चुनाव प्रचार किसी भी दल के लिए अपनी रीति नीति के प्रसार प्रचार का सशक्त माध्यम होता है । " हर हाथ को काम , हर खेत को पानी " संसोपा ने बाँधी गाँठ, पिछड़े पायें सौ मे साठ " " दीपक मे तेल नही, सरकार चलाना खेल नही " " खा गई राशन , पी गई तेल , ये देखो इन्दिरा का खेल " " नेहरू तेरे राज मे , पुलिस डकैती करती है " जाति तोडो दाम बाॅधो " जैसे नारों के बल पर सभी राजनैतिक दल आम मतदाताओं को अपने प्रति आकर्षित करते थे । 1977मे विधान सभा चुनाव के लिए कानपुर मे आयोजित जन सभा मे अटल जी ने कहा था कि कुर्ता पहनाया है तो अब पैजामा भी पहनाओ अर्थात लोकसभा जिताया है तो अब विधान सभा भी जिताओ।
मेरे कहने का आशय यह है कि सभी दलों के नेता विशेषकर राष्ट्रीय नेता अपने विरोधी पर निजी हमले नही करते थे। सबके सब अपनी विचारधारा के आधार पर वोट मांगते थे । वास्तव मे चुनाव प्रचार का यही सही तरीका है । अपने कानपुर मे लोकसभा के लिए निर्दलीय ( मूलतः सी पी आई ) एस एम बनर्जी और सी पी एम के राम आसरे जनसंघ के बाबूराम शुक्ल और कांग्रेस के गणेश दत्त बाजपेयी चुनाव लड रहे थे । सभी की सभाओं मे जबरदस्त भीड होती थी लेकिन भाडे के लोग नही आते थे । यह चुनाव एस एम बनर्जी और राम आसरे के सारगर्भित वैचारिक भाषणों के लिए याद किया जाता है ।
छात्र संघ चुनावों मे भी हम लोग 210 दिन की न्यूनतम पढाई, एकेडेमी कैलेण्डर का प्रकाशन परीक्षा समाप्ति के 30 दिन के अन्दर रिजल्ट की घोषणा जैसे कार्य क्रम की चर्चा करके वोट माॅगते थे । लिंगदोह कमेटी की बहुत सी अनुशंसायें हम लोगों द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान की गई घोषणाओं पर आधारित हैं बी एच यू मे चंचल , भरत सिह जे एन यू मे प्रो आनन्द कुमार, प्रकाश कारत, गोरखपुर मे शिव प्रताप शुक्ल; रवींद्र सिह , लखनऊ विश्व विद्यालय मे सत्य देव त्रिपाठी , डी पी बोरा बिनधयवासिनी जी इलाहाबाद मे बृजे श शर्मा, अनुग्रह नारायण सिंह एक दूसरे के कट्टर विरोधी रहे है लेकिन सबके सब मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते थे । आज के हमारे राजनेताओं ने तो मर्यादाओं को तार तार कर दिया है । सबके सब अगले चुनाव की चिंता मे मगन है, किसी को अगली पीढ़ी की कोई चिन्ता नही है ।कई बार लगता है , क्या हमारे राजनेता विचार शून्य हो गये है ? या उनहोंने मान लिया है , कि अब विचार का कोई मतलब नही रह गया है । लोग विचार को नही नेता की प्रायोजित छवि से प्रभावित होकर वोट देते है । मै आपको बताऊँ, छात्र संघ लोकतंत्र की नर्सरी हुआ करते थे , वहाँ धीरे-धीरे " गैर छात्र पेशेवर छात्र नेताओं " का वरचसव बढने लगा , परिणाम आम छात्रों ने उसमे अपनी सहभागिता कभ कर दी और अब छात्र संघ महत्वहीन हो गये है इसी तरह यदि देश की राजनीति मे विचार शून्यता का प्रभाव कम नही किया गया तो आम जनमानस " नोटा " विकल्प चुन लेगा और यह स्थिति किसी भी दशा मे लोकतंत्र के लिए हितकर नही होगी।
मेरे कहने का आशय यह है कि सभी दलों के नेता विशेषकर राष्ट्रीय नेता अपने विरोधी पर निजी हमले नही करते थे। सबके सब अपनी विचारधारा के आधार पर वोट मांगते थे । वास्तव मे चुनाव प्रचार का यही सही तरीका है । अपने कानपुर मे लोकसभा के लिए निर्दलीय ( मूलतः सी पी आई ) एस एम बनर्जी और सी पी एम के राम आसरे जनसंघ के बाबूराम शुक्ल और कांग्रेस के गणेश दत्त बाजपेयी चुनाव लड रहे थे । सभी की सभाओं मे जबरदस्त भीड होती थी लेकिन भाडे के लोग नही आते थे । यह चुनाव एस एम बनर्जी और राम आसरे के सारगर्भित वैचारिक भाषणों के लिए याद किया जाता है ।
छात्र संघ चुनावों मे भी हम लोग 210 दिन की न्यूनतम पढाई, एकेडेमी कैलेण्डर का प्रकाशन परीक्षा समाप्ति के 30 दिन के अन्दर रिजल्ट की घोषणा जैसे कार्य क्रम की चर्चा करके वोट माॅगते थे । लिंगदोह कमेटी की बहुत सी अनुशंसायें हम लोगों द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान की गई घोषणाओं पर आधारित हैं बी एच यू मे चंचल , भरत सिह जे एन यू मे प्रो आनन्द कुमार, प्रकाश कारत, गोरखपुर मे शिव प्रताप शुक्ल; रवींद्र सिह , लखनऊ विश्व विद्यालय मे सत्य देव त्रिपाठी , डी पी बोरा बिनधयवासिनी जी इलाहाबाद मे बृजे श शर्मा, अनुग्रह नारायण सिंह एक दूसरे के कट्टर विरोधी रहे है लेकिन सबके सब मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते थे । आज के हमारे राजनेताओं ने तो मर्यादाओं को तार तार कर दिया है । सबके सब अगले चुनाव की चिंता मे मगन है, किसी को अगली पीढ़ी की कोई चिन्ता नही है ।कई बार लगता है , क्या हमारे राजनेता विचार शून्य हो गये है ? या उनहोंने मान लिया है , कि अब विचार का कोई मतलब नही रह गया है । लोग विचार को नही नेता की प्रायोजित छवि से प्रभावित होकर वोट देते है । मै आपको बताऊँ, छात्र संघ लोकतंत्र की नर्सरी हुआ करते थे , वहाँ धीरे-धीरे " गैर छात्र पेशेवर छात्र नेताओं " का वरचसव बढने लगा , परिणाम आम छात्रों ने उसमे अपनी सहभागिता कभ कर दी और अब छात्र संघ महत्वहीन हो गये है इसी तरह यदि देश की राजनीति मे विचार शून्यता का प्रभाव कम नही किया गया तो आम जनमानस " नोटा " विकल्प चुन लेगा और यह स्थिति किसी भी दशा मे लोकतंत्र के लिए हितकर नही होगी।
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