Friday, 23 December 2016

साजिश है बी.एस.एन.एल. को बन्द करने की



                                                   आदरणीय, रवि शंकर जी
             भारत सरकार डिजिटल इण्डिया और कैशलेस संव्यहार का लक्ष्य आपके मन्त्रालय के सार्थक सहयोग के बिना प्राप्त न कर सकेगी परन्तु आपका मन्त्रालय इस दिशा में कोई सार्थक पहल करता नही दिख रहा है। आपके मन्त्रालय की इण्टरनेट सेवाएं बैलगाड़ी युग से आगे नही बढ़ पा रही है। मैं नही जानता कि आपके नेतृत्व में कोई कमी है या नौकरशाह अपने निहित स्वार्थों के कारण पूरी योजना में पलीता लगाये हुए है। पिछले 15 दिन से मेरी पत्नी दिल्ली के लक्ष्मी नगर मोहल्लें में है और उनके पास बी.एस.एन.एल. का पोस्टपेड मोबाइल है परन्तु उनसे एक भी दिन बात नही हो सकी है। आप भी जानते है कि लक्ष्मी नगर मोहल्ला छात्रों/युवाओं का मोहल्ला है। जहाँ सभी डिजिटल रहना चाहते है और यदि आपका मन्त्रालय नई दिल्ली के अन्दर इस मोहल्ले में निर्बाध इण्टरनेट सेवाएं उपलब्ध नही करा पा रहा है तो कैसे मान लिया जाये कि निकट भविष्य में पूरे भारत को इण्टरनेट के द्वारा कैशलेस बनाया जा सकता है। प्राइवेट इण्टरनेट सेवा प्रदाता कम्पनियों का नेटवर्क गली मोहल्लों में काम करता है इसलिए कभी कभी मन करता है कि मान लिया जाये कि बी.एस.एन.एल. की इण्टरनेट सेवाओं को जानबूझकर फिसड्डी बना दिया गया है। इसके पहले रिलायन्स या रेमण्ड जैसे उद्योगों के हित संवर्धन के लिए नेशनल टेक्सटाइल कारपोरेशन की मिलों को घाटा दिखाकर बन्द कर दिया गया था, ठीक वैसी ही कोई साजिश बी.एस.एन.एल. को बन्द करने की तो नही की जा रही है? रवि शंकर भाई बी.एस.एन.एल. आम लोगो के लिए काम करता है जबकि रिलायन्स जिओ, एयरटेल, आइडिया, वोडाफोन जैसे सेवा प्रदाता केवल अपने लाभ के लिए काम करते है। मेरा निवेदन है कि कैशलेस संव्यवहार के प्रचार, प्रसार के लिए राजनैतिक लाफ्फाजी बन्द करके सुदूर गाँवो में इण्टरनेट सेवायें उपलब्ध कराने के लिए युद्ध स्तर पर सार्थक प्रयास करायें। 

Tuesday, 6 December 2016

माननीय मुख्य न्यायाधिपति

सेवा में,                                                                        दिनांकः 06.12.2016
           माननीय मुख्य न्यायाधिपति

           इलाहाबाद उच्च न्यायालय

           इलाहाबाद

      विषयः माननीय अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष परिवाद के मामलों में दण्ड                  प्रक्रिया संहिता की धारा 88, धारा 205 एवं धारा 41 ए का अनुपालन                   न किये जाने के सन्दर्भ में 
महोदय,
         
          माननीय सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न प्रदेशों के उच्च न्यायालयों और आप श्रीमान जी ने कई बार प्रतिपादित किया है कि केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट में नामजद होने के कारण किसी को गिरफ्तार नही किया जायेगा। गिरफ्तारी के लिए सुसंगत विश्वसनीय साक्ष्य का उपलब्ध होना आवश्यक है। इन विधिक सिद्धान्तों को केवल इस आशय से प्रतिपादित किया गया है कि युक्तियुक्त कारण के बिना किसी व्यक्ति को मात्र नामजद होने के कारण जेल भेजकर उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और मानवीय गरिमा का हनन नही किया जायेगा परन्तु अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष आपराधिक परिवाद के मामलों में कोई सुस्पष्ट विधि न होने के बावजूद तलबी आदेश पारित होने के तत्काल बाद प्रथम नियत तिथि पर गैर जमानती वारण्ट जारी करना और फिर अधीनस्थ न्यायालय के समक्ष उपस्थित व्यक्ति को परिवाद में अधिरोपित आरोपों के विरुद्ध गुण दोष के आधार पर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का कोई अवसर दिये बिना अभिरक्षा में लेकर जेल भेज देना आम बात हो गई है। अधिवक्ता होने के नाते मेरा स्पष्ट मत है कि परिवाद के मामलों में तलबी आदेश के अनुपालन में न्यायालय के समक्ष उपस्थित व्यक्ति को अभिरक्षा में लेने और फिर उसे जेल भेज देने का कोई प्रावधान विधि में नही है। इस प्रक्रम पर विधि उससे अपेक्षा करती है कि वह परिवाद की सुनवाई के दौरान अपनी नियमित उपस्थिति सुनिश्चित कराने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 88 के तहत प्रतिभू सहित या रहित बन्धपत्र निष्पादित करे। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 205 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि न्यायायल अभियुक्त को व्यैक्तिक हाजिरी से अभिमुक्त करके उसे  अपने अधिवक्ता द्वारा हाजिर होने की अनुज्ञा दे सकता है।
        
            श्रीमान जी आपके संज्ञान में है कि आम लोगों को अकारण गिरफ्तारी से बचाने के लिए अधिनियम संख्या 5 सन् 2009 के द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता में धारा 41 ए, बी, सी, डी प्रतिस्थापित की गई है और उसमें प्रावधान है कि पुलिस अधिकारी उन सभी मामलोें में, जहाँ धारा 41 की उपधारा (1) के प्रावधान के अधीन व्यक्ति की गिरफ्तारी अपेक्षित है, उस व्यक्ति, जिसके विरुद्ध युक्तियुक्त परिवाद किया गया है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त की गयी है या युक्तियुक्त सन्देह विद्यमान है कि उसने संज्ञेय अपराध किया है को अपने समक्ष या ऐसे अन्य स्थान पर जैसा नोटिस में विनिर्दिष्ट किया जाये, उपसंजात होने का निर्देश देते हुये नोटिस जारी करेगा और इसमें यह भी प्रावधान है कि जहाँ ऐसा व्यक्ति नोटिस का अनुपालन करता है तब उसे नोटिस में वर्णित अपराध के सम्बन्ध में गिरफ्तार नही किया जायेगा।
           
          यह कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 88, धारा 205 और धारा 41 ए को संयुक्त रूप से पढ़ने पर स्पष्ट होता है कि परिवाद के मामलों में समन/वारण्ट व्यक्ति विशेष को गिरफ्तार करने के लिए नही बल्कि माननीय न्यायालय के समक्ष उसकी उपस्थिति सुनिश्चित कराने के लिए जारी किये जाते है और यदि समन/वारण्ट के अनुपालन में व्यक्ति विशेष न्यायालय के समक्ष स्वयं या अपने अधिवक्ता के माध्यम से उपस्थित होता है तो न्यायालय उस व्यक्ति से अपेक्षा कर सकता है कि वह न्यायालय के समक्ष परिवाद की सुनवाई के दौरान अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए प्रतिभू सहित या रहित बन्धपत्र निष्पादित करे। इन दोनों धाराओं में या दण्ड प्रक्रिया संहिता की अन्य किसी धारा में उपस्थित व्यक्ति को अभिरक्षा में लेकर जेल भेज देने का कोई प्रावधान नहीं है।          
       यह कि अधिवक्ता के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत के समय आपराधिक परिवाद के मामलों में तलबी आदेश के अनुपालन में मैंने कई बार तलब किये गये व्यक्ति को माननीय न्यायालय के समक्ष आत्म समर्पण कराये बिना उसकी तरफ से दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 88 के तहत प्रार्थनापत्र प्रस्तुत करके प्रतिभू सहित या रहित बन्धपत्र की राशि निर्धारित करने का अनुरोध किया है जिसे माननीय पीठासीन अधिकारियों द्वारा स्वीकार किया जाता रहा है। मेरे अपने संज्ञान में ऐसा कोई मामला नही है जिसमें तलबी आदेश के अनुपालन में माननीय न्यायालय के समक्ष उपस्थित व्यक्ति को जेल भेजा गया हो परन्तु वर्तमान दौर में तलबी आदेश के तत्काल बाद प्रथत नियत तिथि पर गैर जमानती वारण्ट जारी होना और फिर कथित अभियुक्त को जेल भेज देना आम बात हो गई है जो निश्चित रूप से न्यायसंगत नही है।    
        
           यह कि आपके भी संज्ञान में है कि सिविल प्रकृति के विवादों में अनुचित दबाव बनाने के दुराशय से फर्जी घटनाओं के आधार पर आपराधिक परिवाद दाखिल करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है और इसी कारण माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष तलबी आदेशों के विरुद्ध उसे अपास्त कराने के लिए बड़ी संख्या में याचिकायें लम्बित है। जो लोग आर्थिक आधारांे पर या अन्य किसी परिस्थिति में अपने विरुद्ध पारित तलबी आदेश के विरुद्ध उसे अपास्त कराने के लिए माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल नही कर पाते, उनको किसी युक्तियुक्त कारण के बिना जेल जाने और जेल में रहकर शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना झेलने के लिए अभिशप्त होना पड़ता है। श्रीमान जी अपने संविधान का अनुच्छेद 21 गारण्टी देता है कि किसी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन या उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित नही किया जायेगा। श्रीमान जी मेरी अपनी दृष्टि में किसी प्रार्थनापत्र (परिवाद) में अधिरोपित आरोपों के आधार पर किसी व्यक्ति को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर दिये बिना अभिरक्षा में लेकर जेल भेज देना उसे उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित करने के समान है और इस प्रकार की कार्यवाही करने का कोई प्रावधान अपनी विधि में नही है।   
     
           श्रीमान जी अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं आपका ध्यान माननीय ए.सी.एम.एम. द्वितीय कानपुर नगर के समक्ष लम्बित निम्नांकित दो परिवादों की तरफ आकृष्ट करना चाहता हूँ। दोनों आपराधिक परिवाद माननीय ए.सी.एम.एम. द्वितीय कानपुर नगर के समक्ष दिनांक 26.07.2016 को दाखिल किये गये हैं और दोनों वादो में क्रमशः दिनांक 20.09.2016 एवं दिनांक  26.09.2016 को लगभग एकसमान आदेश पारित किये गये है। उनमें कहा गया है कि .................... भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध के आरोप में आहूत किया जाए, परिवादी पैरवी अविलम्ब करे, सूची गवाहान पेश हो, पत्रावली वास्ते हाजिरी अभियुक्त दिनांक      ...............को पेश हो।
         
           श्रीमान जी परिवाद संख्या 5215 सन् 2016 में माननीय ए.सी.एम.एम. द्वितीय कानपुर नगर द्वारा पारित आदेश दिनांक 20.09.2016 के अनुसार विपक्षीगणों पर आरोप लगाया गया है कि विपक्षीगणों ने ”प्रार्थी से आराजी नं0 585 रकबा 7 बीघा 13 बिस्वा स्थित मकसूदाबाद कानपुर नगर रमेश चन्द्र दीक्षित व प्रदीप दीक्षित ने बतौर बयाना तीन लाख रुपया एक माह पहले लिये थे और उक्त जमीन का अपने आपको मालिक बताया था तथा जमीन से सम्बन्धित कागजात भी दिखाये थे, इनके साथ राम किशोर दीक्षित व गुड्डू दीक्षित भी थे। प्रार्थी ने उक्त जमीन रमेश चन्द्र शुक्ला निवासी काशीपुर कानपुर देहात की है। प्रार्थी को धोखे में रखकर बेईमानी से फर्जी कागजात दिखाकर प्रार्थी से तीन लाख रुपया ले लिया है। प्रार्थी ने रमेशचन्द्र दीक्षित व प्रदीप दीक्षित से कहा कि यह जमीन तो रमेश चन्द्र शुक्ला की है। आप लोगों ने मुझे धोखा देकर व फर्जी कागजात दिखाकर तीन लाख रुपये ले लिये मेरे रुपये पैसे वापस करो, तो उपरोक्त लोग रुपया वापस करने के लिए हीलाहवाली करने लगे। दिनांक 15.07.2016 केा समय करीब 4 बजे दिन को उपरोक्त चारों लोग व एक व्यक्ति अज्ञात एम.आई.जी. तिराहा पनकी मे मिले सभी लोग स्कार्पियो गाड़ी बैठे थे, मैंने फिर अपने तीन लाख रुपया माँगा तो सभी लोगों ने जबरिया मुझे गाड़ी में बैठाया और भौती बाईपास ले गये और मुझे दो घण्टे तक बन्धक बनाये रखा तथा सभी लोग भद्दी भद्दी गालिया दे रहे थे तथा कह रहे थे कि यदि कभी भी रुपया वापस करने की बात की तो जान से मार डालेंगे।“
        
          यह कि परिवाद संख्या 5308 सन् 2016 में माननीय ए.सी.एम.एम. द्वितीय कानपुर नगर द्वारा पारित आदेश दिनांक 26.09.2016 के अनुसार विपक्षीगणों पर आरोप लगाया है कि विपक्षी कि ”प्रार्थिनी के पति के नाम पाँच बीघा जमीन है व बाहर रहते हैं। वर्तमान समय में प्रार्थिनी अपने देवर राम आसरे के साथ ग्राम बहेड़ा पनकी कानपुर में रह रही है। विपक्षीगण 1 लगायत 9 प्रार्थिनी के जमीन पर नजर गढ़ाये हैं क्योंकि उपरोक्त लोगों का आये दिन का यही काम है गरीब आपसी की जमीन पर जबरिया कब्जा करके बेचना और रुपया कमाना। विपक्षीगण दिनांक 20.07.2015 को समय करीब 1 बजे दिन प्रार्थिनी के घर बहेड़ा आये पहले तो प्रार्थिनी को गाली देकर पूँछा राम आसरे कहा हैं तो प्रार्थिनी ने कहा शहर गये हैं सभी लोग बारी-बारी से प्रार्थिनी के साथ छेड़खानी करने लगे तब प्रार्थिनी ने विरोध किया तो सभी लोगो ने प्रार्थिनी को मारा पीटा, प्रदीप दीक्षित ने अपने जेब से सादा स्टाॅम्प व सादे कागज निकाले और कहा इसमें दस्तखत कर दे, प्रार्थिनी जब दस्तखत करने से मना किया तो हिमांशु गुप्ता ने तमंचा निकालकर कहा दस्तखत कर नही गोली मार दूँगा। बाकी लोग यह कह रहे थे, यदि यह दस्तखत न करें तो जान से मार दो, प्रार्थिनी ने डरकर दस्तखत कर दिए तब सभी लोग कहने लगे तेरी लाखों की जमीन अब हमारी हो पायेगी।। उसके बाद उनमें 3 लोगों ने प्रार्थिनी के हाथ व बाल पकड़ कर घसीटते हुए खेतों की तरफ सार्वजनिक स्थान पर ले गये और सभी ने प्रार्थिनी के गाल व नाजुक अंग पकड़कर अश्लीलता के साथ छेड़-छाड़ की तथा प्रार्थिनी के कपड़े भी फाड़ दिए जब प्रार्थिनी चिल्लाई तो बहुत से लोगों ने आकर प्रार्थिनी को बचाया उपरोक्त सभी लोग गाली गलौच व तरह-तरह की धमकी देते हुए चले गये। जब प्रार्थिनी का देवर राम आसरे आया तब प्रार्थिनी पूरी घटना बात दी, और थाना पनकी गई और पूरी घटना बताई, किन्तु कोई कार्यवाही नहीं हुई तब उच्चाधिकारियों को पत्र प्रेषित किया किन्तु फिर भी कोई कार्यवाही नहीं हुई। अतः यह परिवाद दाखिल किया गया।“
         
          यह कि उपर्युक्त दोनों परिवादों में प्रश्नगत घटनायें एक ही थाना क्षेत्र पनकी कानपुर नगर के अन्तर्गत घटित बताई गई है और एक परिवाद में खुद राम आसरे परिवादी है और दूसरे में उनकी भाभी परिवादी है। दोनों परिवादों में रमेश चन्द्र दीक्षित, प्रदीप दीक्षित और गुड्डू दीक्षित अभियुक्त बताये गये है। इन दोनों परिवादो में तलबी आदेश पारित होने के तत्काल बाद नियत प्रथम तिथि पर कथित अभियुक्तों के विरुद्ध गैर जमानती वारण्ट जारी किया गया है और उनके अनुशरण में गिरफ्तार करके माननीय न्यायालय के समक्ष उपस्थित किये गये व्यक्ति को अभिरक्षा में लेकर जेल भेज दिया गया है।
         
          श्रीमान जी फर्जी कथानक के आधार पर परिवाद दाखिल करके आम लोगों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के हनन की बढ़ती घटनाओं पर आपका ध्यान आकृष्ट कराने के लिए उपर्युक्त दोनों परिवाद पर्याप्त है और इसके द्वारा मैं आप श्रीमान जी को बताना चाहता हूँ कि परिवाद के मामलों में अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष जारी प्रक्रिया न्यायसंगत नहीं है और उसके द्वारा आम लोगों की मानवीय गरिमा और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का हनन किया जा रहा है इसलिए स्पष्ट किया जाना चाहिए कि ”परिवाद के मामलों में तलबी आदेश के बाद जारी समन/वारण्ट के अनुपालन में माननीय न्यायालय के समक्ष उपस्थित किसी व्यक्ति को परिवाद के विरुद्ध उसके गुण दोष पर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर दिये बिना अभिरक्षा में लेकर जेल भेज देना क्या न्यायसंगत है?“ और यदि हाँ तो किसी व्यक्ति को जेल जाने से बचने के लिए माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल करने के अतिरिक्त क्या उपचार उपलब्ध है?
      
         अतः आप श्रीमान जी से प्रार्थना है कि उपर्युक्त सन्दर्भ में विचार करके आवश्यक निर्देश जारी करने की कृपा करें ताकि उपचार के अभाव में कोई व्यक्ति अपने आपको असहाय महसूस न करे।    
     
 आदर सहित                                                                  ( कौशल किशोर शर्मा )
                                                                                                  एडवोकेट    

Tuesday, 8 November 2016

”खोलो खोलो जेल के ताले ये दिवाने आये है“ का उद्घोष फिर करना होगा


वर्ष 1975-1976 में इन्दिरा गाँधी द्वारा देश पर थोपे गए आपातकाल और प्रेस सेंसरशिप के विरोध में ”इन्दिरा तेरी जेल अदालत देखी है और देखेंगे“, ”दम है कितना दमन में तेरे देख लिया और देखेंगे “,”खोलो खोलो जेल के ताले ये दिवाने आये है“ का उद्घोष करते हुए हम लोग जेल गये थे। प्रेस सेंसरशिप के विरोध में 26 जून 1975 को कानपुर के दैनिक जागरण ने अपने सम्पादकीय काॅलम में कुछ भी लिखे बिना प्रश्नचिन्ह लगाया था और उसके कारण उनके तत्कालीन सम्पादक स्वर्गीय पूर्णचन्द्र गुप्त और उनके पुत्र स्वर्गीय नरेन्द्र मोहन गुप्त को जेल में डाल दिया गया था। इस परिपे्रक्ष्य में देखने पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि एन.डी.टी.वी. हिन्दी चैनल के विरुद्ध प्रस्तावित एक दिवसीय प्रतिबन्ध शुरुआत से ही आपत्तिजनक है, अलोकतान्त्रिक है। अपने देश में किसी भी सरकार व्यक्ति या संगठन को अपने द्वारा खुद की गई शिकायत पर खुद निर्णय सुनाने का अधिकार प्राप्त नही है। वास्तव में यदि एन.डी.टी.वी. हिन्दी चैनल ने कोई अपराध किया है तो विद्यमान न्यायिक प्रक्रिया के तहत उसके विरुद्ध कार्यवाही की जानी चाहिए। अपना देश आपातकाल का दंश अभी भूला नहीं है। दुर्भाग्यवश सभी सरकारें राज्य और राष्ट्र के बीच के अन्तर को अपनी सुविधा के लिए भुला देतीं है और उनके मुखिया अपने आपको राष्ट्र मानने लगते है। मैंने आपातकाल के दौरान अपने विरुद्ध विचारण के दौरान न्यायालय को बताया था कि मैंने इन्दिरा गाँधी और उनकी सरकार द्वारा थोपे गए आपातकाल का विरोध करते हुए सत्याग्रह करके अपनी गिरफ्तारी दी है। इन्दिरा गाँधी और उनकी सरकार राष्ट्र नहीं है इसलिए मेरे विरुद्ध राष्ट्रविरोधी होने का आरोप शुरुआत से अनर्गल है परन्तु उस समय न्यायालय ने मेरी इस दलील को स्वीकार नहीं किया और मुझे पाँच माह के सश्रम कारावास की सजा सुना दी। न्यायालय के समक्ष अपनी इस स्वीकारोक्ति और उसके कारण पाँच माह की सजा भुगतने पर मुझे आज भी गर्व है और मैं आज भी मानता हूँ कि किसी भी सत्ताधारी को अपने आपको राष्ट्र मान लेने की भूल नहीं करनी चाहिए। राज्य का विरोध भारतीयों का संवैधानिक अधिकार है और अपने इस अधिकार का प्रयोग करने के कारण किसी को भी राष्ट्रविरोधी बता देना आज एक फैशन हो गया है जो लोकतन्त्र के लिए हितकर नहीं है। मेरा निवेदन है कि एन.डी.टी.वी. हिन्दी चैनल के विरुद्ध प्रस्तावित कार्यवाही को तत्काल प्रभाव से अपास्त किया जाना चाहिए। मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यदि कार्यवाही अपास्त नहीं की गई तो मेरे जैेसे बहुत से लोग एकबार फिर ”खोलो खोलो जेल के ताले ये दिवाने आये है“ का उद्घोष करेंगे और इसके द्वारा सारे देश को बतायेंगे कि कोई सरकार व्यक्ति या संगठन राष्ट्र का पर्याय नहीं हो सकता।

Sunday, 23 October 2016

जिला जज चित्रकूटधाम को सलाम


किसी न्यायिक विद्वान ने कई दशक पहले आवहन किया था आइये न्याय व्यवस्था से जुड़े हम सब लोग अपने अपने स्तर पर कुछ ऐसे कार्य करें जिससे इस व्यवस्था के सम्पर्क में आने वाले लोगों का विश्वास इस व्यवस्था के प्रति और ज्यादा सुदृढ़ हो सके। इन शब्दों को साकार देखने की अपेक्षा एक सपने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है लेकिन मेरी इस सोच को माननीय जनपद एवं सत्र न्यायाधीश चित्रकूटधाम श्री संजय कुमार पचैरी ने बदल दिया। मुझे कल दिनांक 22.10.2016 को आरबीट्रेशन के मामले में उनके समक्ष उपस्थित होने का अवसर प्राप्त हुआ। मैंने देखा कि जमानत प्रार्थनापत्रों के निस्तारण के तत्काल बाद उन्होंने मोटर एक्सीडेण्ट क्लेम से सम्बन्धित वादो की सुनवाई की। एक एक फाइल पर खुद आदेश किये और उभयपक्षों को आपसी समझौते के लिए उत्प्रेरित किया। लंच के बाद ठीक 2 बजे वे पुनः न्यायालय में आ गये और फिर रोजमर्रा की पेशी निपटाने के बाद उन्होंने आरबीट्रेशन से सम्बन्धित फाइलों का निपटारा शुरु किया। पचास से ज्यादा फाइलों पर उन्होंने आदेश पारित किये और उसके बाद उन्होंने हमारे मामलें में 3:45 बजे तक लम्बी बहस सुनी। पिछले डेढ़ दशक में मैंने सहायक जिला शासकीय अधिवक्ता फौजदारी, जिला शासकीय अधिवक्ता दीवानी एवं स्थायी अधिवक्ता भारत सरकार के पद पर कार्य किया है परन्तु मैंने किसी न्यायाधीश को माननीय पचैरी जी की तरह कार्य करते नहीं देखा। अपने न्यायिक जगत में लम्बित मुकदमों के बढ़ते बोझ की चिन्ता सभी स्तरों पर व्यक्त की जाती है। सभी एक दूसरे पर दोषारोपण किया करते है परन्तु मुकदमों के निस्तारण में अपने स्तर पर तेजी लाने का सार्थक प्रयास करते कोई नहीं दिखता। मैं नियमित रूप से विभिन्न न्यायालयों के समक्ष उपस्थित होता रहता हूँ। मेरे संज्ञान में है कि आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 की धारा 34 के तहत वर्ष 2003 से लम्बित मुकदमों का निस्तारण अभी तक नही हो सका है और अब 2017 की तिथियाँ नियत की जाने लगी है। इस परिस्थितियों में मुझे नकारा मानकर कई कारपोरेट क्लाइंट अपनी फाइलें मुझसे वापस ले गये। मुकदमोें के निस्तारण के लिए सभी स्तरों पर व्यक्तिगत प्रयास की जरूरत है। माननीय पचैरी जी संसाधनों की कमी पर दोषारोपण किये बिना लम्बित मुकदमों को कम करने का अपने स्तर पर सार्थक प्रयास कर रहे है। सभी को उनका अनुशरण करना चाहिए। मैं उन्हें सादर सलाम करता हूँ। 

Friday, 21 October 2016

गरीब की वैयक्तिक स्वतन्त्रता ?




संविधान का अनुच्छेद 21 गारण्टी देता है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन या उसकी वैयक्तिक स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है परन्तु अपने उत्तर प्रदेश की पुलिस के लिए किसी की भी वैयक्तिक स्वतन्त्रता का कोई महत्व नहीं है और किसी भी कानून की मनमानी व्याख्या उसका एकाधिकार है और इसी कारण थाना घाटमपुर कानपुर नगर मंे पंजीकृत मुकदमा अपराध संख्या 220 सन् 2016 धारा 363, 366, 120बी. भारतीय दण्ड संहिता की प्रथम सूचना रिपोर्ट को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा सी.एम.डब्ल्यू.पी. संख्या 17271 सन् 2016 एवं सी.एम.डब्ल्यू.पी. 21627 सन् 2016 में क्वैश कर दिये जाने के बावजूद ग्राम बरौर, थाना घाटमपुर निवासी गरीब किसान बलबीर दिनांक 23.04.2016 से जेल में है। माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की अभियोजन इकाई ने प्रथम सूचना रिपोर्ट को क्वैश करने का विरोध किया था। उनकी उपस्थिति में उच्च न्यायालय ने प्रथम सूचना रिपोर्ट क्वैश की है परन्तु एक गरीब किसान जेल में था इसलिए अभियोजन इकाई ने उच्च न्यायालय के आदेश से कानपुर नगर के एस.एस.पी. या घाटमपुर थाने को आदेश से अवगत नहीं कराया गया था जबकि यह उनका विधिक दायित्व है। अभियोजन इकाई के संज्ञान में है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने लता सिंह बनाम स्टेट आॅफ यू0पी0 एण्ड अदर्स (2006-5-एस.सी.सी.-पेज 475) में प्रतिपादित किया है कि बालिग लड़की अपनी इच्छा से किसी के भी साथ विवाह करने के लिए स्वतन्त्र है और ऐसे मामलों में प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं लिखी जानी चाहिए। इस विधि के प्रभावी रहते हुए अभियोजन इकाई ने प्रथम सूचना रिपोर्ट को क्वैश करने का अकारण विरोध किया और थाना घाटमपुर पुलिस ने मुकदमावादी राम सेवक की पुत्री दामिनी को भगा ले जाने का मुकदमा पंजीकृत कर लिया और उसके बाद लड़के के पिता को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया जबकि लड़की दामिनी बालिग थी और उसने बलबीर के पुत्र रणवीर के साथ स्वेच्छा से विवाह किया है। इस पूरे मामले में घाटमपुर थाने में तैनात विवेचक श्री महेश कुमार यादव और उच्च न्यायालय की अभियोजन इकाई ने  सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित विधि की मनमानी व्याख्या करके जानबूझकर सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना की है। इस मामले में रिमाण्ड मजिस्ट्रेट ने भी अपनी विवेकीय शक्तियों का न्यायिक प्रयोग नही किया है और इस सब के कारण एक गरीब किसान की वैयक्तिक स्वतन्त्रता का हनन हुआ है लेकिन इस अपराध के लिए जिम्मेदारी चिन्हित करके दोषी के खिलाफ कार्यवाही करने की किसी को चिन्ता नहीं है। 

Sunday, 16 October 2016

स्मार्ट सिटी का मजदूर कुछ पूँछना चाहता है



भइया मैंने सुना है कि भारत सरकार ने अपनी नई योजना में कानपुर को भी स्मार्ट सिटी बनाने का एलान किया है। सभी कनपुरियों की तरह मैं भी इस एलान से काफी खुश हूँ परन्तु मेरे मन में कई आशंकाये घुमड़ने लगी है। मैं रोज अपने परिवार के पेट पालने लायक कमाई कर लेता हूँ। स्मार्ट सिटी में न्यूनतम पचास लाख रुपये ब्यय करने पर ही आशियाना मिलेगा। हम आसान किश्तों में भी पचास लाख रुपये देने की स्थिति में नहीं होंगे। मेरी पत्नी ने जन धन योजना के तहत एक हजार रुपया देकर बैंक में अपना खाता खोल लिया है परन्तु दुबारा कुछ जमा करने की नौबत अभी नहीं आई है इसलिए प्रस्तावित स्मार्ट सिटी में अपने आस्तित्व को लेकर मैं परेशान हूँ।
भइया आप शायद भूल गये लेकिन हमें याद है कि इस शहर में कपड़ा मिलें हुआ करती थी जहाँ हमारे जैसे गरीब गुरबा लोग मेहनत मजदूरी करके अपना गुजर बसर करते थे। हम लोग मलिन बस्तियों की खपरैल की छत वाली छोटी छोटी कोठरियों में रहते थे और उसी में खाना पकाते थे। हमारे इस नारकी दशा से हमारे नेता हरिहर नाथ शास्त्री ने तब के प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू को अवगत कराया। पण्डित जी को विश्वास ही नहीं हुआ कि इस वह स्वयं प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त सहित अपने कई मंत्रियों के साथ जूही खलवा में हमें देखने आये। हमारी दशा देखकर वे दुखी हुए, नाराज हुए और फिर उन्होेंने जूही खलवा में ही औद्योगिक श्रमिकों के लिए कालोनी बनाने का निर्णय लिया। हम मजदूरों को इस कालोनी में दस रुपये महीने किराये पर घर दिये गये।
          भइया स्मार्ट सिटी बनने के पहले ही अपने शहर की इन कालोनियों पर प्राॅपर्टी डीलरांे की गिद्ध दृष्टि लग गई है। एल्गिल मिल के श्रमिकों से उनकी कालोनी खाली कराने का अभियान तेजी पर है जबकि भारत सरकार ने अपने नीतिगत निर्णय के तहत इन कालोनियों का स्वामित्व उसमें रहने वाले लोग के पक्ष में हस्तांतरित कर देने का एलान कर रखा है लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि शहर के ही एक नुमाइंदे बाल चन्द्र मिश्रा ने अपने श्रममंत्री काल में भारत सरकार के निर्णय को पलट दिया और कहा कि श्रमिकों को वर्तमान सर्किल रेट के आधार पर कालोनी बेची जाएंगी। अब समाजावादी आजम भाई उनसे आगे निकल गये है। उनका कहना है कि श्रमिकों की बस्तियाँ खाली कराई जाएंगी। बाल चन्द्र मिश्रा से आजम खाँ तक आते आते अपना शहर बदल गया। अब गरीबी, बेकारी, अशिक्षा, बीमारी की कोई बात नहीं करता। अब सभी मन्दिर, मस्जिद की बातें करते है। हम भी अब हरिहर नाथ शास्त्री, एस.एम. बनर्जी, सन्त सिंह यूसुफ, गणेश दत्त बाजपेयी, प्रभाकर त्रिपाठी को वोट नहीं देते।। हमने जाति और धर्म के आधार पर वोट देना शुरु कर दिया है। हम जानते भी है कि हमारी इसी आदत ने हमारे आस्तित्व पर गम्भीर संकट खड़ा किया है।  
             भइया स्मार्ट सिटी बनने की घोषणा के साथ ही मेट्रो ट्रेन चलाने का एलान किया जा चुका है। कहा जाता है कि मेट्रो से अपने शहर का यातायात सुधरेगा और सड़को पर भीड़ कम हो जाएगी। भीड़ कम करने की योजना भी मुझे डराती है। आपको शायद नहीं मालूम कि सुदूर गाॅवों से बेरोजगार युवक अपने शहर में रोजगार की तलाश में आया करते थे। अपने शहर ने उन्हें कभी निराश नहीं किया। उन्हें मेहनत मजदूरी करके अपना जीवन यापन करने के अवसर और रात में सिर छुपाने के लिए छत सदा उन्हें दी है। सुबह छः बजे से रात बारह बजे तक अपने शहर की सड़को में गहमागहमी बनी रहती थी। फैक्ट्रियांे के शायरन बजते थे और मेहनतकश लोेग मजदूरी करने के लिए फैक्ट्रियों की तरफ भागते थे, अच्छा लगता था। इसी भाग दौड़ के बीच हम हँसी मजाक करके मनोरंजन करते थे परन्तु नामालूम किसकी नजर लग गई और धीरे धीरे सभी फैक्ट्रियाँ बन्द हो गई और उसके साथ ही सड़कों पर गहमागहमी भी नदारद हो गई। प्रस्तावित स्मार्ट सिटी में सड़कों की इस गहमागहमी को वापस लाने की कोई योजना अभी तक दिखाई नहीं पड़ी है। इसका मतलब है कि स्मार्ट सिटी में केवल ऊँची ऊँची अट्टालिकाएं होंगी और पूरे शहर में फायनेन्स, इन्श्योरेन्स और किश्तों की अदायगी न कर पाने वालों के घरों पर जबरन कब्जा लेने वालों का व्यापार खूब फले फूलेगा। स्मार्ट सिटी की मुट्ठी बन्द है और हम एक बार फिर जूही खलवा वाली स्थिति में वापस जाने के खतरे को लेकर परेशान है। 

Sunday, 25 September 2016

पुलिस सुधार राजनेताओं की प्राथमिकता नहीं


पुलिस सुधारों पर उत्तर प्रदेश के पूर्व डी.जी.पी. श्री प्रकाश सिंह की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय में 22 सितम्बर 2006 को निर्णय पारित किया था। इस दौरान दस वर्षो का लम्बा अन्तराल बीत गया परन्तु सभी राज्य सरकारों ने पुलिस सुधार की दिशा में केवल खानापूरी की है, कोई सार्थक बदलाव नहीं किया है जबकि इस दौरान न्यायमूर्ति थामस समिति द्वारा पुलिस सुधारों के प्रति राज्य सरकारों की उदासीनता पर चिन्ता व्यक्त करने और न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा समिति द्वारा सर्वाेच्च न्यायालय के फैसले के अनुपालन को जरूरी बताने का भी राज्य सरकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। महानिदेशक स्तर के अधिकारियों से दिहार्ड़ी मजदूरों की तरह काम लेने की प्रवृत्ति आज जारी है। सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद आशा बँधी थी कि पुलिस के कार्य, व्यवहार एवं आचरण मंे बदलाव आयेगा परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि पिछले दस वर्षो में पुलिस राजनेताओं और अपराधियों का गठजोड़ पहले की तुलना में ज्यादा मजबूत हुआ है।  
             इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने काफी पहले पुलिस को संगठित अपराधियों का सरकारी गिरोह बताया था। इस टिप्पणी के वर्षो पहले ब्रिटिश शासनकाल के दौरान वर्ष 1902 में गठित आयोग ने भी पुलिस को एक भ्रष्ट और दमनकारी संस्था बताया था। आजाद भारत में भी राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने पुलिसिया व्यवस्था में सुधार के लिए विस्तृत रिपोर्ट केन्द्र सरकार को दी है। राजनेताओं की अनिच्छा के कारण इस आयोग की रिपोर्ट चर्चा परिचर्चा से आगे नहीं बढ़ सकी। 
यह सच है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद पिछले दस वर्षो में 17 राज्य सरकारों ने अपने नये पुलिस अधिनियम बना लिये है। नये अधिनियम किसी सार्थक बदलाव की मंशा से नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को लागू न करने के दुराशय से बनाये गये हैं। किसी राज्य सरकार ने आज तक कानून व्यवस्था एवं विवेचना को अलग अलग इकाई के रूप विभाजित करने की दिशा में कुछ भी नहीं किया है जबकि सभी इसकी आवश्यकता महसूस करते है। पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार को विवेचना की अलग इकाई बनाने का निर्देश दिया है। प्रदेश सरकार ने इस निर्देश का अनुपालन नहीं किया बल्कि उसके विरुद्ध उसे अपास्त कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल करके एक जरूरी काम को करने में अपनी अरुचि का प्रदर्शन किया है। 
           सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले के अनुपालन के लिए वर्ष 2008 में न्यायमूर्ति थामस की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। इस समिति ने दो वर्षो तक अध्ययन करने के बाद आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा था कि सभी राज्य सरकारें पुलिस सुधारों के प्रति उदासीन है। दिल्ली में निर्भया काण्ड के बाद केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा की अध्यक्षता में महिलाओं के प्रति अपराधों से सम्बन्धित कानूनों को सख्त बनाने के लिए एक समिति का गठन किया था। न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा समिति की रिपोर्ट के आधार पर केन्द्र सरकार ने दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम 2013 पारित किया जो लागू भी कर दिया गया है। इस अधिनियम में प्रावधान है कि जब जाँच या विचारण भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन किसी अपराध से सम्बन्धित हो, तब जाँच या विचारण यथासंभव आरोप पत्र फाइल किये जाने की तारीख से दो मास की अवधि के भीतर पूरा किया जायेगा। इसी प्रकार के कई अन्य क्रान्तिकारी प्रावधान इस अधिनियम में किये गये है परन्तु थानों में इस संशोधन अधिनियम के आधार पर पुलिस की कार्यशैली में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पीड़िता का मेडिकल चेकअप कराने और मजिस्ट्रेट के समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत उसका बयान दर्ज कराने और फिर आरोप पत्र दाखिल करने की मनमानी प्रक्रिया आज भी जारी है। 
            मोदी, नितीश, लालू, मुलायम सभी ने आपातकाल के दौरान पुलिसिया अत्याचार झेले है। पुलिस का दुरुपयोग उनकी भोगी पीड़ा है इसलिए माना जा रहा था कि ये सभी लोग अपने प्रभाव क्षेत्र में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का अनुपालन सुनिश्चित करायेंगे परन्तु काँग्रेसी नेताओं की तरह ये सभी लोग भी अब पुलिस को स्वायत्ता देने के लिए तैयार नहीं है और पुलिस अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहते है इसलिए निकट भविष्य में पुलिस की कार्यशैली में बदलाव की कोई सम्भावना नहीं है।
     

Sunday, 11 September 2016

गंगा घाटों पर तैराको की तैनाती शासन की जिम्मेदारी


गंगा स्नान धार्मिक और आध्यात्मिक आस्था से जुड़ा है। सुरक्षा के नाम पर अधिकारी इसे रोक नहीं सकते घाटों पर सुरक्षा मुहैया कराना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है। जिला प्रशासन हो, पुलिस हो, नगर निगम हो या अन्य कोई विभाग सभी जनता के लिए बने है और उनकी जरूरत को पूरा करना ही इनकी अनिवार्य प्राथमिक जिम्मेदारी है। आये दिन गंगा बैराज के पास युवाओं के डूबने की दुखद घटनायें सुनने को मिलती है। इनमें आई.आई.टी., एच.बी.टी.यू. और मेडिकल कालेज के छात्र भी होते है न जाने कितनी जिन्दगियाँ गंगा की लहरों मे समा गई न जाने कितने माताओं ने अपने होनहार पुत्र गँवा दिये और कई परिवार बर्बाद हो गये परन्तु प्रशासन ने इन घटनाओं को रोकने के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं किये है।
आये दिन घाटों पर लोगों के डूबने की घटनायें सभी जिम्मेदारों के संज्ञान में है परन्तु गंगा घाटो पर लोगों की सुरक्षा का कोई माकूल प्रबन्ध करने में जिला प्रशासन नाकाम रहा है। अधिकारियों से लोगों की सुरक्षा की तनिक भी चिन्ता नही है। जब भी ऐसी घटनायें घटित होती है तो कहा जाता है कि घाटों पर गोताखोर तैनात किये जायेंगे परन्तु नगर निगम अधिनियम में संशोधन करके इस आशय का प्रावधान बानने की दिशा में अभी तक कोई सार्थक प्रयत्न किये ही नहीं गये है। किसी को इसकी चिन्ता भी नहीं है । जिलाधिकारी कहते है कि सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस की है और पुलिस कहती है कि हमारे पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। गंगा में नहाते समय डूब जाना कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है। अधिकारियों द्वारा दूसरे पर जिम्मेदारी मढ़ने की बातें सुनकर आम आदमी असहाय हो जाता है।
डूबने की घटनाओं पर ये अधिकारी आखिर अपने दायित्व मे कैसे बच सकते है ? सुरक्षा की जिम्मेदारी आखिर कौन वहन करेगा ? क्या लोग अपने लाडलो को यूँ ही गंगा में समाते देखते रहेंगे और अधिकारी दूसरों को दोष देकर बचते रहेंगे। कई बार आफ रिकार्ड अधिकारी कहते है कि खतरा है तो लोग नहाने क्यों जाते है ? गंगा स्नान आम भारतीयों की आस्था का विषय है। गंगा स्नान के पर्वो से स्थानीय लोगों की अर्थव्यवस्था भी जुड़ी है इसलिए उसे रोका नहीं जा सकता। गंगा घाटों पर लोगों को डूबने से बचाने की जिम्मेदारी अधिकारी की है इसलिए तीज त्यौहारों पर जिला प्रशासन खुद सारी व्यवस्थायें करता है। इसी तरह आम दिनों में भी हर नागरिक घाटों पर सुरक्षा पाने का अधिकारी है। भारतीय संविधान और कानून उसे यह अधिकार देता है और उसे उसके इस अधिकार के तहत सुरक्षा देना सरकार और उसके अधिकारियों की जिम्मेदारी है। हम लोकतान्त्रिक समाज में रहते है और हमारे द्वारा निर्वाचित सांसद या विधायक हम पर हमारे लिए शासन करते है और उनका दायित्व है कि वे समाज के प्रत्येक क्षेत्र में आम लोगों की सुरक्षा का पुख्ता इन्तजाम करें। 
एक पूर्व केन्द्रीय मन्त्री अपने विद्यार्थी जीवन में बिठूर के एक घाट पर नहाते समय अपने तीन भाईयों के साथ काफी दूर तक बहते चले गये थे घाट पर खड़े उनके सभी सुपरिचितों ने उनके बचने की आशा छोड़ दी थी, इसी बीच एक अनजान व्यक्ति गंगा में कूदा और उसने चारों भाईयों को डूबने से बचा लिया। इस प्रकार के व्यक्तिगत प्रयास आये दिन होते रहते है परन्तु जिला प्रशासन या नगर निगम को इस काम की कोई संस्थात्मक व्यवस्था करनी चाहिए। नदी किनारे तट रक्षकों की नियमित तैनाती, कुशल तैराको और गोताखोरों के नियमित प्रशिक्षण और उनके जीवनयापन का प्रबन्ध सरकार को करना ही चाहिए।

Sunday, 4 September 2016

जीवन जीने लायक वेतन मिलना ही चाहिये


पिछली 2 सितम्बर को राष्ट्रव्यापी हड़ताल ने श्रमिकों के अपर्याप्त वेतन के प्रति आम लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है हलाँकि केन्द्र सरकार अकुशल और गैर कृषि श्रमिकों के न्यूनतम वेतन में 42 प्रतिशत वृद्धि का ढ़िढ़ोंरा पीट रही है। 44वें संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 38 में एक खण्ड जोड़ा गया है और उसमें प्रावधान है कि राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने और व्यक्तियों के बीच तथा  विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुये लोगों के समूहों के बीच प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा। 246 रुपये से 350 रुपये प्रतिदिन की वेतन वृद्धि किसी भी दशा में आम श्रमिकों के बीच आय की असमानता कम करने के लिए पर्याप्त नहीं है और ऊपर से इस बढ़ोत्तरी का लाभ केवल केन्द्र सरकार के अधीन आने वाले उपक्रमों के श्रमिकों को ही प्राप्त होगा। राज्य सरकार या निजी क्षे़त्र के प्रतिष्ठानों में इस बढ़ोत्तरी से श्रमिकों की आर्थिक दशा में कोई परिवर्तन नहीं होगा। उन्हें पहले की तरह केवल 246 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी मिलेगी।
आजादी के तत्काल बाद 1948 में आयोेजित इण्डियन लेवर कान्फ्रेन्स में श्रमिकों के न्यूनतम वेतन के निर्धारण के लिए सुस्पष्ट मापदण्ड बनाये गये थे। कान्फ्रेन्स में सभी की राय थी कि एक श्रमिक को प्रतिदिन 2,700 कैलोरी भोजन, तन ढ़कने के लिए 72 यार्ड कपड़ा, कमरे का किराया, तेल, बिजली आदि न्यूनतम सुविधायें मिलनी ही चाहिये और इसकी पूर्ति के लिए तात्कालिक मूल्य सूचकांक के आधार पर वेतन निर्धारित किया जाना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय के तहत बच्चों की शिक्षा और श्रमिक परिवार की चिकित्सकीय जरूरतों के लिए उल्लिखित मापदण्डों के आधार पर निर्धारित वेतन में पच्चीस प्रतिशत अतिरिक्त बढ़ोत्तरी करने का आदेश पारित किया है। इण्डियन लेवर कान्फ्रेन्स और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित मापदण्डों के आधार पर एक श्रमिक को प्रतिमाह 26,000/- रुपया वेतन मिलना चाहिये परन्तु आजादी के बाद से आज तक किसी भी दल की सरकार ने श्रमिकों को जीवन जीने लायक वेतन देने की दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं की है बल्कि आये दिन किसी न किसी बहाने श्रमिकों की सुविधाओं और उनके ट्रेड यूनियन अधिकारों की कटौती के लिए प्रयास जारी रखे है। भारत में श्रमिक चीन, कम्बोडिया, वियतनाम, बाँग्लादेश जैसे देशों की तुलना में ज्यादा काम करके कम वेतन पाता है। ग्रामीण और अर्धशहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी के कारण सेवायोजक अपनी शर्ताे पर श्रमिकों का वेतन निर्धारित करते है और खुद में असंघठित रहने के कारण श्रमिक जीवन जीने लायक वेतन दिये जाने के लिए सेवायोजक या सरकार पर समुचित दबाव नहीं बना पा रहे है। 
कानून के तहत ठेका प्रथा समाप्त कर दिये जाने के बावजूद केन्द्र सरकार के उद्योगो में भी स्थायी प्रकृति के कार्य संविदा श्रमिकों से लिये जा रहे है और ठेकेदारो द्वारा श्रमिकों का उत्पीड़न आम बात हो गई है। खराब अस्वास्थ्यकर दशाओं में काम करने और कम वेतन के कारण आम श्रमिक और उनका परिवार बीमारी, कुपोषण और अशिक्षा का शिकार है। 350 रुपये प्रतिदिन पाने वाला चार लोगों का परिवार किन परिस्थितियों में अपना जीवन यापन करता है ? इस विषय पर अब संसद या विधान मण्डलों में चर्चा भी नहीं होती है। गरीबी, बेकारी, बीमारी और अशिक्षा जैसे सवाल आज अप्रासंगिक मान लिये गये है, इनकी चर्चा करने वालो को उद्योग विरोधी बताना फैशन हो गया है। भारत सरकार के लाल इमली धारीवाल जैसे प्रतिष्ठानों में अधिकारियों को सभी वेतन आयोगो की सिफारिशो का लाभ दिया गया है परन्तु श्रमिकों के वेतन में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गई है। लगता है कि सरकारों ने मान लिया है कि सम्मान जनक जीवन जीने लायक सुविधाओं से वंचित रहना श्रमिकों के भाग्य में लिखा ही नहीं है इसीलिये 246 रुपये से 350 रुपये की बढ़ोत्तरी का ढ़िढ़ोरा पीटने में उसे कोई शर्म नहीं आई।
आजादी के तत्काल बाद वर्ष 1948 मे केन्द्र सरकार ने न्यूनतम वेतन अधिनियम पारित किया था परन्तु वेतन निर्धारण का अधिकार राज्य सरकारों में निहित हो जाने के कारण इस अधिनियम को उसकी भावना के अनुरूप लागू करने का कभी किसी ने कोई प्रयास नहीं किया। सभी की रुचि श्रमिकों को झुनझना पकड़ाने में रही है और सभी ने इस काम से बखूफी किया है। समय की माँग है कि न्यूनतम वेतन अधिनियम में संशोधन करके सुनिश्चित किया जाये कि किसी भी प्रतिष्ठान में एक समान कार्य के लिए वेतन आदि सुविधाओं के मामलों में संविदा श्रमिक और नियमित श्रमिक के मध्य का अन्तर समाप्त हो जाये और संविदा श्रमिकों को एक समान कार्य के लिए नियमित कर्मचारियों की भॉति वेतन आदि सभी सुविधायें दिलायी जायें। 

Sunday, 28 August 2016

आई.ए.एस. अधिकारी अपनी गरिमा न भूलें


पिछले दिनों आई.ए.एस.आफीसर्स एसोसियेशन के अवैतनिक सचिव श्री संजय भूस रेड्डी ने शिकायत भरे लहजे में ईमानदार अधिकारियों को किसी व्यक्ति जाँच एजेन्सी या संस्था द्वारा उनकी सेवा के दौरान या सेवानिवृत्ति के बाद उत्पीड़न न करने की सलाह दी है। उन्होंने अपनी व्यथा के साथ यह भी जोड़ा कि इस प्रकार के उत्पीड़न से पूरी व्यवस्था पंगु हो जाती है जो अन्ततः देश के हितों के प्रतिकूल है। कोलगेट घोटाले के दौरान कोयला सचिव रहे श्री एस.पी. गुप्ता के विरुद्ध सी.बी.आई. द्वारा दाखिल आरोप पत्र और उस पर विशेष न्यायालय के समक्ष जारी विचारण उनकी इस तात्कालिक व्यथा का कारण है।    
यह सच है कि आई.ए.एस. एसोसियेशन के सदस्य श्री एस.पी.गुप्ता के विरुद्ध सी.बी.आई. ने अपने आरोप पत्र में उन्हें आर्थिक लाभ प्राप्त करने का दोषी नहीं बताया है। उन पर प्राइवेट कम्पनियांे को कोल ब्लाक आवण्टन करने वाली स्क्रीनिंग कमेटी का प्रमुख होने के नाते अपनी विवेकीय शक्तियों का निष्पक्ष प्रयोग न करके कुछ कम्पनियों के साथ पक्षपात करने का आरोप है। इस आरोप के विरुद्ध स्क्रीनिंग कमेटी की मिनट्स बुक में ऐसी कोई टिप्पणी उपलब्ध नहीं है जो दर्शाती हो कि श्री गुप्ता ने स्क्रीनिंग कमेटी की रिपोर्ट पर कभी कोई असहमति जताई है। यह सच है कि उनकी रिपोर्ट पर अन्तिम मोहर तत्कालीन कोयला मन्त्री श्री मनमोहन सिंह ने लगाई थी। उनकी रिपोर्ट कोयला मन्त्री पर बाध्यकर नहीं थी परन्तु यह भी उतना ही सच है कि कोयला मन्त्री का अन्तिम निर्णय स्क्रीनिंग कमेटी की रिपोर्ट पर आधारित है इसलिए श्री गुप्ता को उपलब्ध साक्ष्य के गुण दोष पर विचार किये बिना निर्दोष माने जाने का कोई औचित्य नहीं है। श्री गुप्ता यदि वास्तव में निर्दोष है और पत्रावली में स्क्रीनिंग कमेटी की रिपोर्ट पर उनकी असहमति दर्ज है तो उन्हें या आई.ए.एस. एसोसियेशन को परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है और यदि उनकी असहमति का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है तो उन्हंे अब अपने विरुद्ध अधिरोपित आरोपों के विचारण पर आपत्ति करने का भी कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। 
अपने देश में आई.ए.एस. अधिकारी सर्वशक्तिमान होता है और उसे भ्रष्टाचार निरोधक कानून या व्यवस्था का कोई डर नहीं होता। उनके विरुद्ध सब कुछ सही होने के बावजूद अभियोजन चलाने की अनुमति प्राप्त करना एक टेढ़ी खीर है और यदि विवेचक के अनवरत प्रयास के बावजूद अनुमति प्राप्त भी हो गई तो जाँच एजेन्सियों की तकनीकी कमियों को उजागर करके दोषी सन्देह का लाभ पाकर निर्दोष घोषित हो जाते है जबकि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 20 में दोषी होने की अवधारणा का आदेशात्मक प्रावधान है। अर्थात अपने आपको निर्दोष साबित करने का भार स्वयं अभियुक्त पर होता है। दहेज जैसे पारिवारिक विवादों में दोषी होने की अवधारणा के आधार पर सैकड़ो लोग अजीवन कारावास की सजा भुगत रहे है परन्तु उसी सिद्धान्त के आधार पर नौकरशाहो को सजा नहीं मिल पाती।
आई.ए.एस. एसोसियेशन जैसे संघठनांे को श्रमिकों की ट्रेड यूनियन की तरह ” माँग हमारी पूरी हो, चाहे जो मजबूरी हो “ की तर्ज पर काम नहीं करना चाहिये बल्कि उन्हें अपने सदस्यों के बीच पदीय कर्तव्यों के प्रति निष्ठा एवम ईमानदारी को बढ़ाने के लिए सघन मुहिम चलानी चाहिये। कुछ वर्ष पहले अपने बीच के सर्वोच्च भ्रष्ट अधिकारी के चयन के लिए आई.ए.एस. एसोसियेशन ने लखनऊ में मतदान कराया था और उन सबके द्वारा सर्वाधिक भ्रष्ट अधिकारी को उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार ने मुख्य सचिव नियुक्त किया था जिसका  किसी ने कोई विरोध नहीं किया। एक आई.ए.एस. अधिकारी केवल शासकीय कर्मचारी नहीं होता, उसके पद के साथ कई विवेकीय शक्तियाँ निहित होती है। उसे संविधान के अनुरूप कार्य करने के लिए किसी से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होती इसलिए वह आम जनता के हितों, उनकी सुख, सुविधाओं और देश की एकता, आखण्डता का प्रहरी होता है। उसकी जवाबदेही किसी राजनेता के प्रति नहीं, संविधान के प्रति होती है। उन्हें अपने दायित्वों के निर्वहन के लिए किसी के भी सामने झुकने या दबने के लिए कोई कानून मजबूर नहीं कर सकता परन्तु उनका तात्कालिक निजी स्वार्थ उन्हें अपनी पदीय प्रतिबद्धता, निष्ठा एवम ईमानदारी के साथ समझौता करने को विवश करता है। जानबूझकर चुप रहना और सब कुछ जानते समझते हुये भी यथास्थिति का समर्थन करना भी भ्रष्टाचार है जो रूपये के लेनदेन से ज्यादा गम्भीर एवम घातक है। मायावती के मुख्य मन्त्रित्व के कार्यकाल में तत्कालीन जिलाधिकारी ने मुझे जिला शासकीय अधिवक्ता (दीवानी) का अतिरिक्त कार्यभार सौंपने का आदेश पारित किया था परन्तु तीसरे ही दिन तत्कालीन स्वास्थ्य मन्त्री के अनुचित दबाव मेें उन्होंने अपना ही आदेश रद्द कर दिया जबकि सभी प्रकार की जाँच और प्रक्रियागत औपचारिकतायें पूरी करने के बाद आदेश जारी हुआ था। 
वास्तव में आई.ए.एस.अधिकारियों ने खुद अपनी गरिमा गिराई है। आपातकाल के दिनों में श्री एस.पी. वातल कानपुर के कलक्टर थे। उस समय के एक ताकतवर मन्त्री के स्वागत के लिए वे एयरपोर्ट पर उपस्थित नहीं हुये। इस पर मन्त्री जी की नाराजगी का उत्तर देते हुये  उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि आपके स्वागत के लिए कलक्टर की उपस्थिति आवश्यक नहीं है। प्रोटोकाल के तहत ए.सी.एम. वहाँ उपस्थित था। इस बातचीत के बाद फोन भी स्वयं उन्होंने काट दिया। आई.ए.एस. अधिकारियों में इस प्रकार का साहस अब नहीं दिखता। किसी पद विशेष पर जमें रहने हेतु सम्बन्धित मन्त्री के निजी हितों के लिए अपनी पदीय जिम्मेदारियांे के साथ समझौता करना आज अधिकारियों की आदत हो गई है। वे मन्त्री के आगे नतमस्तक होते समय शर्माते भी नहीं है। राजनेताओं और नौकरशाही के गठजोड़ के कारण देश के सार्वजनिक हितों की अनदेखी हुई है और अरबो, खरबो के घाटाले हुये है इसलिए आई.ए.एस. एसोसियेशन को किसी प्रकार का सार्वजनिक उपदेश देने के पूर्व अने सदस्यों के आचरण को निष्पक्ष पारदर्शी और प्रमाणिक बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास प्रारम्भ करना चाहिये ताकि उनकी बिरादरी मंे शामिल हो रहे प्रशिक्षु आई.ए.एस. अधिकारी चुनाव आयुक्त श्री एस.एल.शकधर और श्री टी.एन.षेसन के बीच का अन्तर समझ सके। जिस दिन नये अधिकारियों को इस अन्तर का महत्व और प्रभाव समझ में आ जायेगा और वे इसे अपने जीवन में अपना लंेगे, तब फिर कोेई राजनेता मन्त्री या जाँच एजेन्सी उन्हें उत्पीड़ित करने के बारे में सोच भी नहीं सकेगी। 
आई.ए.एस. एसोसियेशन के सदस्यों को 1991 बैच के आई.ए.एस. अधिकारी श्री प्रमोद कुमार तिवारी की पुस्तक ” उफ्फ “ पढ़नी चाहिये जिसमें उनका मुख्य सचिव पात्र कहता है कि ............... अब तो मैं बिना किसी शंका या झिझक के यह मानता हूँ कि देश की यह सर्वोच्च सिविल सेवा बहुरूपियों की एक जमात है, जो एक अनिश्चित और अस्थिर किस्म के जुगाड़-तन्त्र में विश्वास करती है। ईमानदारी, निर्वैक्तिकता, तटस्थता, आत्म-सम्मान, नियमानुवर्तिता, विधिसम्मतता इत्यादि अब इस सेवा के मूल्य नहीं रहे या ज्यादा ठीक यह कहना होगा कि जुगाड़ के आधारभूत मूल्य के अधीन हो गये है। हर अधिकारी अपनी महत्वाकांक्षाओं, चारित्रिक प्रवृत्तियों और जुगाड़ की क्षमताओं के अनुसार उन्हंे अपना लेता या उपेक्षित कर देता है...............। अवैतनिक सचिव महोदय आप और आपके जैसे प्रभावशाली लोग जिस दिन यह फैसला कर लेंगे कि लोकतन्त्र में राजनीति से अधिक महत्वपूर्ण संस्थायें होती है और नौकरशाही के आधारभूत मूल्यों की सुरक्षा राजनेता नहीं संस्थागत व्यवस्थाएँ ही सुनिश्चित कर सकती है। इन शब्दों में आई.ए.एस. एसोसियेशन की प्रत्येक शिकायत का समाधान निहित है।  

Sunday, 21 August 2016

जूरी ट्रायल आज भी प्रासंगिक है


फिल्म रुस्तम ने दशको पुराने ”नानावती ट्रायल“ और आपराधिक विचारणों में ”जूरी सिस्टम“ की यादें ताजा कर दी है और सार्वजनिक बहस का एक नया आयाम खोला है। ”जूरी सिस्टम“ पर भ्रष्टाचार और जातिवाद के आरोप उसकी शुरुआत से उसकी समाप्ति तक लगते रहे है और शायद इन्हीं आरोपों के कारण ”नानावती ट्रायल“ के प्रेसाइडिंग जज आर.बी.मेहता ने जूरी के फैसले से असहमति जताते हुए उसे पुर्नविचार के लिए उच्च न्यायालय को संदर्भित किया था और उस समय के कानूनी जानकारों ने जूरी के फैसले को ”परवर्स वरडिक्ट“ बताया था। 
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ 18वीं शताब्दी मे जूरी सिस्टम ने भारत में प्रवेश किया। भारत में रह रहे यूरोपियन नागरिकों को ”नेटिव जस्टिस“ का अहसास कराने के लिए जूरी एक्ट 1926 में पारित किया गया। भारत में पूरी तरह ब्रिटिश राज स्थापित हो जाने के बाद 1861 में भारतीय दण्ड संहिता और 1882 में दण्ड प्रक्रिया संहिता बनाई गई और इसके द्वारा जूरी सिस्टम ने औपचारिक रूप से भारत में प्रवेश किया लेकिन इसका लाभ केवल यूरोपियन्स को ही मिलता था। उस दौर में भी ”जूरी सिस्टम“ की आलोचना की जाती थी परन्तु यूरोपियन्स नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर इस सिस्टम को बरकरार रखा गया।
स्वतन्त्र भारत में संविधान लागू हो जाने के तत्काल बाद ”जूरी सिस्टम“ के समाप्त करने की माँग तेजी से बढ़ी। मद्रास के संसद सदस्य एस.वी.रामास्वामी ने अगस्त 1953 में लोकसभा में एक निजी विधेयक प्रस्तुत करके इस सिस्टम को समाप्त करने की माँग की थी परन्तु तत्कालीन सरकार द्वारा समर्थन न किये जाने के कारण उनका विधेयक पास नहीं हो सका। तत्कालीन केन्द्र सरकार सम्पूर्ण न्याय के लिए इस सिस्टम को लाभप्रद मानती थी। गृह मन्त्री के. एन. काटजू आपराधिक विचारण में ”जूरी सिस्टम“ के हिमायती थे और उन्होंने इस सिस्टम को प्रत्येक स्तर पर लागू करने का प्रयास किया था परन्तु व्यापक विरोध और कानून व्यवस्था राज्य का विषय होने के कारण वे अपने प्रयासो में सफल नहीं हो सके। 
”जूरी सिस्टम“ को लागू करा पाने में गृह मन्त्री की विफलता के बाद केन्द्र सरकार ने इस सिस्टम को अपने प्रदेशों में लागू करने या न करने का अधिकार राज्यों को दे दिया था। उत्तर प्रदेश और बिहार ने अपने राज्यों में तत्काल इसे समाप्त कर दिया। पंजाब प्रान्त ने भी इसका अनुसरण किया। वर्ष 1956 में खुद बाम्बे स्टेट ने अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत इसे समाप्त कर दिया था परन्तु ग्रेटर बाम्बे ने अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत इसे बनाये रखा परन्तु नानावती ट्रायल के ”परवर्स वरडिक्ट“ के कारण ग्रेटर बाम्बे ने भी इसे अपने यहाँ समाप्त कर दिया है। हलाँकि नानावती ट्रायल के दौरान लाॅ कमीशन आफ इण्डिया ने ”जूरी सिस्टम“ की सार्थकता पर गम्भीर सवाल उठाते हुए इसे समाप्त करने की सिफारिश की थी परन्तु यह सिस्टम 1974 में नई दण्ड प्रक्रिया संहिता लागू होने तक कई स्थानों पर आपराधिक विचारणों में आजमाया जाता रहा है। पारसी समुदाय के लोग आज भी अपने वैवाहिक विवादों को ”जूरी सिस्टम“ के माध्यम से सुलझाते है।
     ”नानावती ट्रायल“ में जूरी द्वारा अपनी प्रेमी की हत्या के आरोपी कामाण्डर कवास मानेक शाॅ नानावती को निर्दोष घोषित किया जाना उस समय के विद्वानों के दृष्टि में न्यायोचित नहीं था सभी ने उसे ”परवर्स वरडिक्ट“ बताया था और यही ”जूरी सिस्टम“ की समाप्ति का तात्कालिक कारण बना था परन्तु अब फिल्म रुस्तम ने         ”जूरी सिस्टम“ की प्रासंगिकता पर एक नई बहस की शुरुआत का अवसर दिया है। ”जूरी सिस्टम“ पर भ्रष्टाचार, जातिवाद और पक्षपात के आरोप आम हो गये थे। अपने देश की आपराधिक न्याय प्रशासन की वर्तमान व्यवस्था भी इन आरोपों से अछूती नहीं है ऐसी दशा में नये सिरे से ”जूरी सिस्टम“ को लागू करने पर विचार किया जाना समय की जरूरत है।   

Sunday, 14 August 2016

अदालती कार्यवाही को हास्य का विषय न बनायें


आज बच्चो की जिद पर रुस्तम पिक्चर देखी। पिक्चर की मूल थीम अदालती कार्यवाही पर आधारित है। फिल्मी स्टाइल में अच्छा चित्रांकन किया गया है परन्तु अदालती कार्यवाही वस्तुस्थिति के एकदम विपरीत दिखाई गई है। अदालत के अन्दर आपराधिक विचारण के दौरान अभियुक्त को किसी भी तरह परीक्षित नहीं किया जाता। इसलिए शासकीय अधिवक्ता द्वारा अभियुक्त से प्रतिपरीक्षा का कोई प्रावधान नहीं है। इस पिक्चर में शासकीय अधिवक्ता को अभियुक्त से जिरह करता हुआ दिखाया गया है और दोनों पक्षों की साक्ष्य समाप्त हो जाने के बाद विवेचक एक नई साक्ष्य लेकर आ जाता है। एक महिला गवाह से उसके विवाहेतर सम्बन्धों के बारे में प्रश्न पूँछा जाता है। अपनी विधि महिला के चरित्र से सम्बन्धित प्रश्नों को पूँछने की इजाजत नहीं देती। इस प्रश्न पर अदालत की आपत्ति दिखायी जानी चाहिए थी ताकि आम महिलाओं को जानकारी हो जाती कि उनसे जिरह के दौरान उनके चरित्र पर लाँछन लगाने वाले सवाल पूँछा ही नहीं जा सकता। इस जानकारी के सहारे आवश्यकता पड़ने पर वे खुद आपत्ति जता सकती। अभियोजन साक्ष्य समाप्त हो जाने के बाद न्यायिक अधिकारी द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत अभियुक्त से कुछ सवाल पूँछे जाते है जिनके उत्तर न्यायाधीश खुद अपने हाथ से लिखते है। पिक्चर में इस प्रक्रिया को दिखाया गया है परन्तु उसे शासकीय अधिवक्ता और अभियुक्त के बीच बहस का विषय बनाकर दिखाया गया है जो एकदम नाटकीय है ऐसा होता ही नहीं। पिक्चर में नाटकीयता स्वाभाविक है परन्तु अदालती प्रक्रिया का अवास्तविक नाटकीय प्रदर्शन अच्छी बात नहीं है। नाटकीयता से अदालती कार्यवाही के बारे में गलत जानकारियों का आदान प्रदान होता है। पिक्चर आम लोगों को जानकारी देने का माध्यम भी है इसलिए मुझे लगता है कि अदालती कार्यवाही का वस्तुस्थिति आधारित प्रदर्शन किया जाना चाहिए ताकि वास्तविक जीवन में आम लोगों को उसका लाभ मिल सके। अदालती कार्यवाही को  किसी भी दशा मंे हास्य का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। इस प्रकार के प्रयासो को हतोत्साहित करना समय की जरूरत है।

Saturday, 11 June 2016

चिट्टी न कोई सन्देश न जाने तुम कहाँ गये


मेरा बेटा, भाई, मित्र, सहयोगी दुर्गेश नन्दन शुक्ल एडवोकेट इस दुनिया को छोड़़कर न जाने कहाँ चला गया, हम तो आखिरी बार उसे देख भी नहीं पाये, भगवन किस अपराध की सजा मुझे दी है, पूरी दुनिया जानती और मानती है कि आप जो कुछ भी करते है, अच्छा करते है, अच्छे के लिए करते है लेकिन हम सब नहीं जानते और जान भी नहीं पा रहे है कि अनन्या के जीवन से पिता और अंजली के जीवन से उसके पति की छाया हट जाने से क्या अच्छा होने वाला है, भगवन जो हुआ सो हुआ लेकिन अब अंजली, अनन्या उनके पिता, भाई, भाभी और अंजली के पिता को इस दारुण दुख को सहने की शक्ति दो, हम सब आपके बच्चे है हम सबसे जो कुछ भी अपराध हो गया हो उसके लिए क्षमा कर दो, भगवन और अब सुनिश्चित करो कि अनन्या को पिता का अभाव उसे उसके सपनों को साकार करने में बाधक न बनने पाये, भगवन हम सबकी इस विनती को मान लो, मान लो, मान लो..........।

Saturday, 21 May 2016

बिटिया रानी तुम मुझे क्षमा करना



बिटिया तुम्हारी मृत्यु पर तुम्हारे स्कूल की एक सहेली ने मुझसे पूँछा है कि क्या निश्छल प्रेम का यही अन्त होता है ? मैंने उसे इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया लेकिन मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि निश्छल प्रेम का कोई रास्ता आत्महत्या की ओर नहीं जाता। सभी रास्ते त्याग, समर्पण और अनन्त सुख शान्ति की ओर ले जाते है। बिटिया अपना जीवन अपने प्यार के लिए न्योछावर करना निश्छल प्रेम की पराकाष्ठा है। किसी के प्यार में अपना जीवन न्योछावर करना बड़े साहस की बात है और उसके लिए हमें तुम पर गर्व है। अपने विद्यार्थी जीवन के मित्र के साथ तुम्हारी दोस्ती निकटता या अन्तरंगता एकदम निजी पवित्र और स्वाभाविक थी और हम सब लोगों ने उस पर कभी कोई आपत्ति नहीं की लेकिन पिछले दिनों उसके आचरण ने तुम्हें किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में पहुँचा दिया था और किंकर्तव्यविमूढ़ता में तुमने हमें अनसुना किया। तुम्हें समझा न पाने की खीझ में मैंने तुमसे कुछ ही दिन पहले कहा था कि जिसके लिए तुम मरना चाहती हो उसे तुम्हारे मरने के बाद कोई फर्क नहीं पड़ेगा बल्कि राहत महसूस करेगा। मेरी इस बात की संवेदना तुमने समझी थी इसीलिए तुमने अपने सुसाइड नोट में इसका जवाब दिया और पूँछा है कि जब कोई साँस ही बन जाये तो क्या उसके बिना जिया जा सकता है ? हम सबके पास तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान था, तुम्हारी सहेलियों ने तुम्हें अपने अपने तरीके से बताया भी था परन्तु तुमने सबको अनसुना किया। यह सच है कि 6 मई को तुमने अपना निर्णय हमें बता दिया था परन्तु तुम्हारी बातों में छिपे तुम्हारे निर्णय को समझ न पाना एक पिता के नाते मेरी सबसे बड़ी असफलता है। बिटिया तुम मुझमें अपना पिता खोज रहीं थी और मैं तुम्हें अपनी बिटिया की सहेली मानकर तुमसे बातें करता रहा और इसी कारण एक पिता के नाते मैं तुम्हारी असुरक्षा और अकेलेपन को समझ नही सका। नेहा कई दिनों से तुम्हें बँगलौर से कानपुर लाने के लिए कह रही थी लेकिन मुझे अपने आप पर विश्वास नही था कि तुम हमारी बात मान लोगी। दाह संस्कार के समय तुम्हारे आफिस के लोगों ने मुझे जो कुछ बताया, उसने मुझे झकझोर दिया। तुम्हारा मुझपर असीम विश्वास था लेकिन मैंने तुम्हें तुम्हारी असुरक्षा और अकेलेपन से निजात दिलाने के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं किया और तुम्हें सम्मानजनक जीवन की सुरक्षा का विश्वास नहीं दिला पाया और यह पीड़ा अब मुझे जीवन भर सतायेगी।
बिटिया तुम अपने छोटे भाई बहनों और सहकर्मियों के लिए आदर्श थी और सदा रहोगी। तुमने केवल अपनी मेहनत और कुशलता के बल पर बँगलौर जैसे शहर में अपनी पहचान बनायी। अपने आपको आत्मनिर्भर बनाया। भाई भाभी से व्यथित अपनी माँ को अपने साथ बँगलौर ले आयी, वृद्धावस्था की बीमारियों के दौरान उनकी सेवा शत्रुषा की और उनकी गरिमा के अनुकूल उन्हें भरपूर सुख, सुविधायें उपलब्ध करवायी। बिटिया तुमने नौकरी के लिए कई साक्षात्कार दिये थे और कई रिजेक्शन भी झेलें थे परन्तु उन दिनों तुम्हारा विश्वास कभी कमजोर नहीं हुआ। तुमने हिम्मत के साथ अप्रिय स्थितियों का सामना किया और फिर तुम्हारा अभीष्ट तुम्हें प्राप्त भी हुआ। नौकरी में सफलता तुम्हें तुम्हारे प्रबल आत्मविश्वास और मेहनत के बल प्राप्त हुई थी इसलिए हम सब सोच भी नहीं सकते थे कि कोई एक लड़का तुम्हारे लिये जीवन का अन्तिम सत्य बन जायेगा और उसके प्रति अपने समर्पण के लिए तुम अपनी माँ को भूल जाओगी, अपनी माँ के लिए तुम्हारी चिन्तायें खत्म हो जायेंगी। अपना जीवन न्योछावर करने के पूर्व तुमने एक बार भी अपनी माँ के बारे में नहीं सोचा ? जबकि सुबह 4 बजे तुम्हारी नेहा से बात भी हुई थी और तुमने उसे कुछ भी अहसास नहीं होने दिया। बिटिया तुम्हारे पोस्ट मार्टम से दाह संस्कार के बीच और फिर बँगलौर से कानपुर के लिए चलने के दौरान बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ जिससे पता चला कि वास्तव में तुम अकेली थी, असुरक्षा बोध से ग्रसित थी और हम सब तुम्हारी भावनात्मक परिस्थितियों और तुम्हारे मन को समझे बिना ज्ञान गंगा बहा रहे थे। कर कुछ नहीं रहे थे इसलिए अपनी परिस्थितियों,   सोच और समझ में तुमने जो निर्णय लिया उसके लिए मैं तुम्हें कतई दोषी नहीं मानता। तुम निर्दोष हो। दोषी तो मैं हूँ जो 8 अप्रैल 2016 से 6 मई 2016 के बीच केवल बातें करता रहा।  अपनी बिटिया और उसकी व्यथा को समझ नहीं पाया और पिता के नाते अपनी बिटिया को सर रखकर रोने के लिए अपना कन्धा भी उपलब्ध नहीं करा सका। बिटिया रानी तुम मुझे क्षमा करना, तुम्हारा शरीर जलकर राख हो गया है लेकिन तुम्हारी आत्मा, तुम्हारी भावनायें हमारे आस पास है। हम सबके लिए तुम जिन्दा हो और जिन्दा रहोगी। भगवान तुम्हारी आत्मा को सुख शान्ति प्रदान करें।

Wednesday, 11 May 2016

प्लीज बेटा अब किसी लड़की से प्यार मत करना



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Sunday, 1 May 2016

मजदूर दिवस नहीं मजबूर दिवस




8सम्पूर्ण विश्व में आज मजदूर दिवस की धूम है। कल मजदूर दिवस की पूर्व संध्या पर आल इण्डिया टेªड यूनियन काँग्रेस ( इण्टक ) के बैनर तले मुझे उनके आन्दोलनो में योगदान के लिए सम्मानित किया गया है। विश्व के अन्य देशों की जानकारी मुझे नहीं है परन्तु अपने भारत में मजदूरों की दशा नित्य प्रति दयनीय होती जा रही हैं उन्हें यूनियन के रूप से संघटित होने और अपने कमाये वेतन के भुगतान के लिए भी अदालतों का सहारा लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है। सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में भी मजदूरों को उनके विधिपूर्ण अधिकारों से वंचित रखने की साजिश रची जाने लगी है जो लो कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के प्रतिकूल है।

अपने कानपुर में सबसे पहली मजदूर यूनियन की नींव कपड़ा मिल के मजदूर पण्डित कामदत्त ने वर्ष 1918 में रखी थी जबकि राष्ट्रीय स्तर पर पहली अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन काँग्रेस की स्थापना सन् 1920 में हुई थी अर्थात कानपुर ने ट्रेड यूनियन के क्षेत्र में सम्पूर्ण भारत को एक दिशा दी थी। वेतन में बढ़ोत्तरी और अपनी यूनियन को मान्यता दिये जाने की माँग को लेकर जुलाई 1937 में कानपुर की एक ब्रिटिश स्वामित्व वाली कपड़ा मिल में मजदूरों की हड़ताल, मजदूर आन्दोलन का शानदार उदाहरण है। इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिए उस समय के कम्यूनिष्टों, सोशलिस्टो और स्थानीय काँगे्रस कमेटी ने सक्रिय भूमिका निभाई और उसके परिणाम स्वरूप कानपुर और आस पास के इलाकों में आम हड़ताल का माहौल हो गया। इस हड़ताल के दबाव में तत्कालीन संयुक्त प्रान्त ( उत्तर प्रदेश ) की सरकार को श्री राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक जाँच समिति का गठन करना पड़ा और फिर मजदूरों की कई माँगों को स्वीकार भी किया गया। कानपुर की इस हड़ताल ने सम्पूर्ण भारत में मजदूरों के संघर्ष के लिए माॅडल का काम किया और इसने साम्राज्यवादियों की चूलें हिला दी थी और उससे स्वतन्त्रता आन्दोलन को भी ताकत मिली परन्तु आज कानपुर का टेªड यूनियन आन्दोलन जुझारू नेतृत्व के अभाव में दम तोड़ रहा है। 
कपड़ा मिलों की बन्दी के बाद अब कानपुर में ” हर जोर जुल्म के टक्कर मे संघर्ष हमारा नारा है “ ” दम है कितना दमन में तेरे देख लिया और देखेंगे “ का उद्घोष नहीं सुनाई पड़ता। दादा नगर आदि इण्डस्ट्रियल क्षेत्रों में अब मजदूरांे के लिए सभा करना सपना जैसा हो गया है। अभी कुछ ही महीने पहले लोहिया स्टार लिंगर के गेट पर सभा करने का प्रयास कर रहे सीटू कार्यकर्ताओं को स्थानीय पुलिस ने गिरफ्तार करके जेल भेज दिया था और प्रबन्धकों ने टेªड यूनियन कार्यकर्ताओ को नौकरी से हटा दिया परन्तु हम कानपर के लोग इस असंवैधानिक कार्यवाही के विरुद्ध कोई आन्दोलन खड़ा नहीं कर सके। इस सबके कारण असंघटित क्षेत्र के मजदूरों का शोषण तेजी से बढ़ा है और अघोषित रूप से 8 घण्टे की जगह 12 घण्टें का कार्य दिवस हो गया है और अवकाश अधिकार स्वरूप नही सेवायोजक की कृपा पर मिलता है। मजदूरों के अनवरत संघर्ष और बलिदान के बाद मिली सुविधाओ में शर्मनाक कटौती की जा रही है।

औद्योगिक विवाद अधिनियम का उल्लंघन करके किसी को भी नौकरी से हटा देना आम बात हो गयी है। औद्योगिक विवाद उत्पन्न होने पर कन्सिलियेशन के स्तर से उसे सरकार द्वारा श्रम न्यायालय के समक्ष न्याय निर्णयन हेतु संदर्भित करने में महीनो लग जाते है और इस दौरान मजदूर बेरोजगार हो जाता है। श्रम न्यायालयों के पास सेवायोजको के अनुचित आदेशों के विरुद्ध निषेधाज्ञा का अधिकार न होने के कारण मजदूरों को तत्काल कोई राहत नही मिलती और वे आर्थिक संकटों के चक्रव्यूह में फँसकर सेवायोजकों की मनमानी के सामने आत्मसमर्पण को मजदूर हो जाते है और फिर उसके बाद संघर्ष की सभी सम्भावनायंे स्वतः नष्ट हो जाती है। केन्द्र सरकार ने उपभोक्ता अदालतों को निषेधाज्ञा का हथियार थमाकर सेवा प्रदाताओं की मनमानी को रोकने की सराहनीय पहल की है। केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरणों को भी निषेधाज्ञा का अधिकार प्राप्त है परन्तु श्रम न्यायालय इस अधिकार से वंचित है ऐसी दशा में श्रम न्यायालयों को निषेधाज्ञा के अधिकार से वंचित रखने का कोई औचित्य समझ मंे नहीं आता। समय आ गया है कि कानपुर को एक बार फिर जुलाई 1937 जैसे सशक्त आन्दोलन का रूपरेखा बनानी होगी ताकि सरकार को मजबूर किया जा सके कि वह औद्योगिक न्यायालयों को भी निषेधाज्ञा का अधिकार प्रदान करंे।
मजदूरों को कभी कोई सुविधा किसी सेवायोजक या सरकार ने स्वेच्छा से नही दी है। मजदूरो को साधारण सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करना पड़ा है और संघर्ष में कई लोगों के बलिदान के बाद सुविधायें प्राप्त हुई है परन्तु टेªड यूनियन आन्दोलन कमजोर हो जाने के कारण कानूनी संरक्षण प्राप्त सुविधाओ में भी कटौती की जाने लगी है। सरकार नियन्त्रित सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में संविदा श्रमिकों की बढ़ती संख्या इसका सबसे सशक्त उदाहरण है। कानून के तहत स्थायी प्रकृति के कार्यो को संविदा श्रमिकांे से नही कराया जा सकता        परन्तु सुरक्षा जैसा स्थायी प्रकृति का काम भी अब संविदा पर लिया जाना आम बात हो गयी है। श्रम विभाग भी इस विषय पर एकदम मौन है। वास्तव में सरकारी प्रतिष्ठानो से आदर्श नियोक्ता होने की अपेक्षा की जाती है परन्तु हुक्मरानों की उदासीनता के कारण सरकारी प्रतिष्ठान निजी क्षेत्र से ज्यादा बड़े शोषक हो गये है। तकनीकी कारणों का सहारा लेकर कर्मचारियों को उनके विधिपूर्ण अधिकारों से वंचित रखने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। सरकारी  प्रतिष्ठान नेशनल सुगर इन्स्टीट्युूट मंे कई कर्मचारी 28 वर्ष पहले श्रम न्यायालय से मुकदमा जीत गये थे परन्तु उन्हें आज तक नौकरी पर बहाल नहीं किया गया है और तकनीकी कारणों  पर उनका मामला अभी भी श्रम न्यायालय के समक्ष लम्बित है।
भारत सरकार के स्वामित्व वाली कानपुर की लाल इमली के श्रमिकांे को कई महीनों से वेतन नहीं दिया गया है परन्तु राज्य या केन्द्र सरकार ने समुचित कानूनी प्रावधान होने के बावजूद प्रबन्धकांे के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की है। सरकारी प्रबन्धतन्त्र को वेतन न मिलने के कारण मजदूरों की आर्थिक परेशानियो की कोई चिन्ता नहीं है परन्तु उन्होंने अपनी पूरी ताकत वेतन की माँग कर रहे मजदूरों के आन्दोलन को कुचलने में झोंक दी है। प्रबन्धतन्त्र ने सिविल जज सीनियर डिवीजन के न्यायालय में मुकदमा दाखिल करके मिल परिसर के आस पास श्रमिकों को एकत्र होेने से रोकने की माँग की है। सबको पता है सरकार भी जानती है कि सभा सम्मेलन करना मौलिक अधिकार है और इस पर रोक नही लगाई जा सकती परन्तु केन्द्र सरकार ने इस आशय की रोक लगाने की माँग करने का दुस्साहस करने वाले अपने अधिकारियों के विरुद्ध कोेई कार्यवाही नहीं की है।
लाल इमली जैसे संघटित क्षेत्र में मजदूरों की इस दशा को देखकर सुस्पष्ट हो जाता है कि घरों में काम करने वाली घरेलू नौकरानियो, रिक्शाचालकों, भवन निर्माण श्रमिकों और ठेले पर माल ढ़ोकर जीवन यापन करने वाले कामगरों को सरकार की तरफ से कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं दी गयी है। उन्हें उनके भाग्य पर भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है। 

Saturday, 16 April 2016

पिता का पत्र पुत्री के नाम



राधा बिटिया,
जबसे बैंगलोर से वापस आया हूँ, तुम्हारी याद कुछ ज्यादा आती है। दिन में दो बार नेहा से और दिन में कई बार आन्टी से तुम्हारी बात करनी ही पड़ती है। तुमको बैंगलोर मे देखकर मैं बहुत खुश हुआ हूँ। गर्व होता है, तुम पर। मेरी बहादुर बिटिया ने अकेले अपने दम पर अपने कैरियर की दशा दिशा सँवार ली है। तीन दिन तुम्हारे साथ रहकर तुम्हें नये सिरे से जानने, समझने का अवसर भी मिला है। बिटिया मैंने तुम्हंे देखकर समझा है कि जीवन मे कैरियर ही सब कुछ नहीं होता। कैरियर की आपाधापी ने परिजनों का स्नेहमयी सानिध्य और माता पिता का लाड़, प्यार छीन लिया है। इसीलिए तुम अपने आपको अकेला पाती हो और उसी कारण परेशान और उद्वेलित हो। तुम्हारे इस अकेलेपन के अहसास के लिए मैं खुद भी जिम्मेदार हँू। बैंगलोर में जिस समय तुम कैरियर के लिए संघर्षरत थीं उस समय मैं तुमसे फोन पर बात तो करता था परन्तु शायद मैंने तुम्हें विश्वास नहींे दिलाया कि बिटिया जीवन के हर मोड़ पर मैं तुम्हारे साथ हूँ, तुम अकेली नहीं हो मेरी दो बिटिया है और उनमें से एक तुम। राधा तुम्हें अपनी बिटिया होने का अहसास मैं नही करा पाया, यह सरासर मेरी गलती है और मेरी इसी गलती के कारण तुम आज एक भावनात्मक भँवर में फँस गई गयी हो लेकिन राधा पहले जो हुआ सो हुआ अब तुम अकेली नहीं हो। दुनिया की कोई भी ताकत तुम्हारा अपमान नहीं कर सकती और न तुम्हें परेशान कर सकती है। देखो मैं तुमसे तुम्हारी शादी को लेकर बातें करता रहता था परन्तु तुम्हारे जवाब से संतुष्ट हो जाना मेरी गलती थी। बेटा मैं यहीं चूक गया और बिटिया मेरी एक भावनात्मक भँवर में घिर गई। बेटा तुम बहादुर हो, कुशाग्र हो अपनी मंजिल पहचानती हो, इसलिए उठो जागो और अपने आपको पहचानो। तुम वही राधा हो जिसके पास बैंगलोर में कोई अपना नहीं था किसी से परिचय नहीं था। उस समय तुम्हारे पास केवल बी.टेक. की डिग्री और अपनी हिम्मत के अलावा कुछ भी नहीं था। उस समय तुम वास्तव में अकेली थी परन्तु तुमने उस अकेलेपन और असहाय की स्थिति में नौकरी ढ़ँूढ़ी, उसमें प्रतिष्ठा कमाई, आज तुम्हारी कम्पनी तुम्हें पहचानती है। देखो कुछ ही दिन पहले तुम्हें प्रमोशन मिला, तुम्हारी सैलरी बढ़ी, आज तुम हमसे ज्यादा कमा रही हो। कम्पनी में सब लोग काम के प्रति तुम्हारी लगन और निष्ठा की कद्र करते है। तुमने हम सबको गौरवान्वित होने का अवसर दिया है। बेटा तुम एक सामान्य लड़की नहीं हो। याद करो बी.टेक. के अन्तिम वर्ष की परीक्षा के प्रथम दिन तुम्हें अपने पिता को खोने का दारुण दुख झेलना पड़ा था, उस दौरान घर में केवल आँसू थे, उस दौरान तुमने कुछ भी नहीं पढ़ा केवल रोते रहे लेकिन परीक्षा में शामिल हुए और पास हुए। तुम्हें याद हो या न याद हो मुझे याद है कि उन दिनों तुमने अपने आँसुओं को सुुखाकर अपनी माँ के आँसू पोछे और उन्हें विश्वास दिलाया था ” कि मम्मी पापा नही तो क्या ?, हम तो है “ राधा तुमने पूरी जिम्मेदारी के साथ बेटा बनकर अपने इस वायदे को साकार भी किया है। बेटा तुम अपनी माँ को उनकी बीमारी के कारण बैंगलोर से कानपुर हवाई जहाज से लाती हो। कभी सोचा है ? उन्हें कितना सुख मिलता है ? जो बेवकूफी तुम करने जा रही थी उसे क्या वे झेल पाती ? बेटा तुम्हारी जैसी बेटियों ने ही सिद्ध किया है कि शादी करना, घर बसाना और फिर देश की जनसंख्या में कुछ वृद्धि कर देना, जीवन का अन्तिम सनातन सत्य नहीं है। अपनी मेहनत, ईमानदारी और कुशलता के बल पर जीवन में अपनी एक अलग पहचान बनाना और उस पहचान के द्वारा अपने छोटे भाई, बहनों के लिए अनुकरणीय बनना जीवन का सही लक्ष्य है। बेटा राधा तुम अपने जीवन में इस लक्ष्य के करीब हो तुम्हारी दशा दिशा एकदम सही हैं। तुम पर मुझे गर्व है लेकिन पिछले दोे दिनों में तुमने मुझे निराश किया है। एक रूटीन जरूरत के लिए किसी के सामने रोज रोज रोना झगड़ना और फिर खुद को चोट पहुँचाना बुद्धिमानी नहीं है, एकदम बेवकूफी है। बेटा जो तुम सोच रहे हो वह सही हो सकता है लेकिन जीवन का अन्तिम सत्य नहीं है। मानकर चलो जो अपने मन का हो वह अच्छा है लेकिन जो अपने मन का न हो वो उससे ज्यादा अच्छा है क्योंकि जो अपने मन का नहीं होता वो भगवान के मन का होता है और भगवान कभी हमारे लिए बुरा नहीं करता इसलिए अपने आप पर, अपनी मेहनत पर और अपने परिजनों के आशीर्वाद पर विश्वास रखो। हम, नेहा हनी और आन्टी सदा तुम्हारे साथ है, बेटा तुम अकेले या अनाथ नही हो। हम सब तुम्हारे है, तुम हमारी हो। हम सब और तुम एक घर है, परिवार है और तुम्हारी हर समस्या हम सबकी समस्या है। हम सब मिलकर उसका साझा समाधान खोजेंगे और तुम्हें हर हालत में खुश रखेंगे। बेटा अब उठो और मन ही मन मेरे कन्धें पर अपना सर रखकर आँसू पोछ लो और तुरन्त फोन पर बात करो।

Tuesday, 15 March 2016

आरक्षण आरक्षण आरक्षण


आज आरक्षण का विरोध और उसको आर्थिक आधार पर दिये जाने की वकालत करना फैशन हो गया है। कोई मानने को तैयार नहीं है कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन की व्यवस्था नही है। हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने सदियों से शोषित पीडि़त समाज को समानता का अहसास कराने और समाज में उनको समुचित प्रतिनिधित्व देने के लिए संविधान के द्वारा आरक्षण की व्यवस्था की थी। कुछ मुठ्ठी भर लोगों को छोड़ दिया जाये तो आरक्षण की परिधि में आने वाले समाज का अधिसंख्य आज भी शोषित पीडि़त है और उसे उसके विधिपूर्ण अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है। उसे बराबरी का स्थान देने को कोई तैयार नहीं है जबकि उसके द्वारा दी जा रही सेवाओं का कोई विकल्प नहीं है और उन सेवाओं के अभाव मंे जन जीवन अस्त व्यस्त हो सकता है। ऐसी ही सेवायें देने वाले लोगों के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत पहले कहा था कि मैनहोलो की सफाई के दौरान मरने वाले सफाई कर्मचारियों के परिजनों को 10 लाख रूपया मुआवजा दिया जाये परन्तु केन्द्र सरकार या विभिन्न दलों की किसी राज्य सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का अनुपालन नहीं किया और आज भी केवल 60 हजार रूपये मुआवजा दिया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि समुचित सुरक्षा प्रबन्धों के अभाव में किसी कर्मचारी को सीवर की सफाई के लिए मैनहोल में उतारना अपराध घोषित किया जायंे परन्तु आज तक इस दिशा में कोई कार्यवाही नही की गयी है। कोई राजनैतिक दल या आरक्षण विरोधी इसकी चर्चा भी नहीं करता। स्वच्छता अभियान के नाम पर टाइल्स लगी फर्शो पर झाड़ू लगाने का स्वाँग रचकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेने वाले राजनेताओं ने मैनहोल की सफाई करने वाले कर्मचारियों के जीवन और स्वास्थ्य की रक्षा के लिए कानून बनाने की दिशा में आज तक कोई सकारात्मक पहल नहीं की हैै अगर कभी सफाई कर्मचारियों ने आरक्षण छोड़ देने के साथ साथ यह भी मन बना लिया कि अब हम सीवर की सफाई के लिए मैनहोल में नहीं उतरेेंगे तो क्या होगा ? कभी सोचा है ? और यदि आज तक नहीं सोचा है तो आर्थिक आधार पर आरक्षण की मुहिम चलाने के पहले एक बार इस बात पर जरूर विचार कर लें। सोचते ही रोंगटे खड़े हो गये होंगे। 

Monday, 8 February 2016

अहसास! 61 वर्षीय युवा होने का



आप सबकी शुभेच्छाओं, आशीर्वाद और मार्गदर्शन के सहारे मेरे जीवन के संध्याकाल का भी एक वर्ष हँसी खुशी बीत गया। भारतीय विद्यालय इण्टर कालेज में राजीव शुक्ला, दिलीप शुक्ला, संजीव सारस्वत, सुरेश गर्ग, रजनीकान्त, गंगा प्रसाद जैसे स्कूली दोस्तों के साथ तत्कालिक राजनैतिक विषयों पर वाद विवाद के दौरान नित्यप्रति होती नोक झोंक, छात्र संघ चुनाव का प्रचार अभियान, आपातकाल का जेल जीवन, मजदूर के रूप में कैरियर की शुरुआत और फिर मिल बन्दी के वाद कचहरी में भविष्य तलाशतें प्रयास जब भी याद आते है, तो लगता है कि जैसे सब कुछ कल की ही बात हो। इनकी मधुर स्मृतियाँ सदैव उत्साहित बनाये रखती है।
मैं एक मजदूर परिवार के पैदा हुआ था। कक्षा 12 की पढ़ाई के दौरान पिता जी की फैक्ट्री बन्द हो गयी, पढ़ाई में अवरोध पैदा हुआ। मेरे निकटतम मित्रों ने उन्हीं दिनांे पत्रकारिता में अपना कैरियर शुरु किया और मुझे एक मिल मजदूर के रूप में अपना कैरियर शुरु करना पड़ा लेकिन आप सबकी शभेच्छाओं ने उन दिनों भी अन्य किसी की तुलना में अपने आपको कमतर होने का अहसास नहीं होने दिया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने नौकरी के साथ पढ़ाई जारी करने का माहौल दिया, उत्साह बढ़ाया, सपने देखने और उन्हें साकार करने का अवसर दिया। टेªड यूनियन गतिविधियों में सक्रियता ने मेरी सम्भावनाओं को सीमित किया, उन दिनांे स्थिरता का अहसास होने लगा था लेकिन इसी बीच केवल कुछ दिनों के लिए प्रदेश में विधि मन्त्री हो गये श्री शिव प्रताप शुक्ल ने मेरी ज्ञात-अज्ञात अकुशलताओं को सहर्ष अनदेखा करके मुझे शासकीय अधिवक्ता बनाकर मेरे लिए नई सम्भावनाओं के द्वार खोल दिये और उसके तत्काल बाद श्री राजीव शुक्ला सांसद हो गये और उन्होंने भारत सरकार की तरफ से भारत सरकार के लिए वकालत करने का अवसर दिलाया।  इन अवसरों ने मुझे एक नया आकाश और उसमें उड़ने के लिए ऊर्जा दी, मेरे मजदूर होने की पहचान मिटा दी। 
नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेन्सी (एन.आई.ए.) ने सम्पूर्ण देश में आतंकवादी अपराधों से सम्बन्धित विशेष न्यायालयों के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए 33 स्पेशल पब्लिक प्रासीक्यूटर्स का चयन किया है, अपने संध्याकाल में उसमें चुने जाने का सौभाग्य मुझे भी मिला है। मंै नहीं जानता कि कल क्या होगा? लेकिन आज के दिन मेरे पास शर्मिन्दगी, पाश्चाताप या असंतुष्टि का कोई कारण नहीं है आर्थिक समृद्धि मकान, दुकान, मँहगी कार कभी मेरे एजेण्डे में नहीं रही। एक भले मानुष के रूप में अपनी पहचान बनाये रखना मेरा सपना रहा जो साकार हुआ है। बिना किसी प्रयास और किसी से कुछ माँगे बिना मुझे भरपूर मान, सम्मान, यश कीर्ति मिली है। जीवन मे कोई कमी नहीं, बेटा आशुतोष इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करता है, बेटी अपराजिता इण्डिया टुडे ग्रुप की मैगजीन बिजनेस टुडे में सीनियर सब एडिटर के पद पर कार्यरत है, दोनों की अपनी स्वतन्त्र पहचान है और कई बार उनके पिता के नाते जाने पहचाने का सुख भी मिलता है। मैं अपने आप में पूरी तरह चुस्त दुरुस्त और संतुष्ट 61 वर्षीय युवा होने का अहसास करता रहता हूँ। इससे ज्यादा मुझे क्या चाहिए? मझे विश्वास है कि आप सबका आशीर्वाद और शुभकामनायें मेरे साथ है और सदा रहेंगी।