स्वायत्त संस्थानों को महत्वहीन करतीं राज्य सरकारें
संसदीय लोकतंत्र मे संसद से इतर संवैधानिक और स्वायत्त संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। राज्य सरकारों से इन संस्थानों के सम्मान की अपेक्षा की जाती है परन्तु फिल्म सेंसर बोर्ड द्वारा " पद्यावत " को सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रिलीज करने की अनुमति दिये जाने के बाद राजस्थान और गुजरात सरकार ने अपने अपने प्रदेश मे उसके प्रदर्शन पर रोक लगाने के लिए अधिसूचना जारी कर दी । मध्य प्रदेश और हरियाणा की राज्य सरकारों ने भी इस आशय की अधिसूचना जारी करने की घोषणा कर दी है जबकि सबको पता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने एस रंगराजन बनाम जगजीवन राम और प्रकाश झा प्रोडक्शन बनाम यूनियन आफ इण्डिया के मामले मे राज्य सरकारों की इस प्रकार की अधिसूचनाओं को संविधान के अनुच्छेद 19(1)ए के तहत प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रतिकूल बताया है । हलाॅकि सर्वोच्च न्यायालय ने पुन: दोनों अधिसूचनाओं को रद्द कर दिया और नई अधिसूचना जारी करने पर रोक भी लगा दी है परन्तु सवाल पैदा होता है कि राज्य सरकारों का विधि विभाग ( जिसमे निषपक्ष राय के लिए न्यायिक सेवा के अधिकारी नियुक्त किये जाते हैं ) सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों के प्रतिकूल जारी होने वाली अधिसूचनाओं को अपने स्तर पर रोकता क्यों नहीं? पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने राज्य सरकार के न्याय सचिव ( जो जनपद न्यायाधीश स्तर के अधिकारी थे) पर इसी तरह के एक मामले मे एक लाख रूपये का जुर्माना लगाया था । विधि विभाग में न्यायिक सेवा के अधिकारियों की नियुक्ति इस आशय से की जाती है कि वे राज्य सरकारों को विधि के प्रतिकूल कोई भी आदेश जारी करने से रोकेंगे इसीलिये मंत्रिमंडल की बैठक मे गोपनीयता की शपथ लिए बिना न्याय सचिव को बैठने की अनुमति दी जाती है लेकिन अनुभव बताता है कि सचिवालय मे तैनात होते ही न्यायिक अधिकारी सत्तारूढ़ दल का कार्य कर्ता बन जाता है और उससे विधि जिस स्तर की निषपक्षता और पारदर्शिता की अपेक्षा करती है , उसे भूल जाता हैऔर उसके कारण सुस्थापित विधि का उल्लंघन होता है और फिर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर होना पडता है । विभिन्न न्यायालयों के समक्ष राज्य सरकारों की मनमानी और जानबूझकर नियमों की अनदेखी किये जाने के कारण सबसे ज्यादा मुकदमें लम्बित है और इनकी पैरवी मे करोडों रूपया ब्यय होता है । इस सबको रोकने और स्वायत्त संस्थानों का महत्व बरकरार बनाये रखने के लिए राज्य सरकारों के विधि विभाग मे न्यायिक अधिकारियों की भूमिका को नये सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता है ।
संसदीय लोकतंत्र मे संसद से इतर संवैधानिक और स्वायत्त संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। राज्य सरकारों से इन संस्थानों के सम्मान की अपेक्षा की जाती है परन्तु फिल्म सेंसर बोर्ड द्वारा " पद्यावत " को सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रिलीज करने की अनुमति दिये जाने के बाद राजस्थान और गुजरात सरकार ने अपने अपने प्रदेश मे उसके प्रदर्शन पर रोक लगाने के लिए अधिसूचना जारी कर दी । मध्य प्रदेश और हरियाणा की राज्य सरकारों ने भी इस आशय की अधिसूचना जारी करने की घोषणा कर दी है जबकि सबको पता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने एस रंगराजन बनाम जगजीवन राम और प्रकाश झा प्रोडक्शन बनाम यूनियन आफ इण्डिया के मामले मे राज्य सरकारों की इस प्रकार की अधिसूचनाओं को संविधान के अनुच्छेद 19(1)ए के तहत प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रतिकूल बताया है । हलाॅकि सर्वोच्च न्यायालय ने पुन: दोनों अधिसूचनाओं को रद्द कर दिया और नई अधिसूचना जारी करने पर रोक भी लगा दी है परन्तु सवाल पैदा होता है कि राज्य सरकारों का विधि विभाग ( जिसमे निषपक्ष राय के लिए न्यायिक सेवा के अधिकारी नियुक्त किये जाते हैं ) सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों के प्रतिकूल जारी होने वाली अधिसूचनाओं को अपने स्तर पर रोकता क्यों नहीं? पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने राज्य सरकार के न्याय सचिव ( जो जनपद न्यायाधीश स्तर के अधिकारी थे) पर इसी तरह के एक मामले मे एक लाख रूपये का जुर्माना लगाया था । विधि विभाग में न्यायिक सेवा के अधिकारियों की नियुक्ति इस आशय से की जाती है कि वे राज्य सरकारों को विधि के प्रतिकूल कोई भी आदेश जारी करने से रोकेंगे इसीलिये मंत्रिमंडल की बैठक मे गोपनीयता की शपथ लिए बिना न्याय सचिव को बैठने की अनुमति दी जाती है लेकिन अनुभव बताता है कि सचिवालय मे तैनात होते ही न्यायिक अधिकारी सत्तारूढ़ दल का कार्य कर्ता बन जाता है और उससे विधि जिस स्तर की निषपक्षता और पारदर्शिता की अपेक्षा करती है , उसे भूल जाता हैऔर उसके कारण सुस्थापित विधि का उल्लंघन होता है और फिर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर होना पडता है । विभिन्न न्यायालयों के समक्ष राज्य सरकारों की मनमानी और जानबूझकर नियमों की अनदेखी किये जाने के कारण सबसे ज्यादा मुकदमें लम्बित है और इनकी पैरवी मे करोडों रूपया ब्यय होता है । इस सबको रोकने और स्वायत्त संस्थानों का महत्व बरकरार बनाये रखने के लिए राज्य सरकारों के विधि विभाग मे न्यायिक अधिकारियों की भूमिका को नये सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता है ।
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