Saturday, 28 December 2013

टू फिंगर टेस्ट पीडि़ता की गरिमा के प्रतिकूल..................

केन्द्रीय सरकार ने बालात्कार पीडि़तों के चिकित्सकीय परीक्षण के लिए जारी अपने दिशा निर्देशों में टू फिंगर टेस्ट और उसके आधार पर पीडि़ता को सहवास का आदी बताये जाने की प्रथा को बन्द करने की सलाह दी है। दिशा निर्देशों के तहत अब परीक्षण रिपोर्ट मे बालात्कार शब्द का प्रयोग नही किया जायेगा। बालात्कार विधिक शब्द है और मेडिकल डायग्नोसिस से इसका कोई सम्बन्ध नही है। चिकित्सको को अपनी रिपोर्ट में पीडि़ता के प्रायवेट पार्टस की बाहरी और आन्तरिक चोटों, उनके रंग, आकार और आयु का स्पष्ट उल्लेख करके साक्ष्य आधारित ओपीनियन देनी चाहिये ताकि विचारण के समय न्यायालय को परीक्षण रिपोर्ट के आधार पर किसी निष्कर्ष तक पहुँचने मे सहायता प्राप्त हो सके। अपने देश में आज भी टू फिंगर प्रवेश को आधार मानकर पीडि़ता को सहवास का आदी बताने का दस्तूर जारी है जबकि विश्व स्वास्थ संघठन सहित सभी चिकित्सकीय संघठनों ने इसे अवैज्ञानिक एवं अमानवीय घोषित किया है।
सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकीय परीक्षण और विवेचना के दौरान पीडि़ता को नये सिरे से बालात्कार के अमानवीय अनुभव से गुजरना पड़ता है। इस दौरान पीडि़ता को मानसिक एवं भावनात्मक सहारे की जरूरत होती है। पुलिसकर्मी और अस्पताल के कर्मचारी अपने व्यवहार से जाने अनजाने पीडि़ता को शर्मिन्दगी का शिकार बनाते है। परीक्षण कक्ष के बाहर सभी तरह के मरीज बैठे होते है। किसका रेप हुआ है, की आवाज देकर उसे बुलाया जाता है इसे सुनते है वहाँ उपस्थित सभी की दृष्टि पीडि़ता पर पड़ती है और उस क्षण मन ही मन पीडि़ता अपने आपमें शर्मिन्दगी का शिकार बनती है। इसी बीच कक्ष में पहुँचते ही कई लोगों की उपस्थिति में मेज पर लेट जाओं, सलवार उतारो, पैर फैलाओं जैसी बातें कही जाती है और फिर डाक्टर की दो अँगुलिया का प्रवेश पीडि़ता के लिए अपमानजनक ही नही कष्टदायी भी होता है। परीक्षण के लिए यह सब किया जाना आवश्यक हो सकता है परन्तु इन मामलों में यान्त्रिक तरीके से की गई कार्यवाही नुकशान देह होती है। इसीलिए केन्द्रीय सरकार के नये दिशा निर्देशों में परीक्षण के पूर्व पीडि़ता और यदि वह 12 वर्ष से कम आयु की है तो उसके माता पिता की सहमति लेने का आदेशात्मक प्रावधान किया गया है। दिशा निर्देशों मे कहा गया है कि परीक्षण प्रारम्भ करने के पूर्व डाक्टर पीडि़ता को सहानभूति के स्वर में शालीनता से उसकी अपनी भाषा में परीक्षण की आवश्यकता और उसकी प्रक्रिया के बारे में जानकारी देंगे और यदि वह परीक्षण के लिए अपनी सहमति नही देती है तो उसे अपने आन्तरिक अंगों का परीक्षण कराने के लिए बाध्य नही किया जायेगा। परीक्षण महिला चिकित्सक द्वारा किया जायेगा और यदि वह उपलब्ध नही है तो पुरूष चिकित्सक के साथ परीक्षण के दौरान किसी महिला की उपस्थिति आवश्यक बना दी गई है।
पीडि़ता के आन्तरिक अंग का चिकित्सकीय परीक्षण अभियुक्त के विरूद्ध सुसंगत विश्वसनीय साक्ष्य संकलित करने के लिए किया जाता है। चिकित्सकीय परीक्षण की वर्तमान प्रक्रिया और उसकी शब्दावली शुरूआत से ही दोषपूर्ण है और उसके द्वारा पीडि़ता की मानवीय गरिमा और उसके आत्म सम्मान को ठेस पहुँचती है। वैज्ञानिक तथ्यों से सिद्ध हो चुका है कि हाईमेन का इनटैक्ट होना वर्जिनिटी का परिचायक नही है। ज्यादा भागदौड़, साइकिलिंग, स्वीमिंग जैसी शारीरिक गतिविधियों के कारण भी हाईमेन फट जाता है। इसलिए इसका फटना या इनटेक्ट होना दोनों स्थितियाँ पीडि़ता के प्रतिकूल नही होती। चिकित्सक प्रायः प्रायवेट पार्टस की आन्तरिक चोटो का उल्लेख नही करते इसलिए विचारण के समय उनके रंग, आकृति या आयु की जानकारी नही हो पाती। केवल दो अँगुलियों के प्रवेश और हाईमेन के फटने को आधार बनाकर पीडि़ता को सहवास का आदी बता दिया जाता है, जो पीडि़ता के साथ सरासर अन्याय है और इससे उसकी प्रायवेसी का हनन होता है। कक्षा 6 की एक छात्रा को परीक्षण में सहवास का आदी बताया गया जबकि घटना के दिन उसकी आयु केवल 13 वर्ष 9 माह थी। वास्तव में चिकित्सको को परीक्षण रिपोर्ट मे पीडि़ता को सहवास का आदी बताकर ‘‘बालात्कार के बारे में कोई स्पष्ट राय नही दी जा सकती’’ जैसी शब्दावली का प्रयोग करने की मनाही है। उन्हें केवल बाहरी और आन्तरिक चोटो का विवरण सुस्पष्टता से लिखना होता है। विवाहित महिलायें भी बालात्कार का शिकार होती है इसलिए बालात्कार के विचारण में सहवास का आदी होने या न होने की तुलना में प्रायवेट पार्टस की आन्तरिक चोटें ज्यादा विश्वसनीय महत्वपूर्ण सुसंगत साक्ष्य होती है।
स्टेट आफ उत्तर प्रदेश बनाम मुन्शी (ए.आइ.आर. 2009-एस.सी. पेज 370) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सहवास का पूर्व अनुभव किसी महिला की शिकायत के प्रभाव और उसकी विश्वसनीयता को कम नही करता। विचारण के समय न्यायालय के समक्ष उसके पूर्व सहवास का अनुभव प्रश्नगत नही होता। कथित घटना प्रश्नगत होती है। बालात्कार हुआ है या नही की पुष्टि के लिए साक्ष्य प्रस्तुत की जाती है। यदि किसी महिला को सहवास का पूर्व अनुभव है या उसने अपनी वर्जिनिटी खो दी है तो इसका यह अर्थ नही कि किसी व्यक्ति को उसकी सम्मति के बिना जबरन उसके साथ बालात्कार करने का लायसेन्स मिल जाता है। विचारण अभियुक्त का होता है पीडि़ता का नही। साक्ष्य अधिनियम की धारा 53 एवं 54 में भी प्रावधान है कि यदि पीडि़ता का चरित्र खुद में प्रश्नगत नही है तो विचारण के लिए उसका चरित्र सुसंगत तथ्य नही है। उस पर विचार नही किया जा सकता। किसी भी महिला को लैंगिक सहवास के लिए इन्कार करने का अधिकार प्राप्त है। उसकी अपनी साक्ष्य किसी इन्जर्ड साक्षी की तुलना में ज्यादा विश्वसनीय है। परीक्षण करते समय चिकित्सको को समझना चाहिये कि इन्जर्ड साक्षी को केवल शरीर पर चोटे आती है और समय के साथ उसके घाव भर जाते है परन्तु बालात्कार में पीडि़ता को शारीरिक चोटो के अलावा भावनात्मक एवं मानसिक स्तर पर भी चोटे आती है। एक निर्दोष अवयस्क लड़की के मामले मे तो इसका अवसाद ताजिन्दगी उसे सालता रहता है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के फैसलो को दृष्टिगत रखकर परीक्षण प्रक्रिया को ज्यादा मानवीय बनाये जाने की आवश्यकता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने लिल्लू उर्फ राजेश एण्ड एनादर बनाम स्टेट आफ हरियाणा (2013-3-जे.आई.सी. पेज 534-एस.सी.) में पारित अपने निर्णय के द्वारा दो अँगुलियो के प्रवेश आधारित चिकित्सकीय परीक्षण को अवैज्ञानिक अमानवीय और पीडि़ता की मानवीय गरिमा के प्रतिकूल बताया है। इससे उसकी प्रायवेसी का हनन होता है। सुस्थापित विधि है कि सहवास का आदी होने से पीडि़ता की सहमति की उपधारणा नही बनाई जा सकती है। इसलिए तत्काल प्रभाव से परीक्षण रिपोर्ट में बालात्कार सहवास का आदी दो अँगुलियों के प्रवेश जैसे शब्द लिखना बन्द कर दिया जाये और यदि कोई चिकित्सक उसका उल्लंघन करे तो उसके विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित करायी जाये।

Saturday, 21 December 2013

धारा 321 के दुरूपयोग मे सपा सरकार को महारथ हासिल.............

उत्तर प्रदेश में विशुद्ध वोट बैंक की राजनीति को ध्यान में रखकर सपा नेता श्री मुलायम सिंह यादव ने अपने मुख्य मन्त्रित्व काल में दस्यु सरगना फूलन देवी के विरूद्ध एक ही जाति के बीस व्यक्तियों की सामूहिक हत्या के मुकदमें सहित 55 लम्बित मुकदमों को वापस लेने का फरमान जारी करके दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के दुरूपयोग की शुरूआत की थी। उनके पुत्र अखिलेश यादव ने अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुये केन्द्र सरकार की पूर्व अनुमति लिए बिना प्रदेश के विभिन्न न्यायालयों में आतंकी वारदातों में शामिल 15 आरोपियो के मुकदमें वापस लेने का आदेश परित किया है जबकि दण्ड प्रक्रिया संहिता में केन्द्र सरकार से सम्बन्धित अपराधों में उसकी सम्मति प्राप्त किये बिना अभियोजन वापस लेने की मनाही है।
अखिलेश सरकार ने आतंकी वारदातों मे शामिल शरीफ उर्फ सरफराज थाना दशाश्वमेघ वाराणसी, मोहम्मद तारिक काजमी थाना कैन्ट गोरखपुर, इम्त्यिाज अली थाना सचेण्डी सितारा बेगम थाना बिठूर अरशद थाना स्वरूप नगर कानपुर नगर, मकसूद ताज मोहम्मद एवं जावेद उर्फ गुड्डू थाना रामपुरगंज, खालिद मुजाहिद बाराबंकी, मो. याकूब नाका, मोहम्मद कलीम एवं अबुल मोबीन थाना कैसरबाग, मुख्तार हुसैन, मोहम्मद अली, अकबर, अजीमुर्रहमान, नौशाद हाफिज, नूरूल इस्लाम थाना वजीरगंज जनपद लखनऊ, महमूद हसन उर्फ बाबू थाना नजीराबाद बिजनौर को उनके विरूद्ध अधिरोपित आरोपो में विधिपूर्ण दण्ड से बचाने के लिए न्यायालय के समक्ष लम्बित मुकदमों को वापस लेने का आदेश पारित किया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनके आदेश को निरस्त कर दिया है।
फूलन देवी के मामले में कानपुर देहात के तत्कालीन प्रथम अपर जनपद एवं सत्र न्यायाधीश ने अभियोजन वापसी के प्रार्थनापत्र को रद्द करके राज्य सरकार के मन्सूबों पर पानी फेर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने भी विचारण न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। लेकिन राज्य सरकारे अभियोजन वापसी पर सर्वोच्च न्यायालय या विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा प्रतिपारित विधि का अनुपालन करने के लिए तैयार नही है और सदा मनमानी करती है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 मे कहा गया है कि ‘‘किसी मामले का भारसाधक कोई लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक (अदालत का सरकारी वकील) निर्णय सुनाये जाने के पूर्व किसी समय किसी व्यक्ति के अभियोजन को या तो साधारणतः या उन अपराधो में से किसी एक या अधिक के बारे में जिनके लिए उस व्यक्ति का विचारण किया जा रहा है, न्यायालय की सम्मति से वापस ले सकता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने दण्ड प्रक्रिया संहिता में राज्य स्तरीय संशोधन करके अधिनियम संख्या 18 सन् 1991 के द्वारा धारा 321 में किसी मामले को भार साधक’’ शब्दो के बाद राज्य सरकार के इस प्रभाव की ‘‘लिखित अनुमति पर जिसे न्यायालय में दाखिल किया जायेगा’’ शब्द अन्तः स्थापित किये है।
धारा 321 की शब्दावली से स्पष्ट है कि राज्य सरकार को आपराधिक मुकदमे वापस लेने के लिए असीमित शक्तियाँ प्राप्त नही है। अभियोजन वापसी के लिए सम्बन्धित न्यायालय की सम्मति आवश्यक है। सम्मति की प्रकृति आदेशात्मक है। केवल औपचारिकता नही है। तर्कपूर्ण ठोस आधारों के बिना प्रार्थनापत्र प्रस्तुत नही किये जा सकते। यह सच है कि राज्य सरकार प्रधान लोक अभियोजक है और इस नाते उसे किसी के विरूद्ध अभियोजन चलाने या न चलाने का अधिकार प्राप्त है परन्तु इसका यह अर्थ नही है कि बिना एकदम मनमाने तरीके से मुकदमा वापसी का अधिकार प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय ने घनश्याम बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश एण्ड अदर्स (2006-3-जे.आई.सी.-पेज 573-एस.सी.) में प्रतिपादित किया है कि लोक अभियोजक न्यायहित में मुकदमा वापस ले सकता है। अधिनियम में न्यायहित को परिभाषित नही किया गया है और उसका अनुचित लाभ उठाकर राज्य सरकार अपने समर्थको को उपकृत करने के लिए किसी युक्तियुक्त आधार के बिना मुकदमें वापस लेती है और उनके इस आचरण से आपराधिक न्याय प्रशासन के प्रति आम लोगों को विश्वास घटता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट आफ बिहार बनाम राम नरेश पाण्डेय एण्ड अदर्स (1957-सुप्रीम कोर्ट- पेज 389) में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 494 (वर्तमान में धारा 321) की व्याख्या करते हुये प्रतिपादित किया था कि यह धारा लोक अभियोजक को अभियोजन वापसी के लिए न्यायालय की सम्मति प्राप्त करने का अधिकार देती है। इस धारा में मुकदमा वापसी के लिए किन्ही आधारों का उल्लेख नही है लेकिन कहा गया है कि सम्मति देने या न देने का निर्णय न्यायिक कार्यवाही है। इसलिए इस आशय के प्रार्थनापत्रों के निस्तारण के समय प्रार्थनापत्र में वर्णित आधारों की सद्भावना के गुणदोष पर विचार किया जायेगा और देखा जायेगा कि राज्य सरकार या लोक अभियोजक ने किसी व्यक्ति विशेष को अनुचित लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से तो प्रार्थनापत्र प्रस्तुत नही किया है। अर्थात राज्य सरकार के आशय और उद्देश्य की न्यायिक समीक्षा की जायेगी।
स्टेट आफ उड़ीसा बनाम चन्द्रिका महापात्र एण्ड अदर्स (ए.आई.आर. 1977-पेज 903-एस.सी.) में न्यायमूर्ति श्री पी.एन. भगवती ने प्रतिपादित किया था कि इस प्रकार के मामलों में आपराधिक न्याय प्रशासन का हित सर्वोच्च होता है। इसलिए कोई हार्ड एण्ड फास्ट नियम नही बनाये जा सकते और न निर्धारित किया जा सकता है कि किस प्रकृति के मुकदमें वापस लिये जा सकते है या किस प्रकृति के मुकदमों को वापस लने की सम्मति न्यायालय द्वारा नही दी जा सकती है। प्रत्येक मामले की परिस्थितियाँ अलग अलग होती है। न्यायहित में आपराधिक न्याय प्रशासन की बेहतरी को ध्यान में रखकर सम्मति देने या न देने का निर्णय लिया जाना चाहिये। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जनपद बिजनौर में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 147, 148, 149, 307, 332, 353, 188, 504 एवं जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 130 (2) के तहत पंजीकृत मुकदमें को सम्पूर्ण अभियोजन साक्ष्य समाप्त हो जाने के बाद निर्णय के प्रकृम पर वापस लेने के लिए पारित आदेश की समीक्षा करते हुये प्रतिपादित किया है कि जनहित का आशय आम जनता के व्यापक हितों से है और उसमें शासकीय कर्मचारियों द्वारा अपने पदीय कर्तव्यों के अनुशरण मे की गयी विधिपूर्ण कार्यवाही भी शामिल है। पुलिस कर्मियो पर हमला करके उनके कर्तव्यों मे अवरोध पैदा करने के आरोपो के अभियुक्तों को विधिपूर्ण दण्ड से बचाने के लिए किसी भी प्रयास से सम्पूर्ण व्यवस्था हतोत्साहित होती है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती नूरजहाँ बनाम स्टेट आफ यू.पी. एण्ड अदर्स (2013-2-जे.आई.सी.-पेज 47) में प्रतिपादित किया है कि इस प्रकार के मुकदमें धारा 321 की परिधि में नही आते। इस निर्णय से स्पष्ट है कि हत्या और डकैती जैसे जघन्य अपराधों के मुकदमे धारा 321 के तहत वापस नही लिये जा सकते है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 और इस पर सर्वोच्च न्यायालय एवं विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों से सुस्पष्ट है कि इस मामले में सम्बन्धित अदालत के लोक अभियोजक (सरकारी वकील) की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। विधि उससे अपने स्तर पर निष्पक्षता एवं पारदर्शी तरीके से निर्णय लेने की अपेक्षा करती है। कई निर्णयों में कहा गया है कि उसे राज्य सरकार के रबर स्टैम्प की तरह काम नही करना चाहिये। कोई भी अधिवक्ता पत्रावली में उपलब्ध तथ्यों एवं साक्ष्यों के प्रतिकूल केवल और केवल निर्देशों पर कार्य नही करना चाहता परन्तु उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सरकारी वकीलो से न्यायसंगत आदर्श आचरण की अपेक्षा करना उनके साथ अन्याय है। हत्या, डकैती जैसे जघन्य अपराधों के विचारण के संचालन के लिए सरकारी वकीलों की नियुक्ति सत्तारूढ़ दल के नेताओं की निजी पसन्द नापसन्द के आधार पर की जाती है और किसी भी समय बिना कोई कारण बताये उन्हें हटाया जा सकता है ऐसी दशा में मुकदमा वापसी के निर्देशो के गुणदोष पर स्वतन्त्रापूर्वक विचार करने और तर्कपूर्ण आधार होने की दशा में ही न्यायालय की सम्मति लेने हेतु प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करने की बात करके वे सत्तारूढ़ दल के नेता को नाराज करने का जोखिम नही ले सकते।
वास्तव मे हत्या, डकैती जैसे जघन्य अपराधों में मुकदमा वापसी के निर्देशों को राज्य सरकार के विधि परामर्शी विभाग की असफलता के रूप में देखा जाना चाहिये। इस विभाग मे उच्च न्यायालय के अधीन सेवारत न्यायिक अधिकारी तैनात किये जाते है और मुकदमा वापसी के निर्देशों में उनकी निर्णायक भूमिका होती है। वे सरकार के अधीन नही होते और मुख्यमन्त्री या अन्य किसी मन्त्री के निर्देश पर विधि के प्रतिकूल जारी निर्देशों का पालन उनकी बाध्यता नही है। वे स्पष्ट रूप से मना कर सकते है परन्तु न मालूम क्यो वे अपनी न्यायिक भूमिका को भुलाकर राज्य सरकारो के अनुचित आदेशो को कानूनी जामा पहनाते है। समय आ गया है कि सर्वोच्च न्यायालय खुद पहल करे और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के आशय और उद्देश्य की स्पष्ट व्याख्या करके मुकदमा वापसी के आधारो के निर्धारण मार्ग प्रशस्त करे।

Sunday, 8 December 2013

आर्थिक बेबसी में आत्महत्या समाज की असंवेदनशीलता का परिचायक ...............


कानपुर में पिछले दिनों वैवाहिक विवाद में पत्नी द्वारा आत्महत्या करने के बाद, आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करने के आरोप में जेल जाने के भय से धनकुट्टी निवासी मनोज गुप्ता ने आत्महत्या कर ली। उसके ससुराल वाले मामले को रफा दफा करने के लिए उससे तीन लाख रूपये की माँग कर रहे थे और धमकी दी थी कि रूपये न दिये तो उसे, उसके माँ बाप को जेल जाने से कोई बचा नही सकेगा। मनोज रूपयों की व्यवस्था नही कर सका और जेल जाने से न बच पाने की बेबसी में फाँसी पर झूल गया। एक ओर पत्नी की आत्महत्या का गम और दूसरी ओर अपने माता पिता और खुद को जेल जाने से बचाने के लिए रूपयों का इन्तजाम न कर पाने की बेबसी के दोहरे दबाव में मनोज ने आत्महत्या की है। वैवाहिक उत्पीड़न दहेज हत्या और पत्नी को आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करने के मामलों में प्रायः सच कुछ और ही होता है। रिपोर्ट दर्ज हो जाने के बाद सभी नामजद परिजन जेल जाते है, सुनवाई में देरी होती है। ऐसे में अदालत का फैसला कुछ भी हो परन्तु आरोपी सामाजिक रूप से तो दण्डित हो ही जाता है।
मनोज जैसे संवेदनशील लोगों की बेवसी सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में है। प्रीति गुप्ता बनाम स्टेट आफ झारखण्ड (ए.आई.आर.-2010-सुप्रीम कोर्ट-पेज 3363) में न्यायालय ने माना था कि भारतीय दण्उ संहिता की धारा 498 ए के मामलों में प्रायः परिवादी बेबुनियाद कथनों का सहारा लेकर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करा देता है। कई बार विवाहित बहनों और नाबालिग देबरों की भी मुल्जिम बना दिया जाता है जबकि दहेज लेने देने में उनकी अपनी कोई भूमिका नही होती।
दहेज की झूठी शिकायतों के कारण परिवार के टूटते ताने बाने पर न्यायालय ने चिन्ता जताई थी और अधिवक्ताओं से अनुरोध किया था कि वे अपने स्तर पर इस प्रकार की प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करें और इसे मानवीय समस्या मानकर आपसी समझदारी विकसित करने का माहौल पैदा करें और प्रयास करे कि एक शिकायत कई अन्य शिकायतों का कारण न बनने पाये। थाना जाटोपुरा जनपद एटा में पारिवारिक झगड़े के बीच लड़की के मर जाने पर उसके माता पिता ने अपने दामाद के विरूद्ध दहेज हत्या का मुदकमा पंजीकृत करा दिया। इस मामले (अजय कुमार बनाम स्टेट आफ यू.पी.-2012-1-जे.आई.सी. पेज 464-इलाहाबाद) की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने पाया कि प्रेम विवाह होने के कारण अभियुक्त और मृतका के पिता के मध्य सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध नही थे। हेबियस कारपस पिटीशन दाखिल होने के बाद उच्च न्यायालय के आदेश से लड़की अपने पिता की अभिरक्षा से लड़के को सौपी गयी थी। दहेज का कोई विवाद उनके मध्य नही था। दहेज की अधिकांश शिकायतों में इसी प्रकार फर्जी कथानक बनाकर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करायी जाती है। 
शुशील कुमार शर्मा बनाम यूनियन आफ इण्डिया (2005-3-जे.आई.सी. पेज 263 एस.सी.) में कहा गया है कि भारतीय दण्ड संहिता में धारा 498 ए का प्रावधान दहेज की समस्या से निजात पाने के उद्देश्य से किया गया था, परन्तु अब देखा जा रहा है कि इस प्रावधान का बड़े पैमाने पर दुरूपयोग किया जाने लगा है। विधि किसी भी दशा मे अपने दुरूपयोग की अनुमति नही देती और यदि इसे रोका नही गया तो यह खुद में एक नये प्रकार की सामाजिक समस्या का कारण बनेगा, जो पूरी सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था के लिए घातक है। इस प्रावधान के दुरूपयोग को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने राम गोपाल बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 498 ए को कम्पाउण्डेबल एवं जमानती बनाने का सुझाव केन्द्र सरकार और विधि आयोग को दिया है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी राजीव वर्मा बनाम स्टेट आफ यू.पी.- 2004-2-जे.आई.सी.- पेज 581 में इसी आशय का सुझाव दिया है। सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने वैवाहिक विवादों में गिरफ्तारी को अनावश्यक घोषित किया है और प्रत्येक स्तर पर उभयपक्षों के मध्य आपसी बातचीत के द्वारा विवादों को सुलझाने पर जोर दिया है।
राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने भी गिरफ्तारी की शक्तियों को पुलिसिया भ्रष्टाचार का स्त्रोत माना है। अपनी रिपोर्ट में आयोग ने कहा था कि किसी भी आरोप में गिरफ्तारी के लिए विधिपूर्ण आधारो को नही बल्कि न्यायपूर्ण आधारों को प्रमुखता दी जानी चाहिये। ला कमीशन ने भी अपनी रिपार्ट में सुझाव दिया है कि जमानती अपराधों और परिवादों के मामले में अभियुक्त को उपस्थित होने के लिए डाक के माध्यम से एपीरियेन्स नोटिस भेजी जानी चाहिये ताकि स्थानीय पुलिसकर्मी न्यायालय के सम्मन को वारण्ट बताकर लोगों को उत्पीडि़त न कर सके। पुलिस के माध्यम से सम्मन भेजने की प्रथा आम लोगों के उत्पीड़न का कारण है। शीला बरसे बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र (ए.आई.आर.-1983-एस.सी. पेज 378) में प्रतिपादित किया गया था कि वारण्ट के बिना गिरफ्तारी दी दशा में गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारण से तत्काल अवगत कराना और स्थानीय लीगल ऐड कमेटी को इस गिरफ्तारी की सूचना देना आवश्यक है। इन निर्देशों के द्वारा सम्बन्धित न्यायिक मजिस्टेªट को भी आदेशित किया गया था कि वे अपने समक्ष प्रस्तुत किये जाने के समय गिरफ्तार व्यक्ति से अभिरक्षा के दौरान पुलिस के व्यवहार के बारे में जानकारी प्राप्त करें और अभियुक्त को उसके अधिकारों की जानकारी दें। प्रायः अधिकारों की जानकारी न होने और न्यायिक मजिस्टेªट द्वारा खुद कोई जानकारी न करने के कारण गिरफ्तार व्यक्ति अपने साथ हुये उत्पीड़न के लिए दोषियों के विरूद्ध शिकायत नही कर पाता।
केन्द्र सरकार ने दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करके प्रथम सूचना रिपोर्ट में नामजद होने के बावजूद हत्या, डकैती, बालात्कार जैसे जघन्य अपराधों को छोड़कर सात वर्ष तक की सजा वाले मामलों में गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होने के बाद पुलिस पहले नामजद व्यक्तियों को गिरफ्तार करती थी और उसके बाद साक्ष्य संकलन की कार्यवाही शुरू होती थी। दण्ड प्रक्रिया संहिता मे धारा 41 (1) (बी) जोड़कर केन्द्र सरकार ने व्यवस्था कर दी है कि अब केवल नामजद होने के कारण किसी को गिरफ्तार नही किया जायेगा बल्कि संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्त होने पर पुलिस सबसे पहले आरोपी को नोटिस भेजकर नियत तिथि व समय पर उपस्थित होने के लिए कहेगी और आरोपी का पक्ष सुनने के बाद उसके विरूद्ध सुसंगत विश्वसनीय साक्ष्य होने की दशा में ही उसे गिरफ्तार करेगी। अर्थात केवल नामजद होने के कारण किसी को भी उसका पक्ष सुने बिना गिरफ्तार नही किया जा सकता है। गिरफ्तारी के कारणों को केस डायरी में लेखबद्ध करना आवश्यक बना दिया गया है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने क्रिमिनल मिसलेनियस रिट पिटीशन संख्या 15102 सन् 2013 अमीर हुसैन एण्ड 6 अदर्स बनाम स्टेट आफ यू.पी. 2 अदर्स में स्पष्ट किया है कि यदि विवेचक किसी को गिरफ्तार करके रिमान्ड के लिए न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करता है और न्यायालय को प्रतीत होता है कि गिरफ्तारी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 (1) (बी) या 41 ए में निर्धारित प्रक्रिया के प्रतिकूल की गई है तो मजिस्टेªट अभियुक्त को प्रतिभू संहित या प्रतिभू रहित बन्धपत्र लेकर रिहा करेंगे। रूटीन मैनर में गिरफ्तारी अब प्रतिबन्धित हो गई है। सभी पुलिस अधिकारियों को विधि की इस मंशा से अवगत करा दिया गया है। इस सबके बावजूद आम लोगों में अपनी गिरफ्तारी की आशंका कम नही हुई है। लोगों का मानना है कि विधि कुछ भी कहती हो परन्तु पुलिस जब जहाँ जिसे चाहे गिरफ्तार करके जेल भेज सकती है इसलिए कोई पुलिस पर विश्वास नही करता।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने संजीव कुमार एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ यू.पी. एण्ड अदर्स (2011-2-जे.आई.सी. पेज 481) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को आधार बनाकर अधीनस्थ न्यायालयों को निर्देशित किया है कि वैवाहिक विवादों में जमानत प्रार्थनापत्रों के निस्तारण के पूर्व पक्षकारों को अपने विवाद आपसी सुलह समझौते से सुलझाने के लिए प्रोत्साहित करें। सुलह समझौते के प्रयास असफल हो जाने के बाद ही जमानत प्रार्थनापत्रों का गुणदोष के आधार पर निस्तारण किया जायें। सर्वोच्च न्यायालय ने लाल कमलेन्द्र प्रताप सिंह बनाम स्टेट आफ यू.पी. (2009-1-जे0आई0सी0 पेज 677-एस.सी.) और इलाहाबाद हाई कोर्ट की पूर्ण पीठ ने अमरावती एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ यू0पी0 (2004-2-जे.आई.सी. पेज 630) के द्वारा नामजद अभियुक्तों को व्यक्तिगत बन्धपत्र लेकर अन्तरिम जमानत पर रिहा करने का आदेश पारित किया है। उच्च न्यायालय के समक्ष आवेदन किये बिना इन मामलों में प्रतिपादित सिद्धान्तों का लाभ आम लोगों को नही मिल पाता। वैवाहिक विवादों में आम लोगों को न्यायपूर्ण राहत प्रदान करने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों को आगे आना होगा और खुद पहल करके लाल कमलेन्द्र प्रताप सिंह एवं अमरावती के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों की भावना और स्पिरिट के अनुरूप लोगों को अन्तरिम जमानत पर रिहा करने का माहौल बनाना होगा और तभी जेल जाने के भय से मनोज गुप्ता जैसे संवेदनशील लोग बेबसी में आत्महत्या के लिए मजबूर नही होंगे।

Sunday, 1 December 2013

पक्षपातपूर्ण विवेचना सम्पूर्ण व्यवस्था के लिए घातक..............

आरूषि हत्याकाण्ड का फैसला आने के बाद उसकी विवेचना को लेकर सी.बी. आई. और उत्तर प्रदेश पुलिस के बीच हुई तू तू मैं मैं से एक बार फिर गम्भीर अपराधों में भी जाँच एजेन्सियों के मध्य तालमेल न होने और विवेचना की गुणवत्ता को सुधारने के लिए कोई एकीकृत प्रयास न किये जाने का सच सामने आया है। विवेचना आपराधिक न्याय प्रशासन की आत्मा है। विचारण का पूरा ताना बाना इसी पर निर्भर है और इसीलिए दण्ड प्रक्रिया संहिता में विवेचक को असीमित शक्तियाँ दी गई है। उसके काम में हस्तक्षेप करने की अनुमति सर्वोच्च न्यायालय ने खुद को भी नही दी है। परन्तु इन असीमित शक्तियों के दुरूपयोग ने आपराधिक जाँच एजेन्सियों के प्रति आम लोगों के विश्वास को कम किया है।
सी.बी.आई. के पूर्व निदेशक श्री जोगिन्दर सिंह ने उत्तर प्रदेश पुलिस पर आरूषि काण्ड मे अपना काम एकदम सही तरीके से न करने का गम्भीर दोषारोपण किया है। सी.बी.आई की तरफ से कहा गया है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने कई स्तरों पर लापरवाही का परिचय दिया जिसके कारण सी.बी.आई. को अपनी जाँच पड़ताल करने में विलम्ब हुआ। सच भी है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने आरूषि की हत्या की सूचना पाने के तत्काल बाद घटना स्थल का वैज्ञानिक तरीकों से निरीक्षण नही किया। आसपास की तलाशी नही ली और उसके कारण हेमराज की लाश छत पर पड़ी होने की जानकारी बाद में सामने आई। विवेचक ने घटना स्थल से फिंगर प्रिन्ट जैसी सुसंगत साक्ष्य को संकलित न करके अकुशलता का परिचय दिया और तमाम महत्वपूर्ण सबूतो को या तो एकत्र नही किया या उन्हें नष्ट हो जाने के अवसर उपलब्ध करायें।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भैरो बनाम स्टेट आफ यू.पी. (2012-2-जे.आई.सी.पेज 107-इलाहाबाद) में पारित अपने एक निर्णय में स्थानीय पुलिस द्वारा विवेचना के दौरान वैज्ञानिक तरीकों से साक्ष्य संकलित न करने की कमी पर नाराजगी जताई थी। निर्णय में कहा गया है कि 21वीं सदी में होने के बावजूद पुलिस अपराध की विवेचना आज भी सदियों पुराने तरीके से करती है। सम्पूर्ण विश्व में विवेचना के तरीके बदले है, वैज्ञानिक साधनों से परिस्थितिजन्य साक्ष्य एकत्र करने का प्रचलन बढ़ा है, परन्तु अपने यहाँ विवेचना की गुणवत्ता को बढ़ाने का कोई प्रयास नही किया जा रहा है। उच्च न्यायालय ने जनपद स्तर पर फारेन्सिक साइन्स लेबोरेटरी की आवश्यकता बताई थी। जनपद स्तरों पर यदि डी.एन.ए. डेवलपमेन्ट सुविधायें उपलब्ध हो और घटना के तत्काल बाद मौके से सैम्पल एकत्र करके उनका परीक्षण किया जाये तो दोषियों को चिन्हित करना आसान हो सकता है। बालात्कार और हत्या के एक मामले में स्थानीय पुलिस ने वैजिनल स्मियर स्लाइड और स्वाब को डी.एन.ए. परीक्षण के लिए नही भेजा। विचारण न्यायालय के आदेश से तीन वर्ष बाद उसका परीक्षण कराया गया। तब तक उसका प्रभाव खत्म हो चुका था और इस लम्बी अवधि के बाद परीक्षण कराये जाने के कारण विधि विज्ञान प्रयोगशाला के वैज्ञानिक कोई स्पष्ट ओपिनियन नही बना सके।
दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत किसी भी अपराध का विचारण स्थानीय पुलिस द्वारा विवेचना के दौरान केस डायरी में साक्षियों के अंकित बयान के आधार पर किया जाता है। विवेचना के दौरान विवेचचक को साक्ष्य संकलन के लिए पूरी स्वतन्त्रता दी गई है। आपराधिक विधि में इस प्रकार की स्वतन्त्रता दिये जाने का उद्देश्य कुछ भी रहा हो, अब उसका दुरूपयोग होने लगा है। निष्पक्षता एवं पारदर्शिता का महत्वपूर्ण तत्व गायब हो गया है। यह तथ्य सर्वोच्च न्यायालय के भी संज्ञान में है। करण सिंह बनाम स्टेट आफ हरियाण एण्ड अदर्स (2013-3-जे.आई.सी.-पेज 177-सुप्रीम कोर्ट) में पुन प्रतिपादित किया है कि आपराधिक मामलों की विवेचना को किसी भी मूल्य पर दुर्भावना और पक्षपात से बचाना होगा। विवेचना के दौरान अभियुक्त या परिवादी किसी को भी प्रताडि़त नही किया जाना चाहियें ताकि किसी के भी मन में विवेचना की निष्पक्षता को लेकर शक की गुन्जाइस न रहे। अभियोजन कथानक को सही साबित करने के लिए साक्ष्य संकलित करना या कथित अभियुक्त को किसी भी तरह दण्डित कराना विवेचना का उद्देश्य नही है। विवेचना कथित अपराध के वास्तविक कारणों का पता लगाने, दोषियों को खोजने और सत्य की तह तक पहुँचने के लिए कराई जाती है। विवेचक आम नागरिको की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की गारण्टी का संरक्षक होता है और विधि उससे किसी भी निर्दोष को फर्जी अधिभयोजन के कारण प्रताडि़त होने से बचाने की अपेक्षा करती है। विवेचक की पदीय प्रतिबद्धता है कि वह किसी के भी साथ अन्याय न होने दे।
पक्षपात पूर्व विवेचना न्याय का गला घोट देती है और उसके कारण आम लोगों को अनुच्छेद 19, 20 एवं 21 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकारों का हनन होता है। बाबू भाई बनाम स्टेट आफ गुजरात एण्ड अदर्स (2012-12-एस.सी.सी.-पेज- 254) मे सर्वोच्च न्यायालय ने विवेचना को सभी प्रकार के दबावों से मुक्त रखने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है परन्तु अनुभव बताते है कि थानों के स्तर पर इन सिद्धान्तों का प्रभाव सुभाषित से ज्यादा नही होता। राम विहारी यादव बनाम स्टेट आफ बिहार एण्ड अदर्स (ए.आई.आर-1998-एस.सी.-पेज-1850) और अमर सिंह बनाम बलबिन्दर सिंह एण्ड अदर्स (ए.आई.आर.-2003-एस.सी.-पेज-1164) में कहा है कि पूर्वाग्रहों और पक्षपातपूर्ण तरीके से की गई विवेचना केवल जाँच एजेन्सियों के प्रति ही नही बल्कि सम्पूर्ण आपराधिक न्यायप्रशासन के प्रति आम लोगों का विश्वास कम करती है।
कानून व्यवस्था से जुड़े पुलिस अधिकारियों का अधिकांश समय विभागीय बैठकों, मन्त्रियों के स्वागत सत्कार और दुपहिया वाहनों के कागजों की चेकिंग में बीत जाता है। उन्हें गुणवत्तापूर्ण विवेचना करने का समय नही मिलता। इन परिस्थितियों मे उनसे विवेचना की गुणवत्ता सुधारने के लिए खुद की पहल पर कुशलता बढ़ाने के प्रयास की अपेक्षा करना न्यायसंगत नही है। इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त श्री प्रकाश सिंह की याचिका पर सभी राज्य सरकारों से कानून व्यवस्था और विवेचना का अलग अलग कैडर बनाने का निर्देश काफी पहले दिया था परन्तु राज्य सरकारों ने इस दिशा में कोई सार्थक पहल नही की है और न वर्तमान व्यवस्था में अपने स्तर पर विवेचना की गुणवत्ता बढ़ाने का कोई प्रयास किया है।
अदालतों द्वारा विवेचना के लिए आयोग्य ठहराये गये पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध राज्य सरकारे कोई कार्यवाही नही करती। जनपद न्यायाधीश कानपुर नगर श्री शैलेन्द्र सक्सेना अपने कार्यकाल के दौरान हत्या के एक मामले मे एक ही परिवार के कई लोगों को मृत्यु दण्ड से दण्डित करते हुये मामले के विवेचक से भविष्य में कभी विवेचना न कराये जाने का निर्णय पारित किया था। इसी प्रकार के एक मामले में तत्कालीन थानाध्यक्ष नजीराबाद को अपर जनपद न्यायाधीश श्री ओ.पी. त्रिपाठी ने फर्जी घटना बनाने और घटना के फर्जी होने की जानकारी के बावजूद अभियोजन के लिए चार्जशीट भेजने का दोषी पाये जाने के बाद उनके विरूद्ध मुकदमा पंजीकृत करने का आदेश पारित किया था परन्तु इन दोनों मामलों में दोषी विवेचको के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की गई है जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने दयाल सिंह एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ उत्तराखण्ड (2012-8-एस.सी.सी.-पेज-263) में स्पष्ट रूप से कहा है कि आपराधिक मामलों की विवेचना में पक्षपात या भ्रष्टाचार की जानकारी होने पर विवेचक के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित कराना राज्य का दायित्व है। इस प्रकार के आचरण वाले विवेचकों के विरूद्ध उनकी सेवा निवृत्ति के बाद भी कार्यवाही की जानी चाहियें।
किसी भी मामले में फर्जी गवाह खोजना और फिर उसी आधार पर अपराध के खुलासे की वाह वाही लूटना स्थानीय पुलिस अधिकारियों का प्रिय शगल है और इसी कारण विचारण के समय साक्षियों की पक्षद्रोहिता बढ़ी है। प्रेमचन्द्र बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए.आई.आर.-1981-पेज 613) की सुनवाई के समय एक व्यक्ति द्वारा बतौर अभियोजन साक्षी तीन हजार मामलों में गवाही देने का तथ्य प्रकाश में आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रकार के पेशेवर साक्षियों को पूरी न्यायिक व्यवस्था के लिए प्रदूषण बताया था। इस सबको देखकर लगता है कि आम लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा और देश में सुशासन बनाये रखने के लिए कानून व्यवस्था को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में शामिल करना आवश्यक हो गया है।

Sunday, 24 November 2013

लैगिक उत्पीड़न कानून से नही समाज के सहयोग से रूकेगा ..........

आदि संहिता मनुस्मृति से लेकर एकदम नये बने कानून कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम निषेध एवं निवारण) अधिनियम 2013 तक में महिलाओं के प्रति अपराध की तमाम सजाये लिखी है। आपराधिक विधि संधोधन अधिनियम 2013 के द्वारा भारतीय दण्ड संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, लैगिक अपराधों से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012 में संशोधन करके सजा के प्रावधानो को और ज्यादा कठोर बना दिया गया है। इस सबके बावजूद महानगरो से लेकर छोटे कस्बो तक महिलाओं के लैगिक उत्पीड़न मे कोई कमी नही आई है बल्कि कहा जा सकता है कि उत्पीड़न तेजी से बढ़ा है। कथित धर्माचार्य  आशाराम, तहलका के सम्पादक तरूण तेजपाल और सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति द्वारा कारित यौन उत्पीड़न की घटनाओं से प्रतीत होता है कि हम आज भी महिलाओं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक मानते है और उनकी मेघा से ज्यादा उनके शरीर को महत्व देते है। महिलाओ के लिए महानगरो से लेकर ग्रामीण कस्बो तक कहीं भी काम करना खतरे से खाली नही है। कहा नही जा सकता कि कब कहाँ कौन से अंकल आशाराम, तरूण तेजपाल या जज साहब का घिनौना चेहरा लेकर बालात्कारी के रूप में सामने आ जाये और उसकी पूरी अस्मिता को धूलधूसरित कर दें। 
कार्यस्थलों पर महिलाओं के लैगिक उत्पीड़न को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने विशाखा बनाम स्टेट आफ राजस्थान के मामले में आदेशात्मक दिशा निर्देश जारी किये थे, जिन्हें किसी राज्य सरकार ने अपने स्तर पर लागू करने की पहल नही की। इन दिशा निर्देशों के आधार पर कानून बनाने के लिए केन्द्र सरकार ने वर्ष 2007 में पहल की, प्रारूप घोषित किया जिसे वर्ष 2010 में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल से स्वीकृति प्राप्त हो सकी। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की अनुमति के बाद इसे लोक सभा में प्रस्तुत किया गया और फिर व्यापक विचार विमर्श के लिए संसदीय स्थायी समिति के समक्ष प्रेषित किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट 30 नवम्बर 2011 को प्रस्तुत की। उसके बाद दिनांक 3 सितम्बर 2012 को लोक सभा और दिनांक 26 फरवरी 2013 को राज्य सभा ने इसे पास कर दिया। दिनांक 23 अप्रैल 2013 को शासकीय गजट में इसे प्रकाशित भी कर दिया गया है, परन्तु अधिनियम को लागू करने की अधिसूचना अभी जारी नही की गई है। अधिनियम विधि मन्त्रालय और महिला एवं बाल विकाश मन्त्रालय के बीच झूल रहा है जबकि इसे तत्काल लागू करने की जरूरत है। इस अधिनियम के लागू हो जाने के बाद दस या इससे ज्यादा कर्मचारियों वाले सभी प्रतिष्ठानों के लिए यौन उत्पीड़न की शिकायतों से निपटने के लिए आन्तरिक शिकायत निवारण समिति का गठन करना अनिवार्य हो जायेगा।
विशाखा गाइड लाइन और उसके आधार पर बने कानून महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम निषेध एवं निवारण) अधिनियम 2013 में कार्य स्थल को परिभाषित किया गया है। सार्वजनिक या निजी क्षेत्र के सभी प्रतिष्ठानों, संघटित या असंघटित क्षेत्र, अस्पताल नर्सिग होम, शैक्षिक संस्थान, खेल संस्थान, स्टेडियम, स्पोर्टस काम्प्लेक्स आदि को कार्य स्थल की परिधि में लाया गया है और सभी प्रकार के प्रतिष्ठानों के लिए लैगिक उत्पीड़न से निपटने के लिए आन्तरिक शिकायत निवारण समितियो का गठन आवश्यक बना दिया गया है। समिति को नब्बे दिन के अन्दर जाँच पूरी करके अपनी रिपोर्ट डिस्ट्रिक आफीसर के समक्ष प्रस्तुत करना होगा। डिस्ट्रिक आफिसर रिपोर्ट पाने के साठ दिन के अन्दर कार्यवाही सुनिश्चित करायेंगे। डिस्ट्रिक आफीसर को प्रत्येक जनपद और ब्लाक स्तर पर शिकायत निवारण समिति का गठन करना होगा। शिकायत कमेटी को साक्ष्य संकलित करने के लिए सिविल न्यायालय की शक्तियाँ प्रदान की गयी है। शिकायतकर्ता के अनुरोध पर कन्सिलियेशन का भी सहारा लिया जा सकता है। अधिनियम में व्यवस्था है कि यदि कोई सेवायोजक शिकायत निवारण समिति का गठन नही करेगा या अधिनियम का उल्लंघन करेगा तो उसके विरूद्ध पचास हजार रूपये तक का दण्ड अधिरोपित किया जायेगा और यदि इस आशय का अपराध दोबारा हुआ तो पचास हजार रूपये से ज्यादा का अर्थ दण्ड और व्यापार करने का लायसेन्स भी निरस्त किया जा सकता है। दोषी कर्मचारी को विधि के तहत अन्य सजाओं के अतिरिक्त तीन वर्ष तक की सजा से दण्डित किया जायेगा। लैगिक उत्पीड़न की सूचना सम्बन्धित अधिकारियों को उपलब्ध कराना सेवायोजको का दायित्व है।
पिछले दिनों घटित सभी घटनाये कार्यस्थलो से सम्बन्धित है, परन्तु यौन उत्पीड़न (रोकथाम निषेध एवं निवारण ) अधिनियम लागू न होने के कारण इस अधिनियम के तहत किसी के विरूद्ध कार्यवाही नही हो सकेगी। सेवानिवृत्त न्यायाधीश के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने खुद जाँच समिति गठित कर दी है परन्तु तरूण तेजपाल के मामले में तहलका की प्रबन्ध निदेशक शोभा चैधरी का बयान एवं आचरण घोर आपत्ति जनक है। अभी कुछ दिन पहले वे ज्यादा बोलने के कारण इसी प्रकार के एक मामले में फँसे सी.बी.आई. के डाइरेक्टर को पद से हटा देने की बात कर रही थी परन्तु अपने सम्पादक के मामले में दूसरा मापदण्ड अपनाकर एक महिला के नाते उन्होने स्वयं को अपमानित किया है। अपनी ही बेटी की सहेली के साथ यौन उत्पीड़न की घटना को तहलका का अन्दरूनी मामला बताने का दुस्साहस करके उन्होंने समाज को उस युग की याद दिलाई है जब राजा महाराजाओं और सामन्तो के यहाँ काम करने वाली महिला यौन उत्पीडन और अपने साथ हुये बालात्कार की घटनाओं को किसी से भी न कहने के लिए अभिशप्त थी। उनकी आर्थिक सामाजिक मजबूरियाँ उन्हें शिकायत करने से रोकती थी। अब युग बदला है। आज आमघरो की लड़कियाँ भी समाज के हर क्षेत्र में अपनी शिक्षा, कुशलता, ईमानदारी और परिश्रम के बल पर सफलता के झण्ड़े गाड रही रही है और उनके साथ मनमानी करने की छूट किसी को भी नही है। यह सच है कि सरमायदारों के पास बेईमानी से  अर्जित अकूल सम्पत्ति है, रोजगार देने की ताकत है, परन्तु सभी को याद रखना चाहिये कि मीडिया घरानों या व्यवसायिक प्रतिष्ठानों की सफलता उसके कर्मचारियों की ईमानदारी और परिश्रम पर निर्भर है इसलिए उन्हें अपनी सामन्ती प्रवृत्तियो और दाता बनने की श्रेष्ठता को त्यागना होगा। सेवायोजक के नाते उन्हें अधिकार है कि वे सामने खड़ी लड़की को अपनी बहिन या बेटी माने या न माने परन्तु उसे अपनी प्रेमिका या अपनी लैगिक फंतासियो का खिलौना मानने का उन्हें कोई अधिकार प्राप्त नही है। 
संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित विधि भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर सभी पर आबद्धकर होती है और उसके अनुसार विशाखा एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ राजस्थान में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय का अनुपालन सुनिश्चित कराना सभी सरकारो अधिकारियों और प्राधिकारियों की पदीय प्रतिबद्धता है। केन्द्र सरकार के प्रतिष्ठानों में लैगिक उत्पीड़न से निपटने के लिए समितियाँ बनाई गई है, जो निष्प्रभावी है। राज्य सरकारो के किसी कार्यालय, सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय, बार काउन्सिल और मेडिकल काउन्सिल जैसी प्रमुख संस्थानों में लैगिक उत्पीड़न से निपटने के लिए विशाखा गाइड लाइन के आधार पर कोई आन्तरिक व्यवस्था नही की गई है।
कार्यस्थलों पर महिलाओं के प्रति चर्चा का स्तर सदैव घटिया होता है। शिकायत करने की स्थिति में दोषी की तुलना में महिला को ज्यादा अपमान का शिकार होना पड़ता है और उसे उस दण्ड की सजा दी जाती है, जो उसने कभी किया ही नही होता इसलिए महिलायें प्रायः शिकायत नही करती और उसके कारण उनकी खामोसी का गलत अर्थ लगाया जाता है और उसे उनके विरूद्ध उनकी चरित्र हत्या के लिए प्रयोग किया जाता है। समाज की आन्तरिक संरचना में गहरी जड़े जमाये महिला विरोधी संस्कार और सामने वाली महिला को कुत्सित नजरों से देखने की आम प्रवृत्ति के कारण लैगिक उत्पीड़न को कठोर कानूनो से खत्म नही किया जा सकता। इसको खत्म करने के लिए समाज के हर व्यक्ति और संस्था को स्वयं पहल करके आगे आना होगा और अपनी फैक्ट्री कार्यालय या मोहल्ले में इस प्रकार की घटनाओं की रोकथाम सुनिश्चित करानी होगी।

Sunday, 17 November 2013

सपना ही लगता है एफ.आई.आर. का अनिवार्य पंजीयन.........

कानून व्यवस्था के प्रश्न पर सत्तारूढ़ नेताओं मे पूर्ववर्ती सरकारों से बेहतर दिखने की होड़ के कारण विश्वास नही होता कि थानो पर सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय खण्डपीठ द्वारा दिनांक 12 नवम्बर 2013 को पारित निर्णय का अनुपालन किया जायेगा और अब कोई पुलिसकर्मी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से इन्कार का साहस नही करेगा। अपराधों के पंजीयन से सम्बन्धित दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 की प्रकृति शुरूआत से ही आदेशात्मक रही है और उसकी उपधारा (3) में प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति जो किसी थाने के भारसाधक अधिकारी के उपधारा (1) में निर्दिष्ट सूचना को अभिलिखित करने से इन्कार करने से व्यथित है, ऐसी सूचना का सार लिखित रूप में और डाक द्वारा सम्बद्ध पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है जो, यदि उनका यह समाधान हो जाता कि ऐसी सूचना से किसी संज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट होता है तो या तो स्वयं मामले का अन्वेषण करेगा या अपने अधीनस्थ किसी पुलिस अधिकारी को विवेचना करने का निर्देश देगा। सम्पूर्ण देश में मजिस्टेªट के न्यायालयों के समक्ष प्रथम सूचना रिपार्ट दर्ज कराने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत दाखिल प्रार्थना पत्रों की बढ़ती संख्या से स्पष्ट होता है कि थाना स्तरों पर या पुलिस अधीक्षक के स्तर पर संज्ञेय अपराधों के कारित होने की सूचना पाने के बावजूद प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज नही की जाती।
सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय खण्ड पीठ ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 का मंतव्य स्पष्ट करते हुये सबको जता दिया है कि संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्त होते ही उसे दर्ज करना थाना प्रभारी के लिए आवश्यक है। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से इन्कार करना उसकी पदीय प्रतिबद्धता के प्रतिकूल है। हालिया निर्णय के तहत रिपोर्ट दर्ज करने से इन्कार करने वाले पुलिस कर्मियों को दण्डित करने का भी सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। इस निर्णय के पूर्व विभिन्न उच्च न्यायालयों ने इस आशय के निर्णय पारित किये थे, परन्तु थाना स्तरो पर कभी उनका पालन नही किया गया और सदैव रिपोर्ट लिखने में आना कानी की गई है। थानों पर पुलिस कर्मियों की अपनी कार्यशैली है। मनमानी करना उनकी आदत और आम लोगों को उत्पीडि़त करना उनका शौक है। इसे कैसे नियन्त्रित किया जाये इस दिशा में सरकार के स्तर पर कभी कोई पहल नही की गई और न अपनी पदीय प्रतिबद्धताओं के प्रतिकूल कार्य करने वाले पुलिस कर्मियों को कभी दण्डित किया जाता है। थाना हरवंश मोहाल कानपुर में एक कम्प्यूटर व्यवसायी की शिकायत पर सम्बन्धित मजिस्ट्रेट के आदेश पर प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत की गई। रिपोर्ट में फर्जी कागजात बनाने और उनके फर्जी होने की जानकारी के बावजूद सही कागज के रूप में उन्हें प्रयोग करने का अपराध प्रश्नगत था। चूँकि दरोगा जी पहले रिपोर्ट लिखने से इन्कार कर चुके थे इसलिए उन्होंने फर्जी कागजातों को अभिरक्षा में लिये बिना कुछ वर्ष पूर्व स्वर्ग सिधार गये लोगो के बयान लिखकर मामला खत्म कर दिया और मुकदमा वादी के विरूद्ध फर्जी रिपोर्ट लिखाने का अभियोग संस्थित करने की अनुशंशा कर दी। स्थानीय समाचार पत्रों में प्रमुखता से यह समाचार प्रकाशित हुआ परन्तु सम्बन्धित विवेचक के विरूद्ध आज तक काई कार्यवाही नही की गई है और वह आज भी उसी थाने में बैठकर पूरी व्यवस्था को ठेंगा दिखा रहा है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता में प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत किये बिना विवेचना करने का कोई प्रावधान नही है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैसले में वैवाहिक विवादों, व्यवसायिक अपराधो और चिकित्सकीय लापरवाही जैसे मसलो पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के पूर्व प्रारम्भिक जाँच करने की छूट दी है परन्तु इस प्रकार की जाँच को एक सप्ताह के अन्दर पूरा करने और उसके परिणामों से वादी को अवगत कराने का भी निर्देश जारी किया है। अन्य सभी मामलों में संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्त होते ही प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत करना अनिवार्य बना दिया है। संज्ञेय अपराध के मामलों में प्रारम्भिक जाँच की अनुमति नही है। निर्णय में कहा गया है कि रिपोर्ट दर्ज करते समय सूचना की सत्यता या असत्यता को जानना महत्वपूर्ण नही है। सूचना सही है या गलत? उस पर विश्वास किया जा सकता है या नही? इन सबकी जाँच रिपोर्ट पंजीकृत करने के बाद विवेचना के दौरान साक्ष्य संकलित करते समय की जायेगी। विधि में व्यवस्था है कि यदि विवेचना के दौरान शिकायत असत्य पायी जाये तो शिकायतकर्ता के विरूद्ध झूठी प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत कराने का मुकदमा चलाया जा सकता है, परन्तु पहले से ही पीडि़त को झूठा मानकर प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत करने से इन्कार नही किया जा सकता।
कानपुर में पिछले दिनों कुछ लोगों द्वारा किय गये स्टिंग आपरेशन की सी.डी. को आधार बनाकर ज्येष्ठ पुलिस अधीक्षक के निर्देश पर कई डाक्टरों, नर्सिग होमो और पासपोर्ट विभाग के अधिकारियों के विरूद्ध सी.डी. की सत्यता परखे बिना प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत की गई है और कथित अभियुक्तों की गिरफ्तारी भी की गई है। इन मामलों में प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत किये जाने के पूर्व पुलिस के स्तर पर स्टिंग आपरेशन करने वालों की पृष्ठभूमि एवं उनके आशय को जानने का कोई प्रयास नही किया गया जबकि दूसरी ओर निजी क्षेत्र की एक बैंक के साथ विदेशी मुद्रा में किये गये संव्यवहार में पचास लाख रूपये की धोखाधड़ी के द्वारा किये गये अपराध की रिपोर्ट दर्ज नही की गई और फिर न्यायालय के आदेश से प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत करने के बाद उसमें फाइनल रिपोर्ट लगा दी गई। पुलिस ने यह जानने का प्रयास नही किया कि बैंक के समक्ष फर्जी विदेशी मुद्रा प्रस्तुत करने वाले लोगों के पास मुद्रा कहाँ से आई ? और जब मुद्रा आई और बैंक के खाते से 50 लाख रूपये निकल भी गये, तब मुद्रा प्रस्तुत करने वाले लोग निर्दोष कैसे हो गये ?
अपने थाना क्षेत्र में कारित अपराधों को छिपाना थानाध्यक्षों की मजबूरी भी है। थानाध्यक्षों की कुशलता का आकलन अपराधों को नियन्त्रित रखने के लिए उनके द्वारा किये गये प्रयासो के आधार पर नही किया जाता बल्कि दर्ज मुकदमों की संख्या के आधार पर किया जाता है। अब विवेचक अपराध के कारणो को जानने विवेचना मे वैज्ञानिक तरीको को अपनाने या परिस्थितिजन्य साक्ष्य एकत्र मे महारथ हासिल करने का प्रयास नही करता। उसका पूरा ध्यान अपने क्षेत्र के आर्थिक अपराधियों को ज्यादा से ज्यादा संरक्षण देने और उससे होने वाली कमाई पर केन्द्रित रहता है। कमाऊ थानों की पोस्टिंग के लिए उसे भारी रकम चुकानी पड़ती है। प्रत्येक अपराध की सूचना दर्ज करने से उनकी कमाई कुप्रभावित हो जाती है। थानों पर रिपोर्ट दर्ज न करने का यह भी एक बड़ा कारण है। केन्द्र सरकार ने आन लाइन प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के लिए पहल की थी। इस पर व्यय के लिए समुचित धनराशि भी निर्मुक्त की गई है, परन्तु राज्य सरकारों की अरूचि के कारण आम लोगो को राहत पहुँचाने वाली यह योजना क्रियान्वयन के पहले ही दम तोड़ चुकी है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट के अनिवार्य पंजीयन से आपराधिक न्याय प्रशासन में पारदर्शिता का मार्ग प्रशस्त होगा और इससे आम लोगों की न्याय तक पहुँच सुगम हो जाती है। सभी मानते है कि थाने में रिपोर्ट दर्ज नही हो सकती इसीलिए प्रायः स्थानीय दबंग सीधे साधे सम्भ्रान्त व्यक्तियों को आतंकित करने मे सफल हो जाते है। प्रापर्टी डीलिंग का बढ़ता कारोबार और जबरन मकान खाली कराने की बढ़ती घटनायें प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत न करने का प्रतिफल है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में बताया गया है कि प्रतिवर्ष लगभग साठ लाख मुकदमें पंजीकृत नही किये जाते है। रिपोर्ट दर्ज न करने से कानून व्यवस्था के प्रति आम लोगो का विश्वास घटता है। अपराध की विवेचना और अपराधियों को दण्डित कराना राज्य की जिम्मेदारी है और इसके निर्वहन के लिए थानों में अपराध की सूचना पंजीकृत करना पहला कदम है। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करने से आम पीडि़तो के मौलिक अधिकारों का हनन होता है।
आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 में भी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने की अनिवार्यता का प्रावधान है। पुलिसकर्मी अपनी शक्तियों के प्रति सचेष्ट और अपनी पदीय प्रतिबद्धताओ के प्रति सदैव उदासीन रहते है। राज्य सरकारे अपने राजनैतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करती है। सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले का क्रियान्वयन राज्य सरकरो के रवैये पर निर्भर है। राज्य सरकारों को खुद पहल करके दर्ज मुकदमो की संख्या पर पूर्ववर्ती सरकारों से अपना तुलनात्मक आकलन बन्द करना होगा और अघोषित आदेशों को वापस लेकर थानों पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने की अनिवार्यता लागू करनी होगी। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत प्रार्थनापत्र प्रस्तुत होने की दशा में सम्बन्धित थानाध्यक्ष के आचरण की अनिवार्य जाँच कराके दोषी पाये जाने पर उनके विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित कराये बिना प्रथम सूचना रिपोर्ट का पंजीयन सपना ही बना रहेगा। 

Saturday, 9 November 2013

आर्थिक परिस्थितियों पर हो जमानत राशि का निर्धारण...........


कोई माने या न माने लेकिन गरीबी रेखा के स्तर पर जीवन यापन करने वाले लोगों के बीच रहने वाले सभी लोग जानते है कि आर्थिक विपन्नता के कारण अदालत द्वारा निर्धारित जमानत राशि के जमानतगीरो का बन्दोबस्त न कर पाने से अनेको विचाराधीन बन्दी कारागार में निरूद्ध रहने को अभिशप्त है। अमेरिका सहित विश्व के अनेक देश इस समस्या से रूबरू हुये है। अमेरिकी राष्ट्रपति लिन्डन बी जानसन ने अपने देश के लिए बेल रिफार्मस एक्ट 1966 पर हस्ताक्षर करने के अवसर पर धनराशि आधारित जमानत की प्रचलित व्यवस्था को गरीब विरोधी बताया था। इस व्यवस्था के तहत जमानत खरीदनी पड़ती है। गरीब आदमी अपनी गरीबी के कारण जमानत के लिए अपेक्षित कीमत अदा नही कर पाता और उसके कारण उसे विचारण प्रारम्भ होने के पहले सप्ताहों, महीनों और कई बार वर्षों जेल में रहना पड़ता है। राष्ट्रपति जानसन ने कहा था कि विचाराधीन बन्दी दोषी होने के कारण जेल में नही होते, उनके विरूद्ध अदालत में कोई दण्डादेश पारित नही किया, विचारण के समय उनके फरार होने की कोई सम्भावना नही है वह केवल और केवल गरीब होने के कारण जेल में है। वास्तव में यदि हम आपराधिक न्याय प्रशासन में सभी के साथ एक समान न्यायसंगत व्यवहार करना चाहते है तो हमे बेल सिस्टम में आधारभूत परिवर्तन करने होंगे ताकि अमीरों की तरह गरीब आदमी भी विचारण प्रारम्भ होने के पूर्व बिना किसी कठिनाई के अपनी रिहाई के लिए जमानतगीरो का बन्दोबस्त कर सकें।

         अपने देश में भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री आर.एस. पाठक ने केन्द्र सरकार को प्रतिभू सहित या रहित बन्धपत्रों के बिना केवल व्यक्तिगत बन्ध पत्र के आधार पर जमानत देने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता में अपेक्षित संशोधन करने की सलाह दी थी। उन्होंने भी माना था कि बड़ी संख्या में विचाराधीन बन्दी विचारण के समय अपनी उपस्थिति सुनिश्चित रखने का विश्वास दिलाने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों की संतुष्टि के लिए निर्धारित की जाने वाली फाइनेन्सियल गारण्टी का बन्दोबस्त न कर पाने के कारण कारागार में निरूद्ध है। दण्ड प्रक्रिया संहिता में इस आशय का कोई प्रावधान न होने के कारण अदालते चाहकर भी किसी को प्रतिभू सहित बन्धपत्रों के बिना केवल उसके व्यक्तिगत बन्धपत्र के आधार पर जमानत नही दे सकती। अपने देश में सभी  को समान रूप से सामाजिक न्याय और समानता का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। केवल आर्थिक विपन्नता के कारण किसी को भी उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित रखना स्पष्ट रूप से भेदभाव की परिधि में आता है। केवल गरीबी के कारण अपेक्षित धनराशि के जमानतगीरो का प्रबन्ध न कर पाने वाले विचाराधीन बन्दियों की स्वतन्त्रता के अधिकार की रक्षा के लिए सुस्पष्ट विधि की जरूरत है।

       सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय मोतीराम बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश (ए.आई.आर.-1978-एस.सी.-पेज 1549) में धनराशि आधारित जमानत के प्रचलित सिद्धान्त को गरीबो के प्रतिकूल बताया था। न्यायमूर्ति श्री वी.आर. कृष्णा अय्यर ने अभियुक्त की आर्थिक पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखे बिना जमानत राशि के निर्धारण को संविधान के प्रतिकूल घोषित किया है। मोती लाल एक साधारण व्यक्ति था और किसी मामले में गिरफ्तार के बाद जमानत पर उसकी रिहाई के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्टेªट ने दस हजार रूपये की दो श्योरिटीज और इतनी ही राशि के एक व्यक्तिगत बन्धपत्र प्रस्तुत करने का आदेश पारित किया। मोतीराम इस राशि की श्योरिटीज का प्रबन्ध नही कर सका। मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत हुआ। न्यायमूर्ति श्री अय्यर ने उसकी आर्थिक पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखकर जमानत राशि घटाकर एक हजार रूपये कर दी। इसी प्रकार एक अन्य मामले में विचारण न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के तहत गिरफ्तार एस.डी. मदान को तीन करोड़ रूपये की दो श्योरिटीज और इसी राशि का एक बन्धपत्र जमानत के लिए प्रस्तुत करने हेतु आदेशित किया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत के लिए निर्धारित इस राशि को जमानत से इन्कार करने के समान बताया।

       न्यायमूर्ति श्री पी.एन. भगवती ने भी हुसैन आरा खातून बनाम स्टेट आफ बिहार (1979-ए0आई0आर0-एस0सी0 - पेज 1369) में प्रतिपादित किया था कि धनराशि आधारित श्योरिटीज की व्यवस्था के कारण गरीबो के साथ अन्याय होता है। आर्थिक कारणो से अपने स्तर पर श्योरिटीज का बन्दोबस्त न कर पाने के कारण अभियुक्त या उसके परिजन पेशेवर जमानतगीरो का सहारा लेने को विवश होते है और कई बार कर्ज लेकर अपनी रिहाई का मार्ग प्रशस्त करते है। इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी स्पष्ट दिशा निर्देशो के बावजूद केन्द्र सरकार ने अपने स्तर पर कोई सकारात्मक पहल नही की है और उसके कारण जमानत स्वीकृत हो जाने के बावजूद अभियुक्त जेल से बाहर नही आ पाता और विचारण प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा में कई बार उसे विधि में निर्धारित सजा से ज्यादा अवधि का कारावास झेलना पड़ता है।

          विचारण के समय अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित कराना धनराशि आधारित जमानत का प्रमुख उद्देश्य है। माना जाता है कि जमानत राशि जब्त हो जाने के भय से जमानत पर रिहा हो जाने के बाद अभियुक्त विचारण के समय फरार नही होगा। जमानत के मूल उद्देश्य को ध्यान में रखकर अमेरिका आदि कई देशों में धनराशि आधारित जमानत की व्यवस्था में सुधार किये गये है। इन देशों मे मानेटरी श्योरिटीज प्रस्तुत करने का आदेश पारित करने के पूर्व अन्य तरीको पर विचार किया जाता है और यदि मामले की परिस्थितियों और उसकी प्रकृति के अनुरूप अन्य साधारण तरीकों से अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित हो सकती है तो मानेटरी श्योरिटीज प्रस्तुत करने के लिए नही कहा जाता है। विचारण न्यायालय अपनी संतुष्टि के लिए अभियुक्त की पृष्टभूमि की जाँच कराते है और यदि अपने समाज में अभियुक्त की गहरी पहचान है और उसके फरार होने की सम्भावना नही है तो अभियुक्त को उसकी अपनी जमानत (रिकगनिजैन्स) पर रिहा कर दिया जाता है। न्यायमूर्ति श्री कृष्णा अय्यर ने भी मोतीराम के मामले में पारित अपने निर्णय के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को सलाह दी है कि आपराधिक विधि में धनराशि आधारित जमानत महत्वपूर्ण तत्व नही है। सामाजिक न्याय के इस युग में अब मानेटरी बेल का सिद्धान्त निष्प्रयोज्य हो चुका है और अनुभव बताता है कि इससे व्यक्ति और समाज दोनों को नुकसान हो रहा है।

        न्यायमूर्ति श्री अय्यर मानते है कि विचारण के समय उपस्थिति की गारण्टी समाज में कानून की पकड़ और आम जनता में उसके विश्वास में निहित है। धनराशि आधारित जमानत उपस्थिति की गारण्टी नही है। आदतन अपराधी किसी भी राशि की जमानत का प्रबन्ध कर लेते है और उन्ही के फरार होने की ज्यादा सम्भावना होती है। ऐसे अपराधियों के जमानतगीर बाद में खोजने पर भी नही मिलते। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार दो लाख तीन लाख रूपये की श्योरिटीज प्रस्तुत किये जाने के आदेशों को निरस्त किया है। जमानत राशि को कम कराने के लिए गरीब आदमी के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल कर पाना सम्भव नही है इसलिए गरीब विचाराधीन बन्दियो से धनराशि आधारित श्योरिटीज के स्थान पर उनकी आर्थिक सामाजिक पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखकर उन्हें जमानत पर रिहा करने के लिए अन्य तरीको पर विचार करना होगा। अन्य तरीको के लिए समाज में अभियुक्त की पहचान, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, प्रतिष्ठित सामाजिक संघटनों में उसकी सहभागिता और पूर्व में उसका सामाजिक आचरण विचार के लिए सुसंगत आधार हो सकते है। निश्चित मानिये कि इन आधारो पर जमानत देने की स्थिति में अभियुक्तो के फरार होने की सम्भावना बिल्कुल नही है। आम आदमी अपने समाज परिवार और सामाजिक परिवेश से पलायन करने की हिम्मत नही जुटा सकता और समाज में रहकर हर प्रकार के परिणामों को अपना भाग्य मानकर झेलने के लिए सदा तैयार रहता है।

         गुजरात उच्च न्यायालय के तत्कालीन चीफ जस्टिस श्री पी.एन. भगवती की अध्यक्षता में गठित लीगत एड कमेटी ने धनराशि आधारित जमानत के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया है। गुजरात कमेटी के नाम से चर्चित इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में जमानत की प्रचलित व्यवस्था को असन्तोषजनक बताया और उसमें मूलभूत परिवर्तन का सुझाव दिया है। आर्थिक क्षति के भय से अभियुक्त के फरार न होने की मान्यता प्रमाणिक नही है। विचारण के समय अभियुक्त की अनुपस्थिति या फरार हो जाने के कई कारण है, परन्तु किसी भी दशा में आर्थिक क्षति महत्वपूर्ण कारण नही है। मानेटरी बेल के अतिरिक्त अन्य तरीको से भी विचारण के समय अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करायी जा सकती है। समिति ने माना है कि प्रचलित बेल सिस्टम में गरीब आदमी अपनी गरीबी के कारण जमानत नही दे पाता, जबकि उसी स्थिति में अमीर लोग अपनी जमानत का प्रबन्ध कर लेते है और रिहा हो जाते है। इस प्रकार आम आदमी के साथ उनकी गरीबी के कारण भेदभाव होता है। इस भेदभाव को समाप्त करने के लिए आवश्यक है कि अधीनस्थ न्यायालय जमानत राशि निर्धारित करते समय अभियुक्त की आर्थिक सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि को भी सुसंगत आधार बनाये ताकि गरीबी के कारण किसी को भी अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के संवैधानिक अधिकार से वंचित न होना पड़े।

Sunday, 3 November 2013

प्रशासन में राजनैतिक दखल, नौकरशाह खुद जिम्मेदार


सर्वोच्च न्यायालय के न्यायामूर्ति श्री के0 एस0 राधाकृष्णन एवं श्री पी0 सी0 घोष की खण्डपीठ ने आई0ए0एस0, आई0पी0एस0, आदि प्रशासनिक अधिकारियों के मनमाने तबादलों पर रोक और उन्हें एक पद पर निश्चित कार्यकाल देने का आदेश जारी करके नौकरशाहों को राजनैतिक आकाओं की गुलामी से मुक्त होने का एक अवसर दिया है। पिछले 25-30 वर्षों में नौकरशाहों ने निहित स्वार्थवश अपने स्वाभिमान से समझौता करके खुद राजनेताओं की गुलामी का मार्ग चुना है। राजनेताओं के मौखिक आदेशों, सुझावों और प्रस्तावों को लागू कराने की निजी प्रतिबद्धता के कारण ही प्रदीप शुक्ला और बन्जारा जैसे वरिष्ठ अधिकारी आज जेल की हवा खा रहे हैं और उनके राजनैतिक आकाओं ने उनसे अपनी दूरी बना ली है।
अपने देश में अधिकांश नौकरशाह एरोगेन्ट हैं। उनका आम लोगों और देश की ज़मीनी हकीकत से कोई वास्ता नही है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे आम लोगों की समस्याओं पर संवेदनशील रवैया अपनाकर सुरक्षा और विकास का माहौल बनायेंगे ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो सकें। सबसे ज्यादा वेतन और भरपूर सुविधायें पाने के बावजूद किसी पद विशेष पर तैनाती के लिये निहित स्वार्थी तत्वों के साथ सांठ-गांठ करना उनकी आदत में शुमार है। जाति-धर्म और राजनैतिक आधार पर उनके बीच गुटबाजी तेजी से बढ़ी है। नौकरशाहों में राजनैतिक तटस्थता एकदम विलुप्त हो गयी है। हर नौकरशाह किसी न किसी राजनेता का समर्थक, अनुयायी और प्रशंसक है। इसीलिये सत्ता-परिवर्तन के साथ नौकरशाहों का बड़े पैमाने पर तबादला होता है। एक जाति विशेष के लोगों को हटाकर दूसरी जाति विशेष के लोगों को तैनात करना एक सामान्य प्रशासनिक कार्यवाही है।
सेवानिवृत्त अधिकारियों, कैबिनेट सचिव श्री टी0एस0आर0 सुब्रमणियम, पूर्व सी0बी0आई0 निदेशक श्री जोगिन्दर सिंह, पूर्व चुनाव आयुक्त श्री टी0एस0 कृष्णमूर्ति, श्री एन0 गोपालस्वामी, अमेरिका में भारत के राजदूत रहे श्री आबिद हुसैन, पूर्व राज्यपाल श्री वेद प्रकाश मरवाह आदि ने हरियाणा के श्री अशोक खेमका और उत्तर प्रदेश में श्रीमती दुर्गा नागपाल के प्रति राज्य सरकारों के दुर्भावनापूर्ण व्यवहार से व्यथित होकर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जनहित याचिका दाखिल की हैं, परन्तु इन सभी अधिकारियों ने अपने सेवाकाल के दौरान अधीनस्थ अधिकारियों को राजनेताओं के चंगुल में फँसने से रोकने का कभी कोई प्रयास नही किया है। उत्तर प्रदेश में आई0ए0एस0 एसोसियेशन ने कुछ वर्ष पूर्व अपने बीच के भ्रष्ट अधिकारियों को चिन्हित करने के लिये मतदान कराया था। अधिकारी चिन्हित भी किये गये परन्तु, मायावती के मुख्यमन्त्रित्व काल में पूरी एसोसियेशन ने मौनव्रत लेकर मायावती को मनमानी करने की पूरी छूट दे रखी थी।
आई0ए0एस0 के लिये साक्षात्कार के दौरान एक अभ्यर्थी से पूँछा गया कि यदि आप मुख्य सचिव होते और मुख्यमन्त्री राज्यनिधि से अपने राजनैतिक ऐजेण्डे की पूर्ति के लिये धनराशि व्यय करना चाहते तो आप क्या करते? अभ्यर्थी ने उत्तर दिया कि मैं उन्हें नियमों का सहारा लेकर रोकता, फिर भी वे न मानते तो ? प्रश्न के उत्तर में अभ्यर्थी द्वारा कहे जाने पर कि वह उन्हें उनके अनुसार कार्य करने देता, की बात सुनकर साक्षात्कार बोर्ड ने उसके नम्बर कम कर दिये। इस अभ्यर्थी का उदाहरण देकर बताना चाहता हूँ कि उच्च पदस्थ अधिकारी अपने अधीनस्थों से हर हालत में ईमानदार रहने और आदर्श स्थापित करने की अपेक्षा करते हैं परन्तु व्यावहारिक स्तर पर खुद राजनेताओं की चाटुकारिता का कोई अवसर गँवाना नही चाहते हैं। वरिष्ठ आई0ए0एस0 अधिकारी श्री अनिल सागर ने कानपुर नगर में जिलाधिकारी रहने के दौरान जिला शासकीय अधिवक्ता (दीवानी) की मृत्यु के तत्काल बाद न्यायालय के कार्यो के लिये तदर्थ व्यवस्था के तहत व्यापक विचार-विमर्श करके अपने स्तर पर एक अधिवक्ता को कार्यभार सौंप दिया परन्तु स्थानीय मन्त्री जी के दबाव में तीसरे ही दिन अपना आदेश निरस्त कर दिया और फिर मन्त्री जी की संतुष्टि के लिये दीवानी विधि से सर्वथा अपरिचित व्यक्ति की नियुक्ति की जिसकी अकुशलता के कारण राज्य सरकार को गम्भीर क्षति का शिकार होना पड़ा।
नौकरशाहों ने खुद अपने-अपने कारणों से दिन प्रतिदिन की प्रशासनिक व्यवस्था में राजनैतिक दखल को आमंत्रित किया है। केन्द्रीय मन्त्री श्री जयराम रमेश ने एकदम सही कहा है कि सेवानिवृत्ति के बाद ही अधिकारियों को ज्ञान प्राप्त होता है। सेवाकाल के दौरान इनकी आत्मा कुम्भकरणीय नींद में सोई रहती है। केन्द्र सरकार ने सन् 2004 में श्री पी0सी0होता की अध्यक्षता में सिविल सर्विस रिफार्मस कमेटी का गठन किया था। इससे पूर्व सुरेन्द्र नाथ कमेटी और श्री बी0एन0 युगन्धर कमेटी का भी गठन किया गया है। सभी कमेटियों ने अपनी-अपनी रिपोर्टे केन्द्र सरकार को दी हैं परन्तु उनपर किसी प्रकार की कार्यवाही का कोई अता-पता नही है। जनहित याचिका दाखिल करने वाले वरिष्ठ नौकरशाहों ने अपने सेवाकाल के दौरान प्रशासनिक सुधार आयोगों की किसी रिपोर्ट को लागू कराने की कभी कोई पहल नही की है जबकि वे सब के सब नीतिनिर्धारक पदों पर तैनात रहे हैं और चाहते तो प्रशासनिक सुधार का मार्ग प्रशस्त कर सकते थे।
अपने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में मन्त्री और अधिकारी एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों पूरी व्यवस्था के कस्टोडियन हैं। संविधान में दोनों की सीमाओं, अधिकारों और दायित्वों का स्पष्ट निर्धारण किया गया है। संविधान अपेक्षा करता है कि दोनो एक-दूसरे के क्षेत्राधिकार का सम्मान करेंगे। अधिकारियों को मानना चाहिये कि नीतिनिर्धारण जनप्रतिनिधियों के अधिकार क्षेत्र का विषय है और नीतियों का समयबद्ध क्रियान्वयन सुनिश्चित कराना उनकी पदीय प्रतिबद्धता है। संसदीय लोकतन्त्र में ईमानदार, निर्भीक, स्वतंत्र और पारदर्शी अधिकारियों की ज़रूरत है। नीतिनिर्धारण की प्रक्रिया के दौरान अधिकारियों के निष्पक्ष विचारों/सुझावों का महत्वपूर्ण योगदान होता है; परन्तु रोज-रोज के मनमाने तबादलों के कारण नीतिनिर्धारण में ईमानदार अधिकारियों के अनुभव का लाभ शासन को नही मिलता और चाटुकार अधिकारियों के प्रभाव में व्यापक विचार विमर्श हुये बिना नीतियाँ बन जाती हैं जो क्रियान्वयन के समय अप्रासंगिक सिद्ध होती हैं और उससे सार्वजनिक हित कुप्रभावित होते हैं और सार्वजनिक व्यवस्थाओं के प्रति आम जनता का विश्वास टूटता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया फैसलों में व्यवस्था दी है कि केन्द्र और राज्य सरकारें नौकरशाहों के लिये निश्चित कार्यकाल की तैनाती सुनिश्चित करायें और उनकी पदोन्नति और तबादलों के लिये एक स्वतन्त्र निकाय का गठन करें। राजनैतिक हलकों में इस फैसले को क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण बताया जा रहा है। केन्द्रीय मन्त्री श्री जयराम रमेश ने सार्वजनिक रूप से आलोचना करते हुये कहा है कि अदालतों को अफसरों एवं सरकार का काम अपने हांथ में नही लेना चाहिये। केन्द्रीय मन्त्री की आलोचना अपनी जगह है पर देश का आम आदमी सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण नही मानता। केन्द्र सरकार ने खुद अपने द्वारा प्रशासनिक सुधारों के लिये गठित आयोगों की अनुशंसाओं को फाइलों में कैद कर रखा है। राजनैतिक नेतृत्व, प्रशासनिक सुधार के लिये आयोगों की संस्तुतियों को लागू करने में असफल रहा है। ऐसी दशा में सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प भी नही है। जनान्दोलन एक सशक्त विकल्प हो सकता है, परन्तु आज की सरकारें अब उनका सम्मान नही करती हैं।
दिनांक 24 मई 1997 को राज्यों के मुख्यमन्त्रियों ने एक सम्मेलन के दौरान स्वीकार किया था कि रोज-रोज के तबादलों से ईमानदार अधिकारियों का मनोबल गिरता है और उसका कुप्रभाव पड़ता है। महाराष्ट्र सरकार ने वर्ष 2003 में अखिल भारतीय सेवा के अपने कैडर के अधिकारियों के लिये एक पद पर तीन वर्ष का कार्यकाल निर्धारित किया था जो आज तक लागू नही हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया फैसले के पूर्व प्रकाश सिंह बनाम यूनियन आफ इण्डिया के मामले में पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिये दिशा-निर्देश जारी किये थे परन्तु सात बिन्दुओं वाले दिशा-निर्देशों को लागू करने के प्रति केन्द्र और राज्य सरकारों की अरूचि एक समान है। जनपद स्तर पर वरिष्ठ अधिकारी खुद भी अपने मातहतों को एक पद पर निश्चित कार्यकाल देने के लिये तैयार नही हैं। थाना प्रभारियों का आये दिन तबादला पुलिस अधीक्षकों का प्रिय शगल है। ऐसी दशा में अब सर्वोच्च न्यायालय को ही सुनिश्चित करना होगा कि उसके द्वारा जारी दिशा-निर्देशों में कोई अड़ंगा न लगा पाये उनके आदेशों के अनुरूप सुशासन का मार्ग प्रशस्त हो।

Saturday, 26 October 2013

जमानत की स्वीकृति नियम है अस्वीकृति अपवाद ...........


इलाहाबाद उच्च न्यायालय की सात सदस्यीय खण्ड पीठ ने अमरावती एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ यू.पी. में अपने निर्णय दिनांक 15 अक्टूबर 2004 के द्वारा प्रतिपादित किया है कि  दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 की परिधि में आने वाले अपराधों में जमानत प्रार्थनापत्रों का निस्तारण उसी दिन किया जाना चाहिये। धारा 439 की परिधि में आने वाले अपराधों में जमानत प्रार्थनापत्रों का निस्तारण उसे प्रस्तुत किये जाने की तिथि पर करने या न करने और अन्तरिम जमानत देने का सम्पूर्ण विवेकाधिकार अधीनस्थ न्यायालयों में निहित है। इसी निर्णय में यह भी कहा गया है कि समान्यतः उच्च न्यायालय को जमानत प्रार्थनापत्रों को उसी दिन निस्तारित करने का आदेश अधीनस्थ न्यायालयों को नही देना चाहिये। 
अपने आपराधिक न्याय प्रशासन मे जमानत स्वीकार करने या खारिज करने का सम्पूर्ण विवेकाधिकार सम्बन्धित न्यायिक अधिकारी में निहित है और दिन प्रतिदिन की गतिविधियों में उच्च न्यायालय द्वारा इस व्यवस्था में हस्तक्षेप करने का कोई विधिक औचित्य भी नही है परन्तु अमरावती के मामले में पारित निर्णय की भावना को दृष्टिगत रखकर अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष उनके स्तर पर जमानत प्रार्थनापत्रों के उसी दिन निस्तारण और निस्तारण न होने की दशा में अभियुक्त को अन्तरिम जमानत पर रिहा करने की गति काफी धीमी है। उसी दिन निस्तारण या अन्तरिम जमानत के लिए प्रत्येक मामले में उच्च न्यायालय द्वारा आदेश लाना आवश्यक बना लिया गया है, जो अमरावती और बाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लाल कमलेन्द्र प्रताप सिंह बनाम स्टेट आफ यू.पी. के मामलों मे प्रतिपादित सिद्धान्तों के अनुकूल नही है। आर्थिक कारणो से उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल करने में असमर्थ लोगों को युक्तियुक्त आधार होने के बावजूद अन्तरिम जमानत नही मिल पाती और वे जेल जाने को  विवश होते है।
अपने देश में हजारो विचाराधीन बन्दी विचारण के समाप्त होने की प्रतीक्षा में वर्षों से जेल में है। किसी युक्तियुक्त कारण के बिना उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार का हनन हो रहा है। अमरावती के मामले में स्वीकार किया गया है कि उत्तर प्रदेश में आपराधिक विचारण के निस्तारण में औसतन 5 वर्ष का समय लगता है। अदालतो के स्तर पर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 प्रभावी नही हो सकी हैं। माह दर माह अभियोजन साक्ष्य के लिए नियत तिथियाँ स्थगित होती रहती है। कई बार तो गलत पता लिखा होने के कारण साक्षी पर सम्मन भी तामील नही हो पाता। इन स्थितियों में भी अभियोजन साक्ष्य क्लोज नही हो पाती और न अभियुक्त को जमानत पर रिहा किया जाता है। अभियोजन के अपने कारणो से विचारण में विलम्ब होने के बावजूद अभियुक्त को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के तहत जमानत पर रिहा नही किया जाता। 
दण्ड प्रक्रिया संहिता या अन्य किसी अधिनियम में जमानत को परिभाषित नही किया गया है। हाल्सवरी ला आफ इंग्लैण्ड के अनुसार जमानत रिहाई की एक प्रक्रिया है जिसमें आरोपी को उसके श्योरटीज की अभिरक्षा मे इस शर्त के साथ दिया जाता है कि न्यायालय की अपेक्षा पर वे उसे विचारण के समक्ष प्रस्तुत करेंगे। जमानत की स्वीकृति या अस्वीकृति का सिद्धान्त न्यायालयों के निर्णय के तहत विकसित हुआ है। इसमें विधायिका की भूमिका नगण्य है। जमानत की अवधारणा पुलिस की शक्तियों और किसी व्यक्ति विशेष की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के मध्य विरोधाभाष पैदा करती है। अपने देश में दोष सिद्ध न होने तक किसी भी आरोपी को निर्दोष माना जाता है। उसे दोषी मानकर दण्डित करने के आशय से जमानत अस्वीकृत नही की जा सकती है। वास्तव में किसी की भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता उसका मौलिक अधिकार है और उसे विधि सम्मत कारणों के बिना प्रतिबन्धित नही किया जा सकता।
विभिन्न उच्च न्यायालयो और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णयो के तहत किसी भी अपराध में अभियुक्त को उसके विचारण के पूर्व और उसके दौरान अपवाद स्वरूप विशेष परिस्थितियों में ही जमानत देने से इन्कार किया जाना चाहिये। अपने देश में अदालत द्वारा दोष सिद्ध घोषित न किये जाने तक अभियुक्त को निर्दोष माना जाता है परन्तु जमानत न मिलने की दशा में सर्वस्वीकृत निर्दोषिता की अवधारणा का उल्लंघन होता है। 
स्टेट आफ केरल बनाम रनीफ (2011-1-एस.सी.सी.-पेज-784 में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया है कि आपराधिक विचारण के दौरान अभियुक्तो को जमानत न मिल पाने के कारण उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार का हनन होता है। जमानत न मिलने के बाद दोषमुक्त हो जाने की दशा में जेल में बिताये गये उसके समय को क्या कोई वापस दे सकता है ? जेल में निरूद्ध रहने के कारण उसके और उसके परिवार को गम्भीर आर्थिक संकट का शिकार होना पड़ता है और अभियुक्त अपने बचाव के समान अवसरो से भी वंचित हो जाता है जो अनुच्छेद 14 एवं 21 के प्रतिकूल है। यह सच है कि विचाराधीन बन्दियों को सरकार के व्यय पर उनका बचाव करने के लिए न्यायमित्र दिये जाते है। इन न्यायमित्रों की नियुक्ति में निष्पक्षता और पारदर्शिता का अभाव रहता है जिसके कारण न्यायमित्रों की व्यवसायिक कुशलता का पक्ष नगण्य हो जाता है। 
संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को जीवन और स्वतन्त्रता का अधिकार देता है। जमानत की अवधारणा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार से सम्बन्धित है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय को जमानत अस्वीकृत करते समय काँशश और केयरफुल रहने के लिए निर्देशित किया है। माना गया है कि आरोपियों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता किसी युक्तियुक्त कारण के बिना प्रतिबन्धित नही की जानी चाहिये। विचारण के समय न्यायालय के समक्ष अभियुक्त की उपस्थिति को सुनिश्चित कराना जमानत का उद्देश्य होता है ऐसी दशा में यदि न्यायालय को विश्वास हो जाता है कि विचारण के समय अभियुक्त न्यायालय के समक्ष उपस्थित रहेगा और उसके फरार होने या उसके द्वारा साक्ष्य को कुप्रभावित करने की सम्भावना नही है तो उसे जमानत दी जानी चाहिये। अपराध की जाँच विवेचना और विचारण के दौरान केवल अभियोजन की संतुष्टि के लिए किसी को भी जेल में बनाये रखकर उसे अपने जीवन की रक्षा और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित नही किया जा सकता उसे संविधान के तहत प्राप्त अधिकारों का उसी तरह प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है, जिस तरह देश के अन्य नागरिक अनुच्छेद 14 एवं 21 के द्वारा प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते है। वास्तव में जमानत मिलने के बाद केवल 1 प्रतिशत अभियुक्त न्यायालय के समक्ष विचारण के लिए उपस्थित नही होते परन्तु इसके लिए केवल जमानत को दोषी बताना उचित नही है। विवेचना के दौरान अभियुक्त या साक्षियों का जो पता लिखा जाता है, कई बार वो बस्ती ऊजाड़ दी जाती है और उसके कारण विचारण प्रारम्भ होने की सूचना ही अभियुक्त तक नही पहुँच पाती।
स्वतन्त्र भारत में संविधान लागू होने के पूर्व वर्ष 1950 में सर्वोच्च न्यायालय ने ए.के. गोपालन बनाम स्टेट आफ मद्रास (ए.आइ.आर.-1950-एस.सी.-पेज-27) के द्वारा प्रतिपादित किया था कि किसी की भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता उसका मौलिक अधिकार है और उसे विधि सम्मत कारणों के बिना प्रतिबन्धित नही किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय के इसी सिद्धान्त को दृष्टिगत रखकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की सात सदस्यीय खण्ड पीठ ने अमरावती के मामले में पुनः इसी सिद्धान्त को दोहराया है। अपनी न्यायिक व्यवस्था में जमानत चाहने वाले व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष जमानत प्रार्थनापत्र प्रस्तुत करने के समय स्वयं आत्मसमर्पण भी करना पड़ता है। जमानत प्रार्थनापत्र की प्रति न्यायालय के शासकीय अधिवक्ता को दी जाती है। प्रायः प्रति पाने के बाद सम्बन्धित थाने से आख्या मँगाने के लिए समय माँगा जाता है जिसके कारण प्रार्थनापत्र को निस्तारण के लिए अगले कार्य दिवस या अन्य किसी कार्य दिवस की तिथि नियत की जाती है और इस दौरान अभियुक्त को जेल भेज दिया जाता है। नित्य प्रति देखा जाता है कि अभियोजन की तर से प्रत्येक प्रार्थनापत्र का विरोध किया जाता है। प्रायः किसी सुसंगत आधार के बिना भी जमानत प्रार्थनापत्रों का विरोध अभियोजन की आदत है। करीसराज बनाम स्टेट आफ पंजाब (2000-क्रिमिनल ला जनरल-पेज-2993-पेरा-5) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वैवाहिक विवादों में सभी पारिवारिक सदस्यों को दोषी बताने की प्रवृति इन दिनों तेजी से बढ़ी है। ऐसे मामलों में अभियोजन की आख्या की प्रतीक्षा मे अभियुक्त के जमानत प्रार्थनापत्र का निस्तारण नही हो पाता और वह जेल में निरूद्ध रहने को विवश होता है। बाद में उसे जमानत मिल जाती है, परन्तु इस दौरान उसका मान सम्मान उसकी व्यक्तिगत गरिमा प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है। इसीलिये अमरावती के मामले में कहा गया है कि जमानत प्रार्थनापत्रों के निस्तारण के लिए अभियोजन को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर देने और अवसर देने के कारण अभियुक्त को जेल भेजते समय अधीनस्थ न्यायालयों को संविधान के अनुच्छेद 21 के द्वारा सभी नागरिकों को प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को दृष्टिगत रखना चाहिये। 
अमरावती और लाल कमलेन्द्र प्रताप सिंह के मामलों में पारित निर्णयों के पूर्व लतीफ बनाम स्टेट आफ उत्तर प्रदेश (1990-ए.सी.सी.-पेज-440) आदि अन्य कई मामलों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया है कि यदि किन्ही कारणों से अभियुक्त द्वारा प्रस्तुत जमानत प्रार्थनापत्र का निस्तारण उसी दिन नही हो सकता तो अभियुक्त को व्यक्तिगत बन्धपत्र लेकर जमानत प्रार्थनापत्र के निस्तारण तक  अन्तरिम जमानत दे देनी चाहिये। जमानत किसी व्यक्ति का प्रक्रियागत अधिकार नही है बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकार है। विचारण के दौरान अभियुक्त के फरार रहने की कोई आशंका न होने की स्थिति में जमानत दी जानी चाहियें। 

Saturday, 19 October 2013

हथकड़ी लगाना सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना है.............


 सम्पूर्ण देश में नित्य प्रति कचहरी परिसर के आस पास पुलिस अभिरक्षा में व्यक्तियों के हाथ में हथकड़ी और उसकी रस्सी पकड़े पुलिस कर्मियों को देखकर किसी को अचरज नही होता। सभी इसे एक सामान्य आवश्यक पुलिसिया कार्यवाही मानते है। न्यायिक अधिकारियों के सामने भी हथकड़ी पहने लोगों को प्रस्तुत किया जाता है और उसी दशा उन्हें सुनवाई के दौरान न्यायालय कक्ष में खड़ा रखा जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अमानवीय अतार्किक उत्पीड़क और संविधान के अनुच्छेद 19 एवं 21 के प्रतिकूल घोषित किया है।


आजादी के पहले अंग्रेज पुलिस अधिकारी भारतीयों की गरिमा और सम्मान को धूल धूसरित करने के दुरासय से हथकड़ी बेड़ी पहनाकर उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाया करते थे और इससे उनका अहं संतुष्ट होता था। उन्होंने अपनी इस अमानवीय कार्यवाही को विधि सम्मत बताने के लिए पुलिस अधिनियम में इसके लिए नियम भी बना लिये थे। अंग्रेजों के बनाये नियमो का अनुचित सहारा लेकर हरियाणा पुलिस ने उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति श्री ए0एस0 बैन्स को हथकड़ी पहनाकर थाने से न्यायालय लाने का दुस्साहर किया था। उच्च न्यायालय ने पुलिस की इस कार्यवाही को अमानवीय बताते हुये राज्य सरकार के विरूद्ध पेनाल्टी अधिरोपित की और पचास हजार रूपये बतौर क्षतिपूर्ति देने का आदेश पारित किया है। इस प्रकार के कई आदेशों के बावजूद सम्पूर्ण देश में स्थानीय थाना स्तरों पर पुलिस अभिरक्षा में गिरफ्तार व्यक्तियों को हथकड़ी पहनाना और फिर उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक पैदल ले जाना नित्य प्रति की सामान्य कार्यवाही है।

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री कृष्णा अय्यर ने सुनील बत्रा बनाम देलही एडमिनिस्ट्रेशन (ए.आई.आर-1978 सुप्रीम कोर्ट पेज 1678) के द्वारा सम्पूर्ण देश में जारी इस प्रथा को अमानवीय घोषित किया है। उन्होंने प्रतिपादित किया है कि हथकड़ी पहनाने से व्यक्ति की मानवीय गारिमा, सम्मान और सार्वजनिक प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है। इसके बाद प्रेमशंकर शुक्ला बनाम देलही एडमिनिस्ट्रेशन (ए.आई.आर-1980-एसी.सी. पेज 540) में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेशात्मक दिशा निर्देश जारी किये। कहा गया कि गिरफ्तार व्यक्ति को हथकड़ी पहनाना अनुच्छेद 19 एवं 21 का उल्लंघन है। हथकड़ी पहनाकर गिरफ्तार व्यक्तियों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना अमानवीय अपमानजनक और उत्पीड़क है। इससे मानवाधिकारों का हनन होता है और व्यक्ति की मानवीय गरिमा धूल धूसरित हो जाती है। निर्णय में कहा गया है कि हथकड़ी के बिन्दु पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देशों के बाद जो कोई भी  किसी को हथकड़ी पहनाकर पुलिस अभिरक्षा में कहीं ले जाता हुआ पाया जाता है तो माना जायेगा कि उसने न्यायालय के आदेश की अवमानना की है और उसे विधि के अन्य प्रावधानों के साथ साथ न्यायालय अवमान अधिनियम के तहत दण्डित किया जायेगा।

     सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेशों और आदेशात्मक दिशा निर्देशों के बावजूद पुलिस अभिरक्षा में व्यक्तियों को हथकडी पहनाकर न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने की प्रथा आज भी बेरोकटोक जारी है। स्थानीय स्तरो पर थाने या जेल में हथकड़ी पहनाकर लोगों को अपमानित करने पर कोई अंकुश नही लग सका है। मेडिकल कालेज के कुछ छात्रों को हथकड़ी लगाये जाने के विरोध में डाक्टरों की देशव्यापी हड़ताल का भी इस अमानवीय प्रथा पर कोई प्रभाव नही पड़ा है। आपातकाल के दौरान उस समय के प्रख्यात समाजवादी श्रमिक नेता श्री जार्ज फर्नाडीज को हथकड़ी पहनाकर सुप्रीम कोर्ट लाया जाता था। हरियाणा में मुख्यमन्त्री देबी लाल ने अपनी व्यक्तिगत खुन्नस के चलते निवर्तमान मुख्यमन्त्री चैधरी वंशी लाल को हथकड़ी पहनावाकर सड़क पर घुमवाया था। इस प्रकार के उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि अब पुलिस अभिरक्षा में हथकड़ी सुरक्षा कारणो से नही पहनाई जाती है बल्कि पुलिस कर्मियों की सुविधा और अहं की संतुष्टि के लिए इस प्रथा को जारी रखा जा रहा है। सार्वजनिक मुद्दों पर धरना प्रदर्शन करने वाले आन्दोलकारी स्वयं अपनी गिरफ्तारी देते है और किसी भी दशा में पुलिस अभिरक्षा से उनके भागने की कोई सम्भावना नही होती फिर भी उन्हें थाने या जेल से न्यायालय हथकड़ी पहनाकर ही लाया जाता है। खेत मजदूर चेतना संघ बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश (ए.आई.आर.-1995 एस.सी.-पेज 31) में सर्वोच्च न्यायालय ने सार्वजनिक मुद्दो पर धरना या प्रदर्शन करने वाले आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारी और उन्हें हथकड़ी लगाने की घटना पर राज्य सरकार के साथ साथ सम्बन्धित न्यायिक अधिकारी को भी फटकार लगाई थी।

आम लोगों को शोषण, अत्याचार, अन्याय, अपराध और अपराधियों से बचाना और उनकी रक्षा करना पुलिस का पवित्र कर्तव्य है। भ्रष्टाचार और अपने आपको शासक मानने की सामन्ती प्रवृत्ति के कारण सम्पूर्ण देश में पुलिस कर्मियों ने आम लोगों की रक्षा करने के अपने पवित्र कर्तव्य का परित्याग कर दिया है और खुद आम लोगों के उत्पीड़न का कारण बन गये है। आम आदमी पुलिस अभिरक्षा से भागने या अभिरक्षा के दौरान पुलिस कर्मियों को कोई क्षति पहुँचाने के बारे में सोच भी नही सकता। पुलिस कर्मियों की मिली भगत और भ्रष्टाचार के कारण अपराधी पुलिस अभिरक्षा से भागने में सफल होते है। भागने के अवसर स्वयं पुलिस कर्मी उन्हें उपलब्ध कराते है।

     सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि किसी भी व्यक्ति के विरूद्ध गम्भीर आरोप होना या गम्भीर धाराओं मे ज्यादा मुकदमें दर्ज होना हथकड़ी पहनाने का आधार नही हो सकता। स्वतन्त्र भारत में हथकड़ी पहनाने का कोई नियम नही है। हथकड़ी अपवाद स्वरूप ही पहनाई जायेगी। सुनील गुप्ता बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश (1990-एस.सी.सी. क्रिमिनल -पेज 441) में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया है कि गिरफ्तार व्यक्ति यदि खतरनाक है और पुलिस अभिरक्षा के दौरान उसके भाग जाने की सम्भावना प्रतीत होती है तो उसे थाने से मजिस्टेªट के समक्ष लाये जाने के लिए हथकड़ी पहनाने के पूर्व सम्बन्धित अधिकारी को थाने की डायरी में हथकड़ी पहनाने के कारणों को अभिलिखित करना होगा और अन्य कागजातों के साथ इसकी प्रति भी मजिस्टेªट के समक्ष प्रस्तुत करनी होगी। न्यायालय को गिरफ्तार व्यक्ति के भाग जाने की सम्भावना के बारे में सम्पूर्ण तथ्यों से अवगत कराना होगा और फिर न्यायिक अधिकारी के आदेश के अधीन हथकड़ी पहनाई जा सकती है, परन्तु पुलिस या जेल अधिकारियो को अपने मन से अपने स्तर पर किसी को भी हथकड़ी पहनाने के लिए निर्णय लेने का कोई अधिकार किसी विधि के तहत प्राप्त नही है। विभिन्न राज्यों में अंग्रेजों के बनाये पुलिस अधिनियमों में हथकड़ी पहनाने के प्रावधान थे जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री कृष्णा अय्यर द्वारा पारित निर्णय के बाद स्वतः निष्प्रभावी हो गये है और अब उनका कोई विधि अस्तित्व नही है। हथकड़ी पहनाने की कार्यवाही अब पूरी तरह विधिविरूद्ध और संविधान के अनुच्छेद 19 एवं 21 के प्रतिकूल घोषित कर दी गयी है तद्नुसार उसे किसी भी दशा में जारी नही रखा जा सकता है।

प्रायः देखा जाता है कि अस्पतालों में इलाज के दौरान बीमार बन्दियों को भी हथकड़ी पहनाकर रखा जाता है। सिटीजन आफ डेमोक्रेसी बनाम स्टेट आफ आसाम (ए.आई.आर-1996-एस.सी.- पेज 197) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने अस्पताल में बीमार बन्दियों को हथकड़ी बेड़ी लगाकर रखे जाने की घटना को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के तहत सभी को प्राप्त मानवाधिकारो का उल्लंघन बताया है। इस निर्णय के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया है कि देश के किसी भी भाग में दोषी या विचाराधीन किसी भी प्रकार के बन्दी को हथकड़ी पहनाकर अस्पताल में रखना, एक जेल से दूसरी जेल स्थानान्तरित करना या जेल से न्यायालय लाना आम लोगों को प्राप्त संवैधानिक अधिकारों के प्रतिकूल है, परन्तु सर्वोच्च न्यायालय की इस उद्घोषणा या इसके पूर्व जारी आदेशात्मक दिशा निर्देशों का स्थानीय स्तर पर पालन नही किया जा रहा है और सम्बन्धित न्यायिक अधिकारी से अनुमति प्राप्त किये बिना नित्य प्रति गिरफ्तार व्यक्तियों को पुलिस अभिरक्षा में हथकड़ी पहनाकर लाया जाता है और हथकड़ी लगाये रखकर न्यायिक अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत भी किया जाता है। एलटेमेस एडवोकेट बनाम यूनियन आफ इण्डिया आदि मे देलही हाई कोर्ट ने सरकार को हथकड़ी के सम्बन्ध में स्पष्ट दिशा निर्देश जारी करने के लिए आदेशित किया है परन्तु केन्द्र सरकार या राज्य सरकारो ने इस दिशा में अपने स्तर पर अभी तक कोई पहल नही की है। सरकारो का यही रवैया पुलिस कर्मियों और जेल अधिकारियों को मनमानी करने की छूट देता है।

आम लोगों के प्रति असंवेदनशील रवैये के कारण पुलिस कर्मी या जेल अधिकारी अपनी अभिरक्षा में बन्दियों को मनुष्य नही मानते और हथकड़ी बेड़ी रस्सी में उसे बाँधकर लाने ले जाने में गर्व महसूस करते है। दुःखद सच्चाई है बन्दियों के मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देश थाने या जेल की चैखट पर दम तोड़ देते है। किसी को हथकड़ी पहनाकर थाने या जेल से न्यायालय लाना न्यायालय की अवमानना की परिधि में आता है परन्तु अभी तक किसी पुलिस कर्मी या जेल अधिकारी के विरूद्ध न्यायालय अवमान अधिनियम के तहत कार्यवाही नही की गई है।

Sunday, 13 October 2013

सड़क दुर्घटनाओ को बोनान्जा बनने से रोके.........

अब सड़क दुर्घटनाये में दी जाने वाली क्षतिपूर्ति मृतक आश्रितों की जगह बिचैलियो के लिए बोनान्जा बन गई है। सामाजिक सुरक्षा की यह व्यवस्था कुछ लोगों के लोभ और अनुचित कमाई का साधन बन गई है। क्षतिपूर्ति की राशि का बँटवारा होता है और आधे से भी कम घायल या मृतक आश्रित के हिस्से मे आता है। बड़े पैमाने पर गिरोहबन्दी करके पोस्टमार्टम हाऊस या थाने से मृतक के नाम पते की जानकारी करके न्यायालयों मे क्लेम पिटीशन दाखिल किये जाते है। फर्जी कथानक और बनावटी कागजात प्रस्तुत करके क्षतिपूर्ति प्राप्त की जा रही है। दिसम्बर जनवरी महीने में रात्रि 12 बजे से सुबह 4 बजे के मध्य घटित दुर्घटनाओं में भी अज्ञात वाहन के विरूद्ध दूसरे दिन प्रथम सूचना रिपार्ट दर्ज होने के बावजूद विवेचक साँठ गाँठ करके किसी न किसी वाहन के विरूद्ध आरोप पत्र प्रेषित कर देते है और यहीं से क्लेम का खेल और अनुचित कमाई का सिलसिला शुरू हो जाता है।

           अपने देश में सर्वाधिक मौतें सड़क दुर्घनाओं में होती है। वर्ष 2011 में 4,97,000 और वर्ष 2012 में 4,90,383 दुर्घटनायें घटित हुई है। जिसमें क्रमशः 142485 और 138258 लोग मृत्यु का शिकार हुये है। कैंसर जैसी असाध्य कही जाने वाली बीमारी से मरने वालों की तुलना में उससे कही ज्यादा लोग सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु का शिकार होते है, परन्तु सड़क सुरक्षा और यातायात प्रबन्ध आज भी सरकारो की प्राथमिकता सूची में नही है। यातायात प्रबन्ध के नाम पर शहरी क्षेत्रों के गली मोहल्लों में स्थानीय पुलिस दुपहिया वाहनों की नित्य प्रति तलाशी लेती है, जबकि दुपहिया वाहनों से घटित दुर्घटना में जनहानि प्रायः नही होती। शहरी क्षेत्रो में शराब पीकर वाहन चलाने वाले कार चालकों की तेजगति और ओवरटेकिंग को नियन्त्रित करने का कोई प्रयास नही किया जाता।
केन्द्रीय मन्त्री श्री आस्कर फर्नाडीज ने पिछले दिनों नेशनल रोड सेफ्टी काउन्सिल को सम्बोधित करते हुये बताया है कि नेशनल रोड सेफ्टी पालिसी 2010 के एप्रूब्ड कर दिया गया है, परन्तु पालिसी के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए उन्होंने कोई समयबद्ध रूपरेखा प्रस्तुत नही की जबकि सड़क दुर्घटनायें जनहानि के साथ साथ देश के अर्थतन्त्र को भी कुप्रभावित करती है। कुल जी.डी.पी. की तीन प्रतिशत क्षति सड़क दुर्घटनाओं के कारण होती है।

शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा सड़क दुर्घटनायें होती है। शहरी क्षेत्रों में 46.5 प्रतिशत और गा्रमीण क्षेत्रामें में 53.5 प्रतिशत दुर्घटनाये घटित होती है। ग्रामीण क्षेत्रों मे यातायात कोई समस्या नही है। चालकों की अपनी लापरवाही दुर्घटनाओं का कारण बनती है। करीब 77.5 प्रतिशत दुर्घटनायें वाहन चालकों की लापरवाही का प्रतिफल है। तेज गति और ओवर टेकिंग वाहन चालको की आदत बन गई है। केवल कानून और सजा का भय उनकी इस आदत को नियन्त्रित कर सकता है। मोटर वाहन अधिनियम और भारतीय दण्ड संहिता में इस आशय के प्रावधान है। सड़क दुर्घटनाओं के दोषियों को सजा दिलाकर उन्हें सबक सिखाना किसी की प्राथमिकता में नही है। विवेचना की औपचारिकता पूरी करके साक्ष्य संकलित की जाती है। वैज्ञानिक तरीके से साक्ष्य संकलन का कोई तरीका आज तक विकसित नही हो सका है। प्रत्येक शहर में फारेन्सिक लैब बनायी गयी है, परन्तु आपराधिक मामलों की विवेचना में उनका कोई उपयोग नही है। फर्जी प्रत्यक्षदर्शी खोजना अपने देश के विवेचको की विशेषता है। विवेचक मरे व्यक्तियों का बयान लिखकर फाइनल रिपोर्ट या अरोपपत्र प्रेषित कर देते है जिसके कारण केवल दो प्रतिशत आरोपियों को सजा मिल पाती है। दुर्घटना में घायल या मृतक के आश्रित केवल क्षतिपूर्ति की चिन्ता करते है। दोषी वाहन चालक का विचारण और उसको उसके किये की सजा दिलाने के लिये प्रयास करना उनकी प्राथमिकता सूची मे नही है। 


          आर.टी.ओ. कार्यालयों में फैले भ्रष्टाचार के कारण ड्राइविंग लायसेन्स आसानी से मिल जाता है। दुपहिया वाहन चलाने के लिए अकुशल चालकों को भारी वाहन ड्राइव करने का लायसेन्स मिल जाना आम बात है। ऐसे ही वाहन चालक आम राहगीर से उसका जीवन छीन लेते है। ड्राइविंग लायसेन्स निर्गत करने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना आवश्यक है। कम से कम भारी वाहनों के ड्राइविंग लायसेन्स के लिए प्रशिक्षण की अनिवार्यता लागू करना जरूरी हो गया है। किसी भी प्रकार की दुर्घटना कारित होने पर उसकी प्रविष्टि सम्बन्धित वाहन चालक के ड्राइविंग लायसेन्स पर अंकित करने की व्यवस्था भी लागू की जानी चाहियें ताकि विचारण के दौरान न्यायालय इस तथ्य को अपने संज्ञान में ले सके। दिनांक 31.05.2010 और दिनांक 18.05.2011 को सय्यद बाबा मजार कैन्ट कानपुर के पास अलग अलग घटित दुर्घटनाओं के लिए विक्रम टेम्पों पंजीकरण संख्या यू.पी. 78 बी. 3708 को दोषी बताया गया। प्रथम सूचना रिपोर्ट भी दर्ज है, परन्तु टेम्पों चालक के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही हुई है। वास्तव में एक बार लायसेन्स जारी हो जाने के बाद उसके निरस्त होने का खतरा नही रहता। दूसरी या तीसरी दुर्घटना के बाद ड्राइविंग लायसेन्स निरस्त करने का नियम बनाया जाना चाहिये।

           सड़क दुर्घटनाओं में मृतक आश्रितों को मिलने वाली क्षतिपूर्ति का बँटवारा बढ़ता जा रहा है। क्लेम पिटीशन अनुचित कमाई का साधन बन गये है, परन्तु सरकारों के स्तर पर सड़क सुरक्षा और यातायात प्रबन्ध के लिए अभी तक कोई एकीकृत विधि नही बन सकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं पहल करके सड़क दुर्घटनाओं में घायलो का जीवन बचाने के लिए पण्डि़त परमानन्द कटारा बनाम यूनियन आफ इण्डिया (क्रिमिनल रिट पिटीशन संख्या 27 सन 1988 दिनांक 28.08.1989, ए.आई.आर. 1989 सुप्रीम कोर्ट पेज 2139) के द्वारा आदेशित किया है कि विधिक औपचारिकताओं के पूरा होने की प्रतीक्षा किये बिना घायल को तत्काल चिकित्सकीय इलाज उपलब्ध कराया जाये। भारतीय दण्ड संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता और मोटर वाहन अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नही है जो प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज हुये बिना किसी डाक्टर को दुर्घटना में घायल व्यक्ति का चिकित्सकीय इलाज करने से रोकता हो। किसी भी दशा में घायल का जीवन बचाना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश के बाद केन्द्र सरकार ने मोटर वाहन अधिनियम को संशोधित करके अधिनियम संख्या 54 सन् 1994 के द्वारा धारा 134 की प्रकृति को आदेशात्मक बना दिया है। इस धारा के तहत अब घायल को तत्काल निकटतम अस्पताल पहुँचाना ड्राइवर और मालिक के लिए आवश्यक हो गया है। चिकित्सकों के लिए भी सड़क दुर्घटना में घायलों का इलाज करना जरूरी है। वें अब एफ.आई.आर. दर्ज न होने के आधार पर किसी घायल का इलाज करने से इन्कार नही कर सकते। इलाज करने से इन्कारी अब मोटर वाहन अधिनियम की धारा 187 के तहत दण्डनीय अपराध है। 3 माह की सजा और 500/- रूपया जुर्माना या दोनों और दूसरी बार इलाज से इन्कार करने पर 6 माह की सजा और एक हजार रूपये जुर्माने का प्रावधान अधिनियम में है।

         तीस प्रतिशत से ज्यादा दुर्घटनाओं में 15 से 24 वर्ष की आयु वर्ग के युवा मृत्यु का शिकार होते है। इसमें बड़ी संख्या कक्षा 11 व 12 के  विद्यार्थियों की है। इन दुर्घटनाओं को माता पिता अपने स्तर पर नियन्त्रित कर सकते है। कक्षा ग्यारह बारह मे पढ़ने वाले बच्चों को केवल उनके शौक के लिए तेज गति की बाइक खरीद देने की बढ़ती प्रवृत्ति भी दुर्घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। दिल्ली के पूर्व स्वास्थ्य मन्त्री डा. हर्ष वर्धन ने एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई के अन्तिम वर्ष में मोटर साइकिल ली थी, जबकि उनके कई साथी द्वितीय वर्ष में ही मोटर साइकिल का आनन्द ले रहे थे। वास्तव में एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई मे अंतिम वर्ष के विद्यार्थियों को अलग अलग विभागों में जाना पड़ता है, जहाँ पैदल पहुँच पाना मुश्किल होता  है। अर्थात मोटर साइकिल आवश्यकता के लिए खरीदना चाहियें। माता पिता को कठोरता से कक्षा 12 तक के विद्यार्थियों को साइकिल या स्कूल बस से विद्यालय जाने के लिए मजबूर करना चाहियें। इस प्रकार के प्रयासों से तीस प्रतिशत सड़क दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है। 

           मोटर वाहन अधिनियम की धारा 158 (6) में प्रावधान है कि दुर्घटना की सूचना अंकित किये जाने के तीस दिन के अन्दर थाना प्रभारी दुर्घटना से सम्बन्धित सम्पूर्ण विवरण मोटर एक्सीडेन्ट क्लेम ट्रिब्यूनल के समक्ष प्रेषित करें। इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई बार दिशा निर्देश जारी किये है परन्तु थाना स्तर पर उसका अनुपालन नही किया जा रह है जबकि दिशा निर्देशों की प्रकृति आदेशात्मक है। थाना स्तर पर दुर्घटना से सम्बन्धित सुसंगत सूचनाओं को संकलित करने से क्षतिपूर्ति मामलों में फर्जीवाड़ा को काफी हद तक रोका जा सकता है। 

        दुर्घटना के तत्काल बाद पंचायत नामा से पोस्ट मार्टम की अवधि में मृतक के परिजन सम्बन्धित थाना प्रभारी के सम्पर्क मे आ जाते है। इसलिए मृतक की आयु आय और उसके आश्रितों की जानकारी उसे आसानी से हो सकती है। उसी समय यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किस वाहन से दुर्घटना कारित हुई है अर्थात सब कुछ स्पष्ट हो जाता है और फर्जीवाड़ा की गुन्जाइस समाप्त हो जाती है। अपने पिता के नाम पंजीकृत कार को चला रहे पुत्र की दुर्घटना में मृत्यु हो जाने पर पुत्रवधू ने अपने पति को अपने ससुर का ड्राइवर कर्मचारी बताकर क्षतिपूर्ति का दावा किया है। इसी प्रकार दिनांक 20.01.2010 को रात्रि में घटित दुर्घटना में अज्ञात वाहन के विरूद्ध प्र्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाये जाते समय किसी को वाहन का नम्बर पता नही था परन्तु बाद में नम्बर खोज लिया गया। थाना प्र्रभारी के स्तर पर एक्सीडेन्ट इनफारमेशन रिपार्ट भेजने की अनिवार्यता लागू हो जाने के बाद इस प्रकार की सोची समझी फर्जी याचिकाओं पर स्वतः रोक लग सकेगी और वास्तविक पीडि़त को कुछ भी व्यय किये बिना और अन्य किसी को हिस्सेदारी दिये बिना क्षतिपूर्ति प्राप्त हो सकेगी।

              थाना स्तर पर एक्सीडेन्ट इनफारमेशन रिपार्ट तैयार न करने कारण मोटर दुर्घटनाओं में फर्जी प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य आसानी में अदालत में प्रस्तुत हो जाती है। पोर्ट ब्लेयर (गोवा) में गोल घर चैराहे पर घटित सड़क दुर्घटना में एयरफोर्स कर्मी की मृत्यु की क्षतिपूर्ति का क्लेम पिटीशन कानपुर नगर में दाखिल है। इस दुर्घटना की अपने अपने स्तर पर अलग अलग विवेचना सिविल पुलिस और सेना पुलिस ने की है, परन्तु कानपुर में पिटीशन की सुनवाई के दौरान एक कथित प्रत्यक्षदर्शी साक्षी न्यायालय के समक्ष उपस्थित हुआ और उसने बताया कि वकील साहब के बस्ते पर चर्चा हो रही थी तभी हमे याद आ गया कि दुर्घटना मेरे सामने हुई थी। इस प्रकार के साक्षी पूरी क्षतिपूर्ति प्रक्रिया में दीमक लगा रहे है। बढ़ती सड़क दुर्घटनाओं को बोनान्जा मानकर ज्यादा से ज्यादा लाभ अर्जित करने वाले तत्वों का संघटित गिरोह सक्रिय हो गया है। जो दुर्घटना के बाद भोले भाले आश्रितों को सब्जबाग दिखाते है। फर्जी वाहन नम्बर ड्राइवर ड्राइविंग लायसेन्स आदि सुसंगत कागजात उपलब्ध कराते है और उसकी मुँहमाँगी कीमत वसूलते है और बाद में क्षतिपूर्ति की राशि का भी बँटवारा करते है।

Monday, 7 October 2013

तय करनी होगी मुकदमा दाखिले के दिन निर्णय की तिथि.....

सिविल लिटिगेशन के त्वरित और समयबद्ध निस्तारण के लिए मुकदमा दाखिल होने के दिन ही निर्णय की तिथि निर्धारित किया जाना आवश्यक हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने राम रामेश्वरी देवी एण्ड अदर्स बनाम निर्मला देवी एण्ड अदर्स (2011-3-जे.सी.एल.आर.-पेज 518-एस.सी) के द्वारा निर्देश जारी किया है कि अधीनस्थ न्यायालय दाखिले के समय विचारण का सम्पूर्ण शिडयूल्ड निर्धारित करे और लिखित कथन से लेकर निर्णय पारित होने की अवधि में प्रत्येक प्रक्रम के लिए तिथियाँ नियत कर दे। आवश्यक प्रकीर्ण प्रार्थनापत्रों का निस्तारण इसी अवधि में ही किया जाये और मूल कार्यो के लिए निर्धारित तिथियों पर नियत कार्यवाही अपवाद स्वरूप ही स्थगित की जाये, परन्तु निर्णय की तिथि में किसी भी दशा में परिवर्तन न किया जाये।
अदालतों के द्वारा लम्बे समय तक फैसले न हो पाने के कारण अब मकान मालिक अपना घर या फ्लेट किसी को रहने के लिए किराये पर नही देते और ताला बन्द रखना पसन्द करते है, जबकि बड़े शहरो और महानगरों में खाली पड़े इन आवासो से लाखों लोगों की तात्कालिक आवासीय जरूरतो को पूरा किया जा सकता है। किसी सामान्य व्यक्ति को विश्वास ही नही होता कि लीज या लायसेन्स की अवधि समाप्त हो जाने के बाद उनको अपनी जरूरत के लिए अपने मकान का शान्तिपूर्ण कब्जा एवं दखल वापस मिल जायेगा।
प्रायः देखा जाता है कि लीज या लायसेन्स अपनी अवधि समाप्त होने के बाद लिटिगेशन का कारण बन जाती है। अपनी अदालतंे लीज या लायसेन्स से सम्बन्धित मुकदमों से भरी पड़ी है। प्रत्येक दिन आधे से ज्यादा मुकदमें लीज या लायसेन्स से सम्बन्धित विवादों में निषेधाज्ञा हेतु दाखिल किये जाते है। घरेलू नौकर, माली, वाचमैन, केयर टेकर, सुरक्षागार्ड जिन्हें भवन में कर्मचारी होने के नाते रहने की अनुमति दी जाती है। अनुमति समाप्त हो जाने के बाद स्वेच्छा से अपने अध्यासन वाला भाग खाली नही करते बल्कि किरायेदारी के फर्जी कागजात बनाकर निषेधाज्ञा वाद दाखिल कर देते है और कई बार उनके पक्ष में निषेधाज्ञा आदेश भी पारित हो जाता है। अदालतों की लम्बी काजलिस्ट और प्रकीर्ण प्रार्थनापत्रों के निस्तारण में समय व्यय हो जाने के कारण ऐसे मुकदमों का निस्तारण टलता रहता है। वर्षों बाद मुकदमें के निर्णीत होने पर ऐसे अवैध कब्जेदारों या आदतन वादकारी को अवैध अध्यासन बनाये रखने के लिए दण्डित नही किया जाता और कई बार तो उन्हें अवैध कब्जा छोड़ने के एवज में अच्छी खासी धनराशि मिल जाती है और उसी कारण अवैध कब्जेदारों का मनोबल बढ़ा हुआ है।
वर्ष 2003 में कानपुर के कैन्टूमेन्ट बोर्ड ने भारत सेल्स कारपोरेशन नाम की फर्म को कान्ट्रेक्ट पर सिविल कार्य का आदेश दिया। काम की जरूरतो के लिए सामान रखने हेतु भारतीय सेना की जमीन पर एक कमरा भी दे दिया। इस कान्टेªक्टर को उसी प्रकृति के कई और काम भी आंवटित हो गये, जिसके कारण कान्ट्रेक्ट समाप्त होते ही कमरा खाली नही कराया गया। इस अवधि में सम्बन्धित अधिकारी स्थानान्तरित हो गये और फिर उसने कमरा खाली नही किया। नोटिस दी गई और नोटिस को वाद कारण बनाकर कान्ट्रेक्टर ने सिविल न्यायालय के समक्ष निषेधाज्ञा वाद दाखिल कर दिया और उसके पक्ष में एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पारित हो जाने के कारण सेना की भूमि पर उसका अवैध कब्जा बना हुआ है और दस वर्ष की लम्बी अवधि बीत जाने के बावजूद वाद में अभी तक वाद बिन्दु भी निर्धारित नही हो सके है।
अपने पक्ष में एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पा लेने में सफल हो जाने के बाद वादकारी उसे किसी न किसी बहाने अनन्त काल तक लम्बित बनाये रखने का प्रयास करता है। अदालतों में प्रत्येक दिन सौ पचास मुकदमों की लम्बी काज लिस्ट होने और प्रत्येक स्तर पर न्यायिक अधिकारियों की कमी के कारण गुणदोष के आधार पर सुनवाई नही हो पाती और एक दो महीने बाद की कोई नई तिथि नियत हो जाती है। गुणदोष के आधार पर मुकदमों के निस्तारण के लिए प्रतिदिन कम से कम पाँच गवाहों का परीक्षण सुनिश्चित कराया जाना जरूरी है। साक्ष्य के प्रक्रम पर प्रकीर्ण प्रार्थनापत्र प्रस्तुत किये जाते है। गवाही टल जाती है और उसके कारण साक्षी हतोत्साहित होता है। गुणदोष के आधार पर मुकदमों के निस्तारण में अवरोध उत्पन्न करने के आशय से प्रस्तुत प्रार्थनापत्रों पर समुचित अवसर और प्राकृतिक न्याय के हित मे हैवी कास्ट अधिरोपित नही हो पाती। सौ रूपये पचास रूपये की कास्ट का आदतन वादकारी पर कोई असर नही पड़ता। इस प्रकार की स्थितियों में वास्तविक पीडि़त और सही पक्षकार हतोत्साहित होता है और फिर वह अपने विधिपूर्ण अधिकारों से समझौता करने को विवश हो जाता है।
असत्य कथनों और फर्जी कागजातों के आधार पर दाखिल निषेधाज्ञा वादों की बढ़ती संख्या सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में है और उसने कई अवसरों पर स्पष्ट दिशा निर्देश जारी किये है परन्तु अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश लम्बे समय से लागू होने की प्रतीक्षा में दम तोड़ने लगे है। कामन काज और राजदेव शर्मा के मामलों में जारी दिशा निर्देशों की अब चर्चा भी बन्द हो गई है जबकि वे आज भी उतने ही सुसंगत और प्रासंगिक है। सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः (2011-3-जे.सी.एल.आर.-पेज 518-एस.सी.) के द्वारा स्पष्ट किया है कि प्लीडिंग और डाक्यूमेन्ट सिविल वादों का आधार होते है। मुकदमा दाखिल होने के समय इनका बेरीफिकेशन गहनता से किया जाना चाहियें। कोई भी आदेश करने के पूर्व डाक्यूमेन्ट की डिस्कवरी और प्रोडक्शन पर जोर देना चाहिये। इस प्रक्रिया से वास्तविक वाद बिन्दु के निर्धारण और फिर विवाद के न्यायपूर्ण समाधान मे सहायता मिलती है। किसी भी प्रकृति का सिविल वाद दाखिल होने के समय सामान्य नियमावली (सिविल) के तहत न्यायालय के मुन्सरिम समस्त प्रपत्रों की जाँच करके उस पर अपनी आख्या प्रस्तुत करते है और उसी आधार पर मुकदमा दर्ज रजिस्टर होता है। वाद संख्या आवंटित होती है। अपने स्तर पर कुशलता आर्जित करके मुन्सरिम बनने वाले लिपिक सेवानिवृत्त हो चुके है। पदोन्नति में पक्षपात और प्रशासनिक कारणों से आये दिन के स्थानान्तरण से व्यथित कर्मचारी अब अपने स्तर पर मुन्सरिम के लिए अपेक्षित कुशलता अर्जित करने का प्रयास नही करते और उसके कारण कमोवेश सभी जनपदो मे इस पद की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वहन काम चलाऊ व्यवस्था के तहत किया जा रहा है। मुन्सरिम को सभी विधियों के प्रक्रियागत नियमों की जानकारी होनी चाहिये। उसके नियमित प्रशिक्षण की कोई एकीकृत व्यवस्था न होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रक्रियागत सुधारों के लिए जारी दिशा निर्देशों का अनुपालन नही हो पा रहा है। मुन्सरिम की अकुशलता के कारण सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 के तहत पारित माध्यस्थम पंचाटों के प्रवर्तन के लिए इजरा वादों के दाखिले के समय स्टाम्प डयूटी के भुगतान को लेकर अलग अलग जनपदों मे अलग अलग नियम लागू है। कही स्टाम्प डयूटी देय है और कही देय नही है।
सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों के अनुकूल दाखिले के समय समस्त प्रपत्रों का बेरीफिकेशन न होने के कारण अनावश्यक मुकदमेबाजी बढ़ती है। भारत सरकार के एक प्रतिष्ठान में नौकरी के लिए प्रेषित आवेदन के रिजेक्शन को उपभोक्ता विवाद बताकर उपभोक्ता फोरम शाहजहाँपुर के समक्ष परिवाद दाखिल किया गया है। नौकरी के आवेदन पर विचार करने या न करने का विवाद उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की परिधि में नही आता। परिवाद की ग्राहृता के विरूद्ध भारत सरकार की आपत्ति का निस्तारण पविादी के स्थगन प्रार्थनापत्र के कारण नही हो पा रहा है। प्रारम्भिक स्तर पर मुन्सरिम आख्या के समय खारिज होने वाला परिवाद पिछले एक वर्ष से ज्यादा समय से लम्बित है। जनपद कानपुर के धार्मिक महत्व वाले बिठूर में ध्रुवटीला की जमीन को अपनी पैतृक सम्पत्ति बताकर किसी मधुकर राव मोघे ने अदालत में निषोधाज्ञा वाद दाखिल कर दिया जबकि ध्रुव टीला और उसके आसपास की 4 एकड़ जमीन सड़क और लगे 39 पोलो को तत्कालीन संयुक्त प्रांत सरकार के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर ने  नोटिफिकेशन संख्या यू.पी.-213/एम 357/ दिनांक 01 फरवरी 1912 के द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित किया है और उस समय वहाँ मधुकर राव मोघे का कोई पूर्वज या अन्य कोई नही रहता था। हलाँकि अदालत ने मुकदमा खारिज कर दिया है परन्तु इन उदाहरणों से इतना तो तय है कि अपनी अदालतों में आदतन वादकारी असत्य तथ्यों और फर्जी कागजातों के आधार पर किसी के भी विधिपूर्ण अधिकारों का हनन करके मुकदमा दाखिल करने और फिर अपने पक्ष में एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पारित करा लेने मे सफल हो जाते है। ऐसे वाद कारियों पर प्रभावी अंकुश लगाने और उन्हें दण्डित करके अपनी न्यायिक व्यवस्था के प्रति आम लोगों के विश्वास को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों का अनुपालन आवश्यक है। न्यायिक सुधारों के लिए और ज्यादा प्रतीक्षा देश और समाज के व्यापक हितो के प्रतिकूल है।