Tuesday, 22 May 2018

किसे दोष दें सब जस के तस


किसे दोष दें सब जस के तस
चुनाव प्रचार किसी भी दल के लिए अपनी रीति नीति के प्रसार प्रचार का सशक्त माध्यम होता है । " हर हाथ को काम , हर खेत को पानी " संसोपा ने बाँधी गाँठ, पिछड़े पायें सौ मे साठ " " दीपक मे तेल नही, सरकार चलाना खेल नही " " खा गई राशन , पी गई तेल , ये देखो इन्दिरा का खेल " " नेहरू तेरे राज मे , पुलिस डकैती करती है " जाति तोडो दाम बाॅधो " जैसे नारों के बल पर सभी राजनैतिक दल आम मतदाताओं को अपने प्रति आकर्षित करते थे । 1977मे विधान सभा चुनाव के लिए कानपुर मे आयोजि जन सभा मे अटल जी ने कहा था कि कुर्ता पहनाया है तो अब पैजामा भी पहनाओ अर्थात लोकसभा जिताया है तो अब विधान सभा भी जिताओ।
मेरे कहने का आशय यह है कि सभी दलों के नेता विशेषकर राष्ट्रीय नेता अपने विरोधी पर निजी हमले नही करते थे। सबके सब अपनी विचारधारा के आधार पर वोट मांगते थे । वास्तव मे चुनाव प्रचार का यही सही तरीका है । अपने कानपुर मे लोकसभा के लिए निर्दलीय ( मूलतः सी पी आई ) एस एम बनर्जी और सी पी एम के राम आसरे जनसंघ के बाबूराम शुक्ल और कांग्रेस के गणेश दत्त बाजपेयी चुनाव लड रहे थे । सभी की सभाओं मे जबरदस्त भीड होती थी लेकिन भाडे के लोग नही आते थे । यह चुनाव एस एम बनर्जी और राम आसरे के सारगर्भित वैचारिक भाषणों के लिए याद किया जाता है ।
छात्र संघ चुनावों मे भी हम लोग 210 दिन की न्यूनतम पढाई, एकेडेमी कैलेण्डर का प्रकाशन परीक्षा समाप्ति के 30 दिन के अन्दर रिजल्ट की घोषणा जैसे कार्य क्रम की चर्चा करके वोट माॅगते थे । लिंगदोह कमेटी की बहुत सी अनुशंसायें हम लोगों द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान की गई घोषणाओं पर आधारित हैं बी एच यू मे चंचल , भरत सिह जे एन यू मे प्रो आनन्द कुमार, प्रकाश कारत, गोरखपुर मे शिव प्रताप शुक्ल; रवींद्र सिह , लखनऊ विश्व विद्यालय मे सत्य देव त्रिपाठी , डी पी बोरा बिनधयवासिनी जी इलाहाबाद मे बृजे श शर्मा, अनुग्रह नारायण सिंह एक दूसरे के कट्टर विरोधी रहे है लेकिन सबके सब मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते थे । आज के हमारे राजनेताओं ने तो मर्यादाओं को तार तार कर दिया है । सबके सब अगले चुनाव की चिंता मे मगन है, किसी को अगली पीढ़ी की कोई चिन्ता नही है ।कई बार लगता है , क्या हमारे राजनेता विचार शून्य हो गये है ? या उनहोंने मान लिया है , कि अब विचार का कोई मतलब नही रह गया है । लोग विचार को नही नेता की प्रायोजित छवि से प्रभावित होकर वोट देते है । मै आपको बताऊँ, छात्र संघ लोकतंत्र की नर्सरी हुआ करते थे , वहाँ धीरे-धीरे " गैर छात्र पेशेवर छात्र नेताओं " का वरचसव बढने लगा , परिणाम आम छात्रों ने उसमे अपनी सहभागिता कभ कर दी और अब छात्र संघ महत्वहीन हो गये है इसी तरह यदि देश की राजनीति मे विचार शून्यता का प्रभाव कम नही किया गया तो आम जनमानस " नोटा " विकल्प चुन लेगा और यह स्थिति किसी भी दशा मे लोकतंत्र के लिए हितकर नही होगी।
टिप्पणियाँ
Dinesh Yadav निर्बाध रूप से आप हमको जगाते रहें भाई जी सुंदर राधे राधे
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Deepak Sootha उस दौर की सटीक व्याख्या। अब सड़क छाप अपराधी मैदान में जूतम पैजार कर रहे हैं। ये एकदम स्तरहीन हैं।
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दिनेश दुबे अब विचारों की कोई अहमियत नही अब तो एक सूत्रीय कार्यक्रम पद, स्तर से गिर सिर्फ झूठ की बुनियाद पर जनता को यह बताना है कि सामने वाले की शर्ट कितनी अधिक दागनुमा और गंदी है ।मूर्ख बनाना रह गया है ।गरिमा, मर्यादा जैसे शब्द तो अब शब्दकोष से हट ही जाना चाहिए ।
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Ghanshyam Tripathi Fully Agreed to you Sir
आप को पूरी तरह से सहमत सर
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अपने आप अनुवाद किया गया
2 सप्ताह
Prakash Sharma Kaushal Sharmaजी ये पोस्ट यदि आपने तब लिखी होती जिस दिन राहुल गांधी ने प्रधान मंत्री को लाशों का सौदागर कहा था,, या तब लिखी होती जब सोनिया ने नरेंद्र भाई को मौत का सौदागर कहा था, तब लिखा होता जब भारत का भ्रष्टतम नेता सजायाफ्ता लालू यादव नरेंद्र मोदी को मंच से मुंह चिढ़ाता था तो लगता कि आप वास्तव में सार्वजनिक जीवन की भाषा शैली के प्रति चिंतित है, लेकिन राहुल गांधी के पीएम को अभद्र अंदाज में चुनौती देने के बाद पीएम का उस पर जवाब देना आपको स्तर सुधारने के लिए प्रेरित कर रहा है यह आश्चर्य जनक और पूर्वाग्रही लगता है
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Ganga Prasad Yadav स्तर तो राजनीति का गिरता ही गया राजनीतिक लाभ सत्ता दल को ही मिलता है सत्ता मे रहते हुए कांग्रेस ने देश को क्या दिया? राहुल गांधी जैसी सोच का नेतृत्व ? जिसने शायद बिना पढे राजशाही अंदाज में मन मोहन सिंह सरकार के निर्णय को फाड़ने का दुस्साहस किया था क्या यही सही है ?सौ में साठ हमारा है! बाकी मे बंटवारा है? तिलक,तराजूऔर तलवार का नारा/सोच सही है? समाजवाद की अवधारणा केवल सैफई तक ही सीमित है ? वास्तविकता के धरातल पर सब नंगे हो गये है सबके दोहरे चरित्र है!पुरानी पार्टी, दल नेताओ के नारे स्लोगन से बस आपकी याददाश्त उन्हे सहेजने के लिए पांच,दस साल बाद याद दिलाते रहने के लिए आप को कर्मशील मानेंगे बस?
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Rakesh Bajpai वह क्या निर्णय था मनमोहन सिंह का।बताने का कष्ट करेंगे ।
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Kaushal Sharma सटीक शब्दो का चयन आपने किया है और उसके माध्यम से एक सार्थक संदेश भी दिया है आपने । हार्दिक आभार
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Rakesh Bajpai दुर्भाग्य है आजादी के बाद सैद्धान्तिक टकराहट कम होती गयी।व्यक्तिवादी टकराहट बढती गयी।जिसके कारण गिरावट का दौर बढता गया।राजनैतिक शिक्षण का अभाव रहा राजनैतिक लोग हाशिये पर हो गये।
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Sudhakar Mishra किसे दोष दें सब जस के तस
कोई चार पांच कोई दस में दस
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Kamlesh Singh मूल कारण राजनीति मे साम्प्रदायिक सोच का बढना राम मंदिर तथा मंडल आयोग वीपी सिंह का राजनीति मे कमजोर होना,समाजवादियो कासमाजिक इनजीनिररिगं जो कि कुछ हद तक फिरकापरस्त ताकतो को मजबूत करना ही था,साथसाथ पैसा और बाहुबलियो की पूछ बढती गयी सोच ओर सिद्धाँत दूसरे और तीसरे नम्बर पर पहुच गये यहा तक कि अब केवल बाहू बली ही रह गये गिरावट का मूल कारण बन गया।
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Narendra Kumar Yadav कौशल जी हम और आप प्रेकटिस्ग वकील है छात्र राजनीति से निकल कर आये है।कचेहरीकी फीस फकड से ज्यादा हैसियत है।
ये तमाम लौडे M,p,
M,L,A CX xzबन गये है तो क्या।
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Kuldeep Saxena कौशल जी अब विचार शून्य लोग ही नेता बनाए जारहे हैं।विचार वान लोग कार्पोरेट को नहीं भाते।यदि किसी दल ने लोकप्रियता या मजबूरीवश जमीनी नेता को टिकट दे भी दिया तो यह कार्पोरेट /माफिया उसे हरवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं।यह छिपा नहीं है।
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