभूति या दया के पात्र नही है। उन्हें हर हालत में दण्डित किया जाना चाहिये परन्तु गम्भीर परिस्थितियों में अपनी कुशलता एवं ज्ञान के सहारे मरीज का इलाज करने वाले चिकित्सको के विरूद्ध निहित स्वार्थवश प्रस्तुत शिकायतो को हतोत्साहित किये जाने की जरूरत है। सदा याद रखना चाहिये कि अन्य किसी क्षेत्र के विशेषज्ञ की तरह चिकित्सक का तात्कालिक निर्णय गलत हो सकता है, परन्तु यदि इसी कारण उसे दण्डित किया जाने लगा तो फिर कड़ी मेहनत करके मानवता की सेवा करने के लिए इस व्यवसाय की तरफ आने का आकर्षण खत्म हो जायेगा। मेडिकल प्रोफेशन आदर्श व्यवसाय है। इसे चिकित्सा सेवा बेचने खरीदने का व्यवसाय मानना एकदम गलत है। यह सच है कि आज कुछ चिकित्सक मानवता की सेवा करने की अपनी शपथ को भुलाकर केवल मनी माइण्डेड (धन लोलुप) हो गये है और अपने स्तर से नीचे जाकर प्रापर्टी खरीदने बेचने का व्यवसाय करने लगे है, जो दुःखद है, परन्तु ऐसे कुछ लोगों के कारण सम्पूर्ण मेडिकल प्रोफेशन में दोष खोजना या सभी को आदतन लापरवाही का दोषी मान लेना किसी भी दशा में न्यायसंगत नही है।
सर्वोच्च न्यायालय ने मारटिन एफ.डी. सोजा बनाम मोहम्मद इसफाक (2009-3-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 1) में न्यायमूर्ति श्री मार्केण्डेय काटजू एवं श्री आर.एम. लोढा की खण्ड पीठ ने प्रतिपादित किया है कि किसी चिकित्सक को मिसचान्स या मिसएडवेन्चर के कारण कुछ चीजों के गलत हो जाने या इलाज के लिए किसी अन्य तरीके की तुलना में किसी अन्य तरीके को प्राथमिकात दिये जाने के कारण चिकित्सकीय लापरवाही का दोषी नही माना जा सकता। उसे केवल उसी स्थिति मे दोषी माना जा सकता है जब उसने एक सक्षम डाक्टर के आचरण के प्रतिकूल निम्न स्तर का व्यवहार किया है मसलन उसने मरीज का आपरेशन करने के बाद सर्जिकल रूई उसके शरीर में छोड दी हो या खराब अंग की जगह किसी दूसरे अंग का आपरेशन किया हो। 
आपात स्थितियों में तत्काल सटीक इलाज के दौरान निर्णय मे गलती की सम्भावनाये ज्यादा होती है। ऐसे अवसरो पर चिकित्सक को डेविल और डीप. सी के बीच किसी एक का चुनाव करना होता है। उच्च स्तरीय जोखिम आवश्यक होता है परन्तु उसके असफल होने की सम्भावनायें  ज्यादा होती होती है जबकि निम्नस्तरीय जोखिम सुरक्षित होता है, परन्तु उसमें असफलता की आशंका बनी रहती है। इसलिए मरीज के जीवन को बचाने या उसकी पीढ़ा को कम करने के लिए चिकित्सक प्रायः उच्च स्तरीय जोखिम की प्रक्रिया अपनाते है और इन परिस्थितियों मे उनसे ऐसी ही अपेक्षा की जाती है। इसलिए निर्णय में गलती हो जाने पर चिकित्सक को जानबूझकर चिकित्सकीय लापरवाही का दोषी बताना न्यायसंगत नही है। किसी चिकित्सक को अपनी कुशलता के प्रतिकूल लापरवाही से किसी मरीज का इलाज करने से कुछ भी प्राप्त नही होता इसलिए चिकित्सक द्वारा जानबूझकर इलाज के द्वारा किसी के जीवन को खतरे में डाल देने या उसे गम्भीर छति पहुँचाने का तर्क सामान्य समझ से परे है।
सर्वोच्च न्यायालय ने जाकोब मैथ्यू बनाम स्टेट आफ पंजाब (2005-6-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 1) में प्रतिपादित किया था कि किसी चिकित्सक के विरूद्ध इलाज में लापरवाही के आरोप में किसी विशेषज्ञ डाक्टर की ओपीनियन और विश्वसनीय साक्ष्य के अभाव में कोई प्रायवेट कम्प्लेन्ट विचारण के लिए स्वीकार नही की जायेगी। कोई विवेचक किसी चिकित्सक के विरूद्ध कार्यवाही किये जाने के पूर्व सम्बन्धित रोग के विशेषज्ञ की राय अवश्य लेगे और केवल शिकायत में नामजद होने के कारण उसे गिरफ्तार नही करेगे।
सर्वोच्च न्यायालय ने मार्टिन एफ0डी0 सोजा बनाम मोहम्मद इशफाक (2009-3-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 1) में स्पष्ट रूप से कहा है कि न्यायालय और उपभोक्ता फोरम चिकित्सा विज्ञान के विशेषज्ञ नही होते इसलिए उन्हें रोग विशेष के विशेषज्ञ चिकित्सक की राय पर अपनी राय थोपनी नही चाहिये। माना जाना चाहिये कि अलग अलग चिकित्सको की एप्रोच भी अलग अलग होती है। कोई बहुत रेडिकल तेज होता है और कोई कन्जरवेटिव। किसी बने बनाये चिकित्सकीय फार्मूले में उन्हें फिट नही किया जा सकता। यदि कोई चिकित्सक किसी नई एप्रोच के साथ काम करता है और उसमें कभी असफलता हाथ लगी तो उसे उसके लिए दण्डित किया जाना उचित नही है।
सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया है कि चिकित्सको के विरूद्ध इलाज में लापरवाही के आरोप मे शिकायत पाये जाने के बाद आपराधिक न्यायालय या उपभोक्ता अदालते नोटिस जारी करने के पूर्व अन्य किसी सक्षम डाक्टर या डाक्टर्स के पैनल को विशेषज्ञ राय के लिए मामले को संदर्भित करें और यदि विशेषज्ञ राय में प्रथम दृष्टया लापरवाही प्रतीत होती है तभी चिकित्सक नर्सिंग होम या अस्पताल को नोटिस जारी करनी चाहिये। चिकित्सको को उत्पीड़न से बचाने के लिए ऐसा करना आवश्यक है। 

Sunday, 13 July 2014

लैंगिक हिंसा विरोधी कानूनों में बंध्याकरण की जरूरत ............

आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 के लागू हो जाने के बावजूद जमीनी स्तर पर इन कानूनों के माध्यम से महिलाओं के प्रति लैंगिक हिंसा में कोई कमी नही आई है। इन अपराधों में महिलाओं के प्रति समाज पुलिस और अभियोजन के रवैये में कोई परिवर्तन नही आया है। संशोधन अधिनियम के द्वारा विद्यमान कानूनों में समयानुसार संशोधन किय गये, सजा के प्रावधानों को ज्यादा कठोर बनाया गया, आरोप पत्र दाखिल होने के बाद दो माह के अन्दर विचारण पूरा करके मामले को निपटाने का नियम बनाया गया परन्तु प्रक्रियागत शिथिलताओं के कारण ये सभी कानून दोषियो पर अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम सिद्ध हुये है और उसके कारण बालात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है।
‘सहमति’ का प्रश्न उठाकर बालात्कार के दोषी प्रायः अपनी दोषमुक्ति आसान बना लिया करते थे परन्तु इस नये अधिनियम में सहमति को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है। कहा गया है कि सहमति से कोई स्पष्ट स्वेच्छिक सहमति अभिपे्रत है, जब स्त्री शब्दों संकेतो, या किसी प्रकार की मौखिक या अमौखित संसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट लैगिक कृत्य में शामिल होन की इच्छा व्यक्त करती है। परन्तु ऐसी स्त्री के बारे में जो प्रवेशन के कृत्य का भौतिक रूप से विरोध नही करती है, मात्र इस तथ्य के कारण यह नही समझा जायेगा कि उसने लैगिक संसर्ग के लिए अपनी सहमति दी है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी संशोधन करके प्रावधान किया गया है कि बालात्कार के किसी अभियोजन में, जहाँ अभियुक्त द्वारा मैथुन किया जाता साबित हो जाता है और प्रश्न यह है कि क्या वह उस स्त्री की सहमति के बिना किया गया है और ऐसी स्त्री यदि अपनी साक्ष्य में  अदालत के समक्ष यह कथन करती है कि उसने सहमति नही दी थी, तो अदालत यह उपधारणा करेगी कि उसने सहमति नही दी है। सहमति सिद्ध करने का भार पूरी तरह अभियुक्त पर है स्त्री द्वारा सहमति से इन्कार किया जाना असहमति की उपधारणा के लिए पर्याप्त है।
नये अधिनियम में बालात्कार की नई धाराये भी जोडी गई है। इनमें सम्बन्धी, अभिभावक, शिक्षक या विश्वस्त व्यक्ति द्वारा बालात्कार धारा 376(2) (एफ), साम्प्रदायिक या वर्ग हिंसा के दौरान महिला के साथ बालात्कार 376 (2) (जी), सहमति जताने में असमर्थ महिला के साथ बालात्कार धारा 376 (2) (जे) अधिपत्य या नियन्त्रण में रहने वाली महिला के साथ बालात्कार धारा 376 (2) (के), जब एक महिला शारीरिक या मानिसिक रूप से लाचार हो धारा 376 (2) (आई), जब बालात्कार के लिए गम्भीर रूप से चोट पहुँचाई जाये, या महिला को घायल कर दिया जाये या उसे शारीरिक रूप से विकृत कर दिया जाये या उसका जीवन खतरे में पड जाये 376 (2) (एम), उस स्त्री से बार बार बालात्कार धारा 376 (2) (एन) को गम्भीर अपराध माना गया है और उसके लिए न्यून्तम दस वर्षो के कठोर कारावास और अधिकतम आजीवन कारावास एवं जुर्माने से दण्डित करने का प्रावधान किया गया है। बालात्कार के दौरान यदि कोई महिला को ऐसी कोई क्षति पहुँचाता है जिससे उसकी मृत्यु जो जाती है या स्त्री की दशा लगातार विकृतशील हो जाती है तो वह ऐसी अवधि के कठोर कारावास से जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम की नही होगी। इस प्रकार के अपराधों में दोषी को मृत्युदण्ड से भी दण्डित किया जा सकेगा।
इस अधिनियम में लैंगिक उत्पीडन, विवस्त्र करने के आशय से स्त्री पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग प्राइवेट कृत्य में लगी स्त्री को एकटक देखने या उसकी फोटो लेने, किसी स्त्री का पीछा करने को भी अपराध माना गया है। धारा 354 के अपराध की सजा को एक वर्ष से बढ़ाकर पाँच वर्ष कर दिया गया है। इसी प्रकार धारा 326 ए और 326 बी जोडकर तेजाब आदि का प्रयोग करके स्वेच्छया गम्भीर चोट पहुँचाने या इसका प्रयत्न करने के अपराधों में न्यूनतम दस वर्ष या आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान किया गया है। इस अपराध में दण्ड स्वरूप ऐसे जुर्माने का भी प्रावधान है जो पीडि़ता के उपचार के चिकित्सकीय खर्चों को पूरा करने के लिए युक्ति युक्त हो। जुर्माने की राशि पीडि़ता को देने का नियम बना दिया गया है। 
बालात्कार के मामलों में बालात्कार के बाद महिला को टू फिंगर जाँच के दौरान पुनः एक बार उत्पीडन और शर्मिन्दगी का शिकार होना पड़ता है। जाँच के दौरान पीडित के जननांग में दो उंगलियाँ डालकर जाना जाता है कि उसकी योनि में फैलाव हुआ है या नही। इससे विचारण के दौरान अदालत के समक्ष पीडि़ता के यौन इतिहास और शारीरिक सम्बन्धों की आदी होने या न होने के बारे में चिकित्सक अपनी साक्ष्य प्रस्तुत करते है। विधि में विचारण के दौरान पीडि़ता के यौन इतिहास को प्रस्तुत करने की इजाजत नही है। परन्तु टू फिंगर परीक्षण के द्वारा मेडिकल रिपोर्ट में पीडि़ता को बालात्कार का आदी बताने की कुप्रथा आज भी जारी है।
हृयूमन राइट वाच रिपोर्ट डिग्निटी आन ट्रायल के द्वारा केन्द्र सरकार से अनुशंशा की गई है कि टू फिंगर को तत्काल प्रभाव से रोक दिया जाये। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इस प्रकार की जाँच का कोई वैज्ञानिक आधार नही है क्योंकि इस परीक्षण के आधार पर कोई चिकित्सक किसी पीडि़ता के यौन इतिहास के बारे में कुछ भी नही बता सकता। टू फिंगर परीक्षण की प्रक्रिया पीडि़ता का नये सिरे से शर्मिन्दगी का शिकार बनाती है और फिर न्यायालय के समक्ष विचारण के समय प्रतिपरीक्षा के दौरानय इन शब्दों के सहारे उसे जानबूझकर अपमानित किया जाता है। वास्तव में आदी है या नही ? का तथ्य बालात्कार के अपराध की गम्भीरता को कम नही कर सकता। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा टू फिंगर परीक्षण को अवैधानिक घोषित किये जाने के बावजूद राज्य सरकारों ने इसे अभी तक प्रतिबन्धित नही किया है। 
बालात्कार के दोषियों की रिहाई में साक्षियों की पक्षद्रोहिता एक बड़ा कारण है परन्तु संशोधित अधिनियम इस बडी समस्या के प्रति पूरी तरह मौन है। नई विधि में न्यायालय के बाहर के समझौतो और उसके कारण साक्षियों की पक्ष द्रोहिता पर विचार नही किया गया है। पीडि़ता पर न्यायालय के समक्ष गवाही न देने का जबर्दस्त दबाव होता है। पुलिस सी.बी.आई. अभियुक्त के वकील अदालत के शासकीय अधिवक्ता अपने अपने स्तरों पर कोई न काई भय दिखाकर पीडि़ता और उसके साक्षियों को पक्षद्रोही होने के लिए मजबूर करते है। इसकी वजह से दोषियों के दोष मुक्त होने की घटनायें बढ़ी है और दूसरी और नित्य प्रति की धमकियों के कारण असहायता में साक्षियों की आत्म हत्या की भी घटनायें में इजाफा हुआ है परन्तु शाशन के पास इस जबर्दस्ती पर प्रभावी नियन्त्रण के लिए कोई रणनीति नही है। रणनीति बनाने की दिशा में सेचा भी नही जा रहा है। भारी भरकम कानून और उसमें सजा के प्रावधान बालात्कार की घटनाओं को रोकने मे सक्षम नही हो सकते। इस पर नियन्त्रण के लिए समाज का सक्रिय सहयोग जरूरी है। प्रत्येक परिवार को अपने बेटे के पालन पोषण के दौरान उसे अपनी बहेन की सहेलियों के साथ गरिमामय व्यवहार करने की शिक्षा देनी होगी। उन्हे निरन्तर सचेत करते रहना होगा कि यदि उन्होंने किसी लड़की के साथ यौन हिंसा का व्यवहार किया तो घर के दरवाजे उनके लिए बन्द हो सकते है।
निर्भया काण्ड के समय उभरे आन्दोलन के दौरान दोषियों को मृत्युदण्ड या बंध्याकरण की सजा से दण्डित करने की माँग काफी मुखर थी। बालात्कार एवं हत्या के कई मामलों में दोषियों को मृत्युदण्ड से दण्डित किया गया है, परन्तु उसके कारण बालात्कार की घटनाओं में कोई कमी नही आई है बल्कि उसमें इजाफा हुआ है। ऐसी दशा में बंध्याकरण के दण्ड के प्रति गम्भीरता के साथ विचार विमर्श की जरूरत है। बालात्कार के बाद पीडि़ता एक जिन्दा लाश बनकर रह जाती है और उसे स्थायी रूप से शर्मिन्दगी एवं कलंक के साथ जीने को अभिशप्त होना पडता है। समाज उसे उस दण्ड के लिए दण्डित करता है, जो उसने किया ही नही है। साधारणतया कोई पुरूष उसके साथ विवाह करना ही नही चाहता जबकि बालात्कार के दोषियों का विवाह आसानी से जो जाता है। विवाहित होने की स्थिति में उनकी पत्नी उन्हें माफ कर देती है। दोषी सामान्य जीवन जीने लगता है और फिर किसी को अपनी दरिन्दगी का शिकार बनाता है, परन्तु स्त्री ताजिन्दगी सामान्य नही हो पाती और हर छण जीते जीते मरती रहती है। सामान्य सजाओं से बालात्कार के दोषयों को नियन्त्रित करना सम्भव नही है। इस प्रकार के दाषियों के लिए बंध्याकरण उचित दण्ड है। बंध्याकरण मृत्यु दण्ड से ज्यादा प्रभावी हो सकता है। मृत्युदण्ड में दोषी को अपराध बोध के साथ जीना नही पडता जबकि बंध्याकरण में उन्हें अपने द्वारा कारित दरिन्दगी के अपराध बोध के साथ समाज का सामना करना पड़ता है और उनको देखकर नये अपराधी बालात्कार की ओर उन्मुख होने से डरेंगे। सर्वविदित है कि सामान्य कानून बेअसर सिद्ध हुये है ऐसी दशा में बंध्याकरण के बारे में विचार विमर्श करना कतई अमानवीय नही है। 

Sunday, 6 July 2014

गिरफ्तारी के पहले अब विश्वसनीय साक्ष्य का संकलन जरुरी.......

पुलिस अधिकारी अब किसी को केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट में नामजद होने के कारण गिरफ्तार नही कर सकेगे। गिरफ्तारी के पहले  विश्वसनीय साक्ष्य संकलित करना उनके लिये आवश्यक बना दिया है। ऐसा न करने वालेे पुलिस अधिकारियों को विभागीय कार्यवाही के साथ -साथ न्यायालय की अवमानना का भी दोषी माना जायेगा। समुचित कारण अभिलिखित किये बिना अभिरक्षा का आदेश पारित करने वाले न्यायिक अधिकारियांे के विरुद्ध भी विभागीय कार्यवाही का आदेशात्मक दिशा निर्देश जारी हुआ है।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री चन्द्रमौलि कुमार प्रसाद एवं श्री पिनाकी चन्द्र घोष की खण्ड पीठ ने दिनांक 02जुलाई2014 को पारित अपने आदेशात्मक दिशा निर्देशों मे कहा है कि पुलिस अधिकारी किसी को भी गिरफ्तार करने से पूर्व अपने आप से पँूछे कि गिरफ्तारी क्यों ? क्या इसकी वास्तव में जरुरत है? इससे किस उद्देश्य की पूर्ति  होगी? प्राप्त क्या होगा? इन प्रश्नों का सकारात्मक उत्तर मिलने और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-41 में निर्धारित शर्तो का अनुपालन हो जाने के बाद ही किसी को गिरफ्तार करे। पहले गिरफ्तारी और बाद में साक्ष्य संकलन की प्रवृति न्यायोचित नही है। गिरफ्तारी से व्यक्ति का उत्पीडन और उसकी स्वतन्त्रता का हनन होता है। आजादी के छः दशको के बाद भी पुलिस की सामंती प्रवृति में कोई परिवर्तन नही आ सका। पुलिस आज भी आम लोगों के उत्पीडन का कारण बनी हुयी है। किसी भी दशा में जनता की मित्र नही है । लोगों को गिरफ्तार करनें के पुलिसिया अधिकारों को न्यायपूर्ण आधार पर सीमित करने के लिये सभी स्तरों पर अनेकानेक प््रायास किये गये है परन्तु अपेक्षित परिणाम प्राप्त नही हो सके है।
विधि आयोग, पुलिस  आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अपने स्तरो पर इस समस्या के विभिन्न पहुलुओ पर कई बार विचार किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अनेकानेक निर्णयों के द्वारा गिरफ्तारी के अधिकारों का प्रयोग किये जाते समय आम लोगों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक व्यवस्था के माध्य सांमजस्य बनाये रखने पर जोर दिया है। गिरफ्तारी का अधिकार अपने में निहित होने के कारण पुलिस अधिकारियों की अहमन्यता में कोई कमी नही आयी है पुलिस अधिकारी नामजद अभियुक्तो को पहले गिरफ्तार करने और उसके बाद विवेचना प्रारम्भ करने में विश्वास करते है जबकि अब उन्हे इस आशय का कोई विधिपूर्ण अधिकार प्राप्त नही है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि गैर जमानती और संज्ञेय अपराध होने के बावजूद केवल नामजद होने के कारण किसी को गिरफ्तार नही किया जाना चाहिये। गिरफ्तारी का अधिकार अपनी जगह है परन्तु इस अधिकार के प्रयोग का न्यायोचित होना एकदम अलग बात है। गिरफ्तारी का अधिकार होने के बावजूद न्यायोचित कारणों के आधार पर गिरफ्तारी सर्वथा विधि विरुद्ध है। पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तारी की सुसंगता सिद्ध करने के लिये समुचित कारण बताने होगें। उसके लिये आरोपों की सत्यता बाबत संुसंगत संतुष्टि आवश्यक है। इस आशय कि स्पष्ट विधि होने के बावजूद रुटीन गिरफ्तारियों की संख्या में कोई कमी नही आयी है। पुलिस अधिकारियों के इस उत्पीडक रवैये के कारण आम लोगोें की स्वन्त्रता का हनन होता है और उन्हे अनेकानेक कठिनाईयों का शिकार होना पडता है।
आम लोगों को पुलिसिया उत्पीडन से निजात दिलानें के लिये विधि आयोग की 177वी रिपोर्ट की अनुसंसाओं को स्वीकार करकेे केन्द्र सरकार ने दण्ड प्रक्रिया की धारा 41 में संशोधन करके सात वर्ष तक की सजा वाले अपराधो में केवल नामजद होने के कारण अभियुक्तों की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। दण्ड प्रक्रिया की धारा 41ए के संशोधित प्रावधानों के अनुसार सात वर्ष तक की सजा वाले अपराधों मे नामजद व्यक्ति को गिरफ्तार करने के पूर्व पुलिस अधिकारी के लिये आवश्यक हो गया है कि वे नामजद व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित होने के लिये नोटिस जारी करें। धारा 41-क निम्नवत हैः- 41-क. पुलिस अधिकारी के समक्ष उपसंजाति की सूचना-
1. पुलिस अधिकारी उन सभी मामालों में, जहां धारा 41 की अपधारा (1)के प्रावधान के आधीन व्यक्ति की गिरफ्तारी अपेक्षित नही है उस व्यक्ति, जिसके विरुद्ध युक्तियुक्त परिवाद किया गया है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त की गयी है, या युक्तियुक्त सन्देह विद्यमान है कि उसने संज्ञेय अपराध किया है को अपने समक्ष या ऐसे अन्य स्थान पर जैसा नोटिस ममें  विनिदिष्ट किया जाये, उपसंजात होने का निर्देश देते हुये नोटिस जारी करेगा।
2. जहां ऐसी नोटिस किसी व्यक्तिको जारी की जाती है तब उस व्यक्ति का यह कर्तव्य होगा कि वह नोटिस के निबन्धनों का अनुपालन करे ।
3. जहां ऐसा व्यक्ति नोटिस का अनुपालन करता है या अनुपालन निरन्तर करता है तब उसे नोटिस में निर्दिष्ट अपराध के सम्बन्ध में तब तक गिरफ्तार नही किया जायेगा जब तक लेखबद्ध किये जाने वाले कारणों से पुलिस अधिकारी की यह राय हो कि उसे गिरफ्तार किया जाना चाहिये ।
4. जहां ऐसा व्यक्ति,किसी समय नोटिस के निबन्धनों का अनुपालन करने में असफल रहता है या स्वयं की शिनाख्त करने के लिये अनिच्छुक है,पुलिस अधिकारी,ऐसे आदेशों के अध्यधीन,जैसा कि इस निमित सक्षम न्यायालय द्वारा पारित किया जायें,नोटिस में वर्णित अपराध के लिए उसे गिरफ्तार कर सकेगा।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के तहत अब पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को केवल उसी स्थिति में गिरफ्तार कर सकेगे,जब उनका समाधान हो जाता है कि ऐसे व्यक्ति को कोई अग्रेतर अपराध करने से रोकने,अपराध का उचित अन्वेषण करने,अपराध के साक्ष्य को  मिटाने या साक्ष्य के साथ किसी प्रकार की छेडछाड करने से प्रतिवारित करने,मामलें के तथ्यो से परिचित किसी व्यक्ति को उत्पीडित करने,धमकी देने,या वचन देने से प्रतिवारित करने,और न्यायालय के समक्ष उसकी उपस्थिति सुनिश्चित कराने के लिये गिरफ्तारी जरुरी है। पुलिस अधिकारी को ऐसी गिरफ्तारी के पूर्व केस डायरी में गिरफ्तारी के कारणों को  अभिलिखित करना होगा। पुलिस अधिकारी के लिये यह भी आवश्यक है कि वे उन सभी मामलों में, जहाँ व्यक्ति की गिरफ्तारी इस उपधारा के प्रावधानांे के अपेक्षित नही है, गिरफ्तारी न करने के कारणोे को भी अभिलिखित करे।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय के द्वारा न्यायिक अधिकारियों के लिये भी आवश्यक बना दिया है कि वे अपने समक्ष गिरफ्तार करके उपस्थित किये गये व्यक्तियों की अभिरक्षा का आदेश पारित करने के पूर्व सुनिश्चित करे कि गिरफ्तारी के समय पुलिस अधिकारियों ने विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किया है और यदि पुलिस अधिकारी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप गिरफ्तारी नही की है तोे गिरफ्तार करके लाये गये व्यक्ति को तत्काल रिहा करना न्यायिक अधिकारी की पदीय प्रतिबद्धता है। अभिरक्षा के आदेश में न्यायिक अधिकारी को अभिरक्षा के कारणों और उस पर अपनी संतुष्टि के कारणों को अभिलिखित करना होगा । न्यायिक अधिकारी की संतुष्टि उसके आदेश में परिलक्षित होनी चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेशात्मक दिशा निर्देशों में कहा है कि यदि कोई  न्यायिक अधिकारी सुसंगत कारण अभिलिखित किये बिना अभिरक्षा का आदेश पारित करेगे तो उनकेे विरुद्ध विभागीय कार्यवाही सुनिश्चित करायी जायेगी।
न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा है कि पुलिस अधिकारी के लिये आवश्यक है कि किसी को भी गिरफ्तार करने के पूर्व उसे नोटिस जारी करेगा और उसमे उपस्थित होने के लिये नियत तिथि,स्थान और समय का उल्लेख करेगा । विधि के तहत ऐसे व्यक्ति के लिये नोटिस पाने के बाद पुलिस अधिकारी के समक्ष उपस्थित होना भी आवश्यक है। नोटिस पाने के बाद यदि वह व्यक्ति पुलिस अधिकारी के समक्ष उपस्थित होकर नोटिस की शर्तो का पालन करता है तो उसे गिरफ्तार नही किया जायेगा। पुलिस अधिकारी को ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी यदि आवश्यक प्रतीत होती है तो वह अपनी संतुष्टि के कारणों को तथ्यो सहित अभिलिखित करेगा और सम्बन्धित न्यायिक अधिकारी के समक्ष उसे प्रस्तुत करेगा। कोई पुलिस अधिकारी अब निर्धारित प्रक्रिया और सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा जारी दिशा निर्देशों के प्रतिकूल किसी को गिरफ्तार करेगे तो उनके विरुद्ध विभागीय कार्यवाही की जायेगी और उन्हे न्यायालय की अवमानना का भी दोषी माना जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि यान्त्रिक तरीके से गिरफ्तारी के कारणों को केस डायरी मेे अभिलिखित करने की प्रवृत्ति को हत्तोसाहित करके उस पर पूर्ण विराम लगा देना चाहिये। पुलिस अधिकारी अब किसी की भी अनावश्यक गिरफ्तारी नही करेगे और न्यायिक अधिकारी यान्त्रिक तरीके से अभिरक्षा का  आदेश पारित करने की औपचारिकता नही निभायेगे

Sunday, 29 June 2014

संवैधानिक अवरोधों के बावजूद आपातकाल का खतरा बरकरार है.......

26 जून 2014 को कांस्टीट्यूशन क्लब नई दिल्ली में ‘‘आपातकाल का राजनैतिक संदर्भ’’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में आपातकाल विरोधी संघर्ष के अग्रिम पंक्ति के सूत्रधारों में एक श्री राम बहादुर राय के भाषण के दौरान कथित लोकतन्त्र सेनानियों द्वारा व्यवधान उत्पन्न करके उन्हें चुप कराते समय ’’लोकतन्त्र हम शार्मिन्दा है, तेरे कातिल जिन्दा है’’ का नारा लगाने की मेरी प्रबल इच्छा थी। राम बहादुर राय के विचारोे में असहमत होने का अधिकार सभी को था परन्तु असहमति के स्वर को संख्या बल पर दबाने का अधिकार किसी को नही है। असहमति को दबाने के प्रयास लोकतन्त्र के हित में नही होते। लोकतन्त्र सेनानियो ने अपने इस आचरण से संविधान प्रदत्त भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन किया है। 
लोकतन्त्र सेनानी स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की तरह सुविधायें और पेन्शन चाहते है। वे अपनी तुलना 9 अगस्त 1942 के क्रान्तिवीरो के साथ करते है। राम बहादुर राय इस प्रकार की तुलना से सहमत नही थे। उनका कहना था कि 9 अगस्त 1942 के दिन तत्कालीन नेतृत्व और उनके अनुयायियो को पता था कि अब क्या करना है ? कैसे करना है ? परन्तु 25 जून 1975 को इमर्जेन्सी घोषित होने के समय तत्कालीन राष्ट्रीय नेतृत्व गफलत में था। अटल जी बैगलोर में थे,आडवाणी और मधुदण्डवते बैगलोर जाने के लिये एयरपोर्ट पर थे, मधुलिमये मध्यप्रदेश में जनजागरण के लिये सभायें करते धूम रहे थे।इन सबने आपातकाल जैसी स्थिति की कल्पना भी नही की थी। इसी कारण 26 जून 1975 को सारे देश में सन्नाटा था। विरोध का कोई स्वर सुनाई नही पड़ा। दैनिक जागरण कानपुर ने अपना सम्पादकीय कालम खाली छोड़ कर विरोध प्रदर्शित किया था परन्तु सम्पादक और सम्पादक पुत्र की गिरफ्तारी होने के तत्काल बाद पूरे प्रतिष्ठान ने तीसरे दिन ही माफी माँग ली थी।
26 जून 1975 की तानाशाही मानसिकता आज पहले से ज्यादा ताकतवर हुई है। उस समय राजनैतिक दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र था। सामान्य कार्यकर्ता भी नेतृत्व की आलोचना कर सकता था। काँग्रेस के अन्दर रहकर चन्द्रशेखर और उनके साथियों ने जे.पी. आन्दोलन के प्रति इन्दिरा गाँधी के रवैये का सशक्त विरोध किया था। परन्तु आज किसी भी राजनैतिक दल में नीतिगत विषयों पर भी नेतृत्व से असहमति को दल विरोध माना जाता है। नेतृत्व के साथ सहमति जताते रहना राजनैतिक अस्तित्व के लिए आवश्यक हो गया है। सामूहिक विचार विमर्श मुद्दो पर सार्वजनिक बहस और असहमति के प्रति सम्मान गुजरे जमाने की बाते हो गई है।
25 जून 1975 को देश पर थोपी गयी तानाशाही संविधान के माध्यम से केन्द्रीय मंत्रीमण्डल ने इसे स्वीकार किया । राष्ट्रपति न इस पर अपने हस्ताक्षर बनाये और न्यायपालिका ने भी उस पर मोहर लगायी। किसी स्तर पर इन्दिरा गाँधी की तानाशाही से विरोध का सामना नही करना पडा। जयप्रकाश नारायण सहित सम्पूर्ण नेतृत्व किंकर्तव्यविमूढ के स्थिति में था। 25 जून 1975 को अपनी गिरफ्तारी के बाद पहली बार दिनांक 21 जुलाई1975 केा जयप्रकाश नारायण ने अपनी डायरी में लिखा ‘‘मेरा सारा संसार मेरे चारों तरफ खण्ड विखण्ड बिखरा पडा है लगता नही है कि अब मैं अपनी आँखों से कभी इन्हे समेटा हुआ देख पाऊँगा । मैं कोशिश तो कर रहा था कि लोकतन्त्र की प्रक्रिया में अधिकाधिक लोगों को जोड कर इसका क्षितिज थोडा व्यापक कर सकूँ। लेकिन मेरा गणित कहा गलत पडा ? मैं ‘‘हमारा गणित‘‘नही लिख रहा हूँ क्योकि यह जो भी कुछ भी हुआ है उसकी जिम्मेवारी मेरी है और वह मुझे ही लेनी चाहिये। मैं इस आकलन में चूक गया था कि किसी लोकताॅन्त्रिक व्यवस्था में अपने से असहमत लोगों के अशान्तिमय लोकतान्त्रिक आन्दोलन को कुचलने के लिये कोई प्रधानमंत्री किस हद तक जा सकता है। मैं इतना तो अनुमान करता था कि इस आन्दोलन को रोकने के लिये प्रधानमंत्री सभी किस्म के सामान्य और असामान्य कानूनों  की मदद लेगें लेकिन वे इसके लिये लोकतंत्र का ही गला घोट देगें,यह मैनें सोचा नही था मैं इस पर भी भरोसा नही कर पा रहा हूँ कि  अगर प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ सोचा तो उनके वरिष्ठ सहयोगियोें ने उनकी पार्टी ने जिसकी लोकतांत्रिक परम्परा काॅफी मजबूत रही है,उन्हे ऐसा करने दिया‘‘। जयप्रकाश नारायण का यह सवाल आज भी जिन्दा है असहमति के प्रति इन्दिरा गाँधी वाली मानसिकता पहले से ज्यादा ताकतवर होकर उभरी है। 
1974 से 2014 के बीच आम आदमी के सपनों में कोई खास बदलाव नही आया है। आम आदमी आजादी के बाद से लगातार एक अद्द घर, सस्ता भोजन चलने फिरने लायक सडक पीने योग्य पानी और सुरक्षा एवं सम्मान की चाहत रखता है। उसने कभी टाटा विडला अम्बानी बनने का सपना नही देखा। परन्तु उसके सपनों के विखरने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। उसके सपनों को समेटने सहेजने और उन्हें साकार करने की दूर दृष्टि किसी राजनेता के पास नही है। सभी उसे ठगते रहे है। उसकी निराशा का कमोबेश सभी राजनैतिक दलों ने अपने तात्कालिक लाभ के लिये दुरूपयोग किया है। 
जे.पी. आन्दोलन के बाद अन्ना आन्दोलन के समय देश में एक बार फिर आशा का संचार हुआ था। भ्रष्टाचार के विरूद्ध उनके आन्दोलन के साथ सम्पूर्ण देश मेें एकजुटता आई थी। लगा कि भ्रष्टाचार का युग समाप्त हो चला और देश एक नई करवट लेगा लेकिन अन्ना जी और उनके सहयोगियो ने भी देश को निराश किया। अन्ना जी अपने नित नये बयानों के कारण महत्वहीन हो गये और उनके प्रखर सहयोगी अरविन्द केजरीवाल अति जल्दबाजी में राजनेताओं के चक्रव्यूह का शिकार हो गये।
आजादी के तत्काल बाद डाक्टर राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए जबर्दस्त राजनैतिक आन्दोलन हुये है। डाक्टर लोहिया अपने समर्थको के बीच राजनैतिक विचारों पर बहस को आमन्त्रित करते थे। इन  बहसो में सामान्य कार्यकर्ता बेहिचक लोहिया जी का भी विरोध कर सकता था। इस प्रकार के विरोध को वे प्रोत्साहित करते थे। आज सभी दलों को अपने कार्यकर्ताओं के बीच दलीय मंचो पर इस प्रकार की असहमति को प्रोत्साहित करना चाहिये। आदर्श रूप में सभी इसे स्वीकार करते है परन्तु व्यवहारिक स्तर पर सिद्धान्तहीन विचार शून्य कार्यकर्ताओं को ही प्राथमिकता दी जाती है इसीलिए जगदम्बिका पाल, रामकृपाल यादव, रामविलास पासवान जैसो को केवल सांसद बनने के लिए अपने धुरविरोधी मोदी का गुणगान करने मे कोई वैचारिक झिझक नही होती है। लोकतन्त्र को जिन्दा रखने और उसे प्रति क्षण मजबूत बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि मुद्दा आधारित सार्वजनिक चर्चा परिचर्चा के द्वारा आम जनता की सक्रियता सहभागिता बढाई जाये और मुद्दा आधारित आलोचना करने का साहस रखने वाले कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता देने का माहौल बनाया जाये।
जून 1975 से मार्च 1977 के मध्य जेल जाने वाले अधिकांश राजनैतिक कार्यकर्ताओं के जीवन का संध्याकाल है। मुलायम सिंह यादव और उसके बाद कई अन्य मुख्यमन्त्रियों ने उन्हें सहयोगी के साथ निःशुल्क बस यात्रा और प्रतिमाह सम्मान राशि (पेन्शन) से उपकृत करके उनके अन्दर इन सुविधाओं को भोगते रहने की लालसा जगा दी है। इसलिए अब वे अपने इन तात्कालिक हितों के विरूद्ध राम बहादुर राय जैसो की बात सुनना ही नही चाहते जबकि उन्हे मालूम है कि मीसा कानून के तहत सबसे पहली गिरफतारी उन्ही की हुयी थी और बिहार आन्दोलन का नेतृत्व करनें के लिये जयप्रकाश जी को मनाने में उनकी महती भूमिका रही थी। आपातकाल सेनानियों को याद रखना होगा कि समाज उन्हें मुलायम सिंह या अन्य किसी मुख्यमन्त्री द्वारा उपकृत किये जाने के कारण सम्मान नही देता। समाज उन्हें आपातकाल के विरोध में उनके योगदान, लोकतन्त्र के प्रति उनकी जिद, जोश और जज्बे को सलाम करता है। आपातकाल सेनानियों को अपनी इस जिद, जोश और जज्बे को भावी पीढियों के लिए जिन्दा रखना होगा। दुःख की बात है कि लोकतन्त्र सेनानियों के सम्मेलन अब केवल सरकार से उपकृत होने की लालसा मे आयोजित किये जाते है। उनमे अब वर्तमान राजनैतिक माहौल में एकाधिकार की बढती प्रवृत्तियों, जो अन्ततः तानाशाही का मार्ग प्रशस्त करती है, पर चोट नही की जाती।
देश के लोकतन्त्र के इतिहास में आपातकाल एक गम्भीर त्रासदी थी। इन्दिरा गाँधी ने अपने निजी स्वार्थ के लिए इसे देश पर थोप दिया था। आपातकाल के कारणों और उसके निवारण के लिए किये गये प्रयासों से भावी पीढी को अवगत कराना आवश्यक है। उसे बताया जाना चाहिये कि 18 मार्च 1974 को हाथ पीछे बाँधे और मुँह पर पट्टी बाँधे बमुश्किल एक हजार लोग पटना की सड़को पर जयप्रकाश के नेतृत्व मे उतरे, तो दिल्ली में बैठे सत्ताधीशों की अकड और उनका घमण्ड धूल धूसरित हो गया था। देश ने इसके पहले निनाद करता ऐसा सन्नाटा कभी नही देखा था। उसकी तपन मे सत्ताधीशो को झुलसा दिया था। इन्दिरा गाँधी और उनके सिपहसालारो के अनेकानेक अत्याचारों के बावजूद ‘‘खोलो खोलो जेल के तालें, ये दीवाने आये है या दम है कितना दमन मे तेरे, देख लिया और देखेंगे’’ का उद्दघोष करके कक्षा 10, 11, 12 के विद्यार्थी भी उनके लिए चुनौती बनकर सडको पर उतरे थे। कांस्टीट्यूशन क्लब में एकत्र सेनानियों को राम बहादुर राय उनके इसी पौरूष से रूबरू कराना चाहते थे, परन्तु मोदी सरकार से उपकृत होने की आकांक्षा पाले सेनानियों को पेंशन और सुविधाओं की लालच ने अन्धा बना दिया और उन सब ने जाने अन्जाने अपने विरोधी विचारो को दबाकर इन्दिरा गाँधी की अधिनायकवादी मानसिकता को जीवन प्रदान किया है।

Sunday, 22 June 2014

सांसदों के घोटालों पर अब संसद शर्मिन्दा नही होती.......

गर्व से कहो हम ब्राह्मण है, चाणक्य के उत्तराधिकारी है, का उद्द्घोेष करने वाले अपने उत्तर प्रदेश से राज्य सभा सदस्य श्री बृजेश पाठक ने सांसद होने के नातेे फर्जी बिल लगाकर बेईमानी पूर्वक 2.20 लाख रूपये का चूना संसद को लगाया है। सी0बी0आई ने श्री पाठक सहित छः सांसदो के विरूद्ध फर्जी दस्तावेज बनाने और उनके फर्जी होने की जानकारी के बावजूद उन्हें एकदम सही दस्तावेज के रूप में प्रयोग करके बेईमानीपूर्वक धनराशि प्राप्त करने के आरोप में मुकदमा पंजीकृत कराया है। इस घटना को लेकर मैं शर्मिन्दा होना चाहता था, परन्तु उसी समय शर्म ने मेरे मन से कहा कि इस प्रकार के विषय अब उससे (शर्म) ऊपर उठ चुके है और उन पर शर्मिन्दा होकर आप हमें शर्मिन्दा न करें। शर्म ने मेरे मन को बताया कि इन चीजों को भ्रष्टाचार की दृष्टि से देखना अपराध है। आपको याद नही है कि अन्ना आन्दोलन के दौरान संसद मे अपराधी बैठते है की बात कहे जाने पर संसद के दोनों सदनों के सदस्य आग बबूला हो गये थे और एक स्वर में सभी ने इसकी निन्दा की थी, परन्तु अपने ही साथी द्वारा फर्जी बिल लगाकर राजकोष को अनुचित क्षति पहुँचाने वाली घटना के बीच वें शर्म को नही आने देते। वे कुछ दिन बाद इस घटना को वित्तीय अनियमितता बताकर अपने साथी के बचाव का सम्मानजनक रास्ता निकाल लेंगे या कहेंगे कि सत्तारूढ दल सी0बी0आई0 का दुरूपयोग करके उन्हें परेशान कर रहा है लेकिन कोई चाणक्य को याद नही करेगा जिसने निजी अध्ययन अध्यापन के लिए भी राजकोष का उपयोग नही किया।
साम्यवादी नेता सोमनाथ चटर्जी ने अपने लोक सभा अध्यक्ष रहने के दौरान संसद में प्रश्न पूँछने के लिए पैसा माँगने के आरोपी सांसदों को संसद से निष्कासित करने का साहस दिखाया था, परन्तु निष्कासित सांसदों में से एक राजाराम पाल को कानपुर देहात (अकबरपुर) की जनता ने फिर से चुनकर लोक सभा भेज दिया था। संसद में प्रश्न पूँछने के लिए सांसद द्वारा पैसा माँगने की बात सोची भी नही जा सकती थी।, जनहित के मुद्दो पर संसद में सरकार को घेरना़ प्रश्न पूँछना चर्चा परिचर्चा करना सांसद जी की पदीय प्रतिबद्धता है। मतदाताओं ने उन्हें इसी काम के लिए चुना है। संसद में प्रश्न की अपनी महत्ता है इसीलिये कानपुर की श्रमिक समस्या पर राज्य सभा में नियमो के तहत प्रश्न पूँछने की अनुमति न मिलने की स्थिति मे प्रख्यात समाजवादी नेता राजनारायण श्रमिको को तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी0वी0 गिरि के आवास पर ले गये। श्रमिको को उनसे मिलवाया और उसके बाद राज्य सभा में श्रमिको की समस्या पर सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर किया गया।
बृजेश पाठक, महमूद मदनी, लाल मिंग, रेणु बाला, डी. बन्दोपाध्याय जे.पी.एन. सिंह जैसो की हरकतों को देखकर लगता है कि क्या अब हमारी संसद सदा सदा के लिए मधु लिमये जैसे सांसदो के लिए तरसती रहेगी। अब क्या कोई ऐसा राजनेता सामने नही आयेगा जो सांसद के नाते सरकार या अन्य किसी से उपकृत होना स्वीकार न करे। लोक सभा चुनाव हारने के बाद मधु जी अपने ग्रह नगर वापस जाना चाहते थे। इन्दिरा जी ने उनसे दिल्ली में ही रहने का निवेदन किया और सांसद के रूप में उन्हें आंवटित आवास खाली न करने के लिए रहा। उन्होंने उपकृत होने से इन्कार कर दिया और उसके बाद भूतपूर्व सांसदों को नई दिल्ली में आवास आवंटित करने की नीति बनाई गई। आज सभी दलों में ऐसे सांसदों की भरमार होती जा रही है जो अपने संसदीय क्षेत्र के हितों के मूल्य पर निजी लाभ हेतु सरकार से उपकृत होने के लिए तत्पर रहते है। उन्हें कभी कोई शर्म नही आती है।
आज विधायको सांसदो के वेतन भत्तो आदि में अभूतपूर्व वृद्धि हो गई है। एक भी दिन सांसद रहे लोगों को आजीवन पेन्शन की सुविधा है। रेल एवं हवाई किराये में विशेष रियायते उन्हें दी गई है। जन प्रतिनिधि के नाते अपने संसदीय क्षेत्र की समस्याओं के समाधान मे सहभागी होने के लिए उन्हें पर्याप्त सुविधाये उपलब्ध है परन्तु अपने लालच पर उनका कोई नियन्त्रण नही है इसीलिये उपलब्ध सुविधायें उन्हे अपर्याप्त लगती है। परतन्त्र भारत में काँगे्रस ने निर्णय लिया था कि उनके मंत्री कराची अधिवेशन के प्रस्ताव का सम्मान करते हुये पाँच सौ रूपये से ज्यादा वेतन नही लेगे। अनुशासन और गाँधीवादी जीवन शैली का पालन करते हुये आदतन खादी पहनेंगे। काँग्रेस मन्त्रियों के इस आचरण ने उन्हें अन्य मन्त्रियों की तुलना में विशिष्ट बनाया और आभास दिया कि वे वास्तव में दरिद्र नारायण का प्रतिनिधित्व करते है। डाक्टर राम मनोहर लोहिया समाजवादी मन्त्रियों सांसदो एवं विधायको से भी ऐसे ही आचरण की अपेक्षा करते थे। मधु लिमये राजनारायण जनेश्वर मिश्रा मोहन सिंह जैसे उनके अनुयायी उनकी अपेक्षा पर खरे उतरे है। स्वतन्त्र भारत की राजनीति के शुरूआती दौर में संसद या विधान सभा के अधिवेशनों या संसदीय समिति की बैठको के दौरान बँगले दिये जाते थे। धीरे धीरे सांसद या विधायक के नाते मिलने वाले बँगले स्थायी आवास बना लिये गये और कई लोगों ने अपने बँगलों के बड़े भाग को किराये पर उठाकर कमाई शुरू कर दी। राजनैतिक दलों ने अपने सांसदों विधायको की इस लालची प्रवृत्ति पर कभी अंकुश नही लगाया और दुष्परिणाम के रूप में कभी प्रश्न पूँछने के नाम पर पैसा माँगने, सांसद निधि के कामों में ठेकेदारो से कमीशन लेने और फर्जी यात्रा बिलों के आधार पर अनुचित लाभ प्राप्त करने की घटनाओं में इजाफा हुआ है। कानपुर नगर निगम में एक नगर प्रमुख ने नियमों एवं परम्पराओं को ताक पर रखकर खुद अपने लिए एक मकान आवंटित कर लिया। उनकी मृत्यु के बाद भी उनके परिजनों का उस पर कब्जा बना हुआ है। साम्यवादी सांसदों को छोडकर अधिकांश सांसद महँगी कारों से संसद आते है। कोई भी राजनैतिक दल अपने सांसदों को संसद की वैन से संसद आने या आदतन सादगी से रहने के लिए नही कहता।
गाँधी को सम्बोधित एक पत्र में तिलक ने लिखा कि ‘‘दुनिया साधुओं के लिए नही है’’ के जवाब में गाँधी ने उन्हें बताया कि दुनिया को साधुओं के लिए न समझना बौद्धिक आलस्य है। हम यह समझते आये है कि व्यक्तिगत सत्य और राजनैतिक सत्य का मापदण्ड जुदा होता है। वैयक्तिक सदाचार शास्त्र की दृष्टि से जिस काम को हम घृणा की दृष्टि से देखते है, उसी काम को हम राजनैतिक दृष्टि से अच्छा समझते है। धोखा देना, विश्वासघात करना, झूठ बोलना सदाचार शास्त्र की दृष्टि से पाप है परन्तु राजनैतिक व्यक्ति यदि विश्वासघात, झूठ, दम्भ का सहारा लेता है तो उसे कोई बुरा नही मानता। गाँधी, तिलक युग में इस प्रकार की बातें बौद्धिक विचार विमर्श तक सीमित रही होंगी, परन्तु वर्तमान राजनैतिक माहौल में विश्वासघात, झूठ और दम्भ जैसे अवगुणों का सार्वजनिक महत्व तेजी से बढ़ा है। अब सार्वजनिक जीवन में मधु लिमये जैसे लोग नही दिखते जिन्हें देखकर विश्वास होता था कि अपनी निष्ठाओं, आस्थाओं और सिद्धान्तों पर जिया जा सकता है। समझौता करने और जीते जी अपने को खोने की जरूरत नही है। मधु लिमये ने भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया। गोवा की पुर्तगाली राज से मुक्ति तक आजादी की लड़ाई लड़ते रहे लेकिन स्वतन्त्रा संग्राम सेनानी का ताम्र पत्र नही लिया। पेन्शन लेने की तो बात ही नही उठती। आपातकाल के दौरान लोक सभा का कार्यकाल पाँच वर्ष से छः वर्ष किये जाने के विरोध में उन्होंने लोक सभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। पण्डारा पार्क में जिस छोटे से घर में रहना उन्होंने स्वीकार किया था उसका भी किराया उन्होंने हमेशा चुकाया। संसद के पुस्तकालय में पढ़ने और संदर्भ देखने के लिए भी तिपहिया स्कूटर से जाते जिसे सुरक्षा वाले गेट के बाहर ही रोक देते। उनके लिए एक ठीक ठाक घर, वाहन और दूसरी रोजमर्रा की सुविधायें सुलभ करवाने में न किसी को हिचक होती न किसी का कोई अहसान। लेकिन मधु लिमये ने स्वतन्त्रा संग्राम सेनानी, पूर्व सांसद और राजनैता बने रहने के बजाय साधारण नागरिक बने रहना पसन्द किया जिसके इस देश मेें कोई विशेषाधिकार नही माने जाते। 
तुलसीदास ने मन्थरा से कहलवाया था कि ‘‘कोऊ नृप होय, हमे का हानी, चेरी छांडि बनहीं न रानी’’। अपने राजनेताओ, नौकरशाहो और उद्योगपतियों के त्रिकोण ने आम लोगों को मन्थरा की मानसिकता मे जीने के लिए विवश कर दिया है। इसीलिए ‘‘बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है’’ की कहावत राजनैतिक क्षेत्र में पूरी तरह लागू होती है। सभी राजनैतिक दल स्थानीय कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करके बृजेश पाठक, शशि भूषण सिंह, अतीक अहमद, पप्पू यादव जैसो को बेहिचक टिकट देते है और फिर यही लोग जीतकर जनता की छाती पर मूँग दरते है। ऐसे लोगों को संसद और विधान सभाओं से बाहर रखने के लिए आवश्यक है कि अब हम अपना वोट उसी प्रत्याशी को दे जिसमें सोचने और बोलने का साहस हो।

Sunday, 15 June 2014

कन्टेमप्ट आफ कोर्ट दोषपूर्ण अवधारणा विधि में बदलाव जरूरी .........

न्यायालय की अवमानना के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश बार काउन्सिल के आवाहन पर सम्पूर्ण प्रदेश में अधिवक्ताओं ने दिनांक 10 जून दिनांक 11 जून दिनांक 12 जून 2014 को लगातार तीन दिन कार्य बहिस्कार करके अपना विरोध दर्ज कराया है। अवमानना जैसे संवेदनशील न्यायिक मुद्दे पर बार काउन्सिल का आक्रामक रवैया गम्भीर चिन्तन का विषय है। प्रदेश में पहली बार अवमानना विधि सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन का कारण बनी है। केन्द्रीय कानून मन्त्री रहे प्रख्यात अधिवक्ता श्री शान्ति भूषण ने सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीशो पर भ्रष्टाचार में संलिप्त रहने का आरोप लगाकर अपने विरूद्ध अवमानना की कार्यवाही को आमन्त्रित किया है। इस मुद्दे पर तहलका मैगजीन के सम्पादक और अधिवक्ता श्री प्रशान्त भूषण पहले से ही अवमानना कार्यवाही का सामना कर रहे है और न्यायाधीशो पर लगाये गये आरोपो पर एकदम अडिग है अर्थात उनकी ओर से क्षमा याचना करने या आरोप वापस लेने की कोई सम्भावना नही है।
पदम भूषण से सम्मानित मनोनीत राज्य सभा सदस्य एवं पूर्व सालिसिटर जनरल श्री फाली एस नरीमन ने अपनी पुस्तक ‘‘ द स्टेट आफ द नेशन’’ में कमबेटिंग करप्शन इन द हायर ज्यूडिसरी पर चर्चा करते हुये बताया है कि सर्वोच्च न्यायालय की कोर्ट संख्या 2 के समक्ष मिसलेनियस डे के दिन एक वादकारी स्वयं उपस्थित (इन परशन) होकर अपने मामले के गुण दोष पर तेज आवाज में अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहा था कोर्ट ने उसे तेज आवाज में न बोलने के लिए कहा लेकिन वह सुन नही पाया और किसी एक बिन्दु, जो उसकी दृष्टि में सुसंगत था पर लगातार तेज आवाज में जोर देता रहा। कोर्ट नाराज हो गयी और कोर्ट मार्शल को उसे न्यायालय से बाहर करने के लिए आदेशित किया। किसी वादकारी को न्यायालय से जबरन बाहर करने के आदेश ने श्री नरीमन को व्यथित किया उन्होंने तत्काल कोर्ट मार्शल को रोका और कहा कि न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहे किसी वादकारी को जबरन कोर्ट रूम से बाहर नही किया जा सकता। कोर्ट मार्शल ने उनकी नही सुनी। वादकारी को जबरन कोर्ट से बाहर कर दिया गया और उसका मुकदमा भी खारिज हो गया। श्री नरीमन ने इस घटना की शिकायत तत्कालीन चीफ जस्टिस श्री वी.एन. खरे से की। न्यायमूर्ति श्री खरे ने वादकारी से उसके साथ हुये दुव्र्यवहार के लिए न्यायालय की तरफ से क्षमा याचना की और उसके मुकदमें को रिस्टोर करने का आदेश पारित करके सुनवाई के लिए उसी बेंच के समक्ष भेज दिया।
मुख्य न्यायमूर्ति श्री हिदायतुल्लाह ने आर.सी. कपूर बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए.आई.आर.-1970-सुप्रीम कोर्ट - पेज 1318) में प्रतिपादित किया था कि न्यायपूर्ण आलोचना के विरूद्ध अन्य संस्थाओं की तरह न्यायालयो को भी कोई विशेषाधिकार प्राप्त नही है। अपनी निष्पक्षता, पारदर्शिता, योग्यता, ज्ञान और कुशलता के बावजूद वे सदैव अपने आपके सही होने का दावा नही कर सकते। उनके द्वारा भी गलती होने की सम्भावना बनी रहती है। सर्वोच्च न्यायालय के एक अन्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री वी.आर. कृष्णा अय्यर ने भी स्पष्ट रूप से कहा है कि देश में कोई भी संविधान के ऊपर नही है। सभी को अपनी न्यायपूर्ण आलोचना सुननी चाहिये। वास्तव में विदेशी शासन के दोरान बनी अवमानना विधि में ‘‘अवमानना’’ को परिभाषित नही किया गया था। स्वतन्त्र भारत में पहली बार श्री एच.एन. सान्याल कमेटी ने इस कमी को दूर करने की अनुशंशा की। उनकी रिपोर्ट के आधार पर कन्टेमप्ट आफ कोर्ट एक्ट 1971 पारित हुआ। इस अधिनियम मे अवमानना की परिधि को सीमित किया गया। निर्दोष प्रकाशन उसके वितरण निष्पक्ष एवं वास्तविक रिपोर्टिंग न्यायिक कार्यवाहियों की न्यायपूर्ण आलोचना अधीनस्थ न्यायालयो के न्यायिक अधिकारियों की शिकायत आदि को अवमानना की परिधि से बाहर रखा गया है।
न्यायालय के आदेशों के अनुपालन, निष्पक्षता एवं पारदर्शिता से न्यायिक कार्यवाहियो के संचालन और न्यायालय परिसर मे भय मुक्त वातावरण बनाये रखने के लिए अवमानना की शक्तियों और कड़ाई से उसके प्रयोग पर किसी को आपत्ति नही है। कोई नही चाहता कि न्यायालय और न्यायिक अधिकारियों के विरूद्ध किसी स्तर पर कोई अनर्गल दोषारोपण करे। समाज की स्थायी सुख शान्ति के लिए आवश्यक है कि न्यायालय के निर्णयों का अनुपालन हर हाल में सुनिश्चित कराया जाये और इसमें अवरोध पैदा करने वालो को दण्डित किया जाये, परन्तु न्यायालय की अधिकारिता को स्कैण्डिलाइज करने के आरोप मे अवमानना कार्यवाही को लेकर असहमति के स्वर तेज हो गये है। उत्तर प्रदेश बार काउन्सिल के आवाहन पर अधिवक्ताओं का सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन इसी असहमति का परिचायक है।
अवमानना विधि पर पुनर्विचार की वकालत करते हुये सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री मार्केण्डेय काटजू ने स्पष्ट किया है कि लोकतन्त्र में लोग सर्वोच्च है तद्नुसार न्यायाधीश, सांसद, विधायक, मन्त्री, नौकरशाह आदि सभी ‘‘आम लोगों’’ के नौकर है। संविधान में भी कहा गया है कि हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिको को सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते है। संविधान सभा के उपर्युक्त शब्द खुद बताते है कि संविधान की प्रक्रति और चरित्र लोकतन्त्रात्मक है और उसकी शक्तियाँ आम लोगों मे निहित है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि देश के सभी अधिकारी प्राधिकारी लोगों के अधीन है और उनके नौकर है इसलिए यदि नौकर नियमानुसार कार्य नही करते तो मालिक को अधिकार है कि वह अपने नौकरो की आलोचना करे। लोकतन्त्र में लोगों को न्यायाधीशो की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त है। 
संविधान लोगों द्वारा लोगों के लिए बनाया गया है और संविधान ने आम लोगों के आपसी विवादों और उनकी समस्याओं के न्यायपूर्ण समाधान के लिए न्यायालय निर्मित किये है। समाज में लोगों के बीच विवाद उत्पन्न होते रहते है और यदि उनके न्यायपूर्ण समाधान के लिए कोई फोरम नही बनाया गया होता तो लोग अपनी समस्याओं या विवाद के समाधान के लिए हिंसक साधनों का सहारा लेते। ऐसी दशा में एक सशक्त सेफ्टी वाल के रूप में न्यायालयों को देख जाना चाहिये जो लोगों को अपनी समस्याओं या विवाद के गुणदोष पर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर देते है और सुस्थापित विधि सिद्धान्तों के तहत समाधान के लिए आदेश पारित करते है। कोई समाज न्यायालय के बिना लोगों की सुख शान्ति और उनकी प्रतिष्ठा की गारण्टी नही दे सकता। इन परिस्थितियों मे स्पष्ट हो जाता है कि न्यायिक कार्यवाहियों के निस्पक्ष, न्यायपूर्ण, पारदर्शी संचालन के लिए न्यायालय की अवमानना का सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ है लेकिन इस अवधारणा का कतई यह अर्थ नही है कि लोगों को न्यायालय की न्यायपूर्ण आलोचना करने से वंचित कर दिया जाये। भाषण एवं अभिव्यक्ति की संविधान प्रदत्त स्वतन्त्रता भी हमे न्यायालय के अनुचित कार्यो की न्यायपूर्ण आलोचना का अधिकार देती है।
न्यायालय अवमान विधि विदेशी शासको की अवधारणा है। परतन्त्र भारत में देश की सम्पूर्ण शक्तियाँ देश के आम लोगों में नही बल्कि विदेशी शासन में निहित हुआ करती थी। अनुच्छेद 19 (1) (ए) जैसे प्रावधान देश में लागू नही थे। अब हम आजाद है, हमारा अपना संविधान है इसलिए अब लोकतान्त्रिक भारत में विदेशी शासको की अवधारणा के तहत अधिनियमित अवमानना कानून की उपयोगिता पर नये सिर से विचार की जरूरत है।
आम लोगो का न्यायपालिका पर अटूट विश्वास है। मैने अति साधारण लोगों को अपने विधिपूर्ण अधिकारो की रक्षा के लिए न्यायालय के विश्वास के सहारे पर शक्तिशाली लोगो से टकराते और जीतते देखा है। न्यायालय के विश्वास के सहारे जीतने पर आम लोगो के चेहरे पर आई खुशी को देखने का अवसर न्यायाधीशो को नही मिल पाता इसलिए कई बार वे प्रशासनिक अधिकारियों की तरह सोचने लगते है और उन्हीं की तरह अपनी विवेकीय शक्तियों के श्रेष्ठता भाव को अहंकार में बदलने की गलती करने लगे है। वास्तव में न्यायपालिका के प्रति आम लोगों के विश्वास को अक्षुण्य बनाये रखना खुद न्यायपालिका की अपनी जिम्मेदारी है। उन्हें याद रखना चाहिये कि उनके विरूद्ध अनर्गल दोषारोपण आम लोगो को कतई पसन्द नही, लेकिन उन्हें भी बेहिचक स्वीकार करना चाहिये कि अब उनके बीच न्यायमूर्ति रामास्वामी न्यायमूर्ति सौमित्रसेन, न्यायमूर्ति पी.डी. दिनकरन, न्यायमूर्ति निर्मल यादव जैसो की संख्या बढ रही है। न्यायमूर्ति श्रीमती ज्ञानसुधा मिश्रा एवं न्यायमूर्ति श्री सी.के. प्रसाद की सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष नियुक्ति के समय हुये वाद विवाद ने मानवीय दुर्बलताओं के पक्ष को प्रबल किया है। मान लेना चाहिये कि काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसी मानवीय दुर्बलताओं से ऊपर उठना आज केे सामाजिक प्राणी के लिए पहले की तुलना में ज्यादा दुष्कर है। इसलिए आरोपो, शिकायतों से चिढना नही चाहिये, बल्कि ‘‘निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय’’ की सर्वमान्य अवधारणा को दृष्टिगत रखकर न्यायपूर्ण आलोचना का सम्मान करना चाहिये और अपने आचरण से ऐसा वातावरण बनाना चाहिये जिससे इस व्यवस्था के सम्पर्क में आने वाले लोगो का विश्वास इस व्यवस्था के प्रति और ज्यादा सुदृढ हो सके।

Sunday, 8 June 2014

यातायात संस्कृति विकसित किये बिना सड़क दुर्घटनाओं पर अंकुश सम्भव नही ...................

सड़क दुर्घटना में अपने एक वरिष्ठ सहयोगी को खो देने के कारण मोदी सरकार के लिए सड़क सुरक्षा और दुर्घटनाओ पर प्रभावी अंकुश पूर्व सरकार की तुलना में कही ज्यादा चिन्ता का विषय है और उसी कारण केन्द्रीय मन्त्री गोपीनाथ मुण्डे के आकस्मिक निधन के तत्काल बाद केन्द्रीय सड़क परिवहन मन्त्री श्री नितिन गडकरी ने अपने मन्त्रालय के अधिकारियों की आपात बैठक बुलाई और विचार विमर्श के बाद सम्पूर्ण देश में यातायात व्यवस्था में सुधार के लिए सड़क परिवहन से सम्बन्धित कानूनो और उसके प्रभावी अनुपालन के लिए बुनियादी ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन करने की इच्छा जताई है। अपनी इस इच्छापूर्ति के लिए उन्होंने नया मोटर वाहन कानून बनाने, दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरो में चैराहों पर सी.सी.टी.वी. कैमरे लगाने व्हेकिल ट्रैकिंग सिस्टम लगाकर यातायात नियमों का उल्लंघन करने वालो का आटोमेटिक चालान करने और वाहन के इन्जिन एवं बाडी की डिजायन में समयानुकूल परिवर्तन करने का एलान किया है। उन्होंने यह भी बताया है कि सरकार अमेरिका जापान जर्मनी आदि कई देशो के सड़क सुरक्षा सम्बन्धी कानूनो का 15 दिन के अन्दर अध्ययन करेगी और एक ऐसा साफ्टवेयर विकसित करेगी जिसके द्वारा कई जगहो से ड्राइविंग लायसेन्स बनवाने की प्रवृत्ति पर नकेल लगाई जा सकेगी। 
नितिन गडकरी की इस घोषणा के पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक न्यायमूर्ति श्री एस. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में सड़क सुरक्षा और मोटर वाहन विधि के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन किया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित इस समिति में न्यायमूर्ति श्री राधाकृष्णन के अलावा भूतपूर्व ट्रान्सपोर्ट सचिव श्री एस. सुन्दर एवं सेन्ट्रल रोड रिसर्च इन्स्टीट्यूट के मुख्य वैज्ञानिक डा0 निशि मित्तल शामिल है। यह समिति इन्फोर्समेन्ट, इन्जिीनियरिग, एजूकेशन और इमरजेन्सी केयर जैसे चार मुद्दो पर विचार करेगी और तीन माह के अन्दर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपनी प्रथम रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। समिति सड़को की हालत में सुधार और उन पर बोझ कम करने के उपाय भी सुझायेगी।  
यातायात व्यवस्था को सुधारने और सड़क दुर्घटनाओं पर प्रभावी अंकुश के लिए युद्ध स्तर पर केन्द्रीयकृत प्रयास की जरूरत है और उसमें केन्द्र सरकार की तुलना में राज्य सरकारों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है। राज्य सरकारों के रचनात्मक सहयोग के बिना कुछ भी सम्भव नही है। यातायात नियमो का जानबूझकर उल्लंघन आदतन अपनी साइड पर न चलना, मौका मिलते ही तेज गति से वाहन भगाना व्यवसायिक वाहनों पर आदतन ओवर लोडिग करना और यात्री वाहनों पर निर्धारित संख्या से ज्यादा सवारियाँ बैठाना अपने देश में यातायात संस्कृति है। इन आदतो के कारण होने वाले हादसो का ज्ञान सभी को है। सभी इन आदतो से छुटकारा चाहते है, परन्तु कुछ ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो गई है जिसने सभी को इसे व्यवस्था का एक अंग मानकर उसके साथ सामन्जस्य बिठा कर सड़क पर चलने के लिए मजबूर कर रखा है। आम लोगो की इस आदत पर नियमो के तहत अंकुश लगाना पुलिस कर्मियो की पदीय प्रतिबद्धता है परन्तु यही सब उनकी कमाई का जरिया भी है इसलिए उनके स्तर पर यातायात को व्यवस्थित करने के लिए कभी कोई प्रभावी कार्यवाही नही की जाती बल्कि उनके द्वारा मौके पर सौ पचास रूपये की घूस लेकर यातायात नियमों के उल्लंघन की अनुमति दे दी जाती है। 
सड़क दुर्घटनाओं के लिए वाहन चालक सबसे ज्यादा जिम्मेदार होते है परन्तु उन पर अंकुश के लिए ड्राइविग लायसेन्स जारी करने की वर्तमान लचर व्यवस्था को सुधारने का कोई प्रयास नही किया जाता। घर पर बैठे बैठे लायसेन्स मिल जाता है। रोड टेस्ट की औपचारिकता कागजो पर पूरी कर ली जाती है। इसीलिए वाहन चालक लापरवाह और गैर जिम्मेदार होते है और सड़क पर वाहन चलाने के बुनियादी अनुशासन का जानबूझकर उल्लंघन करते है। उनमें ट्रैफिक सेन्स की भारी कमी होती है। सड़क सुरक्षा के नियमो का उल्लंघन उनकी आदत में शुमार होता है। शहरी क्षेत्रों में ज्यादातर दुर्घटनाये अनुभवहीन टेम्पो चालको के कारण घटित होती है परन्तु उन्हें सड़क पर अनुशाशित रहने और परिवहन के नियम सिखाने की कोई कोशिश नही की जाती। टेम्पो व्यावसायिक वाहन की परिधि में आता है, परतु लाइट मोटर व्हेकिल के लायसेन्स पर टेम्पो चलाये जा रहे है। टेम्पो का परमिट जारी करते समय उसके चालक के लायसेन्स की पड़ताल जरूरी है। 
यातायात व्यवस्था को सुधाने के नाम पर आये दिन दुपहिया वाहनो के कागजात चेक किये जाते है जबकि न्यूनतम दुर्घटनाये दुपहिया वाहन चालको के कारण घटित होती है। अधिकांश दुर्घटनाये टेम्पो, ट्रक, कार चालको की आपराधिक लापरवाही से घटित होती है, परन्तु उनके लायसेन्स चेक नही किये जाते। अनाधिकृत ड्राइविग लायसेन्स लेकर वे धडल्ले से वाहन चलाते है और दुर्घटनाये करते है। राजमार्गो मे कुछ स्थानो पर आये दिन दुर्घटनाये होती है परन्तु उन्हें चिन्हित करके मौके पर सुरक्षा उपाय करने का कोई तन्त्र विकसित नही हो सका है। प्रस्तावित मोटर वाहन कानून में एक ऐसा साफ्टवेयर विकसित करने की बात कही जा रही है जिसके द्वारा सम्पूर्ण देश में ड्राइविग लायसेन्स जारी करने और उसे नियन्त्रित करने की प्रक्रिया को केन्द्रीयकृत किया जा सकेगा।
सड़क दुर्घटनाओं में पुलिस स्टेशन पर आपराधिक धाराओं मे मुकदमे पंजीकृत किये जाते है परन्तु इन मुकदमो की विवेचना आदेशात्मक विधिक प्रावधानों के कारण मजबूरी में की जाती है। विवेचक मालिक द्वारा बताये गये वाहन चालक के विरूद्ध आरोपपत्र प्रेषित करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते है। दुर्घटना के समय वाहन चला रहे व्यक्ति की पहचान सुनिश्चित करने और उसके पास अधिकृत ड्राईविंग लायसेन्स था या नही ? की जानकारी संकलित करना उनकी चिन्ता या उनकी विवेचना का विषय नही होता। मोटर वाहन अधिनियम की धारा 158 (6) में प्रावधान है कि थानाध्यक्ष सड़क दुर्घटना में किसी व्यक्ति की मृत्यु होने या गम्भीर रूप से घायल होने की सूचना प्राप्त होने के तीस दिन के अन्दर जाँच पूरी करके अपनी रिपोर्ट सम्बन्धित मोटर एक्सीडेन्ट क्लेम ट्रिब्यूनल अर्थात जनपद न्यायाधीश के समक्ष भेजेंगे। इस सम्बन्ध मे सर्वोच्च न्यायालय ने भी आदेशात्मक दिशा निर्देश जारी किये है परन्तु किसी थानाध्यक्ष ने आज तक इन दिशा निर्देशों के तहत कोई रिपोर्ट जनपद न्यायाधीश के समक्ष नही भेजी है। थाना नौबस्ता कानपुर नगर में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 279 एवं 304 के तहत दिनांक 06.04.2014 को पंजीकृत मुकदमा अपराध संख्या 245 सन् 2014 में विवेचक ने अभी तक कोई रिपोर्ट जनपद न्यायाधीश के समक्ष प्रेषित नही की। जबकि मुकदमा वादी और अन्य प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों ने विवेचक के समक्ष बयान दिया है कि वाहन चालक ने टक्कर लगने के तत्काल बाद अपनी गाड़ी को नही रोका और घायल महिला को घसीटते हुये काफी दूर तक ले गया और उसके जीवन के बचाने का कोई प्रयास नही किया बल्कि कुचल जाने से उसकी मृत्यु हो सकती है की जानकारी के बावजूद उस पर अपनी गाड़ी के पहिये चढाकर उसे कुचल दिया और उसी कारण उसकी मृत्यु हुई। मुकदमा वादी ने दुर्घटना के समय सी.सी.टी.वी. कैमरे के फुटेज भी विवेचक को उपलब्ध कराये है। यह पूरा मामला वरिष्ठ अधिकारियों के संज्ञान मे है और स्थानीय समाचार पत्रों में भी प्रमुखता से प्रकाशित हुआ है, परन्तु विवेचक महोदय ने इस मुकदमें को अभी तक धारा 304 में तरमीम नही किया है जबकि घटना की प्रकृति और उपलब्ध साक्ष्य गैर इरादतन हत्या का बखान करती है।
सड़क दुर्घटनाओं के मामलो में भारत प्रथम स्थान पर है। ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों की तुलना में ज्यादा दुर्घटनाये होती है। सालाना लगभग डेढ लाख लोग सड़क दुर्घटनाओं में अपना जीवन गँवाते है अर्थात चार सौ अस्सी परिवार प्रतिदिन सड़क दुर्घटनाओं के कारण अनाथ होते है। सड़क दुर्घटनाये किसी भयावह महामारी से कम नही है परन्तु वर्तमान कानूनो के तहत इसे जमानती अपराध माना जाता है। इसीलिए दोषी के मन में कोई भय नही होता। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 279 के तहत छः माह के लिए सजा या एक हजार रूपये का जुर्माना या दोनों और धारा 304 के तहत दो वर्ष की सजा या एक हजार रूपया जुर्माना या दोनो की सजा का प्रावधान है। अर्थात दोषी वाहन चालक केवल एक हजार रूपये का जुर्माना देकर छूट जाता है। आशा की जानी चाहिये कि प्रस्तावित कानून में इस लचर प्रावधान को बदला जायेगा और नशे की हालत में अनियिन्त्रित गति से वाहन चलाने वालो पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 के तहत हत्या की कोटि में न आने वाले मानव वध के अपराध का  मुकदमा चलेगा। 
अपने देश में वाहनो की तादाद बडी तेजी से बढी है परन्तु उसकी तुलना में सड़को का विकाश नही किया गया। राजमार्गो और ग्रामीण इलाको की सड़को की हालत बहुत ज्यादा खराब है। सड़को पर बनाये गये डिवाइडर भी दुर्घटना का कारण बनते है। इसलिए सड़क डिजायन मे भी परिवर्तन की जरूरत है। डिवाइडर कंक्रीट के और काफी ऊचे बनाये जाते है जो वाहन पर चालक के तनिक से अनियन्त्रण पर हादसे का कारण बनते है। विकसित देशो में डिवाइडर ऊँचे नही होते बल्कि उन पर घनी झाडियाँ लगाई जाती है। जिसके कारण डिवाइडर से वाहन टकराने की स्थिति में कम से कम नुकसान होता है।
केवल कानून और तकनीक के बल पर सड़क परिवहन को सुरक्षित नही किया जा सकता और न दुर्घटनाओं पर प्रभावी अंकुश लगाया जा सकता है। इसके लिए समाज में अच्छे और सुरक्षित तरीके से वाहन चलाने की भावना पैदा करने की जरूरत है। तेज रफ्तार वाहन चलाना और दूसरो की परवाह न करना बहुतेरे अपनी शान समझते है। कई बाइक चालक कहीं भी मुड जाने और करतबी अंदाज में लहराते हुये चलने को अपना अधिकार मानते है। प्रायः रात दस बजे से सुबह छः सात बजे के बीच चैराहो पर पुलिस कर्मियो की तैनाती नही होती ऐसे में लोग वेपरवाही से नियमो का उल्लंघन करके दुर्घटना कारित करते है। आँकड़े बताते है कि केवल दिल्ली में इस साल पन्द्रह मई तक एक सौ सैतालिस लोग रात के बारह बजे से सुबह आठ बजे के बीच सड़क दुर्घटनाओं में मारे गये है। इसलिए जरूरी है कि कानूनी प्रावधानों को कठोर बनाया जाये। कठोरता से उनका अनुपालन सुनिश्चित किया जाये, ज्यादा दुर्घटना वाली जगहों को चिन्हित करके वहाँ सी.सी.टी.वी. कैमरे लगाकर नियमित सतर्कता बरती जाये और जमीनी हकीकत को दृष्टिगत रखकर ऐसी नीति बनाई जाये जिसमें साईकिल से चलने वालों और पैदल राहगीरो को भी सड़क पार करने की सुरक्षित सुविधा प्रदान की जा सके।

Sunday, 1 June 2014

कचहरी का लोकतन्त्र प्रापर्टी डीलरों के चंगुल मे ........

कचहरी के लोकतन्त्र पर प्रापर्टी डीलरो का ग्रहण चिन्ता का विषय है। तन्त्र का लोक गायब हो चला है और उसका स्थान धनबल ने ले लिया है। स्थानीय समाचार पत्रों के अनुसार पिछले दिनों सम्पन्न कानपुर बार एसोसियेसन के सालाना चुनाव में करीब चार करोड रूपया व्यय हुआ है। महामन्त्री पद के एक प्रत्याशी ने लगभग पच्चीस लाख रूपये व्यय किये है। उन्होंने पन्द्रह सौ मतदाताओं का सदस्यता शुल्क लगभग साढे चार लाख रूपया जमा किया और करीब दो सौ महिला अधिवक्ताओं को डिनर सेट का चुनाव पूर्व उपहार देने के लिए करीब दो लाख रूपये व्यय किये है। लन्च डिनर और काकटेल पार्टियो का व्यय अलग से किया गया है। संयुक्त मन्त्री पद के सभी प्रत्याशिओ में  अनाप शनाप व्यय की जबर्दस्त होड रही है। महामन्त्री के बाद संयुक्त मन्त्री का पद सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। कचहरी की पूरी युवा शक्ति इस पद पर केन्द्रित हो जाती है। एकदम छात्र संघ की तर्ज पर इस पद का प्रचार होता है। एक एक मतदाता से इस पद का प्रत्याशी या उसका समर्थक कम से कम दस बार जरूर मिलता है। इस बार इस पद के एक प्रत्याशी ने सबसे ज्यादा मँहगे और आकर्षक पोस्टर लगाये। लन्च एवं डिनर के आयोजन में उसने महामन्त्री पद के प्रत्याशियों को कही पीछे छोड दिया है।
बार एसोसियेशन का कोई भी पद लाभ का पद नही है। केवल प्रतिष्ठा एवं मान सम्मान का पद है इसलिए इन पदों पर निर्वाचित होने के लिए लाखो रूपया पानी की तरह बहाने का कोई औचित्य समझ से परे है। 
वकालत आज भी आम लोगों को शोषण एवं अन्याय से निजात दिनाने का माध्यम है। जीविका उपार्जन का साधन है परन्तु अन्य व्यवसायों की तरह अन्धाधुन्ध कमाई का साधन नही है। अपनी शालीनता ईमानदारी ओर व्यवसायिक कुशलता के बल पर शोषित पीडित को न्याय दिलाना अधिवक्ताओं की प्रतिबद्धता है। इसीलिए विधि उसे न्यायालय के अधिकारी के रूप में सम्मान देती है। दोनों पक्षो के अधिवक्ता एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी नही होते बल्कि दोनों अपने अपने स्तरो पर विवाद के न्यायपूर्ण निष्पक्ष समाधान के लिए न्यायालय की सहायता करते है। न्यायालय के समक्ष इससे ज्यादा या इससे कम किसी अधिवक्ता की कोई भूमिका नही होती। इसलिए नही माना जा सकता कि एसोसियेसन का पदाधिकारी होने से आर्थिक लाभ के अनगिनत अवसरों का पिटारा खुलता है, परन्तु दूसरी ओर एक घटना याद आती है, जो कुछ और बयाँ करती है। कुछ वर्ष पूर्व किसी अन्य जनपद से ट्रान्सफर होकर आये एक जनपद न्यायाधीश को अपने समक्ष लगातार कई दिनों तक जमानत के अस्सी प्रतिशत मामलो में तत्कालीन पदाधिकारियों की नियमित उपस्थिति ने चैका दिया था। उनके चैकने से विवाद हुआ और फिर इतिहास में पहली बार न्यायालय का क्षेत्राधिकार कानपुर नगर से फतेहपुर स्थानान्तरित किया गया और उसके कारण वादकारियों और आम अधिवक्ताओं को कठिनाईयों का शिकार होना पड़ा।
बार एसोसियेसन के चुनाव मे अनाप शनाप खर्च का स्त्रोत क्या है। इतरी बडी रकम का इन्तजाम कौन करता है ? कहाँ से करता है ? क्या प्रत्याशी अपनी गाढी कमाई चुनाव में लगा देता है ? या निहित स्वार्थी तत्व अपने लाभ के लिए निवेश मानकार प्रत्याशिओं की मद्द करते है। इन प्रश्नों का उत्तर आसान नही है परन्तु इतना तय है कि अब कोई भी प्रत्याशी वापसी की गारण्टी के बिना केवल यश कीर्ति के लिए इतना रूपया व्यय नही करता। कहीं न कहीं ब्याज सहित वापसी की गारण्टी मिलती है। 
अभी कुछ ही दिन पूर्व एसोसियेसन के एक पूर्व पदाधिकारी की हत्या हुई थी जिसमें अन्य लोगों के साथ एक अधिवक्ता और पत्रकार भी अभियुक्त है। इसके पहले भी एक अधिवक्ता की हत्या हुई थी और उसमें भी एक अधिवक्ता को ही दोषी माना जा रहा था। चर्चाओं के अनुसार दोनों हत्याओं के पीछे जमीन विवाद रहा है। अधिवक्ता वृत्ति उनकी हत्या का कारण नही थी मैंने बतौर शासकीय अधिवक्ता कई लोगों को आजीवन कारावास से दण्डित कराया है। एक जज साहब के बहनोई और सांसद को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के तहत हत्या के एक मामले में बतौर अभियुक्त तलब कराया है परन्तु उसके कारण मैंने किसी के भी मन में अपने प्रति दुर्भावना नही देखी। मेरा अनुभव कहता है कि आम लोग अपने अधिवक्ता की तरह सामने वाले के अधिवक्ता का भी सम्मान करते है। उनसे चिढते नही है। कमोबेश सभी इन बातों को सच मानते है इसलिए निश्चित है कि विद्वान अधिवक्ताओं की हत्या के पीछे उसकी अधिवक्ता वृत्ति नही बल्कि अन्य कोई कारण होता है। इन कारणों की तह तक जाना  और फिर उनका सार्थक समाधान खोजना समय की जरूरत है।
आज कचहरी में कुछ ऐसे लोगों को भी चेम्बर आवंटित हो गये है जो अदालत के समक्ष अपने क्लाइण्ट के लिए तर्क वितर्क का विधि व्यवसाय नही करते बल्कि खुले आम विवादास्पद प्रापर्टी खरीदते बेचते है। शुरू में इस प्रकार के लोग चुनाव में परिदृश्य के पीछे से अपनी गोटे बैठाते थे परन्तु अब संकोच खत्म हो गया है क्योंकि कचहरी की राजनैतिक सक्रियता उन्हें प्रापर्टी डीलिंग के धन्धे में अपने अन्य प्रतिद्वन्दियों पर बढत दिला देती है। प्रशासनिक अधिकारियों के साथ उठने बैठने के सहज अवसर उपलब्ध हो जाते है। कचहरी की राजनीति में अधिवक्ता के रूप में प्रापर्टी डीलरों का बढता दखल चिन्ता का विषय है। इस प्रकार के लोग एक चुनाव समाप्त होने के तत्काल बाद अगले चुनाव की तैयारी शुरू कर देते है। इसी प्रकार के लोगों ने एसोसियेसन की गरिमा गिराई है और उसी कारण समाज में अधिवक्ताओ की प्रतिष्ठा कम हुई और उनकी सार्वजनिक छवि खराब हुई है इसलिए विधि व्यवसाय को प्रापर्टी डीलरों से मुक्त कराना आज की सबसे बडी जरूरत है। प्रापर्टी डीलिंग का व्यवसाय विधि व्यवसाय की परिधि में नही आता है। सन्तोष की बात है कि अपने पेशे में आ गई इस बीमारी को बुजुर्ग अधिवक्ताओं ने पहचान लिया है और उसके निर्मूलन के पहले कदम के रूप मे इस बार उन्होंने पहले से ज्यादा मतदान किया है जबकि मतदान वाले दिन सर्वाधिक तपन थी और एक किलो मीटर दूर पैदल जाकर मतदान करना था।
मानना होगा कि अब समाज के साथ कचहरी का भी चरित्र बदला है। वास्तव में व्यथित पक्षकार अब कचहरी आने से डरता है। न्यायालय का अुनचित सहारा लेकर आम लोगों के साथ अन्याय करने वाले अराजक तत्वों की संख्या तेजी से बढी है। एकपक्षीय निषेधाज्ञा आदेश के लिए ज्यादातर वाद अब बिल्डर दाखिल करते है जो लेखपालों की पदीय प्रतिबद्धता खरीद कर निर्धन किसानों की जमीन जबरन हथिया लेते है और फिर उन्हें निषेधाज्ञा वाद लम्बे समय तक लम्बित बनाये रखकर उन्हें अपनी शर्तों पर समझौता करने के लिए विवश करते है। ऐसे लोग निवेश मानकर चुनाव में प्रत्याशियों की आर्थिक मद्द करते है। इस प्रकार के तत्वों को कचहरी में प्रभावहीन रखने के लिए आवश्यक है कि हम सब अपना सदस्या शुल्क खुद जमा करे। पिछले एक दशक से अपना सदस्यता शुल्क खुद जमा न करने की प्रवृत्ति बढी है। प्रत्याशियों के लिए अनिवार्य हो गया है कि वे अपने सम्भावित समर्थकों का सदस्यता शुल्क चुनाव के पहले खुद जमा कराये। एक अधिवक्ता का सदस्यता शुल्क तीन सौ रूपया होता है और यदि एक हजार सदस्यो का सदस्यता शुल्क जमा कराना पडा तो प्रत्याशी को करीब तीन लाख रूपये औपचारिक चुनाव प्रचार प्रारम्भ होने के पहले ही व्यय करना पडता है। इस पैसे की व्यवस्था के लिए प्रत्याशियों को किसी न किसी धन्धेबाज की मद्द लेने के लिए मजबूर होना पडता है। उनकी इस मजबूरी के लिए हम सब जिम्मेदार है।
कानपुर की संघर्ष प्रधान राजनीति सम्पूर्ण देश में अनुकरणीय मानी जाती थी। इस सबमे कानपुर बार एसोसियेसन का उल्लेखनीय योगदान इतिहास में दर्ज है। देश को प्रथम विधि मन्त्री, मध्य प्रदेश को प्रथम मुख्य मन्त्री, सर्वोच्च न्यायालय को मुख्य न्यायाधीश और उच्च न्यायालय को कई न्यायाधीश देने का गौरव एसोसियेसन की पूँजी है जो उसे अन्यों से अलग श्रेष्ठ होने का अहसास कराती है। आजकल बार एसोसियेसन के चुनावों की तुलना छात्र संघ से की जाती है जो एकदम गलत है। डी.ए.वी. कालेज छात्र संघ के चुनाव में पीपल के पत्तों पर नाम की मोहर लगाकर प्रचार किया जाता था। पी.डब्ल्यू.डी. में ठेकेदारी करने वाले पेशेवर छात्र नेताओं का छात्र संघों में दखल बढने के बाद पूरा छात्र आन्दोलन अराजकता का पर्याय बन गया है। हम सबको भी समझना चाहिये कि अवैध साधनों से कमाये गये धन का चुनाव में प्रयोग अपने साथ कई अनिवार्य बुराईयों की अपरिहार्यता का कारण बनता है। सदस्यता की एक मुश्त संघटित अदायगी अवैध साधनों से कमाये गये धन के बढते प्रभाव का प्रतिफल  है। न्यूनतम पाँच लाख रूपये शुरूआती व्यय करके अपने आपको जिताऊ प्रत्याशी सिद्ध करने की अनिवार्यता ने कचहरी के लोकतन्त्र से लोक को विलुप्त कर दिया है। आम अधिवक्ता की काबिलियत अब केवल वोट देने की रह गई है। चुनाव लडने के बारे में सोचना भी उसके लिए अपराध है।
अध्यक्ष एवं महामन्त्री के लिए क्रमशः 25 और 15 वर्ष के अनुभव की अनिवार्यता लागू करने के पीछे मंशा थी कि जो लोग इन पदों पर चुनाव लडेगे उनके लिए पहचान का कोई संकट नही होगा। उन्हें अपनी योग्यता साबित करने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नही करने होगे। इतनी लम्बी अवधि से विधि व्यवसाय में सक्रिय होने के कारण उनका आचरण व्यवहार, व्यवसायिक कुशलता और जनहित के मुद्दो पर उनकी प्रतिबद्धता से सभी परिचित होते है इसलिए उन्हे लम्बे चैडे पोस्टर लगाने या जुलूस निकालकर अपना टेम्पो हाई है का उद्घोष नही करना चाहिये। विजिटिंग कार्ड पर मोहर लगाकर अपने नाम को प्रसारित प्रचारित करना उनके लिए पर्याप्त है। पहले ऐसा ही होता था किसी भी पद का प्रत्याशी ढोल नगाडा नही बजवाता था परन्तु अब सभी पदो के प्रत्याशी लम्बे लम्बे बैनर टाँगते है, मंहगे गिफ्ट बाँटते है लन्च डिनर काकटेल में लाखों रूपया व्यय करते है। स्थानीय स्तर पर इस बीमारी का इलाज सम्भव नही है। बार काउन्सिल को खुद हस्तक्षेप करना होगा और किसी भी मूल्य पर वोट बैंक बनाने या बनाये रखने का मोह त्यागकर सभी पदों के लिए चुनाव खर्च की सीमा निर्धारित करनी होगी। अभी समय है, चेतिये अन्यथा छात्र संघो की तरह बार एसोसियेसन को प्रापर्टी डीलरों का संघटित गिरोह बनने से कोई रोक नही सकेगा और फिर हम सभी हाथ मलते रह जायेंगे।