दलबदल के लिए शीर्ष नेतृत्व खुद जिम्मेदार
विभिन्न राज्यो मे विपक्षी दल अपने विधायकों के दल बदल से पीड़ित है और इसके लिए सत्तारूढ़ दल को दोषी बताया जा रहा है जबकि सत्यता यह है कि इसके लिए सम्बन्धित दल का शीर्ष नेतृत्व खुद जिम्मेदार है । आज हर दल अपने निष्ठावान कार्यकर्ता और जिताऊ प्रत्याशी के बीच जिताऊ प्रत्याशी को वरीयता देता है इसलिए अब पन्ना लाल तांबे और मोती लाल देहलवी जैसे सामान्य पृष्ठ भूमि के कार्यकर्ताओ को कोई दल टिकट नही देता । किसी भी दल के विधायक या सांसद को नही मालुम कि वह भाजपा मे क्यो है ? सपा या बसपा मे क्यो नहीं? जीत की सम्भावनाओं को ध्यान मे रखकर दलबदल किया जाता है और शीर्ष नेतृत्व इसे बढावा देता है । एक बार मुलायम सिंह ने जनेशवर मिश्र की उपेक्षा करके किन्ही ईश दत्त यादव को राज्य सभा भेजा था । समाजवादी आन्दोलन के सूत्रधार रहे एन के नायर, रेवाशंकर त्रिवेदी, श्याम लाल गुप्त चतुर्भुज त्रिपाठी जैसे लोगों की तुलना मे जाति की राजनीति करने वालो को वरीयता दी जाती रही । बसपा ने भी शतीश चन्द मिश्र, बृजेश पाठक जैसों को वरीयता देने के लिए अपने कैडर की उपेक्षा की । वैचारिक रूप से सशक्त कार्य कर्ता आमतौर पर खुद्दार होता है और किसी का भी गुलाम नहीं होता । अपनी ही सरकार मे कोटा परमिट लेकर भ्रष्टाचार नहीं करता । अब सभी राजनेता साधन समपंन सूरजमुखियो को टिकट दिलाते है और ऐसे लोगों की कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं होती इसलिए दलबदल उनके लिए एक कारपोरेट से दूसरे कारपोरेट में नौकरी ज्वाइन करने के समान होता है ।वामपंथी दल इस बीमारी से मुक्त है उन्होंने अपने महासचिव को तीसरे टर्म के लिए राज्य सभा का चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी । उनके यहाँ आज भी बड़ा से बड़ा स्काई लैब टिकट नहीं पा सकता । भाजपा मे भी वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध कार्य कर्ताओ की उपेक्षा नहीं की जाती थी लेकिन केवल चुनाव जीतने के लिए पिछ्ले चुनावों मे उनके यहाँ भी बड़े पैमाने पर दलबदलुओ को वरीयता दी गई है ।
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